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: सूत्रस्थान-अ० १.
(११) व्याधियोंके हेतु और आश्रय । कालबुद्धीन्द्रियार्थानांयोगोमिथ्यानचातिच । द्वयाश्रयाणांव्याधीनांत्रिविधाहेतुसंग्रहः॥ ५२ ॥
शरीरसत्त्वसंज्ञचव्याधीनामाश्रयोमतः। · तथासुखानांयोगस्तुसुखानाकारणशमः ॥ ५३ ॥ ___ काल, बुद्धि, इंद्रिय, विषय इनका मिथ्या योग अयोग और आतियोग यह तीन प्रकारका व्यापार होना ही शारीरिक तथा मानसिक व्याधियांका कारण है। शरीर और मन यह दोनों ही रोगोंके अधिष्ठान हैं अर्थात् रोग शरीरमें और मनमें ही होतेहैं। और काल, बुद्धि, इंद्रियोंके विषय, इनका उचित योग रहनेसे रोग न होकर सुख प्राप्त होताहै ॥ ५२ ॥ ५३ ॥
आत्माका लक्षण। निर्विकारःपरस्त्वात्मासत्त्वभूतगुणेन्द्रियैः ।
चेतनेकारणनित्योद्रष्टापश्यतिहिक्रियाः ॥ ५४॥ आत्मा निर्विकार है, पर है, और मन, भूतगण और इंद्रियें इनके चैतन्यमें कारण है, नित्य है, द्रष्टा है, सव क्रियाओंको देखताहै ॥ १४ ॥
रोगोंके कारण। . वायुःपित्तंकफश्चोक्तःशारीरोदोषसंग्रहः ।
मानसःपुनरुद्दिष्टोरजश्वतमएवच ॥ ५५॥ वात, पित्त, कफ, यह तीन शारीरिक दोष हैं । रजोगुण और तमोगुण मानसिक दोष हैं । अर्थात् वात, पित्त, कफ यह बिगडकर शरीरमें रोग करतेहैं और रज,तम मनमें रोग करनेवाले हैं ॥५५॥
दोषोंका प्रशमन । प्रशाम्यत्यौषधैःपूर्वोद्रव्ययुक्तिव्यपाश्रयैः ।
मानसोज्ञानविज्ञानधैर्यस्मृतिसमाधिभिः ॥ ५६ ॥ शारीरिक रोग द्रव्योंकी युक्तियोंसे सम्बन्ध रखनेवाले औषधों द्वारा शांत होतेहैं: और मानसिक रोग ज्ञान, विज्ञान, धैर्य, स्मृति, समाधि आदिसे शांत होतेहैं ५६॥