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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
प्रथम परिच्छेद... [25] बढ जाने से और मूर्ति-पूजा आदि भक्ति योग पर सिद्धांत विरोधियों
वि.सं. 1933 में आचार्यश्री का चातुर्मास जालोर (राज.) द्वारा आक्षेप किये जाने पर आपने उनको सन्मार्ग पर लाने के लिये में हुआ तब जालोर किले के स्वर्णगिरि तीर्थ के प्राचीन मंदिरों एवं उनके तथा अनेक भव्यजीवों के कल्याण के लिए कई शास्त्रार्थ के जीर्णोद्धार के समय आपने जालोर-गोडवाड निवासी ढूंढियों के किये जिनमें सदा ही विजयी रहे क्योंकि आचार्यश्री में न तो स्वयं साथ वाद किया। इस वाद में आपने तखतमल प्रमुख 700स्थानकवासी के ज्ञान का अभिमान था और न ही वे दूसरों के सम्यक् प्ररुपण जैन परिवारों को सुबुद्धि और शास्त्र युक्ति से निरुत्तर किया एवं उन्हें एवं प्रचार के लिये उन्होंने अनेकत्र अनेक वादियों के मान का भङ्ग मूर्तिपूजक बनाया। वर्तमान गोडवाड पट्टी (राज.) में जो मूर्तिपूजक किया। आचार्यश्री द्वारा किये गये प्रमुख शास्त्रार्थ का यहाँ संक्षिप्त समाज का बाहुल्य देखने में आता है वह इसी का प्रभाव हैं। परिचय दिया जा रहा हैं।
वि.सं. 1949 में आचार्यश्री का चातुर्मास निम्बाहेडा था। 1. व्याकरणविषयक वादः
तब आपका स्थानकवासी यति नंदराम से मूर्तिपूजा एवं जिनमूर्ति आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी का व्याकरण विषयक की मुनि द्वारा प्रतिष्ठा की शास्त्रोक्तता एवं अन्य प्रश्न विषयक वाद ज्ञान प्रकाण्ड विद्वतापूर्ण था अतः आपने इस विषयक शास्त्रार्थ में हुआ जिसका निम्बाहेडा-अदालत (रियासती) में निर्णय किया गया। ज्वलंत विजय प्राप्त की।
इस वाद में यति नंदराम द्वारा प्रेषित 9 प्रश्नों के आचार्यश्रीने शास्त्रोक्त एक बार आचार्यश्री वि.सं. 1921 में अजमेर में थे, तब सप्रमाण उत्तर दिये जबकि आचार्यश्री के 4 प्रश्नों में से नंदराम ने यति जयसागरजी की मध्यस्थता में संघ समक्ष खरतरगच्छीय श्रीपूज्य एक का गलत एवं तीन के अति संक्षिप्त उत्तर दिये और शेष 25 मुक्तिसूरि से आपका नवकार मंत्र के प्रथम पद 'नमो अरिहन्ताणं' एवं 15, इस प्रकार कुल 40 प्रश्नो में से एक का भी उत्तर नहीं के 'ण' - वर्ण के अर्थ विषयक वाद हुआ। वादी ने 'णं' वर्ण दिया जिससे यति नंदराम पराजित हुआ एवं आचार्यश्री विजय हुए। को वाक्यालंकारार्थ में पादपूर्तिरुप बताया। इसका निषेध करते हुए
साथ ही इस विजय के फलस्वरुप निम्बाहेडा के 60 परिवारों ने आपने जैनेन्द्र व्याकरण की पद्धति पूर्वक कोशादि के द्वारा 'ण' प्रत्यय मूर्तिपूजक बनकर आचार्यश्री की आम्नाय स्वीकृत की145 जो अद्यावधि को षष्ठ्यर्थ का द्योतक बताया। संस्कृत भाषा में हुए इस वाद में 250 परिवारों के विशाल संघ के रुप में विद्यमान हैं। आपकी विजय हुई जिससे जिनशासन की बहुत प्रभावना हुई ।137
इसी प्रकार नीमच में स्थानकवासी यति चोथमल से एवं इसी प्रकार किशनगढ में श्रीपूज्य धरणेन्द्रसूरि के पाणिनीय नव्य व्याकरण वि.सं. 1953 में जावरा में146 तथा वि.सं. 1954 में रतलाम में अन्य मतानुयायी भक्त से हुए व्याकरण विषयक शास्त्रार्थ में भी आपकी स्थानकवासी के साथ मूर्ति पूजा विषयक शास्त्रार्थ कर आचार्यश्रीने विजय हुई।138
विजय प्राप्त कर उन्हें अच्छी शिक्षा देकर धर्म प्रभावना की147 । वि.सं. 1958 में बाली (राज.) में सभा के मध्य पं. हेतविजयजी 3. तीन स्तुति - चतुर्थ स्तुति विषयक वादा48 :आप से थुइ (स्तुति) विषयक वाद करने आये परन्तु सूर्यवत् आपको
आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज ने वीतरागता देखकर बोल ही नहीं पाये और उन्होंने स्वयं ही अपनी पराजय स्वीकार
एवं जिनवाणी के पुनः प्रचार-प्रसार हेतु क्रियोद्धार के साथ ही वीतराग कर ली एवं आपकी स्तुति की। बाद में आपने संस्कृत एवं प्राकृत
प्रणीत जैनागमसम्मत त्रिस्तुतिक सिद्धांत का पुनरुद्धार कर उसी का व्याकरण के माध्यम से 'थुइ' शब्द की सिद्धि बतायी ।।39
प्रचार-प्रसार एवं उपदेश किया अतः देवोपासना और शिथिलता के 2. मूर्तिपूजा विषयक वादः
इस युग में उनके मार्ग में जगह-जगह धमकियाँ, प्रलोभन, उपसर्ग आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज श्वेताम्बर आदि आये जिनका उन्होंने धीर-वीर-शूरवीर बन सामना किया, इतना मूर्तिपूजक आम्नाय के आचार्य थे। यद्यपि श्री जिन प्रतिमा पूजन ही नहीं अपितु इस हेतु आपश्री को कई जगह विद्वेषी, कुतर्की, अत्यंत प्राचीनकाल से शास्त्र सम्मत है। लाखों करोडों वर्ष प्राचीन हठाग्रही, कदाग्रही देवोपासकों से शास्त्रार्थ भी करना पडा जिसमें एवं शाश्वत जिनप्रतिमाएँ इस काल में भी प्राप्त है, यथा कुलपाकजी
सर्वत्र आप सूर्य की भाँति निर्मल तेज-प्रकाश युक्त प्रकाशित हो तीर्थ में माणिक स्वामी की प्रतिमा बीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत
विजयी हुए। यहाँ ऐसे कुछेक शास्त्रार्थ का दिग्दर्शन कराया जा रहा स्वामी के समय की है।140 अजाहरा पार्श्वनाथ की प्रतिमा को समुद्र में से प्रगट हुए 7 लाख वर्ष से अधिक समय हुआ है और वह प्रतिमा 13 लाख वर्ष से भी अधिक प्राचीन हैं।141 इसी प्रकार शंखेश्वर
137. श्री राजेन्द्रसूरि का रास; उत्तरार्ध-खण्ड-4, ढाल-३, पृ. 28,29 तीर्थ में मूलनायक श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान खंभात तीर्थ में 138. श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 29, 30 स्थंभन पार्श्वनाथ, चारुप पार्श्वनाथ की प्रतिमाए पिछली चौबीसी में 139. श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 79, 80 9 वें तीर्थंकर श्री दामोदर स्वामी के समय में अषाढी श्रावक द्वारा
श्री कुलपाक जी तीर्थ का इतिहास भरवाई हुई है। 42 तथापि श्वेताम्बर जैनों में स्थानकवासी एवं ढूंढकपंथी
141. अजाहरा पाश्वनाथ तीर्थ का इतिहास
142. अ.रा.पृ. 5/903-904; शंखेश्वर तीर्थ का इतिहास लोग इसे नहीं मानते हुए असत्प्रलाप करते हैं। आचार्यश्री के जीवन
143. विरल विभूति, पृ. 65 में भी ऐसे प्रसंगो पर शास्त्रार्थ करने का अवसर आया जिसमें आपने
144. श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी पृ. 57, 58; श्री राजेन्द्रसूरि अष्टप्रकारी पूजा - 71 अपने शास्त्र-ज्ञान बल, तपोबल और ध्यान बल से सर्वत्र विजय 17; कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी पृ. 10 पाई।
145. श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी पृ. 70; जीवनप्रभा पृ. 22; प्रश्नोत्तरमालिका ग्रंथ वि.,सं. 1928 में जावरा में ढूंढकपंथी यति गंभीरमल से
संपूर्ण, श्री राजेन्द्रसूरि अष्टप्रकारी पूजा-7/9
146. कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी - जीवन परिचय पृ. 10 मूर्तिपूजा विषयक शास्त्रार्थ में आपकी विजय हुई, जिससे जावरा
147. जीवनप्रभा पृ. 22, 23, श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी पृ. 73 और रतलाम में भारी धर्म प्रभावना हुई। 43
148. श्री राजेन्द्रसूरि का रास पृ. 28 Jain Education International For Private & Personal Use Only
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140.
श्री कुलमान