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[264]... चतुर्थ परिच्छेद
संबंधी, हिंसा, अवर्णवाद, व्यभिचार, कलह, विश्वासघात, छल-कपट, आदि निकृष्ट पाप-बन्ध के कारणभूत तीस मोहनीय स्थानों के सेवन संबंधी, सिद्ध परमात्मा के इकतीस गुणों की विपरीत प्ररूपणा संबंधी आलोचना, क्रियानुष्ठान, ग्रहणादि शिक्षा, समाचारी, मूल-गुण-उत्तर गुण आदि संबंधि बत्तीस योग संग्रह के पालन में असावधानी या उसमें लगे अतिचार दोष संबंधी, अरिहंत-सिद्ध-आचार्य उपाध्याय-साधुसाध्वी- श्रावक-श्राविका - देव-देवी- इसलोक-परलोक- केवली प्रकाशित धर्म-लोक-सर्वप्राणादि-काल- श्रुत - श्रुतदेवता - वाचनाचार्य - व्यविद्धाक्षर (विपरीत या उतावली से बोलना) व्यत्याम्रेडित (असम्बद्ध भाषण ) - हीनाक्षर - अत्यक्षर(अधिक अक्षर)-पदहीन- विनयहीन - घोषहीन- योगोद्वहन (तप) हीन (उच्चारण करना) - सुष्ठुदत्त ( स्मरण शक्ति से अधिक पाठ लेना) - दुष्प्रतीच्छित (अविनय से पढना) - अकाल वेला में सूत्र की स्वाध्याय करना; कालवेला में नहीं करना, अस्वाध्यायिका (अस्वाध्याय काल में सूत्र पढना), स्वाध्यायिका ( स्वाध्याय के समय में नहीं पढ़ना) रुप तैंतीस आशातनाजनित दोषों का मिथ्यादुष्कृत दिया जाता हैं।
इसके बाद 24 तीर्थंकरों को नमस्कार करके निर्ग्रन्थ प्रवचन की महिमा का वर्णन करके अंत में साधु अकल्प्य, अज्ञान, अक्रिया (नास्तिकवाद), मिध्यात्व, अबोधि (मिथ्या क्रिया), मिथ्या मार्ग का त्याग करने की एवं कल्प्य, ज्ञान, क्रिया, सम्यक्त्व, बोधि और सम्यक् मार्ग को ग्रहण करने की प्रतिज्ञा करता हुआ दिवस / रात्रि में अज्ञान या अनुपयोग से जो कोई दोष लगा हो उसका 'मिथ्या दुष्कृत' माँगता हुआ स्वयं का संयमधारी, विरतिवान्, पापनाशक, निदान रहित, सम्यक्त्वसहित, माया - मृषावाद रहित स्वरुप को प्रकट करता हुआ ढाई द्वीप में रहे समस्त साधु-साध्वी को वंदन करता है और सर्व जीवों के क्षमापना करता हुआ उनके प्रति मैत्रीभाव धारणकर, वैर भाव का त्याग करके 24 जिनेश्वरों को वंदन करता हैं। 80 पाक्षिक/चातुर्मासिक/ सांवत्सरिक प्रतिक्रमण :
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चार संवर, पंचेन्द्रिय संवरण पाँच प्रकार का स्वाध्याय, 2 प्रकार के तप, सात पिण्डैषणा, आठ प्रवचनमाता, 9 ब्रह्मचर्य गुप्ति, 18 प्रकार की ब्रह्मचर्य शुद्धि, 10 प्रकार का सत्य, 10 समाधि स्थान, दशाश्रुत स्कन्ध के दश अधिकार और दशविध श्रमण धर्म को प्राप्त कर मन-वचनकाय रुप तीन दण्डों से विराम पाकर, त्रिकरण शुद्ध होकर, तीन शल्य से रहित होकर, मन-वचन-काय रुप त्रिविध योगों से, सर्व अतिचार दोषों से निवृत्त होकर पाँच महाव्रतों के पालन एवं रक्षण करने की प्रतिज्ञा की जाती हैं।
मुनि के पाक्षिकादि प्रतिक्रमण में पाक्षिक सूत्र में पंच महाव्रत एवं छठे रात्रिभोजनविरमण व्रत के स्वरुप का वर्णन कर तत्संबंधी दोषों की क्षमापना मांगकर वर्तमान में दिन या रात्रि में, अकेले में या सभा में, सोते या जागते किसी भी स्थिति में मन-वचन-काय से कृत-कारितअनुमोदन रुप किसी भी प्रकार से इन महाव्रतों का भङ्ग नहीं करता एवं भविष्य में नहीं करूँगा -एसी प्रतिज्ञा की जाती हैं।
साथ ही यहाँ पर पाँचों महाव्रत एवं छठे रात्रि भोजन विरमण व्रत के अतिक्रम संबंधी दोषों की क्षमा माँगकर दर्शन - ज्ञान चारित्र का अविराधित रुप से पालन करते हुए तथा निर्दोष वसति, मर्यादायुक्त विहार और पाँच समिति, तीन गुप्त से युक्त होकर दशविध साधु धर्म में स्थिर रहते हुए पंच महाव्रत और छठे रात्रिभोजनविरमण व्रत की रक्षा एवं पालन करने की भावना प्रकट की गयी हैं।
