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[442]... सप्तम परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन वि.सं. 1923 में श्री धरणेन्द्रसूरि के साथ चातुर्मास में यतियों द्वारा इत्र आदि पदार्थों के उपयोग के विषय में मतभेद विवाद के रुप में परिवर्तित हो गया और क्रियोद्धार का बीज और अधिक पुष्ट हो गया। और विवाद के कारण आपने चातुर्मास स्थल घाणेराव से आहोर (राजस्थान) आकर अपने गुरु श्री प्रमोदसूरि से सम्पर्क किया । यही सम्पर्क आचार्यपद का प्रमुख कारण बन गया । श्रीराजेन्द्रगुणमंजरी आदि के अनुसार वि.सं. 1924 में वैशाख सुदि पञ्चमी, बुधवार को आपके गुरु श्री प्रमोदसूरिने आपको विधिवत् आचार्य पद प्रदान किया और 'आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि' नामकरण किया ।
आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरिने वि.सं. 1925 में अषाढ वदि दशमी (दि. 15-6-1868) के दिन क्रियोद्धार कर शुद्ध साधु जीवन अंगीकार किया और पूर्व में प्रचलित छडी, चामर, पालखी आदि परिग्रह श्री संघ जावरा को सौंप दिया ।
आपके गच्छ का नाम 'श्रीसौधर्म बृहत्तपागच्छ' है। इसमें प्रयुक्त 'तपा' शब्द 'श्रीसौधर्म वडगच्छ' के आचार्य श्री मणिरत्न सूरि के शिष्य जगचन्द्रसूरि द्वारा यावज्जीव आचरित आयम्बिल तप से प्रभावित होकर मेवाड नरेश श्री झैलसिंह द्वारा वि.सं. 1285 में प्रदत 'तपा' विरुद का प्रतिनिधि है। संस्कृत के 'तपस्' शब्द के साथ इस गच्छ का नाम 'श्रीसौधर्म बृहत्तपोगच्छ' भी है। आचार्य श्री राजेन्द्रसूरि ने वि.सं. 1925 में क्रियोद्धार के समय अपने गच्छ का नाम 'श्रीसौधर्म बृहत्तपागच्छ' रखा था।
आपके शिष्यों में श्रीमद्विजय धनचन्द्रसूरि एवं मुनि श्री प्रमोदरुचिजी - ये दो उपसम्पत् शिष्य और श्री मोहनविजयजी आदि 21 हस्तदीक्षित शिष्य थे ।
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आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि द्वारा विरचित 'श्री अभिधान राजेन्द्र कोश' अप्रतिम और कालजयी रचना है। वर्गीकरण की दृष्टि से अभिधान राजेन्द्र प्राकृत भाषा का कोश है। इसकी रचना जिज्ञासुओं के हितार्थ एवं आगमों की रक्षा के लिए की गयी थी । अभिधान राजेन्द्र कोश की रचना का श्रीगणेश वि.सं. 1946 में आश्विन शुक्ला द्वितीया के दिन सियाणा (राजस्थान) में हुआ और 13 वर्ष, 6 माह और 3 दिन में वि.सं. 1960 में चैत्र शुक्लात्रयोदशी, बुधवार के दिन सूरत में पूर्णता को प्राप्त हुआ । 30. उपोद्धात का यह कथन कि अभिधान राजेन्द्र की रचना 22 वर्षो में पूरी हुई, प्राकृत कोश ( पाइयसद्दम्बुहि) के प्रथम उपक्रम सं. 1940
से अभिधान राजेन्द्र की प्राकृतविवृत्ति (परिशिष्ट) लेखन वर्ष 1961 तक गणना करने पर ही सत्य सिद्ध होता है। अभिदान राजेन्द्र कोश में छोटे-बड़े 60000 शब्द, सहस्राधिक सूक्तियाँ, 500 से अधिक कथोपकथाएँ, एवं साढे चार लाख श्लोक संग्रहीत हैं।
