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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
बाह्य तप के छह प्रकार :
बाह्य तप के छह भेद हैं- अनशन, ऊनोदरिका, वृत्तिसंक्षेप ( भिक्षाचरी), रसपरित्याग, कायक्लेश, और संलीनता " । (1) अनशन तप :
अश्यते भुज्यते इत्यशनम् । जो खाया जाता है, उसे 'अशन' कहते हैं। अशन का अभाव अनशन है 'न अशनं इति अनशन' । अशन, पान, खादिम और स्वादिम इन चारों प्रकार के आहार का संपूर्ण रुप से त्याग करना 'अनशन' कहलाता हैं" । अनशन तप के प्रकार :
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अनशन तप के दो भेद हैं- इत्वरिक अनशन और यावत्कथिक अनशन 20 । इत्वरिक अनशन अल्प समय के लिए होता है। इत्वरिक अनशन सावकाश होता है क्योंकि इसमें समय-मर्यादा रहती हैं। निश्चित समय के पश्चात् ही आहार की इच्छा होती है अथवा आहार ग्रहण किया जाता है जबकि यावत्कथिक तप में आजीवन भोजन की आकांक्षा नहीं रहती । उसमें जीवन पर्यंत संपूर्ण आहार का त्याग होता है। इसलिए उसे निरवकाश तप कहा गया है 2" ।
1. इत्वरिक अनशन तप :- इत्वरिक अनशन तप अनेक प्रकार का है, यथा चतुर्थभक्त (अर्थात् उपवास से एक दिन पूर्व एकाशन, उपवास के दिन दो समय भोजन कात्याग और पारणा के दिन पुनः एकाशन करना। इस प्रकार चार समय के भोजन के त्याग को चतुर्थभक्त कहते हैं), षष्ठभक्त, अष्टमभक्त, दशमभक्त आदि से लेकर एक-एक दिन बढाते हुए छ: मास पर्यंत का उपवास 'इत्वरिक अनशन' तप माना गया है 22 । परवर्ती परम्परा की अपेक्षा से दो घडी (48 मिनिट) अर्थात् नवकारसी (सूर्योदय से 48 मिनिट तक सर्व प्रकार के आहार पानी का त्याग) से लेकर छह महीने पर्यंत का उपवास 'इत्वरिक अनशन' तप में आता है 23 |
श्रमण भगवान महावीर के तीर्थकाल में इत्वरिक अनशन तप उत्कृष्ट छः मास का होता है। बीच में बाईस तीर्थंकर के शान में आठ मास का और ऋषभदेव के तीर्थ में उत्कृष्ट तप एक वर्ष का माना गया है 24 1
अभिधान राजेन्द्र कोश में इत्वरिक तप संक्षेप में छः प्रकार का बताया गया है
(1) श्रेणि तप (2) प्रतर तप (3) धन तप (4) वर्ग तप (5) वर्ग-वर्ग तप और (6) प्रकीर्ण तप । छः प्रकार का यह इत्वरिक अनशन तप मनोवाञ्छित फल देनेवाला है 25 |
2. यावत्कथित अनशन तप: यावत्कथिक अनशन तप जीवन भर के लिए होता है। जब सेअनशन लिया जाता है तब से लेकर मृत्यु पर्यंत तीन अथवा चारों आहारों का त्याग यावत्कथित तप के अन्तर्गत आता है26 । मृत्युकाल में जो यावत्कथिक अनशन किया जाता है, वह कायिक चेष्टा की अपेक्षा से सविचार और अविचार - दो प्रकार का कहा गया है 27 जिसमें शारीरिक चेष्टाओं के व्यापार चालू हो, वह सविचार अनशन तप है और जिसमें समस्त कायिक क्रियाएँ बन्द हों, वह अविचार अनशन तप हैं 28 । प्रकारान्तर से आजीवन अनशन तप के सपरिकर्म और अपरिकर्म
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चतुर्थ परिच्छेद... [311]
