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________________ [72]... द्वितीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन होकर हिन्दी भाषा में प्राप्त होते हैं यह सब ग्रंथ के अवलोकन से सतीर्थ्य मुनि श्री दीपविजयजी एवं मुनि श्री यतीन्द्रविजयजी ने महान निर्विवाद ज्ञात हो जाता है अर्थात् शोधार्थियों के लिये और श्रम किया है। भाषाविज्ञानविदों के लिये भी यह ग्रंथ परम उपादेय है। अभिधान राजेन्द्र कोश : भाग 3 जितना भाषाविदों के लिए उतना ही दार्शनिकों के लिए भी यह प्रस्ताव : उपयोगी है। प्रस्तावना के दूसरे क्रम में 'विषय सूचना' -यह उपशीर्षक तृतीय भाग के प्रस्ताव में तीर्थंकर भगवान् के और उनके देते हुए द्वितीय भाग में आये हुए शब्दो में से कुछ महत्त्वपूर्ण अनुयायी गणधरों के अनन्तजीवरक्षा के निमित्त परीषहसहत्व शब्दों की ओर संकेत किया गया है। जैसे :- आउ ('आयुष') का संकेत करते हुए सुधर्मास्वामी के द्वारा जो प्रश्नोत्तर रुप में कार्यशब्द में आयुः की पुनरावृत्ति, अनित्यत्व, अल्पत्व, दीर्धायुः, शुभदीर्धायुः, कारण भाव का विमर्श किया गया है उसी अर्थ को स्पष्ट करते अशुभदीर्धायुः, आयुष्य के हेतु, आयुःकर्म, गतिभेद से आयु: के भेद, हुए नवांगी टीकाकार श्रीमद्विजय अभयदेवसूरी के अभिप्राय को श्री आयुः का बंध इत्यादि विषयों का उल्लेख किया गया है। आगे इसके अभिधान राजेन्द्र कोश में प्रतिपादित किया गया है, इसका सारांश वर्णन की विशेषता बताते हुए जलकाय (अपकाय) के जीवों की तृतीय भाग के प्रस्ताव में बताया गया है20 । कार्य-कारण भाव का भी युक्ति से सिद्धि की गयी है। और सचित्ताचित और मिश्रयोनियों प्रसंग इस प्रकार से है - का भी विवेक किया गया है, और जो लोग जल के प्रयोग में विवेक सम्यग्दर्शन आदि साधन, मोक्ष साध्य रुप के ही हैं, अन्य नहीं रखते उनके द्वारा जलकाय के जीवों की हिंसा होती हैं, यह किसी अर्थ के साधन नहीं है। अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि तो साधन प्रतिपादित किया गया है। इस प्रकार 'आउक्काय' शब्द के अन्तर्गत है और मोक्ष साध्य है। रत्नत्रय और मोक्ष में यह कार्य-कारण भाव यह एक सैद्धांतिक विमर्श उपस्थापित किया गया है। है। यह कार्य-कारण-भाव संबंध उभय-नियम प्रकार का है अर्थात् 'आउट्टि' शब्द में ज्योतिष के विषय को उठाते हुए अण्डज सम्यग्दर्शन आदि 'मोक्षरुप साध्य' के ही साधन हैं, इसी प्रकार मोक्ष जीवों की और पृथ्वी-कायिक जीवों की किस स्थान से आगति और भी सम्यग्दर्शनादि साधन का ही साध्य है, अन्य किन्हीं साधनों का गति होती है-यह प्रतिपादित करते हुए मिथ्यावादियों के सिद्धांतों नहीं। इस प्रकार अन्वय-व्यतिरेक से उभयविध कारण-कार्यत्व का खंडन किया है। सिद्ध किया है। 