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शताब्दी दस्तावेज
सत्य की खोज, संयम की आराधना, शब्दों के रहस्योद्घाटन, वाडमय की विविधा तथा दर्शन व तत्व के चिन्तन के दोहन को जीवन के पटल पर परम योगी आचार्य गुरूदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने अनुस्युत कर अप्रतिम प्रतिभा को परिभाषित किया । उनकी जीवन साधना स्वपर कल्याण, समता, सिद्धि, समग्रता एवं सम्यक्त्व के लिए समर्पित थी । उनने आध्यात्मिक अभ्युदय के क्षेत्र में भी स्वावलंबन को मूल्यित कर त्रिस्तुतिक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया तथा धर्म के वास्तविक स्वरूप को अनावृत्त किया । श्रमणजीवन की मर्यादाओं के अनुपालन तथा जीवन निर्वाह में तप, योग, बोध को सर्वोपरी स्थान व स्थिति पर हृदयंगम करते हुए उनने प्राकृत अर्धमागधी के शब्दो को अर्थ, भावार्थ, व्युत्पति, निर्युक्ति, संदर्भ की छैनियो से तराशा तथा उन्हें 'अभिधान राजेन्द्र कोश' के रूप में व्यवस्थित क्रमबद्ध कर मूर्तिमंत किया। एक एक शब्द को उनने आकार देकर उसमें विस्तृत अनुसंधान के माध्यम से प्राण फूंकने का श्रमसाध्य उपक्रम किया। यहां तक कि इस उदेश्य की प्राप्ति में कहीं कहीं कई शब्द कोष के तीस तीस पृष्ठों को घेरने तक अद्वितीय रूप से विस्तृत हो गये। अभिधान राजेन्द्र कोश केवल शब्दों की क्रमबद्ध सूची ही नहीं, उनके अर्थ भावार्थ का अंकन ही नहीं, उनका रूपपरक या कथ्यपरक विवेचन ही नहीं, बल्कि शब्द का सम्बद्ध विषय में अन्तरण है । वह उसका सम्पूर्ण विवेचन, विश्लेषण एवं विशिष्टीकरण करने में सफल हुआ है। अतएव इसकी श्रेणी साधारण कोश की नहीं बल्कि ज्ञानकोश / विश्वकोश है।
भारतीय अध्ययेताओं ने वैदिक संस्कृति के लिए संस्कृत एवं श्रमण संस्कृति के लिए लोकभाषा को माध्यम बनाकर सर्वजन के मस्तिष्क का स्पर्श करने का प्रयास किया है। श्रमण संस्कृति में भी जैनधर्म ने प्राकृत-अर्धमागधी एवं बौद्ध धर्म ने पाली से अपनी संरचनाओं को विवेच्य स्वरूप दिया है। अर्धमागधी के शब्दों से ही जैनागमों का श्रृंगार हुआ है । गुरूदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने इन्हीं शब्दो को कसौटियों पर कस कर उनमें निहित अजस्त्र उर्जा धाराओं का उद्गम किया है। अभिधान राजेन्द्र कोश की शब्दावली आचारपरक तथा दार्शनिक है। उस तक पहुंचकर उनकी व्याख्या करने का कार्य आसान नहीं था, इसके लिए सघन परीश्रम, मेघा तथा तपःपूत प्रयास की आवश्यकता थी। किसी विषय के अंतरतल तक की शोध शैक्षणिक अध्यवसाय की मांग हो सकती है लेकिन पूज्या साध्वी डॉ. श्री दर्शितकलाश्रीजी म.सा. ने इसकी खानापूर्ति से अधिक गहराई तक जाकर विषय उदधिका मंथन करने का प्रयत्न किया है। जिसका परिणाम यह शोधप्रबंध है। जैसा कि साध्वी डॉ. श्री दर्शितकलाश्रीजी ने शोध-प्रबंध की प्रस्तावना में ही उल्लेख किया है- इस शोधकार्य का उद्देश्य जैन परंपरा की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली के एकत्रण, संकलन तथा वर्गीकरण के साथ व्युत्पत्ति तथा निरूक्ति का संदर्भ तो है ही उनके अर्थों की तुलनात्मक समीक्षा भी है। इस दिशा में उनने निश्चित उपलब्धि प्राप्त की है। उनने शब्दो को जैन दृष्टि के साथ ब्राह्मण तथा बौद्ध परम्परा के मतों से भी क्रियात्मक कर प्रस्तृत किया है। विभिन्न सम्प्रदायों में सिद्धांतों की अपनी मौलिकताओं का अंतर इस शोधकार्य द्वारा चिन्हित किया गया है । सात सो पृष्ठों के इस सर्जन ने अभिधान राजेन्द्र कोश को नाभि पर रखकर उसका वाडमय बिम्ब निर्मित किया है।
