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तीर्थंकर महावीर
और उनकी आचार्य-परम्परा
श्रुतधर
और सारस्वत आचार्य
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तीर्थंकर महावीर
और उनकी आचार्य-परम्परा
द्वितीय खण्ड
लेखक
डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, ज्योतिषाचार्य,
एम.ए. पी-एच.डी. डी. लिट
(इस भाग का मुद्रण श्री दिगम्बर जैन समाज गया के के सौजन्य से)
आचार्य शन्तिसागर छाणी ग्रन्थमाला
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विषय-सूची प्रथम परिच्छेद श्रुतपराचार्य
विषय
आचार्य : स्वष्प एवं विवेचन आचार्ग और वाङ्मय श्रुत या आगमका स्वरूप, मेद एवं विषय श्रुत या आगमके मेद श्रुत या आगमज्ञानसे सम्बद्ध आवार्य-परम्परा श्रुतधराचार्य सारस्वताचार्य प्रबुद्धाचार्य परम्परापोषकाचार्य कवि और लेखक
श्रुतघराचार्य श्राचार्य गुणपर
समय-विचार रचना : कषायपाहुट : परिचय
आ० गुणधरकी रचना-शक्ति और प्रतिभा आचार्य धरसेन
समय निर्णय
पाण्डित्य आचार्य पुष्पदन्त और उनकी रचना
समय-निर्धारण
रचनाशक्ति और प्रतिभा आचार्य भूतबलि
समय-निर्धारण रचनाशक्ति और पाण्डित्य
विषय-सूची : १७
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७७
७९
७२
विष रचना : षटखण्डागम : पारचय
१. जीवट्ठाण :. खुद्दाबंध ३. बंधसाभित्तचिचय ४. वेदनाखंड ५. वग्गणाखंड
६. महाबंध आचार्य आयमंक्ष आचार्य मागहस्ति
समय-निर्णय
श्रुताभिज्ञता और पाण्डित्य आचार्य बज्रयश
ससमा निर्धारण आचार्य चिरन्तनाचार्य आचार्य यतिवृषभ
समय निर्णय रचनाएं
१. चूणिसूत्र : परिचय
२. तिलोयपण्णत्ती : विषय-विवेचन यतिवृषभको अन्य रचनाएं उच्चारणाचा समय-
निर्धारण बप्पदेवाचार्य
समय-विचार
धेदृष्य और प्रतिभा वाचार्य कुम्वफुन्द
गुरुपरम्परा जीवनबून : घटित घटनाएं समय-निर्धारण रचनाएं
१. प्रवचनसार १८ : तीर्थकर महाबीर और उनकी प्राचार्य परम्परा
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विषय
११२
११४ ११४ ११४ ११४ ११४
११४
११५
११५
११५
११५
२. समयसार ३. पंचास्तिकाय ४. नियमसार ५. बारस-अणुवेकान! ६. दसण-पाहुड ७. चारित्त-पाहुड ८. सुत्त-पाहुड ९. बोह-पाहुड १०. भाव-पाहुड ११. मोक्ख पाहुड १२. लिंग-पाहुड १३. सील-पाहुड १४. रयण-सार १५. सिद्ध-भत्ति १६. सुद-भत्ति १७. चारित्त-भत्ति १८. जोइ-त्ति १९, आइरिय-भत्ति २०. णिव्वाण-भत्ति २१. पंचगुरु-भत्ति
२२. थास्सामि क्षुदि (तित्थयर-भत्ति) आचार्य बट्टकेर
समय-निर्धारण
रचना : मूलाचार : परिचय शिवार्य
जीवन-परिचय गुरुपरम्परा और सम्प्रदाय समय-निर्धारण रचना : भगवती आराधना : परिचय
पाण्डित्य और प्रतिभा आचार्थ कुमार या स्वामिकुमार (कातिकेय)
समय-निर्धारण
११५ ११५
११६
११७
११९
१२०
१२२
१२५
१२८
१३१
विषय-सूची : १९
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विषय
१५०
रचना : द्वादशानुप्रेक्षा : परिचय
रचना-प्रतिमा गपिच्छाचार्य
गुरुपरम्परा समय-निधारण रचना : तत्त्वार्थसूत्र : परिचय महत्व वर्ण्य विषय सत्त्वार्थसूत्रको रचनाका स्रोत सत्रपाठ मङ्गलाचरण रचना प्रतिभा एवं रचना शैली
१५६ १५९
१७० १७१ १७४
१७
१८४ १८५
द्वितीय परिच्छेद
सारस्वताचार्य सारस्वताचार्य : स्वरूप अचार्य समन्तभद्र
जीवन-परिचय गृह-शिष्यपरम्परा
समय-निर्धारण रचनाएँ
१. स्वयम्भूस्तोत्र २. स्तुति-विद्या (जिनशतक) ३. देवागम (आप्तमीमांसा) ४. युक्त्यनुशासन
५. रत्नकरण्डकवावकाचार प्रतिभा एवं वेदुष्य आचार्य सिद्धसेन
जीवन-परिचय समय-निर्धारण रचनाएँ
१८८
१८९ १९० १९१ १९८ २०५ २०६
२०९
२० : तोयंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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वियय
२१५
२१९ २२२
२२५
२२५
२२५
२२५
२२९
२३०
२४
१. सन्मतिसूत्र
२. कल्याणन्दिर आचार्य देवनम्वि-पूज्यपाव
जीवन-परिचय समय-विचार रचनाएँ
१. दशक्ति २. जन्माभिषेक ३ तत्त्वार्थवृत्ति (सर्वार्थसिद्धि) ४. समाधितन्त्र ५ इशोपदेश ६. जैनेन्द्रव्याकरण
७. सिद्धिप्रियस्तोत्र वैदुष्य एवं काव्यप्रतिभा पात्रकेसरी (पात्रस्वामी)
जीवन-परिचय समय-निर्णय रचनाएँ
१. पात्रकेसरीस्तोत्र
२. त्रिलक्षण-कदर्थन प्रतिभा एवं वैदुष्य आचार्य जोइंबु
जीवन-परिचय समय-निर्णय रचनाएँ
१. परमात्मप्रकाश (अपभ्रंश) २. नौकारश्रावकाचार (अपभ्रंश) ३. योगसार (अपभ्रंश) ४. अध्यात्म-सन्दोह (संस्कृत) ५. सुभाषिततंत्र (संस्कृत) ६. तत्त्वार्थटीका (संस्कृत)
२३९
२४३
२४५
२४६ २४८
२४८
૨૪૮
२५१
२५१
विषय-सूची : २१
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२५२
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२५.७
२६७
०६८
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२९१
२९२
विषय
प्रतिभा एवं वैदुष्य विमलसुरि
जीवन-परिचय समय-निर्धारण रचना : पउमरिय : परिचय आचार्य ऋषिपुत्र आचार्य मानतुङ्ग
जीवन-परिचय समय-विचार
रचना : भक्तामरस्तोत्र : परिचय आचार्य रविषेण
जीवन-परिचय समय-निर्धारण
रचना : पद्मचरित (पद्मपुराण) : परिचय आचार्य जयसिंहनन्दि
जीवन-परिचय स्थिति-काल
रचना : वराङ्गचरित : परिचय आचार्य सकलदेव
जीवन-परिचय समय-निर्धारण रचनाएँ
१. लघीयस्त्रय (स्वोयज्ञवृत्तिसहित)
२. न्यायविनिश्चय (स्वोयज्ञवृत्तियुत) २ [३. सिद्धिविनिश्चय सवृत्ति १ [४. प्रमाणसंग्रह सवृत्ति
५. तस्वार्थवातिक सभाष्य
६. अष्टशती (देवागम-विवृति) एलाचार्य
परिचय समय-निर्णय
प्रतिभा एवं दुष्य २२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
२५३
२९५
الله
३०१
३०४ ३०६ ३०६
الله
الله
३११
३१४
له سه سه
३२०
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३२१
३२२ ३२३ ૩૨૪
३२४ ३३६ ३३६ ३३८ ३४०
विषय वीरसेनाचार्य
जीवन-परिचय स्थिति-काल रचनाएं
१. धवलाटोका
२. जयधवलाटीका आधा जिनसेन द्वितीय
जीवन-परिचय समय-विचार रचनाएँ
१. पान भ्युदय २. आदिपुराण
3. जयधवलाटीका मानार्य विद्यानन्द
जीवन-वृत्त समय-विचार रचनाएँ
१. आप्तपरीक्षा सत्ति २. प्रमाण-परीक्षा ३. पत्र-परोक्षा ४. सत्यशासनपरीक्षा ५. विद्यानन्दमहोदय ६. श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र ७. तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक समाष्य ८. अष्टसहस्री (देवागमालंकार)
९. युक्त्यनुशासनालङ्कार आचार्य देवसेन रचनाएँ
१. दर्शनसार २. भावसंग्रह ३. आराषनरसार
३४७ ३४८ ३४८
३५२
३५२
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३५६
३५७ ३५९ ३५९
३६५
३६५
३७०
३७१
३७७ विषय-सूची : २३
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३८०
३९४ ३९४ ३९४ ३९५
विषय
४. तत्त्वसार ५. लघुनयचक
६. आलापपद्धति आचार्य अमितगति प्रथम
स्थितिकाल
रखमा अमितगति द्वितीय रचनाएँ
१. सुभाषितरत्नसंदोह २. धर्मपरीक्षा ३. उपासकाचार ४. आराधना ५. भावनाद्वात्रिंशतिका ६. पंचसंग्रह (संस्कृत)
७. प्राकृतपंधसंग्रह विषय-परिचय अमृतवमसूरि
जीवन-परिचय समय-विचार रचनाएँ
१. पुरुषार्थसिध्युपाय २. तस्वार्थसार ३. विषयस्रोत ४. समयसार-कलश ५. समयसार-टोका ६. प्रवचनसार-टीका
७. पन्चास्तिकाय टीका आचा' मेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती
जीवन परिचय समय-विचार रचनाएँ
१. गोम्मटसार २४ : सोधकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
४०२
४०३ ४०५ ४०५ ४०८
४१३
४१५ ४१६ ४१७ ४१७ ४१८
४२१
४२२ ४२३
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विषय
४२७ ४३२ ४३३ ४३४ ४३५ ४३९
२. गोम्मटसार कर्मकाण्ड ३. त्रिलोकसार
४. लब्धिसार आचार्य नरेन्द्रसेन जीवन-परिचय और समय-विचार
रचना नेमिचन्द्र मुनि
समय-विचार रचनाएँ
१. लघुद्रव्यसंग्रह
२. बृहद्व्य संग्रह अन्य चर्चित सारस्वताचार्य
आचार्य सिंहनदि आचार्य सुमति आचार्य कुमारनन्दि आचार्य श्रीदत कुमारसेनगुरु वज्रसूरि यशोभद्र आचार्य शान्त और शान्तिक्षेप विशेषवादि श्रीपाल काभिक्ष कनकनन्दि
४६६
४४९
४५१ ४५१ ४५२ ४५२ ४५२
विषय-सूची : २५
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यदीया वाग्गंगा विविध-नय-कल्लोल-विमला बृहदज्ञानाम्भोभिर्जगति जनतां या स्नपयति । इदानीमप्येषा बुधजन - मरालैः परिचिता महावीरस्वामी नयन - पथ - गामी भवतु नः ।।
- पण्डित भागचन्द्र, महावीराष्टक
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प्राक् कथन
भारतवर्षका कमवद्ध इतिहास बुद्ध और महावीर से प्रारम्भ होता है । इनमें से प्रथम बौद्ध के संस्थापक थे, तो द्वितीय थे जैनधगंके अन्तिम तीर्थकर । 'तीर्थंकर' शब्द जैनधर्मके चौबीस प्रवत्तंकोंके लिए रूढ़ जैसा हो गया है, यद्यपि है यह यौगिक ही । धर्मरूपी तीर्थंके प्रवर्तकको ही तीर्थंकर कहते हैं । आचार्य समन्तभद्रने पन्द्रहवें तीर्थंकर धर्मनाथकी स्तुतिमें उन्हें 'धर्मतीर्थमनघं प्रवर्तयन् ' पदके द्वारा घर्मतीर्थ का प्रवर्तक कहा है। भगवान महावीर भी उसी धर्म तीर्थ के अन्तिम प्रवत्र्तक थे और आदि प्रवर्तक थे भगवान् ऋषभदेव । यही कारण है कि हिन्दू पुराणोंमें जैनधर्मकी उत्पत्तिके प्रसंगसे एकमात्र भगवान् ऋषभदेवका ही उल्लेख मिलता है किन्तु भगवान् महावीरका संकेत तक नहीं है जब उन्हीं के समकालीन बुद्धको विष्णु के अवतारोंमें स्वीकार किया गया है । इसके विपरीत त्रिपिटक साहित्य में निग्गंठनाटपुत्तका तथा उनके अनुयायी निर्ग्रन्थों का उल्लेख बहुतायत से मिलता है। उन्होंको लक्ष्य करके स्व० डॉ० हमन याकोबोने अपना जैन सूत्रोंकी प्रस्तावना में लिखा है - 'इस बात से अब सब सहमत हैं कि नातपुत्त, जो महावीर अथवा वर्धमान के नामसे प्रसिद्ध हैं, बुद्धके समकालीन थे। बौद्धग्रन्थोंमं मिलनेवाले उल्लेख हमारे इस विचारको दृढ़ करते हैं कि नातपुत्त से पहले भी निर्ग्रन्थोंका, जो आज जैन अथवा आर्हत नामसे अत्रिक प्रसिद्ध हैं, अस्तित्व था । जब बौद्धधर्म उत्पन्न हुआ तब निर्ग्रन्थोंका सम्प्रदाय एक बड़े सम्प्रदायके रूपमें गिना जाता होगा । बौद्ध पिटकों
में
कुछ निर्ग्रन्थोंका बुद्ध और उनके शिष्योंके विरोधीके रूपमें और कुछका बुद्ध अनुयायी बन जाने के रूपमें वर्णन आता है । उसके ऊपरसे हम उक्त अनुमान कर सकते हैं। इसके विपरीत इन ग्रन्थोंमें किसी भी स्थानपर ऐसा कोई उल्लेख या सूचक वाक्य देखनेमें नहीं आता कि निर्ग्रन्थोंका सम्प्रदाय एक नवोभ सम्प्रदाय है और नातपुत्त उसके संस्थापक हैं। इसके ऊपरसे हम यह अनुमान कर सकते हैं कि बुद्ध के जन्मसे पहले अति प्राचीन कालसे निर्ग्रन्थोंका अस्तित्व चला आता है ।"
अन्यत्र डॉ० याकोवीने लिखा है--' इसमें कोई भी सबूत नहीं है कि पावंनाथ जैनधर्म के संस्थापक थे। जैन परम्परा प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवको जैन धर्मका संस्थापक मानने में एकमत है। इस मान्यता में ऐतिहासिक सत्यकी सम्भावना है ।'
प्राक् कथन : ९
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प्रसिद्ध दार्शनिक डॉ० राधाकृष्णन्ने अपने 'भारतीय दर्शन' में कहा है'जैन परम्परा ऋषभदेवसे अपने धर्मकी उत्पत्ति होनेका कथन करती है, जो बहुस-सी शताब्दियों पूर्व हुए हैं । इस बातके प्रमाण पाये जाते हैं कि ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवको पूजा होती थी । इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जैनधर्म वर्धमान और पाश्वनाथसे भी पहले प्रचलित था । यजुर्वेदमें ऋषभदेव, अजिसनाथ और अरिष्टनेमि इन तीन तीर्थंकरोंके नामोंका निर्देश है । भागवत पुराण भी इस बातका समर्थन करता है कि ऋषभदेव जैनधर्मके संस्थापक थे।' ___ यथार्थमें वैदिकोंकी परम्पराकी तरह श्रमणोंकी भी परम्परा अति प्राचीन कालसे इस देश में प्रतित है । इन्हीं दोनों परम्पराओंके मेलसे प्राचीन भारतीय संस्कृतिका निर्माण हया है। उन्हीं श्रमणों को परम भगना महागीर हुए थे । बुद्धकी तरह वे भी एक क्षत्रिय राजकूमार थे। उन्होंने भी घरका परित्याग करके कठोर साधनाका मार्ग अपनाया था । यह एक विचित्र बात है कि श्रमण परम्पराके इन दो प्रवर्तकोंकी तरह वैदिक परम्पराके अनुयायी हिन्दूधर्ममें मान्य राम और कृष्ण भी क्षत्रिय थे । किन्तु उन्होंने गृहस्थाश्रम और राज्यासनका परित्याग नहीं किया । यही प्रमुख अन्तर इन दोनों परम्पराओंमें है। कृष्ण भी योगो कहे जाते हैं किन्तु वे कर्मयोगी थे। महावीर ज्ञानयोगी थे। कर्मयोग और ज्ञानयोगमें अन्तर है। कर्मयोगीको प्रवृत्ति बाह्याभिमुखी होती है और ज्ञानयोगीको आन्तराभिमुखी। कर्मयोगीको कर्ममें रस रहता है और ज्ञानयोगीको ज्ञानमें । ज्ञानमें रस रहते हुए कर्म करनेपर भी कर्मका कर्ता नहीं कहा जाता। और कर्ममें रस रहते हुए कर्म नहीं करनेपर भी कर्मका कर्ता कहलाता है । कर्म प्रवृत्तिरूप होता है और ज्ञान निवृत्तिरूप । प्रवृत्ति और निवृत्तिको यह परम्परा साधनाकालमें मिली-जुली जैसी चलती है किन्तु ज्यों-ज्यों निवृत्ति बढ़ती जाती है प्रवृत्तिका स्वतः ह्रास होता जाता है । इसीको आत्मसाधना कहते हैं। ___ यथार्थमें विचार कर देखें-प्रवृत्तिके मल मन, वचन और काय हैं । किन्तु आत्माके न मन है, न वचन है और न काय है। ये सब तो कर्मजन्य उपाधियाँ हैं। इन उपाधियोंमें जिसे रस है वह आत्मज्ञानी नहीं है। जो आत्मज्ञानी हो जाता है उसे ये उपाधियाँ व्याधियां ही प्रतीत होती हैं।
इनका निरोध सरल नहीं है। किन्तु इनका निरोध हुए बिना प्रवृत्तिसे छुटकारा भी सम्भव नहीं है । उसीके लिए भगवान महावीरने सब कुछ त्याग कर वनका मार्ग लिया था । संसार-मागियोंकी दृष्टि में भले ही यह 'पलायनवाद' प्रतीत हो, किन्तु इस पलायनवादको अपनाये बिना निर्वाण-प्राप्तिका दूसरा १० : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा
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मार्ग भी नहीं है । भोगी और योगीका मार्ग एक कैसे हो सकता हैं। तभी तो गीतामें कहा है
|
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागत संयमी । यस्यां जागांत भूतानि सा निशा पोमुनेः ॥
संयमी जागता है और जिसमें
'सब प्राणियोंके लिए जो रात है उसमें प्राणी जागते हैं वह आत्मदर्शी मुनिकी रात है।'
इस प्रकार भोगी संसारसे योगीके दिन-रात भिन्न होते हैं। संयमौ महावीरने भी आत्म-साधना के द्वारा कार्तिक कृष्णा अमावस्या के प्रातः सूर्योदयसे पहले निर्वाण लाभ किया ! जैनोंके उल्लेखानुनार उसके उपलक्षमें दीपमालिकाका आयोजन हुआ और उनके निर्वाण लाभको पच्चीस सौ वर्ष पूर्ण हुए। उसीके उपलक्ष में विश्वमें महोत्सवका आयोजन किया गया है।
उसोके स्मृति में 'तीर्थंकर महावीर और उनको माचार्य-परम्परा' नामक यह बृहत्काय ग्रन्थ चार खण्डों में प्रकाशित हो रहा है। इसमें भगवान महावीर और उनके बाद पच्चीस सौ वर्षो में हुए विविध साहित्यकारोंका परिचयादि उनकी साहित्य साधनाका मूल्यांकन करते हुए विद्वान् लेखकने निबद्ध किया है । उन्होंने इस ग्रन्थके लेखनमें कितना श्रम किया, यह तो इस ग्रन्थको आद्यन्त पढ़नेवाले ही जान सकेंगे। मेरे जानते में प्रकृत विषय से सम्बद्ध कोई ग्रन्थ, या लेखादि उनकी दृष्टिसे ओझल नहीं रहा । तभी तो इस अपनी कृतिको समाप्त करने के पश्चात् ही वे स्वर्गत हो गये और इसे प्रकाशमें लाने के लिए उनके अभिन्न सखा डाँ० कोठियाने कितना श्रम किया है, इसे वे देख नहीं सके । 'भगवान महावीर और उनकी आचार्य परम्परा' में लेखक ने अपना जीवन उत्सर्ग करके जो श्रद्धा के सुमन चढ़ाये हैं उनका मूल्यांकन करनेकी क्षमता इन पंक्तियोंके लेखक में नहीं है। वह तो इतना ही कह सकता है कि आचार्य नेमिचन्द्र शास्त्रीने अपनी इस कृतिके द्वारा स्वयं अपने को भी उस परम्परामें सम्मिलित कर लिया है ।
उनकी इस अध्ययन पूर्ण कृतिमें अनेक विचारणीय ऐतिहासिक प्रसंग आये | भगवान महावीर के समय, माता-पिता, जन्मस्थान आदिके विषय में तो कोई मतभेद नहीं है । किन्तु उनके निर्वाणस्थानके सम्बन्धमें कुछ समयसे विवाद खड़ा हो गया है । मध्यमा पावामें निर्माण हुआ, यह सर्वसम्मत्त उल्लेख है । तदनुसार राजगृहीके पास पावा स्थानको ही निर्वाणभूमिके रूपमें माना जाता है। वहाँ एक तालाबके मध्यमें विशाल मन्दिरमें उनके चरण
प्राक् कथन ११
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चिन्ह स्थापित हैं । यह स्थान मगधमें है । दूसरी पावा उत्तर प्रदेश के देवरिया जिलेमें कुशीनगर के समीप है । डॉ० शास्त्रीने मगघवर्ती पावाको हो निर्वाणभूमि माना है ।
बिम्बसार श्रेणिक भगवान महावीरका परम भक्त था । उसकी मृत्यु डॉ० शास्त्रीने भगवान महावीरके निर्वाणके बाद मानी है, उन्हें ऐसे उल्लेख मिले हैं । किन्तु यह ऐतिहासिक प्रसंग विचारणीय है ।
उन्होंने जैन तत्त्व-ज्ञानका भी बहुत विस्तारसे विवेचन किया है और प्रायः सभी आवश्यक विषयोंपर प्रकाश डाला है । दूसरा, तीसरा तथा चौथा खण्ड तो एक तरह से जेनला हित्यकर इतिहास जैसा है। संक्षेपमें उनकी यह बहुमूल्य कृति अभिनन्दनीय है । आशा है इसका यथेष्ट समादर होगा ।
कैलाशचन्द्र शास्त्री
१२ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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आमुख भारतीय संस्कृतिमें आर्हत संस्कृतिका प्रमुख स्थान है। इसके दर्शन, सिद्धांत, धर्म और उसके प्रवर्तक तीर्थंकरों तथा उनको परम्पराका महत्त्वपूर्ण अवदान है। आदि तीर्थंकर ऋषभदेवसे लेकर अन्तिम चौबीसवें तीर्थंकर महावीर' और उनके उत्तरवर्ती आचार्योने अध्यात्म-विद्याका, जिसे उपनिषद्-साहित्यमें 'परा विद्या' (उत्कृष्ट विद्या) कहा गया है, सदा उपदेश दिया और भारतको चेतनाको जागृत एवं ऊर्ध्वमुखी रखा है। भात्माको परमात्माकी ओर ले जाने तथा शाश्वत सुखकी प्राप्तिके लिए उन्होंने अहिंसा, इन्द्रियनिग्रह, त्याग और समाधि (आत्मलीनता) का स्वयं आचारण किया और पश्चात् उनका दूसरोंको उपदेश दिया। सम्भवतः इसीसे वे अध्यात्म-शिक्षादाता और श्रमण-संस्कृतिके प्रतिष्ठाता कहे गये हैं । आज भी उनका मार्गदर्शन निष्कलुष एवं उपादेय माना जाता है।
तीर्थकर महापोर इस संस्कृति के प्रबुद्ध, सबल, प्रभावशाली और अन्तिम प्रचारक थे। उनका दर्शन, सिद्धान्त, धर्म और उनका प्रतिपादक वाङ्मय विपुल मात्रामें आज भी विद्यमान है तथा उसी दिशामें उसका योगदान हो रहा है।
अतएव बहुत समयसे अनुभव किया जाता रहा है कि तीर्थंकर महावीरका सर्वाङ्गपूर्ण परिचायक ग्रन्थ होना चाहिए, जिसके द्वारा सर्वसाधारणको उनके जीवनवृत्त, उपदेश और परम्पराका विशद परिज्ञान हो सके । यद्यपि भगवान् महावीरपर प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दीमें लिखा पर्याप्त साहित्य उपलब्ध है, पर उससे सर्वसाधारणको जिज्ञासा शान्त नहीं होती।
सौभाग्य की बात है कि राष्ट्रने तीर्थकर वर्द्धमान-महावीरको निर्वाण-रजतशती राष्ट्रीय स्तरसर मनानेका निश्चय किया है, जो आगामी कार्तिक कृष्णा अमावस्या वीर-निर्वाण संवत् २५०१, दिनाङ्क १३ नवम्बर १९७४ से कात्तिक १. धर्मतीर्थकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिम्यो नमोनमः । ऋषभादि-महावीरान्तेभ्यः स्वात्मोपलब्धये ॥
भट्टाकलदेव, लघीयस्त्रय, मङ्गलपद्य १ । २. मुण्डकोपनिषद् १११६४१५ । ३, स्वामी समन्तमह, युक्त्यनुशासन का० ६ ।
आमुख : १३
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कृष्णा अमावस्या, वीर- निर्वाण संवत् २५०२, दिनाक १३ नवम्बर १९७५ तक पूरे एक वर्षं मनायी जावेगी । यह मङ्गल - प्रसङ्ग भी उक्त ग्रन्थ-निर्माण के लिए उत्प्रेरक रहा ।
अतः अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिप इस महान् दुर्लभ अवसरपर तीर्थंकर महावीर और उनके दर्शन से सम्बन्धित विशाल एवं तथ्यपूर्ण ग्रन्थके निर्माण और प्रकाशनका निश्चय तथा संकल्प किया । परिषद् ने इसके हेतु अनेक बैठकें कीं और उनमें ग्रन्थकी रूपरेखापर गम्भीरतासे कहापोह किया । फलतः ग्रन्थका नाम 'तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्यपरम्परा' निर्णीत हुआ और लेखनका दायित्व विद्वत्परिषद् के तत्कालीन अध्यक्ष, अनेक ग्रन्थोंके लेखक, मूर्धन्य मनीषी, आचार्य नेमिचन्द्र शास्त्री आरा (बिहार) ने सहर्ष स्वीकार किया | आचार्य शास्त्रीने पाँच वर्ष लगातार कठोर परिश्रम, अद्भुत लगन और असाधारण अध्यवसायसे उसे चार खण्डों तथा लगभग २००० (दो हजार ) पृष्ठों में सृजित करके ३० सितम्बर १९७३ को विद्वत्परिषद्को प्रकाशनायं दे दिया ।
विचार हुआ कि समग्र ग्रन्थका एक बार वाचन कर लिया जाय । आचार्य शास्त्री स्थाद्वाद महाविद्यालयकी प्रबन्धकारिणीको वैठकमें सम्मिलत होनेके लिए ३० सितम्बर १९७३ को वाराणसी पधारे थे । और अपने साथ उक्त ग्रन्थके चारों खण्ड लेते आये थे । अतः १ अक्तूबर १९७३ से १५ अक्तूबर १९७३ तक १५ दिन वाराणसी में ही प्रतिदिन प्रायः तीन समय तोन-तीन घण्टे ग्रन्थका वाचन हुआ। बाचनमें आचार्य शास्त्रीके अतिरिक्त सिद्धान्ताचार्य श्रद्धेय पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्री पूर्व प्रधानाचार्यं स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसी, डॉक्टर ज्योतिप्रसादजी लखनऊ और हम सम्मिलित रहते थे । आचार्य शास्त्री स्वयं वाचते थे और हमलोग सुनते थे । यथावसर आवश्यकता पड़ने पर सुझाव भी दे दिये जाते थे । यह वाचन १५ अक्तूबर १९७३ को समाप्त हुआ और १६ अक्तूबर १९७३ को ग्रन्थ प्रकाशनार्थ महावीर प्रेसको दे दिया गया । ग्रन्थ- परिचय
इस विशाल एवं असामान्य ग्रन्थका यहाँ संक्षेपमें परिचय दिया जाता है, जिससे ग्रन्थ कितना महत्त्वपूर्ण है और लेखकने उसके साथ कितना अमेय परि श्रम किया है, यह सहजमें ज्ञात हो सकेगा ।
यहाँ द्वितीय खण्ड का परिचय प्रस्तुत है
श्रुतराचार्य और सारस्वताचार्य
तीर्थंकर महावीरके सिद्धान्तों और वाङ्मयका अवधारण एवं संरक्षण उनके उत्तरवर्ती श्रमणों और उपासकोंने किया है । इस महान् कार्यमें विगत
१४ तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा
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खण्ड : ३ श्रुतधर और सारस्वताचार्य
प्रथम परिच्छेद श्रुतधराचार्य
पट्टावलियों, अभिलेखों एवं प्रशस्तियोंसे श्रुताराधक आचार्योंकी परम्पराका परिज्ञान प्राप्त होता है। तीर्थंकर महावीरके निर्वाण-गमन के पश्चात् दिगम्बर आचार्यों ने वाङ्मयका प्रणयन कर रत्नत्रय धर्मकी ज्योतिको सतत प्रज्वलित किया । आत्मशोधन और आत्म-आराधनके साथ श्रुतके अखण्ड दीपको सदैव प्रज्वलित रहने के हेतु परम्परासे प्राप्त ज्ञानराशिको मूर्तरूप देकर सरस्वतीका अवतार प्रस्तुत किया । वस्तुतः दिगम्बराचार्योंने महावीरकी परम्पराको जीवित रखने के लिए अगणित ग्रन्थोंका प्रणयनकर अपनी साधनामें गुणात्मक परिवर्तन कर परम्पराको जीवन्त रखा है ।
आचार्य स्वरूप एवं विवेचन - आचार्यकी परिभाषा और स्वरूपके सम्बन्ध में आग्रन्थों में जो सामग्री उपलब्ध है, उससे स्पष्ट होता है कि आचार्यके लिये चतुर्दश विद्याका पारंगत एवं ग्रन्थ-प्रणेता होना आवश्यक है। यह दिगम्बर रूप में आत्म-साधना करता हुआ निर्व्याज भावसे श्रुतको साधना करता है| धवला टीकामें आचार्य वीरसेनने लिखा है - " पञ्चविधमाचारं चरन्ति
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चारयन्तीत्याचार्याः चतुर्दशविद्यास्थानपारगाः एकादशाङ्गधराः । आचाराङ्गषरो वा तात्कालिक स्वसमयपरसमयपारगो वा मेरुरिव निश्चलः क्षितिरिव सहिष्णुः सांगर इव बहिः क्षिप्तमलः सप्तभयविप्रमुक्तः आचार्यः |""
उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीयं इन पाँच आचारोंका स्वयं आचरण करते हैं और दूसरे साधुओंसे आचरण कराते है तथा जो चौदह विद्यास्थानों में पारंगत हैं, ग्यारह अंगके घारी है अथवा याचारांग मात्रके ज्ञाता हैं और तत्कालीन स्वसमय-परसमय में पारंगत हैं, वे आचार्य कहलाते हैं | आचार्यं मेरुके समान निश्चल, पृथ्वीके समान सहनशील, समुद्रके समान मल अर्थात् दोषोंको फेंकने वाले अचेलक एवं सप्तभयसे मुक्त होते हैं ।
आशय यह है कि जो मुनि सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी अधिकता के कारण प्रधान पदको प्राप्त कर संघके नायक बनते हैं तथा मुख्यरूपसे निर्विकल्पस्वरूपाचरण चारित्र में मगन रहते हैं, पर कभी-कभी धर्म-पिपासु जीवोंको रागांशका उदय होनेके कारण करुणाबुद्धिसे उपदेश देते एवं प्रत्थोंका प्रणयन करते हैं । जो दीक्षा लेने के इच्छुक हैं उन्हें दीक्षा देना और दोषनिवेदन करने वालोंको प्रायश्चित्त देना भी आचार्यका कार्य है ।
घवला
का टीका में आचार्यं वीरसेनने कतिपय गाथाएँ उद्धृत की हैं। उनसे अवगत होता है कि परमागम के परिपूर्ण अभ्यास और अनुभवसे जिनकी बुद्धि निर्मल हो गयी है, जो निर्दोष रीतिसे छः आवश्यकों का पालन करते हैं, जो मेरु पर्वत के समान निष्कम्प हैं, शूरवीर हैं, सिहके समान निर्भीक है, श्रेष्ठ हैं, देश, कुल और जाति से शुद्ध हैं, सोम्यमूर्ति हैं, अन्तरंग और बहिरंग परिग्रहसे रहित हैं, आकाशके समान निर्लेप हैं, ऐसे आचार्य होते हैं । ये दीक्षा और प्रायश्चित देते हैं, परमागम अर्थके पूर्णज्ञाता और अपने मूलगुणों में निष्ठ रहते हैं ।
मूलाचारमें आचार्य के स्वरूपका निरूपण करते हुए बताया है कि चौदह
१. षट्खण्डागम, जीवस्थान-सत्प्ररूपणा, पुस्तक १, पृष्ठ ४८.
२. पण जलहि-जलोय र पहायामल - बुद्धि-सुद्ध - छावासो | मेरु व णिकंदो सूरो पंचाणणो वजी ॥ २९ ॥ देस -कुल- जाइ सुद्धा सोमंगो संग-संग उम्मुको गयण व णिश्वलेनो आइरियो एरिसो होई ॥३०॥ संगह णिमाह- कुराको सुत्तत्य-विसार पहिय- किती । सारण-वारण साहृण किरियुज्जुतो दु आइरियो ||३१|| - पवाटीका, प्रथम पुस्तक, पृष्ठ ४९ ।
२ : सीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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पूर्वो का ज्ञाता, प्रवचनकर्त्ता एवं दीक्षित शिष्योंके निमित्त सूत्रार्थको विशद करनेवाले ग्रन्थों का ज्ञाता आचार्य होता है । बताया है"सिस्साणुग्गह-कुसलो धम्मुवदेसो य संघ वट्टवल । मज्जादुवदेसो वि य गण-परिखखो मुणेयव्यो । संगह गुग्गह- कुसलो सुत्तत्य-विसारओ पहिय कित्ती । किरिआचरण सुजुत्तो गाहृय आदेउजवयणो य || गंभीरो दुद्धरिसो सूरो धम्मप्पहावणा-सीलो । खिदि-ससि साय-सरसो कमेण तं सो दु संपत्तो ॥
मूलाचारके उक्त उद्धरणसे स्पष्ट है कि आचार्य शिष्योंका अनुग्रह, धर्मोपदेश, संघ-प्रवर्तन, मर्यादोपदेश एवं गणपरिरक्षणका कार्य करते हैं । ये सूत्रार्थ के विद्वान होते हुए उसका विशद विवेचन करनेकी क्षमता रखते हैं । स्वसमय और परसमयके ज्ञाता होनेके कारण आचार्यकी गणना श्रुत विशेषज्ञों में की जाती है । परम्परासे प्राप्त सूत्रोंके अर्थ की यथार्थ जानकारी आचार्यको रहती है ।
मूलाराधनामें आचार्यके स्वरूपका प्रतिपादन करते हुए बताया है कि जो पाँच प्रकारके आचारका अतिचाररहित पालन करता है और शिष्योंको आचारांगका उपदेश देता है वह आचार्य कहा जाता है। विजयोदयाटी कामें आचार्यशब्दको व्याख्या करते हुए लिखा है--" आयारं पंचविहं पंचप्रकारं आचारं चरदि विनातिचार पति परं वा निरतिचारे पंचविधे आधारे प्रवतंयति । उवदिसदि य आवार उपदिशति च आचारं । एसो आधारखं नाम एप आचारवान्नाम | एतदुक्तं भवति - आचारांग स्वयं वेत्ति ग्रंथतोऽर्थतश्च, स्वयं पंचविधे आचारे प्रवर्तते प्रवर्तयति । पंचाचारवान् इति । पंचविधे स्वाध्याये वृत्तिर्ज्ञानाचारः । जीवादितत्त्व श्रमानपरिणतिः दर्शनाचारः । हिंसादिनिवृत्तिपरिणतिश्च चारित्राचारः । चतुविधाहारत्यजनं, न्यूनभोजनं वृत्तेः परिसंख्यानं रसानां त्यागः, कायसंतापनं विविक्तवास इत्येवमादिकस्तपः संशित आचारः । स्वशक्त्यनिगूहनं तपसि वोर्याचारः । एते पंचविधा आचाराः ।।" १. मूलाचार, समाचाराधिकार, फलटन- संस्करण, वीर नि० संवत २४८४ गाथा ३५, ३७, ३८ ।
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२. आया पंचविहं चरदि चरावेदि जो शिरदिचारं ।
उवदिसदि य आधारं एसो आयारखं गाम ॥ ४१९ । ।
३. मूलाराघना ४१९ गाथाकी विजयोदया टोका तथा मूलाराघनादर्पण नामक टीकामें उद्धृत श्लोक आचार्यके स्वरूपपर विशेष प्रकाश डालता हूँसदृग्षीवृत्ततपसां सुमुक्षोनिर्मलीकृती । यत्नों विनय आचारो वीर्याद्धेषु तु ।।
श्रुतवर और सारस्वताचार्य : ३
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जो सूत्र और अर्थका ज्ञाता है, स्वयं स्वाध्यायमें प्रवृत्त है तथा अन्यको स्वाध्यायमें प्रवृत्त करता है, और जो जोवादि तत्वोंका श्रद्धानी है, हिंसादि पंचपापोंसे निवृत्त है, जो व्रतोपवास करनेवाला है, रसोंका परिस्थागी है, योगसाधक है, कष्टसहिष्णु है, तपस्वी है, एकान्त स्थानमें रहकर ध्यानादि करनेमें संलग्न है-वह आचार्य है। आचार्य श्रुताराधना और तपाराधनाके लिए अपनी शक्तिका पूर्ण उपयोग करता है ।
इस प्रकार आग्रयों में आचार्यके स्वरूप, महत्व, कर्त्तव्य एवं साधनामार्ग पर विचार किया गया है। आचार्यके स्वरूप अध्ययन से निम्नलिखित निष्कर्ष प्रस्तुत होते हैं:
:
१. निर्विकल्प स्वरूपाचरणका आराधक ।
२. चतुर्दश विद्याओं में प्रवीण ।
३. आचासंगका ज्ञाता ।
४. एकादश अंगका पाठी ।
५. स्वसमय --- स्व सिद्धान्तका वेत्ता ।
६. परसमय - विभिन्न दर्शन- सिद्धान्त और परम्पराओंका ज्ञाता ।
७. तत्वोपदेशक ।
८. शास्त्र- प्रणेता --- करुणाबुद्धिसे संसार के प्राणियोंके हितार्थ तीर्थकरवाणीको लिपिबद्ध कर विभिन्नविषयक ग्रन्थोंका कर्त्ता ।
श्रेष्ठ देश, कुल और जाति से शुद्ध 1
९.
१०. सोम्यमूत्ति ।
११. विविध दिशाओंसे प्राप्त अनुभूतियोंको मूर्तरूप दे बौद्धिक और भावात्मक विचारधाराओंका व्याख्याता ।
१२. समयानुसार उत्पन्न समस्याओंका परम्परा के आलोक में साधक बाधक और प्रतिक्रियात्मकरूपमें समाधान प्रस्तुतकर्ता |
,
आचार्य प्राचीन परम्पराओंके परिवेशमें जीवनका अध्ययन करता है। वह स्वयं आदर्श जीवन व्यतीत करते हुए शिष्योंको आदर्श जीवन यापनकी ओर प्रेरित करता है । इस क्रममें जब परिस्थितियोंकी प्रतिक्रिया होने लगती है, तब वह पुरातन धारणाओंको नवान रूपमें "नद्याः नवघटे जलम् " के समान अभिव्यक्त करता है । जिस प्रकार बीज जबतक कागजको पुड़ियामें बंधा रहता है, तब तक वह फलता फूलता नहीं । किन्तु जब वही बीज उर्वरा भूमिमें पड़ जलवायुका सम्पर्क प्राप्त करता है, तो उसमें रंग-बिरंगे पुष्प प्रस्फुटित हो जाते हैं। इसी प्रकार आचार्य भी अपनी मौलिक प्रतिभा और साधना के कारण
४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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समय एवं परिस्थिति विशेष में अपनी मौलिक प्रतिभाको वाणीके माध्यम से व्यक्त करते हैं । वाङ्मयको प्रेरणा व्यक्तिको ऐसो अनुभूति है जो उसके विशिष्ट अनुभवोंसे पोषित होकर समस्त सृष्टिको अपनी परिधि में आबद्ध कर लेती है । इस प्रकार आचार्यं वाङ्मयको धारणाओंको व्यष्टिसे समष्टिमें अवतरित करते हैं। फलतः समष्टिका सिद्धान्त व्यष्टिके लिये दिशा दर्शक हो जाता है ।
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सामान्यतः आचार्यके समक्ष परम्पराका सरोवर विद्यमान रहता है । इस सरोवरमें अपनी प्रतिभा द्वारा यथार्थ, यथार्थजन्य संघर्ष, क्रिया-प्रतिक्रियामूलक आदर्श एवं जीवन-साधना के विभिन्न मार्गो का निर्धारण तथा इस निर्धारणके लिये आवश्यक मानदण्डों के सरसिजका विकास करता है। जितने भी आचार्य दिखलाई पड़ते हैं उन सबने परम्पराको मुखरित करनेके लिये ही वाङ्मयका प्रणयन किया है। यह वाङमय अनुभूति, ज्ञान एवं चिन्तन इन तीनोंके समन्वयका प्रतिफल है | आचार्य वस्तु जगत् में पदार्थों और उनको प्रकृतियोंका अध्ययन कर उनके सम्बन्ध में विशिष्ट नियमित श्रृंखलाका निर्धारण करते हैं । आचार्य विश्लेषण द्वारा ही कार्य-कारणसम्बन्धोंका निर्धारण कर जीव, जगत् एवं उनके विभिन्न सम्बन्धोंका विवेचन करता है। वह गम्भीर दार्शनिक बन प्रकृति के रहस्योंका उद्घाटन भी करता है। श्रेय और प्रेय इन दोनों कूलोंका स्पर्श करता हुआ मानव किस प्रकार प्रेयसे श्रेयको ओर गतिशील होता है, यह विवेचन भी आचार्यकी लेखनी द्वारा निबद्ध किया जाता है। शब्द और अर्थ के योग में स्वानुभूतिके सत्यकी स्थापना कर आचार्य अभिव्यक्तिको एक नया परिवेश प्रदान करता है। इसके द्वारा की गई वीतराग कथा भी पाठक और श्रोताओंको अनुरंजित करती है। प्रेरणा देनेका कार्य भी आचार्यकी वाणी द्वारा होता है । अतः संक्षेपमें यही कहा जा सकता है कि परम्पराके द्वारा वेष्टित रहने पर भी आचार्य अपने स्वतन्त्र चिन्तनसे युगानुकूल स्वसमय और परसमयको मर्मस्पर्शी व्याख्याएँ प्रस्तुत करता है । जिस सूत्रार्थ ज्ञानको उसने परम्परासे प्राप्त किया है, उसो ज्ञानको सहज रूपमें व्यक्त कर उद्बोधनका कार्य करता है ।
आचार्य और वाङ्मय
आचार्य परम्पराका कार्य श्रुतज्ञानका संरक्षण है । तोर्थंकरके मुखसे निस्सृत वाणीको सर्वसाधारण तक पहुँचाने का कार्य आचार्य परम्पराद्वारा ही सम्पन्न होता है । परम्परासे मौखिकरूपमें प्राप्त ज्ञानको लिपिबद्ध रूप देना आचार्यपरम्पराका विशिष्ट कार्य है। पंचाचारको आराधना द्वारा आत्मोत्थान करना, शिष्योंको दीक्षित और अनुशासित करना एवं श्रुतपरम्परा के प्रचार और प्रसारके
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लिये कृतसंकल्प होना आचार्यकी प्रमुख विशेषता है । वाङ्मयके सृजनका दायित्व आचार्य परम्पराका ही है । यही परम्परा अगणित वर्षों तक तीर्थंकर प्रवचनको जन-मानसमें प्रविष्ट कराती है। अत: आचार्यपरम्पराका दिव्य फल वाङ्मय है ।
वाङ्मयके अन्तर्गत मानवके सभी प्रकारके आचार-विचार, भावनाओं, मनोवृत्तियों एवं उसके समस्त कार्यकलापोंकी गणना की जाती है । दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, सैद्धान्तिक, आध्यात्मिक एवं सौन्दर्यबोध-सम्बन्धी धारणाओं का समावेश भी वाङ्मयमें होता है । वाङ्मयका विषय-विस्तार उस वटवृक्ष के समान है, जो अनेक तनोंके रूपमें विस्तार पाता है । व्यक्तित्वके निर्माण में जिस साधनाको आवश्यकता है, उस साधनाका परिज्ञान भी वाङ्मयके द्वारा ही प्राप्त किया जाता है । मानव परिवेशमें रहकर संस्कारोंका अर्जन करता है और इन अर्जित संस्कारोंसे अपनी क्रिया-प्रतिक्रियाओं की अभिव्यञ्जना करता है । फलतः जीवनके विकास और उत्कर्ष में जिस प्रकारके विचारोंकी आवश्यकता होता है, उन विचारीका ग्रहण भी वाङ्मयके धरातलसे किया जाता है। विश्व और जीवन के प्रतिबिम्बको यथार्थ अभिव्यञ्जना भी वाङ्मयमें होती है। जबतक भाषाका सुगठित रूप विचारोंको प्राप्त नहीं होता, तबसक वाङ्मयकी अवतारणा संभव नहीं होती । शब्द और अर्थका परस्परमें ऐसा सम्बन्ध है कि अमूतं अर्थ शब्दोंकी मूर्ति में ही जीवन्त होता है । असएव जीवनको आन्दोलित, संचालित और क्रियाशील बनानेके लिये वाङ्मयके निर्माणकी आवश्यकता रहती है ।
जैनाचार्यों द्वारा रचित वाङ्मय बहुत विशाल और व्यापक है । इसे आगम की भाषा में श्रुतज्ञान कहा गया है। भगवान् महावीरकी वाणीको हृदयंगमकर उनके प्रधान शिष्य गौतम गणधरने बारह अंगोंमें उस वाणीरूप समस्त वाङ्मयको निबद्ध किया । अतः वाङ्मयके अर्थकर्त्ता तो स्वयं महावीर हैं, पर ग्रन्थकर्त्ता गौतम गणधर हैं । पट्खण्डागमको घवलाटीकामें बताया है कि श्रुतज्ञानके कर्त्ता दो प्रकारके है -- १. अर्थकर्त्ता और २. ग्रन्थकर्त्ता । भावश्रुत और अर्थपदोंके कर्त्ता तीर्थंकर हैं । तार्थंकर के निमित्तसे गौतम इन्द्रभूति गणधर श्रुतपर्यायसे परिणत हुए । अतएव वे द्रव्यश्रुतके कर्त्ता हैं। आशय यह है कि इस युग में आदि ग्रन्थकत्तां गौतम गणधर हैं। और इन्हींसे ग्रन्थ या वाङ्मय लिखने का कार्य प्रारम्भ हुआ है |
१. पट्खण्डागम अमला टीका, प्रथम पुस्तक, पृष्ठ ६०, ६५ ।
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तिलोयपण्णत्तोके अध्ययनसे भो उक्त कथनकी सिद्धि होती है। बताया है
महाबीर-भासियत्थो तस्सेि खेत्तम्मि तस्थ काले य । खायोवसम-विढिद-चउरमल-मईहि पुण्णोण ॥ लोयालोयाण तहा जीवाजीवाण विविह-विसयेसु । संदेहणासगत्यं उवगद-सिरिवीर-चलणमूलेण ॥ विमले गोदमगोते जादेणं इंदभूदिणामेण । चउवेद-पारगेणं सिस्सेण विसुखसोलेण ।। भावसुद-पज्जयेहि परिणद-मयिणा अवारसंगाणं । चोद्दसपुव्वाण सहा एक्कमुहुत्तेण विरचणा विहिदो॥ इय मूलतंतकत्ता सिरित्रीरो इंदभूदिविप्पवरो। उवतंते कत्तारी अणुतते सेसआइरिया ॥ णिण्णाटु-रायदोसा महेसिणो दिव्वसुत्तकत्तारो।
किं कारणं पणिदा कहिदु सुत्तस्य पामण्णं ।' अर्थात् तीर्थकर महावीर श्रुतके अर्थकर्ता हैं। इनके द्वारा उपदिष्ट पदार्थस्वरूप उसी क्षेत्र और उसी कालमें ज्ञानावरणके विशेष क्षयोपशमसे वृद्धिको प्राप्त निर्मल चार बुद्धियोंसे परिपूर्ण, लोक-अलोक और जोवाजोवादि विविध विषयों में उत्पन्न हुए सन्देहको नष्ट करनेवाले, शरणागत, निर्मल गौतम गोत्रमें उत्पन्न, प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग, इस प्रकार चार वेदों अथवा ऋक्, यजु, साम और अथर्व इन चारों वेदोंमें पारंगत, विशुद्ध शील धारक, भावश्रुतरूप पयार्यसे बुद्धिको परिपक्वताको प्राप्त इन्द्रभूति नामक शिष्य अर्थात् गौतम गणधरने एक मुहूर्त में बारह अंग और चौदह पूर्वो की रचना की। इस प्रकार तीर्थकर महावीर मलतंत्रकर्ता, इन्द्रभूति गणधर उपतंत्रकर्ता एवं शेष आचार्य अनुतंत्रकर्ता हैं | स्पष्ट है कि वाङ्मयको मूर्तरूप देनेका सर्वप्रथम कार्य इन्द्रभूति गणधरने ही किया है। ___ जिस प्रकार सूर्यका आलोक प्राप्तकर मनुष्य अपने नेत्रीसे दूरवर्ती पदार्थका भी अवलोकन कर लेता है, उसी प्रकार पूर्वाचार्यों के द्वारा निबद्ध ज्ञानसूर्यका आलोक प्राप्त कर सूक्ष्मातिसूक्ष्म पदार्थो का बोध प्राप्त होता है । हरिवंशपुराणमें भी आगमतंत्रके मूलका तार्थंकर वर्धमान ही माने गये हैं। उत्तरतंत्रके रचयिता गौतम गणधर हैं और उत्तरोत्तरतंत्रके कर्ता अनेक आचार्य बताये गये हैं। यहाँ यह स्मरणीय है कि ये सभी आचार्य सर्वज्ञकी वाणीके अनुवादक ही है।
१. विलोयपण्णती ११७७-८१ ।
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ये अपनी ओरसे ऐसे किसी नये तथ्यका प्रतिपादन नहीं करते, जो तीर्थंकरको दिव्यध्वनि से बहिर्भूत हो । केवल तीर्थंकरद्वारा प्रतिपादित तथ्योंको नये रूप और नयी शैलीमें अभिव्यक्त करते हैं। बताया है-
तथाहि मूलतन्त्रस्य कर्ता तीर्थंकरः स्वयम् । ततोऽप्युत्तरतन्त्रस्य गौतमाख्यो गणाग्रणीः ॥ उत्तरोत्तरतन्त्रस्य कतारो बह्यः क्रमात् ॥ प्रमाणं तेऽपि नः सर्वे सर्वज्ञोक्त्यनुवादिनः ॥
अतएव स्पष्ट है कि श्रुतका मूलकर्त्ता तीर्थंकरको हो माना गया है । उत्तरतंत्रकर्त्ता गणधर और उत्तरोत्तरतन्त्रकर्ता अन्य आचार्य हैं । श्रुत या आगमका स्वरूप, भेद एवं विषय
चक्षुरादि इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाले मतिज्ञानपूर्वक परोपदेश या परसाधनसे जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह श्रुतज्ञान कहलाता है । तस्वार्थवात्तिकमें बताया है - "श्रुतावरणक्षयोपशमाद्यन्तरङ्गबहिरङ्गहेतुसन्निधाने सति श्रूयते स्मेति श्रुतम् । कर्तरि श्रुतपरिणत आत्मैव शृणोतीति श्रुतम् । भेदविवक्षायां श्रूयतेऽनेनेति श्रुतम् श्रवणमात्रं वा । *
अर्थात् श्रुतावरणकर्मके क्षयोपशम होनेपर जो सुना जाय वह श्रुत है । कर्तृसाधनमें श्रुतपरिणत आत्मा श्रुत है। करणविषक्षामें जिससे सुना जाये, वह श्रुत है । भावसाधनमें श्रवणक्रिया श्रुत है ।
आचार्य विद्यानन्दने श्रुतज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमरूप विगम- विशेषसे श्रवण करना श्रुत कहा है। इनके मतसे जो वाच्य अर्थ आप्तवाक्य द्वारा सुना जा चुका है वह अपने और वाच्यार्थको जानने वाला आगमज्ञानरूप श्रुतज्ञान है । श्रुतशब्द अनेक अर्थ होनेपर भी श्रुतज्ञान या आगमज्ञान के अर्थमें रूढ़ है ।
यथा
श्रुतेऽनेकार्थसासिद्धे ज्ञानमित्यनुवर्तनात् ।
श्रवणं हि श्रुतज्ञानं न पुनः शब्दमात्रकम् ।।"
आशय यह है कि श्रुतज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमविशेषकी अपेक्षासे उत्पन्न हुआ और अविनाभावी अनेक अर्थान्तरोंका निरूपण करने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान
१. हरिवंशपुराण प्रथम सर्ग, पद्य ५६, ५७ ॥
२. तत्त्वार्थवार्तिक, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, १९/२० पृष्ठ ४४ ।
३. तस्वार्थश्लोकवालिक, बम्बई, १९१८ ६०, १९२० १० १६४ ३
८ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा
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है। यह श्रुतज्ञान अमृतके समान हितकारी है, विषयवेदनासे संतप्त प्राणीके लिये परमोष है | कुन्दकुन्दने बताया है
जिणचयणमो सहमिण विसयसुह-विरेयणं अमिदभूयं । जर मरण-वाहिहरणं खयकरणं सव्व दुक्खाणं ॥
श्रुतज्ञानका अन्य नाम आगमज्ञान भी है। श्रुतके नामान्तरोंमें आगम, जिनवाणी, सरस्वती आदि नाम आये हैं । आगमके स्वरूपका प्रतिपादन करते हुए बताया है कि आप्तके वचन आदि निमित्तसे होने वाले अर्थज्ञानको आगम कहते हैं |
आचार्य सोमदेवने अपने उपासकाव्ययन में बताया है कि जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों का अवलम्बन लेकर हेय और उपादेय रूपसे त्रिकालवर्ती पदार्थों का ज्ञान कराता है, उसे आगम कहते हैं | तत्त्वज्ञाताओंका अभिमत है कि आगममं अविरोधरूपसे द्रव्यों तत्त्वां और गुण-पर्यायोंका कथन रहता है | लिखा है
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यापादयरूपेण चतुर्वर्गसमाश्रयात् ।
कालत्रयगतानर्थान्गमयन्नागमः स्मृतः ॥ '
यह ज्ञान प्रत्याह ज्या मूल है. जिस प्रकार प्रत्यक्षज्ञान अविसंवादों होने के कारण प्रमाणभूत है, उसी प्रकार आगमज्ञान भी अपने विषय में अविसंवादी होनेके कारण प्रमाण है । स्वामी समन्तभद्रने केवलज्ञान और स्याद्वादमय श्रुतज्ञानको समस्त पदार्थों का समानरूपसे प्रकाशक माना हैं। दोनों केवल प्रत्यक्ष और परोक्षका ही अन्तर है :
स्याद्वाद केवलज्ञाने सर्वतत्त्व - प्रकाशने ।
भेदः साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यत्तमं भवेत् ॥'
इसी तथ्यको पुष्टि सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्रके कथनसे भी होती है
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मुदकेवलं च गाणं दोष्णवि सरिसाणि होत्ति जोहादी । सुदणाणं तु परोक्खं पञ्चवखं केवलं गाणं ।।
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१. दंसणपाहुड, गाया १७ ।
२. बालवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः --- परीक्षामुख ३१९५ ।
३. उपासकाध्ययन, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, पद्य १०० । तमीमांसा, श्लोक १०५ ।
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५. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ३६८ ।
तर और सारस्वताचार्य : ९
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समस्त द्रव्य और पर्यायोंको जाननेको अपेक्षा श्रुतज्ञान और केवलज्ञान दोनों ही समान हैं । अन्तर इतना ही है कि केवलज्ञान द्रव्य और तत्त्वों को प्रत्यक्षरूपसे जानता है और श्रुतज्ञान परोक्षरूपसे । विस्तार और गहनताकी दृष्टिसे दोनोंका विषयक्षेत्र तुल्य ही है |
या आगमके ब
जर २ मा
तया आगमके दो भेद है-- १. आग्तके उपदेशरूप द्वादशांगवाणीका द्रव्यश्रुत और उससे होने वाले ज्ञानको भावश्रुत कहते हैं । दूसरे शब्दों यों कहा जा सकता है कि शब्दको द्रव्यभुत और उससे होने वाले ज्ञानको भावश्रुत कहा गया है। संक्षेपमें ग्रन्थरूप श्रुतको द्रव्यश्रुत भौर अर्थरूप श्रुतको भावभूत कहा गया है। ग्रन्थरूप द्रव्यश्रुतके मूलतः दो भेद हैं - १. अंगबाह्य और २. अंगप्रविष्ट । अंगप्रविष्टके बारह भेद हैं-- १. आचा रांग, २. सूत्रकृतांग, ३. स्थानांग, ४. समवायांग, ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति, ६ ज्ञातुधर्मकथा, ७ उपासकाध्ययनांग, ८. अन्तःकृद्दशांग ९ अनुतरोपपादिक, १०. प्रश्नव्याकरणांग, ११. विपाकसूत्रांग और १२. दृष्टिवादांग ।
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इस श्रुतया आगमज्ञानको पुरुष के शरीरांगकी उपमा दी गयी है । जैसे पुरुष के शरीर में दो पैर, दो जाँघ, दो ऊरु, दो हाथ, एक पीठ, एक उदर, एक छाती और एक मस्तक ये बारह अंग होते हैं, उसी प्रकार श्रुतज्ञानरूपी पुरुषके भी बारह अंग हैं। तीर्थंकर अपने दिव्यज्ञानद्वारा पदार्थों का साक्षात्कार कर बीजपदक रूपमें उपदेश देते हैं और गणधर उन बीजपदों का तथा उनके अर्थका अवधारण कर ग्रन्थरूपमें व्याख्यान करते है। श्रुतज्ञानको परम्परा अनादि अनवच्छिन्न रूपसे चली आ रही है। प्रथम तोर्थंकर ऋषभदेव के कालमें श्रुतज्ञानकी जो परम्परा आरम्भ हुई थी, बहु पार्श्वनाथ और महावीर तीर्थंकरके कालमें भी गतिशील रही है ।
श्रुतज्ञानका विषय
यों तो जीव, अजीव आदि सातों तत्वोंके विवेचनमें ही श्रुतज्ञान के विषयका समाहार हो जाता है, पर विशेष विवेचनकी दृष्टिसे षट्खण्डागमकी घवलाटीका एवं तस्वार्थवासिक आदि ग्रन्थोंमें जो विवेचन उपलब्ध होता है उसके आधारपर यह कहा जा सकता है कि उपलब्ध ज्ञान-विज्ञानका समस्त विषय श्रुतज्ञान या आगमके अन्तर्गत है । आचारांग में १८,००० पदों द्वारा मुनियोंके आचारका वर्णन रहता है। अर्थात् मुनिको कैसे चलना चाहिए, कैसे खड़ा होना चाहिये कैसे बैठना चाहिये, कैसे सोना चाहिये, कैसे भोजन करना
१०: तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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चाहिये और कैसे वार्तालाप करना चाहिये आदि विषयोंका कथन किया गया है। दूसरे सूत्रसालले २६,४१० पदों द्वारा नादिरय, प्रज्ञापना, कल्प्यअकल्प्य, छेदोपस्थापना आदि व्यवहारधर्मको क्रियाओंका वर्णन है तथा इस अंगमें स्वसिद्धान्त और परसिद्धान्तका कथन भी समाविष्ट है। तृतीय स्थानांगमें ४२,००० पद होते हैं। इसमें एकसे लेकर उत्तरोत्तर एक-एक अधिक स्थानोंका निरूपण किया जाता है। यथा-अपने चैतन्यस्वभायके कारण जीवद्रव्य एक है; ज्ञान और दर्शनके भेदसे दो प्रकारका है। कर्मफलचेतना, कमचेतना और ज्ञानचेतनाको अपेक्षा यह तीन प्रकारका है । अथवा उत्पाद, व्यय और प्रौव्यकी अपेक्षा तोन भेदरूप है। चार गतियोंमें भ्रमण करने वाला होनेसे चार भेदवाला है । औदयिक आदि पाँच भाबसे युक्त होनेके कारण, इसके पास भेद हैं । भवान्तरमें गमन करते समय पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व एवं अधः इस प्रकार षटअपक्रमसे युक्त होने के कारण षट् प्रकारका है। अस्ति, नास्ति आदि सप्तभंगोंसे युक्त होनेके कारण सात भेदवाला है। शानावरण, दर्शनावरण आदि कोके आस्रवसे युक्त होनेको अपेक्षा जीवके आठ भेद हैं। जीव, अजीव आदि नौ पदार्थरूप परिणमन करनेके कारण यह नौ प्रकारका है । पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, प्रत्येक वनस्पतिकायिक, साधारणवनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय जाति, श्रीन्द्रिय जासि, चतुरिन्द्रिय तथा पञ्चेन्द्रिय जासिके भेदसे दस प्रकारका है। इस प्रकार जीवादि पदार्थोके एकाधिक भेदोंका निरूपण स्थानांगमें किया गया है।
चतुर्थ समवायांगमें १,६४००० पद, होते हैं । इसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप समवायका चित्रण किया गया है 1 द्रव्यसमवायकी अपेक्षा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और एक जीवके प्रदेश समान हैं। क्षेत्रसमवायको अपेक्षा प्रथम नरकके प्रथम पटलका सीमन्सविल, मनुष्यलोक, प्रथम स्वर्गकप्रथम पटलका ऋजु विमान और सिद्धक्षेत्र इन सबका विस्तार तुल्य है। कालकी अपेक्षा उत्सपिणी और अवसर्पिणी कालगणनाएं तुल्य हैं। भावकी अपेक्षा क्षायिकसम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और यथाख्यातचारित्र समान हैं । इस प्रकार समानताको अपेक्षा जीवादि पदार्थोके समवायका वर्णन समवायांगमें उपलब्ध होता है ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति अंगमें २,२८००० पद होते हैं । इसमें ६०,००० प्रश्नों द्वारा जीव, अजीव आदि पदार्थोंका विवेचन किया जाता है। ज्ञातृधर्मकथा नामक अंगमें ५,५६००० पद होते हैं । इसमें तीर्थंकरोंको धर्मदेशना, विविध प्रश्नोत्तर एवं पुण्यपुरुषोंके आख्यान वर्णित है। उपासकाध्ययन अंगमें ११,७०,००० पद
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हैं और इसमें श्रावकाचारका निरूपण किया गया है। अन्तःकृशांग नामक अंगमें २२,२८००० पद हैं । इसमें प्रत्येक तीर्थकरके तीर्थकालमें अनेक प्रकारके दारुण उपसर्गों को सहन कर निर्वाण प्राप्त करने वाले दस-दस अन्तःकृत केवलियोंका वर्णन है । अनुत्तरौपपादिकदशा नामक अंगमें ९२,४४००० पद हैं और एक-एक तीर्थकरके तीर्थकालमें नाना प्रकारके दारुण उपसर्गो को सहन कर पांच अनुत्तर विमानोंमें जन्म ग्रहण करनेवाले दस-दस मुनियोंका चरित्र अंकित है। प्रश्नव्याकरणमें आक्षेप-प्रत्याशेपपूर्वक प्रश्नोंका समाधान अंकित है । अथवा आक्षेपणो, विशेपणी, संवेदिनी और निर्वेदिनी इन चार कथाओंका विस्तृत वर्णन है । विपाकसूत्र अंगमें १,८४,००००० पद हैं। इसमें पुण्य और पापरूप कर्मों का फल भोगनेवाले व्यक्तियोंका चरित्र निबद्ध है। ___ बारहवां अंग दृष्टिकार है ! इस गान कार है.--१. परिकर्म, २. सूत्र, ३. प्रथमानुयोग, ४. पूर्व और ५. चूलिका। इनमेंसे परिकमके पाँच भेद हैं१. चन्द्रप्राप्ति, २. सूर्यप्रज्ञप्ति, ३. जम्बूद्वीपप्रशप्ति, ४, द्वीपसमुद्रप्राप्ति और ५. व्याख्याप्रशस्ति । चन्द्रप्रज्ञप्तिमें चन्द्रमाको आयु, परिवार, ऋद्धि, गति और चन्द्रबिम्बकी ऊँचाई आदिका वर्णन है। सूर्यप्रप्तिमें सूर्यको आयु, भोग, उपभोग, परिवार, ऋद्धि, गति और सबिम्बकी ऊँचाई, दिनको हानि-वृद्धि, किरणोंका प्रमाण और प्रकाश आदिका वर्णन है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिमें भोगभूमि और कर्मभूमिमें उत्पन्न हुए मनुष्य और तिर्यञ्चोंका तथा पर्वत, सरोवर, नदी, वेदिका, क्षेत्र, आवास आदिका वर्णन है। द्वापसमुद्रप्रज्ञप्तिमें द्वीप और समुद्रोंका विस्तार, अवगाह, क्षेत्रफल आदिका वर्णन आया है। व्याख्याप्रज्ञप्ति में पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल एवं जोबद्रव्यके भव्यत्व, अभव्यत्वका वर्णन किया गया है।
दष्टिवाद अंगका द्वितीय भेद सत्रनामक है। इसम जीयकी विवेचना विस्तारपूर्वक का गयो है । जीव अबन्धक है, अवलप है, अकर्ता है, अभोक्ता है, निगुण है, व्यापक है, अणुप्रमाण है, अस्तिस्वरूप है, नास्तिस्वरूप है, उभयरूप है इत्यादिकी विवेचना विभिन्न सिद्धान्तोंके पूर्वपक्षरूपमें की गयी है। इसमें क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद, ज्ञानवाद, वेनयिकवाद आदि तीन सो तिरेसठ मतांका प्रतिपादन पूर्वपक्षके रूपमें किया गया है। दष्टिवादका तृतीय अंग प्रथमानुयोग है। इसमें २४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलभद्र, ९ नारायण, ९ प्रतिनारायणोंके जोवनवृत्तके साथ विद्याधर, चक्रवर्ती, चारणऋद्विधारी मुनि और राजाओंके वंशोंका कथन किया गया है।
दृष्टिवादके पञ्चम भेदका नाम चूलिका है। इसके पांच भेद है-१. जलगता,
१२ : तीर्थकर महाबोर और उनको आचार्य-परम्परा
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२. स्थलगता, ३. मायागता, ४. रूपगता और ५. आकाशगता । जलगता में जलमें गमन तथा जलस्तम्भन के कारणभूत मन्त्र-तन्त्र तपश्चर्या आदिका वर्णन हैं । स्थलगतामें पृथ्वीके भीतरसे गमन करनेके कारणभूत मन्त्र-तन्त्र और तपश्चर्या तथा वास्तुविद्या आदिका वर्णन है। भूमिसम्बन्धी शल्य, शुभाशुभ परिज्ञान, भूमिके रूपगुण, शक्ति आदिका वर्णन भी स्थलगतामें पाया जाता है । रूपगता में रूपपरिवत्र्तन करनेके तन्त्र-मन्त्र आदि साधनोंका निरूपण किया है। न किस प्रकार सिंह, व्याध, गण, हिरण आदिका आकार धारण कर सकता है, इस प्रकारको विधियोंका निरूपण भी उसमें आया है। चित्रकर्म, काष्ठकर्म, लेप्यकमं एवं विभिन्न प्रकारकी आकृतियों के निर्माणकी विधियाँ भी कथित हैं । आकाशगता चूलिका में आकाशगामिनी विद्याका चित्रण आया है !
