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षष्ठ परिच्छेद... [431]
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
अंधो अंध पहंणितो, दूरमद्धाण गच्छति । अंधा अंधे का पथप्रदर्शक बनता है, तो वह अभीष्ट मार्ग से दूर भटक जाता है।
- अ.रा.पृ. 1/492; सूत्रकृतांग-1/1/2/19 अकसायं खु चरित्तं । कषायरहितता (वीतरागता) ही चारित्र है। __ - अ.रा.पृ. 1/574; बृहत्कल्प भाष्य-2712 अलं कुसलस्स पमादेन। बुद्धिमान साधक को अपनी साधना में प्रमाद नहीं करना चाहिए। ___- अ.रा.पृ. 1/598; आचारांग-1/2/4/85 इह लोए वि ताव नट्ठा, पर लोए वि नट्ठा। विषयासक्त व्यक्ति इस लोक में भी नष्ट होते हैं और परलोक में भी।
- अ.रा.पृ. 1/679; प्रश्न व्याकरण-1/4/16 धम्मस्स मूलं विणयं। धर्म का मूल विनय है।
- अ.रा.पृ. 1/696; बृहदावश्यक भाष्य 4441 अरई आउट्टे से मेघावी। जो अरति का त्याग करता है, वही बुद्धिमान है।
- अ.रा.पृ. 1772; पंचसंग्रह सटीक द्वार 4; आवश्यकबृहद्वृत्ति-अध्याय 4 धिग् द्रव्यं दुःखवर्धनम्। दुःखवर्धक द्रव्य को धिक्कार हो ।
- अ.रा.पृ. 1/803; पञ्चतंत्र-2/124 असंखयं जीवियं मा पमायए। जीवन असंस्कृत (संस्कार हीन ) है (इसलिए) प्रमाद मत करो।
- अ.रा.पृ. 1/819; उत्तराध्ययन-4/1 मणं परिजाणइ से-णिग्गंथे। जो स्वयं के मन को परखता (जानता) है वही निर्ग्रन्थ (साधु ) है।
- अ.रा.पृ. 1/875; आचारांग-2/3/15/778 न हिंस्यात् सर्वभूतानि। किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो।
- अ.रा.पृ. 1/878; छान्दोग्य उपनिषद् अ.8 अहिंसा परमं धर्माङ्गम् ।। अहिंसा उत्कृष्ट धर्म का अंग है।
- अ.रा.पृ. 1/878; सूत्रकृतांग सटीक-2/2 उवसमसारं (ख) सामण्णं । उपशम श्रमणत्व का सार है।
- अ.रा.पृ. 1/884; बृहत्कल्पसूत्र-1/34 द्वितीय भाग :
तपसो निर्जराफलं दृष्टम । तप का फल निर्जरा है।
- अ.रा.पृ. 2/8 एवं 6/337; प्रशमरति-73 ज्ञानस्य फलं विरति। ज्ञान का फल विरति (त्याग) है।
- अ.रा.पृ. 2/8 एवं 6/337; प्रशमरति-72 सव्वेसिं जीवियं पियं । सभी को जीवन प्यारा है।
- अ.रा.पृ. 2/10; आचारांग- 1/2/3/78
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