दो प्रकार हैं- जिसमें कायिक चेष्टा की जाये वह सपरिकर्म और कायिकचेष्टारहित अपरिकर्म होता है। वह वृक्ष की भाँति शरीर से निष्कम्प रहता है। व्याघात और निर्व्याघात की अपेक्षा से इसके भी दो भेद हैं- निहारी और अनिहारी। इन दोनों अनशनों में आहार का त्याग होता ही है 29 आजीवन अनशन तप के काययोग की अपेक्षा से तीन भेद हैं - पादपोगमन, इङ्गितमरण और भक्तपरिज्ञा " ।
(i). पादपोपगमन अनशन 'पादप' अर्थात् वृक्ष । प्रथम संहनन और प्रथम संस्थानवाले महापुरुष का योग्य स्थान में जाकर चारों आहार का त्याग कर वृक्ष की तरह खड़े-खडे या बाँयी ओर करवट करके ( गिरे हुए वृक्ष की तरह) समस्त प्रवृत्ति का त्याग करके मृत्यु पर्यंत उसी स्थिति में निश्चल रहना पादपोपगमन अनशन है। इस अनशन में देव मनुष्य-तिर्यंचकृत अनुलोम (अनुकूल) या प्रतिलोम (प्रतिकूल) उपसर्गों में या अन्य उपसर्ग या किसी भी प्रकार की किसी भी परिस्थिति
अङ्गोपाङ्गों को स्वयं के द्वारा अंशमात्र भी चलायमान नहीं किया जा सकता; तपस्वीपुरुष सभी स्थितियों में मेरु पर्वत की तरह अचल रहते हैं। विशिष्टधैर्ययुक्त प्रथम संहननवाले महापुरुष रोगादि कारण से धर्मपालन में असमर्थ होने पर अथवा मरण सन्निकट होने पर पादपोपगमन अनशन को धारण करते हैं" । इसके दो प्रकार हैं- निर्धारिम और अनिर्धारिम । (क) निर्धारिम साधक जब गाँव आदि में इस अनशन
को ग्रहण करते हैं, उनकी मृत्यु के बाद उनके शरीर को निकालना (परठना) पडता है, उसे निर्धारिम पादपोपगमन अनशन कहते हैं 32 । अनिर्धारिम- साधक जब गाँव के बाहर इस अनशन को ग्रहण करते हैं, तब उनकी मृत्यु के पश्चात् शरीर
18. अ. रा. पृ. 5/2200; मरण समाधि प्रकीर्णक-127; पुरुषार्थद्धयुपाय-198; धर्मामृत अणगार - 7 / 11, 20, 26, 27, 30, 32; तत्त्वार्थसूत्र - 9 / 19; मूलाचार - 346; भगवती आराधना-208; द्रव्य संग्रह - 57/228
अ.रा. पृ. 1/303; भगवती आराधना-विजयोदया टीका-6/32/14 अ. रा. पृ. 1/302; भगवती सूत्र - 25/7; मूलाचार - 347
अ. रा.पू. 1/302-303; उत्तराध्ययन सूत्र सटीक 30/9; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, पृ. 1/65; मूलाचार - 349
22. अ. रा. पृ. 1/302; भगवती सूत्र- 25/7; चारित्रसार - 134/2; मूलाचार-347,
19.
20.
21.
23.
24.
25.
26.
(ख)
27.
28.
348
अ. रा. पृ. 1/302-303; भगवती सूत्र 25/7
अ. रा.पू. 1/302; भगवती सूत्र- 25/7
अ. रा. पृ. 1/303; उत्तराध्ययन सूत्र 30 / 10, 11
अ.रा. पृ. 1/302, 303; भगवती सूत्र - 25/7; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश -
1/65
अ. रा. पृ. 1/303; उत्तराध्ययन-30/2
अ. रा. पृ. 1/303; उत्तराध्ययन सूत्र सटीक - 30/2
29.
अ. रा. पृ. 1/303-304; उत्तराध्ययन सूत्र -30/13 अ.रा. पृ. 1/302; मूलाचार-152
30
579;
31. अ. रा.पू. 5/819 से 821, 6/110, 1/303; व्यवहार सूत्र - 544 भगवती सूत्र - 25/7; पञ्चाशक- 19 विवरण; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश - 4/387 32. अ. रा. पृ. 4/2156, 5/819; भगवती सूत्र - 2/1
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