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[16]... प्रथम परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रचारक :
आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि : सिद्धान्त -
आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज एक बहुश्रुत गीतार्थ आचार्य थे । आपश्रीने गुर्वाज्ञा से क्रियोद्धार के पूर्व वि.सं. 1911-12-13में श्रीपूज्य श्री देवेन्द्रसूरि के पास गुरुगमपूर्वक जैनागमों का सविधि अध्ययन किया एवं वि.सं. 1914 से 1921 तक 50 यतियों को पढाया । इतना ही नहीं अपितु क्रियोद्धार के बाद वि.सं. 1925 में खाचरौद चातुर्मास में पुनः पञ्चागी के साथ जैनागम ग्रंथो का स्वाध्याय किया । बाद में भी प्रत्येक चातुर्मास में अलग-अलग सूत्रों का एवं कुक्षी चातुर्मास में व्याख्यान में 45 आगमों का वाँचन किया। इस प्रकार आपने अपने जीवन में बार-बार सतत जैनागम-पञ्चाङ्गी तथा अन्य बहुश्रुताचार्यों के द्वारा निरुपित ग्रंथों का अध्ययन-मनन-परिशीलन किया। जिससे आपको यह ज्ञात हुआ कि आत्मकल्याण हेतु आराधना के मार्ग पर अव्रती देवी-देवताओं की स्तुति, भक्ति, वंदन, पूजन आदि मोक्षमार्ग में बाधक है व वीतराग परमात्मा की आशातना का कारण है - यह जानकर आपने चतुर्थ स्तुति एवं सामायिक, प्रतिक्रमण देववंदन आदि धार्मिक क्रियाओं में प्रविष्ट कुरीतियों का निषेध किया व प्राचीन आगमशास्त्रोक्त त्रिस्तुतिक मत का पुनरुद्धार कर श्री सुदेव-सुगुरु- सुधर्म का प्रचार कर आपने जिनेश्वरदेव और जिनवाणी की सत्यता को पुनः प्रतिष्ठित किया। जैनधर्म को अंधश्रद्धा और कुण्ठित अवधारणाओं से मुक्त कर शुद्ध-देव-गुरु-धर्म के सत्य स्वस्म के उजाले से भर दिया । आपके जिनवाणी सापेक्ष सिद्धान्तोपदेश के मुख्यबिन्दु निम्नानुसार हैं
सिद्धान्तोपदेश
(1)
88.
'वंदन' शब्द स्तुति और नमस्कार दोनों का बोधक है, इसलिए देव-देवियों को वंदन करना श्रमणों के लिए अनुचित हैं । अकारण उनसे सहायता, प्रार्थना-याचना करना भी अनुचित हैं क्योंकि अव्रती देव-देवियों को वंदन करना आगम विरुद्ध है ।
(2) चतुर्थ स्तुति में पापोपदेश, धन, पुत्र आदि पौद्गलिक सुख प्राप्ति की प्रार्थना होने से वह भावानुष्ठान सामायिक, प्रतिक्रमण आदि में त्याज्य हैं। अतः उनमें चौथी थुई (स्तुति) करने से जिनाज्ञा भङ्गरूप दोष लगता हैं।
(3)
जैनागम पंचांगी के अनुसार तीनस्तुति प्राचीन हैं, और प्राचीन काल में शुद्धाचरण से तीन थुई प्रचलित थी, इसलिए तीन स्तुतियाँ करना उचित हैं।
(4) चैत्यवंदन के बाद शक्रस्तवादि प्रणिधान पाठ और स्तुतित्रय की जाय अर्थात् चैत्यवंदन उच्चारण करने के बाद शक्रस्तवादि प्रसिद्ध पाँच दण्डक, तीन स्तुतियाँ और प्रणिधान पाठ बोले जायें, तब तक जिनालयों में ठहरना चाहिए। किसी कार्य विशेष के लिए अधिक ठहरना पडे तो अनुचित नहीं हैं ।
