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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
प्रथम परिच्छेद... [7]
आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि की गच्छपरम्परा
भारतीय अध्यात्म परंपरा में किसी भी ऋषि-मुनि को किसी न किसी सम्प्रदाय के गुरु से दीक्षित होना आवश्यक माना जाता है, इसके अभाव में उसे प्रामाणिक नहीं माना जाता। कुछ लोगों के मन में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के गच्छ के विषय में भ्रम है किआचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि का कोई गुरु नहीं था और उन्होंने स्वयं ही दीक्षित होकर अपना मत चलाया। जब कि सत्य यह है कि आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि 'सुधर्म गण' की वज्रशाखा में चंद्र कुल में तपागच्छीय परंपरा में हुए है। अतः आचार्यश्री की गच्छपरम्परा के विषय में स्पष्टीकरण प्रस्तुत करना आवश्यक हैं। यहाँ इसलिए प्रसंगवश इनका संक्षिप्त ऐतिहासिक गच्छ परिचय दर्शाया जाता है
श्रीमहावीर स्वामी के 9 गच्छ एवं 11 गणधर थे, जिसमें 9 गणधर तो उनकी उपस्थिति में ही निर्वाण को प्राप्त हो चुके थे, और गौतमस्वामी को प्रात: केवलज्ञान की प्राप्ति होने वाली थी, अतः श्रीमहावीर स्वामी ने सुधर्मा स्वामी को संघ की समस्त व्यवस्था एवं उत्तरदायित्व दिया। वर्तमान में जो भी जितने भी साधु-साध्वी हैं वे सब सुधर्मा स्वामी की परंपरा के हैं। उनके नाम से निर्ग्रन्थ गच्छ 'सौधर्मगच्छ' (गण) के नाम से प्रख्यात हुआ
भगवान् की 9 वीं पाट पर आर्य सुहस्तिसूरिजी के शिष्य आर्य सुस्थितसूरिजी और सुप्रतिबद्ध सूरिजी हुए। उन्होंने आचार्य पद प्राप्ति के बाद काकंदी नगरी में 'सूरिमंत्र' (जैनाचार्यों ही के द्वारा जपयोग्य विशिष्ट लब्धिविद्यायुक्त महान् प्रभाविक मंत्र) का करोड बार जाप किया। जिससे सौधर्म गच्छ में इनका गच्छ 'कोटिक गण' के नाम से प्रचलित हुआ । कोटिक गण की चार शाखाओं में तृतीय व्रज शाखा हुई।
भगवान् महावीर की 13 वीं पाट पर अंतिम दशपूर्वधर युगप्रधान आचार्य श्री वज्रस्वामी हुए।60 उनके शिष्य आचार्य वज्रसेनसूरि हुए। आचार्य वज्रसेन के शिष्य आचार्य चंद्रसूरि के नाम से चंद्र कुल की उत्पत्ति हुई 12
भगवान् महावीर के सोलहवें पाट पर श्री समन्तभद्रसूरिजी हुए, जो अधिकांश वन में ही रहते थे और इसी कारण उनसे इसी परंपरा में वनवासी गच्छ उत्पन्न हुआ। वनवासी गच्छ में आचार्य श्री नेमिचंद्रसूरिजी के पट्टधर श्री उद्योतनसूरि हुए। उन्होंने आबु पर्वत की तलहटी में तेली गाँव में बलवान् ग्रह-नक्षत्र युक्त उत्तम मुहूर्त में संतानवृद्धि का सहज योग देखकर वटवृक्ष के नीचे सर्वदेव आदि आठ पुरुषों को दीक्षा दी। इससे वनवासी गच्छ में वडगच्छ उत्पन्न हुआ।64
वडगच्छ के श्री मणिरत्नसूरि जी के शिष्य श्री जगच्चंद्रसूरि हुए। आपने गच्छ में व्याप्त शिथिलाचार को दूर करने हेतु यावज्जीव अभिग्रहपूर्वक आयम्बिल 5 तप किया। इससे प्रभावित होकर मेवाड नरेश झैलसिंहजी ने वि.सं. 1285 में आपको 'तपा' (अर्थात् तप करने वाला) नामक बिरुद दिया जो आगे जाकर आपके गच्छ के साथ जुडने पर सौधर्म गच्छ...वडगच्छ तपागच्छ कहलाया।66
'तपा' शब्द 'तपस्' का अपभ्रंश है किन्तु जाति वाचक रुढ शब्द होने से 'तपा' रुप में ही प्रयुक्त होता है। कुछ लोग इसके स्थान पर 'तपस्' का प्रयोग करके '...तपोगच्छ' प्रयोग भी करते हैं। इसी तपागच्छ की परंपरा में आचार्य श्रीमद्विजयराजेन्द्र सूरीश्वरजी हुए जिन्होंने वि.सं. 1925 अषाढ वदि दशमी के दिन क्रियोद्धार के समय अपने गच्छ का नाम श्री सौधर्मबृहत्तपागच्छ रखा।
56. 57.
61.
अ.रा.पृ. 5/256; कल्पसूत्र मूल, स्थविरावली गाथा 5 एवं टीका; शासनप्रभावक श्रमणभगवंतो, पृ. 106, 107 अ.रा.भा. 7 - मुद्रण प्रशस्तिश्लोक-1 अ.रा.पृ. 5/256; वही भाग 7, मुद्रणपरिचयश्लोक 1; शासनप्रभावक श्रमणभगवंतो, पृ.133 अ.रा.पृ. 5/256; मुद्रणपरिचयश्लोक 1; शासनप्रभावक श्रमणभगवंतो, पृ.133 अ.रा.पृ. 5/256; शासनप्रभावक श्रमणभगवंतो, पृ. 148 अ.रा.पृ. 5/256; शासनप्रभावक श्रमणभगवंतो, पृ. 150 अ.रा.भा. 7; मुद्रणपरिचयश्लोक; शासनप्रभावक श्रमणभगवंतो, पृ.158 अ.रा.भा. 7; मुद्रण परिचय अ.रा.भा. 7; मुद्रणपरिचयश्लोक; शासनप्रभावक श्रमणभगवंतो, पृ.193 आयंबिल-जिसमें घी, तेल, दूध, दही, गुड-शक्कर एवं कडा विगर (तली चीज) इन छ: विगइ (विकृति) एवं हरी वनस्पति आदि के त्यागपूर्वक केवल उबला हुआ धान्य या रुखी रोटी आदि दिन में एक ही बार एक ही जगह पर बैठकर खाया जाता है उसे जैन सिद्धान्त के अनुसार 'आयंबिल' तप कहते हैं। अ.रा.पृ. 4/1383; 2185; एवं 5/256; शासनप्रभावक श्रमणभगवंतो, पृ. 229 अ.रा.भा. 7, मुद्रणपरिचय, श्लोक 2 ; संस्कृतप्रशस्ति, श्लोक ।
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श्रीमत्सौधर्मगच्छः प्रवरमतियुतः कल्पवृक्षः प्रतीतो, गच्छाचारैकचारप्रशमरसधरः सूरिमुख्यो विशालः। संसारोन्मूलनेभश्रमणगणशुभः शान्तिचारुः प्रफुल्लः, सोऽयं सौधर्मगच्छो जयति जगति वो बोधिबीजं तनोतु ॥
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