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[90]... द्वितीय परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
मुद्रण परिचय
कोश के अन्त में दिये गये मुद्रणपरिचय से यह ज्ञात होता है कि सौधर्मबृहत्तपागच्छ के आचार्य श्रीमद्विजय भूपेन्द्र सूरि (मुनि श्रीदीपविजय जी की आचार्य अवस्था का नाम) के काल में चन्द्राशाङ्ककलाधिनाथ वर्ष में अर्थात् ('अंकानां वामतो गतिः' इस सिद्धान्त के अनुसार) विक्रम संवत् 1981 के चैत्र मास कृष्ण पक्ष सप्तमी मंगलवार के दिन, जयेष्ठा नक्षत्र में रतलाम नामक नगर में इस कोश का सन्द इस विषय में जो प्रशस्ति प्राप्त होती हैं वह निम्न प्रकार से हैं
श्री सुधर्मा स्वामी से निर्ग्रन्थ गच्छ उत्पन्न हुआ,( उस गच्छ में) आर्य सुस्थितसूरि से कोटिक (कोटि) गच्छ ( उसी गच्छ में ) आचार्य चन्द्रसूरि (चन्द्रप्रभसूरि) से चन्द्रगच्छ (कुल)। उसी गच्छ में आचार्य सामन्तभद्र से वनवासी गच्छ उत्पन्न हुआ। इसी गच्छ में सर्वदेव सूरि से बड गच्छ, (उसी गच्छ में ) आचार्य जगच्चन्द्र सूरि से तपागच्छ की उत्पत्ति हुई। ( उसी परम्परा में) आचार्य श्रीमद्विय राजेन्द्र सूरि से 'सौधर्म बृहत्तपागच्छ' प्रसिद्ध हुआ। इस सौधर्मबहत्तपागच्छ के शासन की धरा को धारण करने वाले आचार्यों के समूह में अलंकार स्वस्म आजन्म निष्कलङ्कशील से शोभित देहयष्टि वाले आचार्य राजेन्द्र सूरि की अन्तिम आज्ञा से संशोधकद्वय के आज्ञाकारी शिष्यसमूह की सहायता से (इस ग्रंथराज को) संशोधित किया गया और मदापित
किया गया । व्याख्यानदक्ष, सच्चरित्र, विद्वद्गणवन्दित, साधुवृन्दपूजित, चारित्रपालक, जैनाचार्य श्रीमद्विजय धनचन्द्र आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि के पाट पर आसीन किये गये । दमयुक्त, क्षमायुक्त, पूज्यतायुक्त, प्रशमहृदय, संयम में विचरण करनेवाले, सौम्य, रम्य, गम्भीर, लोकहितैषी, श्रेष्ठ, आप्तता आदि गुणों से युक्त भूपेन्द्र सूरि ( मुनि श्रीदीपविजयजी की आचार्य अवस्था का नाम ) जब श्रीमद्विजय धनचन्द्र सूरि के पाट पर आसीन थे', उसी काल में चन्द्राशाडूकलाधिनाथ वर्ष में अर्थात् ('अंकानां वामतो गतिः' इस सिद्धान्त के अनुसार) विक्रम संवत् 1981 (कलाधिनाथ-1, अङ्क-9,आशा-8, चन्द्र-1= 1783 ) के चैत्र मास कृष्ण पक्ष सप्तमी मंगलवार के दिन, ज्येष्ठ नक्षत्र में रतलाम नामक नगर में इस कोश का स
निर्ग्रन्थगच्छ: समभूत्सुधर्माऽऽख्यात्सुस्थिताऽऽर्यादथ कोटिकाऽऽह्वः । चन्द्रोऽपि चन्द्रप्रभ-चन्द्रसूरेः सामन्तभद्राद् वनवासिगच्छः ॥1॥
श्रीसर्वदेवाद् वट आविरासीत्, तपा जगञ्चन्द्रमुनीन्द्रवर्यात् । सौधर्मसंयुक्तबृहत्तपाऽऽख्यो राजेन्द्रसूरेजगति प्रसिद्धि ||2||
एतद्गच्छसुशासनीयसुधुरप्रोद्वाहिसूख्रिजााडलङ्करयिसाधुकर्म विधिवत् संशोधकस्याऽऽज्ञया। आजन्माऽनधशीलशोभिततनो राजेन्द्रसूरीशितुः । संघातान्तिमया विनेयनिवहै: संशोध्य मुद्रापितः ।।3।।
व्याख्यानी सच्चरित्रः सुबुधगणनतः सेवितः साधुवगैजैनाचार्यः क्रियावान् हि विजयधनचन्द्रोऽस्य पट्टेऽभिषिक्ते। दान्ते क्षन्ते महान्ते प्रशमितहृदये संयमे सञ्चरिष्णौ सौम्ये रम्ये गभीरे सकलजनहिते वर्तमाने सदाप्तौ ।।4।।
चन्द्राशाङ्ककलाधिनाथसहिते वर्षेऽसिते पक्षके, चैत्रे मासि धरासुतस्य दिवसे ज्येष्ठाख्यातारायुते । सप्तम्यां रतलामनामकपुरे भूपेन्द्रसूरेश्वरे, राजत्येष सुसाधुमुद्रणमितो राजेन्द्रकोश: शुभः ॥5॥
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