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प्रस्तावना
अभिधान राजेन्द्र एक 'विश्वकोश' के स्वरुप का ग्रंथरन है। इसमें अर्धमागधी प्राकृत भाषा के शब्दों की विस्तृत व्याख्या दी गई है। अर्धमागधी भगवान महावीर के समय जनसामान्य की भाषा थी। इसलिये उस समय अर्थ समझने में अतिरिक्त परिश्रम नहीं करना पड़ता था। परन्तु बारहवीं शताब्दी के बाद अपभ्रंश और फिर धीरे-धीरे क्षेत्रीय भाषाओं का विकास हो गया, इसलिये अर्धमागधी अथवा किसी भी प्राकृत भाषाकी रचनाओं को समझना कठिन हो गया। क्षेत्रीय भाषाओं के विकास के साथ शब्दों के स्वरुप में भी परिवर्तन हुआ परन्तु आचारपरक अथवा सैद्धान्तिक शब्दावली रुढ हो जाने से और उनका विशेष अर्थ होने से कोशग्रंथो की सहायता के बिना समझना अत्यन्त कठिन है। यह निश्चित है कि सिद्धांतों का व्यवहारिक प्रयोग होना चाहिए, इसलिए आचारपरक ज्ञान और व्याख्या आवश्यक है। इसलिए 'अभिधान राजेन्द्र' कोश में यों तो सभी शब्दों का समान रुप से संकलन किया गया है और फिर उनकी व्याख्या भी दी गई है, फिर भी प्राचीन जैन साहित्य के अर्धमागधीमय होने से जैनधर्म और जैनदर्शन के शब्द अर्धमागधीमय होने से और परमर्षि आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के जैन श्रमण परंपरा से सम्बद्ध होने से जैन धर्म और जैन दर्शन का कोई भी विषय उनसे छट नहीं पाया। चाहे वह सैद्धान्तिक विमर्श हो. ऐतिहासिक संदर्भ हो अथवा आचरण विज्ञान जैसा शुद्ध व्यवहारिक दार्शनिक विषय हो; आचार्य की व्यापक दृष्टि में सभी प्रत्यक्ष होते दिखाई देते हैं। इसलिए हमने यहां 'अभिधान राजेन्द्र कोश' को आधार ग्रंथ के रुप में लिया है। इतिहासकारों के अनुसार श्रमण परंपरा प्राग्वैदिक काल के 'इन्डो ईरानियन' कालखण्ड से प्रचलित है। वेदों में भी श्रमण संस्कृत से सम्बद्ध अनेक शब्द प्राप्त होते हैं, जैसे - श्रमण, अर्हत् इत्यादि । 'श्रमण' शब्द स्वयं ही आचार का बोधक है, अर्थात् श्रमण परम्परा आचारप्रधान परम्परा है। इसका अर्थ है : 'तप रुप श्रम के द्वारा आत्मा के छिपे हुए गुणों का विकास करना ।' तप की विधियां स्पष्ट करने के लिये श्रमण परम्परा की एक विशेष शब्दावली है। चाहे सैद्धांतिक पक्ष हो या आचार पक्ष हो, दोनों में ही ऐसे शब्दों की शृंखला है, जिनकी व्याख्या संस्कृत अथवा प्राकृत आदि व्याकरणों अथवा साधारण कोशग्रंथों के माध्यम से नहीं समझाई जा सकती। इसके लिये उस परंपरा के ऋषियों द्वारा, विद्वानों द्वारा रचित कोशग्रंथो की सहायता लेनी पडती हैं। सम्बद्ध विषय पर अद्यावधि हुए कार्य का पुनरवलोकन -
अभिधान राजेन्द्र कोश की दार्शनिक शब्दावली पर अभी तक कोई कार्य हुआ हो - ऐसा जानने में नहीं आया है। यद्यपि राजेन्द्रकोश में 'अ' शीर्षक से 'अ' वर्ण के अन्तर्गत वर्णित सिद्धान्तों से सम्बन्धित कुछ दृष्टान्त कथाओं का संकलन वर्तमानाचार्य राष्ट्रसन्त श्रीमद्विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी महाराज द्वारा दो भागों में प्रस्तुत किया गया है। उद्देश्य एवं लक्ष्य -
श्रमण परम्परा अपनी आभ्यंतर शुद्धि के माध्यम से बाह्य विकारों को नष्ट कर आत्मा की चरम उत्कर्ष की अवस्था को प्राप्त करानेवाली पद्धति का पर्याय है। सैद्धान्तिक पक्ष यदि व्यवहारिक रुप में सफल नहीं होता तो उपदेश के कुछ समय बाद वह प्रचलन से बाहर हो जाता है, परन्तु जैन दर्शन का व्यवहारिक पक्ष जैन आचार विज्ञान आज भी भारतवर्ष में श्रमण परंपरा के भिन्न-भिन्न संप्रदायों के रुप में जीवित है। आज के व्यस्ततम जीवन में भोगवाद के बढ़ते प्रभाव में संस्कारयोग्य वय के बालकों को, युवाओं को और यहां तक कि वृद्धों को भी आचार विज्ञान एवं सिद्धांत भाग की घुट्टी पिलाना अति दुष्कर कार्य है, परन्तु सिद्धांतों के अनुरुप आत्मशुद्धि के लिये जैन आचार-विचार का पालन करने का उपदेश करना और सभी अवस्थाओं के जनों में सम्मान, प्रेरणा, पुरस्कार, आत्मिक सुखानुभव आदि के माध्यम से उसे सहज ही प्रचारित किया जा सकता है। इसके लिये आवश्यक है कि आचारपरक शब्दावली का सांगोपांग विवेचन किया जाये।
अभी तक इस प्रकार का कोई ग्रन्थ देखने को नहीं मिला, यद्यपि 'अभिधान राजेन्द्र कोश' में कदम-कदम पर इसका दर्शन होता है। इन शब्दों को एकत्र संकलित कर आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज की दिव्य दृष्टि से प्राप्त अर्थ
और अन्य लेखकों की दृष्टि में उनकी विशेषता और भेद स्पष्ट करने का लक्ष्य रखकर 'अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन' नामक शीर्षक के अन्तर्गत समग्र कार्य को निम्नलिखित उद्देश्यों के साथ प्रस्तुत करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था(1) जैनपरंपरा की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का एकत्र संकलन एवं वर्गीकरण करना, (2) उपर्युक्त शब्दावली का व्युत्पत्ति एवं निरुक्तिमूलक अर्थ प्रस्तुत करना (3) उपर्युक्त शब्दावली के बारे में अन्य कोशग्रंथों एवं जैन साहित्य में दिये गये अर्थों का तुलनात्मक स्वरुप एवं समीक्षा
प्रस्तुत करना, और
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