________________
[24]... प्रथम परिच्छेद
आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि : उग्र तपस्वी आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि ने तप को जीवन के अभ्युदय का साधन बनाया था । उन्होंने अपने जीवन में क्रियोद्धार के पश्चात् कभी एकासन से कम तप नहीं किया। आपने संवत्सरी, भगवान महावीर जन्म कल्याणक का अट्टम तप (तीन उपवास); अषाढ शुक्ल 1, कार्तिक: शुक्ला एवं फाल्गुन शुक्ला चतुर्दशी, दीपावली, एवं पर्युषण में बडा कल्प (भाद्रपद वदी 14 एवं अमावस्या) का छट्ठ तप (दो उपवास) एवं शेष दिनों में प्रत्येक माह की सुदि पंचमी, अष्टमी एवं चतुर्दशी तथा वदि अष्टमी एवं चतुर्दशी को उपवास तथा सुदि द्वितीया, एकादशी एवं वदि द्वितीया, पंचमी एवं एकादशी को आयंबिल तप किया 1126
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन कायोत्सर्ग में ध्यान किया । 131 जालोर के किल्ले उपर स्थित जिनमंदिरों
राजकीय अधिकार से मुक्त कराने हेतु जालोर के किले (स्वर्णगिरि) की अतिसन्तप्त शिलाओं पर तप के साथ आतापना लेकर और रात्रि
वि.सं. 1926 में आचार्य श्री रतलाम (म.प्र.) में चातुर्मासार्थ विराजमान थे तब पर्युषण में अट्ठाईधर (प्रथम) के दिन आपने अभिग्रह किया कि कोई युवक स्वेच्छा से आकर श्रावक के बारह व्रत अंगीकार करे तो प्रथम घर में गोचरी (आहार) हेतु जहाँ जाऊँ वहाँ आहार की दो दत्ती (दो बार और पानी की एक दत्ती में वह गृहमालिक जितना आहार- पानी वहेरावें उसी से पारणां करूँगा । इस अभिग्रह के कारण आचार्यश्री के 9 उपवास हो गये तब उनका अभिग्रह पूरा हुआ। इसके बाद श्री रखबचन्दजी भंडारी ने स्वत: करण आत्मप्रेरणा से आचार्यश्री के पास आकर भाद्रपद सुदि 6 के दिन व्रत ग्रहण किये तब आपने एक मध्यमवर्गीय गृहस्थ के यहाँ से गोचरी ग्रहण कर पारणां कियां 127
मध्य प्रदेश के धार जिलान्तर्गत आने वाले नगर कुक्षी के तत्त्वज्ञ श्रावक शिथिलाचारी यतियों से त्रस्त वातावरण में किसी यति को अपने नगर में प्रवेश भी नहीं करने देते थे, एसे समय में वि.सं. 1926 के प्रथम वैशाख मास में गुरुदेवश्री कुक्षी पधारें, तब वसति (ठहरने का स्थान) और शुद्धाहार के अभाव में गाँव के बाहर नाले के पास वटवृक्ष की छाँव में रहकर अठाई (आठ उपवास) तप किया। 9 वें दिन विहार के समय कुक्षी संघने आदर-सत्कारपूर्वक गुरुदेव श्री को कुक्षी नगर में प्रवेश करवाया और सम्यक्त्व सहित त्रिस्तुतिक (तीन थुई) आम्नाय का अनुसरण किया एवं वैशाख सुदि पूर्णिमा के दिन कुक्षी श्रीसंघ के साथ तालनपुर तीर्थ (म.प्र.) की यात्रा की 1128
आचार्यश्री का जीवन तप की उर्जा से ओतप्रोत था । वे सदा ही कठिनतम तप अंगीकार करते थे। एक बार आचार्य श्री राजगढ (म.प्र.) में थे तब स्वेच्छा से अभिग्रह किया कि यदि कोई श्राविका राख वहरावे तो पारणा करना । इस अभिग्रह में 12 उपवास होने पर राजगढ के श्री खजानजी परिवार में श्री लालचन्दजी खजानची की धर्मपत्नी (मैना बाई) के हाथ से आचार्यश्रीने गोचरी वहेरने के समय 'राख' वहोरकर ( ग्रहण कर) पारणां किया। इसी प्रकार की अनेक तपस्याओं के प्रसंगो के उल्लेख यत्रतत्र प्राप्त होते हैं। । 129 वि.सं. 1927 में आपने दिगम्बर सिद्धक्षेत्र मांगीतुंगी पर्वत
( आकोला - मालेगांव के पास महाराष्ट्र में) पर छः महीने तक ध्यानादिपूर्वक सूरिमंत्र की कष्टमय आराधना साधना की। इसी तरह वहाँ अट्ठाई (आठ उपवास) के पारणे फिर अट्ठाई- एसी आठ अट्ठाई करके 'श्री नमस्कार महामंत्र' के प्रथम पद 'नमो अरिहंताणं' पद का सवा करोड बार जाप किया। 130 राजस्थान में मोदरा नगर के समीप चामुंड वन में भी आठ उपवास किये एवं आठ महीने तक
