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सप्तम परिच्छेद
उपसंहार
3.
इस शोध प्रबन्धक के लेखन के पूर्व आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि के व्यक्तित्व, कर्तृत्त्व, जैनाचार विज्ञान, इतर आचार विज्ञान आदि के सम्बन्ध में अद्यावधि उपलब्ध साहित्य एवं अन्य सामग्री का संकलन इस शोधाध्येत्री द्वारा किया गया। तदुपरान्त पूर्व निर्धारित रूपरेखा के आधार पर ससन्दर्भ लेखन किया गया जो कि पूर्ववर्ती छह परिच्छेदों में निबद्ध किया गया है। इस शोध कार्य से अनेक अप्रचिलत तथ्यों का उद्घाटन हुआ है जो कि जैनाचार को क्रियान्वित करनेवाले साधु-साध्वियों और श्रावकश्राविकाओं के लिए मार्गदर्शन का कार्य करेगा।
दोषों और गुणों को जाने बिना दोषों का परिहार और गुणों का ग्रहण नहीं हो सकता, अतः यदि जैनाचार पालन करते समय उद्धृत होनेवाले दोषों का ज्ञान न हो तो उनका परिमार्जन असम्भव है अतः इस शोध-प्रबन्ध में गुणदोषात्मक विवेचन का अनुशीलन प्रस्तुत किया गया है। जो जिज्ञासु इस प्रबन्ध का अध्ययन करेंगे, निश्चित ही उनमें जागरुकता आयेगी।
हमने यहाँ छहों परिच्छेदों में विभिन्न शीर्षको के अन्तर्गत किये गये अनुशीलन को सारांशतः निम्न प्रकार से समजा जा सकता है1. प्रथम परिच्छेद आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वर महाराज के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व सम्बन्धी आयामों के उद्घाटित करने के लिए
समर्पित है। आचार्य श्री का जन्म स्थान, माता-पिता, वैवाहिक स्थिति, वंशविवरण निर्विवाद है। आपकी माता का नाम केशर बाई और पिता का नाम ऋषभदास है। आपका वंश 'पारख' है जो वणिग्जातियों में अनन्यतम है। आपके बड़े भाई का नाम माणिकचन्द एवं बहिन का नाम प्रेमा था। आपका जन्मस्थान भरतपुर (आगरा के पास) है । आपका जन्मसमय पौष सुदि सप्तमी, गुस्वार, वि.सं. 1883 (ईस्वी सन् 1827) है। आचार्यश्री का बाल्यावस्था का नाम रत्नराज था जो कि माता द्वारा गर्भाधानपूर्व देखे गिये स्वप्न में प्राप्त रत्न के आधार पर रखा गया था। 'श्रीराजेन्द्रसूरिरास' में बाल्याकाल का नाम 'रतनचन्द' दिया हुआ है। आचार्यश्री की लौकिक शिक्षा अल्प ही हुई थी। लौकिक शिक्षा के गुरु का नाम हमें प्राप्त नहीं हो सका। आचार्यश्री आजीवन ब्रह्मचारी रहे। आपने विवाह के लिए अस्वीकृत घोषित कर दी थी। ऐसा उल्लेख प्राप्त है कि सेठ सोभागमलकी पुत्री रमा की व्यन्तरबाधा दूर करने से प्रसन्न सेठ सोभागमलजी ने अपनी पुत्री रमा का विवाह करने का प्रस्ताव रखा था जिसका आपने अस्वीकार किया। गृहस्थजीवन में आपने परम्पराप्राप्त जौहरी का व्यापार किया और इस हेतु कलकत्ता, श्रीलंका आदि की व्यापारिक
यात्राएँ भी की। 6. वैराग्य से ओतप्रोत मानस से युक्त रत्नराज ने व्यापारिक यात्राओं के साथ-साथ श्रीसम्मेत शिखरजी आदि अनेक धार्मिक तीर्थों की
यात्राएँ भी की। पूर्व से ही संसार के प्रति उद्भूत वैराग्यभाव माता-पिता के दिवंगत होने से दिन-प्रतिदिन प्रबलतर होता गया और श्रावक अवस्था में वि.सं. 1902 में श्रीपूज्य प्रमोदसूरिजी के भरतपुर चातुर्मास के समय प्राप्त उपदेश ने आपके मन में दीक्षा-बीज का वपन कर दिया। आपने वि.सं. 1904 की वैशाख सुदि पञ्चमी, गुरुवार को उदयपुर (राजस्थान) में पिछोले की पाल के पास यतिदीक्षा ग्रहण की। आपके दीक्षागुरु का नाम आचार्य श्री प्रमोदसूरि था। आपका यतिवस्था का नाम 'मुनिश्री रत्नविजय' रखा गया था। मुनिदीक्षा के बाद 'मुनिश्री रत्नविजय'ने अपने गुरु से आज्ञा प्राप्त कर खरतरगच्छीय यति श्री सागरचन्दजी से व्याकरण, साहित्य, दर्शन आदि लौकिक विषयों का अध्ययन वि.सं. 1906 से 1909 तक पूरा किया। 'श्रीराजेन्द्रसूरि का रास' के अनुसार आपने ज्योतिषशास्त्र का अध्ययन जोधपुर (राजस्थान) के श्री चंद्रवाणी के सान्निध्यमें रहकर किया था। आपने वि.सं. 1910 से 1913 तक श्रीपूज्य श्री देवेन्द्रसूरि से जैनागमों का विशद अध्ययन किया। वि.सं. 1909 से वैशाख सुदि तृतीया को उदयपुर (राजस्थान ) में श्रीमद्विजय प्रमोदसूरिजीने आपको बडी दीक्षा दी एवं उसी समय
श्रीमद्विजय प्रमोदसूरि एवं श्री देवेन्द्र सूरि ने आपको 'पंन्यास' पदवी प्रदान की। 12. अध्ययन पूर्ण करने के पश्चात् आपने वि.सं. 1914 से 1921 तक धीरविजय आदि 51 यतियों का अध्यापन किया। श्री धीरविजय
(श्री धरणेन्द्र सूरि )ने विद्यागुरु के सम्मान स्वरुप आपको 'दफ्तरी' विरुद प्रदान किया। 13. वि.सं. 1920 में चैत्र सुदि त्रयोदशी (महावीर जन्म कल्याणक) के दिन राणकपुर तीर्थ में आपने 'क्रियोद्धार' करने का अभिग्रह किया,
और वि.सं. 1922 में प्रथमबार स्वतंत्र रूप से चातुर्मास किया।
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