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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [241] होने से अथवा उभयलोक विरुद्ध होने से मुमुक्षु सावध अनुष्ठान की 1. सर्पसम
सर्प की तरह परकृत निवास में विरति (त्याग) करते हैं। इस प्रकार विरतिवान्, दान्त (जितेन्द्रिय), शुद्ध
रहनेवाले। द्रव्यभूत शरीर शुश्रूषा नहीं करने से व्युत्सुष्टकाय मुमुक्षु श्रमण' कहलाता 2. गिरिसम
परीषह और उपसर्ग में निष्प्रकम्प। है20। आगे अभिधान राजेन्द्र कोश में श्रमण शब्द के तीर्थिक, यति, 3. अग्निसम
तप से तेजस्वी, ज्ञान में हमेशा निश्चलमन, 12 प्रकार के तपोनिष्ठ देह, तप:श्री समालिङ्गित, महातपस्वी,
अतृप्त रहकर नित्य नये ज्ञान की परमसमाधिप्राप्त, परिव्राजकविशेष, त्रिदण्डी आदि, मुक्ति के लिए विद्यमान
प्राप्ति हेतु पुरुषार्थ करनेवाला। साधु, प्रव्रजित, महाव्रती, साधु, मुनि, तथाविध बहुलोक सम्मतिपूर्वक 4. सागरसम
गंभीर, ज्ञानादि के रत्नाकर, गृहस्थ पर्याय में भी 'श्रमण' नाम प्राप्त वीर/महावीर स्वामी, आदि
स्वमर्यादानतिक्रामी। अनेक अर्थ दर्शाये है।
5. नभः सम
निरालम्ब श्रमण के पर्यायवाची शब्द :
6. तरुसम
सुख-दुःख में तद्जनित विकार 1. प्रवजित आरंभ परिग्रह से प्रकर्षपूर्वक गया
रहित। हुआ - आरम्भमुक्त। 7. भ्रमर सम
अनियत वृत्ति अर्थात् विभिन्न गृहों 2. अणगार जिसे अगार अर्थात् गृह / घर
से भिक्षाग्राही। नहीं है। 8. मृग सम
संसार भय से उद्विग्न/भयभीत। 3. पाखण्ड(पाषण्ड) - पाप का खण्डन करनेवाला व्रती, 9. पृथ्वी सम
सर्वसुखदुःखसहिष्णु कर्मपाश से मुक्त।
10. जलस्ह (कमल) सम काम-भोग में निर्लिप्त 4. चरक जो तप को चरता है, तप का 11. सूर्यसम
षड्द्रव्य/लोक के समस्त स्वरुप आचरण करता है।
के प्रकाशक 5. तापस तपोयुक्त। 12. पवनसम
सर्वत्र अप्रतिबद्ध 6. भिक्षु भिक्षणशील, आठों प्रकार के 13. विष सम
सर्वरसअनुपाती (बिना स्वाद के कर्मो का भेदन करनेवाला।
भोजनग्राही) 7. परिव्राजक समस्त पापों के वर्जन पूर्वक 14. वंश (बाँस) सम
नम्र चलनेवाला ('व्रज-गतौ धातु' 15. वेतससम
वेतसवत् क्रोधादि विषनाशक से व्युत्पन्न)।
(वेतस से सर्पविष नष्ट होता है, 8. समण पूर्ववत्।
मुनि से 9. निर्ग्रन्थ बाह्यभ्यन्तर ग्रंथ (बंधन) रहित ।
क्रोधियों का क्रोध नष्ट होता है)। 10. संयत
अहिंसादि हेतु प्रयत्नवान् । 16. कर्णिका (पुष्प) सम - प्रकट 11. मुक्त बाह्यभ्यन्तर बंधन से मुक्त। 17. निर्गन्ध
अशुचि गंध रहित 12. तीर्णवान् संसारसागर से पार उतरा हुआ 18. उत्पलसम
प्रकृत्याधवल (निर्मल), सदाचार 13. त्राता धर्मकथादि के द्वारा सांसारिक
रुप सद्गुणों से युक्त दुःखों से रक्षा करनेवाला (रागादि 19. उन्दुस्सम
उपयुक्त देशकालचारी/समयज्ञ भाव से रहित होने से)। 20. नटसम
समयानुकुल व्यवहारयुक्त 14. द्रव्य ज्ञानादि भावों का जाननेवाला 21. कुर्केट सम
मण्डली में समुदाय सहित 15. मुनि अतीन्द्रिय भाव, सम्यक्त्व और
आहारभोजी। जगत् के कालिक स्वरुप के 22. आदर्श (दर्पण) सम - निर्मल, बाल-वृद्ध-तरुण के ज्ञाता, मौनी।
साथ तद्वत् व्यवहार करनेवाले। 16. क्षान्त क्रोधविजयी।
साधु :17. दान्त इन्द्रियादि का दमन करनेवाला
अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने 'साधु' शब्द की (पंचेन्द्रियविषयजेता)।
व्याख्या करते हुए कहा है कि जो शोभन (सुंदर) होता है, निर्दोष होता 18. विरत
प्राणातिपातादि से निवृत्त। है, जो सम्यग्दर्शनादि योगों के द्वारा मोक्ष को साधता है, जो विशिष्ट 19. रक्ष स्नेह परित्यागी।
क्रियाओं के द्वारा मोक्ष को साधता है। मोक्ष का पोषण करता है, जो 20. तीरार्थी संसारसागर से पार उतरने का
ज्ञानादि शक्ति (शस्त्र) के द्वारा मोक्ष को साधता है, जो सर्वभूतों (प्राणियों) इच्छुक।
के प्रति समता को ध्याता है, जो संयम में सहायक है, अथवा जो 21. तीरस्थ सम्यक्त्वादि प्राप्त।
संयमकारी को साधता है, जो अभिलषित अर्थ (लक्ष्य) को साधता है, श्रमण कैसे होते है ?
20. अ.रा.पृ. 7/412; सूत्रकृताङ्ग 1/16 अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने जैनागमानुसार मुनि के
21. अ.रा.पृ. 7/412 स्वभाव एवं आचार का ज्ञान करानेवाली अनेक उपमाओं द्वारा श्रमण का ।
22. अ.रा.पृ. 7/411 वर्णन किया है, जो निम्नानुसार हैं
23. अ.रा.पृ. 7/410-411
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