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[26]... प्रथम परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन वि.सं. 1922 में बिकानेर में भट्टारक उपाश्रय में यति प्रभावित होकर लोगों ने आचार्यश्री का उपदेश ग्रहण किया एवं त्रिस्तुतिक मोतीचन्द्र के साथ मुनिश्री रत्नविजयजी (आचार्यश्री) का वाद हुआ आम्नाय स्वीकृत की।151 जिसमें 'प्रतिक्रमण में क्षेत्र देवता की स्तुति करना' - ऐसी वादी
पुनः इसी विषय पर वादीने आचार्यश्री से सेमलिया नरेश की स्थापना थी, जिसे आपने शास्त्रोक्त प्रमाणों से खण्डन कर को निर्णायक बनाकर सेमलिया (जि. रतलाम, म.प्र.) में वाद किया, विजयश्री प्राप्त की। और बीकानेर में प्रशस्य धर्म प्रभावना की। वहाँ भी वादी को करारी हार मिली एवं आचार्यश्री विजयी हुए।
वि.सं. 1926 में बडनगर में कुछेक यतियों ने आपसे त्रिस्तुतिक इससे प्रभावित हो सेमलिया नरेश ने आपका उपदेश ग्रहण कर विषयक शास्त्रार्थ किया जिसमें आपकी ज्वलन्त विजय हुई। फलस्वरुप कई व्रत-नियम ग्रहण किये।152 वि.सं. 1940 में अहमदाबाद में यति भक्तों ने सत्य सिद्धांत स्वीकार कर आपकी आम्नाय शरण अंगीकार संवेगी आत्मारामजी के साथ भी इसी त्रिस्तुतिक सिद्धांत विषयक की एवं आपका उपदेश ग्रहण किया।149
वाद पत्रों के द्वारा हुआ, जिसमें भी आचार्यश्री की विजय हुई। वि.सं. 1928 में इन्दौर में संवेगी झवेर सागरजी से तीन यह वाद तत्कालीन 'प्रजाबन्धु' समाचार पत्र (अहमदाबाद से प्रकाशित) थुई-चार थुई विषयक शास्त्रार्थ हुआ जिसमें आपने झवेर सागरजी में मुद्रित हैं।153 की बातों का खंडन किया और विजय प्राप्त की।150 परंतु वादी
वि.सं. 1960 में जब आचार्यश्री सूरत (गुजरात) में थे तब ने अपनी कुटिलता नहीं छोडी जिससे वि.सं. 1929 में आचार्यश्री पंन्यास चतुरविजयजी से भी इसी त्रिस्तुतिक विषयक एवं समाचारी के रतलाम चातुर्मास में सार्वजनिक आम जनता के बीच पुनः वाद (साध्वाचार संबंधी नियम) संबंधी वाद हुआ था जिसमें एसी शर्त हुआ। इस वाद में झवेर सागरजी ने तपागच्छीय यति बालचंद्र और थी कि, "पञ्चाशक सूत्र में चतुर्थ थुई सम्मत शास्त्रपाठ मिले तो खरतरगच्छीय यति ऋद्धिकरण को अपनी तरफ से वेतन तय कर राजेन्द्र सूरीश्वरजी को चतुर्थ स्तुति मत अंगीकार करना और यदि न वाद हेतु नियुक्त किया जबकि आचार्यश्री की तरफ से प्रतिवादी मिले तो वादी को राजेन्द्र सूरीश्वरजी दर्शित आगमोक्त तीन स्तुति के रुप में आचार्यश्री स्वयं रहे। साक्षी में रतलाम नरेश, रतलाम एवं बृहत्तपागच्छोय आमन्या अंगीकार करना। लेकिन वादी ने न की समस्त प्रजा एवं पाँच गाँव के महाजन रहे एवं रतलाम नरेश तो पञ्चाशक सूत्र में से चतुर्थ स्तुति सम्मत शास्त्रपाठ बताया और तथा पाँच गाँव के प्रमुख महाजन एवं रतलाम की सभी जातियों न आपकी समाचारी भी अङ्गीकार नहीं की तब सूरत की समस्त के प्रमुख प्रतिनिधि निर्णायक के रुप में रहे। इस वाद में वादी महाजन कोम के प्रतिनिधियों की परिषद्ने आपको विजेता घोषित ने निम्नांकित पाँच प्रश्न पूछे जो निम्नानुसार हैं
किया। यह वृतान्त तत्कालीन 'देशी मित्र' समाचार पत्र में मुद्रित (1) जिनपूजा में अल्पपाप का निषेध कहना। है। विशेष रुचिवानों के लिये 'श्री राजेन्द्र सूर्योदय' एवं 'कदाग्रह (2) प्रतिक्रमण में चतुर्थ स्तुति, वैयावच्चगरणं, और दूराग्रहनो शांति मंत्र' - पुस्तकें दृष्टव्य है। सम्मदिट्ठीदेवाए - पाठ कहना।
इस वाद के समय वादी पक्ष ने लोगों में असत्प्रलाप कर (3) ललितविस्तरा के कर्ता हरिभद्रसूरि निश्चय से वि.सं. आचार्यश्री का आहार-पानी तक प्राप्त करना दुर्लभ कर दिया तथापि 585 में ही हुए।
आचार्यश्री सत्य सिद्धांत पर अडिग रहे एवं इस वर्ष चातुर्मास भी (4) साधु के वस्त्र श्वेत हों या रङ्गीन ?