इसके बाद सावद्ययोग, मिथ्यात्व, अज्ञान, राग-द्वेष, आर्तरौद्र ध्यान, कृष्ण-नील- कापोत लेश्या, चार दुःख शय्या, चार संज्ञा (आहारादि), चार कषाय, पाँच काम गुण, पंचास्रव, षड्जीवनिकाय वघ, छः प्रकार की अप्रशस्त भाषा, सात भय, मिथ्यात्वी का विभंग ज्ञान, आठ मद, आठ कर्म एवं उनके नये बंध, नव पापनिदान, नवप्रकार के जीवों का वध, 10 प्रकार के उपघात, 10 प्रकार के असंवर, 10 प्रकार के संक्लेश और तैंतीस आशातना का त्याग करते हुए अनवद्य योग, सम्यक्त्व, ज्ञान, दो प्रकार के चारित्र तथा धर्म-शुक्ल ध्यान, तेजस्पद्म- शुक्ल लेश्या, मन-वचन-काय से सत्य संयम, चार सुख शय्या,
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तत्पश्चात् श्री जिनप्रणीत षडावश्यक ( सामायिकादि), दशवैकालिकादि अंगबाह्य उत्कालिक सूत्र, उत्तराध्ययनादि अंगबाह्य कालिक सूत्र, और आचारांगादि द्वादशांग गणिपिटकों का नामपूर्वक वर्णन करते हुए उनमें श्रद्धा प्रकट कर जो उन्हें ग्रहण करते हैं, पुनरावर्तन करते हैं, रक्षण करते हैं, परिपूर्ण धारण करते हैं, उनकी प्रशंसा करते हैं और पक्ष/ चातुर्मास / वर्षभर में श्रद्धापूर्वक उनमें से जो कुछ अध्ययन / वाचन किया हो, कराया हो, याद किया हो, शंका-समाधान किया हो, मनन किया हो, शुद्ध अनुष्ठान किया हो वह कर्मनाश के लिये होगा, अतः मुनि उनको अङ्गीकार करके मासकल्पादि मर्यादापूर्वक विहार करने की भावना प्रकट करते हैं और पक्षादि दिनों में जो न पढा, न पढाया, न पूछ, चिन्तन-मनन नहीं किया, अनुष्ठान नहीं किया हो उसका सामर्थ्य होने पर भी 'वाचना' आदि हेतु उद्यम नहीं किया, उसके लिए खेद प्रकट कर आलोचना, निंदा, गर्हा पूर्वक प्रतिक्रमण कर हुए 'मिच्छामि दुक्कडम्' माँगकर उन पापों से अलग रहने की प्रतिज्ञा करते हैं ।
प्रतिक्रमण का फल :
प्रतिक्रमण करने से जीव अपराधों से पीछे हटता है, व्रतों में हुए छिद्रों (दषों) को पूरता (मियता) है, व्रतों में लगे अतिचारों को रोकता है (नष्ट करता है), आस्रवरहित होता है, निरतिचार चारित्रवान् होता है और अष्ट प्रवचनमाता से युक्त होकर संयमयोग युक्त इन्द्रियों को सन्मार्ग स्थिर करके साधु स्वमार्ग में विचरता है। 82
नित्य शुद्ध श्रद्धापूर्वक प्रतिक्रमण करने से कर्म क्षय होता है, निकाचित कर्मों के बंधन शिथिल होते हैं, जीव कर्मो का नाश करके संवेग धारण कर संवरपूर्वक आराधना करके अजरामर/मोक्ष स्थान को प्राप्त होता है । प्रतिक्रमण करने के लिए अन्य को उपदेश/प्रेरणा देने पर दश हजार गायों का एक ऐसे 10 गोकुल (10,000 × 10 = 1,00,000 गाय) को अभयदान देने बराबर पुण्य प्राप्त होता है। सर्व जीवों के प्रति वैरभाव का अंत होता है। ईयापथिकी प्रतिक्रमण करते 'पणग- दग' पद का चिन्तन करते अतिमुक्तक (अईमुत्ता) मुनिने केवलज्ञान प्राप्त किया। (5) कायोत्सर्ग :
कायोत्सर्ग का विवरण आगे दिया जा रहा हैं।
(6) पच्चक्खाण- प्रत्याख्यान
आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने छठे प्रत्याख्यान आवश्यक की व्याख्या करते हुए कहा है कि त्याज्य वस्तु के प्रति
80. साधु प्रतिक्रमण-पगमा सिज्झाय सूत्र, अ.रा. पृ. 5/271 से 277 81. साधु प्रतिक्रमण - पाक्षिक सूत्र / अ. रा. पृ. 5/281 से 307 82. 1..... पडिक्कमणेणं वयच्छिदाई पेहेइ, पिहियवयछिदे पुण जीवे निरुद्धासवे असवलचरिते अट्ठसु पवयणमायासु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्यणिहिए विहरद
||1|| अ.रा. पृ. 5/318, उत्तराध्ययन-29 अध्ययन 83. प्रतिक्रमण की सज्झाय - 2 श्री जयन्तसेनसूरि
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