प्रस्तुत वर्ष ज्ञानसम्बुद्ध, धर्मसारथी, विरल विभूति जैनाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के निर्वाण को शताब्दी कालखंड से सुशोभित कर रहा है। इस स्वर्ण प्रसंग पर पूज्य साध्वी डॉ. दर्शितकलाश्रीजी म.सा. का यह शोधप्रबंध शताब्दी नायक के व्यक्तित्व तथा कृतित्व का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है। साध्वीजी ने गुरूदेवश्री के जीवन को विभिन्न बिन्दुओं के शीर्षकों से युक्त कर उनकी विशेषताओं का सांगोपांग उल्लेख किया है। प्रथम परिच्छेद में गुरुदेवश्री जीवनवृत्त, उनकी गुरु व गच्छ परम्परा, शिष्यवर्तुल, त्रिस्तुतिक सिद्धांत की अवधारणा, उनके व्यक्तित्व की अनूठी विशेषताओं को व्यवस्थित उपादेय बनाया है। यहीं नहीं उनके चातुर्मास की सूची, साहित्य की सूची आदि संकलित कर इसे बहुमुखी बनाया है। साध्वीश्री ने स्वयं संवेगवर्धित विचारो में अनुरंजित होकर प्रवज्या ग्रहण की है तथा जैन शास्त्रोक्त सर्वविरति मार्ग अपनाया है। वे गुरुदेवश्री की परम्परा में ही परम पूज्य राष्ट्रसंत जैनाचार्य श्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी महाराज के गच्छाधिपत्य में सम्मिलित हैं। पूज्य राष्ट्रसंत जैनाचार्य श्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी महाराज भी स्वयं शब्दो की अभिव्यंजना, भावों के परिष्करण, चिन्तन की सघनता तथा मूल्यों की समरसता के प्रतीक है। वे तीर्थ प्रभावक, गंभीर व्याख्यानी, संयम दानेश्वरी, कीर्ति हस्ताक्षर सुविशाल गच्छाधिपति हैं। यह ग्रंथ साध्वीजी की गुरुभक्ति का परिचायक है। साथ ही जैनदर्शन के विषयो में, गहन अभिरूचि तथा शोध में समर्पण के भाव भी इससे झलकते है । ज्ञानार्जन एवं विद्याध्ययन तपस्या है। ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होने पर ही ज्ञान का प्रकाश जीवन में प्रभासित हो पाता है । साध्वी डॉ. दर्शितकलाश्रीजी म.सा. ने अपनी जीवन नौका को तूफानों की ओर घुमाकर उसमें से शांति एवं आत्म प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त किया है। उनके प्रति वंदना सहित शत शत साधुवाद, सराहना एवं प्रशंसा के भाव अर्पित है।
जीवन की अनुभूतियाँ कल्पना के साथ सामंजस्य स्थापित कर साहित्य के रूप अभिव्यक्त होती है। शोधप्रबंध का लेखन शिक्षा के आयाम का निर्माण करता है। यह ग्रंथ अनुभूतिजन्य शैक्षणिक पाठ्यक्रम की पूर्ति है अतएव इसका स्थान असाधारण का कीर्ति बिन्दु बन गया है । आशा है इससे समाज की भक्ति तृषा तथा पाठकों की ज्ञान इच्छा दोनों को सामग्री प्राप्त होगी। धन्यवाद !
सुरेन्द्र लोढा
सम्पादक दैनिक 'ध्वज'
वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष : अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद
मंदसौर (म.प्र.) दिनाक : ६-१२-०६
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