दृष्टिवादका सबसे महत्त्वपूर्ण भेद पूर्व है । पूर्वके १४ भेद हैं-- १. उत्पादपूर्व, २. अग्रायणीय, ३. वीर्यानुप्रवाद, ४ अस्ति नास्तिप्रवाद, ५. ज्ञानप्रवाद, ६. सत्यप्रवाद, ७. आत्मप्रवाद, ८ कर्मप्रवाद, ९ प्रत्याख्याननामधेय १०. विद्यानुवाद, ११. कल्याणनामधेय, १२. प्राणावाय, १३. क्रियाविशाल और १४. लोकबिन्दुसार । पूर्वसाहित्य सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है । इसीके आधारपर वर्तमान में शौरसेनी आगम- साहित्य उपलब्ध होता है। अमायणी में पूर्वान्स, अपरान्त आदि चौदह प्रकरण थे । इनमेंसे पञ्चम प्रकरणका नाम चयनलब्धि था, जिसमें बीस पाहुड विद्यमान थे । बीस पाहुडोंमेंसे चतुर्थ पाहुडका नाम कर्मप्रकृति था । इस कर्मप्रकृतिपाहुडके कृति, वेदना आदि चौबीस अनुयोगद्वार थे; जिनकी विषयवस्तुको ग्रहण कर षट्खण्डागमके जीबट्ठाण, खुद्दाबन्ध, बन्धस्वरमित्व-विचय, वेदना, वर्गणा और महाबन्ध इन छह भण्डों की रचना हुई हैं। इसमें का कुछ अंश सम्यवत्त्वोत्पत्तिनामक जीवस्थानकी आठवीं चूलिकाको बारहवें अंग दृष्टिवाद के द्वितीय भेद सूत्रसे तथा गति आगति नामक नवीं चूलिकाको व्याख्याप्रज्ञप्ति से उत्पन्न बताया गया है। इस प्रकार वर्तमान आगम साहित्यका संबंध दृष्टिवाद अंगके साथ है । उत्पादपूर्वमें जोव, पुद्गल, काल आदि द्रव्योंके उत्पाद, व्यय और प्रौव्यका वर्णन है । अप्रायणीय पूर्वमें सात सौ सुनय और दुनय: छः द्रव्य, नौ पदार्थ, एवं पञ्चास्तिकायोंका वर्णन है । वीर्यानुप्रवादमें आत्मवीर्य, परवीर्य, उभयवीर्य, क्षेत्रवीर्य, कालवीर्य, भववीयं और तपवीर्यका वर्णन आया है । अस्ति नास्तिप्रवादपूर्व में स्वरूपचतुष्टयकी अपेक्षा समस्त द्रव्यों के अस्तित्वका और पररूपचतुष्टयको अपेक्षा उनके नास्तित्वका वर्णन है। ज्ञानप्रवादपूर्व में पाँच सम्यग्ज्ञान और तोन कुज्ञान इन आठ ज्ञानोंका विस्तारपूर्वक वर्णन है । सत्य प्रवादपूर्व में दशप्रकार के सत्यवचन, अनेक प्रकारके असत्यवचन और बारह
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प्रकारकी भाषाओंका प्रतिपादन किया गया है। विषयवर्णनकी दृष्टि से आधुनिक मनोविज्ञान ज्ञानप्रवाद और सत्यप्रवादके अन्तर्गत है। आत्मप्रवादपूर्वमें निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयोंकी अपेक्षासे जीवके कत्तु त्व, भोक्तृत्व, सूक्ष्मत्व, अमूर्तत्व आदिका विवेचन किया है । कर्मप्रवादपूर्वमें आठों कोके स्वरूप, कारण एवं भेद-प्रभेनोग निषण किया है । प्रपामार्ग लामावा. का त्याग, उपवास-विधि, पंच समिति, तीन गुप्ति आदिका वर्णन है । विद्यानुवादपूर्वमें सात सौ अल्पविद्याओंका और पांच सौ महाविद्याओंका विवेचन आया है । साथ ही इसमें भौम, अंग, स्वर, स्वप्न, लक्षण, व्यंजन और चिन्ह इन आठ महानिमित्तोंका विषय भी निबद्ध है । वर्तमान सामुद्रिक शास्त्र, प्रश्नशास्त्र एवं संहितागत विषय इसी पूर्वक अन्तर्गत समाविष्ट हैं | कल्याणवादमें सूर्य, चन्द्र, ग्रह, तारागण आदिके चारक्षेत्र, उपपादस्थान, गति, विपरीतगति और उनके फलीका निरूपण है। ज्योतिषशास्त्रके गणित और फलित दोनों ही विभाग इसो पूर्वके अन्तर्गत है। प्राणावायपूर्व में अष्टांग आयुर्वेद, भूतिकर्म, विविद्या एवं विभिन्न प्रकारके भौतिक विषयोंका परिज्ञान सम्मिलित है। रसायनशास्त्र और भौतिकशास्त्र सम्बन्धी अनेक सिद्धान्त भी इस पूर्वमें समाविष्ट हैं। क्रियाविशालपूर्वमें बहत्तर कलाओं सम्बन्धी चौसठ गुणों, शिक्षा, शिल्प, काव्यसम्बन्धी गुण-दोष एवं छन्दशास्त्रका वर्णन है । लोकबिन्दुसारमें आठ प्रकारके व्यवहार, चार प्रकारके बोज, मोक्ष प्राप्त करानेवाली क्रियाएं एवं मोक्षके सुखका वर्णन है ।
द्रव्यश्रुतके दूसरे भेद अंगबाह्यके चौदह भेद हैं
१. सामायिक, २. चतुर्विशतिस्तव, ३. वन्दना, ४. प्रतिक्रमण, ५. वेनयिक ६. कृतिकर्म, ७. दशवकालिक, ८. उत्तराध्ययन, ९. कल्पव्यवहार, १० कल्प्याकल्प्य, ११. महाकल्प्य, १२. पुण्डरीक, १३. महापुण्डरीक और १४. निषिद्धिका ।
सामायिकनामक अंगबाह्यमें नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन छः भेदों द्वारा समताभावके विधानका वर्णन है । चतुर्विंशतिस्तवमें तत्तत्काल सम्बन्धी चौबीस तीर्थकरोंकी वन्दना करनेकी विधि, उनके नाम, संस्थान, उत्सेध, पाँच महाकल्याणक, चौतीस अतिशय प्रभूतिका वर्णन है। वन्दना नामक अंगबाह्यमें एक तीर्थकर और उस तीर्थकर सम्बन्धी जिनालयों, वन्दना करनेको विधि एवं फलका चित्रण है। प्रतिक्रमणमें देवसिक रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, ईपिथिक और औत्तमाथिक इन सात प्रकारके प्रतिक्रमणोंका वर्णन आया है 1 प्रमादसे लगे हुए दोषोंका निराकरण करना प्रतिक्रमण है। वैनयिक नामक अंगबाह्यमें ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्र१४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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विनय, तप विनय और उपचार विनयोंका विशद वर्णन है । कृतिकर्म नामक अंगबाह्यमें अरहन्न, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुकी पूजाविधिका वर्णन है। दशवेकालिक अंगबालने साधुओं आचार, निहार पर्यटन आषिका वर्णन है। उत्तराध्ययनमें चार प्रकारके उपसर्ग और बाईस परिषहोंके सहन करनेका विधान एवं उनके सहन करनेवालोंके जीवनवत्तका वर्णन रहता है। ऋषियोंके करने योग्य जो व्यवहार है उस व्यवहारसे स्वलित हो जानेपर प्रायश्चित्त करना होता है । इस प्रायश्चित्तका वर्णन कल्पव्यवहारमें रहता है । कल्प्याकल्प्यमें साधु और असाधुओंके आचरणीय और त्याज्य व्यवहारका वर्णन पाया जाता है। दीक्षाग्रहण, शिक्षा, आत्मसंस्कार, सल्लखना और उत्तम स्थापना रूप आराधनाको प्राप्त हए साधनोंके जो करने योग्य है उसका द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका आश्रय लेकर महाकल्प्य कथन करता है । पुण्डरीक अंगबाह्यमें भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, कल्पवासी एवं वैमानिक सम्बन्धी देव, इन्द्र, सामानिक आदिमें उत्पत्तिके कारणभूत दान, पूजा, शील, तप, उपवास और अकामनिर्जराका तथा उनके उपपाद-स्थान और भवनोंका वर्णन रहता है। महापुण्डरीकमें भवनवासी, व्यन्तर आदि देवों और देवियोंमें उत्पत्तिके कारणभूत तप और उपवास आदिका वर्णन है। निर्षािद्धकामें अनेक प्रकारकी प्रायश्चित्त-विधियोंका कथन आया है ।
इस प्रकार अंगप्रविष्ट और अंगबाह्यके अन्तर्गत आधुनिक सभी विषयोंका समावेश तो होता ही है, साथ ही आध्यात्मिक भावना, कर्मबन्धकी विधि और फल, कोंके संक्रमण आदि करण, विभिन्न दार्शनिक चर्चाएं, मतमतान्तर, ज्योतिष, आयुर्वेद, गणित, भौतिकशास्त्र, आचारशास्त्र, सृष्टि-उत्पत्ति विद्या, भूगोल एवं पौराणिक मान्यताओंका परिज्ञान भी उक्त श्रुत या आगमसे प्राप्त होता है आगमका यह विषय-विस्तार इतना सघन और विस्तृत है कि इसको जानकारीसे व्यक्ति श्रतकेवली पद प्राप्त करता है | ज्ञान या आगमके विषयका परिज्ञान किस प्रकार और किस विधिसे संभव होता है, इसका वर्णन भी पूर्वोक्त आगमग्रन्थों में आया है। श्रुत या आगमज्ञानसे सम्बद्ध आचार्य-परम्परा
दिगम्बर पट्टालियों और प्रशस्सियोंसे अवगत होता है कि श्रुतको सुनकर कंठस्थ कर लेनेकी परम्परा तीर्थकर महावीरके निर्वाणलाभके पश्चात् कई शतक सक चलती रही । द्रव्य, गुण, पर्याय, तत्त्वज्ञान, कमंसिद्धान्त एवं आचार सम्बंधी मौलिक मान्यताओंको परम्परासे प्रासकर स्मरण बनाये रखनेको प्रथा धारावाहिक रूपमें चलती रही। नन्दोमंघ-बलात्कारगण-सरस्वतीगच्छकी
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पट्टावलिमें बताया है कि गौतम, सुधर्म और जम्बूस्वामीने बासठ वर्षों तक धर्मप्रचारका कार्य किया। महावीर स्वामीके पश्चात् बारह वर्षों तक गौतम स्वामीने केवलीपद प्राप्त कर धर्मप्रचार किया । इनके पश्चात् बारह वर्षों तक सुधर्माचार्य केवली रहे । अनन्तर अड़तीस वर्षों तक जम्बूस्वामी केवली बने रहे । इस प्रकार बासठ वर्षों तक उक्त तीनों केवलियोंकी ज्ञान ज्योति प्रकाशित होती रही। तत्पश्चात् पाँच श्रुतकेवली हुए। चौदह वर्षों तक विष्णुने, सोलह वर्षो तक नन्दिभित्रने बाईस वर्षों तक अपराजितने, उन्तीस वर्षों तक गांवद्धनने और उनतीस वर्षों तक भद्रबाहुने ज्ञानदीपको प्रज्वलित रखा । तत्पश्चात् दश वर्षो तक दशपूर्वधारी विशाखाचार्यने, उन्नोस वर्षों तक प्रोष्ठपचायने सत्रह वर्षो तक क्षत्रियाचार्यने, इक्कीस वर्षों तक जयसेनाचायेने, अट्ठारह वर्षों तक नागसेनाचार्य ने सत्रह वर्षो तक सिद्धार्थाचार्यने, अट्ठारह वर्षो तक धृतिसेनाचार्यने तेरह वर्षों तक विजयाचार्यने, बोस वर्षो तक बुद्धिलिङ्गाचार्यने, चौदह वर्षों तक देवाचार्यने एवं चौदह वर्षो तक धर्मसेनाचार्य श्रुतका प्रवचन किया। इस प्रकार एकसी तिरासी वर्षों तक दशपूर्वधारी श्रुतका प्रचार करते रहे । तदनन्तर अट्ठारह वर्षो तक एकादशांग - धारी नक्षत्राचार्यने, वीस वर्षा तक जयपालाचार्यने उनतालीस वर्षो तक पाण्डवाचार्यने, दश वर्षा तक ध्रुवसेनाचार्यने एवं बत्तीस वर्षो तक कंसाचार्यने श्रुतज्ञानको ज्योतिको प्रज्वलित किया 1 इस प्रकार एकादशांगधारी उक्त पाँच आचार्य श्रुतज्ञानका प्रवचन किया। अनन्तर दशांगके ज्ञाता शुभचन्द्राचार्यने छः वर्षों तक, यशोभद्राचार्यने अट्ठारह वर्षों तक, भद्रबाहुने तेईस वर्षों तक और लोहाचार्यने पचास वर्षो तक अंगज्ञानका प्रवचन किया । अनन्तर अट्ठाईस वर्षो तक एकांगके धारी अहिवल्याचार्यने, इक्कीस वर्षों तक माधनन्द्याचार्यने, उन्नीस वर्षों तक धरसेनाचार्यने श्रुतज्ञानको जावित रखा |
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१. अन्तिम जिणणिव्याण केवलणाणी य गोयम-मुणिदां । बारह वासे य गणो सुम्मसामी य संजादो ॥ १ ॥ तह बारह वासे पुण संजादो जम्बूसामि मुणिणाही । अठतीस वास रहियो केवलणाणी य जबिकट्ठो | २१| वासठि केवल वासे तिहि मुणी गोयम सुधम्म जम्बू य । बारह बारह दो जण तिय दुगहीणं च चालोसं ॥ ३ ॥ सुयकेवल पंच जगा वासहि वासे गये सुसंजावा । पत्र मं च उद- वासं विण्डुकुमारं
मुयध्वं ॥ ४ ॥
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इस प्राकृत पट्टावली में प्रत्येक आचार्यका अलग-अलग समय दिया गया है तथा समष्टि रूपमें भी वर्षसंख्या अङ्कित की गयी है। तीन केवलियों और पांच श्रुतकेवलियोंका समय एकसौ बासठ वर्ष बताया है । दशपूर्वधारियों की पुषक-पृथक् वर्षसंख्या और समष्टिरूप वर्षसंख्या प्राप्त नहीं होती। इसमें दो वर्षका अन्तर आता है। यथानंदिमित वास सोलह तिय अपराजिय दास वावीसं । इग-हीण-बीस वासं गोवण भट्बाहु गणतीसं ।। ५ ॥ सद सुयकेवलगाणी पंच जणा विण्ह मंदिमित्तो य । अपराजिय गोवरण तह महबाह य संजावा ।। ६ ।। सद वासट्टि सुवासे गए सु उप्पण्ण दह सुपुश्वाहा । सद तिरासि वासाणि य एगादह मुणिवरा जादा ।। ७ ।। आयरिय विसाख पोट्ठल खत्तिय जयसेण नागसेण मुणी ।। सिद्धस्थ बित्ति विजयं बहिलिंग देव घमसेणं ॥ ८ ।। दह उगणीस य सत्तर इकोस अट्ठारह सत्तर । अट्ठारह तेरह वीस चवह पोदय ( सोडस } कमेणेयं ।। ९ 11 अंतिम जिणिग्वाणे तियसय-पण चालवास जादेसु । पगादहंगधारिय पंच जणा मुणिवरा जादा ।।१०॥ नक्सलतो जयपालग पंडव धूरसेन फंस आयरिया । अठारह वीसवासं गणनालं चोद बत्तीसं ।। ११ ।। सद तेवीस यासे एगादह अंगधरा जादा । वासं सत्ताणवदिय दसंग नव अंग अट्टधरा ॥ १२॥ सुभदं च जसोभई भद्दबाह कमेण च । लोहाचम्य मुणीसं च कहियं च जिणागमे ।। १३ ।। छह अट्ठारह बास तेवीस वावण (पणास) वास मुणिणाहं । बस नव अगषरा वास दुसदवीस सधेसु ॥ १४ ॥ पंचसये पणसठे अंतिम-जिग-समय-जादेसु । उप्पंगा पंच जगा इयंगधारी मुणेयया ।। १५ ॥ महिपहिल माघनंदि य घरसेणं पुष्फयंत भूदवली । अहवीसं इगवीस उगणीसं तीस वीस बास पुणो ।। १६ ।। इगसय-अठार-बासे इयंगधारी य भूणिवरा जादा । छसप-तिरासिय-वासे णियाणा अंगद्दित्ति कहिय जिणे ।। १७ ।।
-जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १, किरण ४, पृष्ठ ७१-७४
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वशपूर्वधारी (१) वीर निर्वाण संवत् १६२ ।। विशाखाचार्य १० (२) बोर निर्वाण संवत् १७२। प्रोष्ठिल (३) वीर निर्वाण संवत् १९१ मत्रिय (४) वीर निर्वाण संवत् २०८ । जयसेन (५) वीर निर्वाण संवत् २२९ नागसेन
२८ वर्ष (६) वीर निर्वाण संवत् २४.५ सिद्धार्थ १७ वर्ष (७) बोर निर्वाण संवत् २६४ धृतिसेन
१८ वर्ष (८) वीर निर्वाण संवत् २८२ विजय
१३ वर्ष (९) वीर निर्माण संवत् २९५ बुद्धिलिङ्ग २० वर्ष (१०) वीर निर्वाण संवत् ३१५ ।। देव
१४ वर्ष {११) वीर निर्वाण संवत् ३२९ धर्मसेन
१४ वर्ष (१६ वर्ष)
१८१+२ = १८३ आदरणीय डा० हीरालालजीने अनुमान किया है कि घमसेनका काल १४ वर्षके स्थान पर १६ वर्ष होना चाहिए। इस प्रकार वर्षगणना करनेपर १८३ वर्ष दशपूर्वधारियोंका समय आ जाता है। इसके पश्चात् पाँव एकादशाङ्गधारियों का समय अन्य स्थानों पर २२० वर्ष बतलाया गया है, पर इस पट्टावलीमें उनका समय १२३ वर्ष दिया है, जो यथार्थ प्रतीत होता है ।
११ अङ्गके धारक आचार्य(१) कोर निर्वाण संवत् ३४५ नक्षत्र १८ वर्ष (२) बोर निर्वाण संवत ३६३ ।। जयपाल २० वर्ष (३) बीर निवांण संवत् ३८३ पाण्डव ३९ वर्ष (४) श्रीर मितसिवन् ४२२ । ध्रुवसेन १४ वर्ष (1) वीर निर्वाण संवत् ४३६ कंस ३२ वर्ष
१२३ वर्ष अनन्तर दश, नौ और आठ अङ्गके ज्ञाताओंका समय ९७ वर्ष बतलाया है, पर पृथक-पृथक वर्षों का योग ९९ वर्ष आता है । अतः इसमें भा दो वर्षों की भूल प्रतीत होती है।
१०, ९ और ८ अङ्गके ज्ञाता आचार्य(१) वीर निर्वाग संवन् ४६८ सुभद्र ६ वर्ष {२) ॥ " ।। ४७४ यशोभद्र १८, (३) , " ।। ४९२ भद्रबाहु २३ , (४) , , , ५१५ लोहाचार्य ५२,, (५० वर्ष)
९९-२ = ९७ १४ : लोथकर नहावीर और जनको आचार्य-परम्परा
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यहाँ लोहाचार्यंका समय ५२ वर्षके स्थान पर ९० वर्ष होना चाहिए । इस प्रकार ९९ – २ = ९७ वर्ष अष्टम, नत्रम और दशम अङ्गषारो आचार्योंका काल है । अनन्तर एकांगधारी पांच आचार्योंका समय ११८ वर्ष है । यथा(१) वीर निर्वाण संवत् ५६५ अबलि २८ वर्षे
(२)
५९ ३ माघनन्दि २१ वर्ष
(३)
६० घरसेन
१५
(४)
(५)
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६३३ पुष्पदन्त ६६३ भूतबलि
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२० वर्ष
११८ वर्ष
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इस प्रकार इस पट्टावली के अनुसार अङ्गपरम्पराका कुल काल६२ + १०० + १८३ + १२३ + ९७ ११८ - ६८३ वर्ष है ।
इन्द्रनन्दिके श्रुतावतार, जिनसेनके हरिवंश पुराण, यतिवृषभकी तिलोयपणती एवं वीरसेनकी धवला टीकामें आचार्यों की जो पट्टावलो दो गयी है उसमें लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष गिनाये हैं, पर इस पट्टावली में महंदवली, माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलिका ११८ वर्षका समय सम्मिलित है । महावीरकी जो शिष्य परम्परा अन्यत्र प्राप्त होती है उसमें गौतम, लोहाचार्यं और जम्बूस्वामो ये तीन केवली, विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु — ये पांच श्रुतकेवली; विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिसेन, विजय, बुद्धिलिङ्ग, देव और धर्मसेन – ये ११ दशपूर्वके ज्ञाता; नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु बसेन और कंस - ये पांच आचाराङ्गके ज्ञाता आचार्य हुए हैं | धवलाटीकाके सत्प्ररूपणा और वेदनाखण्डके प्रारम्भ में उक्त आचार्य को परम्परा दी गयी है | श्रवणबेलगोलके शिलालेख नं० १ और २ में सुधर्मस्वामी नामके स्थान पर लोहाचार्यका नाम प्राप्त होता है ।" तिलोय पण्णत्ती, हरिवंशपुराण, ब्रह्महेमेंकृत श्रुतस्कन्ध, श्रवणबेलगोल
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अथ खलु
महोति महावीर सवितरि परिनिर्वृते भगवत्परमपि गौतम गणधर - साक्षाविष्य- लोहा - जम्बु- विष्णुदेवापराजित - गोबर्द्धन भद्रबाहु विषास्त्र-प्रोष्ठिल कृतिकायंजय नामसिद्धार्थ धृतिषेणबुद्धिलादि जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम माग, माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, शिलालेख संख्या -१, पृष्ठ १-२ । २. जावो सिद्धो बौरो तद्दिवसे गोदमो परमणाणी ।
जादा तस्सि सिद्ध सुधम्मसामी तदो जादो || - तिलोमपणती ४१४७६
३. त्रयः क्रमात्केवलिनो जिनारपरे द्विषष्टिवर्षान्तिरभाविनोऽभवन् ।
ततः परं पञ्च समस्त पूर्विणस्तपोधना वर्षशतान्तरे गताः । हरिवंशपुराण ६६।२२
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अभिलेख नं० १०५ और इन्द्रनन्दि श्रुतावतार में सुधर्म स्वामीका नाम उपलब्ष होता है।
जयघवलामें भी लोहाचार्यके स्थान पर सुधर्म स्वामीका ही नाम माता है । अतः यहाँ यह आशङ्का उत्पन्न होती है कि लोहाचार्य और सुघमं स्वामी एक ही व्यक्ति है अथवा भिन्न-भिन्न ? इस शङ्काका समाधान जंबुदावपण तीसे हो जाता है। बताया है
तेण वि लोहज्जस्स य लोहज्जेण य सुघम्मणामेण । गणधरसुधम्मणा खलु जंबूणामस्स णिद्दिहं ॥ १०॥ चरमलबुद्धिसहिदे तिष्णदे गणधरे गुणसमग्गे 1 केवलणाणपवे सिद्धि मसामि ॥११॥ पत्ते
अर्थात् गौतम गणधरने लोहायंको और सोहायने जंबुस्वामोको उपदेश दिया। ये तीनों केवली निर्मल बुद्धियोंसे सहित गुणोंसे परिपूर्ण और सिद्धिको प्राप्त थे । लोहार्य का अपर नाम सुधर्म स्वामी था । अतः लोहाचार्य और सुषमंस्वामी दोनों एक ही व्यक्ति हैं, भिन्न नहीं ।
इसी प्रकार विशु जाता है। प्राकृत पट्टावल और महावीरकी शिष्यपरम्परामें विष्णु के नामका उल्लेख आया है। पर जंबूदीवपणती और तिलोयपण्णत्तीमें इस स्थान पर नन्दी या नन्दीमुनि नाम मिलता है। जंददीवपण्णत्तीमें लिखा है-
गंदी य मंदिभित्तो अवराजिदमुनिवरो महातेओ । गोणी महत्या महागुणो भद्दवाह य ॥ तिलोयपण्णत्ती में बताया है
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दीय दिमित्तो बिदिओ अबराजिदो तइज्जो य । गोवद्धणो चउत्यो पंचमओ भद्दबाहु ति ॥ उक्त उद्धरणों से यह ज्ञात होता है कि विष्णुका ही ४. सिद्धि गते वीर जिने नुबद्ध केवल्य भिस्यास्त्रय एवं जाताः । श्रीमती म सुधर्मजम्बू यैः केवली वे सहानुजम् ॥
१. अंबुबीयपण्णत्ती १११०-११
२. जंबुदीवपण्णी १।१२
३. तिलोयपण्णत्ती ४।१४८२
२० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
अपर नाम नंदी रहा
- जैन शिलालेखसंग्रह प्रथम भाग, अभिलेख - १०५ ।
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होगा। वस्तुत: आचार्यका नाम विष्णुनन्दी है । इसके दोनों शब्द विष्णु और नन्दो संक्षिप्त रूपमें प्रयुक्त हुए हैं। एक स्थानपर 'विष्णु' शब्दका प्रयोग हुआ है और दूसरे पर 'नन्दो' का । श्रवणबेलगोलके शिलालेख नं० १०५ में अपराजिसका नाम पहले आया है और नन्दिमित्रका पश्चात् । यह क्रमभंग संभवतः छन्द निर्वाहके लिए किया गया होगा। अन्य सभी ग्रन्थोंमें नन्दिभित्रका पहले नाम आया है और अपराजितका बादमें । __नन्दिसंघको प्राकृत पट्टावलिमें परम्परासे प्राप्त बुद्धिलके स्थानपर बुद्धिलिन नाम आया है। इसी प्रकार गंगदेवके स्थानपर केवल देव नाम प्राप्त होता है । जयपालके स्थानपर जयधवलामें असफल और जम्बदीवपण्णत्तीमें' जसपाल नाम आये हैं। यथार्थतः ये नाम भी एक हो यतिके हैं। ध्रुवसेनके स्थानपर इन्द्रनन्दीके श्रुतायतारमें द्रुमसेन और श्रुतस्कन्धमें घुतसेन नाम मिलते हैं।
आचारांगधारी यशोभद्रके स्थानपर इन्द्रनन्दीके श्रुतावतारमें अभयभद्र नाम आया है । इसी प्रकार यशोबाहुके स्थानपर जयध्वलामें जबाहू; श्रुतावतारमें जयबाहुः नन्दिसंघको प्राकृत पट्टावलि और आदिपुराण में भद्रबाहु नाम आये हैं । संभवतः नन्दिसंघको प्राकृत पट्टावलिके भद्रबाहु द्वितीय हैं।
प्राकृत पट्टाबलिमें तीन केवलियों, पांच श्रुतकेवलियों और ग्यारह दशपूर्वियोंका समय तो क्रमशः ६२ + १०० + १८३ वर्ष बतलाया गया है, जिसका योगफल ३४५ वर्ष आता है। इसके पश्चात् जिन पांच एकादशांगधारियोंका समय अन्यत्र २२० वर्ष बतलाया है, यहां उनका समय १२३ वर्ष ही कहा है । इसके पश्चात् आगे जिन चार आचार्योंको अन्यत्र आचारांगधारी कहा गया है, सन्हें इस पट्टावलीमें १०, ९ और ८ अंगका पारी कहा है तथा इनका समय ११८ वर्षके स्थानमें ९९ वर्ष (२७) कहा है । पट्टावलीकी कालगणनाके अनुसार वीर निर्वाणसे ६२ + १०० + १८३ + १२३ + २४ -४९२ वर्ष के पश्चात् द्वितीय भद्रबाहु हुए। इनका काल २३ वर्ष बसलाया है । गणनानुसार ५२७-४९२ - ३५ अर्थात् ई० सन्से ३५ वर्ष पूर्व द्वितीय भद्रबाह हुए हैं।
पट्टावलीमें 'तदुक्तं विक्रमप्रबन्धे' लिखकर जो दो गाथायें उद्धृत की गयो १. णक्खत्तो जसपालो पंटू वसेण कंसारिओ ।
एमारसंगपारी पंच जणा होति णिहिट्टा ॥ -जम्बूबीवपण्णत्ती १।१६ २. इन्द्रनन्दि अतावतार, सूरत संस्करण, पृष्ठ १३ । ३. सुभद्रश्च यशोमत्रो भत्रबाहमहायशाः। लोहार्यश्चेत्समी ज्ञेयाः प्रथमानाधिपारशः ॥ -महापुराण २ १४९
श्रुतघर और सारस्वतारार्य : २१
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हैं, उनमें बतलाया है कि वीरनिर्वाणसे ४७० वर्ष पश्चात् विक्रमका जन्म हुआ। अतएव ४९२ - ४७० - २२ अर्थात् विक्रमके जन्मसे २२ वर्ष पाछे सुभद्राचार्यका अन्त हुआ । तत्पश्चात् भद्रबाहु द्वितीय पट्टासोन हुए। स्पष्ट है कि वि० सं० २२ से वि० सं०४५ तक भद्रबाहु द्वितीयका समय आता है।
सरस्वतीगच्छकी पट्टावलीमें इन्हें जातिसे ब्राह्मण बताया है और इनकी आयु ७७ बर्षकी कही गयी है । इस पट्टावलोमें भद्रबाहके तीन शिष्योंके नाम आये हैं--गुप्तिगुप्त, अर्हबलि और विशाखाचार्य । श्रुतके प्रलो भद्रबाहुके शिष्यका नाम भी विशाखाचार्य था । नन्दिसंघको पट्टावली में भद्रबाहु द्वितीयके शिष्यका नाम लोहाचार्य बताया गया है । द्वितीय भद्रबाहु और उनके शिष्य गुप्तिगुसको स्थिति सर्वथा असांदग्ध नहीं है। अतएव श्वेताम्बर परम्पराके द्वितीय भद्रबाहु दिगम्बर परम्पराके भद्रबाहु द्वितोयसे सर्वथा भिन्न हैं। दिगम्बर भद्रबाहु वराहमिहिरके भाई नहीं हैं। __ श्रुतकेवली भद्रबाहुके गुरुका नाम गोवर्धनाचार्य है। ये ही दिगम्बर मुनियोंका सघ लेकर दक्षिणकी ओर गये थे और इन्हीका शिष्य चन्द्रगुप्त मौर्य था। चन्द्रगुप्त मौर्य के सम्बन्ध में हरिषेणकथाकोषमें भद्रबाहुका आख्यान आया है। इसमें चन्द्रगृप्तको उज्जयिनीका राजा बतलाया गया है। शिशुनाग वंश और नन्दवंशके राज्य में भी उज्जयिनीका राज्य सम्मिलित था । यद्यपि चन्द्रगुप्त मौर्यकी प्रधान राजधानी पाटलिपुत्रमें थी; पर पश्चिम खण्डकी राजधानी उज्जयिनीमें स्थित थी। जब भद्रबाहु उज्जयिनी में पधारे उस समय उस नगरमें महान् श्रावक राजा चन्द्रगुप्त था। इससे अवगत होता है कि उस समय चन्द्रगुप्त उज्जयिनी में गया हुआ था। यह जैन श्रमणोंका बड़ा भक था और उनका यथोचित आदर-सत्कार करता था । मि. जॉर्ज सी० एम० वल्डंवुकने लिखा है-“चन्द्रगुप्त और बिन्दुसार दानों जैन थे; किन्तु चन्द्रगुप्तके पौत्र अशोकने बौद्धधर्म स्वीकार किया था ।''
तिलोयपण्णत्तोमें बताया है कि मुकुटधर राजाओंमें अन्तिम राजा चन्द्रगुप्तने जिनदीक्षा ग्रहण की थी। इसके पश्चात् अन्य कोई मुकुटबर दीक्षित नहीं हुआ।
मउडधरेसु चरिमो जिणदिक्ख परिद चंदगुत्तो य । तत्तो मरडधरा दुप्पञ्चज्ज व गेहति ।।
१, कैलाशचन्द्र शास्त्रो, जैन साहित्यका इतिहास, पूर्व पीठिका. वर्णी ग्रन्थमाला
वाराणसी, पृष्ठ ३५२ । २. तिलोयपणती ४.१४८१
२२ : तीर्थकर महावीर ओर उनको आचार्य परम्परा
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तिलोयपण्यत्तिके इस सन्दर्भसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्तका उल्लेख जिस प्रसंगमें आया है वह प्रसंग अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। केवला और श्रुत. केवलियोंके मध्यमें चन्द्रगुप्सका निर्देश सामान्य नहीं है। अन्तिम केवलज्ञानी श्रीधर कुण्डलििरसे सिद्धिको प्राप्त हुए । चारणऋषियों में अन्तिम सुपाश्वंचन्द्र नामक ऋषि हए । अन्तिम प्रज्ञायमण वनयश और अन्तिम अवधिज्ञानो श्रीनामक ऋषि हुए । इसके पश्चात् मुकुटधरोंमें अन्तिम चन्द्रगुप्तने जिनदीक्षा ग्रहण को । चन्द्रगुप्तका निर्देश करनेवालो गाथाके पश्चात् श्रतकेवली भद्रबाहका नाम आया है । अतएव यह स्पष्ट है कि अन्तिम श्रुतकेवलो और मौयं चन्द्रगुप्त ये दोनों समकालीन हैं।
खारवेलके हाथी गम्फावाले अभिलेखकी सोलहवीं पंक्तिका जायसवाल साहबने अध्ययन कर लिखा है...-"जैन आगमोंके इतिहासके और अधिक गहरे अध्ययनसे हम निर्णय करने में समर्थ होंगे कि उक्त पक्तिके किये गये तोन अर्थो से कौन-सा अर्थ प्राय है। किन्तु चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में जन मूलमन्थोंके विनाशको लेकर जैनपरम्परामें जो विवाद चलता है उसका लेखके उक्त पाठसे आश्चर्यजनक समर्थन होता है। इससे स्पष्ट है कि उड़ीसा जैनधर्मके उस सम्प्रदायका अनुयाया था, जिसने चन्द्रगुप्तके राज्यमें पालिपुत्रमें होनेवाली वाचनामें संकलित आगमोंको स्वीकार नहीं किया था।"
जायसवालजीके उपर्युक कथनसे यह ध्वनित होता है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परामें भद्रबाहु श्रुतकेवलोके समयसे श्रुतका विच्छेद होने की जो अनुभुतियाँ हैं वे मौर्यकालसे सम्बद्ध हैं। अतएव भद्रबाहु श्रत्त केवलोका अस्तित्व चन्द्रगुप्त मौर्यके समयमें सिद्ध है।
नन्दिसंघकी प्राकृत पट्टावलोसे भी उक्त कथनको पुष्टि होता है। पट्टावलीमें वीरनिर्वाणसे लोहाचार्य तक ५६५ वर्षोंका समय बताया है। अन्य ग्रन्थोंमें यह काल ६८३ वर्ष है। इस प्रकार कालगणनामें ११८ वर्षों का अन्तर आता है । यद्यपि तीन केवली, पांच श्रुतकेवला और ग्यारह दशपूर्वधारो आचार्योको कालगणनामें कोई अन्तर नहीं है । तो भी अहंलिसे भूतबलि पर्यन्त पाँच आचार्योके दिये गये ११८ वर्षों में ५० वर्ष श्रतकेलियोंके भी सम्मिलित कर दिये जायें तो श्रुतकेवली भद्रबाहु और चन्द्रगुप्तमौर्यको समकालीनता बन जाती है।
हरिषेणकृत बृहत्कथाकोषमें श्रुतकेवली भद्रबाहुका जो आख्यान आया है उसमें बताया है कि 'दुभिक्षके कारण श्रुतकेवली भद्रबाहु नवदीक्षित अपने P. Journal of Bihar Orissa Rescarch Society Pauna vol. 13 Y, 236 २. वृहत्कथाकोष, भारतीय विद्याभवन बम्बई, सन्, १९४३, पृ० ३१७-३१९
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शिष्य चन्द्रगुप्त सहित दक्षिणकी ओर चले । चन्द्रगुप्तका दीक्षा नाम विशाखाचार्य पड़ा। जब दुर्भिक्ष समाप्त हो गया सो विशाखाचार्य समस्त संघके साथ दक्षिणापथसे मध्यदेश में लौट आया। रामिरुल, स्थविर और स्थूलभद्राचार्य तीनों दुर्भिक्षकाल में सिन्धुदेश में चले गये थे । उन्होंने वहाँसे लौटकर बतलाया कि उस देश के निवासी दुर्भिक्ष पीड़ितोंके भयसे दिनमें भोजन नहीं कर पाते थे । अतएव वे रात्रिमें भोजन करते थे । उन्होंने हमसे कहा कि आप लोग भी रात्रि के समय हमारे घरसे पात्र लेकर आहार ले जाया करें। उन लोगोंके इस अनुरोधपर हमलोग रात्रि में आहार लाकर दिनमें भोजन करने लगे। एक दिन एक कृशकाय निग्रंथ साधु हाथमें भिक्षापात्र लेकर श्रावकके घर गया । अन्धकारमें उस नग्नमुनिको देखकर एक गर्भिणी श्राविकाका भयके कारण गर्भपात हो गया । इसपर श्रावकोंने आकर साधुओंसे प्रार्थना की- "समय बड़ा खराब है । जबतक स्थिति ठोक नहीं होती, तबतक आपलोग बाँयें हाथसे अर्द्धफालकअस्त्रको आगे करके दाहिने हाथ में भिक्षापात्र लेकर रात्रिमें आहार लेने आया करें। जब सुभित हो जाय तब प्रायश्चित्त लेकर पुनः अपने तपमें संलग्न हो जाये ।" श्रावकों का उक्त कर सकते ।
जब सुभिक्ष हो गया तो रामिल्ल, स्थविर और स्थूलभद्राचार्यने सकल संघको बुलाकर अर्द्ध वस्त्र छोड़ देनेका आदेश दिया और सभी विशाखाचार्यके पास गये और नैर्ग्रन्थ्यरूप धारण किया । जिनको गुरुके वचन रुचिकर प्रतीत नहीं हुए उन शक्तिहीनोंने जिनकल्प और स्थविरकल्पका भेद करके भद्धफालक सम्प्रदायका प्रचलन किया ।'
I
उपर्युक्त आख्यानका अन्य ऐतिहासिक संदर्भों में अध्ययन करनेपर अवगत होता है कि स्थविर और स्थूलभद्र भद्रबाहुके समकालीन हैं । दिगम्बर परंपरामे श्रुतकेवली भद्रबाहुको जो स्थान प्राप्त है, श्वेताम्बर परम्परामें वही स्थान स्थूलभद्रको प्राप्त है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय की आचार्य परम्पराका प्रारम्भ श्रुत्त केवली भद्रबाहुसे न होकर स्थूलभद्राचार्य से होता है । अतएव संक्षेपमें यही कहा जा सकता है कि दिगम्बर आरातियों की परम्परा श्रुतकेवली भद्रबाहुले प्रारम्भ होती है। इस परम्पराके आचार्यमें भेद करना शक्य नहीं है, क्योंकि सभो आचार्यों ने गौतम गणधर द्वारा ग्रथित श्रुतका ही विवेचन किया है। विषयवस्तु वही रही है, जिसका निरूपण तीर्थंकर महावीरकी दिव्यध्वनि द्वारा हुआ है। विभिन्न समयोंमें उत्पन्न होनेके कारण इन आचार्योंने केवल द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके अनुसार अभिव्यञ्जना शक्तिका ही रूपान्तर किया है। तथ्य समान होते हुए भी कथन करनेकी प्रक्रिया भिन्न है। हम सुविधा की दृष्टिसे
२४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा
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दिगम्बर आरातियोंकी परम्पराको निम्नलिखित पांच भागों में विभक कर विवेचन उपस्थित करेंगे।
१. श्रुतधराचार्य । २. सारस्वताचार्य । ३. प्रबुद्धाचार्य । ४. परम्परापोषकाचार्य । ५. कवि और लेखक-आचार्य तुल्य ।
१. श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यो से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कर्भसाहित्य, बध्यारासाहिरका गायक दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोवनमें निर्वाह करते हुए किया है । यों तो प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके आधारपर ग्रन्थरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुतकेवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवलि, यतिवृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और वप्पदेवकी गणना की जा सकती है।
श्रुतघराचार्य युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य हैं । इन्होंने प्रतिभाके क्षीण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेकर कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यो के मूलगुण और उत्तरगुणोंसे युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे। श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई० सन्की चतुर्थ-पंचम शताब्दी तक चलती रही है । अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोकानुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद्ध साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विवत्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा ।
२. सारस्वताचार्यसे हमारा अभिप्राय उन आचार्योस है, जिन्होंने प्राप्त हुई श्रुतपरम्पराका मौलिक ग्रन्थप्रणयन और टोका साहित्य द्वारा प्रचार और प्रसार किया है। इन आचार्यो में मौलिक प्रतिभा तो रही है, पर श्रुतधरोंके समान अंग और पूर्व साहित्यका ज्ञान नहीं रहा है । इन बाचार्यों में समन्तभद्र पूज्यपाद-देवनन्दि, पात्रकेसरी, जोइन्दु, ऋषिपुत्र, अकलंक, वीरसेन, जिनसेन,
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मानतुंग, एलाचार्य, जटासिंहनन्दि, वीरनन्दि, विद्यानन्द आदि आचार्य परिगणित हैं।
३. प्रबुद्धाचार्यसे हमारा अभिप्राय ऐसे आचार्यो से है, जिन्होंने अपनी प्रतिभा द्वारा ग्रन्थप्रणयनके साथ बित्तियाँ और भाष्य भी ग्ने हैं । यद्यपि सारस्वताचार्य और प्रवद्धाचार्य दोनों में ही प्रतिभाका बाहुल्य है, पर दोनोंको प्रतिभाके तारतम्य में अन्तर है । जितनी मुदम निरूपणशक्ति सारस्वताचार्योंमें पायी जाती है, उतनी सक्षम निरूपणशक्ति प्रबुद्धाचार्या में नहीं हैं। कल्पनाको रमणीयता या कल्पनाको उडान प्रबद्धाचार्यों में अधिक है, और इस श्रेणीके सभी आचार्य प्रायः कवि हैं। इनका गद्य और पद्य भी अकृत शैलीका है। अतः अभिव्यञ्जनाकी सशक्त काव्यशक्तिके रहनेपर भी सिद्धान्तनिरूपणकी वह क्षमता नहीं है, जो क्षमता सारस्वताचार्य या वृतघराचार्या में पायो जाती है । इस श्रेणीक आचायो में जिनसन प्रथम, प्रभाचन्द्र, नरेन्द्रसेन, भावसेन, आर्यनन्दि, नेमिचन्द्रगणि, पवनन्दि वादीसिंह, हरिषेण. वादिराज, पद्मनन्दि-जन्बूद्वोपपण्णत्तीकार,महासेन, सोमदेव, हस्तिमल्ल, रासिंह, नयनन्दि, माघवचन्द्र. विद्य, विश्वसेन, जयसेनाचार्य द्वितीय, अनन्तवीर्य एवं इन्द्रनन्दि आदिको गणना की जा सकती है। इन आचार्यों ने पदयात्रा द्वारा भारतका भ्रमण किया और अपभ्रंश एवं संस्कृत आदि भाषाओंमें ग्रन्थ-रचना की ।
४. परम्परापोषक आचार्योंसे हमारा अभिप्राय उन भद्रारकोसे है जिन्होंने दिगम्बर परम्पराकी रक्षाके लिए प्राचीन आचार्या द्वारा निर्मित ग्रन्थों के आधार पर अपने नवोन ग्रन्थ लिखे । सारस्वताचार्य और प्रबुद्धाचार्यमें जैसी मालिक प्रतिभा समाविष्ट थी, वेसो मौलिक प्रतिभा परम्परापोषक आचार्यो में नहीं पायो जाती। नयी सम्भावनाओंका विकास इन आचार्यों द्वारा नहीं हो सका है । पिष्टपेषणका कार्य ही इन आचार्य के द्वारा हुआ है। यों तो संस्कृति निर्माताओंके रूपमें अनेक परम्परापोषक आचार्य आते हैं, पर वाङमय-सृजनकी मौलिक प्रतिभा और अध्ययन-गाम्भीर्य प्रायः इन्हें प्राप्त नहीं था। घना-मानी शिष्योंसे वेष्टित रहकर, मन्त्र-तन्त्र या जादू-टोनेको चर्चाएं कर, जनसाधारणको ये अपनी ओर आकृष्ट करते रहते थे । धर्मप्रचार करना, जनसाधारणको धर्मक प्रति श्रद्धालु बनाये रखना एवं सरस्वतीका संरक्षण करना प्रायः परम्परापोषक आचार्यों का लक्ष्य हुआ करता था। यही कारण है कि इन आचार्यों द्वारा गद्दियों पर समृद्ध ग्रन्थागार स्थापित किये गये । मौलिक ग्रन्य-प्रणयनके साथ आर्ष और मान्य कवियों एवं श्रुतधरों द्वारा रचित वाङमय, काव्य एवं आध्यात्मसाहित्यको प्रतिलिपियाँ भी इनके तत्त्वावधानमें प्रस्तुत की गयी हैं ।
२६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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परम्परापोषक आचार्यों ने युगानुसार रचनाएँ न लिखकर धर्मप्रचारार्थ कथाकाव्य या दर्शन सम्बम्बी ग्रन्थोंका प्रणयन किया है। धर्म और संस्कृति के दायित्वका निर्वाह लगभग पाँच छह सौ वर्षो तक इन आचार्य के द्वारा होता रहा है। ये आचार्य आरम्भ में निश्चयतः निस्पृही, त्यागो, ज्ञानी एवं जितेन्द्रिय थे । स्वयं विद्वान् होनेके साथ मनीषी विद्वान्का सम्पोषण भी इन्हींकी गद्दियांस होता था। परम्परापोषक आचार्यो का लक्ष्य ग्रन्थोंके संख्याबाहुल्य पर था, मौलिक रचनाकी ओर नहीं ।
इस श्रेणी के आचार्य
कीर्ति, मोच, सहजूर, मल्लिषेण श्रुतसागर, अजितसेन वर्द्धमानभट्टारक, ज्ञानकोति, ब्रह्मनेमिदत्त, वादिचन्द्र, सोमकीर्ति, विबुधश्रीधर, अमरकीर्ति, देवचन्द्र, यशःकीर्ति, हरिचन्द्र, तेजपाल, पूर्णभद्र, दामोदर, त्रिविक्रम, ज्ञानकीर्ति, विद्यानन्द ब्रह्मश्रुतसागर, पद्मनन्दि, नेमिचन्द्र, सहस्रकोति, जिनेन्द्रभूषण, धर्भभूषण, गुणचन्द्र, शुभचन्द्र, शुभकीर्ति, देवेन्द्रकोति, चारित्रभूषण, नागदेव, चन्द्रकीति, जयकीर्ति, सुर्मातसागर, अरुणर्माण, श्रीनन्दि, श्रीचन्द्र, कमलकीति आदि प्रमुख हैं । इन आचार्यों ने निम्नलिखित रूपमें वाङ्मयकी सेवा की है
१. पौराणिक चरित-काव्य
करन
२. लघुप्रबन्ध कथाकाव्य
३.
