SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [178]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अन्य दर्शनों में त्रिविध साधना मार्ग जैन दर्शन में जैसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रुप साधना/मोक्ष/मुक्ति मार्ग दर्शाया गया है वैसे अन्य दर्शनों में भी त्रिविध साधनामार्ग का संकेत प्राप्त होता है। बौद्ध दर्शन में शील, समाधि और प्रज्ञा या वीर्य, श्रद्धा और प्रज्ञा रुप त्रिविध मार्ग का विधान है। वैसे बुद्ध ने सम्यग्दृष्टिसंकल्प-वाणी-कर्मान्त-आजीव-व्यायाम-स्मृति और समाधि (प्रत्येक पद सम्यग्विशिष्ट है) रुप अष्टांग मार्ग का उपदेश दिया है लेकिन यह अष्टांग मार्ग भी त्रिविध साधना मार्ग में अंतर्भूत है, जैसे-सम्यग्वाचा, सम्यक् कर्मान्त और सम्यग् आजीव का अन्तर्भाव शील में सम्यग् व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि का अन्तर्भाव चित्त, श्रद्धा या समाधि में और सम्यक् संकल्प और सम्यग्दृष्टि का अन्तर्भाव प्रज्ञा में होता है। गीता में ज्ञानयोग, भक्ति योग और कर्मयोग के नाम से त्रिविध साधना मार्ग का वर्णन प्राप्त होता है। गीता में मोक्ष की उपलब्धि के साधन के रुप में प्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा का भी उल्लेख है।5। योग-दर्शन में भी ज्ञानयोग-भक्तियोग और क्रियायोग के रुप में इसी त्रिविध साधना मार्ग का वर्णन है:16 | वैदिक परम्परा में ब्रह्म के तीन पक्ष सत्य, सुन्दर और शिव माने गये हैं और उसकी प्राप्ति के लिए ज्ञान, भाव/श्रद्धा और सेवा / कर्म रुप त्रिविध साधनामार्ग माना गया है। उपनिषदों में श्रवण (श्रद्धा), मनन (ज्ञान) और निदिध्यासन (कर्म) रुप त्रिविध साधनामार्ग दर्शाया है17 | पाश्चात्य दर्शन में भी तीन नैतिक आदेश उपलब्ध होते हैं-18 "(1) स्वयं को जानो - Know thyself (2) स्वयं को स्वीकार करो - Accept thyself (3) स्वयं ही बन जाओ - Be thyself सांख्य दर्शन भी त्रिविध दुःखो की अत्यन्त निवृत्ति मोक्ष है, यह मान्य करता है । सांख्य दर्शन में विवेक ख्याति (सम्यग्दर्शन), भेद ज्ञान (सम्यग्ज्ञान), तत्त्वाभ्यास (सम्यक् चारित्र) द्वारा पुरुष जीवन्मुक्तावस्था (जैन दर्शनानुसार सयोगीकेवल्यावस्था) प्राप्त करता है220 न्यायदर्शन में षोडश सत्पदार्थो के तत्त्वज्ञान (यथार्थ ज्ञान) से निःश्रेयस अर्थात् 'मोक्ष की प्राप्ति होना स्वीकार किया गया है21 | वैशेषिक दर्शन में श्रद्धादि धर्म से तत्त्व ज्ञान की उत्पत्ति और तत्त्व ज्ञान को मोक्ष का हेतु/उपाय कहते हैं अर्थात् धर्म से तत्त्व ज्ञान प्राप्त होने पर तत्त्व ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है222 | शांकर भाष्य में आत्म विद्या से मोक्ष की प्राप्ति होना स्वीकार किया गया है। आचार्य शंकर ने गीताभाष्य में कहा है कि सम्यग्दर्शन से पुरुष संसार के बीजरुप अविद्यादि दोषों का अन्मूलन न कर सके, एसा कदापि संभव नहीं हो सकता अर्थात् सम्यग्दर्शन से पुरुष निश्चित रुप से निर्वाण प्राप्त करते है24 । इस प्रकार जैन दर्शन की तरह अन्य दर्शनों में भी त्रिविध मोक्षमार्ग का वर्णन किया गया है, चाहे वहाँ उसका स्वरुप जैन दर्शनानुसार हो या उससे भिन्न भी हो परंतु अधिकांश जैनेतर दर्शनों ने सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रुप मोक्षमार्ग को किसी न किसी रुप में स्वीकृत किया है। प्रसिद्ध दर्शन समीक्षक डॉ. सागरमल जैन ने इसे निम्न तालिकानुसार दर्शाया है225 : विश्व के दर्शनों में सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र की स्वीकृति का स्वरुप | जैनदर्शन | बौद्धदर्शन | गीता | योग दर्शन | वैदिक दर्शन | उपनिषद् | पाश्चात्य दर्शन | सम्यग्ज्ञान ज्ञान/ ज्ञान मनन Know thyself प्रज्ञा परिप्रश्न ऋतम्भरा (ज्ञान) प्रज्ञा सम्यग्दर्शन चित्तसमाधि (श्रद्धा) भाव/श्रद्धा श्रवण भक्ति (श्रद्धा)/ Accept thyself विवेकख्याति (भक्ति ) प्रणिपात (श्रद्धा) सेवा/कर्म शील/वीर्य कर्म/सेवा निदिध्यासन Be thyself सम्यक् चारित्र अभ्यास (क्रिया) 214. सम्मादिट्ठि सुत, मज्झिमनिकाय; महापरिनिव्वाणसुत्त, दीर्धनिकाय; महासत्तिपट्ठान सुत, दीर्धनिकाय; धम्मचक्कपवत्तन सुत्त, संयुक्तनिकाय 215. गीता 4/34, 4/39 216. योगसूत्र-4/26-30-31-54 एवं उन पर योगभाष्य 217. बृहदाण्यकोपनिषद्-2/4/5 218. साइकोलोजी एन्ड मारल्स, पृ. 180 219. सांख्यसूत्र 1/1 जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरुप-184 पर उद्धृत 220. सांख्यसूत्र 3/78, वही, 6/58 जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरुप पृ. 186 पर उद्धृत 221. न्यायसूत्र 1/1 222. वैशेषिक सूत्र 1/1/2; 1/1/4 प्रशस्तपाद भाष्य, धर्म प्रकरण । 223. ब्रह्मसूत्र-1/1/1 पर शांकरभाष्य 224. गीता 18/12 पर शांकरभाष्य 225. जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग 2, पृ.23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy