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[228]... चतुर्थ परिच्छेद
काष्ठ समान, प्रताप (यश) रुपी सूर्य को आच्छादन करने में मेघ समान, क्लेश का क्रीडागृह, विवेकरुपी चंद्रमा को ग्रसित करने में राहु समान, आपत्तिरुपी नदियों का समुद्र और कीर्तिरुपी लता-समूह को नष्ट करने में हस्ति समान है 154
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन क्रोध प्रीति का विनाशक है, मान विनय नाशक है, माया मित्रता को नष्ट करती है और लोभ सर्वविनाशक है। अतः आत्माहितैषी भव्यात्मा को पापवर्धक इन चारों दोषों / कषायों का वमन / त्याग करना चाहिए और उपशम से क्रोध को, नम्रता से मान को, सरलता माया को और संतोषपूर्वक लोभ के ऊपर विजय प्राप्त करना चाहिए 158
कषाय-वर्णन के पश्चात् जीव की कषाययुक्त आत्मपरिणति 'लेश्या' होने से अब लेश्या का परिचय दिया जा रहा है।
समस्त धर्मरुपी वन को जलाने से विस्तृत दुःखसमूहरुपी भस्मयुक्त, अपयशरूपी धूएँ से व्याप्त और धनरुप इन्धन से प्रज्वलित लोभरुपी अग्नि में समस्त सद्गुण नष्ट होते / जल जाते हैं 155
लोभांध मनुष्य विषम अरण्य में भ्रमण करते हैं, विदेश जाते है, गहन समुद्र का उल्लंघन करते है, अनेक दुःखयुक्त कृषिकार्य करते है, कृपण धनी की सेवा करते है, युद्धादि करते है। 56 लोभ लोभ कषाय से जीव अति आरंभ समारंभादि करके तीव्र पाप बंध करता है जिससे दारुण विपाक भोगने पडते हैं। राजादि द्वारा पकडे जाने पर प्राणदंडादि सजा भी भुगतनी पडती है। 57
54. सिंदूर प्रकर-58
55.
वही - 59
56.
वही - 57
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57.
अ.रा. पृ. 6/753
58. दशवैकालिक मूल-8/37-38-39
आध्यात्मिक जीवन का उद्देश्य
आध्यात्मिक जीवन का उद्देश्य है अलेश्य बनना । अशुभ
शुभ और शुभ से शुद्धोपयोग तक पहुँचना जीवन का नैतिक साध्य है । यद्यपि लेश्या स्वयं मुक्तिपथ का बाधक तत्त्व है क्योंकि यह औदयिक भावयुक्त है तथापि जब यह अशुभ से शुभ तक पहुँचती है तो आत्म परिणामों की विशुद्धि से संवर और निर्जरा जैसे मोक्षसाधक तत्त्वों से जुड जाती है और तेरहवें गुणस्थानक तक अस्तित्त्व में रहती है ।
शी से अलेशी बनना हमारा आत्मिक उद्देश्य है । इसके लिए कर्म से अकर्म की ओर बढना अत्यावश्यक है । कर्म से तात्पर्य केवल क्रिया या अक्रिया नहीं है। भगवान महावीर के शब्दों में प्रमाद कर्म है, अप्रमाद अकर्म है । सूत्रकृताङ्ग के अनुसार अप्रमत्तावस्था में क्रिया भी अक्रिया बन जाती है और प्रमत्तावस्था में अक्रिया भी कर्मबन्धन का कारण हो जाती है। परम शुक्ल लेश्या में प्रवेश करने का मतलब है- अकर्म बनने की पूर्ण तैयारी, पूर्ण - जागरुकता ।
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