दूस-काव्य
1
४. न्याय दर्शन विषयक साहित्य
५. मध्यात्म-साहित्य
६. प्रबन्धात्मक प्रशस्तिमूलक ऐतिहासिक काव्य
७. सन्धान- काव्य
८. सूक्ति, आचारमूलक काव्य
९. स्तोत्र और पूजाभक्ति साहित्य
१०. नाटक
११. विविध विषयक समस्यापूर्त्यात्मिक काव्य १२. संहिता - विषयक साहित्य
कवि और लेखक-दिगम्बर परम्पराकै श्रुतका संरक्षण और विस्तार आचार्यों के अतिरिक्त गृहस्थ लेखक और कवियाने भी किया है। पंडित आशाधर जैसे बहुश्रुतश विद्वान् इस परम्परामें हुए हैं । जिन्होंने मौलिक रचनाओंके साथ अनेक ग्रन्थोंके टोका और टिप्पण भी लिखे हैं । महाकवि रद्दधू, असम, हरिचन्द आदिने भी रचनाएँ लिखकर आरातीय परम्पराके विकासमें योगदान
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दिया है । आचार्य जिनसेन, महाकवि पुष्पदन्तकी परम्पराका विकास विभिन्न भाषाओं द्वारा रचित वाङ्मयके आधारपर किया है। प्रबुद्ध आचार्यों ने जिन पौराणिक महाकाव्योंके रचनातन्त्रका प्रारंभ किया था, उस रचनातन्त्रका सम्यक विकास इन कवियोंके द्वारा हुआ। संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती, मराठी, कन्नड़, तमिल, तेलगु आदि भाषाओंमें कवियों और लेखकोंने सिद्धान्त और आचारविषयक रचनाएँ लिखकर श्रुतपरंपराका विकास किया है। ये लेखक और कवि भी वाङ्मयके स्रष्टा और संवर्द्धक हैं।
इस श्रेणीक कांब और लेखकोंमें असग, हरिचन्द, अहंदास. आशाघर, धर्म धर, दोडय, जगन्नाथ, लक्ष्मीचन्द्र, रामचन्द्र मुमुक्ष, पद्मनाभ कायस्थ, बनारसीदास, पंडित रामचन्द्र, ब्रह्मकामराज, रूपचन्द्र, रूपचन्द्र पाण्डेय, हरपाल, केशवसेन, अक्षयराम, देवदत्त, पंडित धरसेन, शिवभिराम, ब्रह्मराजमल आदि प्रमुख हैं। साधारणतः इन कवि और लेखकोंमें अधिकांशका संबन्ध भट्टारकोंके साथ है । यह भी संभव है कि इनमेंसे दो चार कवि या लेखक भट्टारक भी रहे हों, पर रचनाओंसे इनका जीवन सांसारिक गृहस्थके समान हो प्रतीत होता है । इसी कारण हमने इनकी गणना कवि और लेखकोंमें को है।
श्रुतधराचार्य आचार्य गुणधर और उनकी रचनाएं
श्रुतधराचार्यों को परंपरामें सर्वप्रथम आचार्य गुणधरका नाम आता है । गुणधर और धरसेन दोनों ही श्रुत-प्रतिष्ठापकके रूपमें प्रसिद्ध हैं । गुणधर आचार्य धरसेनकी अपेक्षा अधिक ज्ञानी थे। गुणवरको 'पञ्चमपूर्वगत पेन्जदोसपाहुर' का ज्ञान प्राप्त था और घरसेनको 'पूर्वगत कम्मपडिपाहुड' का । इतना ही नहीं, किन्तु गुणधरको 'पेज्जदोसपाहु के अतिरिक्त 'महाकम्मपडिपाहुड'का भी मान प्राप्त था, जिसका समर्थन 'कसायपाहुई'से होता है । 'कसायपाहुड में बन्ध, संक्रमण, उदय और उदीरणा जैसे पृथक् अधिकार दिये गये हैं। ये अधिकार 'महाकम्मपडिपाहु के चौबीस अनुयोगद्वारोंमेंसे क्रमशः षष्ठ, द्वादश और दशम अनुयोगद्वारोंसे संबद्ध हैं। 'महाकम्मपयडिपाहुड'का चौबीसवाँ अल्पबहुत्व नामक अनुयोगद्वार भी 'कसायपाहुड'के सभी अर्थाधिकारों में व्याप्त है । अतः स्पष्ट है कि आचार्य गुणधर 'महाकम्मपयडिपाहुड के ज्ञाता होने के साथ 'पेज्जदोसपाहुड' के ज्ञाता और 'कसायपाहुड' के रूपमें उसके उपसंहारकर्ता भी थे। पर 'छासडागम'को धदला-टोकाके अध्ययनसे ऐसा ज्ञात नहीं होता कि परसेन 'पेजदोसपाहुब'के माता थे । अतएव आचार्य गुणघरको दिगंबर परंपरामें लिखित रूपमें प्राप्त श्रुसका प्रथम श्रुतकार माना जा सकता है। घरसेनने किसी ग्रन्थकी
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रचना नहीं की। जबकि गुणधरने 'पेज्जदोसपाहुड'की रचना की है । जयघवलाके मंगलाचरणके पश्चसे ज्ञात होता है कि आचार्य गुणधरने कसायपाएका गाथाओं द्वारा व्याख्यान किया है।
जेणिह कसायपाहुडमणेयणयमुज्जलं अणंतत्यं ।
गाहाहि विवरियं तं गुणहरभडारयं यंदे ॥ ६ ॥ इसके अनन्तर आचार्य वीरसेनने लिखा है-ज्ञानप्रवादपूर्वके निर्मल दसवें वस्तु अधिकारके तृतीय कसायपाहुडरूपी समुद्रके जलसमूहसे प्रक्षालित मतिज्ञानरूपी नेत्रवारी एवं त्रिभुवन-प्रत्यक्षजानकर्ता गुणधर भट्टारक हैं और उनके द्वारा उपदिष्ट गाथाओंमें सम्पूर्ण कसायपाहुडका अथं समाविष्ट है । आचार्य वीरसेनने उसी संदर्भ में आगे लिखा है कि तीसरा कषायप्राभूत महासमुद्रके तुल्य है और आचार्य गुणधर उसके पारगामी हैं । ___ वीरसेनाचार्यके उक्त कथनसे यह ध्वनित होता है कि आचार्य गुणधर पूर्वविदोंकी परम्परा में सम्मिलित थे, किन्तु धरसेन पूर्वविद् होते हुए भी पूर्वविदोंकी परम्परामें नहीं थे । एक अन्य प्रमाण यह भी है कि घरसेनकी अपेक्षा गुणधर अपने विषयके पूर्ण ज्ञाता थे ! अतः यह माना जा सकता है कि गुणधर ऐसे समयमें हुए थे जब पूर्वो के आंशिक ज्ञानमें उतनी कमी नहीं आयी थो, जितनी कमी धरसेनके समयमें आ गयी थी । अतएव गुणधर धरसेनके पूर्ववर्ती हैं। समय-विचार ___ आचार्य गणघरके समयके सम्बन्धमें विचार करनेपर ज्ञात होता है कि इनका समय घरसेनके पूर्व है। इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारमें लोहार्य तकको गुरूपरम्पराके पश्चात् विनयदस, श्रीदत्त, शिवदत्त और अहंइत्त इन चार आचार्योका उल्लेख किया गया है। ये सभी आचार्य अंगों और पूर्वो के एकदेशनाता थे। इनके पश्चात् अहंद्वलिका नाम आया है। अर्हलि बड़े भारी संघनायक थे। इन्हें पूर्वदेशके पुण्ड्वर्धनारका निवासी कहा गया है। इन्होंने पञ्चवर्षीय युगप्रतिक्रमणके समय बड़ा भारो एक यसि-सम्मेलन किया, जिसमें सौ योजन सकके यति सम्मिलित हुए। इन यत्तियोंको भावनाओंसे अर्हदलिने सात किया कि अब पक्षपातका समय आ गया है । अतएव इन्होंने नन्दि, वीर, अपराजित, देव, पञ्चस्तूप, सेन, भद्र, गुणधर, गुप्त, सिंह, चन्द्र आदि नामोंसे भिन्न-भिन्न संघ स्थापित किये, जिससे परस्परमें मंबास्सख्यभाव वृद्धिंगत हो सके। __ संघके उक्स नामोसे यह स्पष्ट होता है कि गुणधरसंघ आचार्य गुणधरके नाम पर ही था । अतः गुणधरका समय अहंवलिके समकालीन या उनसे भी
ववषर और सारस्वताचार्य : २९
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पूर्व होना चाहिए । इन्द्रनन्दिको गुणघर और धरसेनका पूर्व या उत्तरवत्तित्व ज्ञात्त नहीं है । अतएव उन्होंने स्वयं अपनो असमर्थता व्यक्त करते हुए लिखा
गुणधरधरसेनान्वयगुर्योः
पूर्वापरक्रमोऽस्माभिः | न ज्ञायते तदन्वयकथकागममुनिजनाभावात् ।। १५१ ।।
अर्थात् गुणवर और धरसेनकी पूर्वापर गुरुपरम्परा हमें ज्ञात नहीं है क्योंकि इसका वृत्तान्त न तो हमें किसी आगममें मिला और न किसी मुनिने हो
बतलाया ।
स्पष्ट है कि इन्द्रनन्दिके समय तक आचार्य गुणधर और घरसेनका पूर्वापरवत्तित्व स्मृतिके गर्भ में विलीन हो चुका था । पर इतना स्पष्ट है कि अलि द्वारा स्थापित संघों में गुणवरसंघका नाम आया है । नन्दिसंघकी प्राकृत पट्टावलो में अर्हलिका समय वीर निर्वाण सं० ५६५ अथवा वि० सं० ९५ है । यह स्पष्ट है कि गुणधर अर्हद्वलिके पूर्ववर्ती हैं; पर कितने पूर्ववर्ती हैं, यह निर्णयात्मक रूपसे नहीं कहा जा सकता। याद गुणधरको परम्पराको ख्याति प्राप्त करने में सौ वर्षका समय मान लिया जाय तो 'छवखंडागम' प्रवचनकर्त्ता घरसेनाचार्यसे 'कसा पाहुड' के प्रणेता गुणवराचार्यका समय लगभग दो सौ वर्ष पूर्व सिद्ध हो जाता है । इस प्रकार आचार्य गुणधरका समय वि० पू० प्रथम शताब्दी सिद्ध होता है ।
हमारा यह अनुमान केवल कल्पना पर आधृत नहीं है । अद्धलिके समय तक गुणधरके इतने अनुयायी यति हो चुके थे कि उनके नामपर उन्हें संघकी स्थापना करनी पड़ी । अतएव अद्वलिको अन्य संघोंके समान गुणकर संघका भी मान्यता देनी पड़ी। प्रसिद्धि प्राप्त करते और अनुयायो बनाने में कमसे कम सी वर्षका समय तो लग हो सकता है । अतः गुणधरका समय धरसेनसे कमसे कम दो सौ वर्ष पूर्व अवश्य होना चाहिये ।
इनके गुरु आदिके सम्बन्धमें कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती है । गुणधरने इस ग्रन्थको रचना कर आचार्य नागस्ति और आर्यमक्षुको इसका व्याख्यान किया था । अतएव इनका समय उक्त आचार्योंसे पूर्व है । छनखंडागमके सूत्रोंके अध्ययन से भी यह अवगत होता है कि 'पेज्जदोसपा हुड' का प्रभाव इसके सूत्रों पर हैं । भाषाका दृष्टिसे भा छक्खंडागमकी भाषा कसस्यपाहुडकी भाषाको
१. इन्द्रनन्दि, श्रुतावतार पद्य १५९.
३० : तोर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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अपेक्षा अर्वाचीन है । अतः गुगधरका समय वि० पू० प्रथम शताब्दी मानना सर्वथा उचित है । जयधवलाकारने लिखा है
“ पुणो ताओ चैत्र सुलगााओ आइरियपरंपराएं आगच्छमाणीओ अज्जम - खुणा गहत्थीणं गत्ताओ । पुत्रो तेमि दोन्हं पि पादमूले असोदिसदगाहाणं गुणहर मुहकमलविणिग्गयाणमत्थं सम्मं सोऊण जयिवस भडारएण पवयण वच्छले चुणितं कथं ।
अर्थात् गुणधरानायके द्वारा १८० गाथाओं में कसायपाहुडका उपसंहार कर दिये जाने पर वे हा सूत्रगाथाएँ आचार्य परम्परासे आती हुई आयमक्षु और नागस्तिको प्राप्त हुईं। पश्चात् उन दोनों ही आचार्य के पादमूलमें बैठकर गुणधराचार्य के मुखकमलसे निकली हुई उन १८० गाथाओंके अर्थको भले प्रकारसे श्रवण करके प्रवचनवात्सल्य से प्रेरित हो यतिवृषभ भट्टारकने जनपर चूणिसूत्रोंकी रचना की । इस उद्धरण से यह स्पष्ट है कि आचार्य गुणधरने महान् विषयको संक्षेप में प्रस्तुत कर सूत्रप्रणालीका प्रवत्तन किया । गुणधर दिगम्बर परम्परा के सबसे पहले सूत्रकार हैं ।
रचना
गुणधराचार्यने 'कसायपाहुड', जिसका दूसरा नाम 'पेज्जदोसपाहुड' भी है, की रचना की है । १६०० विषयको संक्षेप में एकसौ
अस्सी गाथाओं में ही उपसंहृत कर दिया है ।
'पेज' शब्दका अर्थ राग है । यतः यह ग्रन्थ राग और द्वेषका निरूपण करता है । क्रोधादि कषायको रागद्वेष परिणति और उनकी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग एवं प्रदेशबन्ध सम्बन्धी विशेषताओं का विवेचन हो इस ग्रन्थका मूल वर्ण्य विषय है। यह ग्रन्थ सूत्रोलीमें निबद्ध है । गुणधरने गहन और विस्तृत विषयको अत्यन्त संक्षेपमें प्रस्तुत कर सूत्रपरम्पराका आरंभ किया है। उन्होंने अपने ग्रन्थके निरूपणकी प्रतिज्ञा करते हुए गाथाओंको सुनगाहा कहा हैगाहासदे असीदे अत्थे पण्णरसधा वित्तम्मि | वोच्छामि सुत्तगाहा जयि गाहा
―
अम् ॥ २ ॥
स्पष्ट है 'कसायपाहुड' की शैली गाथासूत्र शैली है। प्रश्न यह है कि इन गाथाओं को सूत्रगाथा कहा जाय अथवा नहीं ? विचार करनेसे ज्ञात होता है कि 'कसायपाहूड' की गाथाओं में सूत्रशैलीके सभी लक्षण समाहित है। इस
१. फसायपाहुडसुत, भाग १ ० ८८. १. कसायाहुत गाथा २.
श्रुतघर और सारस्वताचार्य ३१
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ग्रन्थकी जयधवला-टीकामें आचार्य वीरसेनने आगमदष्टिसे सूत्रशैलीका लक्षण बतलाते हुए लिखा है
सुत्तं गणहरकहियं तहेय पत्तेयबुद्धकहियं च ।
सुदकेवलिणा कहियं अभिण्णदसपुब्धिकहियं च ॥' अर्थात् जो गणघर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली और अभिन्नदसपूर्वियों द्वारा कहा जाम नहर है।
अब यहाँ प्रश्न यह है कि गणधर भट्रारक न तो गणधर हैं, न प्रत्येकबुद्ध हैं, न श्रुतकेवली हैं और न अभिन्नदशपूर्शी हैं। अतः पूर्वोक्त लक्षणके अनुसार इनके द्वारा रचित गाथाओंको सूत्र कैसे माना जाय ? इस शंकाका समाधान करते हुए प्राचार्य वीरसेनने लिखा है कि आगमदष्टिसे सत्र न होने पर भी शेलीको दृष्टिसे ये सभी गाथाएँ सूत्र हैं--'इदि वयणादो णेदाओ गाहाओ सुत्तं गणहर-पत्तेयबुद्ध-सूदकेवलि-अभिण्णदसपूवीसु गुणहरभडारयस्स अभावादी; ण, णिद्दोसापक्व र सहेजपमाहि सुत्तेण सित्तमत्यि त्ति सुत्तत्तुवलंभादो।' अर्थात् गुणधर भट्टारकको गाथाएं निर्दोष, अल्पाक्षर एवं सहेतुक होनेके कारण सूत्रके समान हैं।
सूत्रशब्दका वास्तविक अर्थ बाजपद है। तीर्थकरके मुखसे निस्सृत बोजपदोंको सूत्र कहा जाता है और इस सूत्रके द्वारा उत्पन्न होनेवाला ज्ञान सुत्रसम कहलाता है
'इदि वयणादा तिस्थयरबयणचिणिम्गयबीजपदं सुत्तं । तेण सुत्तेण समं वट्टीद उप्पदि त्ति गणहरदेवम्मि टिदसुदणाणं सुत्तसम' ।'
बन्धन अनुयोगद्वारमें सूत्रका अर्थ श्रुतकेवली या द्वादशांगरूप शब्दागम लिया गया है और ध्रुतकेचलीके समान श्रुतज्ञानको भी सूत्रसम कहा है; पर कृतियनुयोगद्वारमें जो सूत्रको परिभाषा बतलाया गया है उसके अनुसार द्वादशांगका सूत्रागममें अन्तर्भाव न होकर ग्रन्थागममें अन्तर्भाव होता है। यतः कृतिअनुयोगद्वारमें गणधर द्वारा रचे गये द्रव्यश्रुतको ग्रन्थागम कहा है। ___ आचार्य वीरसेनका अभिमत है कि सूत्रको समग्र परिभाषा जिनेन्द्र द्वारा कथित अर्थपदोंमें ही पायी जाती है. गणधरदेवके द्वारा ग्रथित द्वादशांगमें नहीं । इस विवेचनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि यद्यपि गुणधर आचार्य द्वारा विरचित 'कमायपाहुड' में आगमसम्मत सूत्रकी परिभाषा घटित नहीं होती; पर १. जयधवलाटीका, प्रथम खण्ड, १० १५३. २. कृति अ० १० आ. पृ० ५५६ । ३२ : तीर्थकर महावोर और उनकी आनार्य-परम्परा
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सूत्रशैलीके समस्त लक्षण इसमें समाहित हैं । आचार्यं वीरसेनने जयधवलामें 'कसायपाहुढ' को सूत्रग्रन्थ सिद्ध करते हुए लिखा है
" एवं सव्वं पि सुत्तलक्षणं जिणवयणकमल विणिग्गय अत्यपदाणं चैव संभवइ, ण गणहरमुह विणिग्गयगंथरयणाए तत्थ महापरिमाण तुबलंभादो; ण; सच्च (सुत्त) सारिच्छमस्सिदूण तत्थ वि सुत्तत्तं पडि विरोहाभावादी ।""
अर्थात् सूत्रका सम्पूर्ण लक्षण तो जिनदेवके मुखकमलसे निस्सृत अर्थपदों में ही संभव है, गणधर के मुखकमलसे निकली हुई रचनामें नहीं; क्योंकि गणधर - की रचनाको परिमाण है। ना होनेपर भी गणधर के वचन भी सूत्र के समान होनेके कारण सूत्र कहलाते हैं । अतः उनकी ग्रन्थरचनामें भी सूत्रत्वके प्रति कोई विरोध नहीं है । गणधरवचन भी बीजपदोंके समान सूत्ररूप है । अतएव गुणधर भट्टारककी रचना 'कसायपाहूड' में सूत्रशैलीके सभी प्रमुख लक्षण घटित होते हैं । यहाँ विश्लेषण करनेपर निम्नलिखित सूत्र लक्षण उपलब्ध हैं
१. अर्थमत्ता
२. अल्पाक्षरता ३. असंदिग्घता
४. निर्दोषता
५. हेतुमत्तत्ता
६. सारयुक्तता
७. सोपस्कारता
८. अनवद्यसा ९ प्रामाणिकता
स्पष्ट है कि कसा पाहुडकी गाथाओंकी शैली सूत्रशैली है। इस ग्रन्थ में १८० + ५३ = २३३ गाथाएँ हैं। इनमें १२ गाथाएँ सम्बन्धज्ञापक है, छः गाथाएँ अद्धापरिमाणका निर्देश करती हैं और ३५ गाथाएँ संक्रमणवृत्तिसे सम्बद्ध हैं। जयधवला के अनुसार ये समस्त २३३ गाथाएं आचार्य गुणधर द्वारा विरचित हैं । यहाँ यह शंका स्वभावतः उत्पन्न होती है कि जब ग्रन्थ में २३३ गाथाएँ थीं, तो ग्रन्थ के आदिमें गुणधराचार्यने १८० गाथाओंका हो क्यों निर्देश किया ? आचार्य वीरसेनने इस शंकाका समाधान करते हुए बताया है कि १५ अधिकारोंमें विभक्त होनेवाली गाथाओंकी संख्या १८० रहनेके कारण गुणधराचार्यने
१. जयघवला प्रथम भाग, पृ० १५४.
"
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१८० गाथाओंकी संख्या निर्दिष्ट की है। सम्बन्ध-गायाएं तथा अवापरिमाणनिर्देशक गाथाएं इन १५ अधिकारों में सम्मिलित नहीं हो सकती हैं । अतः उनकी संख्या छोड़ दी गयी है ।। ___ आचार्य वीरसेनने पुनः शंका उपस्थित की है कि संक्रमण सम्बन्धी ३५ गाथाएं बन्धक नामक अधिकारमें समाविष्ट हो सकती हैं, तब क्यों उनकी गणना उपस्थित नहीं की? इस शंकाका समाधान करते हुए उन्होंने लिखा है कि प्रारंभके पांच अर्थाधिकारों में केवल तीन ही गाथाएं हैं और उन तीन गाथाओंसे निबन हए पांच अधिकारोंमेसे बन्धक नामक अधिकारसे ही उक्त ३५ गाथाएं सम्बद्ध हैं। अतः इन ३५ गाथाओंको १८० गाथाओंकी संख्यामें सम्मिलित करना कोई महत्त्वकी बात नहीं है। हमारा अनुमान है कि जिन ५३ गाथाओंकी गणना आचार्य गुणधरने नहीं की है वे गाथाएं संभवतः नागहस्तिद्वारा विरचित होनी चाहिए । हमारे इस अनुमानकी पुष्टि जयधवलासे भी होती है। जयधवलामें' मतान्तरसे उक्त ५३ गाथाओंको नागहस्तिकृत माना है।
एक बात यह भी विचारणीय है कि सम्बन्धनिर्देशक १२ गाथाओं और अद्धापरिमाणनिर्देशक छ: गाथाओं पर यत्तिवृषभके चूर्णिसूत्र भी उपलब्ध नहीं हैं । यदि ये गाथाएं गुणधर भट्टारक द्वारा विचित होती तो यतिवृषभ इनपर अवश्य ही मूर्णिसूत्र लिखते । दूसरी बात यह कि संक्रमणसे सम्बद्ध ३५ गाथाओंमेंसे १३ गाथाएँ शिवशर्म रचित कर्मप्रकृतिमें भी पायी जाती हैं 1 यह सत्य है कि उक्त तथ्योंसे ५३ गाथाओंके रचयिता नागहस्ति सिद्ध नहीं होते, पर इसमें आशंका नहीं कि उक्त ५३ गायाएं गुणधर भट्टारक द्वारा विरचित नहीं। यद्यपि आचार्य वीरसेनने व्याख्याकारों के मतोंको स्वीकार नहीं किया है तो भी समीक्षाको दृष्टिसे ५३ गाथाओंको गुणधर भट्टारक द्वारा विरचित नहीं माना जा सकता है। रचनाशैलीकी दृष्टिसे १८० गाथाओंकी अपेक्षा ५३ गाथाओंकी शैली भिन्न प्रतीस होती है । एक अनुमान यह भी है कि आचार्य गुणधरने १८० गाथाओंको १५ अधिकारों में विभक्त करनेवाली प्रतिज्ञा नहीं की है। उनकी प्रतिजा तो यह होनी चाहिए थी कि सोलह हजार पद प्रमाण कषायप्राभृतको एक-सौ अस्सी गाथाओंमें संक्षिप्त करता हूँ। वस्तुत: गुणधराचार्य कषाय१. 'असीदिसदगाहाओ मोसूण अबसेससंबंधद्धापरिमाणिहस्रसंक्रमणगाहाको जंग
जागहत्थियारियकयाओ तेण 'गाहासदे असोदे' ति मणिगुण गागत्पिारिएण पज्जा कदा इदि के वि वखाणाइरिया भणति, तण घडदे । सायपाहुड, प्रथम
भाग, पु० १८३. ३४ : तोथंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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प्राभूतको उपसंहृत करनेके लिए प्रवृत्त हुए थे, स्वरचित गाथाओंको अधिकारोंमें विभक्त करनेके लिए नहीं ।
'सप्तेदा गाहाओ'; 'एदाओ सुप्त गाहाओं' आदि पदोंसे यह ध्वनित होता है कि इन गाथाओंकी रचनासे पूर्व मूलगाथाओं और भाष्यगाथाओंकी रचना हो चुकी थो । अन्यथा अमुक गाथासूत्र है, इस प्रकारका कथन संभव हो नहीं था । अतएव व्याख्याकारोंके, 'गाहासदे असीदे' प्रतिज्ञावाक्य नागहस्तिका है, इस अभिमतको सर्वथा उपेक्षणीय नहीं माना जा सकता है ।
कसा पाहुडमें १५ अधिकार हैं जो निम्न प्रकार हैं
१. प्रकृति-विभक्ति अधिकार
२. स्थिति-विभक्ति अधिकार
३. अनुभाग- विविध अधिका
४. प्रदेश - विभक्ति - शीणाझीण स्थित्यन्तिक
५. बंधक अधिकार
६. वेदक अधिकार
७. उपयोग अधिकार
८. चतुःस्थान अधिकार ९. व्यञ्जन अधिकार
१०. दर्शन मोहोपशमना अधिकार ११. दर्शनमोक्षपणा अधिकार १२. संयम संयम लब्धि अधिकार १३. संयमलब्धि अधिकार १४. चारित्रमोहोपशमना
१५. चारित्रमोहक्षपणा
१. प्रकृति-विभक्ति - अधिकारका अन्य नाम 'पेज्जदोस- विभत्ति' है । यतः कषाय पेज्ज - राग या द्वेषरूप होती है। चूर्णिसूत्रों में क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायोंका विभाजन राग और द्वेषमें किया है। नैगम और संग्रह की दृष्टिसे क्रोध और मान द्वेषरूप हैं तथा माया और लोभ रागरूप हैं। व्यवहारनय मायाको भी द्वेषरूप मानता है । यतः लोकमें मायाचारीकी निन्दा होती है । ऋजुसूत्रनय कोषको द्वेषरूप तथा लोभको रागरूप मानता है। मान और माया न तो रागरूप हैं और न द्वेषरूप ही; क्योंकि मान क्रोधोत्पत्तिके द्वारा द्वेषरूप है तथा माया लोभोत्पत्ति के कारण रागरूप हैस्वयं नहीं । अतः इस परम्पराका व्यवहार ऋजुसूत्रतयकी सीमामें नहीं आता ।
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तीनों शब्दनय चारों कषायोंको द्वेषरूप मानते हैं क्योंकि उनसे कर्मों का आसव होता है। राग और हषोंका विवेचन हा अनुयायण है— एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल और अन्तर तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भागाभागानुगम और अल्पबहुत्वानुगम ।
२. स्थिति-विभक्ति - आत्माकी शक्तियोंको आवृत्त करनेवाला कर्म कहलाता है । यह पुद्गन्यरूप होता है। इस लोक में सूक्ष्म कर्मपुद्गलस्कन्ध भरे हुए हैं जो इस जीवकी कायिक, वाचनिक और मानसिक प्रवृत्तिके साथ आकृष्ट होकर स्वतः आत्मासे बद्ध हो जाते हैं । कर्मपरमाणुओं को आकृष्ट करनेका कार्य योग द्वारा होता है। यह योग मन, वचन, काय रूप है। इस योगकी जैसी शुभाशुभ या तीव्र - मन्दरूप परिणति होती है उसीप्रकार कर्मों का आस्रव होता है । कषायके कारण कर्मों में स्थिति और अनुभाग उत्पन्न होते हैं । जब फर्म अपनी स्थिति पूरी होनेपर उदयमें आते हैं तो इष्ट या अनिष्ट फल प्राप्त होता है । इसप्रकार जीव पूर्ववद्ध कर्मके उदयसे क्रोधादि कषाय करता है और उससे नवीन कर्मका बन्ध करता है । कर्मसे कषाय और कषायसे कर्मबन्धकी परम्परा अनादि है ।
कबन्धके चार भेद हैं-- १. प्रकृतिबन्ध, २. स्थितिबन्ध, ३ अनुभागबन्ध, ४. प्रदेशबन्ध | कर्मोंमें ज्ञान दर्शनादिको रोकने और सुख-दुःखादि देने का जो स्वभाव पड़ता है उसे प्रकृतिबन्ध कहते हैं । कर्म बन्धनेपर कितने समय तक आत्मा के साथ बद्ध रहेंगे उस समयकी मर्यादाका नाम स्थितिबन्ध है । कर्म तीव्र या मन्द जैसा फल दें उस फलदानको शक्तिका पड़ना अनुभागबन्ध है । कर्मपरमाणुओं की संख्या के परिमाणका नाम प्रदेशबन्ध है । प्रकृति और प्रदेशनन्ध योग - मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिसे होते हैं। तथा स्थिति और अनु भागबन्ध काय होते हैं ।
स्थिति-विभक्तिनामक. इस द्वितीय अधिकार में स्थितिबन्ध के साथ प्रकृतिबन्धका भी कथन सम्मिलित है। प्रकृति और स्थितिबन्धका एक जीवकी अपेक्षा कथन स्वामित्व, काल, अन्तर, नानाजीवोंकी अठेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर, भागाभाग और अल्पबहुत्वकी दृष्टिसे किया है। कसायपाहुडमें मोहनीयकर्मका वन विशेष रूपसे आया है। इस अधिकारमें प्रकृति-विभक्ति के दो भेद किये हैं । प्रथम मेद मूलप्रकृति मोहनीयकर्म है और द्वितीय भेद उत्तरप्रकृतिमें मोहनीय कर्मकी उत्तरप्रकृतियाँ ग्रहण की गई हैं। इसप्रकार विभिन्न अनुयोगों द्वारा स्थिति-विभक्ति में चौदह मार्गणाओंका आश्रय लेकर मोहनीयके २८ भेदोंकी
३६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति बतलायी गई है । अद्धाच्छेद, सर्वविभक्ति, नोसर्वविभक्ति, उत्कृष्टविभक्ति, अनुत्कृष्टविभक्ति, जयन्यविभक्ति, अजघन्यविभक्ति, सादिविभक्ति, अनादिविभक्ति, ध्रुवविभक्ति, अध्रुवविभक्ति आदिका कथन किया है ।
३. अनुभाग-विभक्ति-अधिकारमें कर्मोंको फलदान - शक्तिका विवेचन किया गया है । आचार्यने यहाँ उस अनुभागका विचार किया है जो बन्धसे लेकर सत्ताके रूपमें रहता है । वह जितना बन्धकालमें हुआ उतना भी हो सकता है और होनाधिक भी संभव है । उसके दो भेद हैं- १. मूलप्रकृति - अनुभागविभक्ति और २ उत्तरप्रकृति अनुभागविभक्ति । इस सबका वर्णन संक्षेपमें किया है। इस अधिकारमें संज्ञाके दो भेद किये हैं- १. घातिसंज्ञा और २. स्थानसंज्ञा । मोहनीयकमंकी घातिसंज्ञा है क्योंकि वह जीवके गुणोंका घातक है । घातीके दो भेद हैं- सर्वघाती वाती | मोहाड अनुभाग सबंधाती है और अनुत्कृष्ट अनुभाग सर्वघातो और देशघाती दोनों प्रकारका है। इसी तरह जघन्य अनुभाग और अजघन्य अनुभाग देशघाती मौर सर्वघाती दोनों प्रकारका है। स्थान अनुभागके चार प्रकार है-- एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक । इस प्रकार अनुभाग विभक्ति में अनुभाग के विभिन्न भेद-प्रभेदों का कथन किया है ।
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४. प्रदेश - विभक्ति - कर्मों का बन्ध होनेपर तत्काल बन्धको प्राप्त कर्मों को जो द्रव्य मिलता है उसे प्रदेश कहते हैं। इसके दो भेद हैं- प्रथम बन्धके समय प्राप्त द्रव्य और द्वितीय बन्ध होकर सत्ता में स्थित द्रव्य । कसायपाहुडमें इस द्वितीयका हो निरूपण आया है । मोहनीय कर्मको लेकर स्वामित्व, काल, अन्तर, भंगविचय आदि दृष्टियोंसे विचार किया है । अनुभाग के दो प्रकार हैजीव भागाभाग और प्रदेशभागाभाग | पहले की चर्चा में कहा है कि उत्कृष्टप्रदेश - विभक्ति वाले जीव सब जीवोंके अनन्तमें भाग प्रमाण है । और अनुत्कृष्टप्रदेश-विभक्त्ति वाले जीव सब जीवोंके अनन्त बहुभाग प्रमाण हैं । इस प्रकार इस प्रदेश विभक्ति अधिकारमें उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण प्रभूति कर्मों को स्थितियों का भी विचार किया गया है ।
५. बंधक-अधिकार में कर्मवगंणाओंका मिध्यात्व अविरति आदिके निमित्तसे प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे चार प्रकारके कर्मरूप परिणमनका कथन आया है । इस अधिकार में बन्ध और संक्रम इन दो विषयोंका व्याख्यान किया है । गुणधर भट्टारकने इस बन्धक अधिकारमें संक्रमका भी अन्तर्भाव किया है । बन्धके दो भेद बताये हैं - १. अकर्मबन्ध और २. कर्मबन्ध | जो कार्याणवर्गणाएं कर्मरूप परिणत नहीं हैं उनका कर्मरूप परिणत होना अकर्म
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बन्ध है और कर्मरूप परिणत पुद्गलस्कन्धोंका एक कर्मसे अपने सजातीय अन्य कर्मरूप परिणमन करना कर्मबन्ध है। यह द्वितीय कर्मबन्ध भेद ही संक्रमरूप है। यही कारण है कि इस बन्धक अधिकारमें बन्ध और संक्रम इन दोनोंका समावेश हो जाता है । आचार्यने 'कदि पयडीओ बन्धदि' आदि २३ संख्यक गाथामें इस अधिकारका वर्णन किया है।
६. वेदक अधिकार इस आंधकारमें बताया है कि यह संसारो जोव मोहनीयकर्म और उसके अवान्तर भेदोंका कहाँ कितने काल तक सान्तर या निर. न्तर किस रूपमें वेदन करता है | इस अधिकारके दो भेद हैं-उदय और उदोरणा । उदीरणा सामान्यतः उदयविशेष हो है; किन्तु इन दोनोंमें अन्तर यह है कि कर्मों का जो यथाकाल फलविपाक होता है उसकी उदयसंज्ञा है और जिन कर्मो का उदयकाल प्राप्त नहीं हुआ उनको उपायविशेषसे पचाना उदोरणा है । इस अधिकारको गुणधरने चार गाथासूत्रोंमें निबद्ध किया है। यहाँ उदोरणा, उदय और कारणभत बाह्य सामग्रीका निर्देश किया गया है। प्रथम पाद द्वारा उदीरणा सुचित की गयी है । द्वितीय पाद द्वारा विस्तार सहित उदय सूचित किया है और शेष दो पादों द्वारा उदयालिके भीतर प्रविष्ट हई उदयप्रकृत्तियों और अनुदयप्रकृतियोंको ग्रहण कर प्रवेशसंज्ञावाले अर्थाधिकारका सूचन किया है। ____ गाथाके पूर्वार्द्धका स्पष्टीकरण करनेके पश्चात् उत्तरार्द्ध में बताया है कि क्षेत्र, भव, काल और पुद्गलोंको निमित्त कर कर्मों का उदय और उदोरणारूप फलविपाक होता है। यहां क्षेत्रपदसे नरकादिगतियोंका क्षेत्र, भवपदसे एकइन्द्रियादि पर्यायोंका, कालपदसे वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा आदिका एवं पुद्गलपदसे अन्ध, ताम्बूल, वस्त्र, आभरण आदि पुद्गलोंका ग्रहण किया है। ___ उदीरणाके समग्र विवेचन के पश्चात् माथाके उत्तरार्द्धमें उदयका कथन किया है । उदीरणाके मूलप्रकृति उदोरणा और उत्तरप्रकृति उदोरणा ये दो भेद किये गये हैं। उत्तरवर्ती टोकाकारोंने १७ अनुयोगवारोंका आश्रय लेकर उदीरणाओंका विस्तृत विवेचन किया है।
वंदक अधिकारको दूसरी गाथाका दूसरा पाद है 'को व केय अणुभागे' अर्थात् कौन जीव किस अनुभागमें मिथ्यात्व आदि फर्मों का प्रवेशक है। गाथासूत्रके इस पादको व्याख्या चूर्णिसूत्रकार और टीकाकारोंने विस्तारपूर्वक की है।
७. उपयोगाधिकार में जीवके क्रोध, मान, मायादिरूप परिणामोंको उपयोग कहा है। इस अधिकारमें चारों कषायोंके उपयोगका वर्णन किया गया है । और बतलाया है कि एक जीवके एक कषायका उदय कितने काल तक रहता ३८ : तीथंकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा
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है और किस गत्तिके जीवके कौन-सी कषाय बारबार उदयमें आती है। एक भवमें एक कषायका उदय कितने बार होता है और एक कषायका उदय कितने भवों तक रहता है। जितने जीव वर्तमान समयमें जिस कषायसे उपयुक्त हैं क्या वे उत्तने ही पहले उसी कषायसे उपयुक्त थे? और आगे भी क्या उपयुक्त रहेंगे ? आदि कषायविषयक शासष्य बातोंका विवेचन इस अधिकारमें किया है।
८. चतुःस्थान अधिकार-वातियाकर्मों की फलदानशक्तिका विवरण लता, दारु, अस्थि और शेलरूप उपमा देकर किया गया है। इन्हें क्रमशः एकस्थान, द्विस्थान, त्रिस्थान और चतुःस्थान भी कहा गया है।
इस प्रस्तुत अधिकारके नामकरणका कारण भी उक्त चार स्थानोंका रहना हो है। उपमाओं द्वारा क्रोधको पाषाणरेखाके समान, पृथ्वीरेखाके समान, बालरेखाके समान और अलरेखाके समान बसाया है। जिस प्रकार जलमें खोपी हुई रेस्वः सुरत हिट होती है और बाणु, मृत्यी और पाषाणपर खीधीं गई रेखाएँ उसरोत्तर अधिक समयमें मिटती हैं, उसी प्रकार हीनाधिक कालकी अपेक्षासे क्रोधके भी चार स्थान हैं । इसी क्रमसे मान, माया और लोभके भी चार-चार स्थानोंका निरूपण किया है । इसके अतिरिक्त चारों कषायोंके सोलह स्थानोंमेंसे कौन-सा स्थान किस स्थानसे अधिक होता है और कोन किससे हीन होता है, कोन स्थान सर्वघाती है, कोन स्थान देशघाती है ? आदिका विचार किया गया है।
९. व्यञ्जन अधिकार-व्यञ्जनका अर्थ पर्यायवाची शब्द है। इस अधिकारमें क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों हो कषायोंके पर्यायवाचक शब्दोंका प्रतिपादन किया गया है। क्रोधके पर्याय रोष ,अक्षमा, कलह, विवाद आदि बतलाये हैं। मानके पर्याय, मान, मद, दर्प, स्तम्भ, परिभव तथा मायाके, माया, निकृति, वंचना, सातियोग और अनऋजुता आदि बतलाये गये हैं। लोभके पर्यायोंमें लोभ, राग, निदान, प्रेयस, मी आदि बतलाये गये हैं ! इस प्रकार विभिन्न पर्यायवाची शब्दों द्वारा कषायविषयोंपर विचार-विमर्श किया गया है।
१०. दर्शनमोहोपशमनाधिकार-जिस कर्मके उदयमें आनेपर जीवको अपने स्वरूपका दर्शन-साक्षात्कार और यथार्थ प्रतीति न हो उसे दर्शनमोहकर्म कहते हैं । इस कर्मके परमाणुओंका एक अन्तर्मुइसके लिए अभाव करने या उपशान्तरूप अवस्था करनेको उपशम कहते हैं । इस दर्शनमोहके उपशमनकी अवस्था में
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जीवको अपने वास्तविक स्वरूपका एक अन्तर्महूर्तके लिए साक्षात्कार हो जाता है । इस साक्षात्कारकी स्थितिमें जो उसे आनन्द प्राप्त होता है वह अनिर्वचनीय है । दर्शनमोहके उपशमन करने वाले जीटके परिणाम कैसे होते हैं, उसके कौन-सा योग होता, कौन-सा उपयोग रहता है। कौन-सी कषाय होती है और कौन-सी लेश्या, आदि बातोंका निरूपण करते हुए उन परिणामविशेषोंका विस्तारसे वर्णन किया गया है। दर्शनमोहके उपशमको चारों गतियोंके ही जीव कर सकते हैं। पर उन्हे संज्ञी, पञ्चेन्द्रिय और पर्याप्तक होना चाहिए। इस अधिकारके अन्तमें प्रथमोपशम-सम्यक्त्वीके विशिष्ट कार्यों और अवस्थाओंका वर्णन भी आया है।
११. दर्शनमोक्षपणा अधिकार-दर्शनमोहकी उपशम अवस्था अन्तमहत तक ही रहती है। इसके पश्चात् वह समाप्त हो जाती है। और जीव पुनः आत्मदर्शनसे वंचित हो जाता है । आत्मसाक्षात्कार सर्वदा बना रहे, इसके लिए दर्शन प्रोडका क्षय आवश्यक है। इसके लिये उिन प्रमुख बातोंको आवश्यकता होती है उन सबका विवेचन इस अधिकारमें किया गया है । दर्शनमोहके क्षयका प्रारम्भ कर्मभूमिमें उत्पन्न मनुष्य ही कर सकता है और इसकी पूर्णता चारों गतियों में की जा सकती है । दर्शनमोहके क्षपणका काल अन्तर्मुहर्त है। इस क्षपणक्रियाके समाप्त होनेके पूर्व हो यदि उस मनुष्यको मृत्यु हो जाय तो वह अपनी आयुबन्धके अनुसार यथासंभव चारों ही गतियोंमें उत्पन्न हो सकता है। दर्शनमोहके क्षपणका प्रारम्भ करने वाला मनुष्य अधिकसे-अधिक तीन भव और धारण करके मुक्तिलाभ करता है । इस अधिकारमें दर्शनमोहक क्षपण की प्रक्रिया और तत्सम्बन्धी साधन-सामग्रीका निरूपण किया गया है।
१२, संयमासंयमलब्धि अधिकार-आत्मस्वरूपका साक्षात्कार होते ही जीव मिथ्यात्वरूप पंकसे निकलकर निर्मल सरोवरमें स्नान कर आनन्दमें निमग्न हो जाता है । उसको विचारधारा सांसारिक विषयवासनासे दुर हो संयमासंयमकी प्राप्तिकी ओर अग्रसर होती है। शास्त्रीय परिभाषाके अनुसार अप्रत्याख्यानावरणकषायके उदयके अभावसे देशसंयमको प्राप्त करने वाले जीवके जो विशुद्ध परिणाम होते हैं उसे संयमासंयमलब्धि कहते हैं। इसके निमित्तसे जोब श्रावकके व्रतोंको धारण करने में समर्थ होता है। इस अधिकारमै संयमासंयमलब्धिके लिये आवश्यक साधन-सामग्रियोंका विस्तारपूर्वक कथन किया है।
१३. संयमलब्धि अधिकार-प्रत्याख्यानावरणकषायके अभाव होनेपर आत्मामें संयमलब्धि प्रकट होती है, जिसके द्वारा आत्माको प्रवृत्ति हिंसादि ४० : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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पाँच पापोंसे दूर होकर अहिंसादि महावतोंके धारण और पालनको होती है । संयमासंयम अधिकारकी गाथा ही इस अधिकारको गाथा है । संयमके प्राप्त कर लेनेपर भी कषायके उदयानुसार जो परिणामोंका उतार-चढ़ाव होता है उसका प्ररूपण अल्पबहुत्व आदि भेदों द्वारा किया गया है | इस लब्धिका वर्णन चूणिसूत्रकारने अधःकरण और अपूर्वकरणके विवेचन द्वारा किया है, जो अध्यात्मप्रेमी उपशमसम्यक्त्वके साथ संघमासंयम धारण करते हैं उनके तीनों करण होते हैं, पर जो वेदकसम्यकदृष्टि संयमासंयमको धारण करते हैं उनके दो ही करण होते हैं। संयमको धारण करनेके लिये आवश्यक सामग्रीका भी कथन किया गया है।
१४. चारित्रमोहोपशमनाधिकार-इस अधिकारमें प्रथम आठ गाथाएं आती हैं । पहली गाथाके द्वारा उपशमना कितने प्रकारको होती है, किस-किस कर्मका उपशम होता है आदि प्रश्न किये गये हैं। दूसरी गाथाके द्वारा निरुद्ध चारित्रमोहप्रकृतिको स्थिति के कितने भागका उपशम करता है, कितने भागका संक्रमण करता है और कितने भागका उदीरणा करता है इत्यादि प्रश्नोंकी अवतारणा की गयी है। तीसरी गाथाके द्वारा चारित्रमोहनीयका उपशम किसने कालमें किया जाता है उसो उपशमित प्रकृतिको उदोरणा-संक्रमण कितने काल तक करता है इत्यादि प्रश्न किये गये हैं। चौथी गाथाके द्वारा आठ करणोंमेसे उपशामकके कब, किस करणसे व्यछित्ति होती है या नहीं इत्यादि प्रश्नोंका अवतार किया गया है। इस प्रकार चार गाथाओंके द्वारा उपशामकके और शेष चार गाथाओंके द्वारा उपशामकके पतनके सम्बन्धमें प्रश्न किये गये हैं।
१५. चारित्रमोहक्षपणाधिकार-यह अन्तिम अधिकार बहुत विस्तृत है । इसमें चारित्रमोहनीयकर्मके क्षयका वर्णन विस्तारसे किया है । यहाँ यह ध्यातव्य है कि चारित्रमोहनीयका क्षय अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरपके बिना संभव नहीं है । इस अधिकारमें २८ मूलगाथाएं हैं और ८६ भाष्यगाथाएं हैं। इस प्रकार कुल ११४ गाथाओंमें यह अधिकार व्याप्त है। इनमेंसे चार सूत्रगाथाएं अधःप्रवृत्तिकरणके अन्तिम समयसे प्रतिबद्ध हैं 1 इनके आधारपर चूणिसूत्रों और जयषवलामें योग और कषायोंको उत्तरोत्तर विशुद्धिका चित्रण किया गया है। आशय यह है कि चारित्रमोहनीयकर्मको प्रकृतियोंका क्षय किस क्रमसे होता है और किस-किस प्रकृतिके क्षय होनेपर कहाँपर कितना स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्व रहता है इत्यादि बातोंका वर्णन इस अधिकारमें आया है । ध्यान और कषायक्षयको प्रक्रिया भी इस अधिकारमें वर्णित है।
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गुणधरकी रचना-शक्ति और प्रतिभा
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हायपाहुका विश्वाचार्यको कर महावीरकी आरातीयपरम्परासे प्राप्त हुआ है। वीरसेनाचार्यने जयघवला टीका में लिखा है। "एदम्हादो विउलगिरिमत्थयत्थवढमाणदिवाय रादो विणिग्यमिय गोदमलोहज्ज - जंबुसामियादि आइरियपरंपराए आगंतूण गुणहराइरियं पाविय गाहासवेण परिणमिय" अर्थात् विपुलाचलके शिखरपर विराजमान वर्धमान दिवाकरसे प्रकट होकर गौतम, लोहाचार्य, जम्बूस्वामी आदिकी आचार्य परम्परासे आकर गुणधरको 'कम्मपर्याsपाहुड' का ज्ञान प्राप्त हुआ और उन्होंने गाथारूपमें इस ज्ञानका प्रतिपादन किया | स्पष्ट है कि आचार्य गुणधरको केवलियोंकी परम्परासे ज्ञान प्राप्त हुआ था । आचार्य गुणधर सूत्ररचनाशैली के प्रकाण्ड विद्वान् हैं । घवलाटीकामें आचार्य वीरसेनने उन्हें वाचक कहा है और वाचकका अर्थ पूर्वविद् लिया है । अतएव इनकी रचना-प्रतिभा मंजुल अर्थको संक्षेपमें प्रस्तुत करनेकी थी | वस्तुतः माचार्य गुणधर कम्मपथडिपाहुड' के ज्ञाता होनेके साथ ही अत्यन्त प्रतिभाशाली और विषर्यावशेषज्ञ विद्वान् थे । इनके कसायपाहुडकी प्रत्येक गाथाके एक-एक पदको लेकर एक-एक अधिकारका रचा जाना तथा तीन गाथाओंका पाँच अधिकारों में निबद्ध होना ही इनकी प्रतिभा की गंभीरता और अनन्तअर्थंग भिताकी अभिव्यक्तिको सूचित करता है। वेदक अधिकारकी 'जो जं संकामेदि य' (गाथाङ्क ६२) गाथाके द्वारा चारों प्रकारके बन्ध, चारों प्रकार के संक्र मण, चारों प्रकार के उदय, चारों प्रकारको उदीरणा और चारों प्रकारके सत्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्वकी सूचना निश्चयतः उसके गाम्भीर्य और अनन्तार्थगभिस्वकी साक्षी है । अर्थबहुलताको दृष्टिसे गुणधरकी शैली अत्यन्त गंभीर है। गुणधरके इस ग्रन्थपर यदि चूर्णसूत्र न लिखे जाते तो उनका अर्थं पश्चाद्वर्ती व्यक्तियोंके लिये दुर्बोध हो जाता ।
आचार्य शिवशके 'कम्मपर्याड' और 'सतक' नामक दो ग्रन्थ आज उपलब्ध हैं । इन दोनों ग्रन्थोंका उद्गम स्थान 'महाकम्मपर्याडपाहुड' है । 'कम्मपर्याड' के साथ जब हम गुणधरके 'कषायपाहुड' की तुलना करते हैं तो हमें इन दोनों में मौलिक अन्तर प्रतीत होता है । कम्मरयडिमें महाकम्मपयडिपाहुडके चौबीस अनुयोगद्वारोंका समावेश नहीं है । किन्तु बन्धन, उदय और संक्रमगादि कुछ अनुयोगद्वार ही प्राप्त हैं । गुणधरने अपने 'कषायपाहुड' में समस्त 'पेज्जदोषपाहुड' का उपसंहार किया है । अतः यह स्पष्ट है कि 'कम्मपय डि' की रचना शिवशर्मने गुणधरके पश्चात् ही की है । 'कम्मपर्याड' और 'सप्तक' इन दोनों ग्रन्थों के अन्त में अपनी अल्पज्ञना प्रकट करते हुए शिवशने दृष्टिवादके ज्ञाता आचार्यों से उसे शुद्ध कर लेनेकी प्रार्थना की है।
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वस्तुत: 'कम्मपयडि' एक संग्रह अन्य है क्योंकि उसमें विभिन्न स्थानोंपर आई हुई प्राचीन गाथाएं दृष्टिगोचर होती हैं । कम्मपडिकी चणिमें उसके कनि उसे 'कम्मपडिसंग्रहिणी' नाम दिया है । इसी प्रकार 'ससक' चूणिमें भी उसे संग्रह-ग्रन्थ कहा है । गुणधरकी यह रचना मौलिक है तथा कर्म-सिद्धान्तको बोजरूपमें प्रस्तुत करती है ।
कषायपाहुड कम्मपडिसे पूर्ववर्ती है । कम्मपर्याडके संक्रमकरणमें कषायपाहड़के संक्रमअर्थाधिकारकी १३ गाथाएँ साधारण पाठभेदके साथ अनुक्रमसे ज्यों-की-त्यों उपलब्ध होती हैं । इसी प्रकार कम्मपयडिके उपशमकरणमें कषायपाहुडके दर्शनमोहोपशमना अर्थाधिकारको चार गाथाएं कुछ पाठभेदके साथ पायी जाती हैं। इससे स्पष्ट है कि आचार्य गुणधर केवली और श्रुतकेवलियोंके अनन्सर पहले पूर्वविद् हैं, जिन्होंने 'महाकम्मपडिपाहड'का संक्षेपमें उपसंहार किया । महान् अर्थको अल्पाक्षरों में निबद्ध करनेकी प्रतिभा उनमें विद्यमान थी। यही कारण है कि कसायपाहुडका उत्तरकालीन सभी वाङ्मयपर प्रभाव है। आचार्य धरसेन
धवलामें बताया गया है कि छपखंडागम विषयके ज्ञाता आचार्य धरसेन थे । सौराष्ट्र देशके गिरिनगर नामके नगरको चन्द्रगुफामें रहने वाले अष्टांगमहानिमित्त के पारगामी, प्रवचनवत्सल और अङ्गश्रुतके विच्छेदकी आशंकासे भीत धरसेनाचार्यने किसी धर्मोत्सव आदिके निमित्तसे महिमानामको नगरीमें सम्मिलित हुए दक्षिणापथके आचार्यो के पास एक पत्र लिखा । इस पत्रमें उन्होंने यह इच्छा व्यक्त की कि योग्य शिष्य उनके पास आकर षट्खण्डागमका अध्ययन करें। दक्षिण देशके आचार्यों ने शास्त्रके अर्थग्रहण और धारणमें समर्थ देश, कुल, शोल, और जातिसे उत्तम, समस्त कलाओं में पारंगत दो आचार्योंको वेणा नदीके तटसे आन्ध्रदेशसे भेजा । इन दोनोंने वहां पहुंचकर आचार्य धरसेनकी तीन प्रदक्षिणाएं दों और उनके चरणों में बैठकर सविनय नमस्कार किया । आचार्य धरसेनने उन दोनों योग्य शिष्योंकी परीक्षा ली और परीक्षामें उत्तीर्ण होनेके पश्चात् उन्हें सिद्धान्तकी शिक्षा दी। ये दोनों मुनि पुष्पदन्त और भूतबलि नामके थे । यह शिक्षा आषाढ शुक्ला एकादशीको ज्यों ही पूर्ण हुई, वर्षा कालके समीप आ जानेसे उसी दिन अपने पाससे धरसेनने उन्हें विदा कर दिया। दोनों शिष्यों ने गुरुको आज्ञा अनुल्लंधनीय मानकर उसका पालन किया और वहाँसे चलकर अंकलेश्वरमें चातुर्मास किया ।
इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार और विबुध श्रीधरकृत श्रुतावतारमें लिखा है कि
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धरसेनाचायको ज्ञात हुआ कि उनको मृत्यु निकट है। अतएव इन्हें उस कारण क्लेश न हो, इस लिए उन्होंने उन मुनियोंको तत्काल अपने पाससे विदा कर दिया।
"आत्मनो निकटमरण ज्ञात्वा धरसेन एतयोर्मा क्लेशो भवतु इति मत्या तन्मुनिविसर्जनं करिष्यति।"" ___संभव है कि भूतबाल और पुष्पदन्तके वहाँ रहनेसे आचार्यके ध्यान और तपमें विघ्न होता और विशेषतः उस स्थितिमें जबकि वे श्रुतरक्षाका अपना कर्तव्य पूरा कर चुके थे | आचार्य धरसेनकी यह इच्छा रही होगी कि उनके योग्य शिष्य यहाँसे जाकर श्रुतका प्रचार करें। जो भी हो, धवलामें आचार्य वीरसेनने परसेनका संक्षिप्त परिचय उक्त प्रकारसे प्रस्तुत किया है।
धवलाटीकासेर आनायं धरसेनके गुरुके नामका पता नहीं चलता । इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारमें लोहार्य तकको गुरुपरंपराक पश्चात् विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदत्त और अर्हद्दत्त इन चार आचार्योका उल्लेख आया है । ये सभी आचार्य अंगों और पूर्वोके एकदेशज्ञाता थे। तदनन्तर अर्हदबलिका उल्लेख आता है। ये बड़े भारी संघनायक थे और इन्होंने संघोंकी स्थापना की थी। अहंदुबलिके पश्चात् श्रुतावतारमें माघनन्दिका नाम आया है। इन माधनन्दिके पश्चात् ही घरसेनके नामका उल्लेख आया है । इस प्रकार श्रुतावतारमें अर्हद्बलि, माघनन्दि और धरसेन इन तीन आचार्यों का उल्लेख मिलता है । इन तीनोंका परस्परमें गुरुशिष्य सम्बन्ध था या नहीं, इसका निर्देश इन्द्रनन्दिने नहीं किया है।
नन्दिसंघको प्राकृतपट्टावलोसे यह अवगत होता है कि अर्हदलि, माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि एक दूसरेके उत्तराधिकारी हैं। अतएव धरसेनके दादागुरु अर्हबलि और गुरु माघनन्दि संभव हैं। नन्दिसंघकी संस्कृत
१. सिता तसारादिसंग्रह, धूतावतार, ग्रन्थांक २१, पृष्ठ ३१६. २. तेण वि सोरट्ठ-विसय-गिरिणयर-पट्टण-चंदगुहा-ठिएण मटुंगा-महाणिमित्त
पारएण गंथ-वोच्छेदो होहदि त्ति जाद-भएण परयण-मच्छलेण दक्षिणावहाहरियाणं महिमाए मिलियागं लेहो पेसियो 'सुट्ट भई' ति भणिऊण घरसैग-भारएग दो वि आसासिदा । तवो चितिर्द भयवशा...."पुणो सदिवसे चेव पेसिदा संतो 'गुरुवपणभलंणिज्ज' हवि मिक्तिकणागदेहि अंकुलेसरे बरिसावासो को "
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गुर्वावलिमें माघनन्दिका नाम आया है । गुर्वावलोके' आरम्भमें भद्रबाहु और उनके शिष्य गुप्तिगुप्तकी वन्दना की गयी है, किन्तु उनके नामके साथ संघ आदिका निर्देश नहीं है । वन्दनाके अनन्तर मूलसंघमें भन्दिसंघ-बलात्कारगणके उत्पन्न होनेके साथ ही माघनन्दिका नाम आया है। बहुत संभव है कि संघभेदव्यवस्थापक अर्हद्बलिने इन्हें ही नन्दिसंघका अग्रणी बनाया हो। माघनन्दिके नामके साथ नन्दिपव भी नन्दिसंघका द्योतक है । गुर्वाधली में धरसेनका निर्देश नहीं है । अतः इस गुर्वावलिके आधारपर यह निश्चितरूपसे नहीं कहा जा सकता है कि धरसेनके गुरु माघनन्दि थे । यह सत्य है कि धरसेन विद्यानुरागी थे और शास्त्राभ्यासमें संलग्न रहने के कारण संघका नायकत्व माघनन्दिके अन्य शिष्य जिनचन्द्रपर पड़ा हो । घरसेनने पुष्पदन्त और भूतबलिको सिद्धान्त-आगमका अध्ययन कराकर अपनी एक नयी परम्परा स्थापित की हो । माघनन्दिका निर्देश जंबुदीवपण्णत्तीमें भी पाया जासा है।
गयरायदोसमोहो सुदसायरपारओ मइपगम्भो ।। तवसंजमसंपण्णो विक्खाओ माधणंदिगुरू ॥ १५४ ।। तस्सेव य वरसिस्सो निम्मलवरणाणचरणसंजुत्तो ।
सम्म सणसुद्धो सिरिणंदिगुरू त्ति विक्खाओ ।। १५६ ॥ उपर्युक्त गुर्वावली और प्रशस्तिसे ध्वनित होता है कि धरसेनके गुरु संभवतः माघनन्दि थे । इन माघनन्दिके सम्बन्धमें एक किंवदंती मी प्रसिद्ध है, जिसमें उन्हें श्रुतका विशेषज्ञ तथा किसी कारणवश चरित्रस्खलनके पश्चात् पुनः दीक्षित होनेका निर्देश किया है। अस्तु, प्राकृतपट्टावली एवं इन्द्रनन्दिके श्रुतावत्तारके आधारपर धरसेनाचार्यके गुरु माघनन्दि और दारा गुरु अहंद्वलि होने चाहिए। समय-निर्णय
नन्दिसंघको प्राकृतपट्टावलीके अनुसार आचार्य धरसेनका समय वीर निर्वाण सं० ६१४के पश्चात् आता है । धरसेनके एक 'जोणिपाहुड' ग्रन्यका उल्लेख बृटिप्पणि नामक सूचीमें आया है। इस ग्रन्थका निर्माण वीर निक १. श्रीमानशेषनरनायकवन्दितानिः श्रीगुप्तिगुप्त इति विश्र तनामधेयः ।
यो भद्रबाहमुनिपुंगवपट्टपासूर्यः स त्रो दिशतु निर्मलसंघवृष्टिम् ।।१।। श्रीमूलसंजनि मन्दिसंघः अस्मिन्बलात्कारगणोऽस्तिरम्यः । तत्राभवत् पूर्वपदांशवेदी नोमाषनन्दोऽमरदेवबंध: ।।२।।
-जन सिद्धान्त भास्कर, भाग १, किरण ४, पृ० ५१. २. जम्ब दीवपणत्ती १३११५४, १५६ । ३. योनिप्राभृतं वोरात् ६०० घारसेनम्, जैन साहित्य संशोधक १,२ (परिशिष्ट)
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सं० ६०० के पश्चात् हुआ माना गया है। इसी ग्रन्थकी एक पाण्डुलिपि भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट पूनामें है । इस प्रतिमें ग्रन्थका नाम तो 'योनिप्राभृत' ही लिखा है, किन्तु कर्ताका नाम 'पण्हसवण' मुनि बताया है । इन महामुनिने कुसुमाण्डिनी देवीसे इस ग्रन्थ के ज्ञानको प्राप्त किया था । और उसे अपने शिष्य पुष्पदन्त एवं भूतबलिके लिए लिखा था । इस कथनसे ग्रन्थके धरसेन रचित होनेकी सम्भावना व्यक्त होती है । प्रज्ञाश्रमणत्व एक ऋद्धिका नाम है । सम्भवतया धरसेनाचार्य इस ऋद्धिके धारी थे । अतएव उन्हें प्रज्ञाश्रमण कहा गया है । षट्खण्डागममें प्रशाश्रमणोंको नमस्कार किया गया हैशम् पण्णसमणाणं "
प्रज्ञा चार प्रकारकी होती है- (१) औत्पत्तिकी, (२) वैनयिकी, (३) कर्मजा और (४) पारिणामिकी। इनमें पूर्वजन्मसम्बधी चार प्रकारकी निर्मलबुद्धिके बलसे विनयपूर्वक बारह अंगोंका अवधारण कर जो प्रथमतः देवगतिमें और तत्पश्चात् अविनष्ट संस्कार के साथ मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं उनके औत्पत्तिकी प्रज्ञा कही है। प्रज्ञाका उक्त संस्कार अवशिष्ट रहनेके कारण चौदह पूर्वी का उत्तर देने में वे समर्थ रहते हैं। विनयपूर्वक द्वादश अंगोंके अध्ययनसे जो बुद्धि उत्पन्न होती है वह वैनयिकी प्रज्ञा है । गुरूपदेश के बिना तपश्चरणके प्रभावसे उत्पन्न होने वाली प्रज्ञा कर्मजा कहलाती है । इस प्रकारकी प्रज्ञा मोषधसेवन से भी उत्पन्न होती है । जातिविशेषसे उत्पन्न बुद्धि पारिणामिको कहलाती है ।
धरसेनको प्रज्ञाश्रमणका पूर्वीशान था। अतः 'योनिप्राभृत' ग्रन्थ धरसेनाचार्य द्वारा रचित हो, तो कोई आश्चर्य नहीं । इस आधारपर इनका समय बीर- निर्वाणसंवत् ६०० संभव है ।
प्राकृतपट्टावलोके अनुसार वीर-निर्वाण-संवत् ६१४-- ६८३के बीच धरसेनका समय होना चाहिए। पट्टावली में घरसेनका आचार्य काल १९ वर्ष बत्तलाया है। इससे सिद्ध होता है कि वीर निर्वाण संवत् ६३३ तक धरसेन जीवित रहे हैं और वीर-निर्वाण संवत् ६३० या ६३१ में पुष्पदन्त और भूतबलिको श्रुतका अध्ययन कराया है। इस आधारपर धरसेनका समय ई० सन् ७३–१०६ ई० तक आता है ।
अहिवल्लि माघनंदि य घरसेणं पुष्कयंत भूदबली । अडवोर्स इगवीस उगणीसं तीस वीस बास पुणो ॥ २
अर्थात् अर्हद्बल, माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलिका आचार्य
१. पट्खण्डा, वेदनाखण्ड ४।१।१८
२. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग-१, किरण-४, ०७३ पद्य - १६
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काल क्रमशः २८वर्ष, २१वषं, १९ वष, ३० वर्ष और २० वर्ष है । इस उल्लेखसे धरसेनका समय स्पष्टतः ई. सन्की प्रथम शताब्दी है।
डा० हीरालालजी जैन, सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री, पं० होरालालजी सिद्धान्तशास्त्री आदि भी घरसेनका प्रायः मही समय मानते हैं।
एक अन्य अभिलेखीय प्रमाणसे भी परसेनके समयपर प्रकाश पड़ता है | उपलब्ध पुरातत्त्वके आधारपर कहा जाता है कि आचार्य धरसेन गिरिनगरको जिस गुफामें रहते थे वह गुफा बाबा प्यारा मठके निकट होनी चाहिए। इस गुफामें स्वस्तिक, भद्रासन, नन्दिपद, मीनयुगल और कलशके चिह्न खुदे हुए हैं । एक शिलालेख भी यहाँ प्राप्त हुआ है, जिसमें क्षत्रप नरेश चष्टण और जयदामनके अतिरिक्त गिरिनगरमें देवासुर, नाग, यक्ष, राक्षस, केवलज्ञान, जरामरण, चैत्रशुक्ल पञ्चमी ये सब शब्द भी पढ़े जाते हैं । बीच-बीच में अभिलेखके खण्डित होनेके कारण समस्त लेखका सार बात नहीं किया जा सकता है। जो शब्दावली पढ़ी जा सकती है उसमें उक्त क्षत्रप राजवंशके कालमें किसी बड़े ज्ञानी जैन मुनिके देहत्यागका वृत्तान्त प्रतीत होता है। अभिलेखमें तिथिका निर्देश नहीं है, पर क्षत्रप कालीन राजवंशके साथ सम्बन्ध रहनेसे शककी प्रथम शताब्दी होना चाहिए । डा. ज्योतिप्रसादजीने लिखा है
"The Junagarh Jaina stone inscription, originally discovered in That very Candragupha of giripagar which tradition makes the abode of Dhiarsena, throws intercsting light on the lower limit of the date of these redactors of the canon. The inscription is uudated, but us author is mentioned as the great grandson tof Castana, the grandson of Jayadaman and the son of................... how could the traditon take such a legendary character" __ अर्थात् इस शिलालेखके आधारपर धरसेनका समय ई० सत् १५०के पूर्व होना चाहिये । यतः जयदामनके पुत्र रुद्रदामनका सुप्रसिद्ध संस्कृत-लेख गिरनारकी ऐतिहासिक शिलापर खुदा हुआ शक सं०७२का है । अतएव यह प्रायः संभव है कि उक्त अभिलेख घरसेनके समाधिमरणको स्मृतिमें उस्कीर्ण किया गया हो।
