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पञ्चम परिरछेद आचारपरक शब्दावली के वाच्यार्थ का विस्तार
शब्दों के वाच्य-वाचक सम्बन्ध पर यदि दृष्टिपात किया जाय तो अनेक दार्शनिक दृष्टिकोण प्राप्त होते हैं । सर्वप्रथम अन्विताभिधानवाद और अभिहितान्वयवाद, ये दो सिद्धान्त है जो दो पृथक् पृथक् दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। अन्विताभिधानवाद में यह स्वीकार किया गया है कि वाक्य में प्रयुक्त शब्दों का कोई स्वतन्त्र अर्थ नहीं होता किन्तु वाक्य में प्रयुक्त सभी शब्द मिलकर ही अर्थ का बोध कराते हैं। अन्वितभाभिधानवादियों के मत में वाच्यार्थ ही वाक्यार्थ है। (यह मत लक्ष्यार्थ, व्यङ्गयार्थ
और तात्पयार्थ को वाच्यार्थ से भिन्न नहीं मानता) । इसके विपरीत अभिहितान्वयवाद में यह स्वीकार किया गया है कि पदों से प्रतिपादित अर्थ आकांक्षादि के कारण परस्पर सम्बद्ध हो जाते हैं और अपने अर्थ को कहकर निवृत्त हो जाते हैं, अब अवगत अर्थ ही वाक्यार्थ को सम्पादित करते हैं 12
इस शोध प्रबन्ध का विषय शब्दार्थ के दार्शनिक विमर्श को प्रस्तुत करना नहीं है, किन्तु फिर भी जैसा कि इस परिच्छेद के शीर्षक से स्पष्ट है, कोई शब्द किसी शास्त्र में भिन्न अर्थ का वाचक हो सकता है तो अन्य शास्त्र में उससे भिन्न अर्थ का भी वाचक हो सकता है । इतना ही नहीं, अपितु एक शब्द अपने समस्त वाच्यार्थ की दृष्टि से समुदाय का भी बोधक हो सकता है। इस प्रकार शब्दार्थ सम्बन्धी सभी मतों को कथञ्चित् स्वीकार करने से एक एक शब्द के वाच्यार्थ का विस्तार बहुत हो सकता है।
आचारपरक दार्शनिक शब्दावली के विषय में भी वाच्यार्थ विस्तार का सिद्धान्त उतना ही समीचीन है जितना अन्य शब्दावली के विषय में उदाहरण के रूप में 'योग' शब्द को लें - 'योग' जिसे समाधि कहते हैं, योगदर्शन में कुछ भिन्न रीति से व्याख्यात है तो जैन दर्शन में भिन्न रीति से । इसी प्रकार 'निर्ग्रन्थ' शब्द की व्याख्या श्वेताम्बर सम्प्रदाय में कुछ भिन्न रीति से की गयी है तो दिगम्बर सम्प्रदाय में पृथक् रीति से ही की गयी है। इस प्रकार एक ही शब्द का वाच्यार्थ भिन्न भिन्न रुप से विस्तार को पाता है।
भारतीय दर्शनों में तर्कशास्त्र और आचार विज्ञान की एक ही भाषा होने से सभी दर्शन शाखाओं में प्रायः एक ही प्रकार की शब्दावली का प्रयोग हुआ है, यद्यपि कुछ शब्द स्वसंज्ञा या तन्त्रसंज्ञा के रुप में भी प्रयुक्त हुए हैं । इसलिए हमने इस शोधप्रबन्ध में इस परिच्छेद के माध्यम से यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि भिन्न भिन्न दर्शनों में एक ही शब्द के प्रयुक्त होने पर भी अर्थ में भेद हो सकता है । इस दृष्टिकोण से इस अध्याय को विषयवस्तु को पाँच भागों में बाँटा गया है - 1. श्वेताम्बर परम्परा और जैनाचार 2. दिगम्बर परम्परा और जैनाचार 3. ब्राह्मण परम्परा और जैनाचार 4. बौद्ध परम्परा और जैनाचार 5. इतर परम्परा और जैनाचार। सर्वप्रथम क्रमप्राप्त श्वेताम्बर परम्परा और जैनाचार का विवेचन किया जा रहा है।
1. वाच्य एव वाक्यार्थ इत्यन्विताभिधानवादिनः । -काव्यप्रकाश 2.6 की संस्कृतवृत्ति 2. तस्मात् स एव (अभिहितानामर्थानामन्वय एव) श्रेयान्, पदेभ्यः प्रतिपन्नास्तावदाः आकांक्षायोग्यता सन्निधि योग्यत्ववशेन परस्परं अभिधाय निवृत्तव्यापाराणि,
अथ इदानी अर्था अवगता वाक्याथ सम्पादयन्ति । - काव्यप्रकाश 2.6 पर शशिकला टीका में न्यायमञ्जरी से उद्धत
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