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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रथम परिच्छेद... [17] परेशान किया जा रहा था; आपने क्रियोद्धार के द्वारा उसे भी हटाकर लोगों को भयमुक्त किये। गुरुदेवश्री के जीवन काल में आचार्य पद, क्रियोद्धार, प्रतिष्ठादि अन्यान्य अनेक प्रसङ्गों पर आहोर, जावरा, खाचरोद, रतलाम, भीनमाल, शिवगंज, आदि अनेक जगह इन शिथिलाचारी यतियों ने तांत्रिक प्रयोगों द्वारा परेशानियाँ खडी की लेकिन आपने अपने आत्मबल से किसी को तनिक भी नुकसान पहुँचाये बिना सर्वत्र शांति की स्थापना की। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि : सर्वोदयी प्रभावक : आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के हृदय में सभी जीवों के कल्याण की भावना सदा-सर्वदा बहती रही थी, यही कारण है कि आचार्यश्रीने निज-कल्याण के पुरुषार्थ के साथ-साथ पर-कल्याण हेतु भी सतत प्रयत्न किया अथवा यह कहें कि प्रयत्न न करने पर भी उनकी उपस्थिति मात्र से भी अनेक जीवों का कल्याण हुआ। जैसे तैरती हुई नाव का आश्रय लेनेवाले जीव अवश्य पार उतर जाते हैं। मनुष्य जाति में भिन्न-भिन्न रुचियों, भिन्न-भिन्न स्वभावों, मलेच्छ-आर्य जातियों, समाज-व्यवस्था, वृत्ति-व्यवस्था के आधार पर भी अनेक वर्ग-उपवर्ग देखने को मिलते हैं। आचार्यश्री के जीवन में ऐसे अनेक प्रसंग आये जिनसे सभी जीवों के आत्म-कल्याण का मार्ग प्रशस्त हुआ और सभी ने किसी न किसी प्रकार का संयम (व्रत, नियम) अवश्य धारण किया। साथ ही यथा शक्ति इस सर्वोदय तीर्थ जिनशासन एवं जिनवाणी के प्रचार में भी कुछ न कुछ अवश्य सहयोग भी दिया। न केवल जैन, अपितु जैनेतर परिवार से भी अनेक आत्माओं ने आपके पास जैनी दीक्षा ग्रहण कर अपना आत्म कल्याण किया। जैसे किशनगढ (राज.) के ऋद्धिकरणजी चोपड़ा के पुत्र धनराज (श्रीमद्विजय धनचंद्रसूरि), भीडर (राज) के ब्राह्मण शिवदत्त के पुत्र (मुनि प्रमोदरुचिजी), सामुंजा (आहोर, राज) के वरदीचन्द के पुत्र उपाध्याय मुनि मोहनविजयजी, भोपाल के फूलमाली भगवानजी के पुत्र (आचार्य श्रीमद्विजय भूपेन्द्रसूरि), धवलपुर के चम्पालाल जायसवाल (दिगम्बर जैन) के पुत्र रामरत्न) (आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरि) एवं अन्य अनेक आत्माओं ने आपकी पावन निश्रा में स्वयं के जीवन को धन्य बनाया 189 जैन समाज में तो आचार्यश्री के उपदेशों का प्रभाव था ही, जैनेतर लोग भी कहीं पीछे नहीं रहें। आचार्यश्रीने निम्बाहेडा में वैष्णव मंदिर में श्री भगवद्गीता' के उपर भी प्रवचन दिये थे जिससे अनेकों वैष्णव धर्मी लोगों ने भी उनके उपदेशों को जीवन में ग्रहण कर व्रतादि लिये । इसी प्रकार आचार्यश्रीने कट्टर इस्लामपंथी मेमनों को प्रतिबोध देने हेतु वि.