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[444]... सप्तम परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 64. आदिधार्मिक एवं मार्गानुसारी - ये गृहस्थों के दो मुख्य वर्ग हैं जो धर्माभिमुख होते हैं।
श्रावक के लिए जिन पूजा आदि षडावश्यक कार्य नित्य करते रहने का विधान है। इनके साथ ही 35 अन्य कर्तव्य हैं। इस प्रकार श्रावक के 36 कर्तव्य बताये गये हैं। श्रावकों को जिनमंदिर में 84 आशातनाओं (धर्मच्छेदक 84 दोष) से निरन्तर बचना चाहिए। साधुओं के लिए उपदिष्ट व्रतों का स्थूल रुप अर्थात् पञ्चाणुव्रत का पालन प्रत्येक श्रावक के लिए अनिवार्य है। साथ ही महाव्रतों के अभ्यास के लिए शिक्षाव्रतों एवं गुणव्रतों का भी उपदेश किया गया है। भोगोपभोग परिमाण व्रत में 22 अभक्ष्य एवं 32 अनन्तकाय का अभ्यवहरण निषिद्ध है। मद्य, मांस, मधु, पंचोदुम्बर फल एवं रात्रिभोजनइनका त्याग जैननामधारी के लिए भी आवश्यक बताया गया है। श्रमणाचार के अभ्यास के लिए श्रावक को सचित परिमाण आदि 14 नियम बताये गये हैं। आजीविका के साधनों में 15 कर्मादानों के त्याग का उपदेश श्रावक को करना चाहिए। श्रावक की उच्च अवस्था प्राप्त करने के लिए 11 उपासक प्रतिमाएं बतायी गयी हैं जो श्रावक की साधक अवस्था से आरम्भ होकर मुनिजीवन के आरम्भिक स्वरुप तक के आचरण के आधार पर कही गयी है। एकादश उपासक प्रतिमाओं का सम्यग् आचरण करते हुए श्रावक मुनिदीक्षा की योग्यता प्राप्त कर लेता है। 'आचार' शब्द के वाच्यार्थ के विस्तार में मुनिओं का आचार एवं श्रावकों का आचार समाहित है। आचार शब्द के वाच्यार्थ में जो भेद है वह श्वेताम्बर परम्परा, दिगम्बर परम्परा, ब्राह्मण परम्परा, आदि में मान्य सिद्धान्तभेद के कारण
जैन, बौद्ध, ब्राह्मण आदि परम्पराओं में स्वीकृत अहिंसा एक सार्वभौम धर्म है। अन्य सब आचार अहिंसा पालन का ही विस्तार है। जैन सिद्धान्तों को पुष्ट करनेवाली अनेक कथाओं एवं उपकथाओं का समावेश श्री अभिधान राजेन्द्र कोश में यथास्थान किया गया
है। इनमें से 358 कथाएँ जैनाचार से सम्बन्धित है। 77. जैनाचार को पुष्ट करनेवाली 149 सुक्तियाँ अभिधान राजेन्द्र कोश में समाविष्ट है। 78. सारांश के रुप में यह कहा जा सकता है कि जैनाचार विधि-निषेधपरक व्यवहार का वह स्वरुप है जिससे मानव अपनी पूर्णता को
प्राप्त कर सिद्धावस्था प्राप्त कर सकता है जो अवस्था चरम है इसके बाद कोई अन्य विकारी अवस्था नहीं होती।
इस शोध प्रबन्ध के चार लक्ष्य निर्धारित किये गये थे। इनमें प्रथम लक्ष्य था जैन परम्परा की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का एकत्र संकलन एवं वर्गीकरण करना, इस लक्ष्य का साफल्य समग्र शोधप्रबन्ध का अवलोकन करने से ज्ञात होता है।
शब्दावली में संग्रहीत शब्दों की यथास्थान निरुक्ति, व्युत्पत्ति एवं शास्त्रलभ्य अर्थ स्पष्ट करने से 'शब्दावली का व्यत्पत्ति एवं निरुक्तिमूलक अर्थ प्रस्तुत करना' नामक दूसरा लक्ष्य भी प्राप्त कर लिया गया है।
जैनाचार में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ की तुलना में जैन साहित्य-एवं अन्य कोशग्रन्थों में वर्णित अर्थ को प्रस्तुत करते हुए समीक्षा करने से 'शब्दावली के बारे में अन्य कोश ग्रन्थों एवं जैन साहित्य में दिये अर्थो का तुलनात्मक स्वरुप एवं समीक्षा प्रस्तुत करना' -नामक तीसरा लक्ष्य भी प्राप्त कर लिया गया है।
और, आचारपरक शब्दावली के वाच्यार्थ का विस्तार नामक पञ्चम परिच्छेद में 'जैन परम्परा के भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों में आचार की सूक्ष्म भिन्नता को रेखांकित करना' - नामक अन्तिम लक्ष्य भी पूरा हो गया है। इस प्रकार निष्कर्ष के रुप में यह कहा जा सकता है कि शोधप्रबन्ध का लेखन सार्थक और सफल रहा है।
माद से या अज्ञान से, टंकण की त्रुटि से या प्रस्तुति के स्वरुप दोष से शोध प्रबन्ध में दोष भी हो सकते हैं किन्तु नम्र निवेदन है कि विद्वज्जन त्रुटियों को सुधार कर इसका अवलोकन करेंगें।
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