सूरत में कर अभूतपूर्व शासन प्रभावना की।154 (5) मलिन चारित्र युक्त पासत्था को वंदन करना। आचार्य श्रीमदजय राजेन्द्रसूरि : निष्णात ज्योतिषी:वादी के पाँच प्रश्नो का उत्तर निम्नानुसार दिया गया -
तर्क और गणित के पूर्ण ज्ञाता आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी जिन पूजा शुभानुबंधी मोक्षफल प्रदायक है परन्तु द्रव्यपूजा का जीवन ज्योतिष विज्ञान से अछूता नहीं था, अपितु मुहूर्त एवं में आरंभ संबंधी विराधना के कारण जिन-द्रव्य पूजा फलित दोनों विषयों पर आपका पूर्ण अधिकार था। आपके द्वारा में 'अल्प-पाप-बहुत निर्जरा' कहते हैं।
रचित 'श्री अभिधान राजेन्द्र कोश' में गह (ग्रह), नक्खत्त (नक्षत्र), प्रतिक्रमण में उक्त पाठ नहीं कहना, वंदित्तु. सूत्र में पौर्णमासी, अमावस्या, संवच्छर (संवत्सर) आदि शब्दों के अन्तर्गत 'सम्मतस्सय शुद्धि' पाठ कहना । सर्व जगह तीन थुइ आपने ज्योतिष शास्त्र का विशाल ज्ञान अध्येताओं को सहज में उपलब्ध कहना।
करा दिया है। आपने ज्योतिष को मात्र जाना ही नहीं, इसका सूक्ष्म ललितविस्तरा के कर्ता हरिभद्र सूरि वि.सं. 1055 में एवं गहन अध्ययन-मनन कर सदैव सहज साधन के रुप में उपयोग स्वर्गवासी हुए हैं।
भी किया। श्री महावीर शासन में साधु को श्वेत मानोपेत जीर्णप्राय वस्त्र धारण करना चाहिए।
149. राजेन्द्रगुण मञ्जरी (5)
पासत्था को कारण बिना सर्वथा वंदन नहीं करना, 150. श्री राजेन्द्रसूरि का रास पृ. 51
पासत्था को ज्ञान भंडार भी नहीं दिखाना। 151. श्री राजेन्द्रसूरि का रास पृ. 51-77; सिद्धांतप्रकाश ग्रंथ की हस्तलिखित इस प्रकार आचार्यश्री ने वादी के प्रश्नरुप 'निर्णय प्रभाकर'
पाण्डुलिपि (ज्ञान भंडार, कुक्षी, म.प्र.)
152. श्री राजेन्द्रसूरि का रास पृ. 78 ग्रंथ के प्रत्युत्तर में आठ दिन में 'सिद्धांत प्रकाश' ग्रंथ की रचना
153. वही पृ. 58 द्वारा वादी के मत का खंडन कर अद्भुत विजय प्राप्त की जिससे 154. श्री राजेन्द्र सूर्योदय - वि.सं. 1959 (गुजराती) प्रथमावृत्ति - सुरत (गुज.) रतलाम में अनुपम धर्म प्रभावना हुई। अन्यत्र भी इससे अतिशय प्र. देशी मित्र मण्डल
(1)
जिन पून
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