(5) शास्त्रमर्यादानुसार प्रथम और अंतिम जिनेश्वरों के शासन के साधु-साध्वियों को यथा प्राप्त श्वेत- मानोपेत- जीर्णप्रायः और अल्पमूल्य वाले वस्त्र ही रखना चाहिए। रंगीन वस्त्र या रंगे हुए वस्त्र रखना अनुचित है। विशेष परिस्थिति में (मदिरा से लिप्त वस्त्र प्राप्त होने पर या अन्य ऐसे ही विशिष्ट संयोगों में) कल्कादि पदार्थों से वस्त्रों का वर्ण परावर्तन करने की आज्ञा है तथापि वर्तमान युग में ऐसे कोई कारण उपस्थित नहीं हैं, अतः जैन साधु-साध्वियों के लिए रंजित (रंगीन) वस्त्र धारण करना शास्त्रमर्यादा और आचरण से विपरीत हैं।
(6) प्रतिक्रमण में श्रुतदेवता क्षेत्रदेवता और भुवनदेवता का कायोत्सर्ग और स्तुति, लघुशांति बृहत्शांति (बडी शांति) के पाठ का विधान और जिनागम पंचांगी और प्राचीनाचार्य प्रणीत ग्रंथों में नहीं है। अतः नित्य प्रतिक्रमण में इनका करना और बोलना अशास्त्रीय और दोषपूर्ण हैं किन्तु साधु-साध्वी के लिए पाक्षिक, चातुर्मासिक तथा सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में 'दुक्खक्खय कम्मक्खय" के कायोत्सर्ग के बाद आज्ञा निमित्तक भुवन क्षेत्र देवता का कायोत्सर्ग अदोष हैं।
(7) ऋद्धिसंपन्न और ऋद्धिरहित, दोनों प्रकार के श्रावकों को सामायिक दंडकोच्चार के बात 'इरियावहियं' करने का शास्त्रों का
आदेश है क्योंकि इसके लिए "तिविहेण साहुणो नमिऊण सामाइयं करेमि, करेमि भंते! एवमाइ उच्चरिऊण ईरियावहियाए पडिक्कमइ" इत्यादि आगम टीका ग्रंथो का वचन प्रमाण हैं। अत एव प्रथम त्रियोग से गुरुवंदन कर के सामायिक उच्चारण के बाद 'ईरियावहियं' प्रतिक्रमण करना चाहिए ।
(8)
पात्रादि उपकरण नौकर आदि से उठवाना नहीं, उनसे वस्त्र भी नहीं धुलवाना, अपने निवास स्थान पर लाये हुए वस्त्रपात्रादि लेने की इच्छा नहीं रखना, परदेश से कीमती कंबलादि मंगवाकर नहीं लेना, सदैव एक ही घर का आहार नहीं लेना, बिना कारण वस्त्रों में साबुन-सोडादि खारे पदार्थ नहीं लगाना, कपडे के मोजे नहीं पहनना । वार्तालाप - व्याख्यानादि में उघाडेमुख नहीं बोलना। शोभा प्रदर्शक सोना-चाँदी आदि धातु के फेफ्रेमयुक्त चश्मा नहीं लगाना, सांसारिक समाचार से भरे पत्र गृहस्थों को नहीं देना- ये सभी लोकनिन्दनीय अनाचार होने से मोक्षाभिलाषी जिनाज्ञापालक सभी साधु-साध्वियों को सदैव त्याग करने योग्य हैं।
(9) जिनेश्वर भगवान् के बिम्बों की पूजाविधि आगम और पंचांगी में अनेक स्थान पर दिखलाई गयी हैं इसलिए जिनप्रतिमाओं की भक्तिभाव सहित पूजन दर्शनादि साक्षात् जिनेन्द्र भगवान् के समान ही प्राणियों के कल्याण करने वाले हैं।
आपने अपने उपदेशो के माध्यम से समाज में व्याप्त बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह, कन्या- विक्रय, दहेजप्रथा, मृत्यु भोज, अंधश्रद्धामय जादू-टोना, कुसंस्कार, जीवहिंसा, पशु-बलि, मांस-मदिरादि एवं नशायुक्त पदार्थो का सेवन, व्यसन, जातिवाद, कहल, कुरीतियाँ आदि को दूर करने हेतु अथक प्रयत्न किया। साथ ही सरल एवं मुग्ध जनता को शिथिलाचारी यतियों के द्वारा तांत्रिक क्रियाओं के द्वारा डरा-धमकाकर
धरती के फूल, पृ. 59; श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी
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