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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
परिशिष्ट... [9] प्रतिक्रमण में श्रुतदेवता, क्षेत्रदेवता और भुवनदेवता का कायोत्सर्ग और स्तुति', लघुशान्ति , बडी शांति का पाठ-विधान जिनागम-पंचागी और प्राचीनाचार्य-प्रणीत प्रामाणिक ग्रन्थो में नहीं है। अतः प्रतिक्रमण में इनका करना और कहना अशास्त्रीय और दोषपूर्ण है। किन्तु साधु-साध्वी के लिये पाक्षिक, चातुर्मासिक तथा सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में "दुक्खक्खय कम्मक्खय" के कायोत्सर्ग के बाद आज्ञा निमित्तक भुवनक्षेत्र
देवता का कायोत्सर्ग अदोष है।" ६.a . आ. मेस्तुंगसूरिकृत लघुसत्पदी एवं आ. महेन्द्रसूरिकृत बृहत्सत्पदी
-विचार क्र.19, आवश्यक चूर्णि B. (૧) શ્રી શાકંભરી નગરમાં મરકીનો ઉપદ્રવ થયો હતો. તે બાબતે સંઘે નાડોલ નગરમાં બિરાજમાન શ્રીમાનદેવસૂરિને અરજ કરી.
દયાળુ સૂરિજીએ આ શાંતિ બનાવી મોકલી. તેથી મરકી શાંત થઈ. આ સ્તોત્રને ભણવાથી, સાંભળવાથી તથા તેનું મંત્રિત જળ છાંટવાથી અનેક પ્રકારના ઉપદ્રવો દૂર થાય છે અને શાંતિ ફેલાય છે. આ લઘુશાંતિ પ્રતિક્રમણમાં દાખલ થયાને લગભગ 500 વર્ષ થયાં. આને માટે વૃદ્ધો એમ કહે છે કે - ઉદયપુરમાં એક યતિજી હતા તેમની પાસે શ્રાવકો વખતોવખત શાંતિ સાંભળવા આવતા. આથી પતિજી કંટાળ્યા, તેથી તેમણે તે પ્રતિક્રમણમાં છેવટે દાખલ કરાવી જેથી સૌ સાંભળી શકે એમ ઠરાવ્યું ત્યાર પછી તે રિવાજ ચાલુ થયો.
-* शशिक्षामाला - त्री यो५ पृ. 130, प्रकाशित - जैन श्रेयस्कर मंडल - महेसाणा (b) વૃદ્ધવાદ એવો છે કે આ સ્તવ (લઘુશાંતિ)ની રચના થયાં પછી માંગલિકને માટે સર્વત્ર આ સ્તવ ભણવામાં આવતો, પરંતુ આજથી
લગભગ પાંચસો વર્ષ અગાઉ એક યતિ ઉદયપુરમાં રહ્યા હતા. તેમની પાસે શ્રાવકો વારંવાર માંગલિકના અર્થે આ સ્તવ સાંભળવા આવતા, તેથી યતિનો સર્વ વખત તેમાં જવા લાગ્યો. તેથી તેમણે પ્રતિક્રમણમાં દુખખયના કાયોત્સર્ગને અંતે આ સ્તવ કહેવાનો ઠરાવ કર્યો. ત્યારથી તે રિવાજ પ્રચલિત થયો છે.
