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________________ [404]... पञ्चम परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन बचकर ही गमनागमन की क्रिया करने का उल्लेख है ।। भाषासमिति वर्गों के यहाँ की भिक्षा को ग्राह्य माना गया है। वैदिक परम्परा के संदर्भ में भी दोनों परम्पराओं में विचारसाम्य है। मनु का कथन में शय्यातर और राजपिण्ड-कल्प का कोई विधान दिखाई नहीं दिया। है कि मुनि को सदैव सत्य ही बोलना चाहिए 142 महाभारत के वैदिक परम्परा में भी जैन परम्परा के कृतिकर्म-कल्प के समान यह शांति पर्व में भी वचन-विवेक का सुविस्तृत विवेचन है।43 मुनि स्वीकार किया गया है कि दीक्षा की दृष्टि से ज्येष्ठ संन्यासी के आने की भिक्षावृति के संबंध में भी वैदिक परम्परा के कुछ नियम जैन पर उसके सम्मान में खड़ा होना चाहिए। ज्येष्ठ सन्यासियों को प्रणाम परम्परा के समान ही है। वैदिक परम्परा में भिक्षा से प्राप्त भोजन करना चाहिए। वैदिक परम्परा में अभिवादन के संबंध में विभिन्न पाँच प्रकार का माना गया है प्रकार के नियमों का विधान है। जिसकी विस्तृत चर्चा में जाना (1) माधुकर :- जिस प्रकार मधुमक्खी विभिन्न पुष्पों से उन्हें यहाँ संभव नहीं है। वैदिक परम्परा में जैन परम्परा के समान मुनि कोई कष्ट दिये बिना मधु एकत्र करती है उसी प्रकार दाता के लिए पंच महाव्रत का पालन आवश्यक है जिसकी तुलना व्रतको कष्ट दिये बिना तीन, पाँच या सात घरों से जो भिक्षा कल्प से कर सकते हैं। जैन परम्परा की दो प्रकार की दीक्षाओं की प्राप्त की जाती है उसे माधुकर कहा जा सकता है। तुलना वैदिक परम्परा में वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम से की जा सकती है। यद्यपी यह स्मरण रखना चाहिए कि वैदिक परम्परा में (2) प्राक्प्रणीत :- शयन स्थान से उठने के पूर्व ही भक्तों संन्यासियों के संबंध में इतना विस्तृत प्रतिपादन नहीं है। प्रतिक्रमणके द्वारा भोजन के लिए प्रार्थना कर दी जाती है और उससे कल्प का एक विशिष्ट नियम के रुप में वैदिक परम्परा में कोई निर्देश जो भोजन प्राप्त होता है वह प्राक्प्रणीत है। नहीं है, यद्यपि प्रायश्चित की परम्परा वैदिक परम्परा में भी मान्य (3) आयाचित :- भिक्षाटन करने के लिए उठने से पूर्व ही है। जहाँ तक चातुर्मास काल को छोडकर शेष समय में भ्रमण कोई भोजन के लिए निमंत्रित कर दे, वह आयाचित है। के विधान का प्रश्न है, जैन और वैदिक परम्परा लगभग समान ही (4) तात्कालिक :- संन्यासी के पहुँचते ही कोई ब्राह्मण है। वैदिक परम्परा के अनुसार भी संन्यासी को आषाढ पूर्णिमा से भोजन करने की सूचना दे दे। लेकर चार या दो महीने तक एक स्थान पर रुकना चाहिए और शेष (5) उपपन्न:- मठ में लाया गया पका भोजन। इन पाँचों । समय गाँव में एक रात्रि और नगर में पाँच रात्रि से अधिक न रुकते में माधुकर भिक्षावृति को ही श्रेष्ठ माना गया है। हुए भ्रमण करना चाहिए 150 जैन परम्परा की माधुकरी - भिक्षावृति वैदिक परम्परा में ब्राह्मण परम्परा में दश धर्म :भी स्वीकृत की गई है। संन्यासी को भिक्षा के लिए गाँव में केवल (1) क्षमा :- वेदव्यास ने क्षमा को असमर्थ मनुष्यों का गुण एक बार ही जाना चाहिए और वह भी तब, जब कि रसोईघर से और समर्थ मनुष्यों का भूषण माना है। मनु ने कहा है- विद्वान् जन धुआँ निकलना बन्द हो चुका हो, अग्नि बुझ चुकी हो, बर्तन आदि क्षमा-भाव से ही पवित्र बनते हैं। संत तुकाराम ने कहा है- जिस अलग रख दिये गये हों। इसका गूढ अर्थ यह है कि संन्यासी मनुष्य के हाथ में क्षमारुपी शस्त्र हो, उसका दुष्ट क्या बिगाड सकता के निमित्त से अधिक मात्रा में भोजन न पकाया गया हो, और इसका है। कवि बाणभट्टने क्षमा को सभी तपस्याओं का मूल कहा है।54 प्रयोजन यह है कि गृहस्थों पर संन्यासी के भोजन के निमित्त आर्थिक महात्मा गाँधी के अनुसार दण्ड देने की शक्ति होने पर भी दण्ड न देना, भार नहीं होना चाहिए। सच्ची क्षमा है। यद्यपि निक्षेपण और प्रतिष्ठापन समिति के संदर्भ में कोई ब्राह्मण परम्परा में दश धर्मों का महत्त्व :निर्देश उपलब्ध नहीं होता है। फिर भी इतना निश्चित है कि वैदिक 1. क्षमा :- गीता में क्षमा को दैवी संपदा और भगवान् की परम्परा का दृष्टिकोण जैनपरम्परा का विरोधी नहीं है। ही एक वृत्ति माना गया है।56 महाभारत के उद्योग पर्व में ब्राह्मणपरम्परा और गुप्ति : 41. महाभारत, शांतिपर्व - 9/19 ब्राह्मणपरम्परा में संन्यासी के लिए त्रिदण्डी शब्द का प्रयोग 42. मनुस्मृति 6/46 हुआ है। त्रिदण्डी वही हैं जो मन, वचन और शरीर के नियंत्रण । 43. महाभारत, शांतिपर्व - 109/15-19 44. धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग.1, पृ. 492; महाभारत शांतिपर्व /21-24 रुप आध्यात्मिक दम्ड रखता हो।45 जैनपरम्परा में इस हेतु 'दण्ड' 45. धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग.1, पृ. 494; दक्षस्मृति 7/27-31 शब्द का प्रयोग हुआ है।46 इस प्रकार शाब्दिक दृष्टि से भले ही 46. साधुप्रतिक्रमण सूत्र (पगाम सज्झाय), स्थानांग 3/126 जैनपरम्परा में तीन गुप्ति" और वैदिकपरम्परा में 'त्रिदण्डी' - इस 47. उत्तराध्ययन सूत्र 24/1 प्रकार भेद है, परन्तु दोनों परम्पराओं का मूल आशय मन, वचन, 48. धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग.1, पृ.494 काया की अप्रशस्त प्रवृत्तियों के नियमन से हैं। 49. वही, पृ. 237-241 वैदिकपरम्परा और कल्पविधान : 50. वही पृ. 491, जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन पृ. 366, 367 जैनपरम्परा के दस कल्पों में कुछ का विधान वैदिक परम्परा 51. महाभारत, उद्योग पर्व 33/49 में भी दृष्टिगोचर होता है। जैन परम्परा के आचेलक्य कल्प के समान 52. मनुस्मृति 5/107 वैदिक परम्परा में भी संन्यासी के लिए या तो नग्न रहने का विधान । 53. तुकाराम अभंग, गाता 3995 है या जीर्णशीर्ण अल्प वस्त्र धारण करने का विधान है। औद्देशिक 54. बाणभट्ट कृत हर्षचरित, पृ. 12 55. सर्वोदय-98, 'शाश्वत धर्म' मासिकपत्रिका, अंक अगस्त-2001, पृ. 16 कल्प वैदिक परम्परा में स्वीकृत नहीं है यद्यपि भिक्षावृति को ही से उद्धृत अधिक महत्व दिया गया है। उच्चकोटि के संन्यासियों के लिए सभी 56. गीता-10/4, /16/3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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