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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन द्वितीय परिच्छेद... [73] चार्वाक मत में स्वीकृत 'तत्त्वचतुष्टयवाद' का आधार जैनों "यथैघांसि समिद्धोऽग्नि भस्मसात् कुस्ते क्षणात् । के 'पुद्गलैकतत्त्ववाद' से खंडित हो जाता है। इसलिए ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि, भस्मसात् कुस्ते तथा ॥" "भूतेभ्यश्चैतन्योत्पादः" - एसा जो चार्वाकों का सिद्धांत कर्म का क्षय दो प्रकार से होता है -(1) तप के द्वारा और (2) है, वह खंडित हो जाता है। उपभोग के द्वारा । जो कर्म ज्ञानाग्नि से नष्ट नहीं किये जाते उनका क्षय चूंकि चार्वाकके मत में प्रत्यक्ष के अतिरिक्त कोई प्रमाण उपभोग से ही होता हैस्वीकृत नहीं है, और वह प्रत्यक्ष भी मूर्त पदार्थो का प्रत्यक्ष है, आत्मा नाभुक्तं क्षीयते कर्म, कल्पकोटि-शतैरपि । अमूर्त पदार्थ है, इसलिए न तो उनके मत में उनका प्रत्यक्ष हो सकता परंतु यहाँ पर यह शंका होना स्वाभाविक है कि कर्मो का है और न ही आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि हो सकती है। इसलिए उपभोग करने पर यदि उनका नाश हो जाता है तो उपभोग करके श्रीमद् रत्नप्रभाचार्य के अनुसार इस प्रस्ताव में आत्मा को ही कर्मों का नाश क्यों न किया जाये, और उपभोग करते हुए ही प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम-प्रमाण से सिद्ध किया गया मोक्ष क्यों न प्राप्त किया जाये? उसका समाधान करते हुए कहा गया है कि "उपभोग के समय अन्य कर्मो के निमित्त की अभिलाषा यहाँ कहा गया है कि मैं सुखी, मैं दु:खी -इत्यादि तद्वान् के साथ मन-वाणी और शरीर की क्रिया होती है इसलिए जैसे ही सः (तत्) -ऐसा मत्वर्थीय ज्ञान आत्मा का बोधक होता है, क्योंकि आरब्ध कर्मो का उपभोग किया जाता है वैसे ही नये कर्मों का बंध आत्मा को सुख-दुःख आदि का प्रत्यक्ष अनुभव होता है। 'अनुमान' से भी आत्मा सिद्ध होती है। व्यावृत्तिहेतु से भी होता जाता है और इस प्रकार कर्मों के उपभोग से आत्यन्तिक आत्मा और शरीरेन्द्रियविषय में प्रत्यक्ष भेद है, अर्थात् शरीरेन्द्रियविषय क्षय संभव नहीं हो पाता है। इसलिए कर्मो के आरब्ध होने के पहले तो विशेष्य हैं और आत्मा उसका विशेषण है। यहाँ पर आश्रय- ही संचित अवस्था में तप के द्वारा नाश कर देने पर ही कर्मो से आश्रयी संबंध है, अर्थात् शरीरादि तो आश्रय है और आत्मा आश्रयी आत्यान्तिक मुक्ति होती है, यह सिद्ध हुआ''||34 है। इस प्रकार से आत्मा शरीर से अत्यन्त व्यावृत्त होने से अनुमान यहाँ पर एक जैन सिद्धांत की शंका को भी उपस्थापित से भी आत्मा सिद्ध होती है। किया गया है कि "यदि मोक्ष सुख की इच्छा से ही यदि तप में आगम में भी आत्मा का स्वरुप बताते हुए कहा गया है स्थित हो तो उसके भी सरागत्व होगा और राग होने से कर्म बंध कि जीव 'उपयोग' लक्षणवाला है। 'आगम' शब्द के अन्तर्गत आत्मा होगा ही।" इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि "संसार की सिद्धि की गयी है। इस प्रकार तीनों प्रमाणों से आत्मा को उत्पादव्यय के कारण रुप, कर्म के निमित्तरुप, शरीर-वाणी और मन ध्रौव्ययुक्त प्रतिपादित किया गया है। परंतु बौद्धों की आत्मा तो बुद्धिक्षण की परम्परा मात्र है; 25. ......., समुदायदशायामभिव्यक्तिस्वीकारादिति चेत् ।...; क्षीणस्ते कोई ध्रुव पदार्थ नहीं है, इसलिए उन्हें चार्वाकों से भी निम्न स्तर तत्त्वचतुष्टयवादः, सर्वेषां भूम्यादीनामुपादानोपादेयभावप्रसंगेन का बताया गया । क्योंकि एक क्षण में ज्ञात पदार्थ उसी क्षण के जैनाभिप्रतेपुद्गलैकतत्वादप्रसंगादिति न भूतेभ्यश्चैतन्योत्पादः सद्वादः।" - साथ नष्ट हो जाने पर स्मरण और प्रत्यभिज्ञा आदि सिद्ध नहीं होते28 | अ.