सं 1942 का चातुर्मास ही धोराजी (गुजरात) में किया एवं उन्हें 'कुराने शरीफ' की आयातों के द्वारा उपदेश देकर मांसाहारी से शुद्ध शाकाहारी बनाया, जिसके फलस्वरुप आज भी धोराजी में कई शुद्ध शाकाहारी मेमण परिवार हैं। इसी तरह धानेरा में भी मुसलमानों को मांस-मदिरादि का त्याग करवाया एवं शुद्ध शाकाहारी बनाया। न केवल सामान्य जनता को अपितु बीकानेर नरेश, जोधपुर नरेश यशवंतसिंहजी, आहोर नरेश यशवंतसिंहजी, मोदरा ठाकुर, सिरोही नृप केसरीसिंहजी, रतलाम नरेश रणजीतसिंहजी, झाबुआ नरेश उदयसिंहजी एवं दीवान नारायण सिंह, आगर के राजा, उदयपुर के राणा, धारा नरेश, थराद दरबार अभेसिंहजी, सियाणा ठाकुर, खाचरोद नरेश, जावरा नवाब गोस्त खां, उनके दीवान हजरत नूरखां आदि अनेकों राजानवाब-ठाकुरों ने आपके उपदेशों को श्रवण कर, जीवन में अपनाकर मांस-मदिरा-अभक्ष्य सेवन-शिकार आदि का त्याग किया एवं अपनेअपने राज्य में भी पशु बलि एवं अन्य प्रकार से जीव हिंसा का यथाशक्ति त्याग करवाया।92 थराद के दरबार अभेसिंहजी तो आपके उपदेशों से ऐसे प्रभावित हुए कि उन्होंने वि.सं 1944 में थराद से सिद्धाचल-गिरनार के छ: रीपालक पैदल संघ में पूरी सुरक्षा की व्यवस्था की। स्वयं ने भी अपने जीव में चार बार सिद्धाचल तीर्थ की यात्रा एवं तीर्थनायक की सेवा-पूजादि की। उन्होंने आपसे चतुर्थ व्रत (गृहस्थ जीवन में ब्रह्मचर्य व्रत) भी ग्रहण कर पालन किया। वि.सं. 1958 में विहार में खराडी ग्राम स्थित आपने वहाँ दर्शनार्थ आये सिरोहीनप केसरीसिंहजी को उपदेश देकर आबु तीर्थ पर लिया जाने वाला मुण्डक-वेरा बंद करवाया। वि.सं. 1932 में झालोर में जोधपुर नरेश यशवंतसिंहजी को प्रतिबोधिक कर झालोर के किले । स्वर्णगिरि तीर्थ के उपर स्थित राज्य के शस्त्रादि से भरे मंदिरों को खाली करवाकर जैन संघ के स्वाधीन किये। साथ ही जीर्णोद्धार करवाया एवं 700 स्थानकवासी (ढूंढक मतावलम्बी) परिवारों को उपदेश देकर मंदिर मार्गी बनवाकर स्वर्णगिरि तीर्थ की समुचित व्यवस्था करवाई।95 इस प्रकार उपर के कुछ अनुच्छेदों में यह स्पष्ट किया गया है कि जैन-जैनेतर धर्मावलम्बियों, ब्राह्मण-श्रमणेतर-संस्कृत्यलम्बियों, राणाओं, रियासतदारों, राजाओं, पुरोहितों आदि को आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी ने अपने आचरण से इतना प्रभावित किया कि ये सब स्वतःस्फूर्त प्रेरणा से आचार्यश्री की धर्मसभाओं में आते और आपके उपदेशों का श्रवण-मनन और निदिध्यासन करते थे। इस प्रकार आचार्यश्री मात्र जैनों के नहीं, मात्र श्वेताम्बरों के नहीं, किसी गच्छ विशेष के नहीं, अपितु सभी जीवों के सर्वतोमुखी अभ्युदयकारक थे। 89. 90. 91. 92. धरती के फूल, पृ. 318 से 326 आचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेन सूरीश्वर जी के प्रवचन, राजेन्द्र उपाश्रय, इन्दौर, अप्रैल सन् 1999 विरल विभूति, पृ. 75.76 श्री राजेन्द्रसूरि का रास, श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी, धरती के फूल, विरल विभूति, आदि में इनका विस्तृत वर्णन हैं। विरल विभूति पृ. 77. गुरुसप्तमी पर्व वि.सं. 2040 थराद में हुए प्रवचन में से श्रीराजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ. 84. से पृ. 86 श्रीराजेन्द्रसूरि का रास-पत्रांक, 80, 81 95. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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