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[6]... प्रथम परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
त्रिस्तुतिक सिद्धान्त का महत्त्व एवं प्राचीनता
जैनों के प्रथम तीर्थंकर परमात्मा ऋषभदेव ने वर्तमान अवसर्पिणी काल में गृहस्थावस्था में सर्वप्रथम मानव सभ्यता, असिविद्या, मषिविद्या और कृषिविद्या का आलोक बिखेरा एवं केवलज्ञान के बाद मोक्ष प्राप्ति हेतु समीचीन धर्म की प्ररुपणा की। उस धर्म में देवोपासना को कोई स्थान नहीं था। परन्तु अंतिम तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समय में यज्ञ-यागों का और देवोपासना का बहुत बोलवाला था। अतः उन्होंने यज्ञ और यज्ञ के निमित्त होने वाली पशुहिंसा का तीव्र विरोध कर अहिंसा प्रधान श्रमण धर्म/जैनधर्म को पुनः प्रकाशित किया। उनके अथक प्रयत्नों से हिंसक यज्ञ-यागों का प्रचलन बंद हो गया। और उनके वीतराग मार्ग के प्रकाशन के कारण देवोपासना भी बंद हो गयी।
जैनधर्म में देवोपासना को कोई स्थान नहीं है। यहाँ वीतरागता और वीतराग की आराधना को ही प्रधानता दी गयी हैं। परमात्मा ने आराधकों के लिये आत्मकल्याणकर और मोक्षप्रदायक सामायिकादि छह आवश्यकमय भावानुष्ठानों का प्रतिपादन किया है जो कि आराधक को संसार-भ्रमण से मुक्त करता हैं।
भगवान् महावीर के पश्चात् सुधर्मा स्वामी की परंपरा चली। इस परंपरा में सुदेव, सगुरु और सुधर्म की आराधना की जाने लगी। इसी परंपरा में चौथे पाट पर श्री शय्यंभवसूरि महाराज हुए। उन्होंने धर्म का महत्त्व प्रतिपादन करते हुए दशवकालिक सूत्र के प्रारंभ में कहा
"धम्मो मङ्गलमुक्टुिं अहिंसा संजमो तवो।
देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो । अर्थात् अहिंसा, संयम और तप ही धर्म हैं। यही उत्कृष्ट मङ्गल है। देवता भी उसे प्रणाम करते हैं, जिसका मन सदा इस धर्म में लगा रहता हैं।
त्रिस्तुतिक सिद्धांत अर्थात् सम्यक्त्व एवं व्रत धारण के बाद तीन थुई का सिद्धांत, जिसमें आराधक चैत्यवन्दन करते समय तीन स्तुतियाँ बोलते हैं
1. पहली अधिकृत जिनकी, 2. दूसरी सर्व जिन की और 3. तीसरी जिनागभ की
वीतराग की आराधना का यही श्रेष्ठतम मार्ग है। यही शुद्ध साधन है और इसी के द्वारा मोक्षरुप शुद्ध साध्य सिद्ध होता है। यह साधना के क्षेत्र में एक निर्मल आचरण हैं। यह सम्यग्दर्शन की रीढ है । इसके अभाव में सम्यग्दर्शन मलिन हो जाता हैं। यह सिद्धांत आराधक को स्वावलम्बी बनाने की प्रेरणा देता है। इसी सिद्धांत के पालन में वीतरागता का गौरव निहित हैं।
इस सिद्धांत ने यह स्पष्ट कर दिया कि वीतरागी ही वंदनीय, पूजनीय तथा अनुक्षण स्मरणीय हैं। जिनागम में जगह-जगह इस त्रिस्तुतिक सिद्धांत का प्रतिपादन किया हुआ हैं जिसके संबंधित शास्त्रपाठ शोध-प्रबंध के परिशिष्ट क्र.2 पर वर्णित हैं।
भगवान् महावीर के पश्चात् हजार वर्ष तक यह सिद्धांत अबाधित रुप से चलता रहा, पर बाद में अन्य धर्मों के प्रभाव से लोग देवोपासक होने लगे और इन तीन थुइयों में चौथी थुई का मत चल पडा। चौथी थुई देवी-देवता से संबंधित हैं।
श्री बुद्धिसागरसूरि जी महाराज 'गच्छमतप्रबन्ध' में लिखते हैं - "विद्याधर गच्छनां श्री हरिभद्रसूरि थया ते जाते ब्राह्मण हता। तेमणे जैन दीक्षा ग्रहण करी । ते याकिनी साध्वीनां धर्मपुत्र कहेवाता हतां । तेमणे 1444 ग्रंथो बनाव्या । श्रीवीरनिर्वाण पछी 1055 वर्षे स्वर्गे गया । त्यार पछी चतुःस्तुतिक मत चाल्यो ।
इस प्रकार 'चार थुई' का मत प्रारंभ हुआ और सौधर्म गच्छ में देवी-देवताओं की उपासना प्रारंभ हुई। शिथिलाचार बढ़ गया और देवी-देवताओं के स्तोत्र, स्तुतियाँ, स्तवन आदि रचे जाने लगे। उनसे धन-दौलत, एश्वर्य (ठकुराई) आदि की याचना की जाने लगी। त्रिस्तुतिक सिद्धांत अदृश्य होने लगा, फिर भी परमात्म-प्ररुपित यह सिद्धांत पूरी तरह से लुप्त नहीं हुआ। थराद क्षेत्र (उ.गुजरात) में तीन थुई सिद्धांत यथावत् प्रचलित रहा।
थराद में विक्रम की नौंवी शती में थारापद्रीय/थिरापद् गच्छ, 13 वीं शती में आगमिका गच्छ' एवं 16 वीं शती में 'कडवामति गच्छ' की मान्यता प्रचलित थी। ये सभी गच्छ तीन थुई सिद्धांत का आचरण करते थे। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी जब वि.सं. 1937 में धानेरा पधारे तब थराद के कडवागच्छ के यति श्री लाघाजी साजीने आचार्यश्री को उक्त बात ज्ञात करवाकर साग्रह विनंतीपूर्वक थराद में आपका पदार्पण करवाया था F
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श्री दशवैकालिका सूत्र 1/1 ले.आ.श्री.वि. जयन्तसेनसूरि - असली दुनिया, इन्दौर सं., दिनांक 02.09-2000 पृ. 4से उद्धृत गच्छमतप्रबंध अने संघ प्रगति, पृ. 169 थराद-प्राचीन थिरपुर नगर : 'युग युगनी याद' -लेखक कीर्तिलाल बोरा
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