१. The Jaina sources of the History of Ancient India page 112.
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इस प्रकार अभिलेखाय प्रमाणके आधारपर धरसेनका समय ई. सन्की प्रथम शताब्दी आता है । आचार्य धरसेन अपने समयके श्रुतज्ञ विद्वान् थे। प्राकृत पट्टावली और इन्द्रनन्दिके श्रलावतारके आधारपर भी धरसेनका समय वोर नि० सं०६०० अर्थात् ई० सन् ७३के लगभग आता है । धरसेनका पाण्डि
आचार्य धरसेन सिद्धान्तशास्त्र के ज्ञाता थे। उनके चरणों में बैठकर आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलिने कर्मशास्त्र और सिद्धान्तका अध्ययन किया। वे सफल शिक्षक और आचार्य थे । आचार्य बीरसेनने धरसेनकी विद्वत्ता और पाण्डित्यका वर्णन करते हुए बताया है कि वे परवादिरूपों हाथोके समूहके मदका नाश करने के लिए श्रेष्ठ सिंहले समान है, सिद्धान्तरूपी श्रुतका पूर्णतया मन्थन करने वाले हैं। अतएव थतके पाण्डित्यके कारण वे महनीय यशके धारो विद्वान हैं। वीरसेनने लिम्बा है
“पसियउ मह धरसेणो पर-वाइ-गओह-दाण-वरसीहो
सिद्ध तामिय-सायर-तरंग-संघाय-धोय-मणी' । स्पष्ट है कि धरसेन आचार्य सिद्धान्तविषयक प्रौढ़ विद्वान थे। श्रुतकी नष्ट होती हई परम्पराको रक्षा इन्हींके द्वारा हुई है। इनके विषयमें 'षट्खण्डागम' टोकासे जो तथ्य उपलब्ध होते हैं, उनसे ऐसा ज्ञात होता है कि घरसेनाचार्य मन्त्र-तन्त्रके भा ज्ञाता थे। इनका 'योनिप्राभुत' नामक मन्त्रशास्त्रसंबन्धी कोई ग्रन्थ अवश्य रहा है। इस योनिप्राभतका निर्देश 'धवलाटोका में भी प्राप्त होता है''जोणिपाहुडे गिद-मंत-तंत-सत्तोआ पोग्गलाणुभागो त्ति धेन-तच्या' 17
अतएव 'बृहटिप्पणिका' के साथ धनलाटोकामें भी 'योनिप्राभूत'का निर्देश उपलब्ध होता है । इस आलोकमें धरसेनरचित योनिप्रामृत' प्रथपर अविश्वास नहीं किया जा सकता है । धवलाटोकामें बताया गया है कि पुष्पदन्त और भूतवलिको बुद्धि-परीक्षाके हेतु धरसेनाचार्य ने दो मन्त्र दिये थे। उनमें एक मन्त्र अधिक अक्षर वाला था और दसरा हीनाक्ष र था। गुरुने दो दिन के उपवासके पश्चात उन मन्त्रोंको सिद्ध करने का आदेश दिया। शिष्य मन्त्रसाधनामें संलग्न हो गये । जब मन्त्रके प्रभावसे उनको अधिष्ठात्री देवियाँ उपस्थित हुई तो एक देवीके दौत बाहर निकले हुए थे और दूसरी कानी थी। देवता विकृताङ्ग नहीं १. धवलाटीकासमन्बित षट्खण्डागम, प्रथम जिल्द, १०६। २. धवलाटीका, जिल्द १, प्रस्तावना, पृ० ३०, ४८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आमार्य-परम्परा
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होते: इस प्रकार निश्चय कर उन दोनोंने मंत्रसम्बन्धी व्याकरणशास्त्रके आधारपर उन मन्त्रोंका शोधन किया और मन्त्रोंको शुद्धकर पुनः साधनामें संलग्न हुए। वे देवियाँ पुनः सुन्दर और सौम्य रूपमें प्रस्तुत हुई। सिद्धिके अनन्सर वे दोनों शिष्य गुरुके समक्ष उपस्थित हुए 1 और विनयपूर्वक विद्यासिद्धि सम्बन्धी समस्त वृत्तान्त निवेदित कर दिया। गरु धरसेनाचार्य शिष्योंके ज्ञान से प्रभावित हुए और उन्होंने शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र और शुभ वारमे सिद्धान्तका अध्यापन प्रारंभ किया । ।
धवलग्नथके इस उल्लेखसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि धरसेनाचार्य मन्त्र-तन्त्रके ज्ञाता थे । अत्तः उनका मन्त्रशास्त्रसम्बन्धी 'योनिप्राभुत' ग्रन्थ अवश्य रहा है।
आगमसम्बन्धी ज्ञानके लिए षट्खण्डागम ग्रन्थ ही प्रमाण रूप है। इस ग्रन्थका समस्त विषय उन्होंके द्वारा प्रतिपादित है । पुष्पदन्त और भूतबलिने उनसे ही सिद्धान्तविषयक ज्ञान प्राप्त कर षटखण्डागमके सूत्रोंकी रचना की है।
धवलाटोकासे धरसेनाचार्य के सम्बन्धमें निम्नलिखित जानकारी प्राप्त होती है
१. धरसेन सभी अंग और पूर्वो के एकदेश ज्ञाता थे। २. अष्टांग-महानिमित्तके पारगामी थे। ३. लेखनकलामें प्रवीण थे। ४. मन्त्र-तन्त्र आदि शास्त्रोंके वेत्ता थे। ५. महाकम्मपयडिपाहुडके वेत्ता थे। ६. प्रवचन और शिक्षण देनेकी लामें पटु थे । ७. प्रवचनवत्सल थे। तदा ताणं तेण दो विजाभो दिण्णाओ । तत्थ एया अहिय-खरा, अवरा विहीण. क्वस । एवाओ छटोवबासेण साहेछ सि । तदो ते सिद्धविजा विजा-देवदामो पेच्छंति, एया जरिया अवरया काणिया । एसो देवदाणं सहायो प होदि घि चितिऊण मंत-वायरण-सत्थ-कुसलेहि होणाहिय-वखराण छहणावणयण-विहाणं काऊण पढ़ते हि दो वि देवदाओ सहावरूव-ट्ठियाओ दिवाओं। पुणो तेहि घरसेणभयवंतस्स जहावित्तण विणएण णिवेदिदे सुटु, तुटुंण घरसेण-भहारएण सोम-तिहिणवत्त-वारे गंयो पारतो'
-षट्याण्डागमधवलाटीका, प्रथम पुस्तक, पृ. ७.1 २. जय घरसेणणाही जेण महाकम्मपहिपाहुदसेला ।
बुद्धिसिरेणुद्धारआं समपिओ पुष्फयंतस्स ।।
-धवला
मृतघर और सारस्वताचार्य : ४९
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८. प्रश्नोत्तरशैलीमें शंका-समाधानपूर्वक शिक्षा देने में कुशल थे। ९. महनीय विषयको संक्षेप में प्रस्तुत करना भी उन्हें आता था। १०. आग्रायणीयपूर्वक पञ्चम वस्तुके चतुर्थ प्राभृतके व्याख्यानकर्ता थे।
११. पाठन, चितन एवं शिष्य-उद्बोधनको कलामें पारंगत थे । पुष्पबन्त और उनका रचना
पुष्पदन्त और भूतबलिका नाम साथ-साथ प्राप्त होता है, पर प्राकृत पट्टावली में पुष्पदन्तको भूतबलिसे ज्येष्ठ माना गया है। धरसेनके पश्चात् पुष्पदन्तका कार्य-काल ३० वर्षका बताया है। पुष्पदन्त और भूतबलि दोनों ही धरसेनाचार्यके निकट श्रुतको शिक्षा प्राप्त करने गये थे 1 शिक्षा-समाप्तिके पश्चात् सुन्दर दाँतोंके कारण इनका नाम पुष्पदन्त पड़ा था।
विवध श्रीधरके श्रुतावतारमें भविष्यवाणोके रूपमें जो कथा दी गई है उससे पृष्पदन्त और भृतबलिके जीवन पर प्रकाश पड़ता है पर इस श्रुतावतारमें जिन तथ्योंकी विवेचना की विचारपौर है। बताया है-भरत क्षेत्रके बांमिदेश--ब्रह्मादेशमें वसुन्धरा नामकी नगरी होगी । वहाँके राजा नरवाहन और रानी सुरूपा पुत्र न होनेके कारण खेद-खिन्न होंगे । उस समय सुबुद्धि नामका सेठ उन्हें पद्मावतीको पूजा करनेका उपदेश देगा । तदनुसार देवीको पूजा करनेपर राजाको पुत्रलाभ होगा और उस पुत्रका नाम पद्म रखा जायगा। तदनन्तर राजा सहस्रकटचैत्यालयका निर्माण करायेगा और प्रतिवर्ष यात्रा करेगा। सेठ भी राजपाले स्थान-स्थानपर जिनमन्दिरोंका निर्माण करायेगा। इसी समय वसन्त ऋतुमें समस्त संघ यहाँ एकत्र होगा और राजा सेठके साथ जिनपूजा करके रथ चलावेगा। इसी समय राजा अपने मित्र मगधसम्राटको मुनीन्द्र हआ देख सुबुद्धि सेठके साथ विरक्त हो दिगम्बरी दोक्षा धारण करेगा। इसी समय एक लेखवाहक वहाँ आयेगा। बह जिनदेवको नमस्कार कर मुनियोंकी तथा परोक्षम धरसेन गुरुकी वन्दना कर लेख समर्पित करेगा । वे मुनि उसे बाचेंगे कि गिरिनगरके समीप गुफावासी धरसेन मुनीश्वर आनायणीय पूर्वकी पञ्चमवस्तुके चौथे प्राभृतशास्त्रका व्याख्यान आरंभ करने वाले हैं। धरसेन भट्टारक कुछ दिनों में नरवाहन और सुबुद्धि नामके मुनियोंको पठन, श्रवण और चिन्तन कराकर आसाढ़ शुक्ला एकादशीको शास्त्र समाप्त करेंगे। उनमेंसे एककी भूत रात्रिको बलिविधि करेंगे और दूसरेके चार दांतोंको सुन्दर बना देंगे । अतएव भूत-बलिके प्रभावसे नरवाहन मुनिका नाम भूतबलि और चार दाँत समान हो जानेरो मुबुद्धिमुनिका नाम पुष्पदन्त होगा। १. श्रुतावतार, माणिकनन्द्र दि० जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थाङ्क २१, सिद्धान्तसारादिसंग्रह
पृ० ३१८-३१७ ५० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आमार्ग
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इस आख्यानमें अन्य कुछ तथ्य हो या न हो, पर इतना यथार्थ है कि पुष्पदन्तका प्रारंभिक नाम कुछ और रहा होगा। पवलाटोकामें भी पुष्पदन्तके नामका उल्लेख करते हुए लिखा है--
"अवरस्स वि भूदेहि पूजिदस्स अत्यवियत्थ-ट्ठिय-दंत-पंतिमोसारिय मूदेहि समीकय-दंसस्स 'पुष्फयंतो' ति णाम कयं ।" ___ अर्थात् देवोंने पूजा कर जिनको अस्तव्यस्त दंतपंकिको दूर कर सुन्दर बना दिया उनको धरसेन भट्टारकने पुष्पदन्त संझा की । स्पष्ट है कि पुष्पदन्त यह आरंभिक नाम नहीं है । गुरुने यह नामद किया है : इक्ष पर शिनको साधुओंके आनेका उल्लेख किया गया है उनके आरंभिक नामोंका कथन नहीं आया है । यह सत्य है कि पुष्पदन्त भी भूत बलिके समान ही प्रतिभाशाली और ग्रन्थ-निर्माणमें पटु हैं।
इन्द्र नन्दिने अपने श्रुतावतारमें लिखा है कि वर्षावास समाप्त कर पुष्पदन्त और भूतबलि दोनोंने ही दक्षिणकी ओर विहार किया। और दोनों करहाटकर पहुंचे। वहाँ उनमेंसे पुष्पदन्त मुनिने अपने भानजे जिनपालितसे भेंट की और उसे दीक्षा देकर अपने साथ ले वनवास देशको चले गये । तथा भूसबलि द्रविड देशकी मधुरा नगरीमें ठहर गये ।
करहाटकको कुछ विद्वानोंने सितारा जिलेका आधुनिक करहाड या कराड और कुछने महाराष्ट्रका कोल्हापुर नगर बतलाया है। करहाटक नगर प्राचीन समयमें बहुत प्रसिज था। स्वामी समन्तभद्र भी इस नगरमें पधारे थे। शिलालेखोंसे ज्ञात होता है कि उस समय यह नगर विद्या और वीरता दोनों के लिए प्रसिद्ध था।
उपर्युक्त चर्चासे एक तथ्य यह प्रसूत होता है कि पुष्पदन्तके भानजे जिन
१. षट्खण्णागमषवलाटीका, प्रथम पुस्तक, पृ०७१. २. जग्मतुरथ करहाटे तयोः स यः पुष्पदन्त नाम मनिः ।
जिनपालिताभिधानं दृष्ट्वाऽसौ भगिनेयं स्त्रं ।। दवा दीक्षां तस्मै तेन सम देशमेत्य वनवासम् । अस्थो भूतबलिरपि मघुरायां द्रविड़देशेऽस्थात् ।।
--श्रुतावतार, पद्य १३२-१३३ ३. प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभट विद्योत्कटं संकटं ।
-मल्लिषेण-प्रशस्ति-शिलालेख ५४ श्लोक ७
श्रुतधर और सारस्वताचार्य : ५१
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पालित करहाटकके निवासी थे । अतः पुष्पदन्तका भी जन्मस्थान करहाटके आसपास ही होना चाहिए।
वरसेनाचार्यने महिमा नगरी में सम्मिलित हुए दक्षिणापथके आचार्योंके पास अपना पत्र भेजा था, जिसके फलस्वरूप आन्ध्र देशकी वेणा नदीके तटसे पुष्पदन्त और भूतबल उनके पास पहुंचे थे । वर्तमान में सतारा जिलेमें वेष्या नामकी नदी प्रवाहित होती है और उसी जिलेमें महिमानगढ़ नामक ग्राम भी है। बहुत संभव है कि यह ग्राम ही प्राचीन महिमा नगरी रहा हो । अतएव सतारा जिलेका करहाड ही करहाटक हो तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है ।
वनवास देश उत्तर कर्णाटकका प्राचीन नाम है। यहाँ कदम्बवंशके राजाओंकी राजधानी थी। इस बनवास देशमें ही आचार्य पुष्पदन्तने जिनपालितको पढ़ाने के लिए 'बीसदि' सूत्रों की रचना की। और इन सूत्रोंको भूतबलि के पास भेजा । भूतबलिने उन सूत्रोंका अवलोकन किया और यह जानकर कि पुष्पदन्त आचार्यकी अल्या अवशिष्ट है. अत्तः महाकर्म प्रकृतिप्राभृतका विच्छेद न हो जाय, इस भयसे उन्होंने द्रव्यप्रमाणानुगमको आदि लेकर ग्रन्थरचना की । अतएव यह स्पष्ट है कि षट्खण्डागमसिद्धान्तका प्रारंभिक भाग वनवास देशमें रचा गया और शेष ग्रन्थ द्रविड़ देशमें ।
समय-निर्धारण
यह हम पहले ही लिख चुके हैं कि पुष्पदन्त भूतबलिसे आयु में ज्येष्ऽ थे । आचार्य वीरसेनने मंगलाचरण- संदर्भ में भूतबलिसे पूर्व पुष्पदन्तका स्तवन किया है। लिखा है---
पणमामि
पुप्फयंतं दुष्णसंधयार-रवि । भग्ग - सिव- मग्ग-कंटयमिसि समिइ वई सथा दंतं ॥ १
अर्थात् जो पापोंका अन्त करने वाले हैं, कुनयरूप अंधकारके नाश करनेके लिये सूर्य तुल्य है, जिन्होंने मोक्षमार्ग के विघ्नों को नष्ट कर दिया है, जो ऋषियोंकी समिति अर्थात् सभाके अधिपति हैं और जो निरन्तर पञ्चेन्द्रियोंका दमन करने वाले हैं ऐसे पुष्पदन्त आचार्यको मैं प्रणाम करता हूँ ।
उपर्युक्त उद्धरण में 'इसि समिह वई' विचारणीय है। इस पदका अर्थ यह है कि पुष्पदन्त अपने समयके आचार्यों में अत्यन्त मान्य थे और इसीलिये वे मुनिसमिति सभापति कहलाते थे ।
नदिसंघकी प्राकृत - पट्टावलीके अनुसार पुष्पदन्त भूतबलिसे पूर्ववर्ती हैं । १. षट्खण्डागमघव लाटीका, पुस्तक १, पृष्ठ ७, मंगल-गाथा ५ ।
५२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी माचार्य परम्परा
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इसके अनुसार इनका समय बीर नि० सं० ६३३के' पश्चात् ई. सन् प्रथमद्वितीय शताब्दीके लगभग होना चाहिए । डा. ज्योतिप्रसाद जैनने पुष्पदन्तका समय ई० सन् ५०-८० माना है। रखमाशक्ति और प्रतिभा
घबलामें आचार्य वोरसेनने बतलाया है कि बीस प्रकारको प्ररूपणाएं सूत्रोंके द्वारा की गयी हैं । अतः पुष्पदन्ताचार्यने जो 'बिसदिसुतं' कहा है उसका अभिप्राय सताको सूत्रोंगे भागनोर कीपर व गाओं सवारी है । षवलाकारने सत्प्ररूपणाके सूत्रोंको व्याख्या समाप्त करनेके पश्चात् लिखा है कि सत्सूत्रोंका विवरण समाप्त हो आनेके अनन्तर उनको प्ररूपणा करेंगे। इससे स्पष्ट है कि आचार्य पुष्पदन्तने सत्सूत्रोंको ही रचना को है; उसको प्ररूपणाका कथन नहीं किया। यद्यपि उन्होंने अनुयोगद्वारका नाम "संतपस्वणा" हो रखा है। ऐसी स्थितिमें पुष्पदन्ताचार्यके द्वारा रचे गये सूत्रोंको 'संतसुत्स' कहना अधिक उचित था; पर इस शब्दका प्रयोग न कर 'बीसदिसुस' क्यों कहा, इस सम्बन्धमें कोई सन्तोषजनक समाधान प्राप्त नहीं होता है।
इन्द्रनन्दिने लिखा है कि पुष्पदन्तने सौ सूत्रोंको पढ़ाकर जिनपालितको भूतबलिके पास भेजा; किन्तु सत्प्ररूपणाके सूत्रोंकी संख्या १७७ है। असः उनका यह कथन भी सतर्क प्रतीत नहीं होता। यह सत्य है कि सत्प्ररूपणाके १७७ सत्र पुष्पदन्ताचार्य द्वारा रचे गये हैं। अतः उत्थानिकामें घबलाकारने पुष्पदन्तका ही नामोल्लेख किया है।
इस ग्रन्थको रूपरेखाका निर्माण पुष्पदन्तके द्वारा ही हुमा होगा। यत्तः ग्रन्थ-निर्माणका आरंभ पुष्पदन्तने किया है। इन्होंने चौदह जीवसमासों और गुणस्थानोंके निरूपणके लिये आठ अनुयोगद्वारोंको ही जानने योग्य बतलाया है। ये आठ अनुयोगद्वार है-१. संतपरूवणा, २. द्रव्यप्रमाणानुगम, ३. क्षेत्रानुगम, ४. स्पर्शानुगम, ५. कालानुगम, ६.अन्तरानुगम,७. भावानुगम, और
१. प्राकृत-पट्टावलीमें भर्हत लिका काल २८ वर्ष, माघनम्दिका २१ वर्ष, परसेनका
१९ वर्ष और पुष्पदन्तका ३० वर्ष माना है। इस प्रकार वीर नि० • ६६३
समय आता है। २. The Jaina Sources of the History of Ancient India, p. 114. ३. सूत्राणि तानि शतमध्याप्य ततो भूतबलिगुरोः पाश्र्वम् । तदभिप्रायं ज्ञातुं प्रस्थापयदगमदेषोऽपि ।।
-श्रुतावतार, श्लोक संख्या १३६. । श्रुतदर और सारस्वताचार्य : ५६
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८. अल्पबहुत्वानुगम । जोवस्थान नामक प्रथम खण्डकें ही ये आठ अधिकार हैं । इन अधिकारों अन्तर जीलानी है। इसको भी जीवस्थानका भाग सिद्ध करनेके लिए धवलाकारको शंका-समाधान करना पड़ा है और अन्तमें उन्होंने बताया है कि चूलिकाका अन्तर्भाव आठ अनुयोगद्वारोंमें होता है | अतः चूलिका जीवस्थान से भिन्न नहीं है। धवलाकारकी इस चर्चासे 'यह स्पष्ट है कि पुष्पदन्त आचार्य द्वारा आठ अनुयोगद्वारोंमें जो बातें कथन करने से छूट गई थीं उनसे सम्बद्ध बातोंका कथन चूलिका अधिकारमें किया गया है। धवला के अध्ययनसे यह प्रतीत होता है कि चूलिका अधिकार पुष्पदन्त द्वारा रचित नहीं है । पुष्पदन्सने केवल जीवस्थान नामक खण्डका हो उक्त सूत्रोंमें ग्रथन किया है ।
इन्द्रनन्दि' ने लिखा है- 'पुष्पदन्त मुनिने अपने भानजे जिनपालितको पढ़ाने के लिए कर्म प्रकृतिप्राभूतकालः खण्डों में उपसंहार किया है । और जीवस्थानके प्रथम अधिकारकी रचना की और उसे जिनपालितको पढ़ाकर भूतबलिका अभिप्राय अवगत करनेके लिए उनके पास भेजा। जिनगालितसे सत्प्ररूपणाके सूत्रोंको सुनकर भूतबलिने पुष्पदन्त गुरुका दुखण्डागम रचनाका अभिप्राय जाना ।
जीवस्थानके अवतारका कथन करते हुए धवलाटीकाकार आचार्य वीरसेनने जो विमर्श प्रस्तुत किया है उससे आचार्य पुष्पदन्तको रचनाशक्ति, पाण्डित्य एवं प्रतिमा पर पूरा प्रकाश पड़ता है। लिखा है - " दूसरे आम्रायणीय पूर्वके अन्तर्गत चौदह वस्तु-अधिकारोंमें एक चयन लधि नामक पांचवां वस्तु-अघिकार है । उसमें बीस प्राभृत हैं । उनमें से चतुर्थ प्राभृत कर्मप्रकृति है । उस कर्मप्राभृतप्रकृतिके २४ अर्थाधिकार हैं । उनमें छठा अधिकार बन्धन नामक है । इस अधिकारके भी चार भेद हैं
१. बन्ध, २. बन्धक, ३ . बन्धनीय और ४. बन्वविधान | इनमें से बन्धक अधिकारके ग्यारह अनुयोगद्वार हैं। उनमें पञ्चम अनुयोगद्वार द्रव्यप्रमाणानुगम है । इस जीवस्थान नामक खण्डमें जो द्रव्यप्रमाणानुगम नामक अधिकार है वह इसां बन्धक नामक अधिकारसे निस्सृत है । बन्धविधानके भी चार भेद हैंप्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । इन चारों बन्धोंमेंसे प्रकृतिबन्धके दो भेद हैं- मूलप्रकृतिबन्ध और उत्तरप्रकृतिबन्ध | उत्तर१. अथ पुष्पदन्त मुनिरप्यध्यापयितुं स्वभागिनेयं तम् । कर्मप्रकृतिप्रभूतमुपसंहार्येन
भिरिह खण्ड ||
- श्रुतावतार श्लोकसंख्या १३४ ।
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बन्धके दो भेद हैं--एकैकोत्तर प्रकृतिबन्ध और अव्वोगाढ़ोत्तरप्रकृतिबन्ध । एककोत्तरप्रकृतिबन्धके २४ अनुयोगद्वार हैं। उनमेसे जो समुत्कीर्तन नामक अधिकार है उसमेंसे प्रकृतिसमुत्कीर्तन, स्थान-समुत्कीर्तन और तीन महादंडक निस्सृत हैं। तेईसवें भावानुगमसे भावानुगम निकला है। अन्वीगाढ़ उत्तरप्रकृतिवन्धके दा भेद हैं-भुजगारबन्ध और प्रकृतिस्थानबन्ध । प्रकृतिस्थानबन्धके आठ अनुयोगद्वार हैं-सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भावानुगम और अल्पबहुत्वानुगम । इन आठ अनुयोगद्वारों से छ: अनुयोग-द्वार निकले हैं-सत्प्ररूपणा,क्षेत्रप्ररूपणा, स्पर्शनप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा और अल्पबहुत्वप्ररूपणा | ये छ: और बन्धक अधिकारके ग्यारह अधिकारोंमेंसे निस्सुत द्रव्यप्रमाणानुगम तथा तेईसवें अधिकारसे निस्सृत भावानुगम ये सब मिलकर जीवस्थानके आठ अनुयोगद्वार हैं। इस विवेचनसे ज्ञात होता है कि आचार्य पुष्पदन्तने 'एत्ता' इत्यादि सूत्र उक्त आधारको ग्रहण कर ही कहा है।
उक्त समस्त विमर्शके अध्ययनसे निम्नलिखित निष्कर्ष उपस्थित होते हैं१. षट्खंडागमका आरंभ आचार्य पुष्पदन्तने किया है। २. सत्प्ररूपणाके सूत्रोंके साथ उन्होंने षखंडागमकी कोई रूपरेखा भी भूत
बलिके निकट पहुंचायो होगी। ३. पुष्पदन्तने अपनी रचना जिनपालितको पढ़ायी और तदनन्तर
अपनेको अल्पायु समझकर गुरुभाई भूतबलिको अवशिष्ट कार्यको पूर्ण
करनेके लिये प्रेरित किया होगा। ४. पुष्पदन्त महाकर्मप्रकृतिमाभृतके अच्छे ज्ञाता एवं उसके व्याख्याताके
रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। यपि सूत्रोंके रचयिताओंका नाम नहीं मिलता है; पर धवलाटीकाके आधारपर सत्प्ररूपणाके सूत्रोंके रचयिता पुष्प
दन्त है। ५. पुष्पदन्तने अनुयोगद्वार और प्ररूपणाओंके विस्तारको अनुभव कर ही
सूत्रोंकी रचना प्रारम्भ को होगी। भूतबलि और उनकी रचना __ पुष्पदन्तके नामके साथ भूतबलिका भी नाम आता है। दोनोंने एक साथ १. एतो इमेसि पोइसण्हं जीवसमासाणं मग्गणदाए तत्य इमाणि चोड्स व टागाणि __णायव्याणि भवति ।-पट्स० १०२ २. षट्सण्डागम, षषकाटीका, प्रथम पुस्तक, पृ० १२३-१३० ।
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धरसेनाचार्यसे सिद्धान्त-विषयका अध्ययन किया था। भूतबलिने अंकुलेश्वरमें चातुर्मास समान कर द्रविड़ देशमें जाकर श्रुतका निर्माण किया । धवलाटीकामें आचार्य वीरसेनने पुष्पदन्तके पश्चात् भूसबलिको नमस्कार किया है।
पणमह कय-भूय-बलि भूयबलि केस-वास-परिभूय-बलि ।
विणिहय-बम्मह-पसरं वडढाविय-विमल-गाण-बम्मह-पसरं ।' अर्थात् जो भूत-प्राणीमात्रके द्वारा पूजे गये हैं अथवा भूत नामक व्यन्तर जातिके देवों द्वारा पूजित हैं; जिन्होंने अपने केशपाश अर्थात् सुन्दर बालोंसे बलिजरा आदिसे उत्पन्न होने वाली शिथिलताको परिभत-तिरस्कृत कर दिया है। जिन्होंने कामदेवके प्रसारको नष्ट कर दिया है और निर्मल ज्ञानके द्वारा ब्रह्मचर्यको वृद्धिंगत कर लिया है उन भूतबलि नामक आचार्यको प्रणाम करो।
उपर्युक्त गाथामें भूतबलिके शारीरिक और आत्मिक तेजका वर्णन किया है । भूतबलिको आन्तरिक ऊर्जा इतनी बढ़ी हई थी, जिससे ब्रह्मचर्यजन्य सभी उपलब्धियां उन्हें हस्तंगत हो गई थीं । ऋद्धि और तपस्याके कारण प्राणीमात्र उनको पूजाप्रतिष्ठा करता था। इस प्रकार आचार्य वीरसेनने आचार्य भूतबलीके व्यक्तित्वकी एक स्पष्ट रेखा अंकित की है। सौम्य आकृतिके साथ भूतबलिके केश अत्यन्त संयत और सुन्दर थे । केशोंकी कृष्णता और स्निग्धताके कारण वे युवा ही प्रतीत होते थे। ___ श्रवणबेलगोलके एक शिलालेख मे पुष्पदन्तके साथ भूतबलिको भी अहंद्बलिका शिष्य कहा है। इस कथनसे ऐसा ज्ञात होता है कि भूतलके दोक्षागुरु अहंबलि और शिक्षागुरु धरसेनाचार्य रहे होंगे । लिखा है
यः पुष्पदन्तेन च भूतबल्याख्येनापि शिष्य-द्वितयेन रेजे । फलप्रदानाय जगज्जनानां प्राप्तोऽङ्कराभ्यामिव कल्पभूजः ।। अर्हबलिस्सङ्घचतुर्विध स श्रीकोण्डकुन्दान्वयमूलसङ्घ 1
कालस्वभावादिह जायमानद्वेषेतराल्पोकरणाय चक्रे ।। इन अभिलेखीय पद्योंके आधारपर अहंबलिको भूतबलिका गुरु मान लिया आय तो कोई हानि नहीं है । समयक्रमानुसार अर्हलि और पुष्पदन्तके समयमें २१ + १९ = ४०वर्षका अन्तर पड़ता है जिससे अर्हलिका भूतबलि और पुष्पदन्तके समसामयिक होनेमें कोई बाधा नहीं है।
१. षट्खण्डागम, धवलाटीका, प्रथम पुस्तक, श्लोक ६. २. प्रवणबेलगोल अभिलेख संख्या १०५, पञ्च २५-२६.
५६ : तोधकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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भूतबलिके व्यक्तित्व और ज्ञानके सम्बन्ध में
प्रकाश
पड़ता है ! बताया है-- भूतबलि भट्टारक असंबद्ध बात नहीं कह सकते । यतः महाकर्म प्रकृति प्राभृत रूपी अमृतपान से उनका समस्त राग-द्वेष-मोह दूर हो गया है। "ण चासंबद्धं भूदबलिभहारओ परूवेदि महाकम्मपडिपा हुड अभियवाणेण ओसारिदा सेसरागदोसमोहत्तादो ।""
इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि भूतबलि महाकर्मप्रकृतिभूतके पूर्ण ज्ञाता थे । इसलिये उनके द्वारा रचित सिद्धान्तग्रन्थ सर्वथा निर्दोष और अर्थपूर्ण है । इन्होंने २४ अनुयोगद्वारस्वरूप महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका ज्ञान प्राप्त किया था । बताया है---
"चउबीसअणियोगद्दारसत्वमहाकम्मपयडिपाहडपा रयस्स
भूदवलि
भयवंतस्स ।" "
समय-निर्धारण
भूतबलिका समय आचार्य पुष्पदन्तका समय हो है। दोनोंने एक साथ घरसेनाचार्य से सिद्धान्त-प्रन्थों का अध्ययन किया और अंकुलेश्वरमें साथ-साथ वर्षावास किया। पुष्पदन्त द्वारा रचित प्राप्त सूत्रों के पश्चात् भूतबलिने षट्खण्डागमके शेष भागकी रचना को । डा० ज्योतिप्रसादने भूतबलिका समय ई० सन् ६६९० तक माना है और षट्खण्डागमका संकलन ई० सन् ७५ स्वीकार किया है। प्राकृतपट्टावली, नन्दिसंघकी गुर्वावली आदि प्रमाणोंके अनुसार भूतबलिका समय ई० सन्की प्रथम शताब्दीका अन्त और द्वितीय शताब्दीका आरंभ आता है । डा० होरालाल जैनने धवलाको प्रस्तावना में वीर नि०सं० ६१४ और ६८३के बीच उक्त आचार्यों का काल निर्धारित किया है। अतएव भूतबलिका समय ई० सन् प्रथम शताब्दीका अन्तिम चरण (ई. ८७के लगभग) अवगत होता है । रचना-शक्ति और पाण्डित्य
इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारसे ज्ञात होता है कि भूतबलिने पुष्पदन्त विरचित सूत्रोंको मिलाकर पाँच खण्डोंके छः हजार सूत्र रचे और तत्पश्चात् महाबन्ध नामक छठे खण्डको तीस हजार सूत्रग्रंथरूप रचना की । "
१. षट्खण्डाभम, भवलाटीका, पुस्तक १०, पृ० २७४ - २७५ ।
२. वही, पुस्तक १४, पृ० १३४ ।
३. The Jaina Sources of the History of Ancient India, p. 114. ४. पट्खण्डागम, पवाटीका, पुस्तक १ प्रस्तावना पृ० २२- ३१
५. श्रुतावसार, पच १२९
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छवखंडागम के सूत्रोंके अवलोकनसे प्रकट होता है कि प्रथम खण्ड जीवस्थानके आदिमे सत्प्ररूपणा सूत्रोंके रचयिता पुष्पदन्ताचार्यने मंगलाचरण किया है और तदनुसार भलाटीकाकार वोरसेन स्वामीने भो श्रुतावतार आदिका कथन किया है। षट्खण्डागम नूतने चौथे व वेदना के आदिमें पुनः मंगल किया है और बबलाकारने भी जीवस्थानके समान ही कर्ता, निमित्त, श्रुतावतार आदिकी पुनः चर्चा की है। इससे यह षट्खण्डागमग्रन्थ दो भागों में विभक्त प्रतीत होता है । पहले भागमें आदिके तीन खण्ड हैं और द्वितीय भाग में अन्तके तीन खण्ड है। इस द्वितीय भाग में ही महाकर्म प्रकृतिप्राभृतके २४ अधिकारोंका वर्णन किया गया है । डा० हीरालालजीने इस द्वितीय चण्डकी विशेष संज्ञा सत्कर्मप्राभृत बतायी है। वस्तुतः आचार्य भूतबलिने षट्खण्डागमके जीवस्थानको छोड़कर शेष समस्त खण्डोकी रचना की है। कृतिअनुयोगद्वारके आदिमें ग्रन्थावतारका वर्णन करते हुए वीरसेन स्वामीने लिखा है कि धरसेनाचार्यने गिरिनगरकी चन्द्रगुफा में भूतबलि और पुष्पदन्तका समग्र महाकर्म प्रकृतिप्राभृत समर्पित कर दिया। तत्पश्वात् भूतबलि भट्टारकने श्रुत-नदी के प्रवाहके विच्छेदके भय से भव्य जीवोंके उद्धारके लिये महाकर्म प्रकृतिप्राभूतका उपसंहार करके छः खण्ड किये।"
इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतार में यह लिखा है कि भूतबलि आचार्यने षट्खण्डागमकी रचना कर उसे ग्रन्थरूपमें निबद्ध किया और ज्येष्ठ शुक्ला पंचमीको उसकी पूजा की और इसी कारण यह पञ्चमी श्रुतपञ्चमी के नामसे विख्यात हुई। तत्पश्चात् भूतबलिने उस खण्डागमसूत्र के साथ जिनपालितको पुष्पदन्त गुरुके पास भेजा । जिनपालितके हाथ में षट्खण्डागमप्रन्धको देखकर मेरे द्वारा चिन्तित कार्य सम्पन्न हुआ, यह अवगत कर पुष्पदन्त गुरुने भी श्रुतभक्ति अनुरागस पुलकित होकर श्रुत-पंचमी के दिन उक्त ग्रन्थको पूजा को ।
श्रुतावतारकं उक्त कथनसे यही प्रमाणित होता है कि पुष्पदन्ताचार्यने पट्खण्डागमकी रूपरेखा निर्धारित कर सत्प्ररूपणा के सूत्रों की रचना की थी और शेष भागको भूतबलिने समाप्त किया था ।
छवखंडागमके अवलोकनसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि दूसरे खण्ड खुद्दाबन्धसे छठे खण्ड तक यह भूतबलि द्वारा रचा गया है। चतुर्थ खण्ड वेदनाके १. 'तदो भूतलिभडारएण सुदाईपवाहवोच्छेदभीएण भवियलोगानुग्गद्दटुं महाकम्मपादसंहरिण क्खंडाणि कयाणि ।'
-- षट्खण्डा०, घवला, पुस्तक ९, पू० १३३ ।
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अन्तर्गत कृतिअनुयोगद्वारके आदिमें सूत्रकारने ४४ मंगलसूत्र लिखे हैं और ४५ वे सूत्रसे ग्रन्थकी उत्थानिकाके रूप आग्रायणीय पूर्व के पञ्चम वस्तु अधिकारके अन्तर्गत कर्मप्रकृतिप्राभृतके २४ अनुयोगद्वारोंका निर्देश किया है। वीरसेन स्वामीने इन मंगलसूत्रोंको लेकर एक लम्बी चर्चा की है। इस चर्चास सोन निष्कर्ष निकलते हैं:
१. भूतबलिने मंगलसूत्रोंकी रचना स्वयं नहीं की। परम्परासे प्राप्त महाकर्मप्रकृतिप्राभृत्तके मंगलसूत्रोंका संकलन किया है।
२. षट्थण्डागममें महाकर्मप्रकृतिप्राभूतके अर्थका ही निबन्धन नहीं किया है; अपितु शब्द भी ग्रहण किये गये हैं ।
३. भूतबलि का नहीं, प्ररूपक हैं । अतः षट्खण्डागमका द्वादशांग वाणीके साथ साक्षात् सम्बन्ध है।
इस तरह स्पष्ट है कि आचार्य भूतबलि मट्टाकर्मप्रकृतिप्राभनके शानी एवं मर्मज्ञ विद्वान थे। छपखण्डागमका वर्ण्य विषय एवं संक्षिा विवेचन
यह ग्रन्थ छह खण्डोंमें विभक्त है१. जीवट्ठाण । २. खुद्दाबन्ध । ३. बंधसामितविचय । ४. वेयणा। ५. बम्गणा। ६. महाबंध ।
१. 'जीवाण' नामक प्रथम-खण्डमें जोवके गुण-धर्म और नानावस्थाओंका वर्णन आठ प्ररूपणाओंमें किया गया है । ये माठ प्ररूपणाएं-सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व हैं। इसके अनन्तर नौ चूलिकाएं हैं, जिनके नाम प्रकृतिसमुत्कीर्तन, स्थानसमुत्कीर्तन, प्रथम महादण्डक, द्वितीय महादण्डक, तृतीयमहादण्डक, उत्कृष्टस्थिति, जघन्यस्थिति, सम्यक्त्वोत्पति और गतिअगति हैं। सत्प्ररूपणाके प्रथम सूत्र में पञ्चनमस्कार मन्त्रका पाठ है । इस प्ररूपणाका १. "तत्थेदं कि णिजदमाहो अणिबद्धमिदि......."तदो सिद्ध णिवद्धमंगलपि । उबरि उच्चमाणेसु तिसु खंडेसु इत्यादि ।" -घट्सण्डागम, पवला टीका, पुस्तक ९, पृ० १०३-१०४ :
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विषयनिरूपण ओघ और आदेश क्रमसे किया गया है । ओधमें मिथ्यात्व सासादन आदि १४ गुणस्थानोंका और आदेशमें गति, इन्द्रिय, काय आदि १४ मार्गणाओंका विवेचन उपलब्ध होता है । सत्प्ररूपणा में १३७ सूत्र हैं । इनमे४०वें सूत्रसे ४५ सूत्र तक छह कायके जीवोंका विस्तारपूर्वक वर्णन आया है। जीवों के बादर और सूक्ष्म मेदों के पर्याप्त एवं अपर्याप्त भेद किये गये हैं । वनस्पति कायके साधारण और प्रत्येक ये दो भेद बतलाये हैं और इन्हीं भेदोंके बादर और सूक्ष्म तथा इन दोनों भेदोंके पर्याप्त और अपर्याप्त उपभेद कर विषयका निरूपण किया है । स्थावर और त्रसकायसे रहित जीवोंको अकायिक कहा है।
जीवठ्ठाण खण्डकी दूसरी प्ररूपणा द्रव्यप्रमाणानुगम है। इसमें १९२ सूत्रों द्वारा गुणस्थान और मार्गणाक्रमसे जीवोंकी संख्याका निर्देश किया है । इस प्ररूपणा के संख्या निर्देशको प्रस्तुत करनेवाले सूत्रों में शतसहस्रकोटि, कोड़ाकोड़ी, संख्यात, असंख्यास, अनन्त और अनन्तानन्त संख्याओं का कथन उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त सातिरेक, होन, गुण, अवहारभाग, वर्ग, वर्गमूल, घन, अन्योन्याभ्यस्त राशि, आदि गणितको मौलिक प्रक्रियाओंके निर्देश मिलते हैं । कालगणना के प्रसंग में आवलो, अन्तर्मुहूर्त, अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी, पल्योपम आदि एवं क्षेत्रकी अपेक्षा अंगुल, योजन, श्रेणी, जगत्प्रतर एवं लोकका उल्लेख आया है ।
क्षेत्र प्ररूपणा ९२ सूत्रों द्वारा गुणस्थान और मागंणाक्रमसे जीवोंक क्षेत्रका कथन किया गया है। उदाहरणार्थं कुछ सूत्र उद्धृत कर यह बतलाया जायगा कि सूत्रकर्त्ता की शैली प्रश्नोत्तर के रूपमें कितनी स्वच्छ है और विषयको प्रस्तुत करनेका क्रम कितना मनोहर है । यथा-
" सासण सम्माइट्टिप्पहूडि जाव अजोगिकेवलि त्ति केवट खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभाए ।"
सजोगिकेवली केवड खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्वलोगे वा । "
आदेसेण गदियाणुवादेण गिरयगदीए रइएसु मिच्छाइट्टिप्पहूडि जान असंजदसम्माइट्ठित्ति केवड खेत्तं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे ।
एवं सत्तसु पुढवीस रइया ।
तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु मिच्छाइट्टी केवट खेते ? सव्बलाए । '
१. षट्खण्डागम, जीवस्थान, क्षेत्रप्रमाणानुगम, सूत्र ३-४ ।
२. षट्खण्डागम, जीवस्थान, क्षेत्रप्रमाणानुगम, सूत्र ५, ६, ७,
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भीत जासादासम्पपष्टि गुमस्या से लेकर अमौगिकेवली गुणस्यान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यात भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं।
सयोगकेवली जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें अथवा लोकके असंख्यात बहुभागप्रमाण क्षेत्रमें अथवा सर्वलोकमें रहते हैं।
आदेशको अपेक्षा गतिके अनुवादसे नरकगतिमें नारकियोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर असंयत्तसम्यग्दृष्टि गणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं ।
इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें नारकी जीव लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण धोत्रमें रहते हैं।
तिर्यञ्चगतिमें तिर्यञ्चोंमें मिथ्यादृष्टि जीव किसने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्वलोकमें रहते हैं। ___ स्पष्ट है कि एक ही सूत्रमें प्रश्न और उसर इन दोनोंकी योजना को गयो है। वास्तवमें यह लेखककी प्रतिभाका वैशिष्ट्य है कि उसने आगमके गंभीर विषयको संक्षेप में प्रश्नोत्तररूपमें उपस्थित किया है। इस प्ररूपणाका प्रमुख वर्ण्य विषय मार्गणा और गुणस्थानकी अपेक्षासे जीवोंके स्पर्शनक्षेत्रका कथन करना है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि जिस मार्गणामें अनन्त संख्यावाली एकेन्द्रिय जीवोंकी राशि आती है, उस मार्गणावाले जीव सर्वलोकम रहते हैं और शेष मार्गणावाले लोकके असंख्यातवें भागमें । केवलज्ञान, केवलदर्शन, यथाख्यात संयम आदि जिन मार्गणाओंमें सयोगीसिन आते हैं, वे साधारण दशामें तो लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं किन्तु प्रतरसमुद्धातकी दशामें लोकके असंख्यात बहुभागोंमें तथा लोकपूर्णसमुद्घातकी दशामें सर्वलोक में रहते हैं । बादर वायुकायिक जीव लोकके संख्यातवें भागमें रहते हैं । __ स्पर्शन-प्ररूपणामें १८५ सूत्र हैं। इनमें, नानागुणस्थान और मार्गणावाले जीव स्वस्थान, समुद्धात एवं उपपात सम्बन्धी अनेक अवस्थाओं द्वारा कितने क्षेत्रका स्पर्श करते हैं, का विवेचन किया है । जीव जिस स्थानपर उत्पन्न होता है या रहता है वह उसका स्वस्थान कहलाता है। और उस शरीरके द्वारा जहाँ तक वह आता जाता है वह विहारवत् स्वस्थान कहलाता है । प्रत्येक जीवका स्वस्थानकी अपेक्षा विहारवत् स्वस्थानका क्षेत्र अधिक होता है । जैसे सोलहवें स्वर्ग के किसी भी देवका क्षेत्र स्वस्थानको अपेक्षा तो लोकका असंख्यातवा भाग है, पर वह विहार करता हुआ नीचे तृतीय नरक तक
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जा-आ सकता है। अतः उसके द्वारा स्पर्श किया क्षेत्र आठ राजु लम्बा हो जाता है | विहारके समान समुद्घात और उपपादको अपेक्षा भी जीवोंका क्षेत्र बढ़ जाता है। वेदना, कषाय आदि किसी निमित्तविशेषसे जीवके प्रदेशोंका मल शरीरके साथ सम्बन्ध रहते हुए भी बाहर फेलना समुद्घात कहलाता है ! समुशात गात । समुहमालको अवस्थामें जीवका क्षेत्र शरीरको अवगाहनाके क्षेत्रसे अधिक हो जाता है।
जीवका अपनी पूर्वपर्यायको छोड़कर अन्य पर्यायमें जन्म ग्रहण करना उपपाद है। इस प्रकार इस प्ररूपणामें स्वस्थान-स्वस्थान, विहारवत-स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक, आहारक, तेजस, मारणान्तिक, केलिसमुद्धात और उपराद इन दश अवस्थाओंकी अपेक्षा किस मणस्थानवाले और किस मार्गणावाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है, यह विवंचन किया गया है ।
कालानृयोगमें ३४२ सूत्र हैं । इस प्ररूपणामें एक जीव और नाना जीवोंके एक गुणस्थान और मार्मणामें रहनेको जघन्य एवं उत्कृष्ट मर्यादाओंको कालावधिका निर्देश किया है । मिथ्यादष्टि मिथ्यात्वगुणस्थानमें कितने काल पर्यन्त रहते हैं ? उत्तर देते हुए बताया है कि नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल; पर एक जीबकी अपेक्षा अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त हैं । तात्पर्य यह है कि अभव्य जीव अनादि अनन्त तथा भव्य जीव अनादि-सान्त और मादिसान्त हैं । जो जीव एक बार सम्यक्त्व ग्रहणकर पुनः मिथ्यात्वगुणस्थानमें पहुँचता है, उस जीवका वह मिथ्यात्व सादि-सान्त कहलाता है।
सूत्रकारने बड़े ही स्पष्ट रूपमें मिथ्यास्वके तीनों कालोंका एक जोवकी अपेक्षा और अनेक जीवोंकी अपेक्षा निरूपण किया है । जब कोई जीव पहलीबार सम्यक्त्व प्राप्त कर अतिशीघ्र मिथ्यात्वको प्राप्त हो जाता है तो वह अधिक-से-अधिक मिथ्यात्व गुणस्थानमें अद्ध पुद्गल परावर्तन काल तक ही रहेगा। इसके अनन्तर वह नियमसे सम्यक्त्वको प्राप्तकर संयम धारण कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। ___ अन्तर-प्ररूपणामें ३९७ सूत्र हैं। इस शब्दका अर्थ विरह, व्युच्छेद या अभाव है। किसी विवक्षित गुणस्थानवर्ती जीवका उस गुणस्थानको छोड़कर अन्य गुणस्थानमें चले जाने पर पुन: उसो गुणस्थानको प्राप्तिके पूर्व तकका काल अन्तरकाल या विरहकाल कहलाता है। सबसे कम विरह-कालको जघन्य अन्तर और सबसे बड़े विरहकालको उत्कृष्ट अन्तर कहा है । इस प्रकारके अन्तरकालकी प्ररूपणा करने वाली यह अन्तर-प्ररूपणा है। यह अन्तरकाल सामान्य और विशेषकी अपेक्षासे दो प्रकारका होता है । सूत्रकारने ६.२ : नीर्थकर महानी और उनकी आचार्ग-परम्पग
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एक जीव और नाना जीवोंको अपेक्षासे एक ही गुणस्थान और मार्गणामें रहनेकी जघन्य और उत्कृष्ट कालावधिका निर्देश करते हुए अन्तरकालका निरूपण किया है । मिथ्यादृष्टि जीवका अन्तरकाल कितना है, इस प्रश्नका उत्तर देते हुए बताया है कि नानाजीत्रोंकी अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है । ऐसा कोई काल नहीं जब संसार में मिथ्यादृष्टि जीवन पाये जायें, एक जविकी अपेक्षा भिय्यात्वका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहु और उत्कृष्ट अन्तर १३२ सागरोपम काल है । तात्पर्यं यह है कि मिध्यादृष्टि जीव परिणामोंकी विशुद्धिसे सम्यक्त्वको प्राप्त होकर कम-से-कम अन्तर्मुहूत्तं कालमें संक्लिष्ट परिणामों द्वारा पुनः मिथ्यादृष्टि हो सकता है । अथवा अनेक मनुष्य और देवगतियों में सम्यक्त्व सहित भ्रमणकर अधिक-से-अधिक १३२ सागरोपमको पूर्णकर पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त हो सकता है । तीव्र और मन्द परिणामों के स्वरूपका विवेचन भी इस प्ररूपणाके अन्तर्गत आया है । नानाजीवों की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और सयोगकेवली ये छ: गृणस्थान इस प्रकारके हैं, जिनमे अन्तराल उपस्थित नहीं होता ।
मार्गणाओं में उपशमसम्यक्त्व, सूक्ष्मसांपरायसंग्रम, आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, लब्ध्यपर्याप्तमनुष्य, सासादनसम्यक्त्व और सम्यमिध्यात्व ऐसी अवस्थाएं हैं, जिनमें गुणस्थानोंका अन्तरकाल संभव होता है । इनका जधन्य अन्तरकाल एक समयमात्र और उत्कृष्ट अन्तरकाल सात दिन या छः मास आदि बतलाया गया है । इन आठ मार्गणाओं के अतिरिक्त शेष सभी मार्गणाओंवाले जीव सदा ही पाये जाते हैं।
भाव प्ररूपणा में ९३ सूत्र हैं। इनमें विभिन्न गुणस्थानों और मार्गणास्थानों में होनेवाले भावोंका निरूपण किया गया है। कर्मोंके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम आदिके निमित्तसे जीवके उत्पन्न होनेवाले परिणामविशेषोंको भाव कहते हैं। ये भाव पाँच हैं-- १. औदयिक भाव, २. ओपशमिक भाव ३. क्षायिक भाव, ४. क्षायोपशमिक भाव और ५. पारिणामिक भाव ।
इन भावों में से किस गुणस्थान और किस मार्गणास्थान में कौन-सा भाव होता है, इसका विवेचन इस भावप्ररूपणा में किया गया है। मिध्यात्वगुणस्थान में उत्पन्न होनेवाले मिथ्यादृष्टिको औदयिक भाव होता है। दूसरे गुणस्थान में अन्य भावोंके रहते हुए भी, परिणामिक भाव रहते हैं। जिस प्रकार जीवत्व आदि पारिणामिक भावोंके लिये कर्मोंका उदय, उपशम आदि कारण नहीं है उसी प्रकार सासादनसम्यक्त्वरूप भाव के लिये दर्शनमोहनीय कर्मका उदय, उपशमादि कोई भी कारण नहीं है ।
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तीसरे गुणस्थानमें क्षायोपभिक भाव होता है । यत्त: इस गुणस्थानमें सम्यक्-मिथ्यात्वप्रकृतिके उदय होनेपर श्रद्धान और अश्रद्धानरूप मिश्रभाव उत्पन्न होना है। उसमें जो श्रद्धानांश है वह सम्यक्त्वगुणका अंश है और जो अश्रद्धानांश है वह मिथ्यात्वका अंश है। अतएन सम्यकमिथ्यात्वभावको क्षायोपमिक माना गया है। चतुर्थ मणस्थानमें औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशामिक ये तीन भाव पाये जाते हैं । यतः यहाँ पर दर्शनमोहनीयकर्मका उपशम, क्षय और क्षयोपशम ये तीनों ही संभव है।
आश्केि चा: नस्ल मोहनीयवर्मन उदय, उपशम, क्षय आदि से उम्पन्न होते हैं। अतएव इन गुणस्थानोंमें अन्य भावोंके पाये जानेपर भी दर्शनपोहनीयकी अपेक्षासे भावोंकी प्ररूपणा की गई है। चतुर्थ गुणस्थान तक जो असंयमभाव पाया जाता है वह चारित्रमोहनीयकर्मक उदयसे उत्पन्न होनेके कारण औयिक भाव है। पर यहाँ उमको विवक्षा नहीं की गयी है !
