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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [309] अनुप्रेक्षा से आयुष्य कर्म के अलावा गाढ बंधन से बँधी (5) निमित्त - निमित्त विषयक ज्ञान से भूत-भावि और वर्तमान हुई सात प्रकृतियों को शिथिलबंधन से बद्ध अर्थात् अपवर्तन आदि
के विषय में भविष्य कथन करना - निमित्त भावना हैं। करण योग्य करता है, तथा तीव्ररसवाली अशुभ प्रकृतियों को मन्द
यह भावना साधु यदि ऋद्धि, रस या शाता की इच्छा से रसवाली बनाता है। यदि आयुष्यकर्म का बंध करे तो देव गति का
रहित निर्णायक ज्ञानयुक्त होकर शासन प्रभावना हेतु करता है तो वह ही आयुष्यबंध करता है तथा असाता वेदनीय तथा दूसरी अशुभ
तीर्थ (धर्म) की उन्नति करता है और उच्च गोत्र का बंध होता है प्रकृतियों का बार-बार बंध नहीं करता और अनादि अनंत दीर्धकाल
और यदि ऋद्धि आदि गारव (गौरव) की इच्छा से करता है तो आभियोगिक वाले चतुर्गति रुप संसार अरण्य को मुनि शीध्र पार कर जाते हैं।
(निम्न) देव गति में उत्पन्न होता हैं।" इनके अभ्यास से शारीरिक एवं सांसारिक आसक्ति मिटती है और
(4) आसुरी भावना - आसुरी भावना पाँच प्रकार की हैंआत्मविकास होता है।
क. सदा विग्रहशीलत्व (कलहप्रियता) अन्य अपेक्षा से भावनाओं का वर्गीकरण :
ख. संसक्त तप - आहारादि की इच्छा से तप करना अभिधान राजेन्द्र कोश में एक अन्य प्रकार से भावनाओं
ग. निमित्त कथन - अभिमान से अष्टाङ्ग निमित्त का कथन के दो वर्ग बताये गये हैं - द्रव्य भावना और भाव भावना ।
करना। (1) द्रव्य भावना - धनुविद्या, शब्दवेध, अश्वविद्या, गजविद्या आदि
घ. निष्कृपालुता - गमना-गमन, आसानादि में स्थावरादि का अभ्यास, चित्रकलादि अनेक कलाओं का अभ्यास आदि द्रव्य
जीवों की दयापालन में प्रमाद कर पश्चाताप नहीं करना। भावना हैं। (2) भाव भावना - यह भावना दो प्रकार से हैं
ङ निरनुकम्पत्व - क्रूरता सेअनुकम्पायोग्य जीवों के उपर
भी अनुकम्पा (दया) न करना इस भावना से जीव आसुरी (क) असंक्लिष्ट भाव भावना / प्रशस्त भावना :
गति प्रायोग्य कर्म बांधकर असुरकुमारादि (भवनपति) देवों प्राणातिपातादिविरमण रुप पाँच महाव्रतों की सुरक्षा एवं दृढता
में उत्पन्न होता है। हेतु ईर्यासमिति पालन आदि पच्चीस भावनाएँ असंक्लिष्ट भाव-भावना है जिनका यथायोग्य वर्णन शोध प्रबंध के इसी परिच्छेद में यथास्थान
(5) सम्मोही भावना - सम्मोही भावना पाँच प्रकार की किया गया हैं। (ख) संक्लिष्ट भाव-भावना/अप्रशस्त भावना :
(1) उन्मार्ग देशना - ज्ञानादि को दूषित नहीं करते हुए रत्नत्रय
से विपरीत मार्ग का उपदेश देना। जिसमें जीव के परिणाम राग-द्वेषादि क्लेशयुक्त रहते हैं
(2) मार्गदूषणता - अभिमान से साधु को जाति आदि का और जिसमें सदसद् विवेक नहीं रहता, उसे संक्लिष्ट भावना या अप्रशस्त
दूषण देना। भावना कहते हैं। यह पाँच प्रकार से हैं।38
(3) मार्गविप्रतिपत्ती - ज्ञानादि मार्ग को असदूषण से दूषित (1) कंदर्प भावना - (1) कंदर्प (काम) (2) कौत्कुच्य (3)
कर जमालिवत् एकदेश से उन्मार्ग देशना देना। दुःशीलत्व (4) हास्य (5) परविस्मयकरण - इस पाँचों प्रकार
(4) मोह - परतीर्थिकों (अन्य दर्शनियों) की अनेक प्रकार की के सेवन से कंदर्प भावना होती है। इससे जीव द्रव्य चारित्र
समृद्धि और चमत्कार देखकर मोहित होना। का पालन करने पर भी भाव संक्लिष्ट होने से कंदर्प देवों
(5) मोहजनकत्व - स्वभाव से या कष्ट से दूसरों को अन्य में उत्पन्न होकर विट् (भाण्ड) की तरह रहता हैं।39
दर्शन में मोह पैदा करवाना इससे बोधिलाभ नहीं होता। (2) किल्बिषी भावना - (1) श्रुतज्ञान (2) केवलि भगवंत
ये 25 संक्लिष्ट भावनाएँ अशुभ, और सम्यक् चारित्र में (3) धर्माचार्य (4) श्री सङ्घ और (5) साधु भगवंत की निंदा
विघ्नकारी होने से मुनियों को त्याज्य हैं। इनके निरोध से सम्यक से किल्बिषी भावना उत्पन्न होती है जिससे जीव अस्पृश्यवत् चारित्र की प्राप्ति होती है।45
किल्बिषिक नामक देवों में उत्पन्न होता है।40 (3) आभियोगी भावना - यह भावना पाँच प्रकार से हैं - (1) कौतुक - शिशुओं की बीलग्रह आदि रोगों से रक्षा हेतु धूपादि करना, होम करना, अभिमंत्रण करना-कौतुक
33. अ.रा.भा. 1/389 अभियोगी भावना है।
34. अ.रा.भा. 1/389 (2) भूति कर्म - शरीर या पदार्थ (बर्तनादि) या स्थान की
35. अ.रा.भा. 1/389
36. अ.रा.भा. 5/1511 रक्षा हेतु भस्म, धागादि करना-भूति कर्म है।
37. वही, पृ. 1511, 1512 (3) प्रश्न - दूसरों को लाभालाभ के विषय में पूछना या ।
38. वही,पृ. 1511 स्वयं अंगूठा, दर्पण, तलवार, जलादि में देखना या दिखाना 39. अ.रा.पृ. 5/1511, 1513 - वह प्रश्न भावना है।
40. अ.रा.पृ. 5/1513 प्रश्नाप्रश्न - स्वप्न में या देवता के द्वारा घटिकादि में
41. अ.रा.पृ. 5/1514
42. अ.रा.पृ. 5/1514 अवतरित होकर या विद्या के द्वारा दूसरों के विषय में
43. अ.रा.भा. 5/1514 शुभाशुभ का कथन, प्रश्नाप्रश्न भावना हैं।
44. वही 45. वही; प्रवचनसारोद्धार, 73 वाँ द्वार
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