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आगम विषय कोश-२
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अधिकरण
० काल वैर-अमुक काल में उत्पन्न वैर।
१६. कलह-उपेक्षा से सर्वनाश : गिरगिट-हाथी दृष्टांत ० भाव वैर-परिणामों की मलिनता। एक भव से दूसरे भव में । नागा! जलवासीया! सुणेह तस-थावरा!। संक्रान्त होने वाला वैर।
सरडा जत्थ भंडंति, अभावो परियत्तई॥ एक गांव में चोरों ने गायों को चुरा लिया। महत्तर वणसंड सरेजल-थल-खहचरवीसमण देवया कहणं। (गांव का मुखिया) खोजी को साथ लेकर गया। गायें हमारी
वारेह सरडुवेक्खण, धाडण गयनास चूरणया॥ हैं-यह कहकर चोरों का अधिपति महत्तर के साथ झगड़ने
(बृभा २७०६, २७०७) लगा। वे रौद्रध्यान में लीन होकर एक-दूसरे का वध करते
अरण्य के मध्य में एक अगाध जल वाला सुंदर हए मर गए और प्रथम नरक में नारक के रूप में उत्पन्न हुए।
सरोवर था। वह चारों ओर वृक्षों से मंडित था। वहां वहां से उद्वृत्त होकर दोनों महिष रूप में उत्पन्न हुए।
जलचर, स्थलचर तथा खेचर प्राणियों की बहुलता थी। एक एक-दूसरे को देखकर तमतमा उठे, झगड़ने लगे। मरकर दूसरी
बड़ा हस्तियूथ भी वहां रहता था। ग्रीष्मकाल में वह हस्तियूथ नरक में उत्पन्न हुए। वहां से उद्वृत्त हो वृषभ बने। उसी वैर
उस सरोवर में पानी पीता, जलक्रीड़ा करता और वृक्षों की परम्परा में आबद्ध होने के कारण एक-दूसरे को मारकर पुनः
छाया में सुखपूर्वक विश्राम करता था। सरोवर के निकट दूसरी नरक में गये। वहां से आयुष्य पूर्णकर दोनों ही बाघ रूप
गिरगिटों का निवास था। एक बार दो गिरगिट लड़ने लगे। में जन्मे। वहां भी परस्पर वध कर मरकर तीसरी नरक में गए।
वनदेवता ने यह देखा। उसे भविष्य का अनिष्ट स्पष्टरूप से वहां से उवृत्त हो सिंह रूप में उपपन्न हुए, फिर चौथी नरक
दृग्गोचर होने लगा। उसने अपनी भाषा में सबको सावचेत में उत्पन्न हुए। वहां से उवृत्त हो दोनों ही मनुष्य योनि में
करते हुए कहाजन्मे, जिनशासन में दीक्षित हए और सदा के लिए मुक्त हो
हे हाथियो! जलवासी मच्छ-कच्छपो! त्रस-स्थावर गए।
प्राणियो! सब मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनें-जहां सरोवर के निकट १५. कलह-उपेक्षा कैसे?
गिरगिट लड़ रहे हों, वहां सर्वनाश होता है। इसलिए इन लड़ने परवत्तियाण किरिया, मोत्तु परटुं च जयसु आयटे। वाले गिरगिटों की उपेक्षा न करें। इनको निवारित करें। अवि य उवेहा वुत्ता, गुणा य दोसा य एवं तु॥ जलचर आदि प्राणियों ने सोचा-लड़ने वाले ये गिरगिट जति परो पडिसेविज्जा, पावियं पडिसेवणं। हमारा क्या बिगाड़ देंगे? इतने में एक गिरगिट भाग कर सरोवर के मज्झ मोणं चरेतस्स, के अटे परिहायति॥ किनारे सोए हुए हाथी की सूंड को बिल समझ कर उसमें चला
(निभा २७८१, २७८२) गया। दूसरा गिरगिट भी उसके पीछे भागता हुआ सूंड में घुस कलह की उपेक्षा करने वाले कहते हैं- हमारे पर
गया। वे हाथी के कपाल में लड़ने लगे। हाथी अत्यंत पीड़ित प्रत्ययिक कर्मबंध नहीं होता। कलह को उपशांत करना
हुआ। महान् वेदना से पराभूत होकर हाथी उठा और वनषंड का परार्थ है, इसे छोडकर आत्मार्थ को साधो। (ओघनियुक्ति
विनाश करने लगा। अनेक प्राणी मारे गए। वह सरोवर में घुसा। भाष्य गाथा १७१ में) उपेक्षा को संयम कहा गया है।
वहां अनेक जलचरों को मारा। सरोवर की पाल तोड़ डाली,
सभी प्राणी नष्ट हो गए। उपेक्षा से स्वाध्याय आदि गण निष्पन्न होते हैं। परार्थसापेक्षता सूत्र, अर्थ आदि का परिमंथु है।
१७. कलह-उत्पत्ति और प्रायश्चित्त यदि कोई पापमयी प्रतिसेवना करता है तो मेरे मौन जे भिक्खू णवाई अणुप्पण्णाई अहिगरणाई या मध्यस्थ रहने से मेरे कौन से प्रयोजन की हानि होती है? उप्याएति"पोराणाई"पुणो उदीरेति"आवज्जइ मासियं यह है उपेक्षा।
परिहारट्ठाणं उग्घातियं। (नि ४/२४, २५, ११८)
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