________________
अधिकरण
आगम विषय कोश-२
जो भिक्षु अनुत्पन्न नए कलहों को उत्पन्न करता है, अहोरात्र का छेद प्रायश्चित्त दिया जाता है। धीरे-धीरे कषाय पुराने क्षामित और उपशांत कलहों की उदीरणा करता है, वह की आग बुझ जाने पर वह उपशांत होकर दुबारा उसी गण में मासलघु प्रायश्चित्त प्राप्त करता है।
(अपने मूलगण में) आना चाहे तो गण को जैसे प्रीति/प्रतीति ० कलह-निवारण न करने पर प्रायश्चित्त
हो, वैसे करना चाहिये। जे भिक्खू साहिगरणं अविओसविय-पाहडं १८. पर्युषणा में क्षमायाचना अनिवार्य अकडपायच्छित्तं परं ति-रायाओविप्फालिय अविष्फालिय
अधिकरणं"""ण कायव्वं, पुव्वुप्पण्णं च ण संभंजति संभंजतं वा सातिज्जति आवजड चाउम्मासियं उदीरियव्वं । पुव्वुप्पण्णं जड़ कसायुक्कडताए न खामितं परिहारट्ठाणं अणुग्घातियं। (नि १०/१४, ४१)
तो-पज्जोसवणासुअवस्सं विओसवेयव्वं"खामेयव्वंच,
एवं करतेहिं संजमाराहणा कता भवति" जिस भिक्षु ने कलह कर उसका उपशमन नहीं किया,
गिहिणो वि कयवेरा अधिकरणाइं ओसवंति, प्रायश्चित्त नहीं किया, उससे पृच्छा कर या बिना पृच्छा किए समणेहिं पुण सव्वपावविरतेहिं सुट्ठतरं ओसवेयव्वं । जो उसके साथ तीन दिन से अधिक मण्डली भोजन करता है
(निचू ३ पृ१३९, १४७) या करने वाले का अनुमोदन करता है, वह चतर्गरु प्रायश्चित्त
___ कलह नहीं करना चाहिये। पूर्व उत्पन्न (उपशांत) प्राप्त करता है।
कलह की उदीरणा नहीं करनी चाहिये। यदि कषाय की प्रबलता जो जस्स उ विज्झवणं तस्स तेण कायव्वं।
के कारण पूर्व उत्पन्न कलह के लिए क्षमायाचना न की हो तो
के कारण पर्त उत्पन्न कलर के लिI श्रम जो उ उवेहं कुज्जा, आवज्जइ मासियं लहुगं॥ पर्युषणा में अवश्य कर लेनी चाहिये। कलह का शमन कर ..."गुरुओ सो चेव उवहसंतस्स। क्षमायाचना करने वाला संयम की आराधना करता है। उत्तुयमाणे लहुगा, सहायगत्ते सरिसदोसो॥ वैर भाव रखने वाले गृहस्थ भी अधिकरण का उपशमन
(बृभा २६९८, २६९९) करते हैं तो सर्वपापों से विरत श्रमणों को अच्छी तरह से कलह होने पर जो साधु जिस साधु की प्रज्ञापना से अधिकरण को उपशांत करना चाहिये। उपशांत होता है, उस साधु को उसे उपशांत करना चाहिए। ० दृष्टांत : दुरूतक और द्रमक उसकी उपेक्षा और उपहास करने वाला तथा उत्तेजित करने एगबतिल्लं भंडिं, पासह तुब्भे वि डझंतखलहाणे। वाला ये तीनों क्रमश: मासलघु, मासगुरु और चतुर्लघु हरणे ज्झामण भाणग, घोसणता मल्लजुद्धेसु ॥ पायश्चित्त के भागी बनते हैं। उसका सहयोग करने वाला अप्पिणह तं बइल्लं, दुरूवगा तस्स कुंभकारस्स। उसी के समान दोषी है और उतना ही प्रायश्चित्त (चतुर्गुरु)
मा भे डइहिति धण्णं, अण्णाणि वि सत्त वरिसाणि॥ प्राप्त करता है।
खद्धादाणि य गेहे, पायस दमचेडरूवगा दटुं। भिक्खू य अहिगरणं कट्ट तं अहिगरणं अवि
पितरोभासण खीरे, जाइय रद्धे य तेणा तो॥ ओसवेत्ता, इच्छेज्जा अण्णंगणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, पायसहरणं छेत्ता, पच्छागय असियएण सीसं तु। कप्पइ तस्स पंच राइंदियं छेयं कट्ट-परिणिव्वविय- भाउयसेणाहिव, खिंसणाहिं सरणागतो जत्थ । परिणिव्वविय दोच्चं पि तमेव गणं पडिनिज्जाएयव्वे सिया,
(निभा ३१८०, ३१८१, ३१८६, ३१८७) जहावा तस्स गणस्स पत्तियं सिया। (क ५/५) दुरूतक-एक कुंभकार शकट में मिट्टी के बर्तन भरकर एक
कोई भिक्षु कलह कर उसको उपशांत किए बिना अन्य गांव पहुंचा। वह प्रत्यन्तवर्ती गांव था। वहां पहुंचते ही एक गण की उपसम्पदा ग्रहण कर विहरण करना चाहे, उसे पांच व्यक्ति बोला-आश्चर्य है, यह शकट एक बैल वाला है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org