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________________ [28]... प्रथम परिच्छेद वि.सं. 1955 में आहोर (राजस्थान) में श्री गोडीजी पार्श्वनाथ मंदिर की प्रतिष्ठा एवं 951 जिनबिम्बों की अंजनशलाका हेतु मुहूर्त के प्रसंग में आपने वि.सं. 1956 में होने वाले भयंकर अकाल (छप्पनिया अकाल) की भविष्यवाणी साल भर पहले ही कर दी थी165 और वि.सं. 1956 की शुरुआत में आप शिवगंज में थे तब आपने ध्यान में श्याम सर्प को विषवमन करते देखा जिससे आपने भविष्यवाणी की कि इस साल भयंकर अकाल होगा जो सत्य साबित हुई । 166 इतना ही नहीं अपितु स्वर्गवास के तीन वर्ष पूर्व ही आचार्यश्री को वि.सं. 1960 के शीतकाल में रात्रि में ध्यानावस्था में किसी समय स्वयं की आयु के बारे में भी पता लग गया था। सूरत चातुर्मास में किसी श्रावक के प्रश्न के प्रत्युत्तर में आपने शिष्यों और श्रावकों के बीच बताया भी था कि "मैं अभी तीन वर्ष और भूमण्डल पर विचरूँगा (विहार करूँगा) 1167 इसी प्रकार मांडवगढ का रास्ता छोडकर राजगढ की ओर जाते समय मार्ग में आचार्यश्री की शारीरिक अस्वस्थता के समय किसी शिष्य ने आपके वस्त्र पात्रादि उठाने हेतु आपसे याचना की तब भी आपने उसे नहीं देते हुए सारगर्भित शब्दों मे कह दिया था कि 'अब लम्बा विहार कहाँ करना है, राजगढ ही तो पहुंचना 168 अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन के गिरिराज पर रहे मुख्य आदिनाथ प्रभु के जिनालय में परमात्मा की प्रतिमा के पीछे जलती हुई पछवाई (जरी भरतवाला रेशमी कपडा) की आग बुझा दी। 170 आचार्य श्री जब जालोर के किले (स्वर्णगिरि तीर्थ) पर ध्यान में स्थित थे तब वहाँ हिंसक शेर आपके पास आकर शांति से बैठ गया लेकिन किसी प्रकार का उपद्रव नहीं किया। 171 एक बार जब आप मोदरा गाँव के निकट चामुंड वन में थे तब वहाँ के ठाकुरने (किसी जगह भील ने) आपको कोई पशु समझकर निशाना लगाकर बाण फेंका। बाण आपसे थोडी सी दूरी पर चरणों में गिरा लेकिन आपको तनिक भी हानि नहीं हुई और ठाकुर ने आकर आपको देखकर क्षमा मांगी। 172 राजेन्द्रगुणमंजरी में ऐसा भी उल्लेख है कि ठाकुर तलवार लेकर मारने दौडा था । 173 आहोर (राजस्थान) के पास सामुजा गाँव निवासी राज पुरोहित वरदीचन्द का पुत्र मोहन, पांच वर्ष की अवस्था से गूंगा हो गया था और संधिवात से ग्रस्त था जो कि आहोर में आपके पास दर्शनार्थ आया तब आपके द्वारा 'वासक्षेप' करने मात्र से ठीक हो गया और आपके हस्तदीक्षित होकर उपाध्याय श्री मोहनविजयजी के नाम से प्रख्यात हुआ | 174 आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरिः महान तन्त्रविद्ः अनुभवसिद्ध योगी होने के साथ-साथ आचार्य श्री तन्त्रप्रयोग भी विशद विद्वान थे। आपके मुखारविन्द से मांगलिक श्रवण करने मात्र से राजगढ निवासी श्री चुनीलाल जी खजानची राजगढ स्टेट के खजानची बन गये और उन्होंने राजगढ में अष्टापदावतार जिनालय बनवाकर आपके हाथों प्रतिष्ठा करवाई। 175 उनके पुत्र धार स्टेट के 'रायबहादुर' बने । 176 दरिद्र स्थिति वाले खाचरोद निवासी चुनीलाल जी मुणत को आपके आशीर्वाद से मात्र 15 दिनों में न्यायनीतिपूर्वक व्यापार में इतना धन प्राप्त हुआ कि इन्होंने बडावदा में श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनालय बनवाया एवं मक्षीजी (म.