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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन कषाय का फल: कषाय संसार का मूल है। जो तपस्वी होने पर भी तप आदि के दर्पपूर्वक कषाय करता है वह बाल तपस्वी है, वह तप करने का निरर्थक परिश्रम/काया क्लेश मात्र कर रहा है अर्थात् उसका तप कर्मनिर्जरा/ कर्मक्षय कारक नहीं है। ये चारों क्रोधादि कषाय पापवर्धक हैं। क्रोध प्रीति का मान विनय का, माया मित्र नाशक और लोभ सर्वविनाशक है । अनिग्रहीत प्रवर्धमान क्रोधादि कषाय पुनर्भव (पुनःपुनः जन्म-मरण रुप संसार) के मूल का सिंचन करते हैं। भगवान महावीर ने कहा है - हे गौतम ! जहां मुनि निमित्त मिलने पर या दूसरों के द्वारा कषायोदय करने पर भी कषायों की उदीरणा करने के इच्छुक नहीं है, वह गच्छ (वास्तव में गच्छ होता है। उस गच्छ में धर्मान्तराय और संसारवास/गर्भावास से भयभीत मुनि कषायोदीरणा नहीं करते । अल्प भी कषाय उदय में आने पर उपशम गुणस्थानवर्ती जिन सदृश चारित्रधारी का भी पतन कराता है। अतः आत्मार्थी आत्माओं के द्वारा अल्पतम भी कषाय विश्वास करने योग्य नहीं है, क्योंकि ऋण, घाव, अग्नि और कषाय- ये चारों थोडे होने पर भी (यदि उसका अंत नहीं किया तो बहुत हो जाते हैं। 40 क्रोध, अप्रीतिकर, उद्वेगकर, सुगति, विनाशक, वैरानुबंधक, गुणगण रुपी वन को जलाने में अग्नि सदृश है। क्रोधांध व्यक्ति पुत्र, मित्र, गुरु, स्त्री, माता आदि की हिंसा करता है । क्रोधाग्नि प्रज्वलित होने पर यदि कोई बुझानेवाला न मिले तो अन्य को भी जलाता है। यह परभव ( में सुगति) विनाश हेतु उत्पन्न है क्रोध संताप को बढाता है, विवेक को संहार करता है, मित्रता को नष्ट करता है, उद्वेग (चिन्ता) स्वजनों में भी क्लेश कराता है, कीर्ति का उच्छेदन करता है, दुर्बुद्धि को फैलाता है, पुण्योदय का नाश करता है, दुर्गति में ले जाता है। क्रोध धर्म को नष्ट करता है, नीतिरुपी लता का उन्मूलन करता है, स्वार्थ, दया को लोप / अद्दश्य करता है और आपत्ति को बढाता है। क्रोध मद्य (शराब) की तरह विकारभाव उत्पन्न करता है, सर्प की तरह त्रास देता है, अग्नि की तरह स्व-पर के शरीर को जलाता है, विषवृक्ष की तरह ज्ञान का नाश करता है, ऐसे क्रोध का हितेच्छु कल्याण की पंक्तिरुप पुण्य श्रेणि का उत्पादक और शमरुपी जल से सिंचित मोक्षदायी तप- चारित्ररुपी वृक्ष / धर्मवृक्ष क्रोधाग्नि से नष्ट होता है। 42 अतः क्रोधरुपी महाग्नि को क्षमारुपी जल से सदा विशेष रुप से शांत करना चाहिए।43 उपशम से क्रोध को नष्ट करना चाहिए। 44 मान- जब तक जीव मान कषाय से घिरा रहता है तब तक विनय नहीं आता, ज्ञान प्राप्त नहीं होता। मान कषाय के कारण जीव अच्छंकारिभट्टा की तरह चोरी, लूट खसोट, मार आदि अनेक दुःखो को प्राप्त होता है, सभी को अप्रिय बनता है, बिना कारण क्लेश खडा करके अपने जीवन को सर्वनाश प्रायः बनाता है। 