पञ्चम गणस्थानसे द्वादश गणस्थान तक आठ गणस्थानोके भावोंका कथन चारित्रमोहनीयकर्मके क्षयोपशम, उपशम और क्षयकी अपेक्षासे किया गया है। पञ्चम, षष्ट और सप्तम गुणस्थान में चारित्रमोहके क्षयोपशमसे क्षायोपशमिक भाव होते हैं। अष्टम, नवम, दशम और एकादश इन चार उपशामक गुणस्थानों में चारित्रमोहके उपनामसे औपमिक भाव तथा क्षपकश्रेणी सम्बन्धी अष्टम, नबम, दशम और द्वादश इन चार गुणस्थानों में चारित्रमोहनीयके क्षयसे क्षायिक भाव होता है। प्रयोदश और चतुर्दश गुणस्थान में जो क्षायिक भाव पाये जाते हैं वे घातियाकर्मोंके क्षयसे उत्पन्न हुए समझना चाहिए। गुणस्थानों के समान ही मार्गणास्थानों में भी भावोंका प्रतिपादन किया गया है।
अल्पबहुल्य-प्ररूपणा ३८२ सूत्र हैं | नानागुणस्थान और मार्गणागुणस्थानवी जोबोंको संख्याका हीनाधिकत्व इस प्ररूगणामें वर्णित है । अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें उपशमसम्यक्त्वी जोव अन्य सब स्थानोंकी अपेक्षा प्रमाणमें अल्प और परस्पर तुल्य होते हैं। इनसे अपूर्वकरणादि तोन मुणस्थानवर्ती क्षायिकसम्यग्दष्टि जीव संख्यात गणित हैं । क्षीणकषाय जीवोंको संख्या भी इतनी हो है। सयोगकेवली संयमको अपेक्षा प्रविश्यमान जोवोंसे संख्यात गुणित हैं।
उपर्युक्त आठ प्ररूपणाओंके अतिरिक्त जीवस्थानको नौ चूलिकाएं हैं। प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामकी चूलिकामै ४६ सूत्र हैं | जीवके गति, जाति मादिके रूपमें जो नाना भेद उपलब्ध होते हैं उनका कारण कर्म है। कर्मका विस्तारपूर्वक विवेचन इस चूलिकामें आया है । ६४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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दूसरी चूलिका स्थानसमुत्कोत्तन नामको है। इसमें ११७ सूत्र हैं । प्रत्येक मूलकर्मकी कितनी उत्तरप्रकृतियाँ एक साथ बांधी जा सकती हैं और उनका बन्ध किस-किस गुणस्थानमें करता है, इसका सुस्पष्ट विवेचन किया गया है । तृतीय चूलिका प्रथम महादण्डक नामकी है । इसमें दो सूत्र हैं । प्रथमसम्यक्त्वको हम अपनेवाला लीचितकृतियोंका है, उन प्रकृतियोंकी गणना की गई है । इन प्रकृतियोंका बन्धकर्त्ता संज्ञी पञ्चेन्द्रिय मनुष्य यह तिर्यच होता है । द्वितीय महादण्डक नामकी चौथी चूलिकामें भी केवल दो सूत्र हैं । इनमें ऐसी कर्मप्रकृतियोंकी भी गणना की गई है जिनका बन्ध प्रथमसम्यक्त्वके अभिमुख हुआ देव और छः पृथ्वियोंके नारकी ओय करते हैं। तृसीय दण्डक नामक पाँचवीं चूलिकामें दो सूत्र हैं । और इन सूत्रोंमें सातवीं पृथ्वी के नारकी atara सम्यक्त्वाभिमुख होनेपर बन्धयोग्य प्रकृतियोंका निर्देश किया गया है। छठी उत्कृष्टस्थिति नामक चूलिका में ४४ सूत्र हैं। इसमें बन्धे हुए कर्मोकी उत्कृष्ट स्थितिका निरूपण किया गया है। आशय यह है कि सूत्रकर्त्ता आचार्यने यह बतलाया है कि बन्धको प्राप्त विभिन्न कर्म अधिक-से-अधिक कितने कालतक जीवोंसे लिप्त रह सकते हैं और बन्धके कितने समय बाद आबाधाकालके पश्चात् विपाक आरम्भ होता है। एक कोड़ाकोड़ी वर्षप्रमाण बन्धकी स्थितिपर १०० वर्षका आबाधाकाल होता है । और अन्तः कोड़ा कोड़ी सागारोपम स्थितिका आबाधाकाल अन्तर्मुहूर्त होता है । परन्तु आयुकर्मका आबाधाकाल इससे भिन्न है। क्योंकि वहाँ आबाधा अधिक-से-अधिक एक पूर्वकोटि आयुके तृतीयांश प्रमाण होती है। सातवीं जधन्यस्थिति नामक चूलिकामें ४३ सूत्र है । इस चूलिकामें कर्मोंकी जघन्य स्थितिका निरूपण किया गया है । परिणामोंकी उत्कृष्ट विशुद्धि जघन्य स्थितिबन्धका और संक्लेश उत्कृष्ट कर्मस्थितिबन्धका कारण है।
आठवीं चूलिका सम्यक्त्वोत्पत्ति १६ सूत्र हैं। इस चूलिका में सम्यक्त्वोत्पत्तियोग्य कर्मस्थिति, सम्यक्त्वके अधिकारी आदिका निरूपण है । जीवन-शोधन के लिए सम्यक्त्वकी कितनी अधिक आवश्यकता है, इसकी जानकारी भी इससे प्राप्त होती है। नवमी चूलिका गति अगति नामकी है। इसमें २४३ सूत्र हैं । विषयवस्तुकी दृष्टिसे इसे चार भागों में विभक्त किया जा सकता है। सर्वप्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके बाहरी कारण किस गतिमें कौन-कौनसे सम्भव है, इसका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। तदनन्तर चारों गतिके जीव मरणकर किस-किस गति में जा सकते हैं और किस-किस गति से किस-किस गतिमें आ सकते हैं, का विस्तारपूर्वक वर्णन पाया जाता है । देव मरकर देव नहीं हो सकता और न नारको ही हो सकता है। इसी तरह नारकी जोव मरकर न तर और सारस्वताचार्य : ६५
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नारको हो सकता है और न देव हो। इन दोनों गतियोंके जीव मरणकर मनुष्य या तिर्यञ्चगति प्राप्त करते हैं । देव और नारकी मरकर मनुष्य या तियंश्च ही होते हैं। मनुष्य और तिर्यञ्चगतिके जीव चारों हो गतियोंमें जन्म ग्रहण कर सकते हैं ।
तदनन्तर किस गुणस्थान में मरणकर कौन-सी गति किस-किस जीवको प्राप्त होती है, इसपर विशेष विचार किया है । तत्पश्चात् बतलाया गया है कि नरक और देवगतियोंसे आये हुए जीव तीर्थंकर हो सकते हैं । अन्य गतियोंसे आये हुए नहीं । चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण और बलभद्र केवल देवगति से आये हुए जीब ही होते हैं, शेष गतियोंसे आये हुए नहीं । चक्रवर्ती मरणकर स्वर्ग और नरक इन दोनों गतियोंमें जाते हैं और कर्मक्षयकर मोक्ष भां प्राप्त कर सकते है । बलभद्र स्वर्ग या मोक्षको जाते हैं। नारायण और प्रतिनारायण मरणकर नियमसे नरक जाते हैं। तत्पश्चात् बतलाया गया है कि सातवें नरकका निकला जीव तिर्यञ्च ही हो सकता है, मनुष्य नहीं । छठे नरकसे निकले हुए जीव तिर्यञ्च और मनुष्य दोनों हो सकते हैं । पञ्चम नरकसे निकले हुए जीव मनुष्यभवमें संयम भी धारण कर सकते हैं, पर उस भवसे मोक्ष नहीं जा सकते | चौथे नरकसे निकले हुए जीव मनुष्य होकर और संयम धारण कर केवलज्ञानको उत्पन्न करते हुए निर्वाण भी प्राप्त कर सकते हैं। तृतीय नरकसे निकले हुए जीव तीर्थंकर हो सकते हैं। इस प्रकार जीवद्वाण नामक प्रथम खण्डमें कुल २,३७५ सूत्र हैं और यह आठ प्ररूपणाओं और नौ चूलिकाओं में विभक्त है । २. खुद्दाबन्ध (क्षुकबन्ध)
इसमें मार्गणास्थानोंके अनुसार कौन जीव बन्धक है और कौन अबन्धक, का विवेचन किया है । कर्मसिद्धान्त की दृष्टिसे यह द्वितीय खण्ड बहुत उपयोगी और महत्त्वपूर्ण है। इसका विशद विवेचन निम्नलिखित ग्यारह अनुयोगों द्वारा किया गया है
१. एक जीवको अपेक्षा स्वामित्व
२. एक जीवकी अपेक्षा काल
३. एक जीवकी अपेक्षा अन्तर
४. नानाजीवोंकी अपेक्षा भंगविचय
५. द्रव्य प्रमाणानुगम ६. क्षेत्रानुगम
७. स्पर्शानुगम
4. नानाजीवों की अपेक्षा काल
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९. नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर
१०. भागाभागानुगम
११. अल्पबहुत्वानुगम
इन ग्यारह अनुयोगों के पूर्वं प्रास्ताविक रूपमें बन्धकोंके सस्वको प्ररूपणा को गई है और अन्तमें ग्यारह अनुयोगद्वारोंकी चूलिका के रूपमें महादंडक दिया गया है । इस प्रकार इस खण्ड में १३ अधिकार हैं ।
प्रास्ताविक रूपमें आई बन्ध सत्त्वप्ररूपणा में ४३ सूत्र है । गतिमार्गणाके अनुसार नारको और तिर्यञ्च बन्धक हैं। मनुष्य बन्धक भी है और अबन्धक भी । सिद्ध अबन्धक हैं । इन्द्रियादि मार्गणाओंको अपेक्षा भी बन्धके सत्त्वका विवेचन किया है। जबतक मन, वचन और कायरूप योगको क्रिया विद्यमान रहती है तबतक जीव बन्धक रहता है। अयोगकेवली और सिद्ध अबन्धक होते हैं।
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स्वामित्व नामक अनुगम में ५१ सूत्र हैं, जिनमें मार्गणाओं के अनुकमसे कौन-से गुण या जीवके किन भावोस उत्पन्न होते हैं तथा जीवको लब्धियों की प्राप्ति किस प्रकार होती है, आदिका प्रश्नोत्तरके रूपमें प्ररूपण किया गया है। इस अनुगममें सिद्धगति, अनिद्रियत्व, अकायत्व, अलेश्यत्व, अयोगत्व, क्षायिकसम्यक्त्व, केवलज्ञान और केवलदर्शन तो क्षायिकलब्धिसे उत्पन्न होते हैं। एकेन्द्रियादि पांच जातियां मन, वचन, काय ये तीन योग, मति श्रुत, अवधि और मन:पर्यय ये चार ज्ञान, तोन अज्ञान, परिहारविशुद्विसंयम, चक्षु, अचक्षु और अवधिदर्शन, वेदकसम्यक्त्व, मम्यक् मिथ्यादृष्टित्व और संशित्वभाव ये क्षायोपशमिकलब्धिसे उत्पन्न होते है । अपगतवेद, कषाय, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यातसंयम ये भोपशमिक तथा क्षायिकलब्धिसे उत्पन्न होते हैं । सामायिक और छेदोपस्थापना संयम औपशमिक, श्रामिक और क्षायोपशमिकलब्धिसे उत्पन्न होते हैं । औपशमिक सम्यग्दर्शन औपशमिकलब्धि से उत्पन्न होता है, भव्यत्व, अभव्यत्व और सासादन सम्यग्दृष्टित्व ये पारिणामिक भाव है। शेष गति आदि समस्त मार्गणान्तर्गत जोबपर्याय अपने-अपने कर्मों के उदयसे होते हैं । अनाहारकत्व कर्मोके उदयसे भी होता है और क्षायिकलब्धि से भी ।
कालानुगममें २१६ सुत्र हैं। इस अनुगममें गति इन्द्रिय, काय आदि मार्गणाओं में जीवकी जघन्य और उत्कृष्ट कालस्थितिका विवेचन किया है । जीवस्थान खण्ड में प्ररूपित कालप्ररूपणाकी अपेक्षा यह विशेषता है कि यहाँ गुणस्थानका विचार छोड़कर प्ररूपणा की गई है।
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अन्तरप्ररूपणामें १५१ सूत्र हैं । मार्गणाक्रमसे जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालका विशद विवेचन किया गया है ।
भंगविचयमें २३ सूत्र हैं। किन मार्गणाओं में कौन-से जीव सदैव रहते और कौन-से जीव कभी नहीं रहते, का वर्णन किया है। बताया गया है कि नरकादि गतियों में जीव सदेव नियमसे निवास करते हैं । किन्तु मनुष्य अपर्याप्त कभी होते हैं और कभी नहीं भी होते। इसी प्रकार वक्रियिकमिश्र आदि जीवोंकी मार्गणाएँ भी सान्तर हैं ।
द्रव्यप्रमाणानुगममें १७१ सूत्र हैं। गुणस्थानको जोड़कर मार्गणाक्रमसे जीवोंकी संख्या, उसीके आश्रयसे काल एवं क्षेत्रका प्ररूपण किया गया है ।
क्षेत्रानुगममें १२४ और स्पर्शानुगम में २७९ सूत्र हैं। इन दोनोंमें अपनेअपने विषयके अनुसार जीवोंका विवेचन किया गया है ।
कालानुगममें ५५ सूत्र है। इसमें कालकी अपेक्षा नया जीवों कालका वर्णन किया है। अनादि-अनन्त, अनादि- सान्त, सादि-अनन्त एवं सादि- सान्त रूपसे कालप्ररूपणा की गई है ।
नाना जीवों की अपेक्षा अन्तरका वर्णन करनेवाले अन्तरानुगममें ६८ सूत्र हैं । बन्धकोंके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालकी प्ररूपणा की गई है ।
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भागाभागानुगममें ८८ सूत्र हैं। इस अनुगममें मार्गणानुसार अनन्तवं भाग, असंख्यात्तवें भाग संख्यातवें भाग तथा अनन्त बहुभाग, असंख्यात बहुभाग, संख्यात बहुभाग, रूपसे जीवोंका सर्वजीवोंकी अपेक्षा प्रमाण बतलाया गया है । एक प्रकार से इस अनुगममें जीवोंकी संख्याओंपर प्रकाश डाला गया है तथा परम्पर तुलनात्मक रूपसे संख्या बतायो गई है । यथा - नारकी जीवोंका विवेचन करते हुए कहा गया है कि वे समस्त जीवोंकी अपेक्षा अनन्तवें भाग हैं । इस प्रकार परस्पर में तुलनात्मक रूपसे जीवोंकी भाग -अभागानुक्रममें संख्या बतलायी गई है।
अल्पबहुत्व - अनुगममें १०६ सूत्र हैं, जिनमें १४ मार्गणाओंके आश्रयसे जीवसमासोका तुलनात्मक द्रव्यप्रमाण बतलाया गया है। गतिमार्गणा में मनुष्य सबसे थोड़े हैं। उनसे नारकी असंख्यगुणे हैं। देव नारवियों से असंख्यगुणे हैं । देवोंसे सिद्ध अनन्तगुणे हैं तथा तियंच देवोंस भी अनन्तगुणे हैं ।
अन्तिम चूलिका महादकके रूपमें है । इसमें ७९ सूत्र हैं। इस चूलिका में मार्गणाविभागको छोड़कर गर्भोपकान्तिक मनुष्य- पर्याप्तसे लेकर निगोद जीवों तकके जीवसमासोंका अल्पबहुत्व प्रतिपादित है। जीवोंकी सापेक्षिक राशिके ज्ञानको प्राप्त करने के लिए यह चूलिका उपयोगी है ।
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इस प्रकार समस्त खुद्दाबन्धमें १, ५८२ सूत्र हैं। इनमें कर्मप्रकृतिप्राभृतके बन्धक अधिकारके बन्ध, अबन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान नामक चार अनुयोगों से बन्धकका प्ररूपण किया गया है । इसे खुद्दकबन्ध कहनेका कारण यह है कि महाबन्धको अपेक्षा यह बन्धप्रकरण छोटा है। ३. बंषसामित्तविषय (बन्धस्वामित्वविषय) ___ इस तृतीय खण्डमें कर्मोंकी विभिन्न प्रकृतियोंके बन्ध करनेवाले स्वामियोंका विचार किया गया है । यहाँ विचपशब्दका अर्थ विचार, मोमांसा और परीक्षा है। यहां इस बातका विवेचन किया है कि कौन-सा कर्मबन्ध किस गणस्थान और मार्गणामें संभव है। अर्थात् कर्मबन्धके स्वामो कौनसे गणस्थानवर्ती और मागंणास्थानवतॊ जोव हैं। इस खण्डमें कुल ३२४ सूत्र हैं। इनमें आरम्भके ४२ सूत्रोंमें गुणस्थान-क्रमसे बन्धक जीवोंका प्ररूपण किया है। कर्मसिद्धान्तकी अपेक्षा किस गुणस्थानमें भेद और अभेद विवक्षासे कितनी प्रकृतियोंका कौन जीव स्वामी होता है, इसका विशद विवेचन किया गया है। ४. देवनाखण्ड
कर्मप्राभसके २४ अधिकारोंमेंसे कृति और वेदना नामक प्रथम दो अनुयोगोंका नाम वेदना-खण्ड है। सूत्रकारने प्रारममें मंगलाचरण किया है तथा इसी चतुर्थ खण्डके प्रारंभमें पुनः भी मंगलसूत्र मिलते हैं। अतः यह अनुमान सहजमें लगाया जा सकता है कि प्रथम बारका मंगल प्रारंभके तीन खण्डोंका है और द्वितीय बारका मंगल शेष तीन खण्डोंका । ग्रन्थके आदि और मध्यमें मंगल करनेका जो सिद्धान्त प्रतिपादित है उसका समर्थन भी इससे हो जाता है। कृतिअनुयोगद्वारमें ७५ सूत्र है, जिनमें ४४ सूत्रोंमें मंगलस्तवन किया गया है । शेष सूत्रोंमें कृत्तिके नाना भेद बतलाकर मूलकरण कृतिके १३ भेदोंका स्वरूप बतलाया गया है।
द्वित्तीय प्रकरणका १६ अधिकारोंम विवेचन किया गया है। अधिकारोंकी नामावलो सूत्रानुसार निम्न प्रकार है
१. निक्षेप-३ सूत्र २. नय-४ सूत्र ३. नाम-४ सूत्र ४. द्रव्य-१३ सूत्र ५. क्षेत्र---९९ सूत्र ६. काल-२७९ सूत्र ७. भाव-३१४ सूत्र
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८. प्रत्यय-१६ सुत्र ९. स्वामित्व-१५ सूत्र १०. वेदनाविधान–५८ सूत्र ११. गति-१२ सूत्र १२, अनन्तर--११ सूत्र १३. सन्निकर्ष.-३२० सूत्र १४. परिमाण-५३ सूत्र १५. भागाभाग-२१ सुत्र १६. अल्पबहुत्व-२७ सूत्र
वस्तुतः यह वेदना अनुयोगद्वार बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । निक्षेप अधिकार में नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपों द्वारा वेदनाके स्वरूपका स्पष्टीकरण किया गया है। नय अधिकारमें उक्त निक्षेपोंमें कौन-सा अर्थ यहां है, यह नेगम प्रकृत संग्रह आदि नयोंके द्वारा समझाया गया है । नामविधान अधिकारमें नंगमादि नयों के द्वारा ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों में वेदनाको अपेक्षा एकत्व स्थापित किया गया है । द्रावधान अधिकारम को के द्रव्यका उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट, जघन्य, सादि, अनादि स्वरूप समझाया गया है। क्षेत्रविधानसे ज्ञानावरणीयादि आठ कमरूप पुद्गलद्रव्यको वेदना मानकर समुद्घातादि विविध अवस्थाओंमें जीवक प्रदेशक्षत्रको प्ररूपणा की गई है। कालविधान अधिकारमें पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहत्व अनुयोगद्वारमें कालके स्वरूपका विवेचन किया गया है | भावविधानमें पूर्वाक्त पदमीमांसादि तीन अनुयोगों द्वारा ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों की उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट भावात्मक वेदनाओं पर प्रकाश डाला गया है । वेदना प्रत्ययमे नयोंके आश्रय द्वारा वेदभाके कारणोंका विवेचन किया है । वेदना स्वामित्वमें आठों कर्मो के स्वामियों का प्ररूपाग किया है। वेदना वेदन अधिकारमें आठो कर्मों के बध्यमान, उदारणा और उपशान्त स्वरूपोंका एकत्व और अनेकत्वको अपेक्षा कथन किया है । वेदना गतिविधान अनुयागारमें कर्मी की स्थिति, स्थिति अथवा स्थित्यस्थिति अवस्थाओंका निरूपण किया है। अनन्तरविधान अनुयोगद्वारमें कर्मों की अनन्तपरम्परा एवं बन्धप्रकारोंका विचार किया है। कर्मो को वेदना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा किस प्रकार उत्कृष्ट और जघन्य होती है, का विवेचन वेदना सन्निकर्षम किया गया है । वेदना परिमाणविधान अधिकारमें आठों कर्मों की प्रकृत्यर्थता, समयबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्यासकी प्ररूपणा को गई है । भागाभागमें कर्मप्रकृतियोंके भाग और अभागका विवेचन आया है । अल्प
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बहुत्वविधानमें कर्मों के अल्पबहुत्वका निरूपण किया है। इस प्रकार वेदनाखण्डमें कुल १,४४९ सूत्र हैं। ५. वर्ग शाखण्ड
इसमें स्पर्श, कर्म और प्रकृति नामक तीन अनुयोगद्वारोंका प्रतिपादन किया गया है। स्पर्श-अनुयोगद्वारमें स्पर्शनिक्षेप, स्पर्शनयविभाषणता, स्पर्शनामविधान और स्पर्शद्रव्यांववान आदि १६ आधेकास स्पशका विचार किया गया है। कर्म-अनुयोगद्वारमें नामकर्म, स्थापनाकर्म, द्वघ्यकर्म, प्रयोगकर्म, सामावदानकर्म, अधःकरणकम, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म, क्रियाकर्म और भावकर्मका प्ररूपण है। प्रकृति-अनुयोगद्वारमें प्रकृतिनिक्षेप आदि १६ अनुयोगद्वारोंका विवेचन है । इन तीनों अनुयोगद्वारों में क्रमशः ६३, ३१, और १४२ सूत्र हैं ।
बन्धनके चार भेद हैं-१. बन्ध, २. बन्धक, ३. बन्धनीय और ४. बन्धविधान । बन्ध और बन्धनीयका विवेचन ७२७ सूत्रोंमें किया गया है । बन्धप्रकरण ६४ सूत्रोंमें समाप्त हुआ है। बन्धनीयका स्वरूप बतलाते हए कहा है कि विपाक या अनुभव करनेवाले पुद्गल-स्वन्ध हो बन्धनीय होते हैं और वे वर्गणारूप है। ६. महावन्ध ___ बन्धनीय अधिकारकी समाप्तिके पश्चात प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धका विवेचन छठे वण्ड में अनेक अनुयोगद्वारोंमें विस्तारपूर्वक किया गया है। प्रकृतिका शब्दार्थ स्वभाव है । यथा-चीनीको प्रकृति मघर और नीमकी प्रकृति कटुक होती है। इसी प्रकार आत्माके साथ सम्बद्ध हुए कर्मपरमाणुओंमें आत्माके ज्ञान-दर्शनादि गुणोंको आवृत करने या सुस्वादि गुणोंके घात करनेका जो स्वभाव पड़ता है उसे प्रकृतिबन्ध कहते हैं। वे आये हए कर्मपरमाणु जितने समयतक आत्माके साथ बंधे रहते हैं उतने कालकी मर्यादाको स्थितिबन्ध कहते हैं। उन कर्मपरमाणओंमें फलप्रदान करनेका जो सामथ्र्य होता है उसे अनुभागबन्ध कहते हैं। आत्माके साथ बंधनेवाले कर्मपरमाणुओंके ज्ञानावरणादि आठ कर्मरूपसे और उनकी उत्तरप्रकृत्तियोंके रूपसे जो बॅटवारा होता है उसे प्रदेशबन्ध कहते हैं। इस षष्ठ खण्डमें इन चारों बन्धोंका प्रकृतिसमुत्कीर्तन, सर्वबन्ध, नोसर्वबन्ध, उत्कृष्टबन्ध, अनुत्कृष्टबन्ध आदि २४ अनुयोगद्वारों द्वारा प्ररूपण किया गया है । आचार्य आयमंझ और नागहस्ति ये दोनों आचार्य दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों परम्पराओंमें प्रतिष्ठित हैं।
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श्वेताम्बर परम्परामें आयभक्षुको आयमंगु नामसे उल्लिखित किया है। भंगु
और मंक्षु एकार्थक शब्द हैं। अतः ये दोनों एक ही व्यक्तिके लिए प्रयुक्त हैं। 'धवला टीकामें इन दोनोंको महाश्रमण और महावामक लिखा है
"कम्मट्टिदि त्ति अणियोगद्दारे हि भण्णमाणे वे उवएसा होति । जहण्णमुक्कस्सहिदीणे पमाणपरूवणा कढिदिपरूवणं ति जागहत्यि-खमासमणा भणति । अजमखु-बमासमणा पुण कम्मट्टिदिपरूवेणे ति भणंति । एवं दोहि उवएसेहि कम्मट्रिदिपरूषणा कायस्वा ।" "एत्थ दुवे उवएसा....""महावाचयाणमज्बमखुखवणाणमुवएसेण लोगपूरिदे आसगसमाणं णामा-गोद-वेदणीयाणे ठिविसंतकम्मं ठवेदि । महावाचयागंणागहत्थि-खवणाणमुवएसेण लोगे पूरिदे णामा-गोदवेदणीयाण ट्ठिविसंतकम्म अंतोमुहत्तपमाणं होदि ।"
इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि आर्यमंक्षु और नागहस्ति क्षमाश्रमण और महावापक पदोंसे विभूषित थे। इससे इन दोनोंको सिद्धान्तविषयक विद्वत्ताका पता चलता है। जयपवलामें आर्यमा और नागहस्तिका उल्लेख करते हुए इन दोनोंको आरातीय परम्पराका अभिज्ञ माना है । लिखा है____ "एदम्हादो विललगिरिमत्ययस्थवड्वमाणदिवायरादो विणिग्गमिय गोदमलोहज-जंबुसामियादि-आइरियपरंपराए आगंतूण गुणहराइरियं पायिय गाहासस्वेण परिणमिय अज्जमखु-णागहत्थोहितो जइवसहायरियमुवामय चुण्णिसुत्तायारेण परिणदिव्यज्झुणिकिरणादो णव्वदे ।"३
अर्थात् विपुलाचलके ऊपर स्थित भगवान महावीररूपी दिवाकरसे निकलकर गौतम, लोहार्य, जम्बूस्वामी आदि आचार्यपरम्परासे आकर गुणधराचार्यको प्राप्त होकर वहाँ गाथारूपसे परिणमन करके पुनः आर्यमंक्षु और नागहस्ति आचार्यके द्वारा आर्य यतिवषभको प्राप्त होकर णिसूत्ररूपसे परिणत हुई दिव्यध्वनि किरणरूपसे अज्ञान अन्धकारको नष्ट करती है। इससे स्पष्ट है कि ये दोनों आचार्य अपने समयके कर्मसिद्धान्तके महान वेत्ता और आगमके पारगामो थे । जयधवलाकार आचार्य वीरसेनने टीकाके प्रारंभमें उक्त दोनों आचार्योंकी महत्ता प्रदर्शित की है। धवला और जयधवला टीकाओंके आधार पर इन दोनों
आचार्योको सिद्धान्तका मर्मज्ञ और व्याख्याता माना जा सकता है। वीरसेनने लिखा है
गुणहर-वयण-विणिग्गय-गाहाणत्योऽवहारियो सब्यो।
जेणज्जमखुणा सो सणागहस्थी वरं देऊ ।।७।। १. षट्वण्डागम १ प्र. पृ० ५७, पुरातन जैन बामय-सूची पृ० ३० पर उद्धत । २. कसायपाहुए, पश्चम भाग, पृष्ठ ३८८ । ७२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परमरा
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जो अज्जयमखुसोयो अंतेवासी वि पागहस्थिस्स ।
सो वित्तिसुत्तकत्ता जइवसहो मे वरं देऊ ॥८॥ अर्थात् जिन आर्यमक्षु और नागहस्तिने गुणधराचार्यके मुखकमलसे विनिर्गत कसायपाइको गाथाओंके समस्त अर्थको सम्यक्प्रकार ग्रहण किया, वे हमें वर प्रदान करें। चूणिसूत्ररचयिता यतिवृषभ आर्यमक्षुके शिष्य और नागस्तिके अन्तेवासी हैं।
इन गाथाओंसे निम्नलिखित तथ्य प्रसूस होते हैं१. आयमंक्षु और नागहस्तिकी समकालीनता २. कसायपाहुडको विझता ३. यतिवृषभके गुरुके रूपमें गया
यतिवृषभने अपने चूर्णिसूत्रोंमें आर्यमा और नागहस्तिको गुरुके रूपमें उल्लिखित नहीं किया है और न अन्य किसी आचार्यका हो अपनेको शिष्य बताया है । यद्यपि कुछ ऐसे स्थल उपलब्ध होते हैं, जिनसे उक्त दोनोंका गुरुत्व व्यक्त हो जाता है। उन्होंने "एल्थ वे उयएसा" कहकर दो उपदेशकोंकी सूचना दी है। ये उपदेशक अपने समयके दो महान ज्ञानो गुरु थे। जयधवलामें लिखा है___"पुणो तेसिं दोन्हं पि पादमले असीदिसदगाहाणं गुणहरमुहकमलविणिग्गयाणमत्वं सम्भं सोमण जयिवसहमहारएण पवयणवच्छलेण चुणिसुत्तं कयं ।"३
अर्थात् गुणधरके मुखकमलसे निकली हुई गाथाओंके अर्थको जिनके पादमूलमें सुन कर यतिवृषभने चूर्णिसूत्र रचा ।
इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारमें आयमच और नागहस्तिको गुणपराचार्यका शिष्य बताया गया है। अतएव इन दोनोंके गुरु गुणधराचार्य हैं और शिष्य यतिवृषभ
एवं गाथासूत्राणि पंचदशमहाधिकाराणि ।
प्रविरच्य व्याचल्यो स नागहस्त्यार्यमंक्षुभ्याम् ॥' अर्थात् गुणधराचार्यने कसायपाहुइको सूत्रगाथाओंको रचकर स्वयं उनको व्याख्या करके आर्यमंक्षु और नागहस्सिको पढ़ाया ।
जयषयलाके एक अन्य उल्लेखसे अवगत होता है कि आचार्यपरम्परासे प्राप्त गायाओंको शिक्षा गुणधरने आर्यमंक्षु और नागहस्तिको दी थी१. जयषवलाटीका, मंगलाचरण पच ७-८ । २. कसायपाहुन, जमघवला टीका, भाग १, पु.८८ । ३. श्रुतावतार, पद्य १५४ ।
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“पुणो ताओं मुत्तगाहाओ आइरिय-परंपराए आगच्छमाणाओं अज्जमंखुणामत्यो पत्ताओ।"
अर्थात् गुणधराचार्यको उक्त सूत्रगाधाएँ आचार्य परम्परासे चली आती हुई आर्यमक्षु और नागहस्तिको प्राप्त हुईं ।
इस उद्धरणसे एक महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष यह निकलता है कि इन दोनों आचार्योंका गुणधर के साथ सीधा सम्बन्ध नहीं था; पर आरम्भमें जयधवलाकारने गुणधरका आर्यमक्षु और नागहस्तिके साथ सीधा सम्बन्ध माना है। श्रुतावतार से भी गुणधराचार्य के साथ इन दोनोंका साक्षात् सम्बन्ध घटित होता है ।
आर्यमक्षु और नागहस्तिके व्यक्तित्व के सम्बन्धमें श्वेताम्बर परम्परासे भी पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है। नन्दिसुत्रकी पट्टावलीमें आचार्य आर्यमक्षुका परिचय देते हुए लिखा है
भगं करणं झणगं पभावगं णाणदंसण गुणाणं । वंदामि अज्जमंत्रं सुयसागरपारगं धीरं ।।'
अर्थात् जो सूत्रों के अर्थव्याख्याता है, माधुपदोचित क्रियाकलापके करनेवाले हैं, घमंध्यानके ध्याता या विशिष्ट अभ्यासी हैं, ज्ञान और दर्शन गुणके महान् प्रभावक हैं, धीर-वीर हैं, परीषह और उपसर्गों के सहन करनेवाले हैं एवं श्रुतसागरके पारगामी है, ऐसे आचार्यकी में वन्दना करता हूँ ।
श्वेताम्बर पट्टावली में इन्हें आर्यसमुद्रका शिष्य कहा गया है। इसी पट्टाचली में नागहस्तिका परिचय भी प्राप्त होता है ।
वड्ढउ वायगवंसो जसवंसो अज्जणा महत्थीणं । वागरण-करण भंगिय-कम्मपर्याडपहाणाणं
॥
जो संस्कृत और प्राकृत भाषा के व्याकरणोंके नेता हैं, करणभंगो अर्थात् पिण्डशुद्धि, समिति, भावना, प्रतिमा, इन्द्रियनिरोध, प्रतिलेखन और अभिग्रहको नानावित्रियोंके ज्ञाता है और कर्मप्रकृतियोंके प्रधान रूपसे व्याख्याता है, ऐसे आर्य नागहस्तिका यशस्वी वाचक वंश वृद्धिको प्राप्त हो । इन्हें आर्य नन्दिल क्षपणकका शिष्य बतलाया गया है।
उक्त दोनों गाथाओंपरसे आर्यमंशु और नागहस्तिके व्यक्तित्वके सम्बन्ध में निम्नलिखित निष्कर्षं फलित होते हैं
२. नन्दिसूत्र पट्टावली, गाथा २८ ।
१. नन्दिसू पट्टावली, गाधा ३० ।
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१. ये दोनों आचार्य सिद्धान्तके मर्मज्ञ थे। २. श्रुतसागरके पारगामी थे। ३. सूत्रों ख्याता :
४. गुप्ति, समिति और व्रतोंके पालनमें सावधान तथा परीषह और उपसर्गाके सहन करनेमें पटु थे।
५. वाचक और प्रभावक भी थे। समय-निर्णय
श्वेताम्बर पट्टालियों में से कल्पसूत्र-स्थविरावली और पट्टावली-सारोद्धारमें तो उक्त दोनों आचार्योका नाम नहीं मिलता है। अन्य पट्टावलियों में से किसोमें कंवल आर्यमंझुका नाम और किसोमें आर्यनाग हस्तिका नाम आता है । जहाँ इन दोनों आचार्यों के नाम हैं, वहाँ भी बीच में किसी अन्य प्राचार्यका नाम आ गया है।
यह तो निर्विवाद है कि पट्टायलियोंमें उल्लिखित आर्यमंक्षु और नागहस्ति ही धवला और जयधवलामें उल्लिखित आर्यमक्ष और नागहस्ति है। वि० सं० १३२७के लगभग धर्मघोषने 'सिरि-दुसमाकाल-समणसंघ-श्यं' नामक पट्टा पली संगृहीत की है, जिसमें' वइर' के पश्चात् ही नागथिका नाम आया है। यथा
बीए निवीस वइरं च नागहत्थि व रेवईमित्तं ।
सोहं नागझुणं भूइदिन्नियं कालयं वंदे ।।' ये वइर, वहर द्वितीय या कल्पसूत्र-पट्टावलीके उपकोसिय गोत्रीय वइरसेन हैं, जिनका समय इसो पट्टावलीको अवचूरोमें राजगणनासे तुलना करते हुए वीर नि० सं० ६१७के पश्चात् बतलाया गया है।
पुष्पमित्र (दुर्बलिका पुष्पमित्र २० ॥ तथा राजा नाइड: ॥१०॥ एवं ६०५ शावसंवत्सरः ।। अत्रान्तरे वोटिका निर्गता। इति ६१७॥ प्रथमोदयः । वायसरेण ३ नागहस्ति ६९ रेवतिमित्र ५९ बभदीवग सिंह ७८ नागार्जुन ७८ ।
पणसयरी सयाई तिन्नि-सय-समन्निआई अइकमळ ।
विक्कमकालाओ तओ बहुली (वलभी) भंगो समुप्पन्नो।। उक्त उद्धरणके अनुसार वीर नि० सं० के ६१७ वर्ष पश्चात् पइरसेनका काल तीन वर्ष और उनके अनन्तर नागहस्तिका काल ६९ वर्ष पाया जाता है। कल्पसूत्र-स्थविगवलीमें एक वइरको गौतम-गोत्री और दूसरेको उक्कोसी१. पट्टावलीसमुच्चय पृ० १६ ।
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यगोत्री कहा है और उन्हें परस्परमें गम्-शिरा बतलाया है। किन्त, कार पलेकी पदावलियों में उनके नामोके बीच एक दो नाम और जुड़े हुए मिलते हैं। प्रथम अज्जवइरके समयका उल्लेख वीर नि० सं० ५८४ वर्ष पाया जाता है। और द्वितीय अज्जवइरका वीर नि० सं० ६१७ पाया जाता है। इन दोनों आचार्योंसे पूर्व आर्यमंक्षुका उल्लेख है तथा इन दोनोंके अनन्तर नागहस्तिका निर्देश है । अतः इन चारों आचार्योका समय निम्न प्रकार हैआर्यमंक्ष
४६७ वी नि० आर्यवच्च- ४९६-५८४ ।। आर्य वनसेन- ६१७-६२० ।
आर्य नागहस्ति- ६२०.६८९ , दिगम्बर वाङ्मयके अनुसार उक्त दोनों आचार्य यतिवृषभके गुरु और गुणधरके शिष्य होनेके कारण गुणपराचार्यके समकालीन हैं।
मथुराके सरस्वती-आन्दोलनके सम्बन्धमें कहा जाता है कि मथुरा संघने पुस्तकधारिणी सरस्वती देवीको विशाल प्रतिमाएं प्रतिष्ठित को थीं। दूसरी शती ई. के पूर्वाद्ध में कुषाण नरेशोंके शासन-कालमें आचार्य नागहस्ति द्वारा प्रस्थापित सरस्वती देवोकी जो खण्डित मूर्ति मथुराके कंकाली टोलेसे प्राप्त हुई है वह सबसे अधिक प्राचीन है। यह सरस्वती-आन्दोलन अर्थात् ग्रन्थ लिखनेका आन्दोलन ई०पू०.५० से ई० सन् १०० तक रहा है। नागहस्ति या हस्त-हस्तिका नाम मथुराके शिलालेखमें आया है। अतः डा० ज्योतिप्रसादजोने नागहस्तिकी तिथि ई. सन् १३०-१३२ निर्धारित की है और आर्यमक्ष को नागहस्तिसे पूर्ववर्ती मानकर उनका समय ई० सन् ५० माना है।'
श्वेताम्बर पट्टावलियोंके आधारपर आर्यमा और नागहस्तिके समयमें १३० वर्षका अन्तर पड़ता है। अत: वे दोनों समकालीन नहीं है; पर दिगम्बर उल्लेखोंके अनुसार ये दोनों आचार्य महावीर स्वामीको परम्पराको २८ वी पोढ़ीपर आते हैं जिसका अर्थ है कि कोर नि० सं० सातवीं शताब्दी इनका समय है। श्वेताम्बर पट्टावलियोंके अनुसार आयमंक्षका काल वोर नि० सं० पाँचवीं शताब्दी और नागहस्तिका सातवीं शताब्दी है। धवला और जयधवलामें आर्यमा और नागहस्तिका उल्लेख जिस क्रमसे आया है उससे भी यह ध्वनित होता है कि आर्यमा नागहस्तिसे ज्येष्ठ थे । इसीलिए उनका नाम प्रथम रखा
1. Thc Taina Sources of The History of Ancient India P. 116. ७६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्म-परम्परा
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गया है और नागहस्तिका पश्चात् । यहां यह अवश्य विचारणीय है कि धवला एवं जयधवलामें उल्लिखित आर्यमंझ, और नागस्ति श्वेताम्बर पट्टावलियोंके हो आचार्य हैं तो दोनों परम्पराओंमें इतना अन्तर क्यों है ? अताभिहता और पाण्डित्य
आर्यमंक्ष, और नागहस्ति 'महाकम्मपडिपाहुड' के ज्ञाता थे । इनसे यतिवृषभने 'कसायपाहुड' के सूत्रोंका व्याख्यान प्राप्तकर चूर्णिसूत्रोंको रचना की है । अतः ये दोनों आचार्य पेज्जदोसपाहुडके भी उत्कृष्ट ज्ञाता थे। धवला टोकाकार आचार्य बोरसेनने आर्यमंक्ष, और नागहस्तिके उपदेशका वर्णन करते हुए लिखा है कि आर्यमक्ष और नागहस्तिके उपदेश प्रवाहकमसे आये हुए थे। उन उपदेशको 'पवाइज्जमाण' कहा है।
"तेसि चेव भयवंताणमज्जमखु-णागहत्थोणं पवाइज्जतेणुवएसेण चोइस जोबममासेसु जहष्णुक्कस्सपदविसेसिदो अप्पाबहुअदंडओ एतो भणिहिदि भणिष्यत इत्यर्थः । __ इस उद्धरणसे यह स्पष्ट है कि आचार्य वीरसेन उक्त दोनों आचार्योंके उपदेशको परम्परासे प्राप्त प्रवाहमान कहा है । जो तथ्य आरातोयपरम्परासे प्राप्त होते हैं वे ही तथ्य यथार्थ कहे जाते हैं और उन्हींको प्रवाह्यमान कहा जाता है।
आगे चलकर इसी जिल्दमें आचार्य वीरसेनने कषायोंके संयोगके वर्णनप्रसंगमें आर्यमक्ष के उपदेशको 'अपवाइज्जमाण' और नागहस्तिके उपदेशको 'पदाइज्जंत' कहा है । बताया है___ "एत्तो पवाइज्जतोवएसमलविय एदिस्से चउत्थोए सुत्तगाहाए अस्थविहासणा कीरदि ति वुत्तं होइ ! को वुण पवाइज्जतोवएसो णाम? वुच्चदे-वुत्तमेद सव्वाइरियसम्मदो चिरकालमवोच्छिण्णसंपदायकमेणागच्छमाणो जो सिस्सपरंपराग पवाइज्जदे पण्णविजदे सो पवाइजसोवएसो ति भण्णदे। अथवा अज्जमखुभयवंताणमुवाएसो एल्यापवाइज्जमाणो णाम । णागहत्यिखवणाणमुवएसो पवा. दज्जंतयो त्ति घेत्तब्वो।"२
जो सब आचार्योंके द्वारा सम्मत है । विरकालसे अटित सम्प्रदायक्रमसे चला आ रहा है और जो शिष्यपरम्पराके द्वारा प्रवाहित किया जाता है या ज्ञापित किया जाता है, वह प्रवाहमान उपदेश कहलाता है। आर्यमा १. कसायपाहूड, जयपवलाटीका, जिल्द १२, पृ० २३. २. कसायपाहुर, जयषधला टीका, जिल्द १२, पृ० ७२.
