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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन द्वितीय परिच्छेद... [75] का समग्र विवेचन किया गया है जो इसी शोध प्रबंध में यथास्थान और समर्पण का परिचय देते हुए तृतीय भाग का 'प्रस्ताव' अलंकृत दिया गया है। किया है। __ चैत्यवंदन भी भावक्रिया से संबंधित होने से 'चेइय' अभिधान राजेन्द्र कोश : भाग 4 शब्द के अन्तर्गत कर्म के ही प्रसंग में चैत्यवंदन एवं चैत्यों का घण्टापथ : एक परिचयःपंचविधत्व प्रतिपादित किया गया है। साथ ही ढूंढकमतीय चैत्यवंदन अभिधान राजेन्द्र कोश की मुख्य वस्तु के अतिरिक्त सहायक संबंधी विप्रतिपत्ति का भी प्रतिपादन किया गया है। यहीं पर विषय-वस्तु में प्रस्तावना, उपोद्घात परिशिष्ट, मंगलाचरण एवं प्रशस्ति चैत्य संबंधी अनेक विषयों के साथ ही प्रतिमा का फलदत्व, प्रतिमा आदि को समाहित कर उसका परिचय दिया गया है। इसी क्रम का प्रामाण्य, बिंबकारण विधि एवं बिंब-प्रतिष्ठाविधि, जिनचैत्य में अभिधान राजेन्द्र कोश के चतुर्थ भाग में उपाध्याय श्री मोहन विजयजी के अंदर व्यंतरायतन विधान इत्यादि बहुत से विषयों का विवेचन के द्वारा लिखा गया चतुर्थ भाग का 'घण्टापथ' भी प्रस्तावना के किया गया है। रुप में लिखा गया है, इसे चतुर्थ भाग की दूसरी प्रस्तावना कहा चैत्य और चैत्यवंदन का भी विस्तार बहुत है। 'चेइयंवंदन' जा सकता है। शब्द के अन्तर्गत त्रिविध वंदना, चतुर्विश-तिस्तवः, चैत्यवंदनवेला, जैसा कि पूर्व में विमर्श किया जा चुका है, अभिधान राजेन्द्र चैत्यवंदनविधि इत्यादि बहुत से विषय वर्णित हैं । जो शोध प्रबंध कोश की विषय-वस्तु का विभाजन चार भागों में होने का उल्लेख में यथास्थान विवेचित हैं" तृतीय भाग के प्रस्ताव के अन्त में वलभीपुर में हुई प्रथम संशोधकद्वय, मुनिश्री दीपविजयजी एवं मुनिश्री यतीन्द्रविजयजी द्वारा किया गया है, जब कि यह ग्रंथराज सात भागों में प्रणेता द्वारा स्वयं वाचना एवं उसमें लिये गये निर्णय के अनुसार अनेक आगम ग्रंथों ही विभक्त किया था - ऐसा सिद्ध भी कर आये हैं। उपाध्याय श्री का निर्माण एवं भद्रबाहुस्वामी इत्यादि आचार्यों के द्वारा निर्मित नियुक्ति, मोहन विजयजी ने 'घण्टापथ' लिखते हुए इसे 'चतुर्थ भाग- घण्टापथ' भाष्य, चूर्णि, टीका, वृत्ति इत्यादि की रचना का संकेत किया गया यह नाम दिया है और यह उपलब्ध चतुर्थ भाग की प्रस्तावना के है। वहाँ कहा गया है कि पंचमकाल में काल प्रभाव से पठन बाद निबद्ध किया गया है। पाठन से पराङ्मुख, दुःखों से अभिभूत और विस्मरणशील 'घण्टापथ' में अनेकत्र यह उल्लेख किया गया है कि अमुक मनुष्यों के जैनागमरुपी सागर में तैरना कथमपि संभव नहीं विषय तृतीय भाग की प्रस्तावना में कहा गया है, जैसे -"यद्यपि था, इसलिए जैनागमों का लेखन एवं उसकी व्याख्याएँ तृतीयभागप्रस्तावे समासेन निरुपितोऽयं विषयः प्रयत्नप्रयतैहुई। उनमें से भी केवल 45 आगम ही प्राप्त होते हैं। उन रस्माभिस्तथापि वाचकवर्गमन:पोषाय कदाग्रहग्रहिलतोषाय सोहापोहं भगवतां आगमों को भी इस छोटी सी आयु में उदरपूरण में लगे हुए तीर्थकृतां रागद्वेषविप्रमुक्तत्त्वमेवोद्घाट्यते.... " लोग दृष्टिगोचर भी नहीं कर सकते, ऐसा विचार करके श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने समस्त आगमों के संग्रह रुप ___43. ....। कर्मसम्बन्धादेवीचैत्यवन्दनविधानविषये 'चे इय' शब्दे इस अभिधान राजेन्द्र कोश की रचना की। दुण्ढकमतीयविप्रतिपत्तिप्रतिपादनपुरस्सरं तद्भमसंशोधनं । ...