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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अन्य दर्शनों में मोक्ष जैन दर्शन की तरह आत्मवादी न्याय-वैशेषिकादि सभी दर्शनोंने मोक्ष को स्वीकार तो किया है, लेकिन उनमें इतनी विभिन्नताएँ है कि एक का विचार - प्रस्तुतीकरण दूसरें से नहीं मिलता तथापि प्रसंगवश यहाँ अन्यदर्शनों में स्वीकृत मोक्ष की परिभाषाओं का संक्षिप्त में वर्णन किया जा रहा है । न्याय-वैशेषिक- न्याय-वैशेषिक के अनुसार सुख-दुःख चेतना आदि सभी आत्मा के आगन्तुक गुण है। मुक्तात्माओं के शरीर-विच्छेद के साथ-साथ आगन्तुक गुणों का भी अभाव हो जाता है। उनका मानना है कि सुषुप्तावस्था जिस प्रकार सुख-दुःख से रहित अवस्था होती है, उसी प्रकार मोक्षावस्था में भी आत्मा सुख-दुःख से रहित होती है। नींद की अवस्था अस्थायी होती है, परन्तु मोक्षावस्था स्थायी होती हैं। अद्वैत वेदान्त - अद्वैत वेदान्त में मोक्ष पूर्ण चैतन्य और आनन्द की अवस्था है। अनादि अविद्या से मुक्त होकर आत्मा का ब्रह्म में विलीन हो जाना ही 'मोक्ष' है। वस्तुतः आत्मा ब्रह्म ही है, परन्तु वह अज्ञान से प्रभावित होकर अपने को ब्रह्म से पृथक् समझने लगता है। यही बन्धन है। अनादि अज्ञान का आत्यन्तिक अभाव ही मोक्ष है । मीमांसा - मीमांसा दर्शन के अनुसार चैतन्यरहित अवस्था ही आत्मा की स्वाभाविक अवस्था है। इस दृष्टि से मोक्ष सुख-दुःख से परे है । इस अवस्था में न चैतन्य रहता है, न ही आनन्दा' । सांख्य- सांख्य दर्शन के अनुसार मूल प्रकृति के निवृत्त हो जाने पर पुरुष एकान्तिक और आत्यन्तिक रुप से कैवल्य की प्राप्ति कर लेता है। इस प्रकार प्रकृति से निवृत्त होना ही मोक्ष है। मोक्ष की अवस्था में आत्मा को आनन्द की अनुभूति नहीं होती, क्योंकि वे पुरुष को स्वभावतः मुक्त और त्रिगुणातीत मानते हैं । योग - योगदर्शन यम, नियम आदि योग की अष्टांग प्रक्रिया के द्वारा चित्तवृत्तिनिरोध से मोक्ष की सिद्धि स्वीकार करता है । बौद्ध बौद्ध दर्शन में दीपक के बूझने की तरह चित्तसन्तति के अभाव को मोक्ष माना गया हैँ - I चार्वाक - चार्वाक दर्शन का कहना है। यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा धृतं पिबेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य, पुनरागमनं कुतः ? ॥ - ऐसी मान्यतावाले इस दर्शन के अनुसार पृथ्वी आदि चार या पाँच भूतों के संयोग से उत्पन्न शक्ति को नाम आत्मा है और जैसे ही शरीर बिखरा कि उसका नाश हो जाता है। इस शरीर का बिखराव / मृत्यु का नाम ही मोक्ष है। चार्वाक दर्शन में कहा है मरणमेव अपवर्गः ।' उपसंहारः सभी प्राणी सुख चाहते हैं और दुःख से डरते हैं - यह कहने के लिए किसी शास्त्रीय आधार की आवश्यकता नहीं है। यद्यपि कुछ कुतार्किक इसके विरोध में अनेक तर्क प्रस्तुत कर सकते हैं। Jain Education International और यह भी सिद्ध कर सकते हैं कि कुछ प्राणी दुःख भी चाहते हैं, और उथले रूप में विचार करने पर यह सही भी प्रतीत हो सकता है। एसा पाया गया है कि किसी पशु में आत्महत्या की प्रवृत्ति पायी जाती है। बहुत से मनुष्य भी एसा करते हैं। किन्तु वस्तुस्थिति यह नहीं है। जो जीव सांसारिक वर्तमान दुःखों के प्रति अत्यन्त असहिष्णु होते हैं वे वर्तमान को लक्ष्य करके एसा करने में प्रवृत्त हो सकते हैं किन्तु उसका मूल भी दुःख से निवृत्ति की लालसा ही है । चरक संहिता में कहा गया है कि सभी प्राणी सुख के लिए ही प्रवृत्ति करते हैं किन्तु उनके ज्ञान और अज्ञान के अनुसार उनकी प्रवृत्ति सही और गलत हो जाती हैं सुख का मार्ग क्या है ? और दुःख का मार्ग क्या है ? यही खोज महत्त्वपूर्ण है। यदि मार्ग सही है, तो मंजिल अवश्य मिलेगी, किन्तु यदि मार्ग ही गलत है तो उस पर कितना भी चला जाये, उससे कभी मंजिल नहीं मिलेगी। 1. इस अध्याय में जैनधर्म का उद्देश्य एवं लक्ष्य स्पष्ट करते हुए शास्त्रीय आधारों से यह प्रस्तुत किया गया है कि जैनधर्म का उद्देश्य एवं लक्ष्य है दुःखों से निवृत्ति अर्थात् 'मोक्ष' । यह मोक्ष कैसा प्राप्त हो अर्थात् मोक्ष का मार्ग क्या है ? कोन सा है ? यह जानने के लिए भी प्रयत्न आवश्यक है। आगे के शीर्षक में 'मोक्ष का मार्ग' विषय को लक्ष्य में लेकर अनुशीलन प्रस्तुत किया जा रहा है। 2. चतुर्थ परिच्छेद... [157] 3. 4. 5. 6. सुखार्थाः सर्वभूतानां मताः सर्वाः प्रवृतयः । ज्ञानाऽज्ञानविशेषात्तु मार्ग मार्गप्रवृत्तयः ॥ 8 7. 8. ज्ञानं सुखं वा मोक्षेऽवातिष्ठते सत्तातत्त्वादिति नैयायिकाः । - अ.रा., पृ. 6/431 बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्म संस्काररुपाणां नवानामात्मानो वैशेषिकगुणानामत्यन्तोच्छेदो मोक्षः ।" - वही, पृ.6/431-432 सच्चिदानन्दलक्षणं ब्रह्मपरमार्थत तत्संप्राप्तिर्मोक्ष इति । अविद्यानिवृत्तिर्मोक्षः । - वही पृ. 6/447 - अ.रा., पृ. 6/431 अ.रा., पृ. 6/432 प्रकृतिपुरुषदर्शनान्निवृतायां प्रकृतौ पुरुषस्य स्वरुपावस्थानं मोक्षः इति सांख्यां । वही, पृ. 6/447 पताञ्जल योगदर्शन दीपस्येवास्य जीवस्य नाशो ध्वंस एव निर्वाणम् ? यथाऽऽहुः सौगतविशेषा केचित् । - अ.रा., पृ. 4/2122 2127 स्याद्वादमञ्जरी-20 चरकसंहिता, सूत्रस्थान, 28/35 धर्मगुरु कौन ? " 'जो जेण शुद्ध धम्मम्मि, ठाविओ संजएण गिहिणा वि । सो चेव तस्स जायइ, धम्मगुरुधम्मदाणओ ॥" अ.रा. पृ. 3/349 For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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