ध्रुवघर और सारस्वताचार्य : ७७
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आचार्यका उपदेश प्रकृत, कषायसंयोगवर्णन क्रममें अप्रवाह्यमान है और नागहस्ति क्षमाश्रमणका उपदेश प्रवाह्यमान है ।
उपर्युक्त संदर्भ से यह निष्कर्ष निकलता है कि उपदेशकी दो परम्पराएँ, विद्यमान थीं। एक पवाइज्जत' और दूसरी 'अपवाहज्जमान' | वीरसेनने आर्यमंक्षुके उपदेशको 'अपवाइज्माण' और नागहस्तिके उपदेशको 'पवाडज्जत' कहा है। उपयोगाधिकारकी चतुर्थ गाथाकी विभाषा करते हुए चूर्णिकारने इग गायकी विभाषा विषयमें दो उपदेश बताये हैं। एक उपदेशके द्वारा व्याख्यान समाप्त करके लिखा है कि अब 'पवाइज्र्ज्जत' उपदेश के द्वारा नौथो मायाको विभाषा करते हैं । साधारणतः आर्यमक्षु और नागहस्तिके उपदेश में कोई अन्तर नहीं था; पर क्वचित् कदाचित् उपदेशमें अन्तर रहनेके कारण पवाइज्जत' और 'अपवाइज्जमाण' का उल्लेख आया है |
आर्य का उपदेश 'अपवाइज्जमाण' क्यों था, इस सम्बन्ध में श्वेताम्बर परम्परासे कुछ प्रकाश पड़ता है । इस परम्परामें बताया है कि आचार्य आर्यमक्षु विहार करते हुए मथुरापुरी पहुंचे। यहां पर श्रद्धालु 'भक्त' और शुश्रूषारत शिष्यों के व्यामोहके कारण वहीं रहने लगे। रसगारवके वे इतने वशीभूत थे, जिससे बिहार वहीं रहने को वर्ष श्रमय शिथिल होने लगा और वहीं उन्होंने समाधिमरण प्राप्त किया ।"
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वज्रयश
'निलोय पण्णत्ती' में आचार्य वच्चयशका उल्लेख है और उन्हें अन्तिम प्रज्ञाश्रमण बताया गया है। लिखा है
पणसमणेसु चरिमो वदरजसो णाम ओहिणाणीसु । रिमो सिरिणाम सुदविणयसुसीलादिसंपण्णो ॥
3
यहाँ प्रज्ञाश्रमणों में अन्तिम प्रज्ञाश्रमण वस्त्रयश या 'वइरजस'का स्पष्ट निर्देश है । यदि ये 'वइरजस' श्वेताम्बर पट्टाबलियोंमें उल्लिखित वज्रयण ही हों, तो कोई आश्चर्य नहीं । तत्त्वार्थवात्तिक में पदानुसारित्व और प्रज्ञामश्रणत्व इन दो ऋद्धियोंको एक ही बुद्धि ऋद्धिके उपभेद कहा है । षट्खण्डागमके वेदना खण्ड में निबद्ध गौतम स्वामीकृत मंगलाचरण में इन दोनों ऋद्धियोंके धारक आचार्योंको नमस्कार किया है
१. राजेन्द्र अभिधानका 'अज्जमंग' शब्द |
२. तिलोय पण्णत्ती ४।१४८० |
३. ० ० १४३ ॥
७८: तीयंकर महावीर और उनकी आचार्य-परा
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१. 'णमो पदाणुसारीणं ।'
पदानुसारी ऋद्धिके धारकोंको नमस्कार हो । पदानुसारी बुद्धिके तीन भेद हैं-१. पदानुसारो बुद्धि, २ प्रतिसारी बुद्धि और ३. तदुभयसारी बुद्धि । जो बुद्धि बीजपदके अपस्तन पदोंको बीजपदस्थित हेतुरूपसे जानती है वह पदानुसारी बुद्धि है। जो उसके विपरीत उससे उपरिम पदोंको ही जानती है वह प्रतिसारी बुद्धि कालाती है। जो उक्त बीजपदले पाश्र्वभागों में स्थित पदोंको नियमसे अथवा बिना नियम भी जानती है उसे तदुभयसारा बुद्धि कहते हैं। २. णमो पन्जसमणाणं'
प्रशाश्रमणोंको नमस्कार हो । प्रज्ञा चार प्रकारको होती है-१. औत्पत्तिकी, २. वैनयिको, ३. कर्मजा और ४. पारिणामिकी । जो पूर्वजन्मसम्बन्धी चार प्रकारको निर्मलबुद्धिके बलसे विनयपूर्वक बारह अंगों का अवधारण, पठन, श्रवण आदि करते हैं वे औतात्तिका प्रज्ञाश्रमण कहलाते हैं। छ: मासके उपवाससे कृश होते हुए भी अपनी बुद्धिके प्रभावसे चौदहपूर्वोके विषयका भी उत्तर देते हैं तथा विनयपूर्वक बारह अंगोंको पढ़ते हैं उन्हें वेनयिकोप्रज्ञाश्रमण कहते हैं। परोपदेशसे उत्पन्न बुद्धि भी वैनयिकी प्रज्ञा कहलाती हैं। गुरू उपदेशके बिना तपश्चरणके प्रभावसे जो बुद्धि उत्पन्न होती है उसका नाम कर्मजा प्रज्ञा है। जातिविशेषसे उत्पन्न हुई बुद्धि पारिणामिकी कहलाती है।
इस प्रकार तिलोयपणतीके अनुसार वज्रयश एक बड़े आचार्य हुए हैं, जो प्रज्ञाश्रमण ऋद्धिके धारक थे और जिनका बड़ी श्रद्धासे नामोल्लेख किया जाता था।
समय-निर्धारण
आचार्य 'वनयश' या 'वइरजस' उनका उल्लेख करनेवाले आचार्य यति वृषभके पूर्ववर्ती हैं। चिरन्तनाचार्य
चिरन्तनाचार्यका उल्लख जयघवलाटीकामें प्राप्त होता है । इसमें बताया है"भेदामावादोचिरंतणाइरियवक्खाणं पि एत्य अप्पणो पढमपुढविवक्खाणसमाणं ।" १. वेदनाखण्ड, कृति अनुयोग द्वार, सूत्र ८ । २. षट्वण्टागम, वेदनाखण्ड, कृति अनुयोगद्वार, सूत्र १८ । ३. जयघवला, भाग १, पु० ५३४ ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ७९
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अर्थात् चिरंतनाचार्यका व्याख्यान प्रथम पृथ्वीके समान है । चिरन्तनाचार्यका एक अन्य उल्लेख और प्राप्त होता है, जिसमें उन्हें चिरन्तन व्याख्यानाचार्य कहा गया है
" संपहि चिरंतणवक्खाणाइरियाणमयाबहुअं वत्तइस्सामी ।"" इनका समय वप्पदेवाचार्यसे कुछ पूर्वं होना चाहिये। 'कसायपाहुड' पर चूर्णि सूत्रोंके पश्चात् उच्चारणवृत्ति-पद्धति के आधार पर तुम्बलूराचार्यने षट्खण्डागमके प्रारंभिक पाँच खण्डों पर तथा कषायपाहुड' पर ८४००० इलोक प्रमाण चूड़ामणि नामको टीका रची। शामकुण्डाचार्यंने पद्धति नामक टीका १२००० श्लोक प्रमाण लिखी। बताया है
"चतुरविकाशीतिसहस्रग्रन्थरचनाया युक्ताम् | कर्णाटभाषाकृत महती चूडामणि व्याख्याम् ॥' "प्राकृत संस्कृत कर्णाटभाषया पद्धतिः परा रचिता ॥ ३
॥३
चूर्णसूत्रकार यतिवृषभ और उनको रचनाएँ
जयधवला टीका निर्देशानुसार आचार्य यतिवृषभने आर्यमक्षु और नागहस्तिसे कसायपाहुडकी गाथाओं का सम्यक् प्रकार अध्ययनकर अर्थ अवधारण किया और कसायपाहुडपर चूर्णिसूत्रोंकी रचना की। जयधवलामें वृत्तिसूत्रका लक्षण बताते हुए लिखा है
"सुत्तस्सेव विवरणाए संखित्तसद्द यणाए संगहियसुत्तासे सत्याए वित्तिसुत्तववएसादो ।"
अर्थात् जिसकी शब्दरचना संक्षिप्त हो और जिसमें सूत्रगत अशेष अर्थोका संग्रह किया गया हो ऐसे विवरणको वृत्तिसूत्र कहते हैं ।
जयधचलाटीक में अनेकस्थलोंपर यतिवृषभका उल्लेख किया है। लिखा है"एवं जइबसहाइरियदेसामा सियसुत्तत्थपरूवणं काऊण संपहि जइवसहाइग्यिसूचिदत्यमुच्चारणाए भणिस्सामो 1४
अर्थात् यतिवृषभ आचार्य द्वारा लिखे गये चूणिसूत्रोंका अवलम्बन लेकर उक्तार्थ प्रस्तुत किया गया ।
१. जयश्वला भाग १, पृ० ५३२ ।
२. इन्द्रनन्दिश्रुतावतार, पद्म १६६ । ३. वही, पथ १६४ ॥
४. कसायपाहुड, भाग २, १० १४ ।
८० : तोर्थंकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा
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इन उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि यत्तिवृषभने चूणिसूत्रोंकी रचना संक्षिप्त शब्दावलीमें प्रस्तुत कर महान अर्थको निबद्ध किया है। यदि आचार्य यतिवृषभ चूर्णिसूत्रोंकी रचना न करते, सो बहुत संभव है कि कसायपाहुडका अर्थ ही स्पष्ट न हो पाता। अत: दिगम्बर परम्परामें चूर्णिसूत्रोंके प्रथम रचयिता होनेके कारण यतिवृषभका अत्यधिक महत्त्व है। चूणिसूत्रकी परिभाषापर षट्खण्डागमको धवलाटोकासे भी प्रकाश पड़ता है। वीरसेन आचायने षट्लण्डागमके सूत्रोंको' भी 'चुण्णिसुत्त' कहा है। यहां उन्हीं सूत्रोंको चूर्णिसूत्र कहा है जो गाथाके व्याख्यानरूप हैं । वेदनाखण्डमें कुछ गाथाएँ भी आती हैं जो व्याख्यानरूप हैं । धवलाकारने उन्हें चूर्णिसूत्र कहा है।
धवलाकारने यतिवृषभाचार्यके घूर्णिसूत्रोंको वृत्तिसूत्र भी कहा है। वृत्तिसूत्रका पूर्वमें लक्षण लिखा जा चुका है। श्वेताम्बर परम्परामें चूर्णिपदको व्याख्या करते हुए लिखा है--
अत्थबहुलं महत्थं हेउ-निवाओवसरगगंभीरं ।
बहुपायमवोच्छिन्नं गय-णयसुद्धं तु चुण्णपयं ।। अर्थात् जिसमें महान् अर्थ हो, हेतु, निपात और उपसर्गसे युक्त हो, गम्भीर हो, अनेकपद समन्वित हो, अव्यवच्छिन्न हो और तथ्यकी दृष्टि से जो धाराप्रवाहिक हो, उसे चूर्णिपद कहते हैं ।
बाशय यह है कि जो तीर्थंकरकी दिव्यध्वनिसे निस्सृत बीजपदोंका अर्थोद्घाटन करने में समर्थ हो वह चूर्णिपद है। यथार्थतः चूर्णिपदोंमें बीजसूत्रोंको विवृत्त्यात्मक सूत्र-रूप रचना की जाती है और तथ्योंको विशेषरूपमें प्रस्तुत किया जाता है।
यहाँ यह ध्यातव्य है कि श्वेताम्बर परम्पराकी चूणियोंसे इन चूणिसूत्रोंकी बोली और विषयवस्तु बहुत भिन्न है। यतिवृषभ द्वारा विरचित चूर्णिसूत्र कहलाते हैं, चूणियाँ नहीं। इसका अर्थ यह है कि यतिवृषभके चूणिसूत्रोंका महत्त्व 'कसायपाहुड' की गाथाओंसे किसी तरह कम नहीं है। गाथासूत्रोंमें जिन अनेक विषयोंके संकेत उपलब्ध होते हैं, चूर्णिसूत्रोंमें उनका उद्घाटन मिलता है । अतः 'कसायपाहुड' और चूणिसूत्र' दोनों ही आगमविषयकी दृष्टिसे महत्वपूर्ण है। १. एदस्स गाहामुत्तस्स विवरणमायेण रचिदठवरिमचुण्णिसुप्तादो।
-खण्डामम, पुस्तक १२, पृ० ४१ । २. अभिधान राजेन्द्र, चणपद ।
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आचार्य वीरसेन के उल्लेखानुसार चूर्णिसूत्रकारका मत 'कसायपाहुड' और 'षट्खण्डागम' के मत के समान ही प्रामाणिक एवं महत्त्वपूर्ण है । वि० की ग्यारहवीं शताब्दो में आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्त्तीने 'लब्धिसार नामक ग्रन्थ में पहले यतिवृषभके मतका निर्देश किया है । तदनन्तर भूतबलिके मतका | इससे स्पष्ट है कि यतिवृषभ के चूर्णिसूत्र ग्रन्थोंके समान ही महत्त्वपूर्ण और उपयोगी थे ।
यह सत्य है कि यतिवृषभाचार्य का व्यक्तित्व आगमव्याख्याताकी दृष्टिसे अत्यधिक है । इन्होंने आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, बक्तव्यता और अर्थाधिकार इन पाँच उपक्रमोंको दृष्टिसे सूत्ररूप अर्थाद्घाटन किया है । यतिवृषभ विभाषासूत्र, अवयवार्थ एवं पदच्छेदपूर्वक व्याख्यान करते गये हैं ।
चूर्णिसूत्रकार यतिवृषभके व्यक्तित्व में निम्नलिखित विशेषताएँ उपलब्ध होती हैं
१. यतिवृषभ आठवें कर्मप्रवादके ज्ञाता थे ।
२. नन्दिसूत्र के प्रमाणसे ये कर्मप्रकृतिके भी ज्ञाता सिद्ध होते हैं ।
३. आर्यमक्षु और नागहस्तिका शिष्यत्व इन्होंने स्वीकार किया था ।
४. आत्मसाधक होनेके साथ ये श्रुताराधक हैं ।
५. धवला और जयधवलामें भूतबलि और यतिवृषभ के मतभेद परिलक्षित होते हैं ।
६. व्यक्तित्वको महनीयताको दृष्टिसे यतिवृषभ भूतबलिके समकक्ष है। इनके मलोकी मान्यता सार्वजनीन है ।
७. चूर्णसूत्रों में यतिवृषभने सूत्रशैलीको प्रतिविम्बित किया है।
८. परम्परासे प्रचलित ज्ञानको आत्मसात् कर चूर्णि सूत्रोंकी रचना की गई है।
९. यतिवृषभ आगमवेत्ता तो थे, ही पर उन्होंने सभी परम्पराओंमें प्रचलित उपदेशशैलोका परिज्ञान प्राप्त किया और अपनी सूक्ष्म प्रतिभाका चूर्णि सूत्रों में उपयोग किया |
समय-निर्णय
चूर्णिसूत्रकार आचार्य यतिवृषभके समय के सम्वन्ध में विचार करनेसे ज्ञात होता है कि ये षट्खण्डागमकार भूतबलिके समकालीन अथवा उनके कुछ ही उत्तरवर्ती हैं । कुन्दकुन्द तो इनसे अवश्य प्राचीन है । बताया गया है कि प्रवचन वात्सल्य से प्रेरित होकर इन्होंने गुणघरके 'कसायपाहुड' पर चूर्णि -
८२ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा
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सूत्रों की रचना की । यतिवृषभके ग्रन्थो के अवलोकनसे यह ज्ञात होता है कि इनके समक्ष षट्खण्डागम, लोकविनिश्चय, संगाइणी और लोकविभाग (प्राकृत) जैसे ग्रन्थ विद्यमान थे । इन प्रत्थों का सम्यक् अध्ययनकर इन्हों ने चूर्णि सूत्रों की रचना की ।
'तिलोयपण्णत्ती' में
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"जल सिहरे विक्खंभो जलणिहिणो जोयणा दससहस्सा । लोयविभाए विणि ।।
एवं
संगाइणिए लोयविणिच्छय-गंधे लोयविभागम्मि सव्वसिद्धाणं । ओगाहण परिमाणं भणिदं किंचूण चरिमदेहसमो ||""
इन गाथाओं में लोकविभागका उल्लेख आया है। यह लोकविभाग प्रत्य संभवतः आचार्यं सर्वनन्दि द्वारा विरचित होना चाहिए। पर यतिवृषमके समक्ष यही लोकविभाग था, इसका कोई निश्चय नहीं । लोकानुयोगके प्रत्य प्राचीन है और संभवतः यतिवृषमके समक्ष कोई प्राचीन लोकविभाग रहा होगा । इन सर्वनन्दिने काञ्चीके राजा सिंहवर्माके राज्यके बाईसवें वर्ष में जब शनिश्चर उत्तराषाढ़ा नक्षत्र पर स्थित था, बृहस्पति वृष राशिमें और चन्द्रमा उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रमें अवस्थित था; इस ग्रन्थकी रचना की । यह ग्रन्थ शक सं० ३८० ( वि० सं० ५१५ ) में पाणराष्ट्रके, पाटलिक ग्राममें पूरा किया गया । सर्वनन्दिके इस लोकविभागका निर्देश सिंहसूर्यके संस्कृत लोकविभागकी प्रशस्ति में पाया जाता है ।
वैश्वे स्थिते रविसुते वृषमे च जीवें राजोत्तरेषु सितपक्षमुपेत्य चन्द्रे | ग्रामे च पाटलिकनामनि पाणराष्ट्र
शास्त्रं पुरा लिखितवान् मुनिसवं नन्दी || संवत्सरे तु द्वाविंशे काञ्चीशः सिंहवर्मणः । अशीत्यग्रे शकाब्दानां सिद्धमेतच्छतत्रये ॥
इस प्रशस्तिसे आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने यह निष्कर्ष निकाला है कि सिंहसूर्य का यह लोकविभाग सर्वनन्दिके प्राकृत लोकविभागका अनुवादमात्र है। उन्होंने भाषाका परिवर्तन ही किया है, मौलिक कुछ नहीं लिखा । पर इस लोकविभाग के अध्ययनसे उक्त निष्कर्ष पूर्णतया निर्भ्रान्त प्रतीत नहीं होता;
१. तिलोयपण्णत्ती की गाथाएँ, पुरातन जैन वाक्य सूची की प्रस्तावना पृ० ३१ पर उद्भुत । २. लोकविभाग, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, सन् १९६२, ११।५२-५३
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ८३
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क्योंकि सिंहसूर्यके प्रकाशित इस लोकविभागमें 'तिलोय पण्णत्तो', 'हरिवंश' एवं 'आदिपुराण' आदि ग्रन्थोंका आधार भी प्राप्त होता है। संस्कृत-लोक विभागके पञ्चम विभाग सम्बन्धी ३८ पद्यसे १३७वं पद्यका कुल चौदह कुलकरोंका प्रतिपादन आदिपुराणके श्लोकों या श्लोकांशों द्वारा किया गया है। इसी प्रकार 'तिलोयपण्णत्ती'की अपेक्षा बातवलयोंके विस्तारमें भी नवीनता प्रदर्शित की गई है । 'तिलोयपण्णत्ती' मेंतीनों वातवलयोंका विस्तार क्रमशः १३, १६एवं १११ कोश निर्दिष्ट किया है। पर सिंहसूर्यने दो कोश, एक और १५७५ धनुष बतलाया है। इसी प्रकार तिलोयपण्णत्ती'में ज्योतिषियों के नगरोंका बाहुल्य और विस्तार समान कहा गया है, पर इस ग्रन्थमें उसका कथन नहीं किया है । इस प्रकार संस्कृत लोकविभागके अन्तरंग अध्ययनसे ऐसा प्रतीत होता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ सर्वनन्दिके लोकविभागका अनुवादमात्र नहीं है। यह संभव है कि सर्वनन्दिने कोई लोकविभाग सम्बन्धी ग्रन्थ लिखा हो और उसका आधार ग्रहणकर सिंहसूर्यने प्रस्तुत लोकविभागकी रूपरेखा निर्धारित की हो । 'तिलोयपण्णत्ती' में 'संगाइणी' और 'लोकविनिश्चिय' जैसे ग्रन्थोंका भी निर्देश आया है। हमारा अनुमान है कि सिंहसूर्यके लोकविभागमें भी "तिलोयपण्णत्तो के समान ही प्राचीन आचार्योंके मतोंका ग्रहण किया गया है। सिंहसूर्यका मुद्रित लोकविभाग वि० सं० को ग्यारहवीं शताब्दोकी रचना है । अत: इसके पूर्व "तिलोयपण्णत्ती'का लिखा जाना स्वतः सिद्ध है। कुछ लोगोंने यह अनुमान किया है कि सर्वनन्दिके लोकविभागका रचनाकाल बिक्रमकी पाँचवीं शताब्दी है। अतः यतिवृषभका समय उसके बाद होना चाहिए । पर इस सम्बन्धमें हमारा विनम्र अभिमत यह है कि यतिवृषभका समय इतनी दूर तक नहीं रखा जा सकता है। ___ आचार्य यतिवृषभने अपने 'तिलोयपण्णत्ती' ग्रन्थमें भगवान महावीरके निर्वाणसे लेकर १००० वर्ष तक होने वाले राजाओंके कालका उल्लेख किया है। अतः उसके बाद तो उनका होना संभव नहीं है । विशेषावश्यकभाष्यकार श्वेताम्बराचार्य श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने अपने विशेषावश्यकभाष्यमें चूर्णिसूत्रकार यतिवृषभके आदेश-कषायविषयक मतका उल्लेख किया है और विशेपावश्यकभाष्यको रचना शक संवत् ५३१ (वि० सं० ६६६) में होनेका उल्लेख मिलता है। अतः यतिवृषभका समय वि० सं० ६६६ के पश्चात् नहीं हो सकता।
__आचार्य यतिवषभ पूज्यपादसे पूर्ववर्ती हैं। इसका कारण यह है कि उन्होंने अपने सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थमें उनके एक मतविशेषका उल्लेख किया है
८४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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"अथवा येषां मते सासादन एकेन्द्रियेषु नोत्पद्यते तन्मतापेक्षया द्वादशभागा न दत्ता ।"
अर्थात् जिन आचार्यो के मतसे सासादनगुणस्थानवत्ती जोव एकइन्द्रिय जीवोंमें उत्पन्न नहीं होता है उनके मतकी अपेक्षा १२ भाग स्पर्शनक्षेत्र नहीं कहा गया है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि सासादन गुणस्थानवाला मरण कर नियमसे देवोंमें उत्पन्न होता है। यह आचार्य यतिवृषभका ही मत है । लब्धि. सार-क्षपणासारके कर्ता आचार्य नेमिचन्दने स्पष्ट शब्दों में कहा है
जदि पद सासणो सो णिनिरिनामा पनि
णियमादेवं गच्छदि जइवसहमुणिंदवयणेणं ॥ अर्थात् आचार्य यतिवृषभके वचनानुसार यदि सासादनगुणस्थानवर्ती जीव मरण करता है तो नियमसे देव होता है।
'आचार्य यतिवृषभने चूर्णिसूत्रोंमें अपने इस मतको निम्न प्रकार व्यक्त किया है.
'आसाणं पुण गदो जदि मरदि, ण सक्को णिरयगदि तिरिषखदि मणुसगदि वा गंतुं । णियमा देवगदि गच्छदि 13
इस उल्लेखसे स्पष्ट है कि आचार्य यतिवृषभ पूज्यपादके पूर्ववर्ती हैं और आचार्य पूज्यपादके शिष्य वचनन्दिने वि० सं० ५२६ में द्रविडसंघको स्थापना को है । अतएव यत्तिवृषभका समय वि० सं० ५२६ से पूर्व सुनिश्चित है। ___कितना पूर्व है, यह यहाँ विचारणीय है। गुणधर, आर्यमा और नागहस्तिके समयका निर्णय हो जानेपर यह निश्चितरूपसे कहा जा सकता है कि यतिवृषभका समय आर्यमझ और नागहस्तिसे कुछ ही बाद है। __ आधुनिक विचारकोंने “तिलोयपण्णत्ती' के कर्ता यतिवृषभके समयपर पूर्णतया विचार किया है । पंडित नाथूराम प्रेमी और श्री जुगलकिशोर मुख्तारने यतिवृषभका समय लगभग पांचवीं शताब्दी माना है। डाक ए० एन० उपाध्येने भी प्राय: इसी समयको स्वीकार किया है। पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीने वर्तमान तिलोयपण्णत्तीके संस्करणका अध्ययन कर उसका रचनाकाल वि. की नवीं शताब्दी स्वीकार किया है। पर यथार्थतः यत्तिवृषभका समय अन्तःसाक्ष्यके आधारपर नागहस्तिके थोड़े अनन्तर सिद्ध १. सर्वार्थसिद्धि। २. लघिसार-सपणासार गाथा संध्या ३४६ । ३. कसायपाहुड, अधिकार १४, सूत्र ५४४ ।
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होता है। यतिवृषभने तिलोयपण्णत्तोके चतुर्थ अधिकारमें बताया है कि भगवान् महावीरके निर्वाण होनेके पश्चात् ३ वर्ष, आठ मास और एक परके व्यतीत होनेपर पञ्चम काल नामक दुधम कालका प्रवेश होता है। इस कालमें वीर नि० सं०६८३ तक केवली, वतकेवलो और पर्वधारियोंकी परम्परा चलती है। वीर-निर्वाणके ४७१ ? वर्ष पश्चात् शक राजा उत्पन्न होता है। शकोंका राज्यकाल २४२ वर्ष बतलाया है। इसके पश्चात् यतिवषभने गुप्तोंके राज्यकालका उल्लेख किया है। और इनका राज्यकाल २५५ वर्ष बतलाया है । इसमें ४२ वर्ष समय कल्किका भी है। इस प्रकरणके आगेवाली गाथाओंमें आन्ध्र, गुप्त आदि नपतियोंके वंशों और राज्यवर्षोंका निर्देश किया है । इस निर्देशपरस डा० ज्योतिप्रसादजीने निष्कर्ष निकालते हुए लिखा है-२ ___ 'आचार्य यतिवृषभ ई० सन् ४७८, ४८३, या ई० सन् ५०० में वर्तमान रहते, जैसा कि अन्य विद्वानोंने माना है, तो वे गुप्तवंशके ई० सन् ४३१ में समाप्तिको चर्चा नहीं करते। उस समय (ई० सन् ४१४-४५५ ई०) कुमारगुप्त प्रथमका शासनकाल था, जिसका अनुसरण उसके वीर पुत्र स्कन्दगुप्त (ई० ४५५-४६७) ने किया । इतिहासानुसार यह राजवंश ५५० ई० सन् तक प्रतिष्ठित रहा है। "तिलोयपण्णत्तो' की गाथाओं द्वारा यह प्रकट होता है कि गुप्तवंश २०० या १७६ ई० सन् में प्रारम्भ हुआ। यह कथन भी भ्रान्तिमलक प्रतीत होता है क्योंकि इसका प्रारम्भ ई० सन् ३१९-३२० में हुआ था 1 इस प्रकार गुप्तवंशके लिए कुल समय २३१ वर्ष या २५५ वर्ष यथार्थ घटित होता है। शकोंका राज्य निश्चय ही वीर नि० सं०४६१ (ई०प० ६६) में प्रारंभ हो गया था और यह ई० सन् १७६ तक वर्तमान रहा। ई० सन् ५वीं शतीका लेखक अपने पूर्वके नाम या कालके विषयमें भ्रान्ति कर सकता है; पर समसा. मयिक राजवंशोंके कालमें इस प्रकारको भ्रान्ति संभव नहीं है । ___ अतएव इतिहासके आलोक में यह निस्संकोच माना जा सकता है कि "तिलोयपण्णत्ती' की ४११४७४-१४९६ और ४१४९९-१५०३ तथा उसके आगेकी गाथाएँ किसी अन्य व्यक्ति द्वारा निबद्ध को गई हैं। निश्चय ही ये गाथाएं ई० सन् ५०० के लगभगको प्रक्षिप्त हैं। ___ तिलोयपण्णत्ती'का प्रारम्भिक अंशरूप सैद्धान्तिक तथ्य मूलतः यतिवृषभके हैं, जिनमें उन्होंने महावीर नि० सं० ६८३ या ७०३ (ई० सन् १५६-१७६) १. "णिज्याणगदे धीरे चउसदइगिसट्टिवासविच्छेदे ।
जा दो यसगरिदो रज्ज वंसस्स दुसयबादाला ।।" -तिलोयपण्णत्ती ४।१५०३ । २. '1'he Jaina sources of the history of Ancient India, P. 140-141.
८६ : तीर्थकर महावीर और उनकी माचार्य-परम्परा
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तकको सूचनाएँ दी हैं । 'तिलोयपणत्तो' के अन्य अंशोंके अध्ययनसे यह प्रतीत होता है कि यतिवृषभ द्वारा विरचित इस ग्रन्थका प्रस्तुत संस्करण किसी अन्य आचार्यने सम्पादित किया है। यही कारण है कि सम्पादनकर्तासे इतिहास सम्बन्धी कुछ भ्रान्तियाँ हुई हैं । यतिवृषभका समय शक सं० के निर्देशके आधारपर 'तिलोयपण्णत्ती के आलोकमें भी ई० सन् १७६ के आसपास सिद्ध होता है । __यतिवृषभ अपने युगके यशस्वो आगमज्ञाता विद्वान थे। ई० सन् सातवों शतीके तथा उत्तरवर्ती लेखकोंने इनकी मुक्तकण्ठसे प्रशंसा की है। इनके गुरुओंके नामों में आर्यमक्ष और नागहस्तिको गणना है। ये दोनों आचार्य श्वेता. म्बर और दिगम्बर परम्पराओद्वारा मानससे सम्मानित थे। आर्यमंक्षुका समय ई० सन् प्रथम शताब्दो और नागहस्तिका समय ई० सन् १००-१५० तक माना गया है। यतिवृषभ नागहस्तिके अन्तेवासी बताये गये हैं । अतः यह संभव है कि 'चुणिसूत्रों को रचनाके पश्चात् 'तिलोयपण्णत्ती' को रचना इन्होंनेकी। मथुरामें संचालित सरस्वती-आन्दोलनका प्रभाव इनपर भी रहा हो और ये भी ई० सन् १५०-१८० तक सम्मिलित रहे हों, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। इन्होंने ग्रन्थरूपमें सरस्वतीका अवतरण कर परम्पराको जोवित रखा है।
"तिलोयपण्णत्ती' के वर्तमान संस्करणमें भी कुछ ऐसो गाथाएँ समाविष्ट हैं जो आचार्य कुन्दकुन्दके अन्योंमें पाई जाती हैं । इस समतासे भी उनका समय कुन्दकुन्दके पश्चात् आता है।
विचारणीय प्रश्न यह है कि यतिवृषभके पूर्व यदि 'महाकर्मप्रकृतिप्राभूत' का ज्ञान समाप्त हो गया होता, तो यतिवृषभको कर्मप्रकृतिका ज्ञान किससे प्राप्त होता ? अतः यतिवृषभका स्थिति-काल ऐसा होना चाहिए, जिसमें 'कर्मप्रकृतिप्राभूत' का ज्ञान अवशिष्ट रहा हो । दूसरी बात यह है कि 'षट्खण्डागम'
और 'कषायप्राभूत' में अनेक तथ्योंमें मतभेद है और इस मतभेदको तन्त्रान्तर कहा है । अवला और जयधवलामें भूतबलि और यतिवृषभके मतभेदकी चर्चा आई है। इससे भी यतिवृषभको भतबलिसे बहुत अर्वाचीन नहीं माना जा सकता है।
रचनाएं
निविवादरूपसे यतिवृषभकी दो ही कृतियाँ मानी जाती हैं-१. 'कसायपाहुड' पर रचित 'चूणिसूत्र' और २. 'तिलोयपण्णती। तिलोयपण्णत्तीको अन्तिम गाथामें चूर्णिसूत्रका उल्लेख आया है । बताया है
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ८७
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चुण्णि सरूव टुक्करण सरूवपमाण होइ किं जत्तं । अटु सहस्सपमाणं तिलोमपण तिणामाए ॥
។
इससे स्पष्ट है कि 'तिलोयपण्णत्ती' में चूर्णि सूत्रों की संख्या आठ हजार मानी है । पर इन्द्रनन्दिके 'श्रुतावतार' के अनुसार चूर्णिसूत्रों का परिमाण छः हजार श्लोक प्रमाण है; पर इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि चूर्णिसूत्र कितने थे | जयववलाटोकासे इन सूत्रोंका प्रमाण ज्ञात किया जा सकता है । सूत्रसंख्या निम्न प्रकार है
अधिकारनाम प्रेयोद्वेषविभक्ति
प्रकृतिविभक्ति
स्थितिविभक्ति अनुभाग विभक्ति
प्रदेशविभक्ति
क्षणाक्षणाधिकार
स्थित्यन्तिक
बन्धक
प्रकृतिसंक्रमण
स्थितिसंक्रमण अनुभाग संक्रमण प्रदेश संक्रमण
सूत्रसंख्या
११२
१२९
X019
१८९
२९२
१४२
१०६
११
२६५
३०८
५४०
1७४०
३२४१
अधिकारनाम
वेदक
उपयोग
सूत्र संख्या
६६८
३२१
२५
चतुःस्थान
व्यंजन
२
दर्शन मोहोपशामना १४०
दर्शन मोक्षपणा
१२८
संयमासं यमलब्धि
संयमलब्धि
९०
६६
चारित्रमोहोपशामना ७०६ चारित्र मोहुक्षपणा
१५७०
पश्चिम स्कन्ध
५२
૩૦૬૮
कुल ३२४१ + ३७६८- ७००९
चूणिसूत्रकारने प्रत्येक पदको बीजपद मानकर व्याख्यारूप में सूत्रों की रचना की है। इन्होंने अर्थबहुल पदों द्वारा प्रमेयका प्रतिपादन किया है । आचार्य वीरसेन के आधारपर चूपिसूत्रोंको सात वर्गों में विभक्त किया जा सकता है
१. उत्थानिकासूत्र - विषयको सूचना देने वाले सूत्र |
२. अधिकारसूत्र - अनुयोगद्वारके आरम्भ में लिखे गये अधिकारबोधकसूत्र ।
३. शंका सूत्र - विषय के विवेचन करनेके हेतु शंकाओंको प्रस्तुत करने वाले सूत्र |
१. चिलोयपण्णत्ती, दुसरी जिल्द, पृ० ८८२, माथा ७७ ।
८८ : तीर्थंकर महावीर और उनको माचार्य-परम्परा
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wadi
४. पृच्छासूत्र - वक्तव्यविशेषको जिज्ञासा प्रकट करने वाले सूत्र । ५. विवरणसूत्र - विषयका विवेचन या व्याख्यान करनेवाले सूत्र । ६. समर्पणसूत्र -- उच्चारणाचार्यों द्वारा व्याख्यान करने के हेतु समर्पित ७. उपसंहारसूत्र — प्रकृत विपयका उपसंहार करनेवाले सूत्र ।
१. प्रेयोद्वेष
२. प्रकृति- स्थिति - अनुभाग- प्रदेश-क्षोण-स्थित्यन्तक ३. बन्धक
1
चूर्णिसूत्रोंमें प्रयुक्त 'भणियन्त्रा', 'वेदव्वा', 'कायव्वा', 'परवेयब्बा' आदि पद इस बात के द्योतक हैं कि उच्चारणाचार्य इस प्रकार के पदोंका अर्थबोध कराते थे । चूर्णिकार यतिवृषभ जिस अर्थका व्याख्यान विस्तारभयसे नहीं कर सके उनके व्याख्यानका दायित्व उन्होंने उच्चारणाचार्यों या व्याख्यानाचार्यों पर छोड़ा है। निश्चयतः चूर्णिसूत्रकारने 'कसायपाहुड' के गम्भीर अर्थको बड़े ही सुन्दर और ग्राह्यरूप में निबद्ध किया है। गाथासूत्रोंमें जिन अनेक विषयोके संकेत दिये गये हैं उनका प्रतिपादन चूणिसूत्रों में किया गया है । चूर्णिसूत्रकारने अपने स्वतन्त्र मत्तका भी यत्र तत्र प्रतिपादन किया है। इन्होंने चोणसूत्र में जिन १५ अर्थाधिकारोंका निर्देश किया है, उनमें गुणधर द्वारा निर्दिष्ट अर्थाधिकारोंसे अन्तर पाया जाता है । जयध्वलामें विवेचन करते हुए लिखा है कि गुणधर भट्टारकके द्वारा कहे गये १५ अधिकारोंके रहते हुए इन अधिकारोंको अन्यरूप में प्रतिपादन करने के कारण गुणधर भट्टारक के यतिवृषभ दोष- दर्शक क्यों नहीं कहलाते ? वोरसेन स्वामीनें लिखा है कि यतिवृषभने गुणधराचायंके द्वारा कहे गये अधिकारोंका निषेध नहीं किया; किन्तु उनके कथनको ही प्रकारान्तरसे व्यक्त किया है । गुणधर द्वारा कथित १५ अधिकारोंका अर्थ यह नहीं है कि ये ही अधिकार हो सकते हैं, अन्य तरहसे वर्णन नहीं हो सकता । चूर्णिसूत्रकारने निम्नलिखित १५ अधिकारोंका कथन किया है
४. संक्रम
५. उदयाधिकार
६. उदीर्णाधिकार
७. उपयोगंधिकार
८. चतुःस्थानाधिकार ९. व्यञ्जनाधिकार
सूत्र
१०. दर्शनमोहनीय उपशमनाधिकार ११. दर्शनमोहनीयक्षपणांधिकार
I
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१२. देशविरति अधिकार १३. चारित्रमोहनीय उपशमनाविकार १४. चारित्रमोहनीयक्षपणाधिकार १५. अद्धापरिमाणनिर्देशक अधिकार
'कसायपाहुड' की दो गाथाओंमें १५ अधिकारोंके नाम आये हैं । उनका अन्तिम पद 'अद्धापरिमाणनिद्देसो है । कुछ आचार्य इसे अपरमाणनिर्देश पन्द्र अधिकार मानते हैं; किन्तु जिन १८० गाथाओंमें १५ अधिकारोंके वर्णन करनेको प्रतिज्ञा को है उनमें बद्धापरिमाणका निर्देश करनेवाली छ: गाथाएँ नहीं आई हैं तथा १५ अधिकारोंमें गाथाओंका विभाग करते हुए इस प्रकारकी कोई सुचना भो नहीं दी गई है। इससे अवगत होता है कि गुणधराचार्यको अद्धापरिमाणनिर्देश अधिकार अभीष्ट नहीं था, किन्तु यतिवृषभने इसे एक स्वतन्त्र अधिकार माना है ।
चूर्णिसूत्रों के अध्ययनसे ज्ञात होता है कि यतिवृषभने १५ अधिकारोंका निर्देश करके भी अपने चूर्णि सूत्रोंकी रचना गुणधराचार्यके द्वारा निर्दिष्ट अधिकारोंके अनुसार ही की है । यह स्मरणीय है कि यतिवृषभने अधिकार के लिए अनुयोगद्वारका प्रयोग किया है । यह आगमिक शब्द है । अतएव उन्होंने आगमशैली में ही सूत्रोंकी रचना कर 'कसायपाहुड' के विषयका स्पष्टीकरण किया है । चूर्णिसूत्रों का विषय 'कसायपाहुड' का ही विषय है, जिसमें उन्होंने राग और द्वेषका विशिष्ट विवेचन अनुयोगद्वारोंके आधारपर किया है । तिलोयपण्णत्तो : विषय-विवेश्वन
तिलोय पण्णत्तो' में तीन लोकके स्वरूप, आकार, प्रकार, विस्तार, क्षेत्रफल और युगपरिवर्तन आदि विषयोंका निरूपण किया गया है। प्रसंगवश जैन सिद्धान्त, पुराण और भारतीय इतिहास विषयक सामग्री भी निरूपित है । यह ग्रन्थ ९ महाधिकारों में विभक्त है—
१. सामान्य जगत्स्वरूप, २. नारकलोक, ३. भवनवासलोक ४. मनुष्यलोक, ५. तिर्यक्लोक, ६. व्यन्तरलोक, ७ ज्योतिर्लोक, ८. सुरलोक और ९. सिद्धलोक ।
इन नौ महाधिकारोंके अतिरिक्त अवान्तर अधिकारोंकी संख्या १८० है । द्वितीयादि महाधिकारोंके अवान्तर अधिकार क्रमशः १५, २४, १६, १६, १७, १७, २१, ५ और ४९ हैं । चतुर्थं महाधिकारके जम्बूद्वीप, धातकीखण्डद्वीप और पुष्करद्वीप नामके अवान्तर अधिकारोंमेंसे प्रत्येकके सोलह-सोलह अन्तर अधिकार हैं। इस प्रकार इस ग्रन्थका विषय-विस्तार अत्यधिक है ।
९० तीर्थंकर महावीर बौर उनको आचार्य परम्परा
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इस ग्रन्थमें भूगोल और खगोलका विस्तृत निरूपण है। प्रथम महाधिकारमें २८३ गाथाएँ हैं और तीन गद्य-भाग हैं। इस अधिकारमें १८ प्रकारकी महाभाषाएं और ७०० प्रकारको क्षुद्र भाषाएँ उल्लिखित हैं। राजगृहके विपूल, ऋषिक वैभार, हिनाभर पाणड नागके 'कोलों का उल्लेख है । दृष्टिबादसूत्रके आधारपर त्रिलोककी मोटाई, चौड़ाई और ऊँचाईका निरूपण किया है । - दूसरे महाधिकारमें ३६७ गाथाएँ हैं, जिनमें नरकलोकके स्वरूपका वर्णन है। तीसरे महाधिकारमें २४३ गाथाएं हैं। इनमें भवनवासी देवोंके प्रासादोंमें जन्मशाला, अभिषेकशाला, भषणशाला, मथुनशाला, औषधशाला-परिचर्यागृह और मन्त्रशाला आदि शालाओं तथा सामान्यगृह, गभंगृह, कदलीगृह, चित्रगह, आसनगृह, नादगृह एवं लतागृह आदिका वर्णन है । अश्वत्य, सप्तपर्ण, शाल्मलि, जम्बू, वेतस, कदम्ब, प्रियंगु, शिरीष, पलाश और राजद्रुम नामके दश चत्यवृक्षोंका उल्लेख है। चतुर्थ महाधिकारमें २९६१ गाथाएं हैं । इसमें मनुष्यलोकका वर्णन करते हुए विजयार्द्धके उत्तर और दक्षिण अवस्थित नगरियोंका उल्लेख है । आठ मंगलद्रव्योंमें भृगार, कलश, दपंण, व्यजन, ध्वजा, छत्र, चमर और सुप्रतिष्ठके नाम आये हैं । भोग-भूमिमें स्थित दश कल्पवृक्ष, नरनारियोंके आभूषण, सीथंकरोंकी जन्मभूमि, नक्षत्र आदिका निर्देश किया गया है। बताया गया है कि मि, मल्लि, महावीर, वासुपूज्य और पार्श्वनाथ कुमारावस्था और शेष तीर्थकर राज्यके अन्तमें दीक्षित हुए हैं । समवशरणका ३० अधिकारोंमें विस्तृत वर्णन है । पांचवें महाधिकारमें ३२१ गाथाएँ हैं । इसमें गद्य-भाग भी है । जम्बूद्वीप, लवण समुद्र, धातकोखण्ड, कालोद समुद्र, पुष्करवर द्वीप बादिका विस्तार सहित वर्णन है । छठे महाधिकारमें १०३ गाथाएं हैं, जिनमें १७ अन्तराधिकारोंका समावेश है। इनमें व्यन्तरोंके निवास क्षेत्र, उनके अधिकार क्षेत्र, उनके भेद, चिह्न, उत्सेध, अबधिज्ञान आदिका वर्णन है। सात महाधिकारमें ६१९ गाथाएँ हैं, जिनमें ज्योतिषी देवोंका वर्णन है। आठवें महाधिकारमें ७०३ गाथाएं हैं, जिनमें वैमानिक देवोंके निवास स्थान, आयु, परिवार, शरीर, सुखभोग आदिका विवेचन है। नवम महाधिकारमें सिद्धोंके क्षेत्र, उनकी संख्या, अवगाहना और सुखका प्ररूपण किया गया है। मध्यमें सूक्तिगाथाएँ भी प्राप्त होती हैं। यथा
अन्धो णिवडई कूवे बहिरो ण सुणेदि साधु-उवदेसं ।
पेच्छंतो णिसुणतो णिरए जं पडइ सं चोज्जं ।। अर्थात् अन्धा व्यक्ति कूपमें गिर सकता है, बधिर साधका उपदेश नहीं सुनता है, तो इसमें आश्चर्यकी बात नहीं। आश्चर्य इस बातका है कि जीव देखता और सुनता हुआ नरकमें जा पड़ता है।
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इस ग्रन्थमें आये हुए गद्य-भाग धवलाको गद्यशैलीके तुल्य हैं । गद्यांशोंसे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि ये गद्यांश धवलासे तिलोयपण्णत्ती में आये हैं; बल्कि तिलोयपण्णन्ती'से ही घयलामें पहुँचे हैं___ "एसा तप्पाओगासंखेज्जरूवाहियजंबूदीवछेदणयसहिददीबसायररूपमेत्तरज्जुच्छेदपमाणपरिक्खाविहो ण अण्ण आहरिओबएसपरंपराणुसारिणी केवलं तु तिलोयपण्णतिसुत्ताणुसारिजोदिसियदेवभागहारपदुप्पाइदसुत्तावलंबिजुत्तबलेण पयदगच्छसाहट्ठमम्हेहि परूविदा ।" __ या गद्यांश धवला स्पर्शानयोगद्गार पृ० १५७ पर भी उद्धृत है। उसमें 'एसा के स्थानपर 'अम्हेहि रूप पाया जाता है 1 उपयुक्त गद्य भागमें एक राजुके जितने अर्द्धच्छेद बतलाये हैं उनकी समता तिलोयपण्णत्तो'के अर्द्धच्छेदोंसे नहीं होती । इसीपर मुख्तार साहबका अनुमान है कि धवलासे यह गद्यांश "तिलोयपण्णत्तो' में लिया गया है, पर हमें ऐसा प्रतीत नहीं होता । हमारा अनुमान है कि धवलाकारके समक्ष यतिवृषभको 'तिलोयपण्णत्ती' रही है, जिसके आधारपर यत्किञ्चित् परिवर्तनके साथ 'तिलोयपण्णत्तो'का प्रस्तुत संस्करण निबद्ध किया गया है। पतिवृषभको अन्य रचनाएँ
पं० होरालालजी शास्त्रोके' मतानुसार आचार्य यतिवृषभकी एक अन्य रचना 'कम्मपडि' चूणि भी है । यतिवृषभके नामसे करणसूत्रोंका निर्देश भी प्राप्त होता है, पर आज इन करणसूत्रोंका संकलित रूप प्राप्त नहीं है। उच्चारणाचार्य ___ उच्चारणाचार्यका निर्देश कसायपाहुडको जयधवला-टोकामें अनेक स्थानों पर आया है । मौखिकरूपसे चली आयी श्रुतपरम्पराको शुद्ध उच्चरित रूप बनाये रखनेके लिए उच्चारणको शुद्धतापर विशेष जोर दिया जाने लगा। बहुत दिनों तक उच्चारणाचार्योंको यह परम्परा मौखिक रूपमें चलती रही। गाथासूत्रोंकी रचना करके उनके रचयिता आचार्य अपने सुयोग्य शिष्योंको उन सूत्रोंके द्वारा सूचित अर्थ के उच्चारण करनेकी विधि और व्याख्यान करनेका प्रकार बतला देते थे, और वे लोग जिज्ञासु जनोंको शुरु-प्रतिपादित विधिसे उन गाथासूत्रोंका उच्चारण और व्याख्यान किया करते थे। इस प्रकारके गाथासूत्रोंके
१. कसायपाहुडसुत्त चूणिसूत्रसमन्वित, बीरशासन संघ कलकसा, १९५५, प्रस्ता
वना, पु० ३८
९२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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उच्चारण व व्याख्यान करनेवाले आचार्योंको उच्चारणाचार्य व व्याख्यानाचार्य कहा जाने लगा ।
जवला अनेक स्थानों पर उच्चारणाचार्य नामके व्यक्ति विशेषका उल्लेख आया है । इस उल्लेखके अध्ययनसे अवगत होता है कि उच्चारणाचार्यने यतिवृषभ द्वारा रचित चूर्णिसूत्रों की विशेष उच्चारणविधि और व्याख्यानका प्रवर्तन किया है। लिखा है - "संपहि मदबुद्धिजणागुग्गहट्टमुच्चारण : इरियमुह्विणिग्गयमूलायडिविवरणं भणिस्सामा ।"" अर्थात् मूलप्रकृति विभक्तिके विषयमें आठ अनुयोगद्वार हैं। आचार्य यतिवृषभने सुगम होने के कारण आठ अर्थाधिकारोंका विवरण नहीं किया, पर मंदबुद्धिजनों के उपकार हेतु उच्चारणाचार्यंके मुख से
·
हुए मूलते हैं, सरकीर्तना, सादि विभक्ति, अनादिविभक्ति, ध्रुवविभक्ति, अध्रुव विभक्ति, एकजीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल और अन्तर तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्प-बहुत्वका निर्देश किया जायेगा ।
स्पष्ट है कि यतिदृषभाचार्यने अपने चूर्णिसूत्रों में जिन सुगम तथ्योंकी विवरणवृत्ति नहीं लिखी है, उनका स्पष्टीकरण उच्चारणाचार्यने किया है ।
उच्चारणाचार्य और यतिवृषभाचार्य विषय निरूपण में भी यत्र-तत्र अन्तर दिखलायी पड़ता है । इस अन्तरका समाधान वीरसेन स्वामीने विभिन्न नयोंकी अपेक्षा किया है। बताया है - "उच्चारणाइरिएहि मूलपयडिविहतीए अत्याहियारा जइवसहाइरियेग अठ्ठेब अत्याहियारा परूविदा । कथमेदेसि दोन्हं वक्खाणाणं ण विरोहो ? ण, पज्जवद्विय-दब्बुट्टियणयावलंबनाए विरोहाभावादो ।" अर्थात् उच्चारणाचार्यने मूलप्रकृतिविभक्तिके विषयमें सबह अर्थाधिकार कहे हैं, और यतिवृषभाचार्यने आठ हो अर्थाधिकार बतलाये हैं । अतएव इन दोनों व्याख्यानों में विरोध क्यों नहीं आता ?
पर्यायार्थिकनय और द्रव्यार्थिकनयका अवलम्बन करने पर उन दोनोंमें कोई विरोध नहीं है । यतिवृषभका कथन द्रव्याधिक नयकी अपेक्षासे है और उच्चारणाचार्यका पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे ।
इसी प्रकार यतिवृषभाचार्यने ग्यारह अनुयोगद्वार और उच्चारणाचार्यने चौबीस अनुयोगद्वार बतलाकर मोहनीयविभक्तिवाले जीवों का विवेचन किया है । इस सन्दर्भ में भी यतिवृषभाचार्य और उच्चारणाचार्य के कथनमें कोई
१. जयघवलासहित कसायपाहुड, भाग २, पृ० २३ । २. जयषवलासहित कसायपाहुड, भाग २, पृ० २२ ।
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विरोध नहीं है, क्योंकि यतिवृषभाचार्यका कथन द्रव्यार्थिक नयको अपेक्षासे है और उच्चारणाचार्यका पर्यायाथिकनयकी अपेक्षासे ।' __यतिवषभाचार्य और उच्चारणाचार्यके कथनमें कई स्थानों पर मतभेद है। यतिवषभके दो उपदेश हैं, उनमेंसे कृतकृत्यवेदक जीव मरण नहीं करता है । इस उपदेशका आश्रय लेकर-बावीसाए वित्तीओ को होदि' सत्र प्रवृत्त हा है। इसलिए मनुष्य हो बाईस प्रकृतिक स्थानके स्वामी होते हैं, यह बात सिद्ध होती है। आशय यह है कि कृतकृत्य वेदक जीव यदि कृतकृत्य होनेके प्रथम समयमें मरण करता है तो नियमसे देवोंमें उत्पन्न होता है। किन्तु जो कृतकृत्यवेदक जीव नारको, तिथंच और मनुष्यों में उत्पन्न होता है, वह नियमसे अन्तमहत्तं कालतक कृतकृत्यवेदक ही रहकर मरता है, ऐसा यतिवृषभ द्वारा कहे गये चूर्णि-सबसे जाना जाता है। परन्तु उच्चारणाचार्य के उपदेशानुसार 'कृतकृत्य-वेदक-सम्यग्दृष्टि जीव' नहीं ही मरता है, ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि उच्चारणाचार्यने चारों ही गतियोंमें बाईस प्रकृतिक विभक्ति स्थानका सत्त्व स्वीकार किया है। इस प्रकार जयधवला टीकामें आये हुए यतिवषभ और उच्चारणाचार्यके मत-वैविध्योंसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि उच्चाराचाय की उच्चारावृति मिलनोर अवश्य ही है। यही कारण है कि धवला टोकामें उच्चारणाचार्यका मत जहाँ तहाँ दिखलायी पड़ता है। निःसन्देह उच्चारणाचार्य सिद्धान्तग्रन्थ, उनकी उच्चारणविधि एवं उनकी व्याख्यानप्रक्रियासे परिचित थे। आयंमक्ष और नामहस्तिसे ज्ञान प्राप्तकर यतिवृषभने चूणिसूत्रोंका प्रणयन किया, और उच्चारणाचार्यने यतिवृषभ द्वारा सन्त्रित अर्थको पर्यायाथिकनयको अपेक्षासे विवृत किया है। धवला-टीकामें आये हुए उच्चारणाचायके मतोंसे यह स्पष्ट व्यञ्जित होता है कि उच्चारणाचार्य कसायपाहुडके मर्मज्ञ थे। उन्होंने उच्चारणकी विधियोंका ही प्ररूपण नहीं किया है, अपितु अर्थोका मौलिक व्याख्यान एवं गाथासूत्रोंमें निहित तत्त्वका स्फोटन भी किया है। उत्तचारणाचार्यका समय-निर्धारण
यतिवृषभ द्वारा सूचित्त अर्थका व्याख्यान करनेके कारण उच्चारणाचार्यका समय यतिवृषभके पश्चात् होना चाहिये । धवला-टीकामें लिखा है-"संपहि जइवसहाइरियसूइदाण दाण्हमत्याहियाराणमुच्चारणारियपरूविदमुच्चारण वत्तइस्सामो'' एवं चुगिणसुत्तोध परूविय संपहि जहण्णाजहण्णट्ठिदीणं काल. १. जयपवला सहित कपायापाहुह, भाग २, पृ० ८१ । २. जयघवला सहित कसायपाहुड, भाग २, पृ० ४२५ । ९४ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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परूवणट्टमुच्चारणाइरियवक्खाणं भणिस्सामो।"
अर्थात् परिवार द्वारा किए कामागाधारी पक्षामान किया है ।
चूणिसुत्रकी अपेक्षा ओधका कथन करके जघन्य और अजघन्य स्थितियोंके कालानुसार उच्चारणाचार्य द्वारा अभिमत व्याख्यान करते हैं । __ इस कथनगे दो तथ्य निःसृत होते हैं। प्रथम यह कि यत्तिवृषभके पश्चात् उनवारणाचार्यने अपनी व्याख्या उपस्थित की। दूसरा यह कि यतिवृषभके चूर्णिसूत्रोंके आधारपर उच्चारणाचार्यने अपना व्याख्यान अंकित किया । इससे यह अबगत होता है कि उच्चारणाचार्यका समय यतिवृषभके पश्चात् अथवा उनके समकालीन है।
यतिवृषभका समय ई० सन् की द्वितीय शती है। अतएव उच्चारणाचार्यका समय भी ई० सन की द्वितीय शतीका अंतिम पाद अथवा तृतीय शतीका प्रथम पाद संभव है। बप्पदेवाचार्य ____ श्रुतधराचार्यों में शुभनन्दि, रविनन्दि और वापदेवाचार्यके नाम भी आते हैं । शुभनन्दि और रविनन्दि नामके दो आचार्य अत्यन्त कुशाग्रबुद्धिके हुए हैं । इनसे बप्पदेवाचार्यने समस्त सिद्धान्तग्रन्थका अध्ययन किया। यह अध्ययन भीमरथि और कृष्णामेख नदियोंके मध्य में स्थित उत्कलिकाग्रामके समीप मगणवल्लि ग्राममें हुआ था | भीमरथि कृष्णानदीकी शाखा है और इनके बीचका प्रदेश अब बेलगांव या धारवाड कहलाता है । वप्पदेवाचायंने यहींपर उक्त दोनों गुरुओंसे सिद्धान्तका अध्ययन किया होगा। इस अध्ययनके पश्चात् उन्होंने महाबन्धको छोड़ शेष पाँच खण्डोंपर व्याख्याप्रज्ञप्तिनामको टीका लिखी है
और छठे स्तुण्डकी संक्षिप्त विति भी लिखी है। इन छहों खण्डोंके पूर्ण हो जानेके पश्चात् उन्होंने कषायप्राभूतको भी टीका रची । उक्त पाँचों खण्डों और कषायप्राभुतकी टोकाका परिमाण ६०००० और महाबन्धको टीकाका ५ अधिक ८००० बताया जाता है। ये सभी रचनाएं प्राकृत भाषामें की गयी थीं | इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें लिखा है
एवं व्याख्यानक्रममवाप्तवान् परमगुरुपरम्परया । आगच्छन् सिद्धान्तो द्विविधोऽयतिनिशितवद्धिभ्याम् ॥ शुभ-रविनन्दिमुनिभ्यां भीमरथि-कृष्ण मेखयोः सरितोः ।
मध्यमविषये रमणीयोत्कलिकानामसामीप्यम् ।। १. जयपबला सहित कसायपाहुड, भाग ३, पृ० २९२ ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ९५
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विख्यातमगणवल्लीग्रामेऽथ विशेषरूपेण । श्रुत्वा तयोश्च पावें तमशेष वप्पदेवगुरुः ।। अपनोय महाबन्ध षट्खण्डाच्छेषपंचखंडे तु । व्याख्याप्रति च षष्ठं खंडं च ततः सक्षिप्य !! षणां खडानामिति निष्पन्नानां तथा वषायाख्य- । प्राभूतकस्य च षष्ठिसहस्रग्रन्थप्रमाणयुताम् ।।
लिखप्राकृतभाषारूपां सम्यक्युरातनव्याख्याम् ।
अष्टसहस्रग्रंथां व्याख्यां पञ्चाधिका महाबन्धे ।। इन पद्योंमें प्राकृतभाषारूप पुरातन घ्याख्या लिखनेका निर्देश आया है । द्वितीय पद्यमें गहओके नाम दिये गये हैं। बतावतारके आगेवाले पद्योंके अध्ययनसे ऐसा प्रतीत होता है कि व्याख्याप्रज्ञप्तिको मिलाकर छ: खण्ड किये गये थे। षटखण्डोंमेंसे महाबन्धको पृथक कर शेष पाँच खण्डोंमें व्याख्याप्रज्ञतिको मिलाकर वप्पषों पखण्ड विपन्न किये गमगर हका निारी । वीरसेन स्वामोने उक्त षटनण्डोंमेंसे व्याख्याप्रज्ञप्तिको प्राप्त कर सत्कर्म नामक छठे खण्डको मिलाकर छः खण्डोंपर धवला टीका लिखी है। यह सत्कर्म १५वीं पुस्तक में प्रकाशित है। इसपर सत्कर्मपंजिका भी है, जो उसीके साथ परिशिष्ट रूपमें प्रकाशित है। इसके प्रारम्भमें पंजिकाकारने लिखा है कि महाकर्मप्रवृतिप्राभूतके चौवीस अनुयोग हैं, उनमेंसे कृत्ति और वेदनाका वेदनाखण्डमें और स्पर्श, कर्म प्रकृतिका वर्गणाखण्डमें कथन किया है। बन्धन अनुयोगद्वार बन्ध, बन्धनीय, बन्धक और बन्धविधान इन चार अवान्तर अनुयोगद्वारों में विभक्त है। इनमेंसे बन्ध और बन्धनीय अधिकारों की प्ररूपणा वगंणाखण्डमें, बन्धन अधिकारको प्ररूपणा खुद्दावन्धक नामक दूसरे खण्डमें और बन्धविधानका कथन महाबन्ध नामक छठे खण्डमें है । शेष १८ अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा मूल षट् खण्डागममें नहीं है । किन्तु आचार्य वीरसेनने वर्गणाखण्डके अन्तिम सत्रको देशावमर्शक मानकर, उसकी प्ररूपणा धवलाके अन्त में को है। उसोका नाम सत्कर्म है। इसका ज्ञान उन्होंने ऐलाचार्यसे प्राप्त किया था | धवलाके अध्ययनसे ऐसा ज्ञात होता है कि व्याख्याप्रश्नप्ति प्राकृतभाषारूप पुरातन व्याख्या रही है । यह वप्पदेव द्वारा लिखित नहीं है। इस कथनको सिद्धि सम्यकपुरातनपद द्वारा होतो है। इस पदका अर्थ है पर्याप्त प्राचीन 1 अतः सम्यकपुरातनको व्याख्याप्राप्तिका विशेषण माननेपर यह प्राचीन व्याख्या सिद्ध हो जाती है । षट्खण्डागममें आये हुए मतभेदसे भी उक्त तथ्य पुष्ट होता १. इनदि श्रुतावतार, पद १७१-१७६ । ९६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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है - "एदेण वियाहपण्णत्तिसुत्तेण सह कथं ण विरोहो ? ण एदम्हादो तस्स पुवभूदस्स आइरियमेएण भेदमावण्णस्स एयत्ताभावादो "" इस व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्रके साथ विरोध क्यों नहीं है ? आचार्यभेदसे भिन्नता होनेके कारण इन दोनों में एकत्व नहीं हो सकता ।
इस कथन में व्याख्याप्रज्ञप्तिके वचनोंको सूत्र कहा है और आचार्य भेदसे भिन्न कहा है | अतः यह व्याख्याप्रज्ञप्ति विचारणीय है । सम्भवतः यह वही हो, जिसका इन्द्रनन्दिने उल्लेख किया है और जो वीरसेन स्वामीको प्राप्त थी। आचार्य अकलंकदेवने अपने तत्त्वार्थवार्तिक में भी दो स्थलोंपर २/४९/८ और ४/२६ १५ में व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डकका उल्लेख किया है और दोनों ही स्थानोंमें षट्खण्डागमसे उसका भेद वतलाया है । अतएव हमारा अनुमान है कि व्याख्याप्रज्ञप्ति अन्य किसी आचार्यकी कृति है, वप्पदेवकी नहीं । वप्पदेवने व्याख्याप्रज्ञप्तिको जोड़कर षट्खण्डोंपर अपनी टीका लिखी है। यह सत्य है कि वम्यदेव सिद्धान्तविषयक सर्व विद्वान थे।
समय- विचार
aurदेवका समय वीरसेन स्वामीके पूर्व है । वीरसेनाचार्य के समक्ष वप्पदेवकी व्याख्या वर्तमान थो । वीरसेनका समय डॉ० होरालालजोके मतानुसार ई० सन् ८१६ है, अतः इसके पूर्व बप्पदेवका समय सुनिश्चित है । वप्पदेवने शुभनन्दि और रविनन्दिसे आगमग्रन्थोंका अध्ययन किया है और इन दोनों आचाय की प्राचीनता श्रुतधरोंके रूपमें प्रसिद्ध है। एलाचार्यका समय ई० सन् ७६६-७७६ है, और इनसे पूर्व वप्पदेवका समय होना चाहिए। इस क्रमसे हम यतिवृषभ और आर्यमक्षु-नागहस्तिके समकालीन वप्पदेवको मान सकते हैं । संक्षेप में पदे का समय ५ वीं - ६ वीं शती है ।
auraवका वैदुष्प और प्रतिभा
चप्पदेवकी रचना कोई भी उपलब्ध नहीं है। धवला एवं जयधवलामें इनके नामसे जो उद्धरण आते हैं, उनसे इनके वैदुष्यपर प्रकाश पड़ता है । षट्asianमें इनका यत्र-तत्र उल्लेख है । अतएव आचार्यके रूपमें तप्प देवप्रतिष्ठित है । जयधवला में इनकी मतभिन्नताका उल्लेख करते हुए कहा है
'चण्णिसुतम् वप्पदेवाइरियलिहिदुच्चारणाए अंतो मुहुत्तमिति भणिदो । अम्हेहि तिहिदुच्चारणाए पुणे जह० एगसमयो उक्क० संखेज्जा समयात्ति
१.