रा.भा., प्रस्ताव, द्वितीय अनुच्छेद, पृ. 2,3 ततः प्रत्यक्षादात्मा सिद्धिसौधमध्यमध्यासामास । नन्वात्मनः कि रुपं, यत् बौद्धों का क्षणवाद प्रत्याख्यात करते हुए यह कहा गया है कि "जो प्रत्यक्षेण साक्षाक्रियते ? यद्येवम्, सुखोदेरपि कि रुपं, यद् न्यायवैशेषिकों का आत्मा का विशेषगुणत्व, कपिल का मानसप्रत्यक्षसमधिकाम्यमिष्यते ? । नन्वादनन्दादिस्वभावं प्रसिद्धमेवरुप प्रकृति-विकार स्वरुप, बौद्धों का वासना स्वभाव और सुखादेः, तर्हि तदाधारत्वमात्मनोऽपि रुपमवगच्छतु भवान्। ...अहं सुखीति ब्रह्मवादी (वेदांती) का अविद्या स्वस्म है -यह सब तु ज्ञप्तिरात्मनोऽपि प्रकाशिका 11211- अनुमानतोऽप्यात्मा प्रसिध्यत्येव । - वही पृ.3 प्रत्याख्यात हो जाता है।" इन सबका विशेष विवेचन अभिधान 27. "उपयोगलक्षणो जीवः" इत्यागमप्रदीपोऽप्यात्मानमुद्योतयति। -वही राजेन्द्र कोश में 'कम्म' शब्द के अन्तर्गत किया गया है। 28. ....... बौद्धास्तु बुद्धिक्षणपरम्परामात्रमेवाऽऽत्मानमाम्नासिषुः न इसके आगे 'कम्म' शब्द के अन्तर्गत प्रतिपादित कर्म का पुनमौक्तिककण-निकरनिरन्तरानुस्यूतैकसूत्रवत् तदन्वयिनमेकम्। ते मूर्तत्व सिद्ध करने के लिये विमर्श किया गया है किन्तु आत्मा अमूर्त लोकायतलुण्टके भ्योऽपि पापीयांस:तद्भावेऽपि तेषां है और कर्म मूर्त है, तब इनमें संबंध कैसे हो सकता है? और किस स्मरणप्रत्यभिज्ञाऽऽद्यघटनात् । -वही पृ. 3; अनुच्छेद-3 प्रकार का संबंध हो सकता है ? यह शंका स्वाभाविक है। इसका 29. ततो यद् यौगैरात्मविशेषगुणलक्षणम्, कापिलैः प्रकृतिविकारस्वरुपम्' सौगतैः वासनास्वभावम्, ब्रह्मवादिभिरविद्यास्वरुपम् चाऽदृष्टमवादिा...कम्म शब्दे समाधान करते हुए कहा गया है कि 'अमूर्त जीव और मूर्त कर्म 246 पृष्ठे...1- वही पृ. 5 में संयोग प्रकार का संबंध है।' जैसे कि घट इत्यादि मूर्त पदार्थों अ.रा.भा.3 प्रस्ताव, तृतीय अनुच्छेद, पृ. 6 का अमूर्त आकाश के साथ संयोग सम्बन्ध होता है । इस प्रकार बीज और अंकुर के दृष्टांत से जीव और कर्म का संबंध स्पष्ट करते 32. अ.रा.भा.3 प्रस्ताव, पृ. 6; अ.रा.भा.3, पृ. 334 33. अ.रा.भा.3 प्रस्ताव, पृ. 6; अ.रा.भा.3, पृ. 334 हुए कर्म का अनादित्व भी यहाँ पर सिद्ध किया गया है। और उन 34. न चोपभोगात् प्रक्षये कर्मान्तरस्यावश्यंभावात् संसारानुच्छेदः, मिथ्यात्वियों का खंडन किया गया है जो कहते हैं कि "स्वतंत्रजीव समाधिबलादुत्पन्नतत्त्वज्ञानस्यावगत- कर्म सामथ्र्योत्पाकर्मो से बंध जाते हैं।" कर्म और कर्म का फल बताने के बाद दितयुगपदशेषशरीरद्वाराऽवाप्ताशेषभोगस्य कमान्तरोत्पत्ति मिथ्याज्ञानजनितानुसंघानविकलस्य कर्मान्तरोत्पत्त्यनुपपतेः । न च कर्म के क्षय का विचार किया गया है। यहाँ सिद्धांत को उद्धत किया मिथ्याज्ञानाभावेऽभिलाषस्यैवासंभवात् भोगानुपपति: तदुपभोगं विना कर्मणां गया है प्रक्षयानुपपत्ते ज्ञानतोऽपि तदर्थितया प्रवृत्तेः। -अ.रा.भा.3, प्रस्ताव, पृ.7 26. वही Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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