'आगम' शब्द में आगम के प्रणेता को सिद्ध करते हुए साध्य मोक्ष है इसलिए प्रधान है। वह मोक्ष 'मोक्ष का कि प्रामाणिक पुरुष के द्वारा प्रणीत होने से ही आगम की जो विपक्ष बंध है', उसके क्षय से होता है। अर्थात् कर्मबंध की प्रमाणिकता सिद्ध होती है। लेकिन ऐसा कोई आगम प्रमाण नहीं संपूर्ण निर्जरा से कर्म का संपूर्ण रुप से विच्छेद हो जाना ही मोक्ष हो सकता जिसका कोई प्रामाणिक पुरुष कर्ता न हो । यहीं पर कणादमत है । यहाँ पर पक्ष और विपक्ष इन दोनों तत्त्वों के माध्यम से कारण का पक्ष में रहना और विपक्ष में न रहना-सूचित किया गया है। में स्वीकृत शब्द प्रमाण का अनुमान प्रमाण में अन्तर्भाव' मोक्ष का विपक्ष बंध है; कर्मो का आत्मा से संबंध बंध भी बताया गया है। इसी संदर्भ में बौद्धों के अपोहवाद, अर्थ कहलाता है। बंध की यह परम्परा अनादि है। इसका क्षय अनुक्रम के स्वरुप, वाच्य-वाचक संबंध का भी विचार किया गया से होता है। इस सिद्धांत को प्रतिपादित करते हुए पंचमांग (भगवती है। यहीं पर वैयाकरणों के 'स्फोटवाद' को स्पष्ट करते हुए जैन सूत्र) में जो प्रश्नोत्तर श्री सुधार्मस्वामी के द्वारा गुम्फित किया है वह मत में शब्द की वाचकता, नित्यता,शब्दार्थ में संबंध,आगमों है 'क्रियामाण का कृतवत् व्यपदेश होना। के भेद और आगमों की नियामकता इत्यादि बहुत सारे विषयों यहाँ पर शंका होना स्वाभाविक है कि कार्य 'सत्' है अथवा का प्रतिपादन किया गया है। 'असत्', इसलिए इसका विस्तृत विमर्श 'कार्य-कारण भाव' शब्द की व्याख्या में अभिधान राजेन्द्र कोश की व्याख्या में दिया गय द्वितीय भाग के अन्य शब्दों का परिचय देते हुए 'आणा' अर्थात् आज्ञा के विषय में कहा गया है कि तीर्थंकर की आज्ञा 'बंध' कर्म का होता है और बंध के नाश से मोक्ष होत को अन्यथा (भंग) करने में दोष है, और उसका प्रायश्चित और इससे संबंधित बहुत सारे विषय जो कि आज्ञा-व्यवहार के अन्तर्गत है- इस सिद्धांत को नास्तिक चार्वाक नहीं मानता। चार्वाक की युक्तिर आते हैं, 'आणा' शब्द के अन्तर्गत व्याख्यायित हैं। इसी प्रकार का अपने तर्कों से जो खंडन श्रीमद् रत्नप्रभाचार्य ने किया है, उसव 'आयरिय' शब्द के अन्तर्गत श्रेष्ठ आचार्य से संबंधित तथ्यों की संक्षिप्त परिचय इस प्रस्ताव में देते हुए कहा गया है "चूंकि पुद्ग चर्चा का संकेत किया गया है। इसके अतिरिक्त एक छोटी सी एक जाति है इसलिए इसमें विशिष्ट संयोगादि की कल्पना गौरव सूची भी दी गयी है। 20. अ.रा.भा.3, प्रस्ताव, प्रथम अनुच्छेद, पृ.1 प्रस्तावना के अगले भाग में निर्दिष्टों ग्रंथों की संकेत सूची 21. वही और उसकी उपयोगिता के बारे में बताया गया है। 22. स च मोक्षो विपक्षक्षयात्। तद्विपक्षश्व बन्धः । -वही अंत में उपलब्ध पाण्डुलिपियों की जीर्णता इत्यादि के कारण 23. .... तद् विपक्षश्व बन्धः । स च मुख्यः कर्मभिरात्मनः संबन्धः। तेषां पाठ-भेद के कारण कहा गया है कि इस कोश में कहीं पाठ भेद कर्मणा प्रक्षयेऽयमनुक्रम उक्त:- 'चलमाणे' इत्यादि । - अ.रा.भा प्रस्ताव, प्रथम अनुच्छेद पृ.1 से, कहीं मुद्रणदोष से, और कहीं दृष्टिदोष इत्यादि से होनेवाली अशुद्धियों 24. ....... सदसत्कार्यवादरुपस्याऽ ऽत्मनोऽर्थस्यागाधत्वमद को विद्वान् लोग सुधार कर पढ़ें। .....'कज्जकारणभाव' शब्दे। इस ग्रंथ के संशोधन में उपाध्याय श्री मोहनविजयजी के -वही द्वितीय अनुच्छे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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