1. षट्खण्डागम, पु० १०, पृ० २३८ ।
श्रुतवर और सारस्वताचार्य : ९७
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परुचिदो' । '
उच्चारणसम्बन्धी इस मतभेदसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि आचार्य वप्पदेवके अभिमतका प्रचार पृथक् रूपमें वर्तमान था । वप्पदेवकी जिन सिद्धान्तोंमें मतभिन्नता वत्तंमान थी, उसका निर्देश यथास्थान जयधवला और धवलाटीका में प्राप्त है।
आचार्य कुन्दकुन्द और उनका साहित्य
श्रुतवर आचार्योंकी परम्परामें कुन्दकुन्दाचार्यका स्थान महत्त्वपूर्ण है । इनकी गणना ऐसे युगसंस्थापक आचार्य के रूप में की गयी है, जिनके नामसे उत्तरवर्ती परम्परा कुन्दकुन्द - आम्नायके नामसे प्रसिद्ध हुई है। किसी भी कार्यके प्रारम्भमें मंगलरूपमें इनका स्तवन किया जाता है। मङ्गलस्तवनका प्रसिद्ध पद्म निम्न प्रकार है—
मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमो गणी | मंगले कुकुन्दा चैव
मंगलम् ॥
जिसप्रकार भगवान् महावीर, गौतम गणधर और जैनधर्म मङ्गलरूप हैं, उसी प्रकार कुन्दकुन्द आचार्य भी । इन जैसा प्रतिभाशाली अध्यात्म और द्रव्यानुयोगके क्षेत्रमें प्रायः दूसरा आचार्य दिखलाई नहीं पड़ता ।
इनकी रचनाओंसे इनके जीवन-वृत्त के सम्बन्धमें कुछ भी निश्चित जानकारी प्राप्त नहीं होती । इन्होंने 'वारसअणुवेक्खा' ग्रन्थ में अपने नामका निर्देश किया है । लिखा है
--
इदि णिच्छय-चवहारं जं भणिये कुन्दकुन्द मुणिणाहे । जो भाव सुद्धमणो सो पावद्द परभणिव्वाणं ॥
'इस प्रकार कुन्दकुन्द मुनिराजने निश्चय और व्यवहारका अवलम्बन लेकर जो कथन किया है, उसकी शुद्ध हृदयसे जो भावना करता है वह परमनिर्वाणको प्राप्त कर लेता है ।'
स्पष्ट है कि 'वारसअणुवेक्खा' में कुन्दकुन्दके नामका उल्लेख मिलता है । कुन्दकुन्दके टीकाकार जयसेन और श्रुतसागरसूरिने भी कुन्दकुन्दकी रचनाएँ बतलाती हैं । बोधपाहुड में कुन्दकुन्दने अपने गुरुका नाम भद्रबाहु बतलाया है | गाथाए निम्न प्रकार हैं
१. जयघवलाटीका, पृ० १८५ ।
२. वा एस अणुवेक्खा, गाया ९१, कुन्दकुन्द भारती संस्करण ।
९८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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सवियारो हुन मासात्तेसुजं जिणें कहिये । सो तह कहियं णायं सीसेण य भद्दबास्स || वारसांगवियाण चउदसपुण्यंगवि उलवित्थरणं । सुयणाणि मद्दद्बाहू गमयगुरू भयवओ जयओ' ॥ अर्थात् कुन्दकुन्दने अपनेको श्रुतकेवली भद्रबाहुका शिष्य कहा है।
इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतार में 'कसायपाहूड' और षट्खण्डागम' नामक सिद्धान्तग्रन्थोंकी रचनाका इतिवृत्त अंकित करनेके पश्चात् लिखा है कि ये दोनों सिद्धान्तग्रन्थ कीण्डकुन्दपुर में पद्मनन्दिमुनिको प्राप्त हुए और उन्होंने षट्खण्ड: गमके प्रथम तीन खण्डोंपर साठ हजार श्लोक प्रमाण 'परिकर्म' नामक ग्रन्थको रचना की। दर्शनसार में देवसेनने भी आचार्य पद्मनन्दिकी प्रशंसा करते हुए लिखा है
जइ पउमनंदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण । ण विबोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाति ॥ ३
अर्थात् पद्मनन्दि स्वामीने सीमन्धर स्वामीसे दिव्यज्ञान प्राप्तकर अन्य मुनियोंको प्रबोधित किया। यदि वे इस प्रबोधन कार्यको न करते तो श्रमण किस प्रकार सुमार्गको प्राप्त
कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंके दो आचार्य टीकाकार हैं- अमृतचन्द्र और जयसेन | अमृतचन्द्र ने अपने मूलग्रन्थकर्त्ताकि सम्बन्धमें कुछ भी निर्देश नहीं किया है। पर जयसेनने लिखा है- “नन्दि जयवन्त हों, जिन्होंने महातत्त्वोंका कथन करनेवाले समय प्राभृतरूपी पर्वतको बुद्धि उद्धार करके भव्यजीवोंको अर्पित किया ।""
५.
पञ्चास्तिकाय की" टीका प्रारम्भ करते हुए भी जयसेनने कुन्दकुन्दका
4
१. घोषपाहुड, गाथा ६०-६१, कुन्दकुन्द भारती संस्करण |
२. श्रुतश्वसार, पद्य १६०-१६१.
३. दर्शनसार, गाथा ४३.
४. जयउ रिसिपजमणंदी जेण महातच्च पाहुड सेलो ।
बुद्धिसि रेणुद्धरिओ समपिओ भव्यलोयस्स ||
समयसार, स्याद्वादाविकार, अहिंसा-मन्दिर प्रकाशन १, दरियागंज, दिल्ली-६ टीकाका अन्तिम पक्ष
पञ्चास्तिकाय, जयसेनटीका 'अथश्रीकुमारनन्दि सिद्धान्तदेव शिष्ये प्रथम पुष्ठ, अन्थारम्भ !
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अपरनाम पद्मनन्दि बताया है। इनके उल्लेखानुसार कुन्दकुन्द कुमारनन्दि सिद्धान्तदेवके शिष्य थे।
जयसेनने टीकाके प्रारम्भमें कुन्दकुन्दके पूर्व विदेहमें जानेको कथाकी ओर भी संकेत करते हुए लिखा है कि इन्होंने पूर्वविदेहमें वीतराग सर्वज्ञ सीमन्धर स्वामीके दर्शन किये थे । और उनके मुखकमलसे निस्सृत दिव्यवाणीको सुनकर अध्यात्मतत्त्वका सार ग्रहण कर वे वापस लौट आये थे। उन्होंने अन्तस्तत्त्व और बाह्यसत्त्वकी मुख्यता एवं गौणताका ज्ञान करानेके लिये शिवकुमार महाराज आदि संक्षेप रुचिवाले शिष्योंके प्रतिवोधनार्थ पञ्चास्तिकायप्राभृत शास्त्रको रचना की ।
कुन्दकुन्दके जीवनवृत्त एवं व्यक्तित्वके सम्बन्धमें अबतक प्राप्त सूचनाओंमें ऐसी दो कथाएँ प्राप्त हैं, जिनसे उनके जीवनपर प्रकाश पड़ता है। कथाओंमें कितना अंश सत्य और तथ्य है, यह तो नहीं कहा जा सकता है, पर इतना स्पष्ट है कि कुन्दकुन्द अध्यात्मशास्त्रके महान प्रणेता एवं युगसंस्थापक आचार्य थे।
प्रथम कथा ब्रह्मनेमिदत्त विरचित आराधनाकयाकोषमें शास्त्रदानके फलस्वरूप आई है।
दूसरी कथा 'ज्ञानप्रबोध' नामक अन्यमें आई है, जिसका प्रकाशन पं० नाथूराम जी प्रेमीने जैन हितैषीमें किया था। कथा में बताया है कि मालच देशके बारांपुर नगरमें कुमुदचन्द्र नामका राजा राज्य करता था। उसको रानीका नाम कुमुदचन्द्रिका था । इस राजाके राज्यमें कुन्दश्रेष्ठो अपनी पत्नी कुन्दलताके साथ निवास करता था। इनके कुन्दकुन्द नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। यह शिशु कौशवसे ही गंभीर, चिन्तनशील और प्रतिभाशाली था। जब यह ग्यारह वर्षका था, उस समय नगरके उद्यानमें एक मुनिराज आये। उनका उपदेश सुननेके लिए नगरके नरनारी एकत्र हुए 1 कुन्दकुन्द भी उसमें सम्मिलित हुआ था | मनिराजका उपदेश सुनकर विरक्त हो गया और दिगम्बर दीक्षा ग्रहण कर मुनि बन गया। ३३ वर्षकी अवस्थामें इन्हें आचार्य-पद मिला। इनके गुरुका नाम जिनचन्द्र बताया गया है ।
एक दिन आचार्य कुन्दकुन्द आगमग्रन्थोंका स्वाध्याय कर रहे थे कि उनके मनमें एक शंका उत्पन्न हई। वे ध्यानमग्न हो गये और विदेह क्षेत्रमें स्थित सीमन्धरस्वामीके प्रति एकाग्र हुए। सीमन्धरस्वामीने 'सद्धर्मवृद्धिरस्तु' कहकर आशीर्वाद दिया । समवशरणमें स्थित व्यक्तियोंको इस आशीर्वादको सुनकर १. जैन हितैषी, भारः १०, पृ० ३६९. १०० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने जिज्ञासा प्रकट की कि आपने किसको आशीर्वाद दिया है ? उत्तरमें बताया गया कि भरतक्षेत्रमें स्थित कुन्दकुन्द मुनिको आशीर्वाद दिया है। वहाँपर कुन्दकुन्दके पूर्वजन्मके चारणऋद्धिधारी दो मित्रमुनि उपस्थित थे। वे वारांपूर गये और वहाँसे आकाशमार्ग द्वारा कुन्दकुन्दको ले आये। बाकाशमार्गमें जाते समय उनको मयरपिच्छो गिर गई और उन्होंने गुद्धपिच्छोसे अपना काम पर सन्दकुन्द नहीं एक कहा रहे और अपनी शंकाका समाधान किया। लौटते समय वे अपने साथ एक तन्त्रमन्त्रका ग्रन्थ भी लाये थे, किन्तु वह मार्गमें लवणसमुद्रमें गिर गया। कुन्दकुन्दने भरतक्षेत्रमें अपना धार्मिक उपदेश प्रारम्भ किया और इनके सहस्रों अनुयायी हो गये | तत्पश्चात् गिरिनार पर्वतपर श्वेताम्बरोंके साथ उनका विवाद हो गया और वहांकी ब्राह्मी देवीके मुखसे यह कहलवाया गया कि दिगम्बर निर्ग्रन्थ मार्ग ही सच्चा है । उन्होंने अपना आचार्यपद अपने शिष्य उमास्वाति. को प्रदान किया और सल्लेखनापूर्वक शरीर त्याग किया । ___ 'ज्ञानप्रबोध' को इस कथाका परीक्षण करनेपर अवगत होता है कि 'जम्बूदीवपणसो' के कर्ता पदानन्दिको कुन्दकुन्दसे अभिन्न समझकर उनका स्थान बारांपुरनगर बताया है । माता-पिताके नाम कुन्दलता और कुन्दश्रेष्ठि भी कल्पित प्रतीत होते हैं। विदेहगमनको कथा हो पहलेसे प्रचलित थी उसे भी जोड़कर प्रामाणिकता लानेका प्रयास किया गया है । ___ कुन्दकुन्दके जीवन-परिचयके सम्बन्धमें विद्वानोंने सर्वसम्मतिसे जो स्वीकार किया है उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि ये दक्षिण भारतके निवासी थे। इनके पिताका नाम कर्मण्डु और माताका नाम श्रीमती था। इनका जन्म 'कोण्डकुन्दपुर' नामक स्थानमें हुआ था । इस गाँवका दूसरा नाम कुरूमरई' भी कहा गया है । यह स्थान पेदथनाडु नामक जिलेमें है। कहा जाता है कि कर्मण्डुदम्पतिको बहुत दिनों तक कोई सन्तान नहीं हुई । अनन्तर एक तपस्वी ऋषिको दान देनेके प्रभावसे पुत्ररत्नकी प्राप्ति हुई, जिसका नाम आगे चलकर ग्रामके नामपर कुन्दकुन्द प्रसिद्ध हुआ। बाल्यावस्थासे हो कुन्दकुन्द प्रतिभाशाली थे। इनकी विलक्षण स्मरणशक्ति और कुशाग्र बुद्धिक कारण ग्रन्याध्ययनमें इनका अधिक समय व्यतीत नहीं हुआ। युवावस्थामें इन्होंने दीक्षा ग्रहणकर आचार्य-पद प्राप्त किया।
कुन्दकुन्दका वास्तविक नाम क्या था, यह अभी तक विवादग्रस्त है। द्वादशअनुप्रेक्षाकी अन्तिम गाथामें उसके रचयिताका नाम कुन्दकुन्द दिया हआ है । जयसेनाचायने समयसारकी टीकामें पचनन्दिका जयकार किया है। इन्द्र
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नन्दिने भी अपने भूतावतार में कौण्ड पचनकि निर्देश किया है ? श्रवणबेलगोलके शिलालेख नं० ४० में तथा ४२ ४३ ४७ और ५० वें अभिलेख में भी उक्त कथन पुनरावृत्त हुआ है। लिखा है
तस्यान्वये भू-विदिते बभूव यः पद्मनन्दिप्रथमाभिधानः । श्रीकण्डकुन्दादि मुनीश्वराख्यस्सत्संयमादुद्गत चारणद्धः ॥
स्पष्ट है कि इनका पद्मनन्दि नाम था । पर वे जन्मस्थानके नामपर कुन्दकुन्दनामसे अधिक प्रसिद्ध हुए ।
कुन्दकुन्दके षट्प्राभूतोंके टीकाकार श्रुतसागरने प्रत्येक प्राभूतके अन्त में जो पुष्पिका अंकित की है उसमें इनके पद्मनन्दि, कुन्दकुन्द, चक्रग्रीव, एलाचार्य और गृद्धपिच्छ ये नाम दिये हैं । जैन सिद्धान्त भास्कर भाग १ किरण ४ में शक सं० १३०७ का विजयनगरका एक अभिलेखांश प्रकाशित है, जिसमें लिखा है
"आचार्यः कुन्दकुन्दाख्यो वक्रग्रीवो महामुनिः ।
एलाचार्यों गुद्धपिच्छ इति तन्नाम पंचधा ॥"
पद्मनन्दि, कुन्दकुन्द वक्रग्रीव, एलाचार्य और गृद्धपिच्छ ये पाँच नाम कुन्दकुन्दके बताये हैं । डा० हार्नलेने दिगम्बर पट्टावलियोंके सम्बन्धमें एक निबन्ध लिखा था, जिसमें उन्होंने कुन्दकुन्दके पाँच नाम बताये थे । अतः इतना स्पष्ट है कि कुन्दकुन्दके दो नामोंकी प्रवृत्ति तो निस्संदेह रही है। पर शेष तीन नामोंके सम्बन्ध में विवाद है। शिलालेखोंसे तथा अन्य प्रमाणोंसे न तो वक्रीव और न एलाचार्य या गृद्धपिच्छ नाम की ही सिद्धि होती है। वक्र ग्रीवका उल्लेख ई० सन् ११२५ के ४९३ संख्यक अभिलेखमें द्रविड संघ और अगलान्वय के आचार्योंकी नामावली में आता है; किन्तु उसमें उनके सम्बन्धमें कोई विवरण प्राप्त नहीं होता । ११२९ ६० के श्रवणबेलगोलाभिलेख नं० ५४ में वक्रग्रीव नाम आया है, पर इस अभिलेखसे यह कुन्दकुन्दका नामान्तर है, ऐसा सिद्ध नहीं होता ।
श्रवणबेलगोलके अभिलेख नं० ३०५ में समन्तभद्र और पात्रकेसरी के पश्चात् वक्रग्रोवका नाम आया है और इन्हें प्रमिल संघका अग्रेसर कहा है । इसी प्रकार अभिलेख नं० ३४७ और ३१९ में भी वक्रग्रीवका नाम अंकित है, पर इन सभी अभिलेखोंसे कुन्दकुन्द के साथ वक्रप्रौदका सम्बन्ध नहीं सिद्ध होता ।
श्रवणबेलगोलके शिलालेखोंसे एलाचार्यके सम्बन्ध में भी कतिपय तथ्य प्राप्त होते हैं; पर यह कुन्दकुन्दका नामान्तर सिद्ध नहीं होता। इसी प्रकार गृद्धपिच्छ
१. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, लेख नं० ४०, पृ० २४ ।
१०२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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भी कुन्दकुन्दका नामान्तर घटित नहीं होता है। संभवतः यह नाम उमास्वातिका रहा है । संक्षेपमें कुन्दकुन्दका अपर नाम पद्मनन्दि अवश्य प्रमाणित होता है । गुरु-परम्परा
आचार्य कुन्दकुन्दके गुरुका क्या नाम था और उन्होंने किस गुरु-परम्पराको सुशोभित किया, इसके सम्बन्धमें संक्षेपमें विचार करना आवश्यक है ।
कुन्दकुन्द-प्रन्थोंके टोकाकार जयसेनाचार्यके मतानुसार ये कुमारनन्दि सिद्धान्तदेवके शिष्य थे । नन्दिसंघको पट्टावली के अनुसार कुन्दकुन्दके गुरु जिनचन्द्र थे । कुन्दकुन्दने स्वयं अपने गुरुका नाम भद्रबाहु माना है ।
मथुरा से प्राप्त एक अभिलेख में उच्चनागर शाखा के एक कुमारनन्दिका निर्देश प्राप्त होता है । यह अभिलेख हुविष्क वर्षं सत्तासीका है । इस आधार पर भी कुमारनन्दिका गुरु-शिष्यत्व कुन्दकुन्दके साथ घटित नहीं होता । यतः उच्चनागर शाखा के साथ कुन्दकुन्दका सम्बन्ध नहीं है। इसी प्रकार नन्दिसचकी पट्टावलि में माघनन्दि, जिनचन्द्र और कुन्दकुन्दका क्रमशः उल्लेख आता है । इससे यह फलित होता है कि माघनन्दिके पश्चात् जिनचन्द्र और जिनचन्द्रके पश्चात् कुन्दकुन्दको उत्तराधिकार प्राप्त हुआ होगा । अतः हमारा अनुमान है कि कुन्दकुन्दके गुरुका नाम 'जिनचन्द्र' होना चाहिए ।
कुन्दकुन्दले अपने 'बोधपाहुड' में अपनेको भद्रबाहु का शिष्य कहा है । पर इस सन्दर्भ में यह विचारणीय है कि कुन्दकुन्द श्रुतकेवली भद्रबाहुके साक्षात् शिष्य थे या पारम्पर्य ? कुन्दकुन्दने लिखा है
सद्दवियारो हूओ भासासुत्ते जं जिणे कहियं । सो तह कहियं णायं सीसेण य भद्दबाहुस्स ॥ ६१ ॥ बारसयंगवियाण चउदसपुण्वं गवि उल वित्थ रणं । सुयणाणिभद्दवाहू गमयगुरू भयवओ जयऊ ॥ ६२॥
जिनेन्द्र - तीर्थंकर महावीरने अर्थ रूपसे जो कथन किया है वह भाषासूत्रोंमें शब्दविकारको प्राप्त हुआ है- अनेक प्रकारके शब्दों में प्रथित हुआ है । भद्रबाहु मुझ शिष्यने उन भाषासूत्रोंपरसे उसको उसी रूप में जाना है । और बारह अङ्गों एवं चौदह पूर्वक विपुल विस्तार के ज्ञाता श्रुतकेवली भद्रबाहुको 'गमकगुरु' कह कर उनका कुन्दकुन्दने जयघोष किया है।
१. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १, किरण ४, पृ० ७८, यह पट्टावलि मूलतः इन्डियन एन्टीक्वयरी में प्रकाशित हुई है ।
२. बीघपाहुड, गाथा ६१-६२ ।
श्रुतवर और सारस्वताचार्य : १०३
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द्वितीय गाथाके आलोक में प्रथम गाथाका अध्ययन करनेसे यह स्पष्ट होता है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु कुन्दकुन्द के साक्षात् गुरु नहीं थे, 'गमक गुरु थे । आचार्य श्रीजुगलकिशोर मुख्तारने उक्त दोनों गाथाओं में प्रथम गाथाका सम्बन्ध द्वितीय भद्रबाहु के साथ और द्वितीय गाथाका सम्बन्ध श्रुतकेबली मद्रबाहु के साथ बतलाया है। उन्होंने लिखा है- "इकसठवीं गाथामें कुन्दकुन्दने अपनेको भद्रबाहुका शिष्य प्रकट किया है। जो संभवतः भद्रबाहु द्वित्तीय जान पड़ते हैं । क्योंकि भद्रबाहु श्रुतवली के समय में जिनकथित श्रुतमें ऐसा विकार उपस्थित उपस्थित नहीं हुआ था, जिसे उक्त गाथा में ' सद्दवियारो हुमी भासासुत्तेसु जं जिणें कहिय इन शब्दों द्वारा सूचित किया गया है वह अविच्छिन्न चला आया था | परन्तु दूसरे भद्रबाहु के समय में ऐसी स्थिति नहीं थो-- कितना ही श्रुतज्ञान लुप्त हो चुका था और जो अवशिष्ट था, वह अनेक भाषासूत्रोंमें परिवर्तित हो गया था । इससे इक्सटवीं गाथाके भद्रबाहु द्वितीय ही जान पड़ते हैं । बासहनी गाथायें उसी से प्रसिद्ध होनेवाले प्रथम भद्रबाहुका, जो कि बारह अङ्गों और चौदह पूर्वोके ज्ञाता श्रुतकेवली थे, अन्त्य मंगल के रूपमें जयधोब किया गया और उन्हें साफ तौर पर गमकगुरु लिखा है। इस तरह अन्तकी दोनों गाथाओं में दो अलग-अलग भद्रबाहुओं का उल्लेख होना अधिक युक्तियुक्त और बुद्धिगम्य जान पड़ता है।" मुस्तार साहबका उक्त कथन विचारणीय है । यहाँ दी भद्रबाहुओंका कथन न कर कुन्दकुन्दने पूर्व गाथा में प्रतिपादित भद्रबाहुके कथित गुरुत्वका गमक गुरुकं रूपमें उल्लेख आया है । 'गमक' शब्दका अर्थं शब्दकल्पद्रुममं 'गमयति, प्रापयति, बोधयति वा गमक', गम् + णिच् + व बोधक मात्र या सुझाव देनेवाला अथवा तत्त्व प्राप्ति के लिए प्रेरणा करनेवाला बतलाया है । मातंगलीला में गमकं पाण्डित्यवैदग्ध्ययोः' अर्थात् पाण्डित्य या वैदग्ध्य प्राप्तिको गमक कहते हैं । यहाँ पर 'गमक' शब्द 'परम्परया' या 'प्रेरणया' के रूप में प्रयुक्त है | अतएव 'गमक' शब्द परम्पराप्राप्त श्रुतकेवल के लिए ही व्यवहृत हुआ है । दो भद्रबाहुओं की कल्पना किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है । भद्रबाहु केवल] कुन्दकुन्दके साक्षात् गुरु न होकर 'गमक गुरु या प्रेरक गुरु थे | श्री प० कैलाशचन्द्र शास्त्रीने भी इसी तथ्य की पुष्टि की है ।
श्रवणबेलगोला के अभिलेखोंसे भी इस तथ्यको पुष्ट किया जा सकता है । यतः श्रुतकेवल भद्रबाहु अपने शिष्य सम्राट् चन्द्रगुप्त के साथ दक्षिण भारत गये थे और वहां श्रवणबेलगोला स्थानमें समाधिमरण प्राप्त किया था। अतः दक्षिण में १. जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश, पृ० ९३ ।
२. मातंगलीला १।७ ।
३. कुन्वकुदप्राभृतसंग्रह, प्रस्तावना, पू० ११ १२ ।
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श्रुतकेवली भद्रबाहुको परस्पराका अस्तित्व सिद्ध होता है। कुन्दकुन्द मूल सघके आचार्य थे और दक्षिण भारतके निवासो । अतः इन्हें श्रुतकेवली भद्रबाहुकी परम्परा प्रान हुई थी। इसी कारण कुन्दकुन्दने उन्हें 'गमकगुरु' कहा है । पट्टावलोके अनुसार इनके गुरुका नाम जिनचन्द्र और दादा गुरुका नाम मा.सन्द है। कुन्दकुन्धके जोवनमें घटित घटनाएं
आचार्य कुन्दकुन्दके जीवनमें प्रमुख दो घटनाओंके घटित होनेको कथा प्रसिद्ध है । एक है विदेहयात्रा और दूसरी है गिरनार पर्वतपर हुए दिगम्बर३ वेताम्बर वाद-विवादमें उनकी विजय । __ जहाँ तक विषयात्राको बात है, उस साधक धद्यपि आभलखीय या अन्य ऐतिहासिक प्रमाण अभीतक उपलब्ध नहीं हुए, किन्तु आचार्य देवसेन, आचार्य जयसन और श्रुतसागरसूरिके उल्लेख बतलाते हैं कि आचार्य कुन्दकुन्द विदेह गये थे और बहस भगवान सीमन्धर स्वामीका उपदेश ग्रहण कर लौटे थे तथा सोमन्धरस्वामीस प्राप्त दिव्यज्ञानका श्रमणोंको उपदेश दिया था। देवसेन ( ई० सन् ९ वीं शती) ने दर्शनसारमें लिखा है
जइ पउमणदिणाही सोमंघरसामिदिव्वणाणेण ।
ण विबोहद तो समणा कहं सुमग्गं पयाणति ।।४३५ इसमें कहा गया है कि यदि पद्धन्द्रिनाथ सीमन्धरस्वामोद्वारा प्राप्त दिव्य ज्ञानसे बोध न देते, तो श्रमण-मुनिजन सच्च मार्गको केसे जानते ।।
देवसेनका यह उल्लेख काफी प्राचीन है और उसपर सहसा अविश्वास नहीं किया किया जा सकता ।
इसी तरह आचार्य जयसेन ( ई. सन् १२ वीं शती) ने भी पञ्चास्तिकाय. को टोकाके आरम्भमें आचार्य कुन्दकुन्दके विदेहगमनको 'प्रसिद्धकथान्याय' बतलाते हुए उसकी स्पष्ट चर्चा की है।
षट्प्राभृतके संस्कृत-टीकाकार श्रुतसागरसुरिने भी टीकाके अन्तमें कुन्दकुन्दस्वामीके विदेहगमनका उल्लेख किया है।
ये उल्लेख अकारण नहीं हो सकते। वे अवश्य विचारणीय है। दिगम्बर-श्वेताम्बर वाद-विवादमें विजयप्राप्तिके भी उल्लेख मिलते है । शभचन्द्राचार्यने पाण्डवपुराणमें लिखा है कि कुन्दकन्दगणोने जयगिरिपर अपने प्रभावसे पाषाण-निर्मित सरस्वतीको वादिता-शास्त्रार्थकी बना दिया था। यथा
श्रुतपर और सारस्वतापार्य : १०५ ।
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कुन्दकुन्दगणी येनोजयन्तगिरिमस्तके ।
सोऽवताद् वादिता ब्राह्मी पाषाणघटिता कलौ ।' जिन्होंने कलिकालमें ऊर्जयन्त गिरिके मस्तक पर-गिरनार पर्वतके ऊपर पाषाणनिर्मित ब्राह्मीकी मूर्तिको बुलवा दिया।
इसी तरहका उल्लेख शुभचन्द्रको गुर्वावलिके अन्तग निबद्ध उन दो पद्योंमें भी है, जो निम्न प्रकार हैं -
पदादी को लादारामानणी। पाषाणघटिता येन वादिता श्रीसरस्वती ।। उज्जयन्तगिरौ तेन गच्छः सारस्वतोऽभवत् ।
अतस्तस्मै मुनीन्द्राय नमः श्रीपद्मनन्दिने। बलात्कारगणाग्रणी पद्मनन्दो गुरु हुए । जिन्होंने ऊर्जयन्तगिरि पर पाषाणनिर्मित सरस्वतोकी मूर्तिको वाचाल कर दिया था। उससे सारस्वत गच्छ हुआ। अतः उन पद्यनन्दो मुनोन्द्रको नमस्कार हो।
कवि वृन्दावनके एक उल्लेखसे भी ज्ञात होता है, कि कुन्दकुन्दस्वामी संघ सहित गिरनारकी यात्राके लिए गये। वहां पर उन दिनों श्वताम्बरोंका भी संघ ठहरा हुआ था। दोनों संघोंमें वादविवाद हुआ और इसकी मध्यस्थता अम्बिका देवाने को। उसने प्रकट होकर कहा कि दिगम्बर निग्रंथ पन्थ ही सच्चा है।
श्री नाथूरामजी प्रेमीने 'तीर्थोके झगड़ों पर ऐतिहासिक दृष्टिसे विचार' शीर्षक निबन्धमें बताया है-''जान पड़ता है, गिरनार पर्वत पर दिगम्बरों और श्वेताम्बरोंके बीच वह विवाद कभी न कभी अवश्य हुआ, जिसका उल्लेख धर्मसागर उपाध्यायने किया है । यह कोई ऐतिहासिक घटना अवश्य है, क्योंकि इसका उल्लेख दिगम्बर साहित्यमें भी एक दूसरे रूपमें मिलता है ।"3 ।
इस सबपर विचार करनेसे प्रतीत होता है कि श्वेताम्बर और दिगम्बरोंका शास्त्रार्थ तो अवश्य हुआ है, पर यह शास्त्रायं नन्दिसंघके आचार्य पचनन्दि, जिनका अपर नाम कुन्दकुन्द था, के साथ नहीं हुआ है। यह अन्य पप्रनन्दिके साथ हुआ होगा, जिनका समय विक्रमको १२वीं शताब्दो है।
१. पाण्डवपुगग। 2. जैनसिद्धान्त भास्कर, भाग १, किरण ४, पृ. ५८ । ३. बेल साहित्य और इतिहास, प्रथम संस्करण, पृ. २४५ ।
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समय-निर्धारण ___ आचार्य कुन्दकुन्दके समय पर विचार करने वालोंमें श्री पं० नाथूरामजी प्रेमी; श्री पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार; डॉ० के०बी० पाठक, प्रो० ए० चक्रवर्ती,
और डॉ० ए० एन० उपाध्येके नाम उल्लेखनीय हैं। डॉ० उपाध्येने सभी मतोंकी समीक्षा कर अपने मतको संस्थापना की है। हम यहाँ संक्षेपमें उक्त विद्वानोंके मत्तोंको विवेचना करेंगे।
प्रमीजीने इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारके आधार पर बताया है कि गुणधर, यतिवृषभ और उच्चारणाचार्य द्वारा रचित गाथासूत्र, चूणिसूत्र और उच्चारणसूत्रों के रूपमें 'कसायपाहुड' निबद्ध हुआ। धरसेनकी परम्परामें पुष्पदन्त और भूतबलिने पट्खण्डागमकी रचना की । इन दोनों ग्रन्थोंको कुन्दकुन्दपुरमें पमनन्दि मुनिने गुरुपरम्परासे प्राप्त किया और षट्खण्डागमके प्रथम तीन खण्डों पर १२००० इलोकप्रमाण परिकर्मनामक ग्रन्थको रचना की। प्रेमीजीने इस आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि वीरनिर्वाण संवत् ६८३ के पश्चात् कुन्दकुम्द हुए हैं। धरसेन, उच्चारणाचार्य आदिके सक्यको पचास-पचास वर्ष मान लेने पर कुन्दकुन्दका समय विक्रमको तीसरी शताब्दीका अन्तिम चरण सिद्ध हाता है।
प्रेमोजीने एक अन्य प्रमाण यह भी दिया है कि ऊज्जयन्तगिरिपर श्वेताम्बरोंके साथ कुन्दकुन्दका ही शास्त्रार्थ हुआ था। उनके सुत्तपाहुबसे भी यह प्रकट है। देवसेनके दर्शनसारके अनुसार विक्रमकी मृत्युके १३६ वर्ष बीतनेपर यह संधभेद हुआ। प्रेमोजीने इसे शालिवाहन शकाब्द मानकर १३६ + १३५ - २७१ विक्रम सं० में संघभेद माना है । इस कालका श्रतावतारमें उल्लिखित समयके साथ समन्वय हो जाता है । अतएव प्रेमोजीके मतानसार कुन्दकुन्दका समय विक्रमकी तृतीय शताब्दोका अन्तिम चरण है। ___ डा. पाठकको' राष्ट्रकूट नरेश गोविन्दराज तृतीयके दो ताम्रपत्र प्राप्त हुए हैं। उनमेंसे एक शक सं० ७१९ का है और दूसरा शक सं०७२४ का है। इनमें कोण्डकोन्दान्वयके तोरणाचार्य के शिष्य पुष्पनन्दिका तथा उसके शिष्यका निर्देश किया है। डॉ०पाठकका अभिमत है कि प्रभाचन्द्र शक सं० ७१९ में और उनके दादागुरु तोरणाचार्य शक सं० ६०० में हुए होंगे। कुन्दकुन्दको इनसे डेढ़ सौ वर्ष पूर्व माना जा सकता है। अतएव कुन्दकुन्दका समय शक सं० ४५० के लगभग है।
डॉ. पाठकने अपने इस अनुमानका समर्थन एक अन्य आधारसे भी किया है। १. सममप्राभूत, काशी संस्करण, संस्कृत-प्रस्तावमा ।
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उन्होंने बताया है कि चालुक्य नरेश कीर्तिवर्मा शक सं० ५०० में राज्यसिंहासनपर आसीन थे । उन्होंने बादामीको जोता और कदम्ब राज्यवंशको नष्ट कर दिया। अतः यह निश्चित हुआ कि कदम्ब राजवंशका शिवमृगेश वर्मा लगभग ५० वर्ष पूर्व अर्थात् शक सं० ४५० के आस-पास विद्यमान था | बालचन्द्रने पचास्तिकायकी कनड़ो टोका और जयसेनने संस्कृतटोकामें बताया है कि कुन्दकुन्दने शिवकुमार महाराज के सम्बोधन के लिए यह ग्रन्थ लिखा । यह शिवकुमार महाराज कदम्बवंशी शिवमृगेश वर्मा ही प्रतीत होता है । अतः कुन्दकुन्दका समस्य शक स० ४५० ( ई० सन् ५२८) आता है ।
विचार करनेपर डॉ० पाठकका उक मत नितान्त असमोचोन है । आज इस मतको कोई भी प्रामाणिक नहीं मानता है ।
प्रो० ए० चक्रवर्तीने ' डॉ० हारनले द्वारा प्रकाशित सरस्वती- गच्छ को दिग म्बर पट्टावलिके आधारपर कुन्दकुन्दके आचार्यपदपर प्रतिष्ठित होने का काल ई० पूर्व ८ माना है और उनका जन्म ई० पूर्व ५२ बतलाया है । चक्रवर्तीने डॉ० पाठक के मतका विरोध किया है और पौराणिक प्रमाणोंके आधारपर कुन्दकुन्दका पट्टावलि - उल्लिखित समय बतलाया है ।
इन्होने पल्लव राजवंशके शिवस्कन्दको शिवकुमार मानने पर जोर दिया है । क्योंकि स्कन्द और कुमार पर्यायवाची शब्द है। अन्य परिस्थितियोंसे भी उन्होंने एकरूपता सिद्ध की है। पल्लवोंकी राजधानी 'कांजोपुरम्' में थी । ये 'योण्डमण्डलम्' पर शासन करते थे । यह प्रदेश विद्वानोंको भूमि माना जाता था । 'कांजीपुरम्' के शासक ज्ञानके भी संरक्षक थे। ईसाको प्रारम्भिक शताब्दियोसे लेकर आठवीं शताब्दी तक 'कांजीपुरम्' के चारों ओर जनधर्मका प्रचार होता रहा है । इसके अतिरिक्त 'मयोडबोलू' दानपत्रको भाषा प्राकृत है । इस दानपत्रको शिवस्कन्ददर्माने प्रचारित किया है। इसको विषयवस्तु और भाषा मथुराके अभिलेखोंसे मिलती-जुलती है। अतः प्रो० चक्रवर्तीने यह निष्कर्ष निकाला है कि कुन्दकुन्दने जिस शिवकुमार महराजके लिए प्राभृतत्रय लिखे थे, वह सम्भवतः पल्लववंशका शिवस्कन्द वर्मा है ।
आचार्य श्री जुगलकिशोर मुख्तारने* समन्तभद्र के समयविचार- प्रसंग में लिखा है - कुन्दकुन्दाचार्य बोर नि० सं० ६८३ से पहले नहीं हुए, किन्तु पीछे हुए हैं। परन्तु कितने पीछे, यह अस्पष्ट है। यदि अन्तिम आचारांगधारी लोहाचार्यके बाद होनेवाले विनयधारो आदि चार आरातीय मुनियोंका एकत्र समय
१. पंचास्तिकाय के अंग्रेजी अनुवादको प्रस्तावना |
२. रत्नकरण्ड श्रावकाचार की प्रस्तावना, पृ० १५८ - १८७ ।
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२० वर्षका और अहंद्वलि, माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतबलि तथा कुन्दकुन्दके गुरुका स्थूल समय दश-दश वर्षका ही मान लिया जाय, जिसका मान लेना कुछ अधिक नहीं है, तो यह सहजमें ही कहा जा सकता है कि कुन्दकुन्द उक्त समयसे ८० वर्ष अथवा वोर नि० ७६३ ( ६८३ + २० + ६० ) वर्ष बाद हुए हैं और यह समय उस समयके करीब पहुंच जाता है जो बिद्वज्जनबोधक' से उद्ध त किये हुए उक्त पदमें दिया है, और इसलिए इसके द्वारा उसका बहुत कुछ समर्थन होता है।" । ___ मुख्तारसाहब पट्टालिपर विश्वास नहीं करते। पट्टावलि में कुन्दकुन्दका समय वि० संवत् ४९ दिया गया है। इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारमें वर्णित दोनों सिद्धांतअन्थोंकी उत्पत्तिको कथा तथा गुरुपरिपाटीसे दोनों सिद्धांतग्रन्थोंका अध्ययन कर कुन्दकुन्दके द्वारा पटवण्डागमके प्रथम तीन स्वण्डोंपर १२००० श्लोक प्रमाण टीका लिखनेकी दातको साधार मानकर यही निष्कर्ष निकलता है कि कुन्दकुन्द वीर निर्वाण संवत् ६७० के लगभग हए हैं ।
मुख्तारसाहबने शिवकुमार महराजवाली चर्चाको उठाकर डॉ० पाठकके मतका निरसन किया है और प्रो. चक्रवर्तीके मतको भो मान्य नहीं ठहराया है। इस प्रकार मुख्तारसाहबने कुन्दकुन्दका समय वीर निर्वाण संवत् ६०८६९२ के मध्य माना है।
कुन्दकुन्दके समयपर विस्तारसे विचार करनेवाले डॉ. ए. एन० उपाध्ये हैं। उन्होंने अपनी प्रवचनसारको विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावनामें अपनेसे पूर्व प्रचलित सभी मतोंकी समीक्षा करते हुए स्वमतका निर्धारण किया है। डॉ० उपाध्येने अपने मतके निर्णयके हेतु निम्नलिखित तथ्योंपर विचार किया है
१. भद्रबाहुका शिष्यत्व २. श्रुतावतारानुसार षट्खण्डागमका टीकाकारित्व ३. संघभेदानन्तर प्राप्त सूचनाओंका आधारत्व
४. जयसेन एवं बालचन्द्रके उल्लेखानुसार शिवकुमार महराजका समकालीनत्व
५. कुरलकर्तृत्व
१. डॉ. उपाध्येका विचार है कि कुन्दकुन्द दिगम्बर-श्वेताम्बर संघभेद उत्पन्न होनेके पश्चात् ही हुए हैं । यदि वे पहले हुए होते तो अचेलकत्वका समर्थन और स्त्रीमुक्तिका निषेध नहीं करते, यतः संघभेदकी उत्पत्ति चन्द्रगुप्त मौर्यके समकालीन श्वतकेवली भद्रबाहुके समयमें हो चुकी थी। यही कारण है कि कुन्दकुन्दने अपने ग्रन्थोंमें श्वेताम्बर प्रवृत्तियोंका निषेध किया है । १. रलकरस्थावकाचारकी प्रस्तावना पृ० १६१ ।
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२. प्रथम तथ्यपर विचार करते हुए कुन्दकुन्दको श्रुतकेवली भद्रबाहुका परम्पराशिष्य माना है । डॉ० उपाध्येने बतलाया है कि दक्षिणमें जो मुनिसंध आया था, उनमें प्रधान भद्रबाहु श्रुतकेवली थे। अतः उनके संन्यासमरणके पश्चात् भी प्रधान गुरुके रूपमें उनकी मान्यता प्रचलित रही। दक्षिणमें जो साधुसंच था उसे धार्मिक ज्ञान उत्तराधिकारके रूपमें भद्रबाहुसे ही प्राप्त हुआ था । अतः सुदूर दक्षिण देशवासी कुन्दकुन्दने उन्हें अपना गुरु माना, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। यह यथार्थ है कि कुन्दकुन्द श्रुतकेवली भद्रबाहुके साक्षात् शिष्य नहीं है, यतः उनका नामोल्लेख अंगधारियोंमें नहीं मिलता है और न ऐसो कोई किवदन्ती हो प्राप्त होती है, जिसके आधारपर कुन्दकुन्दको श्रुतकेवली भद्रबाहुका समकालीन माना जा सके ।
३. श्रुतावतार में आया है कि कोण्डकुन्दपुरके पद्मनन्दिने 'कषायपाहूड' और 'षट्खण्डागम' इन दोनों ग्रन्थोंका ज्ञान प्राप्त किया और षट्खण्डागमके प्रथम तीन खण्डोंपर टीका लिखी, यह तथ्य असंदिग्ध नहीं है । कुन्दकुन्दको ऐसी कोई भी टीका आज नहीं मिलती और न कहीं उसके अवशेष ही मिलते हैं । अतः इन्द्रनन्दिके उक्त कथनका समर्थन अन्य किसी ग्रन्थसे नहीं होता है । विबुध श्रीधर ने अपने श्रुतावतार में लिखा है कि कुन्दको तिने कुन्दकुन्दाचार्य से दोनों सिद्धान्तग्रन्थों का ज्ञान प्राप्त करके 'षट्खण्डागम' के आदिके तीन खण्डोंपर बारह हजार श्लोक प्रमाण 'परिकर्म' नामक शास्त्र लिखा। डॉ० उपाध्येका एक अन्य तर्क यह है कि कुन्दकुन्दकी प्रतिभा मौलिक ग्रन्थोंके सृजनकी ओर हो अधिक है । टीका या टीकाकारिका लिखने की ओर नहीं । अतएव श्रुताबतारके आधारपर कुन्दकुन्दका समय वीर निर्वाण संवत् ६८३ के पश्चात् माना जाना चाहिए, यह कोई सबल प्रमाण नहीं है । सम्भव है कि कुन्दकुन्द इसके पहले हुए हों ।
४. डॉ० उपाध्ये प्रो० चक्रवर्तीके इस तथ्यको समुचित मानते हैं कि शिवकुमार महराज पल्लवराजवंशी हैं । किन्तु पल्लवराजवंशका समय अभीतक अनिर्णीत है । अतएव डा० उपाध्ये डा० पाठकके मतसे असहमत होते हुए प्रो० चक्रवर्ती द्वारा मान्य शिवकुमार महराज और शिवस्कन्दकी एकताको स्वीकार करते हैं ।
५. कुरलकाव्यकर्त्ता के रूप में कुन्दकुन्द की मान्यतापर विचार करते हुए डॉ० उपाध्येने बतलाया है कि कुरलकाव्यका जैन होना सम्भव है, उसमें ऐसे अनेक तथ्य आये हैं जो अन्य धर्मोमें प्राप्त नहीं होते। इस काव्यका समस्त वण्यं विषय जैन आचार और तत्त्वज्ञानसे सम्बद्ध है । अतएव कुरलका कर्त्ता कोई जैन कचि तो अवश्य है, पर माचार्य कुन्दकुन्द है, इसके समर्थन में कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है । कुन्दकुन्दका अन्य नाम एलाचार्य बताया गया है उसकी
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पुष्टि भी अन्य प्रमाणोंसे नहीं होती । अतएव कुन्दकुन्दको ई० सन् प्रथम शताब्दीका विद्वान् स्वीकार किया जा सकता है ।
आधुनिक विचारक डॉ० ज्योति प्रसादजीने विभिन्न मतों की समीक्षा करते हुए निम्नलिखित निष्कर्ष उपस्थित किया है - All this Shows that he may Safely be assigned to the calry part of the first century A. 1, or, to be exact, to 8 B. CA. D. 44.
अर्थात् इस जादाउपर कुन्यकुपकाराप ई० सन्की प्रथम शताब्दी आता है । कुम्कुम्बकी रचनाएँ
दिगम्बर साहित्य के महान् प्रणेत्ताओंमें कुन्दकुन्दका मूर्धन्य स्थान है । इनकी सभी रचनाएँ शौरसेनी प्राकृतमें हैं । १. प्रवचनसार, २. समयसार और ३, पंचास्तिकाय ये तीन ग्रन्थ विश्रुत हैं और तत्त्वज्ञानको अवगत करनेके लिए कुञ्जी हैं। शेष रचनाओंका भी आध्यात्मिक दृष्टिसे विशेष महत्त्व है ।
१. प्रवचनसार
यह ग्रन्थ अमृतचन्द्रसूरि और जयसेनाचार्यकी संस्कृतटीकाओं सहित रायचन्द्र शास्त्रमाला बम्बई द्वारा प्रकाशित है । इसमें तीन अधिकार हैं-ज्ञान, शेय और चारित्र | ज्ञानाधिकारमें आत्मा और ज्ञानका एकत्व एवं अन्यत्व, सर्वज्ञकी सिद्धि, इन्द्रिय और अतीन्द्रिय सुख, शुभ, अशुभ और शुद्धोपयोग तथा मोक्षय आदिका प्ररूपण है । ज्ञेयाधिकार में द्रव्य, गुण, पर्यायका स्वरूप, सप्तभंगी, कर्म और कर्मफलका स्वरूप, मूर्त और अमूर्त द्रव्योंके गुण, कालादिकके गुण और पर्याय, प्राण, शुभ और अशुभ उपयोग, जीवका लक्षण, जीव और पुद्गलका सम्बन्ध, निश्चय और व्यवहारका अविरोध एवं शुद्धात्मा आदिका प्रतिपादन है | चारित्र अधिकार में श्रामण्यके चिह्न, छेदोपस्थापक भ्रमण, छेदका स्वरूप युक्त आहार, उत्सर्ग और अपवाद मार्ग, आगमज्ञानका लक्षण और मोक्षतत्त्व आदिका कथन किया है ।
आचार्य अमृतचन्द्रको टीकाके अनुसार इसमें २७५ गाथाएं हैं और जयसेनकी टीका अनुसार ३१७ हैं । इन बढ़ी हुई गाथाओंका तीन वर्गों में विभाजन किया जा सकता है
१. नमस्कारात्मक
२. व्याख्यानविस्तारविषयक
३. अपरविषयविज्ञापनात्मक
1. The jaina Sources of the history of ancient India P. 124 = 125.
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प्रथम दो विषयोंको गाथा इस प्रकारको तटस्थ हैं कि जिनका अभाव खटकता नहीं है। उनके रहनेपर भी प्रवचनसारके विषयमें किसी प्रकारको वृद्धि नहीं होती। नृतीय विभागको चौदह गाथाएँ विचारणीय हैं। ये गाथाएँ निग्रन्थ साधुनोंदे ला चस्पानादिका मागियों के लिए भुस्तिका निषेध करती हैं। इन गाथाओंके विषय यद्यपि कुन्दकुन्दके अन्य ग्रन्थोंके विपरीत नहीं है, पर श्वेताम्बर सम्प्रदाय के विरुद्ध अवश्य हैं। अतः अमृतचन्द्राचार्यके द्वारा इनके छोड़े जानेके सम्बन्धमें डॉ० उपाध्येका कथन है-"अमृप्तचन्द्र इतने आध्यात्मिक व्यक्ति थे कि वे साम्प्रदायिक वाद-विवादमें पड़ना नहीं चाहते थे। अतः इस बातको इच्छा रखते थे कि उनकी टीका सक्षिप्त हो एवं तीक्ष्ण साम्प्रदायिक आक्रमणोंको न करती हुई कुन्दकुन्दके अति उदात्त उद्गारोंके साथ सभी सम्प्रदायों को स्वोकृत हो ।'
डॉ. उपाध्येका उपर्युक्त मत सर्वथा समीचीन नहीं है, क्योंकि अमृतचन्द्रने तत्त्वार्थसारके निम्न पद्यमें लिखा है
सग्रन्थोऽपि च निर्ग्रन्थो ग्रासाहारी च केवली ।
रुचिरेवंविधा यत्र विपरीतं हि तत्स्मृतम् ॥' इस पद्यमें श्वेताम्बर मान्यताके केवली-कवलाहार और सचेलकत्वका निषेध किया गया है। अतः श्वेताम्बर मान्यताके सिद्धान्तोंकी समीक्षा छोड़ देने की बात युक्त नहीं है।
२. समयसार-यह सर्वोत्कृष्ट आध्यात्मिक ग्रन्थ है। यहाँ समयशब्दके दो अर्थ विवक्षित है--समस्त पदार्थ और आत्मा | जिस ग्रन्धमें समस्त पदार्थों अथवा आत्माका सार बणित हो, वह समयसार है। यह भेदविज्ञानका निरूपण करता है। अनेक पदार्थों को 'स्व'-'स्व' लक्षणोंसे पृथक-पृथक नियत कर देना और उनसे उपादेय पदार्थको लक्षित तथा अन्य समस्त पदार्थोको उपेक्षित कर देनेको भेदविज्ञान कहा जाता है। यह ग्रन्थ दश अधिकारोंमें विभक्त है-प्रथम जीवाधिकारमें 'स्व' समय, 'पर' समय, शुद्धनय, आत्मभावना और सम्यक्त्वका प्ररूपण है। जोवको कामभोगविषयक बन्धकथा ही सुलभ है किन्तु आत्माका एकत्व दुर्लभ है। एकत्व-विभक्त आत्माको निजानुभूति द्वारा ही जाना जाता है । जीव प्रमत्त, अप्रमत्त दोनों दशाओंसे पृथक ज्ञायकभावमात्र है । ज्ञानीके दर्शन, ज्ञान, चारित्र व्यवहारसे कहे जाते हैं, निश्चयसे नहीं। निश्चयसे ज्ञानी एक शुद्ध ज्ञायकमान ही है। इस अधिकारमें व्यवहारनयको अभूतार्थ और निश्चयको भूतार्थ कहा है। दूसरे कर्तृकर्माधिकारमें आस्रव, बन्ध आदिकी १. तत्त्वार्थसार, पक्ष, ५।६। ११२ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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पर्यायोंका विवेचन किया गया है । आत्माके मिध्यात्व, अज्ञान और अविरति ये सीन परिणाम अनादि हैं। जब इन तीन प्रकारके परिणामोंका कर्तृत्व होता है, तब पुद्गलद्रव्य स्वयं कर्मरूप परिणमन करता है । परद्रव्यके भावका जीव कभी भी कर्त्ता नहीं है ।
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तीसरे पुण्य-पाप अधिकारमें शुभाशुभ कर्मस्वभाव वर्णित हैं। अज्ञानपूर्वक किये गये व्रत, नियम, शील और तप मोक्षके कारण नहीं हैं । जीवादि पदार्थोंका श्रद्धान, उनका अधिगम और रागादिभावका त्याग मोक्षका मार्ग बतलाया है। चौथे आस्रवाधिकारमें मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, योग और कषाय आसव बतलाये गये हैं । वस्तुतः राग, द्वेष, मोहरूप परिणाम हो आस्रव हैं। ज्ञानीके आस्रवका अभाव रहता है । यतः राग-द्वेष-मोहरूप परिणामके उत्पन्न न होने से आस्रवप्रत्ययोंका अभाव कहा जाता है । पाँचवें संवर अधिकार में संवरका मूल भेदविज्ञान बताया है । इस अधिकारमें संवरके क्रमका भी वर्णन है । छठवें निर्जरा अधिकारमें द्रव्य, भावरूप निर्जराका विस्तारपूर्वक निरूपण किया है। ज्ञानी व्यक्ति कर्मों के बीच रहने पर भी कर्मोसे लिए नहीं होता है, पर अज्ञानी कर्मरजसे लिप्त रहता है। सातवें बम्चाधिकार बन्धके कारण रागादिका विवेचन किया है । बाठवें मोक्षाधिकारमें मोक्षका स्वरूप और नववें सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकारमें आत्माका विशुद्ध ज्ञानको दृष्टिसे अकव आदि सिद्ध किया है । अन्तिम दशम अधिकारमें स्याद्वादकी दृष्टिसे आत्मस्वरूपका विवेचन किया है ।
इस ग्रन्थ में आचार्य अमृतचन्द्रके टोकानुसार ४१५ गाथाएँ और जयसेनाचार्यको टीकाके अनुसार ४३९ गाथाएँ हैं । शुद्ध आत्माका इतना सुन्दर और यवस्थित विवेचन अन्यत्र दुर्लभ है ।
३. पञ्चास्तिकाय - इस ग्रन्थ में कालद्रव्यसे भिन्न जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश इन पाँच अस्तिकायोंका निरूपण किया गया है । बहुप्रदेशी द्रव्यको आचार्यने अस्तिकाय कहा है । द्रव्य- लक्षण, द्रव्यके भेद, सप्तभंगी, गुण, पर्याय, कालद्रव्य एवं सत्ताका प्रतिपादन किया है। यह ग्रन्थ दो अधिकारोंमें विभक्त है । प्रथम अधिकारमें द्रव्य, गुण और पर्यायोंका कथन है और द्वितीय अधिकार में पुण्य, पाप, जीव, अजीब, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा एव मोक्ष इन नय पदार्थों के साथ मोक्ष मार्गका निरूपण किया है।
इस ग्रन्थ में अमृत्त चन्द्राचार्यकी टोकाके अनुसार १७३ गाथाएं और जयसेनाचार्य के टीकानुसार १८१ गाथाएं है । द्रव्य स्वरूपको अवगत करनेके लिए यह ग्रन्थ बहुत उपयोगी है ।
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४. मियसार - आध्यात्मिक दृष्टिसे यह ग्रन्थ भी महत्त्वपूर्ण हैं । इसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रको नियमसे मोक्ष प्राप्तिका मार्ग कहा है । अतएव सम्यग्दर्शनादिका स्वरूप कथन करते हुए उसके अनुष्ठान करने एवं मिथ्यादर्शनादिके त्यागका विधान किया है। इसपर पद्मप्रभमलधारीदेवकी संस्कृसटोका भी उपलब्ध है ।
५. बारस- अणुवेक्खा ( द्वावशानुप्रेक्षा ) – इसमें अध्रुव अनित्य, मशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार लोक अशुचिव तसतसं निश और बोधिदुर्लभ इन बारह भावनाओंका ९१ गाथाओं में वर्णन है । संसार से विरक्ति प्राप्त करनेके लिए यह रचना अत्यन्त उपादेय है ।
६. वंसणपाहुड – इस लघुकाय ग्रन्थ में धर्मके सम्यग्दर्शनका ३६ गाथाओं में विवेचन किया गया है। सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट व्यक्तिको निर्वाण प्राप्त नहीं हो सकता है 1
७. वारित पाहुड – सम्यक्चारित्रका निरूपण ४४ गाथाओंमें किया गया है । सम्यक् चारित्रके दो भेद किये हैं- सम्यक्त्वचरण और संयमचरण । संयमचरणके सागार और अनगार इन दो भेदों द्वारा श्रावक और मुनि धर्मका संक्षेपमें निर्देश किया है ।
८. सुतपा - २७ गाथाओं में आगमका महत्त्व बतलाते हुए उसके अनुसार चलनेकी शिक्षा दी गयी है ।
५.