चैत्यस्य पञ्चविधत्वं...भावार्हद्दर्शनम् यथा भव्यानां स्वर्गतफलं प्रत्यव्यभिचारि,.....जैसा कि महानुभावों का स्वभाव होता है तदनुसार ही संशोधक वही पृ.12 महोदयों ने अनेक कारणों से बाधाएँ आने पर भी इस श्रेष्ठ कोश 44. अ.रा.भा.3. प्रस्ताव, पृ.14 का संपादन किया फिर भी, अंत में अपने स्खलन को मिथ्यादुष्कृत 45. ततः श्री वर्द्धमानस्वामिनिर्वाणादनन्तरं खीस्टस्य 454 (ई.) वर्षादारभ्य 467 उक्तिपूर्वक क्षमापना की है। (ई.) वर्षमध्ये श्री वलभीपुरे श्रमणदेवर्द्धिगणिक्षमा श्रमण अंत में तीन गुर्वष्टक दिये हुए हैं। प्रथम गुरु-अष्टक उपाध्याय संघाधिपतिशासनावसरे बहवो जैन विद्वांसः... निर्माय्याने कशः सूत्रादर्शपुस्तकानि तत्तनगरे पुस्तकभाण्डागाराणि व्यधुः...ततस्तदुपरि श्री मोहनविजयजी द्वारा रचित है। इसमें आठ श्लोक गुरुदेवश्री की विस्मृतपदार्थसार्थस्मृतिलभमानानां जनानां स्मरणकृते श्री भद्रबाहुस्वामिप्रभृतयो उपासना विषयक है एवं नौवां श्लोक उपसंहार विषयक है। इसके छठे भूयांसो विद्वांसो नियुक्ति भाष्यचूणिटीका व्यरचयत ।... श्लोक में प्रस्ताव के ही अनुरुप राजेन्द्र कोश के निर्माण के हेतु का भयंकरदुर्भिक्षराज्यविप्लवादिवशतः प्रभुताग्रन्था विलयपथमभजन् ...तथाऽपि संकेत किया गया है और अंतिम श्लोक में गुरु-अष्टक के पढने का फल तेषां मध्ये पञ्चचत्वारिशदागमाः साम्प्रतमपि... विलन्त्येव । हन्त ! बताते हुए कहा है- "जो मनुष्य इस गुरु-अष्टक को पढता है तेषामपि स्वल्पीयसाऽऽयुषा न क्षमः स्वोदरपूरणं विधाय कोऽपि विलोकितुमपि विचार्यैव श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरमहानुभावः कोशममुं वह भाव-शुद्धि के कारण अनुपम सुख प्राप्त करता है और सकलागमसंग्रहात्मकं व्यरचयनिति । जन्मांतर में मुक्ति प्राप्त करने का अधिकारी बन जाता हैं।" -अ.रा.भा.3, प्रस्ताव, पृ. 14 अंतिम अनुच्छेद दूसरा गुरु-अष्टक मुनि श्री दीपविजयजी (श्रीमद्विजय भूपेन्द्र 46. जैनाऽऽगमस्य न च संचरणं तथाऽस्ति, कालप्रभावत इतीव विचिन्त्य चित्ते । सूरीश्वर जी) द्वारा रचित है। इसके भी छठे श्लोक में और नौवें श्लोक संपूर्णजैनवचनैकनिधानभूतं, राजेन्द्रकोशमतुलं निरमापयद् यः ॥6।। में वे ही विषय वर्णित हैं जो कि पहले गुरु-अष्टक में आये हैं"। गुर्वष्टकं पठति यः प्रयतस्तु भक्त्या, श्रीमोहनेन मुनिना रचितं मनुष्यः । संप्राप्य सौख्यमतुलं ननु भावशुद्धे-र्जन्मान्तरे भवति मुक्तिपदाधिकारी 19॥ मुनि यतीन्द्र विजय (श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरि) द्वारा विरचित - प्रथमगुर्वष्टकम्। तीसरे गुरु-अष्टक में राजेन्द्र कोश निर्माण का कारण पांचवें श्लोक 47. .....निखिलमपि निजाङ्गोपाङ्गमेकत्र कृतवा, व्यरचयदमलं यो में वर्णित है+8 और नौवें श्लोक में गुरु-अष्टक पठन का फल बताया भव्यराजेन्द्रकोशम् ||6|| - द्वितीय गुर्वष्टकम् गया है। ___48. भवस्थान् जनान् दुःषमारप्रसूतानमन्दाज्ञताध्वान्तनष्टान् निरीक्ष्य। इस प्रकार तीनों संशोधकोंने अपने गुरु के प्रति अगाध श्रद्धा निधानं समस्ताऽऽगमानामकार्षीत् तदुद्धारहेतुं च राजेन्द्रकोशम् ।।5।। 49. अ.रा.भा.4, 'घण्टापथ' -पृ.1, प्रथम अनुच्छेद । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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