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आपने गुजरात, महाराष्ट्र, मालवा मेवाड, मारवाड, बीकानेर, निमाड, खानदेश आदि के विशाल भूभाग में यात्राएँ कीं और धर्मोपदेश किया।
आपने मानवमात्र के कल्याण के लिए शाकाहार का प्रचार किया और पशुहिंसा को रोक कर जीवमात्र को अभय प्रदान किया। आपने अपने आचार्यत्व काल में 3135 जिनप्रतिमाओं की अञ्जनशलाका - प्रतिष्ठाएँ करायी, जालोर, कोरा, भांडवपुर एवं तालनपुर तीर्थो का जीर्णोद्धार कराया; एवं श्री मोहनखेडा तीर्थ की नवीन स्थापना भी करायी ।
आप उग्र तपस्वी, अप्रतिम दार्शनिक एवं प्रखर वादी थे। आपका ज्योतिषज्ञान एवं निमित्तज्ञान अद्वितीय था। आपने वि.सं. 1956 के छप्पनिया अकाल की भविष्यवाणी एक वर्ष पूर्व वि.सं. 1955 में ही कर दी थी।
आपको अनेक सिद्धियाँ प्राप्त थी, जैसे कि श्री मोहन विजयजी के बाल्यकाल में उनके मूकत्वदोष और सन्धिवात दोष को दूर करने के कथानक से प्रमाणित है। इसके साथ ही आपको तन्त्रविद्या पर भी अधिकार था । वि.सं. 1919 में मुनि अवस्था में आपने अपने गुरु की आज्ञा से विशालकाय पुरुष एवं अनेक चमत्कारी दृश्य प्रगट किये और एक ऐन्द्रजालिक के मिथ्याभिमान को दूर किया । इस प्रकार के अनेक कथानक प्राप्त होते हैं जिनसे आपका तन्त्रविद् होना सिद्ध होता है ।
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आप आशुकवि थे साथ ही साहित्यसर्जक शब्दर्षि भी थे। आपकी प्रथम रचना 'करणकामधेनुसारणी' (वि.सं. 1905 ) है और अन्तिम रचना 'कमलप्रभा शुद्धरहस्य' (वि.सं. 1963) है। आपने अपने जीवन में 67 रचनाएँ साहित्य जगत् को प्रदान कीं इनमें से 19 रचनाएँ अभी भी अमुद्रित अवस्था में है। इसके अतिरिक्त ' त्रैलोक्यदीपिका यन्त्रावली' और 'सिद्धान्तसार सागर' - ये दो रचनाएँ भी आपके नाम से जानी जाती हैं।
आप मुनिजीवन की कठोर तपश्चर्या के साथ वि.सं. 1963 तक सतत साहित्यसर्जन करते रहे और इसी वर्ष राजगढ (म.प्र.) में पौष सुदि षष्ठी, गुरुवार को रात्रि आठ बजकर आठ मिनिट पर स्वर्गलोक प्रयाण मारकर गये। ईस्वी सन् के अनुसार वह 2 दिसम्बर
1906 था ।
राजगढ (जिलधार) वर्तमान मध्यप्रदेश में आचार्यश्री द्वारा समाधिलीन होने के स्थल पर कलात्मक छतरी का निर्माण कर भक्तजनों ने आचार्यश्री के चरणयुगल प्रतिष्ठित किये हैं जो अब भव्य मन्दिर का रुप लेने जा रहा है।
आपके पार्थिव शरीर का अन्तिम संस्कार स्वर्गारोहण के दूसरे दिन (रात्रि में स्वर्गलोकगमन होने के कारण) पौष सुदि सप्तमी, शुक्रवार को मोहनखेडा तीर्थ में किया गया। अन्तिमसंस्कार स्थल पर आज भव्य गुरुमन्दिर खड़ा है जिसमें आचार्यश्री की मूर्ति प्रतिष्ठित है।
अभिधान राजेन्द्र कोश अकारादि क्रम से प्राकृत शब्दों की व्याख्या प्रस्तुत करनेवाला विश्वकोश है। इसमें शब्द की व्याकरणिक कोटियों का भी विश्लेषण किया गया है।
अभिधान राजेन्द्र कोश की योजना सात भागों में निबद्ध करने की थी जैसा कि प्रत्येक भाग के मंगलाचरण और पुष्पिका से स्पष्ट है।
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