-देवसिराइप्रतिक्रमण सूत्र (शब्दार्थ, अन्ययार्थ और भावार्थ) द्वितीयावृत्ति पृ. 179 जैन रत्र कार्यालय से वि.सं. 2004
में प्रकाशित 'बहच्छान्तिस्तोत्र' प्रतिष्ठा, यात्रा और स्नात्रपूजादि के अन्त में शान्ति होने के निमित्त बनाया गया है। प्रतिक्रमण में उसके पाठ मात्र से कोई लाभ नहीं होता। जो स्तोत्र जिस विधि से कहने का कहा गया हो, वह उसी प्रकार की विधि विधान से लाभकारक होता है। बृहच्छान्तिस्तोत्र में ही इसकी विधि बताई गई है कि'इति भव्यजनैः सह समेत्य, स्नात्रपीठे स्नात्रं विधाय शांतिमुद्घोषयामि, तत्पूजायात्रास्त्रात्रादि-महोत्सवानंतरमिति कृत्वा कर्ण दत्वा निशम्यतां निशम्यतां स्वाहा । एषा शान्तिः प्रतिष्ठायात्रास्नात्राद्यवसानेषु शान्तिकलशं गृहीत्वा कुंकुम चन्दनकर्पूरागरधूपवास-कुसुमाञ्जालिसमेतः स्नात्रचतुष्किकायां श्री सङ्घसमेतः शुचिशुचिवपुः पुष्पवस्त्रचन्दना भरणालंकृतः पुष्पमालां कण्ठेकृत्वा शान्तिमुद्घोषयित्वा शान्तिपानीयं मस्तके दातव्यमिति ।।
नृत्यन्ति नृत्यं मणिपुष्पवर्ष, सजन्ति गायन्ति च मङ्गलानि ।
स्तोत्राणि गोत्राणि पठन्ति मन्त्रान, कल्याणभाजो हि जिनाभिषेके ॥ अर्थात् 'बृहच्छान्तिस्तोत्र' में लिखा है - कि यह शांति स्त्रात्रपीठे स्नान करके, प्रतिष्ठा, यात्रा तथा स्नात्रोत्सव आदि के अंत में अवश्य कहना चाहिए। स्नानपूर्वक अबोट वस्त्र, चन्दन, माला और अभिरणादि से अलंकृत होकर एक श्रावक पवित्र जलपूर्ण कलश और कुंकुम, केशर, बरास आदि सामग्री साथ लेकर संघ के सहित प्रतिष्ठा या स्नात्रमंडप में आकर कलश को स्थापन करके शान्तिपाठ बोले । फिर कलश की केशर आदि से पूजा करे। तदनन्तर कलश को किसी पवित्र सधवा या कुमारी कन्या के सिर पर रखकर नृत्य करावें, मणिपुष्पों की वर्षा करें, मांगलिक गीत गवावे, कुसुमांजली उछाले और जिनेश्वर नाम, गोत्र के गर्भित स्तोत्र भणे। इस विधि से शान्तिपाठ कहा जाय तभी वह कार्यकारी होता है।
- बृहद् शांति स्तोत्र सार्थ प्रतिक्रमण में त्यागी साधु या श्रावक (सामायिक विरतिवान) के पास न तो उपरोक्त उचित सामग्री होती है और न यह विधि करना उचित है अतः आवश्यक नियुक्ति, आवश्यक दीपिका, साधु प्रतिक्रमण सूत्र आदि किसी भी प्राचीन ग्रंथ में प्रतिक्रमण में बृहतशांतिस्तोत्र बोलने की विधि नहीं कही है अतः आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसरिने इसका निषेध किया है। चउम्मसीए य वरिसे मुसग्ग खित्तदेवयाए पक्खि । य सिज्जसुराए करिन्ति चउमासीए एए ।। टीका - चाउम्मासीय संवच्छरीएसु सव्वे वि मूलगुण-उत्तरगुणकाउसग्गं दाऊण पडिक्कमंति खित्तदेवयाए उस्सग्गं करिन्ति । केई पुण चाउम्मासिगे सिज्जोदेवियाए वि काउस्सग्गं करिति इत्यादि.... ।
- आवश्य: नियुक्ति भूगमने 2151 - 6द्धृत 'सिद्धान्त ५७' पृ. 52 ___E विचारामृत संग्रह- श्री कुलमंडनसूरिजी (चतुर्थ स्तुतिनिर्णय शंकोद्धार पृ. 170)
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