45 मान के कारण बाहुबलिजी को केवलज्ञान प्राप्त नहीं हुआ, रावण को सोने की लंका से हाथ धोने पडे, दुर्योधन का सर्वनाश हुआ । मान - अहंकार के कारण गुरुजनों का विनय नहीं करने सेमुनि सूत्रार्थ प्राप्ति हेतु अयोग्य होता है; और अन्त में वह शिष्यत्व और गुरुपद प्राप्ति हेतु भी अपात्र ठहरता है 146 मान से आपत्तियों की नदियाँ प्रकट होती है, सद्गुणों का सर्वनाश होता है, क्रोध बढता है, शांति, निर्मलबुद्धि, विवेक ज्ञान, न्याय मार्ग नष्ट होता है; सभी अनर्थ उत्पन्न होते हैं; सदाचरण, विनय, चतुर्थ परिच्छेद... [227] कीर्ति और धर्म-अर्थ- कामरुपी त्रिवर्ग का नाश होता है । 47 अभिधान राजेन्द्र कोश में आठों मद करने पर उसका परिणाम दर्शाते हुए कहा है कि, "अधम जात्यादि प्राप्त होने पर जीव को क्रोध नहीं करना । Jain Education International इस चतुर्गतिरुप अनादि संसार में अरघट्ट-घट्टी न्याय से चिरकाल तक भ्रमण करता है। जो जिस उत्तमस्थानादि को प्राप्त करके उसका अभिमान करता है वह अन्य भव में उससे अधम स्थानादि में गिरता / जन्म लेता है। अतः मद स्थान को ज्ञातकर विवेकी पण्डित जनों को चाहिए कि वे हेयोपादेय तत्त्वज्ञ बनकर उच्चावच्च स्थानादि के प्राप्त होने पर हर्ष - शोक नहि करे। 48 दम्भ (माया - कपट) मुक्तिरुपी लता को दहन करने में अग्नि समान है, क्रियारुपी चंद्र को मलिन करने में राहु समान है, दुर्भाग्य का कारण है, अध्यात्मसुख के (प्रवेशनिषेध हेतु) अर्गला के समान है, अविश्वास का स्थान है, ज्ञानरुप पर्वत को नष्ट करने में वज्र समान है, कामरुपी अग्नि को बढाने में घी (हवि) के समान है, दुःखों का मित्र है, व्रत / महाव्रत रुपी लक्ष्मी का चोर है। 49 माया क्षेमकुशलता को प्रगट करने में वंध्या स्त्री के समान, सत्य वचनरुप सूर्य को अस्त होने में संध्या समान, कुगतिरुपी स्त्री की वरमाला समान, मोहरूपी हस्ति के लिए शाला समान, उपशमरुपी कमल को नष्ट करने में) हिम (हिमपात) समान, अपयश की राजधानी और सेंकडो दुःखो को बढानेवाली है। 50 माया माया कषाय के कारण जीव को स्त्रीत्व, तिर्यंचगति प्राप्त होता है। धर्म के विषय में उग्र तपस्वी, उत्कृष्ट संयमी के द्वारा की गयी थोडी भी माया अनर्थकारी होती है |51 जो मनुष्य दम्भ/माया कपट से दीक्षा ग्रहण करके मोक्ष की इच्छा करता है वह लोहे के जहाज से समुद्र पार करने जैसा है। दम्भयुक्त दीक्षा, व्रतादिपालन, उग्र तपादि सभी धर्माचरण निष्फल है 152 जो विविध प्रकार के प्रपंच से अन्य को ठगते है वे स्वयं की आत्मा को ठगते है। जैसे दूध पीनेवाली बिल्ली लाठी के प्रहार को नहीं देखती वैसे मायावी व्यक्ति माया के फल स्वरुप भावि कष्टों के समूह को नहीं देखता । माया कपटपूर्वक अन्य को ठगनेरुप चातुर्य भविष्य में उपद्रव किये बिना नहीं रहता अतः सज्जनों को माया से बचकर दूर ही रहना चाहिए। 53 लोभ अज्ञानरुपी विषवृक्ष का मूल सुकृतरुपी समुद्र का शोषण करने में अगस्त्य ऋषि समान, क्रोधरुपी अग्निको प्रगट करने में अरणि 40. 41. 42. अ. रा. पृ. 3/399-400 अ. रा. पृ. 3/684 सिंदूरप्रकर-45 से 48 43. अ. रा. पृ. 3/64 44. दशवैकालिक मूल-8/39 अ.रा. पृ. 1/181 अ.रा. पृ. 7/904-5 सिन्दूर प्रकर 49, 50, 51 45. 46. 47. 48. अ. रा.पू. 6/107 49. अध्यात्मसार - 1/54,55,56 50. सिंदूर प्रकर-53 51. अ. रा.पू. 6 / 251-52 52. अध्यात्मसार - 57 53. सिंदूर प्रकर- 54, 55, 56 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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