प्र.) तीर्थ का संघ निकाला। 177 आहोर निवासी चमनाजी ने आपके वासक्षेप एवं मांगलिक श्रवण मात्र से मृत्युशय्या पर अपने प्राण बचाये और स्वस्थ दीर्घायु प्राप्त की । 178 इसी प्रकार सूरत के नगरसेठ के पुत्र प्राण बच गये एवं उसकी नष्ट हुई नेत्रज्योति उसे पुन: प्राप्त हुई 1179 वि.सं. 1963 में जब आप बडनगर में चातुर्मासार्थ विराजमान थे तब मारवाड राजस्थान से कुछ श्रावक वहाँ की प्रतिष्ठा आपके द्वारा करवाने हेतु प्रतिष्ठा का मुहूर्त लेने आये तब आपने कह दिया था कि मेरे हाथ से उधर कोई प्रतिष्ठा अब नहीं होना हैं। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि : सिद्ध योगी : जैनदर्शन में योग का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है क्योंकि जैनदर्शन प्रायः संपूर्णरुपेण योगसाधनामय है। जैनदर्शन में योग को मोक्ष का अंग माना गया है- ‘मुक्खेण जोयणाओ जोगो' (श्रीहारिभद्रीय योगविंशतिका गा. 1) आचार्य विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज भी बीसवीं सदी के महान योगी पुरुष थे। योगी अपने व्यक्तित्व को अधिकाधिक विकसित करने के लिये साधना करते हैं। भीतर की प्रसुप्त शक्तियों को जगाने के लिये उनका प्रयोग / प्रयास चलता है। आचार्य विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी की ध्यान योग साधना भी बडी बलवती थी। वे अपनी ध्यान साधना के लिये एकान्त पर्वत, गिरि गुफाओं, कन्दराओं और पर्वतों पर जाते थे। उन्होंने मांगीतुंगी पहाड एवं जालोर के किले (स्वर्णगिरि तीर्थ) के उपर तथा चामुंड वन में बहुत साधना की। क्रियोद्धार के पहले राणकपुर के आसपास के जंगल और पहाडी पर भी उन्होंने ध्यान-चिंतन-मनन आदि किया। अपने दैनिक जीवन में भी वे नित्य रात्रि के तीसरे प्रहर में ध्यान में लीन होकर साधना करते थे। योग साधना एवं लम्बे समय तक एकाग्र ध्यान के कारण उन्हें बहुत सारी उपलब्धियाँ प्राप्त हुई थी जिन्हें हम योगसिद्धि कहते 169 योग साधना के बल पर उन्होंने कई एसे आश्चर्यजनक कार्य किये जिससे उनकी गणना सिद्ध पुरुषों में हुई। योग के बल पर अन्यत्र (थराद या आहोर) रहे हुए आपने सिद्धाचल तीर्थ (सौराष्ट्र) Jain Education International 165. 166. 167. 168. 169. 170. 171. 172. 173. 174. 175. 176. 177. 178. 179. धरती के फूल श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि स्मारक ग्रंथ पृ. 64 जीवनप्रभा पृ. 31 विश्वपूज्य पृ. 99 श्रीमद् राजेन्द्र सूरि स्मारक ग्रंथ पृ. 60 श्रीमद्विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी के प्रवचन से वि.सं. 2042 गुरु सप्तमी भाण्डवपुर तीर्थ श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि स्मारक ग्रंथ पृ. 65, 66 श्री राजेन्द्र सूरिश्वरजी, जीवन-दर्शन चित्रपट्ट - मोहनखेड़ा तीर्थ श्री राजेन्द्रगुणमंजरी, पृ. 56 धरती के फूल 321, श्रीमद् राजेन्द्र सूरि स्मारक ग्रंथ पृ. 127 से 131 श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी पृ. 96 विरल विभूति, पृ. 73 धरती के फूल पृ. 228 धरती के फूल पृ. 229 श्रीमती कंकुबेन वोहेरा अध्यापिका, श्री धनचन्द्रसूरि जैन पाठशाला, थराद के प्रवचनों से For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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