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________________ द्वितीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश का विशिष्ट परिचय विश्व में दो धाराएँ सर्वदा से प्रवाहमान रही हैं- श्रमण परम्परा और ब्राह्मण (वैदिक) परम्परा । हम यहाँ 'ब्राह्मण' शब्द से वर्ण व्यवस्था की ओर संकेत नहीं करता चाहते और न ही 'ब्राह्मण' के उस वाच्यार्थ का संकेत करना चाहते हैं जिसके अनुसार ऋषभदेव के समय व्रतादि में निरत लोगों को 'ब्राह्मण, शब्द से अभिहित किया जाता था, क्योंकि उस अर्थ में तो यदि कोई ब्राह्मण है तो जैनाचार का पालन करने वाला ही सच्चा ब्राह्मण है'। हमारा अभिप्राय यहाँ वैदिक परम्परा से हैं। इस संसार में निसर्ग से ही संसार के चलने की पूरी की पूरी व्यवस्था चली आ रही हैं। इसमें सृष्टि और प्रलय का कोई प्रारंभिक बिन्दु नहीं है, परंतु अज्ञान के कारण प्रकृति के आश्चर्यों को देखकर अज्ञानियों ने इस निसर्ग के प्रारंभ और अन्त के बिन्दु भी निर्धारित किये हैं । कोई इसे ईश्वरकृत मानता है तो कोई अदृष्टकृत मानता है। जैन दर्शन कहता है कि 'इस निसर्ग का करने वाला कोई नहीं है, यह निसर्गतः ही स्वभाव सिद्ध है। संसार का प्रत्येक पदार्थ भाव-स्वभाव संसिद्ध है, और इसीलिए शाश्वत है। अशाश्वत है तो केवल संयोग, जिसके कारण कर्म संसृष्ट यह जीव दुःख उठा रहा है। संसार के सभी विचारकों ने दुःख को हेय (छोडने योग्य) माना है। कुछ ही अज्ञ (मूर्ख) ऐसे हैं जो मधुलिप्त असिधार को चाटना चाहते हैं। इस दुःख से बचने के लिए अपने स्वभाव की खोज-पहचान करने का प्रयास तो सभी ने किया है, परंतु वे मार्ग से भटक गये हैं और उन्होंने इस भटकाव में अनेक मिथ्या सिद्धांतों का प्रतिपादन कर दिया है, जो प्रारंभ में तो किंपाकफल के समान बहुत मधुर होते हैं परंतु अंत में विषवत् होते हैं। इन्ही सिद्धांतों में एक सिद्धांत है - 'शब्द संकेत' का सिद्धांत। कुछ लोगों ने शब्द को ही ब्रह्म मानते हुए नाद और बिन्दु से इस संसार की उत्पत्ति होना बताया है तो कुछ दार्शनिकों ने इसे जड पदार्थ मानते हुए आकाश का गुण अथवा प्रारंभक तत्त्व शब्दतन्मात्रा माना है न्याय दर्शन के अनुसार शब्द और अर्थ में जो संबंध है वह ईश्वर कृत है। इसे ये लोग शक्ति नाम से जानते हैं। " I यदि पातंजल महाभाष्य को देखा जाये तो वहाँ पर एक वचन आता है - "सिद्धे शब्दार्थसंबंधे "” अर्थात् शब्द और अर्थ का संबंध अनादि अनंत है। यद्यपि अर्थ में संकोच - विस्तार इत्यादि अनेक प्रक्रियाएँ भी होती रहती हैं। इसी प्रकार शब्द में भी अनेक परिवर्तन होते रहते हैं, अतः शब्द का कोई एक निश्चित अर्थ नहीं Jain Education International है, परंतु एसा कोई शब्द नहीं रहता जिसका किसी वाच्यार्थ से संबंध न हो। जिनका वस्त्वर्थ नहीं भी हो, उनका ध्वन्यर्थ तो होता है अर्थात् कम से कम उस ध्वनि का तो वह बोध कराता ही है । जैसे 'अस्य' यह कहने से सामान्य निर्देश करने वाले 'इदम्' शब्द के षष्ठी एकवचन 'अस्य' के वाच्यार्थ का बोध होता है । यदि इस अर्थ को भी न लिया जाये तो 'अस्य' का अर्थ 'अस्य' अकार अथवा अकार मात्र का षष्ठयन्त वाच्यार्थ तो प्राप्त होता ही है। कहने का अभिप्राय यह है कि शब्द अनादि है, अर्थ अनादि है और शब्द और अर्थ का संबंध भी अनादि है। इसमें किसी भी ईश्वर की आवश्यकता नहीं है, अन्यथा किसी भी नये गढे हुए शब्द के प्रयोग के पूर्व ईश्वर से पूछना पडेगा । जैन दर्शन भी यह स्वीकार करता है कि शब्द है, उसका वाच्यार्थ है, और दोनों में होनेवाले संभावित परिवर्तन भी होते रहते हैं । यही 'स्याद्वाद' शब्द का अर्थ है। शब्दार्थ का संबंध लोक से सिद्ध होता है, ईश्वर से नहीं ।" जैन दर्शन भी शब्द को पदार्थ मानता है परंतु शब्द को आकाश का गुण नहीं मानता। शब्द तो पुद्गलवर्गणाओं के एक वर्ग भाषा वर्गणा का प्रकटीकरण मात्र है। पुद्गल से प्रारंभ होने के कारण शब्द पौद्गलिक है। 10 जिन लोगों ने स्पर्शशून्यत्वादि हेतु देकर शब्द को गुण सिद्ध किया है, वे साधारण जनता को तो भ्रमित कर सकते हैं, परंतु जिसमें थोडी सी भी सोचने की शक्ति है उसे तो भ्रमित नहीं कर सकते। शब्द के पुद्गलत्व की सिद्धि अभिधान राजेन्द्र कोश में यथावश्यक विस्तार समझायी गयी है। 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. जैन आगम साहित्य: एक अनुशीलन, भूमिका, पृ. 1 कल्पसूत्र बालावबोध, अष्टम व्याख्यान ले श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरि शब्दगुणकमाकाशम् । तचैकं विभु नित्यं च । - तर्कसंग्रह द्रव्यखण्ड वही तन्मात्रो गणः पञ्चतन्मात्राणीत्यर्थः । 11. "भूतादेस्तन्मात्रः स तामसस्तैजसादुभयम्।" - सांख्यकारिका 24 पर कृष्णा व्याख्या पं. ज्वालाप्रसाद गौड अस्मात्पदादयमर्थों बोद्धव्य, इतीश्वर संकेत: शक्तिः । - तर्कसंग्रहः, शब्द परिच्छेद । पातञ्जल महाभाष्य, पश्पशाह्निक, जातिव्यक्तिपदार्थ निर्णयाधिकरण में आक्षेपसाधक भाष्य प्रतिनियतवासनावशेनैव प्रतिनियताकारोर्थः, तत्त्वतस्तु कश्चिदपि नियतो नाभिधीयते ॥ - वाक्यपदीय 2/136 9. सिद्धिः स्याद्वादात् 11 / 1 / 2; लोकात् 111/1/3 - सिद्धहेमशब्दानुशासन 10. पुद्गलभाषावर्गणापरमाणुभिरारब्धः पौगलिकः शब्द इन्द्रियार्थत्वाद्रूपादिवत् । - अ. रा. भा. 1-उपोद्धात पृ.11, शब्दाकाश गुणत्वखण्डनम्, एवं भाग 7, 'सद्द' शब्द अ. रा. भा. 1, उपोद्धात पृ. 11, शब्दाकाशगुणत्वखण्डनम् For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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