Jain Education International
की ठंड सहनकर कायोत्सर्ग में ध्यान साधना की । एवं स्वर्णगिरि तीर्थ झालोर (राज.) की प्रतिष्ठा के समय भी 9 उपवास के तपपूर्वक प्रतिष्ठा करवाई थी । 132
वि.सं. 1931-32 में आहोर के श्रीसंघ में चल रहे वैमनस्य को दूर करने हेतु कई महीनों तक सतत आयंबिल तप किया। 133 इसी प्रकार अपने जीवन के अंतिम वर्षावास में वि.सं. 1963 में बडनगर (म.प्र.) में भी दीपावली के दिनों में अट्ठाई तप कर ग्यारह अंगो का स्वाध्याय (पुनरावर्तन) किया । 134
इसके अतिरिक्त चार बार सिद्धाचल यात्रा में अट्ठम तप (तीन उपवास), दो बार गिरनार की यात्रा में छट्ठ तप (दो उपवास), श्री केशरियाजी तीर्थ में एवं श्री शंखेश्वर तीर्थ में अट्ठाई एवं श्री मक्ष तीर्थ में 5 बार अट्टम (तीन उपवास किया। इस प्रकार आचार्य श्रीने स्वयं के शरीर की ऊर्जाओं का योग व तप से एसा दोहन किया कि उनका प्रभामण्डल तेजस्विता से जाज्वल्यमान बन गया था। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी : क्षमाश्रमणः
आचार्यश्री की क्षमा कायर की नहीं अपितु वीर की क्षमा थी । उपकारी को ही नहीं अपितु अपकारी को भी माफ कर देना - यह आपका सहज औदार्य था ।
विद्वेषी यतियों ने जावरा में व्याख्यान सभा में एवं शिवगंज की प्रतिष्ठा में मंडप के आग लगाई, तथापि आपने उनसे द्वेष करने के बजाय उन्हें क्षमा कर दिया। इतना ही नहीं, अपितु जनता के आक्रोश से उनकी सुरक्षा हेतु उन्हें आपने अपने पास में बैठाया । 135
मुनि धन विजयजी को गोचरी के नियम पालन में मामूली भूलवश आपने गच्छ बाहर कर दिया था परंतु दो वर्ष बाद अपने अंतिम समय में आपने श्रीसंघ को कहा कि "मुनि धनविजयजी की गलती के अनुसार पर्याप्त प्रायश्चित हो चुका है अतः उन्हें वापिस गच्छ में लेकर मेरी पाट पर बैठाकर आचार्य पद से अलंकृत करना" - यह आपके क्षमागुण का अद्भुत और ज्वलंत दृष्टांत हैं । 136 आचार्य श्रीमद्विजय राजेनद्रसूरिः वादीमानभञ्जकः
आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी का ज्ञान कभी भी कहीं पर भी अहंकार का कारण नहीं बना किन्तु गच्छ में शिथिलाचार
126. धरती के फूल पृ. 225, कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी - जीवन परिचय पृ. 12 127 विरलविभूति, पृ. 60
128
राजेन्द्रसूरि का रास-50
129
राजगढ श्री संघ में हुए गुरुगुणानुवाद के प्रवचन में से सन 1990 130. माङ्गीतुङ्गीपर्वतीयाऽतिविषमगुहायामष्टोपवासं कुर्वन् षाण्मासिक सूरिमन्त्राऽऽराधनम् तथा सत्यपि देहसौकुमार्ये ऽतिशीतकाले नर्मदातीरेऽतिशीतले निर्वासा एव (एक कटीवस्त्रपूर्वक) कायोत्सर्गेण तस्थिवान् ।
-
• कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी जीवन परिचय पृ. 12 131. राजेन्द्रगुणमंजरी, पृ. 55; कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी गत जीवन परिचय पृ. 12 श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 80, कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी - जीवन परिचय पृ. 12. श्रीमद् राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ पृ. 83,84
132.
133.
जीवनप्रभा पृ. 21, राजेन्द्रगुणमञ्जरी पृ. 54
134
विश्वपूज्य पृ. 98
135.
धरती के फूल पृ. 291-92-94
136. विरलविभूति पृ. 94, 95,295
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org