बोहपाड – ६२ गाथाएं हैं। इनमें आयतन, चैत्यगृह, जिनप्रतिमा, दर्शन, जिनविम्ब, जिन मुद्रा, आत्मज्ञान, देव, तोर्थ, अर्हन्त और प्रथा इन ग्यारह बातोंका बोध दिया गया है।
१०. भाव पाहुड - १६३ गाथाओं में चित्त शुद्धिकी महत्ताका वर्णन किया है । बताया है कि परिणामशुद्धिके बिना संसार परिभ्रमण नहीं रुक सकता है और न बिना भावके कोई पुरुषार्थ ही सिद्ध होता है । इसमें कर्मकी अनेक महत्वपूर्णं बातोंका विवेचन आया है ।
११. मोक्लपाहुड – इस ग्रन्थ में १०६ गाथाओंमें मोक्षके स्वरूपका निरूपण किया गया है। आत्मा के बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा — इन तीन भेदोंका स्वरूप समझाया है । मोक्ष- परमात्म-पदकी प्राप्ति किस प्रकार होती है इसका निर्देश किया है ।
१२. लिंगपाहुड – इस लघुकाय ग्रन्थ में २२ गाथाएँ हैं । श्रमणलिंगको लक्ष्य कर मुनि धर्मका निरूपण किया गया है ।
११४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा
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१३. सीलपाड-४० गाथाएं हैं । शोल ही विषयासक्तिको दूरफर मोक्षप्राप्तिमें सहायक होता है। जोव-दया, इन्द्रिय-दमन, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, असन्तोष, सम्यग्दर्शन, सम्यगशान और तपको शीलके अन्तर्गत परिगणित किया है।
१४. रयणसार-इस ग्रंथमें रत्नत्रयका विवेचन है । १६७ पध हैं। और किसी-किसी प्रतिमें १५५ पद्य भी मिलते हैं। गृहस्थ और मुनियोंको रत्नत्रयका पालन किस प्रकार करना चाहिए, यह इसमें वर्णित है। डॉ० ए० एन० उपाध्ये इस ग्रन्थको गाथा-विभेदविचार, पुनरावृत्ति, अपभ्रंशपद्योंकी उपलब्धि एवं गण-गच्छादिके उल्लेख मिलनेसे कुन्दकुन्दके होनेमें आशंका प्रकट करते हैं। वस्तुतः शैलीको भिन्नता और विषयोंके सम्मिश्रणसे यह ग्रन्थ कुन्दकुन्द रचित प्रतीत नहीं होता । परम्परासे यह कुन्दकुन्दद्वारा प्रणीत माना जाता है ।
१५. सिद्ध-भक्ति-यह स्तुतिपरक अभ्य है । १२ गाथाओंमें सिद्धोंके गुण-भेद, सुख, स्थान, आकृति और सिद्धि-मार्गका निरूपण किया गया है । इसपर प्रभाचन्द्राचार्यको एक संस्कृत टीका है। इस टोकाके अन्तमें लिखा है कि संस्कृतकी सब भक्तियाँ पूज्यपादस्वामी द्वारा विरचित हैं और प्राकृतको भक्तियां कुन्दकुन्द आचार्य द्वारा निर्मित' हैं।
१६ सुवति-इस भक्तिपाठमें ११ गाथाएं हैं। इसमें आचारांग, सूत्रकृतांग आदि द्वादश अंगोंका भेद-प्रभेद सहित उल्लेख करते हुए उन्हें नमस्कार किया गया है। साथ ही १४ पूर्वोमेंसे प्रत्येकको वस्तुसंख्या और प्रत्येक वस्तुके प्राभूतोंकी संख्या भी दी है।
१७. चारित्त-भत्ति-१०अनुष्टुप गाथाछन्द हैं। सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात नामके चारित्रों, अहिंसादि २८ मूलगुणों, दस धर्मो', त्रिगुप्तियों, सकलशोलों, परीषहोंके जय और उत्तरगुणोंका उल्लेख करते हुए मुक्तिसुख देनेवाले चारित्रको भावना की गयी है ।
१८. जोइभति-२३ गाथाओंमें योगियोंकी अनेक अवस्थाओं, ऋद्धियों, सिद्धियों एवं गुणोंके साथ उन्हें नमस्कार किया गया है।
१९. आइरियभत्ति-इसमें १० गाथाएं हैं और इनमें आचार्योंके उत्तम गुणोंका उल्लेख करते हुए उन्हें नमस्कार किया है।
१. संस्कृताः सर्वा विभक्तयः पूज्यपादस्वामिकताः प्राकृतास्तु कुन्दकुन्दाचार्यकृताः ।
--प्रभाषन्द्रटीका, अन्तिम बंश ।
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२०. गिव्याणभत्ति--इस भक्तिपाठमें २७ गाथाएं हैं। इनमें निर्वाणका स्वरूप एवं निर्वाणप्राप्त तीर्थंकरोंकी स्तुति की गयी है।
२१. पंचगुरमति–इस भक्तिपाठमें सात पद्य हैं। प्रारम्भिक पांच पचोंमें क्रमशः अर्हत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साघु इन पाँच परमेष्ठियोंका स्रावन है। छठे पद्यमें स्तवनका फल अङ्कित है। सप्तम पद्यमें इन पांच परमेष्ठियोंका अभिषान पंच नमस्कारमें किया है।
२२. थोस्सामि थुदि (तिस्थयर-भात) योस्सामि पदसे आरम्भ होनेवाली अष्टगाथात्मक स्तुति है । इसे तीर्थकर-भक्ति भी कहा गया है। इस स्तुतिपाठमें वृषभादि वर्धमान पर्यन्त चतुर्विशति तीर्थंकरोंकी उनके नामोल्लेखपूर्वक वन्दना की गई है और तीपंकरोंके लिए जिन, जिनवर, जिनेन्द्र, केवली, अनन्तजिन, लोकहित, धर्मतीर्थकर, विधूतरजोमल, लोकोद्योतकर आदि विशेषणोंका प्रयोग किया गया है । अन्तमें समाधि, बोधि और सिद्धिकी प्रार्थना की गयी है। ____ इस भक्तिपाठके कतिपय पद्य श्वेताम्बर सम्प्रदायके पद्योंके समान हैं । और कुछ भिन्न हैं । यथा--
लोयस्सुज्जोययरे धम्म-तिस्थंकरे जिणे वंदे । अरहते कित्तिस्से चवीसं चेव केवलिणे !! --दिगम्बर पाठ लोगस्स उज्जोअगरे घम्मतित्थयरे जिणे ।।
अरहते कित्तइस्सं चउवीसं पि केवली ।। -श्वेताम्बर पाठ इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द अपूर्व प्रतिभाके धनी और शास्त्रपारंगत। विद्वान् हैं। इन्होंने पंचास्तिकाय और प्रवचनसारमें आध्यात्मिक दृष्टिके साथ ! शास्त्रीय दृष्टिको भी प्रश्रय दिया है। अतएव इन दोनों ग्रन्थोंमें द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नयोंका भी वर्णन प्राप्त होता है। सम्यक्दर्शनके विषयभूत जीवादि पदार्थो का विवेचन करनेके लिए शास्त्रीय दष्टिको अंगीकृत किये बिना कार्य नहीं चल सकता। अतएव द्रव्याथिक नयसे जहां जीवके नित्य--अपरिणामी स्वभावका वर्णन किया जाता है, महाँ पर्यायाथिक नयको अपेक्षासे जीवके अनित्य-परिणामी स्वभावकर भी वर्णन रहता है। यों तो द्रव्य-गुण और पर्यायोंका एक अखण्ड पिण्ड है, तो भी उनका अस्तित्व प्रकट करने के लिए भेदको स्वीकार किया जाता है ।
आचार्य कुन्दकुन्दने समयसार और नियमसारमें आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मस्वरूपका विवेचन किया है । इस दृष्टिमें गुणस्थान और मार्गणाओंके मेदोंका अस्तित्व स्वीकृत नहीं रहता । यह दृष्टि परनिरपेक्ष आत्मस्वभावको और उसके ११६ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा
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प्रतिपादक निश्वयनयको हो भूतार्थ तमा कवहारको हेग मानती है। यहाँ एमा निश्चय ही मोक्षमार्ग है, व्यवहार नहीं। इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्दने आध्यात्मिक और शास्त्रीय दृष्टियोंका विश्लेषण एवं विवेचनकर आत्मतत्त्वका निरूपण किया है। इन दोनों दष्टियोंके सम्बन्ध में सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने लिखा है-“शास्त्रीय दृष्टि वस्तुका विश्लेषण करके उसकी तह तक पहुँचनेकी चेष्टा करती है। उसकी दृष्टिमें निमित्तकारणके व्यापारका उत्तना ही मूल्य है, जितना उपादानकारणके व्यापारका और परसंयोग-जन्य अवस्था भो उतनी ही परमार्थ है, जितनी स्वाभाविक अवस्था । जैसे उपादानकारणके बिना कार्य नहीं होता, वैसे ही निमित्तकारणके बिना भी कार्य नहीं होता । अतः कार्यकी उत्पत्तिमें दोनोंका समव्यापार है.......'शास्त्रीय दृष्टिका किसी वस्तु-विशेषके साथ कोई पक्षपात नहीं है।"
"शास्त्रीय दृष्टिके सिवाय एक दृष्टि आध्यात्मिक भी है । इसके द्वारा आत्मतत्त्वको लक्ष्यमें रखकर वस्तुका विचार किया जाता है ।"
अतएव संक्षेपमें कुन्दकुन्दका अपूर्व पाण्डित्य, उनकी शास्त्रग्रथन-प्रतिभा एवं सिद्धान्त ग्रन्थोंके सार-भागको आध्यात्मिक और द्रव्यानुयोगके रूपमें प्रस्तुतोकरण आदि उनको विशेषताएँ हैं । आचार्य बट्टकेर और उनका साहित्य __ आचार्य वट्टकेर कुन्दकुन्दाचार्यसे भिन्न हैं या अभिन्न, इस सम्बन्धमें मतभेद है। श्री जुगलकिशोर मुख्तारने इन्हें कुन्दकुन्दसे अभिन्न माना है। डॉ. ज्योतिप्रसाद भी इसी मतके समर्थक हैं ।। ___ डॉ० हीरालाल जैनने वट्टकेरको कुन्दकुन्दसे भिन्न स्वीकार किया है । उन्होंने लिखा है-“वट्टकेरस्वामीकृत. मूलाचार दिगम्बर सम्प्रदायमें मुनिधर्मके लिए सर्वोपरि प्रमाण माना जाता है। कहीं-कहीं यह ग्रन्थ कुन्दकुन्दाचार्यकृत भी कहा गया है । यद्यपि यह बात सिद्ध नहीं होता, तथापि उससे इस अन्य के प्रति समाजका महान् आदरभाव प्रकट होता है।"
१. कुम्बकुन्दप्रामतसंग्रह प्रस्तावना, पृष्ठ-८२ । २. वही, पृष्ठ-८३ ३. भारतीय संस्कृति में जैनधर्मका योगदान, प्रकाशक, मध्यप्रदेश शासन-साहित्य परिषद्,
मोपाल, पृष्ठ १०५ ।
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डॉ० जेनके उक्त उद्धरणसे दो निष्कर्ष उपस्थित होते हैं ।
१. श्रद्धा, भक्ति और मान्यताके अतिरेकके कारण मूलाचारके कर्त्ता कुन्दकुन्द मान लिये गये हैं । कुन्दकुन्द दिगम्वर परम्परा के युगसंस्थापक और I युगातरकारी आचार्य हैं, असएव चट्टकेर के नामपर उत्तरवर्ती साक्षियोंमें मूलाचारका नाम निर्देश कर दिया।
२. मूलाधार दिगम्बर परम्पराका आचारांग ग्रन्थ है। इसी कारण इस ग्रन्थका सम्बन्ध कुन्दकुन्दसे जोड़ा गया है । वट्टकेर आचार्यकी अन्य कृतियाँ उपलब्ध नहीं होतीं । अतएव इतने महान् ग्रन्थका रचयिता इनको स्वीकार करने में उत्तरवर्ती लिपिकारोंको आशंका हुई ।
आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारते माणिकचन्द दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला में प्रकाशित सटीक मूलाचार प्रतिकी पुष्पिकाके आधारपर इस ग्रन्थको कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत बतलाया है । पुष्पिका निम्न प्रकार है
"इति मूलाचारविवृतौ द्वादशो अध्यायः । कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीतमूलाचाराख्यविवृतिः । ऋतिरियं वसुनन्दिनः श्रीश्रमणस्य " ।
इस पुष्पिका के आधारसे श्रीजुगलकिशोर मुख्तार बट्टकेरको कुन्दकुन्दसे अभिन्न मानते हैं ।
डॉ० ए० एन० उपाध्येने अपनी प्रवचनसारकी महत्त्वपूर्ण प्रस्तावनामें मूलाचारको दक्षिण भारतकी पाण्डुलिपियोंके आधारपर कुन्दकुन्दकृत लिखा है । पर एक निवन्धमें" मूलाचारको संग्रह-ग्रन्थ सिद्ध किया है, और इसके संग्रहकर्त्ता सम्भवतः वट्टकेर थे, यह अनुमान लगाया है।
आचार्य वसुनन्दिने मूलाचार की संस्कृत टीका लिखी है और इस टीकाकी प्रशस्ति में इस ग्रन्थ के कर्ताको वट्टकेर, वट्टकेर्याचार्यं, तथा वट्टं रकाचार्य के रूपमें उल्लिखित किया है । इन नामोंमें पहला नाम टीका के प्रारम्भिक प्रस्तावना वाक्यमें, दूसरा नवम, दशम और एकादश अधिकारोंके सन्धिवाक्योंमें और तृतीय नाम सप्तम अधिकारके सन्धिवाक्य में पाया जाता है ।
यह सत्य है कि वट्टकेर नामका समर्थन न तो किसी गुर्वावलिसे होता है, न पट्टालिसे, न अभिलेखोंसे और न ग्रन्थ- प्रशस्तियोंसे ही । इसी कारण श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीने अपने एक निबन्धमें इस समस्याका समाधान प्रस्तुत करनेका प्रयास किया है। उन्होंने बताया है कि दक्षिण भारत में वेट्टगेरि या वेट्ट्केरी
१. प्राथ्य-विद्या-सम्मेलन, अलीगढ़ (च० प्र० ) में पठित
२. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १२, किरण १ ० ३८ ।
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नामके ग्रामका अस्तित्व पाया जाता है। अतः इस ग्रामके निवासी होनेके कारण मलागार कार्याको गहतोर स मेहरि कहा गया होगा। जिस प्रकार कोण्डकुन्दपुरके रहनेवाले होनेसे कुन्दकुन्द नाम प्रसिब हुआ, उसी प्रकार वेट्टकेरिके रहनेवाले होनेसे मूलाचारके कर्ता वट्टकेर कहलाये । अतः मूलाचार कुन्दकुन्दको रचना नहीं है और न वट्टकेर हो कुन्दकुन्दसे अभिन्न हैं।
श्रीजुगलकिशोर मुख्तारने अपना अभिमत प्रकट करते हुए लिखा है कि"वदकका अर्थ वर्तक-प्रवर्तक है, इर गिरा, वाणी, सरस्वतीको कहते है, जिसको वाणी प्रवत्तिका हो-जनतामें सन्मार्ग सथा सदाचारमें लगानेवाली हो-उसे बढ़कर समझना चाहिये । दूसरे, बट्टकों-प्रवर्तकोम जो 'इरि' गिरि, प्रधान, प्रतिष्ठित हो, अथवा ईरि-समर्थ-शक्तिशाली हो, उसे वट्टकरि जानना चाहिए । तीसरे चट्ट नाम वत्तंन-आचरणका है और 'ईरक' प्रेरक तथा प्रवर्तकको कहते हैं, सदाचारमें वो प्रवृत्ति करानेवाला हो उसका नाम वट्टकेर' है" । इस प्रकार मुख्तार साहबने थट्टकेरका अर्थ प्रवर्तक, प्रधानपदपर प्रतिष्ठित अथवा श्रेष्ठ आचारनिष्ठ किया है, और इसे कुन्दकुन्दाचार्यका विशेषण बतलाया है । अतएव इनके मतसे कुन्दकुन्द ही वट्टकेर हैं।
उपयुक्त मत-भिन्नताओंके आलोक में मूलाचारका अध्ययन करनेसे ज्ञात होता है कि वट्टकेर एक स्वतन्त्रबाचार्य हैं और ये कुन्दकुन्दाचार्यसे भिन्न हैं । ग्यारहवीं शताब्दोके विद्वान् वसुनन्दिने वट्टकेरका उल्लेख स्पष्ट रूपसे किया है। अतः इस ग्रन्थके रचयिता आचार्य वट्टकेर हैं और वं आचार्य कुन्दकुन्दसे भित्र सम्भव हैं । समय-निर्धारण और अन्धकी मौलिकता।
बट्टकरके सम्बन्धमें अभी तक पट्टालि, गुर्वावलि, अभिलेख एवं प्रशस्तियोंमें सामग्री उपलब्ध नहीं हो सकी है। अत: निश्चित रूपसे उनके समयके सम्बन्धमें कुछ भी नहीं कहा जा सकता है । मूलाचारको विषयवस्तुके अध्ययनसे इतना स्पष्ट है कि यह ग्रस्थ प्राचीन है। इससे मिलती-जुलती अनेक गाथाएँ श्वेताम्बर प्राचीन सुत्रग्रन्थ दशवेकालिकमें भी उपलब्ध हैं। प्रत्येक प्रकरणके आदिमें मंगलस्तवनके अंकित रहनेसे इसे संग्रह-ग्रन्थ होनेका अनुमान किया जाता है, पर हमारी नम्र सम्मतिमें यह संग्रह-ग्रन्थ न होकर स्वतंत्र ग्रन्थ है। प्रत्येक प्रकरणके आदि अथवा प्रन्यके आदि, मध्य और अन्समें मंगलस्तवन लिखनेकी प्रथा प्राचीन समयमें स्वतन्त्ररूपसे लिखिप्त ग्रन्थों में वर्तमान पी । तिलोयपण्णत्तीमें इस प्रथाको देखा जा सकता है । मोम्मटसारके आदि, मध्य और अन्तमें भी मंगलस्तवन निबद्ध है। १. बैन साहित्य इतिहासपर विशद प्रकाश, १० १०० । २. गोम्मटसार कर्मकाण्ड और तिलोयपपपत्तो ।
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मूलाचारका अथन एक निश्चित रूपरेखाके आधारपर हुआ है। अत: उसके सभी प्रकरण आपस में एक दूसरेसे सम्बद्ध है। यदि यह संकलन होता, तो इसके प्रकरणोंमें आद्यन्त एकरूपता एवं प्रौढ़ताका निर्वाह सम्भव नहीं था। अतएव आचार्य वट्टकेरका समय कुन्दकुन्दके समकालीन या उनसे कुछ ही पश्चाद्वर्ती होना चाहिए।
वस्तुतः प्राचीन गुरुपरम्परामें ऐसी अनेक गाथाएं विद्यमान थी, जो दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही मान्यताओंक ग्रन्थोंका स्रोत हैं । एक ही स्थानसे अथवा गुरूपरम्पराके प्रचलनसे गाथाओंको ग्रहण कर, दिगम्बर और श्वेता. म्बर दोनों ही मान्यताओंके आचार्योने समानरूपसे उनका उपयोग किया है । मुनि-आचार-सम्बन्धो, या कर्मप्राभूत-सम्बन्धी जिन सिद्धान्तों में मतभेद नहीं था, उन सिद्धान्तों सम्बन्धी माथाओंको एक हो स्रोतसे ग्रहण किया गया है ।
तथ्य यह है कि परम्पराभेद होने के पूर्व अनेक गाथाएँ आरातियोंके मध्य प्रचलित थीं, और ऐसे कई आरातोय थे, जो दोनों ही सम्प्रदायोंमें समानरूपसे प्रतिष्ठित थे । अतः वर्तमानमें मूलाचार, उत्तराध्ययन, दशवेकालिक प्रभृति ग्रन्थोंमें उपलब्ध होनेवाली समान गाथाओंका जो अस्तित्व पाया जाता है, उसका कारण यह नहीं है कि वे गाथाएँ किसी एक सम्प्रदायके ग्रन्थोंमें, दूसरे सम्प्रदायके ग्रन्थोंसे ग्रहण की गयी हैं, बल्कि इसका कारण यह है कि उन गाथाओंका मूल स्रोत अन्य कोई प्राचीन भाण्डार रहा है, जो प्राचीन श्रुतपर. म्परामें विद्यमान था।
बट्टकेर आचार्यका यही एक सन्य उपलब्ध है। इसमें १२ अधिकार और १२५२ गाथाएँ हैं । पहले मूलगुण-अधिकारमें पांच महावत, पाँच समिति, पंचइन्द्रियोंका निरोध, षटआवश्यक, केशलञ्च, अचेलकत्व, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तधावन, स्थित-भोजन और एक बार भोजन, इस प्रकार मुनिके अट्ठाईस मूलगुणांका निरूपण किया है। बहत्प्रत्याख्यानसंस्तव-अधिकारमें क्षपकको समस्त पापोंका त्यागकर मत्युके समयमै दर्शनाराधना आदि चार आराधनाओंमें स्थिर रहने और क्षधादि परोषहोंको जीतकर निष्कषाय होनेका कान किया है। संक्षेपमें प्रत्याख्यानाधिकारमें सिंह, व्याघ्र आदिके द्वारा आकस्मिक मृत्यु उपस्थित होनेपर कषाय और आहारका त्यागकर समताभाव धारण करनेका निर्देश किया है। सम्यक्आचाराधिकारमें दश प्रकारके आचारोंका वर्णन है। आयिकाओंके लिए भी विशेष नियम वर्णित हैं। पंचाचाराधिकारमें दर्शनाचार, ज्ञानाचार आदि पाँच आचारों और उनके प्रभेदोंका विस्तार सहित वर्णन है। १२० : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा
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लोकादि मूढ़ताओंमें प्रसिद्ध होनेवालोंके उदाहरण भी प्रस्तुत किये गये हैं। माध्याय-सम्बन्धी नियमों में आगम और सुत्रग्रन्थोंके स्वरूप भी बतलाये गये हैं। पिण्डराद्धि-अधिकारके आठ भेद हैं। इन सभी भेदोंका विस्तारपूर्वक कथन किया है। मुनियों के आहार-सम्बन्धी नियम, उसके दाष तथा उन दाबांके भंदप्रभेदोंका कथन आया है । मुनि शरोरधारणके हेतु आहार ग्रहण करते हैं और शरीर धर्म-साधनाका कारण है। अतः उसका भरण-पोषण कर आत्म साधनाके मागमें गतिशील होना परमावश्यक है। एषणा समिति, आहारयोग्य काल, भिक्षार्थगमन करनेको प्रवृत्ति-विशेष आदिका भी वर्णन आया है ।
सप्तम षडावश्यकाधिकार है। आतत्यकशब्दका निरीक्त सामायिकके छ: भेद, भावसामायिक और द्रव्यसामायिकको व्याख्याएँ, छेदोपस्थापनाका स्वरूप, चतुर्विशतिस्तव, नाम ओर भाव स्तवन, तीर्थका स्वरूप, वन्दनीय साधु, कृति कर्म, कायोत्सर्ग के दोष आदिका वर्णन है। आठवें अनगारभावनाधिकारमें लिंग, व्रत, वसति, विहार, भिक्षा, प्रान, शरीर, संस्कारत्याग, वाक्य, तप और ध्यानसम्बन्बो शुद्धियोंके पालनपर जोर दिया गया है। नवम द्वादशानुप्रेक्षाधिकार है 1 इसमें ऑनत्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, सवर, निर्जरा, धर्म, बोधि आदि अनुप्रेक्षाओंके चिन्तनका वर्णन है। दशम समपसाराधिकार है। इसमें शास्त्रके सारका प्रतिपादन करते हुए चारित्र. को सर्वश्रेष्ठ कहा है। तप, ध्यानका वणन भा इसा अधिकारके अन्तर्गत है। अचेलकत्व, अनौद्देशिकाहार, शय्यागृहत्याग, राजपिण्डत्याग, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठ, प्रतिक्रमण, मासस्थितिकल्प और पर्यास्थितिकल्पका भी प्रतिपादन आया है। प्रतिलेखनक्रियाका वर्णन करते हुए पांच गुणोंका चित्रण किया है । आहारशुद्धिके प्रकरणमें विभिन्न प्रकारको शुद्धियोंका निरूपण आया है । यह अधिकार बहुत विस्तृत है। ग्यारहवें पर्याप्ति-अधिकारमें षड्पतियोंका निरूपण है। पर्याप्तिके संज्ञा, लक्षण, स्वामित्व, संख्या, परिमाण, निवृत्ति और स्थिति कालके छः भेद किये हैं। इन सभी भेदोंका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। बारहवें शीलगुणाधिकारमें शोलोंके उत्पत्तिका क्रम, पृथिव्यादि भेदोंका विवेचन, श्रमणधर्मका स्वरूपविवेचन, अक्षसंक्रमणके द्वारा शोलका उच्चारण, गुणोंको उत्पत्तिका क्रम, आलोचनाके दोष, गुणोंकी उत्पत्तिका प्रकार, संख्या और प्रस्तारके निकालनेकी विधिका विस्तारपूर्वक वर्णन आया है। नष्टोद्दिष्ट द्वारा अक्षानयनकी विधिका भी निरूपण है।
इस प्रकार इस महाप्रन्थमें मुनिके आचारका बहुत ही विस्तृत एवं सुन्दर वर्णन किया गया है। यतिधर्मको अवगत करनेके लिए एक स्थानपर इससे
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अधिक सामग्रीका मिलना दुष्कर है । भाषा और शैलीको दृष्टिसे भी यह प्रन्य प्राचीन प्रतीत होता है। उत्तरवर्ती अनेक ग्रन्थकारोंने इसकी गाथाओंके उद्धरणपूर्वक उसकी प्रामाणिकता प्रकट की है। शिवायं और उनकी रचना
जीवन-परिचय-मुनि-आचारपर शिवार्यकी 'भगवती आराधना' अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृति है। इसके अन्त में जो प्रशस्ति दी गयी है उससे उनकी गुरुपरम्परा एवं जीवनपर प्रकाश पड़ता है । प्रशस्तिमें बताया है
अजिणणंदिगणि-सव्वगुत्तमणि-अजमित्तणंदोणं । अवगमिय पादमूले सम्म सुत्तं च अत्यं च ।। पुच्चायरियणिबद्धा उपजीवित्ता इमा ससतोए । भाराणा सिवज्जेण पाणिदलभोइणा रइदा ।। छदुमत्थदाइ एत्य दुजं वद्धं होज्ज पवयण-विरुद्धं । सोधत सूगोदत्था पवयणवच्छल्लदाए दु॥ आराहणा भगवदरे एवं भत्तीए पण्णिदा संतो।
संघस्स सिवजस्स य समाधिवरमुत्तम देउ'। अर्थात् आर्य जिननन्दि गणि, आर्य सर्वगुल गण और आयं मित्रनन्दिके चरणोंके निकट मूलसूत्रों और उनके अर्थको अच्छी तरह समझकर पूर्वाचार्यों द्वारा निबद्ध की गयी रचनाके आधारसे पाणिसलभोजी शिवायने यह आराधना अपनी शक्तिके अनुसार रची है । छपस्थता या ज्ञानको अपूर्णताके कारण इसमें कुछ प्रवचनविरुद्ध लिखा गया हो, तो विद्वज्जन प्रवचन-वात्सल्यसे उसे शुद्ध कर लें। इस प्रकार भक्तिपूर्वक वर्णन को हुई भगवतो आराधना संघको और शिवार्यको उत्तम समाधि दे ।
उपर्युक प्रशस्तिसे निम्नलिखित तथ्य निःसृत होते हैं१. शिवाय पाणितलभोजो होनेके कारण दिगम्बर परम्परानुयायी हैं।
२. आर्यशब्द एक विशेषण है। प्रतः प्रेमोजोके अनुमानके अनुसार इनका नाम शिवनन्दि, शिवगुप्त या शिवकोटि होना चाहिए।
३. भगवती अराधनाको रचना पूर्वाचार्यों द्वारा निबद्ध ग्रन्थोंके आधारपर
___४. शिवार्य विनीत, सहिष्णु और पूर्वाचार्योंके भक्त हैं। १, भगवती आराधना, सोलापुर संस्करण, गाषा २१६५-२१६८ ।
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५. इन्होंने गुरुओंसे सूत्र और उसके अर्थकी सम्यक् जानकारी प्राप्त की है। जिनसेनाचार्यने आदिपुराणके प्रारम्भमें शिवकोटि मुनिको नमस्कार किया है । शीतीभूतं जगद्यस्य वाचाराध्य चतुष्टयम् । मोक्षमार्ग स पायाशः शिवको टिमुनीश्वरः ॥
अर्थात् जिनके वचनोंसे प्रकट हुए चारों आराधनारूप मोक्ष-मार्गको आराधना कर जगत् जीव सुखी होत हैं वे शिवकोटि मुनीश्वर हमारी रक्षा करें।
उपर्युक्त पद्य में जिस रूप में जिनसेन आचार्यने शिवकोटि मुनीश्वरका स्मरण किया है उससे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि शिवकोटि मुनीश्वर भगवती आरा धनाके कर्ता हैं । अतएव दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपरूप चार प्रकारकी आराधनाओं का विस्तृत वर्णन करनेवाले शिवाय का ही शिवकोटि नाम होना चाहिए है ।
प्रभाचन्द्रके आराधनाकथाकोष और देवचन्द्रके राजावलिकये (कन्नडग्रन्थ) में शिवकोटिको स्वामी समन्तभद्रका शिष्य बतलाया है। ये शिवकोटि काशी या कांचीके शैव राजा थे और समन्तभद्रके चमत्कारको देखकर उनके शिष्य बन गये थे । पर इन कथाओंका ऐतिहासिक मूल्य कितना है, यह नहीं कहा जा सकता | यदि वस्तुतः शिवकोटि समन्तभद्रके शिष्य होते, तो इतने बड़े ग्रन्थ में वे अपने उपकारी गुरु समन्तभद्रका उल्लेख न करें, यह सम्भव नहीं है ।
हरिषेणकृत कथाकोष में समन्तभद्रको उक्त कथा नहीं है । यह ग्रन्थ विक्रम सं० ९८८ में लिखा गया है। अत: उपलब्ध कथाकोषोंमें यह सबसे प्राचीन है | इस कथा कोष में शिवकोटिसे सम्बद्ध समन्तभद्भवाली कथाके न मिलनेसे शिवकोटिका समन्तभद्रका शिष्य होना शंकास्पद है ।
शिवकोटिका सबसे पुरातन उल्लेख आदिपुराणमें मिलता है। आदिपुराणके रचयिता जिनसेनके समय में यदि शिवकोटि और समन्तभद्रका शिष्पगुरुत्व प्रसिद्ध होता तो वे समन्तभद्रके पश्चात् ही शिवकोटिको स्तुति करते । पर ऐसा न कर उन्होंने श्रीदत्त, यशोभद्र और प्रभाचन्द्रकी स्तुति लिखकर शिवकोटिका स्मरण किया है ।
afa हस्तिमल्लने विक्रान्त कौरवमें समन्तभद्रके शिवकोटि और शिवायन दो शिष्य बतलाये हैं और उन्हींके अन्दयमें वीरसेन, जिनसेनको बतलाया है | पर इस बातका कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है कि समन्तभद्रकी शिष्यपरम्परा में
१. आदिपुराण ११४९
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वीरसेन एवं जिनसेन हुए हैं। शिवकोटिका तो उल्लेख मिलता भी है । पर शिवायनका कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता । शिवायनका अन्यत्र भी कहीं नाम नहीं आता । भगवती आराधनाके रचयिता शिवकोटि समन्तभद्रके शिष्य थे, इसका सामक कोई प्रमाण प्राप्त नहीं होता ।
श्रवणबेलगोलके अभिलेख नं० १०५ में शिवकोटिको तत्त्वार्थ सूत्रका टीकाकार बतलाया है। यह अभिलेख विक्रम सं० १४५५ का है । इसमें आया हुआ 'एतत्' शब्द विचारणीय है । श्री पं० जुगलकिशोरजी मुल्तारका यह अनुमान है कि-
" तस्यैव शिष्य शिव कोटिसूरिस्त पोलता लम्बनदेह्यष्टिः । संसार- वाराकर-पोतमेतत्तत्वार्थसूत्रं तदलञ्चकार' |
उपर्युक्त पद्य तस्वार्थ सूत्रकी उसी शिवकोटिकृत टीकाकी प्रशस्तिका एक पद्य है जो शिलालेखमें एक विचित्र ढंगसे शामिल कर लिया गया है । अन्यथा शिलालेखके पद्योंके अनुक्रममें 'एत्तद्' शब्दको संगत नहीं बैठ सकती । अतएव शिवार्यकी तत्त्वार्थं सूत्रपर कोई अवश्य टीका रही है। भले ही वे शिवाय आराधनाके कर्तासे भिन्न हों। यह भी सम्भव है कि शिलालेख में उल्लिखित समन्तभद्र ही उनके गुरु हों । अष्टसहस्रीपर विषमपदतात्पर्य टीकाके रचयिता एक लघुसमन्तभद्र हुए हैं, जिनका समय अनुमानतः विक्रमको १३ वीं शताब्दी है ।"
यदि भगवती आराधनाके रचयिता शिवार्य या शिवकोटिकी तत्त्वार्थसूत्रकी कोई टीका होती तो उसका उल्लेख तत्त्वार्थ सूत्रके अन्य टीकाकार अवश्य करते । पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि टीकामें भी उसका निर्देश अवश्य मिलता । अतः न तो भगवती आराधना के रचयिता शिवकोटिक तत्त्वार्थ सूत्रपर कोई टीका ही है, और न वे समन्तभद्रके शिष्य ही जान पड़ते हैं।
एक अन्य प्रमाण श्रीपण्डित परमानन्दजो शास्त्रीने अपने एक निबन्ध में उपस्थित किया है। उन्होंने लिखा है कि शिवायंने गाथा २०७९-८३ में स्वामी समन्तभद्रको तरह गुणव्रतों में भोगोपभोगपरिमाणको न गिनाकर देशाकाशिकको ग्रहण किया है और शिक्षाव्रतोंमें देशावकाशिक को न लेकर भोगोपभोगपरिमाणका विधान किया है। यदि वे समन्तभद्रके शिष्य होते तो इस विषय में उनका अवश्य अनुसरण करते । इस प्रकार आराधना के रचयिताके साथ समन्तभद्रका सम्बन्ध घटित नहीं होता ।
१. जैनशिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, पृ० १९८ । २. अनेकान्त, वर्ष २, किरण ६ ।
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गुरु-परम्परा और सम्पदाय
दिगम्बर सम्प्रदायको पट्टावलियों, अभिलेखों, ग्रन्थ-प्रशस्तियों एवं श्रुतावतार आदिमें जो परम्पराएं उपलब्ध होती हैं, उनमें से किसी भी परम्परामें शिवार्य द्वारा उल्लिखित अपने गुरुओं-जिननन्दि, सर्वगुप्त और मित्रनन्दिके नाम नहीं मिलते । शाकटायन व्याकरण में.."उपसर्वगुप्तं व्याख्यातार:' ।" अर्थात् समस्त व्याख्याता सर्वगप्तसे नीचे हैं-उन जैसा कोई दूसरा व्याख्याता नहीं । बहत सम्भव है कि इन्हीं सवंगुप्तके चरणों में बैठकर शिवायंने सत्र और उनका अर्थ अच्छी तरह ग्रहण किया हो और तत्पश्चात् आराधनाकी रचना की हो। श्री प्रेमोजीने शाकटायनके उक्त उल्लेखके आधारपर शिवार्य या शिवकोटि को यापनीय संघका आचार्य बताया है । उन्होने अपने कथनकी पुष्टिके लिए निम्नलिखित प्रमाण उपस्थित किये हैं
१. भगवती आराधनाकी उपलब्ध टोकाओं में सबसे पुरानी टीका अपराजित सरिकी है और जैसा कि आगे बतलाया जायगा वे निश्चयसे यापनीय संघके हैं। ऐसो दशामें मूलग्रन्थकर्ता शिवायंको भी यापनीय होनेको अधिक सम्भावना है।
२. यापनीय संघ श्वेताम्बरोंके समान स्त्रग्रन्थोंको मानता है और अपराजित सूरिको टोकामें सैकड़ों माथाएं ऐसी हैं जो सूत्रग्रन्थों में मिलती हैं।
३. दश स्थितकल्पोंके नामों वाली गाथा जातकल्पभाष्य और अनेक श्वेताम्बर टीकाओं और नियुक्तियों में मिलती हैं। आचार्य प्रभाचन्द्र ने अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड में भी इसे श्वेताम्बर गाथा माना है।
४. आराधनाको ५६५-५६६ नम्बरको गाथाएं दिगम्बर मुनियोंके आचारसे मेल नहीं खातीं। उनमें बीमार मुनिके लिए चार मुनियोंके द्वारा भोजन-पान लानेका निर्देश है।
५. आराधनाकी ४२८वीं गाथा आचारांग और जोतकल्प ग्रन्धोंका उल्लेख करतो है, जो श्वेताम्बर सम्प्रदायके प्रसिद्ध ग्रन्थ है।
६. शिवायने अपनेको पाणित्तलभोजी लिखा है। यापनीय संघके साधु श्वेताम्बर साधुओंके समान पात्रभोजी नहीं बल्कि दिगम्बरोंके समान करपात्रभोजी थे। ___ इस प्रकार श्री प्रेमीजीने शिवार्य या शिवकोटिको धापनीय संघका आचार्य माना है और इनके गुरुका नाम प्रशस्तिके आधारपर सर्वगुप्त सिद्ध किया है। १. शाकटायन-व्याकरण-१।३।१०४ । २. जैन साहित्य और इतिहास, प्रथम संस्करण, पृष्ठ २९-३० ।
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समय निर्धारण
भगवती आराधना या मूलाराधनाके कर्ता शिवार्य कब हुए, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता है । उन्होंने अपने समयका निर्देश कहीं नहीं किया है। परवर्ती आचार्यों में जिनसेनाचार्यने ही सर्वप्रथम उनका उल्लेख किया है। जिनसेनका समय नवम शताब्दी होनेसे शिवार्यके समयकी सबसे ऊपरी सोमा ई. सन् नवम शताब्दी मानी जा सकती है। शाकटायनके निर्देशानुसार सर्वगुप्त उनके गुरु हैं। शाकटायनका काल भी शिवार्य के समयकी अपनी सीमा हो सकता है। अब प्रश्न यह है कि शिवार्यको जिनसेन और पाल्यकोतिसे कितना पहले माना जाय । ग्रन्थका अन्तरङ्ग अध्ययन करनेपर ज्ञात होता है कि आराधनाके ४० वें विजहना नामक अधिकारमें आराधक मुनियोंके मृतक संस्कार वर्णित हैं, उनसे ग्रन्थको प्राचीनतापर प्रकाश पड़ता है । इसके अनुसार उस समय मुनिके मृतक शरीरको वनमें किसी अच्छी जगहपर यों ही छोड़ दिया जाता था। और उसे पशु-पक्षी समाप्त कर देते थे।
इस ग्रन्थपर अपराजित सूरि द्वारा विरचित 'विजयोदया' नामक संस्कृत टीका उपलब्ध है। इस टीकासे भी इस ग्रन्थको प्राचीनता प्रकट होती है। अन्य टोका-टिप्पणोंसे यह अवगत होता है कि इस ग्रन्थपर प्राकृल-टीकाएं भी उपलब्ध हों। इन टोकाकः उस्लेश करवा दाबाने "प्राकृसटीमापाम्" कहकर किया है। मलाराधनादर्पण-टीकामें अनेक स्थलोंपर प्राकृतदीकाका निर्देश आया है। यथा--"प्राकृतटोकायां तु अष्टाविंशतिमूलगुणाः । आचारवत्वादयश्चाष्टी इति षटत्रिंशत् ।"
प्राकृतटीकायां पुनरिदमुक्त-उत्तरापथे चमरंगम्लेच्छविषये म्लेच्छा बलोकाभिर्मानुषरुधिरं गृहीत्वा भंडकेषु स्थापयन्ति । ततस्तेन रुधिरेण कतिपयदिवसोत्पतविपन्नकृमिकेगोर्णासूत्रं रंजयित्वा कंबलं वयंति । सोऽयं कृमिरागकंबल इत्युच्यते । स चातोव रुधिरवर्णो भवति, तस्य हि वन्हिना दग्धस्यापि स कृमिरागो नापगच्छतोति । सोधो शुक्लतापादनं । जदुरागवच्छसोधी सिन्धुदेशलाक्षारक्तटसरिवस्त्रशुद्धिः । अवि अपिः सम्भावने । किहइ कथंचित् । आयासेन । ण इमा सल्लुद्धरणसोधो इयं गुरूपचारपूर्विकालोचनया रत्नत्रयशुद्धिः ।
१. मूलाराधना, सोलापुर संस्करण, सन् १९३५, गापा ५२६, पृ० ७४४ 1 २. वाही, गाथा ५६७, पृ. ७५८ । १२६ : तीर्थकर महापौर और उनकी आचार्य-परम्परा
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प्राकृतटीकायां तु कम्ममलविष्पमुक्को कम्ममलेण मेल्लिदो सिद्धि णिव्वाणं पत्तो त्ति प्राप्त इति। ___इन अवतरणोंसे यह स्पष्ट है कि मलाराधना या भगवती आराधनापर प्राकृतटोका रही है । प्राकृतटोका लिखे जानेका समय विक्रम संवत् ६ ठी शताब्दीसे पूर्व है । प्राकृतग्रन्थोंकी प्राकृत भाषामें टीका लिखनेकी परम्परा ५ वी-६ ठी शताब्दी तक हो मिलती है । इसके पश्चात् तो संस्कृत भाषामें टीका लिखनेको परम्परा प्रारम्भ हो चुकी थी । अतएव मूलाराधनाका समय विक्रम ६ठी शतीके पूर्व होना चाहिए ! डॉ हीरालालजी जैनने लिखा है-"कल्पसूत्रको स्थविरावलीमें एक शिवभूति आचार्यका उल्लेख आया है तथा आवश्यक मूलभाध्यमें शिवभूतिको चोरनिर्वाणसे ६०९ वर्ष पश्चात् बोडिक-दिगम्बर संघका संस्थापक कहा है। कुन्दकुन्दाचार्यने भावपाहुडमें कहा है कि शिवभूतिने भाव-विशुद्धि द्वारा केवलज्ञान प्राप्त किया। जिनसेनने अपने हरिवंशपुराणमें लोहायके पश्चाद्वर्ती आचार्यो में शिवगुप्त मुनिका उल्लेख किया है। जिन्होंने अपने गुणोंसे अहंद्र बलि पदको धारण किया था..........."ग्रन्थ सम्भवतः ई० की प्रारम्भिक शत्ताब्दियोंका है।"
स्पष्ट है कि डॉ. ही शालालजी TI TI T ई मन् द्वितीयतृतीय शती मानते हैं । इस ग्रन्थपर अपराजित सरि द्वारा लिखी गयी टीका ७वीं-८वीं शताब्दीकी है । अतः इससे पूर्व शिवायंका समय सुनिश्चित है। डॉ० ज्योतिप्रसाद जेनने शिवायंके समयका विचार करते हुए लिखा है
शिवार्य सम्भवतः श्वेताम्बर परम्पराके शिवभूति हैं। ये उत्तरापथकी मथुरा नगरीसे सम्बद्ध हैं और इन्होंने कुछ समय तक पश्चिमी सिन्धमें निवास किया था 1 बहुत सम्भव है कि शिवायं भी कुन्दकुन्दके समान सरस्वती आन्दोलनसे सम्बद्ध रहे हों। वस्तुत: शिवार्य ऐसी जैन मुनियोंकी शाखासे सम्बन्धित हैं जो उन दिनों न तो दिगम्बर शाखाके ही अन्तर्गत थी और न स्वेताम्बर शाखाके हो। यापनीय संघके ये बाचार्य थे । अतएव मथुरा अभिलेखोंसे प्राप्त संकेतोंके आधारपर इनका समय ई० सन् की प्रथम शताब्दी माना जा सकता है। १. मूलाराधना, माथा १९९९, पृ० १७५५ । २. भारतीय संस्कृतिमें जैनधर्मका योगदान, पृ० १०६ । 3. The Jaina Sources of the History of Ancient India,
P. 130-31.
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भगवती आराधना के वर्ण्य विषय के अध्ययनसे स्पष्ट है कि इसके अनेक तथ्य ऐसे हैं, जो ई० पू० तीसरी चौथी शताब्दी में प्रचलित थे । मुनियों की अन्त्येष्टिकाचित्रण, सल्लेखनाके समय मुनि-परिचर्या, मरणोंके भेद - प्रभेद आदि विषय पर्याप्त प्राचीन हैं। भाषा और शैलीके अध्ययनसे भी यह ध्वनित होता है कि यह ग्रन्थ ई० की आरम्भिक शताब्दियों में अवश्य लिखा जा चुका था । आराधनापर यह एक ऐसी सांगोपांग रचना है, जिसकी समता अन्यत्र नहीं मिलती है ।
रचना
शिवार्यको भगवती आराधना या मूलाराधना नामकी एक ही रचना उपलब्ध है । इस ग्रन्थ में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक्तप इन चार आराधनाओंका निरूपण किया गया है । इस ग्रन्थ में २१६६ गाथाए और चालीस अधिकार है। यह ग्रन्थ इतना लोकप्रिय रहा है, जिससे सातवीं शताब्दी से ही इसपर टीकाए और विवृतियाँ लिखी जाती रही हैं । अपराजितसूरिकी विजयोदया टीका, आशाधरकी मूलाराधनादर्पणटीका, प्रभाचन्द्रकी 'आराधनापंजिका' और शिवजित अरुणकी भावार्थदीपिका नामक टीकाएँ उपलब्ध हैं । इसको कई गाथाएँ 'आवश्यकनिर्युक्ति', 'बृहत्कल्प भाष्य', 'भक्तिपइण्णा', 'संधारण' आदि श्वेताम्बर ग्रन्थोंमें भी पायी जाती हैं । हम यहाँ आदान-प्रदानकी चर्चा न कर इतना ही लिखना पर्याप्त समझते हैं कि प्राचीन गाथाओंका स्रोत कोई एक ही भण्डार रहा है, जिस मूलस्रोतसे ग्रन्थका सृजन किया गया है, वह स्रोत सम्भवतः आचार्यों की श्रुतपरम्परा ही है ।
वस्तुतः इस प्रत्थमें आराध्य, आराधक, आराधना और आराधनाफल इनका सम्यक् वर्णन किया गया है। यहाँ रत्नश्रय आराध्य है, निर्मल परिणामवाले भव्यजीव आराधक हैं. जिन उपायोंसे रत्नत्रयको प्राप्ति होती है, वे उपाय आराधना है और इस रत्नत्रयको आराधना करनेसे अभ्युदय और मोक्षरूप फलकी प्राप्ति होती है, यह आराधनाफल है ।
इन चार आराध्यादि पदार्थों को आराधना उद्योतन, उद्यवन, निर्वहण, साधन और निस्तरण इन उपायोंसे होती है । सम्यक्दर्शनादिको अतिचारोंसे अलिप्त रखना, उनमें दोष उत्पन्न न होने देना उद्योतन है । आत्मामें बारबार सम्यकदर्शनादिकी परिणति करते जाना उद्यवन है। परीषहादिक प्राप्त होनेपर स्थिर चित्त होकर सम्यक्दर्शनादिसे च्युत न होना निर्वहण है । अन्य कार्यों में चित्त लगने से यदि सम्यग्दर्शनादि तिरोहित होने लगें, तो पुनः उपायोंसे
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उन्हें पूर्ण करना साधन है । आमरण सम्यकदर्शनादिकको निर्दोष धारण करना निस्तरण है।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र और सम्यकतप इन चारोंकी उन्नति होनेके लिए पूर्वोक पांचोंको आवश्यकता है । इस प्रकार प्रत्येकमें उद्योतनादिक पांच उपाय मान लेने पर बीस भेद होते हैं। इस भगवती आराधनामें इन सभी भेद-प्रभेदोंका उल्लेख आया है। ___ इस ग्रन्थमें १७ प्रकारके मरण बललाये गये हैं। इनमें पंडितमरण, पंडितपडितमरण और वालपंडितमरणको श्रेष्ट कहा है । पंडितमरणमें भी भक्त प्रतिज्ञामरणको श्रेष्ठ माना गया है। लिंगाधिकारमें आचेलक्य, कोच, देहसे ममत्वत्याग और प्रतिलेखन ये चार निग्रंथलिंगके चिल्ल बताये हैं । अनयिताधिकारमें नाना देशों में विहार करनेके गुणों के साथ अनेक रीति-रिवाज, भाषा
और शास्त्र आदिकी कुशलता प्राप्त करने का विधान है। भावनाधिकारमें तपो. भावना, श्रुतभावना, सत्यभावना, एकस्वभावना और धृतिबलभावनाका प्ररूपण है। सल्लेखनाधिकारमें सल्लेखनाके साथ बाह्य और अन्तरन तपोंका वर्णन किया है। आयिकाओंको संघमें किस प्रकार रहना चाहिए, उनके लिए कोन-कौन विषय कत्र्तव्य हैं तथा करेन-कौनसे कार्य त्याज्य है आदिका प्रतिपादन किया है। मार्गणाधिकारमें आचार्यजीत और कल्पका वर्णन है। इस अधिकारमें आचेलक्यका भी समर्थन किया है। अतः इस ग्रन्धको मान्यता दिगम्बर सम्प्रदायमें रही है। प्रसंगवश ध्यान, परिषह, कषाय, छपकश्रेणी आदिका भा वर्णन है।
धार्मिक विषयके साथ काव्यात्मकता भो इस ग्रन्थमें विद्यमान है। कई ऐसी गाथाएं भी हैं, जिनमें उपमाका प्रयोग बहुत सुन्दर रूपमें किया गया है। अन्तरङ्ग शुद्धि पर बल देते हुए बताया है
घोडयलहिसमाणस्स तस्स अब्भतरम्मि कुधिदस्स।
बाहिरकरणं कि से काहिंदि बणिहुदकरणस्स ।' अर्थात् जैसे घोड़ेको लोद बाहरसे चौकनी दिखलाई पड़ती है, पर भीतरसे दुर्गन्धके कारण महामलिन है, उसी प्रकार जो मुनि बाह्याडम्बर तो धारण करता है, पर अन्तरंग शुद्ध नहीं रखता, उसका आचरण बगुलेके समान होता है।
१. भगवती आराधना, गाथा १३४७ ।
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शरीर, आहार और रसकोलुपताका वर्णन भी उपमाओं द्वारा किया गया है सूक्तिकी दृष्टिसे इस ग्रन्थकी अनेक गाथाएं रसमय एवं बोधोत्पादक है । यहाँ दो-एक गाथा उदाहरणार्थ प्रस्तुत करते हैं
जिन्मामूलं बोलेइ वेगळ वर-हुओ व आहारो । तत्थे व रसं जाणइ ण य परदो ण वि य से परदो ॥
जिस प्रकार उत्तम जातिका अश्व वेगपूर्वक दौड़ता है, उसी प्रकार जिल्ला भी आहारका रसास्वादन करनेके लिए वेगसे दौड़ती है । यद्यपि जिल्लाका अग्र भाग ही रसास्वा लेता है, तो भी उदरस्थ आहारका अत्यल्प अंश सुखानुभूतिका कारण होता है । आहारका अधिक भाग तो उदरमें समाविष्ट हो जाता है, और उसके उदरस्थ होनेपर रसास्वाद नहीं आता । अतएव रसास्वादजन्य सुखानुभूति अत्यल्प है |
आहा के प्रति गृद्धताका त्यान कराने के लिए आचार्य परिद्री पुरुषको उपमाका प्रयोग करते हैं। उनका कथन है कि आहारलम्पटता अत्यधिक दुखः का कारण है। जिसप्रकार धनादि पदार्थों की चिरकालसे अभिलाषा करनेवाला दारद्री पुरुष दुःख प्राप्त करता है, उसी प्रकार आहारलम्पटी भी । आहारके प्रति साधकको विच. रजन्य वितृष्णाका होना परमावश्यक है - दुक्खं गिद्धीधरथस्माहटतस्स होइ बहुगं च ॥ चिरमाहट्टियदुग्गयचस्स व अण्णमिद्धोए ।
इस गाथामें प्रयुक्त उपमान- उपमेयभाव विषयके स्पष्टीकरणमें सशक्त है । जो क्षपक मृत्यु के समय अनुचित आहारको अभिलाषा करता है, वह मधुलिए तलवारको धारको चाटनेके समान कष्ट प्राप्त करता है ।
महुलिस असिवार लेहइ भुजइ य सो सविसमण्णं || जो मरणदेसयाले पतियज्ञ अकप्पियाहारं ॥
मृत्युके समय आहारको अभिलाषासे संक्लेश परिणाम होते है, जो दुर्गतिका कारण हैं । क्षपक मृत्युके समय यदि आहारको अभिलाषा करता है, तो उसकी यह अभिलाषा विषमिश्रित अन्न अथवा मघुलिप्त तलवारको घारके समान कष्टदायक है |
१. भगवती आराधना गाया १६६१ |
२. भगवती आराधना गाथा १६६३ । ३. वही १६६५ ।
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सुभासित या सक्तिके रूपमें अनेक गाथाएं' अक्ति की गयी हैं। यहाँ केवल दो गाथाएं उस की जाती है
असिधार व विसं वा दोस पुरिसस्स कुणइ एयभवे ।।
कुणइ हु मुणिणो दोसं अकप्पसेवा भवसएमु॥ तलवार या विष एक हो भवमें मनुष्यको हानि पहुंचाते हैं, पर मुनियों के लिए अयोग्य आहारका सेवन सैकड़ों भवोंमें हानिकर होता है।
छहिय रयणाणि बहा रयणहोवे हरिज कट्ठानि ॥
माणुसभवे वि छंडिय धम्मं भोगेमिलसदि तहा॥ जैसे कोई मनुष्य रत्नद्वीपमें जाकर रलोंका त्यागकर काष्ठ खरीद लेता है, उसी प्रकार मनुष्य भवमें भा कोई धर्म छोड़कर विषय-भोगोंकी अभिलावा करता है। अभिप्राय यह है कि बड़ी कठिनाईसे रत्नद्वीपमें पहुंचनेपर कोई रत्न न खरीदकर ईंधन खरीदे, तो वह व्यक्ति मूर्ख ही समझा जायगा । इसी प्रकार इस अलम्य मनुष्यजन्मको प्राप्तकर रत्नत्रयको साधना न करे और विषयसुखोंमें इस मनुष्यमवको व्यतीत कर दे, तो वह व्यक्ति भी उपर्युक्त व्यक्तिके समान ही मूर्ख माना जायगा ।
कोई व्यक्ति नन्दनवनमें पहुंचकर अमृतका त्यागकर विषपान करे, तो उसे महामर्स ही कहा जायगा। इसी प्रकार जो व्यक्ति धर्मको छोड़ विषयभोगोंको अभिलाषा करता है वह भो विवेकहीन है और नन्दनवनमें पहुंचे हुए व्यक्तिके समान ही मुखं है। __ इसप्रकार भगवतो आराधनामें मनुष्यभवको सार्थक करनेके लिए सल्लेखना या समाधिमरणको सिद्धिकी आवश्यकता पर विशेष बल दिया गया है। शिवार्यने इस अन्यमें प्राचीन समयको अनेक परम्पराओंको निबद्धकर साधक जीवनको सफलतापर प्रकाश डाला है। पाण्डित्य और प्रतिभा
शिवार्य आराधनाके अतिरिक्त तत्कालीन स्वसमय और परसमयके भो ज्ञाता थे। उन्होंने अपने विषयका उपस्थितिकरण काव्यशेलीमें किया है। वे आगम-सिद्धान्तके साथ नोति. गदाचार एवं प्रचलित परम्पराओंसे सुपरिचित थे । आचार्यने जीवनके अनेक चित्रोंके रंग, नाना अनुभूतियोंके माध्यममे प्रस्तुत
१. भगवती आराधना, गाथा १६५६ । २. वही, माया १.२ ।
अतन्नर और मारम्वताचार्य :
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किये हैं । विविष दशाओंमें आयी हुई ये अनुमूत्तियाँ मनोविज्ञानके एक प्रदर्शनी कक्ष में सुसज्जित की जा सकती हैं। आचार्यकी अभिव्यञ्जना- प्रतिमा न तो कथाकारके समान कल्पनात्मक हो है और न कविकी प्रतिभाके समान चमत्कारात्मक हो । तथ्य-निरूपणको यथार्थ भूमिपर स्थित हो आचार्यने संसार, शरीर और मोगोकी निस्तरताको लहरण, उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि अलङ्कारों द्वारा अभिव्यक्तकर ग्राह्यता प्रदान की है। साहित्यनिर्माता के लिए मानव-प्रवृत्तियोक विश्लेषण और प्रस्तुतीकरण में जिस रागात्मकताको आवश्यकता होती है वह रागात्मकता भी आचार्यमें विद्यमान है । शब्द और अर्थका ऐसा रुचिर योग कम ही स्थानों पर पाया जाता है। कतिपय गाथाओं में तो भावोंका इतना सघन सन्निवेश विद्यमान है, जिससे अभिव्यंजनाकोशलद्वारा भाव स्फोटनकी क्रिया उपस्थित्त रहती है ।
आचार्यने निदानका वर्णन करते हुए अपनो अभिव्यञ्जना - कलाका सुन्दर प्रस्तुतीकरण किया है। जिसके मनमें भोगका निदान है वह मुनि नटके समान अपने शील- व्रतका प्रदर्शन करता है । निदान करनेसे भोग-लालसा तुम नहीं हो सकती है। निदान बाँधनेवाला व्यक्ति अहर्निश भोग-वृत्तिको वृद्धिगत करता रहता है । यथा
सपरिग्गहस्स अब्बभचारिणो अविरदस्स से मणमा । कारण सील-वहणं होदि हु ण्डसमण एवं व' ॥ रोगं कंसेज्ज जहा पडियारसुहस्स कारना कोई | तह अण्णेसदि दुमखं सणिदानो भोगत हाए ॥ जह कोढिल्लो अग्ग तप्पंतो व सवसमं लमदि । तह भोगे भुंजंतो स्वणं पि णो उवसम लभदि ॥ कच्छ्रं कंडुयमाणो सुहाभिमाणं करेदि जह दुक्खे | दुक्खे सुहाभिमाणं मेहुण यादीहि कुणदि तहा * ॥
भोग निदान करनेवाले मुनिकं मनमें विषयाभिलाषा है। अतः वह परिही है । उसका मन मैथुनकर्ममें प्रवृत्त होनेकी अभिलाषासे पराङ्मुख नहीं है। अतः वह शरीरसे शील-व्रत धारण करनेवाले नटके समान अन्तरङ्ग में
१. मूकाराधना, शोलापुर संस्करण, दाया नं०-१२४५ ।
२. बड़ी गाथा न०- १२४६
३. वहो, गाथा न०- १२५१ ।
४. वही गाथा न०-१२५२ ।
१३२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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मुनि-भावसे व्युत है। यहां निदर्शना द्वारा आचार्यमे निदानकी निस्सारता व्यक्त को है । प्रस्तुत सन्दर्भ में दो वाक्यखण्ड हैं--पहला वाक्य निदान बाँधनेवाला शीलधारी मुनि और दूसरा वास्य शीलका अभिनय प्रदर्शित करनेवाला नट है । ये दोनों वाक्यखण्ड परस्परमें सापेक्ष हैं। अर्थके लिए दोनों एक दूसरेपर निर्भर हैं। साधारणतः दोनों वाक्यखण्ड असम्बद दिखलाई पड़ते हैं, पर है दोनोंमें अर्यसंगत्ति और इस अर्थसंगतिका आधार है सादृश्ययोजना । इस प्रकार निदर्शनाद्वारा आचार्यने भावाभिव्यक्ति की है।
बौषधि द्वारा जैसे कोई व्यक्ति नोरोग देखा जाता है, अतः इस सुखाभिलाषासे कि मौषधिका सेवन कर रोग-मुक्त हो जाऊंगा, अतः रोगोत्पत्तिको इच्छा करे, उसी प्रकार भोगको लालसासे निदान करनेवाला मुनि मी दुःखप्राप्तिको इच्छा करता है । यहाँपर भी आचार्यने दो याक्योंकी योजना की है। प्रथम वाक्यमें सादृश्यमूलक उदाहरण है, जिसके द्वारा द्वितीय वायकी पुष्टि हो रही है । इस गाथामें लक्षणा और व्यन्जना शक्तियां भी समाविष्ट हैं । ओषधिलाभकी आकांक्षासे कोई रोगोत्पत्ति नहीं करता। यदि वह रोगोत्पत्ति करता है तो उससे बढ़कर अन्य कोई बुद्धिहीन नहीं। इसो प्रकार भोगोपभोगोको लालसासे प्रेरित होकर जो निदान करता है वह मुनि भी निर्बुद्धि ही है।
इस गाथामें दृष्टान्तालङ्कारको योजना है। कुछी मनुष्यके अग्नि-तापका उदाहरण देकर निदानको असारता चित्रित की गयी है। जिस प्रकार कुछ मनुष्य अग्निसे शरीर तपनेपर भी उपशमको प्राप्त नहीं होता, प्रत्युत वृद्धिंगत होता है, उसी प्रकार विषयमांगोंको अभिलाषा भोग-शक्तिको उपशामक नहीं, अपितु वधक है।
खुजलीरोगको नखोंसे खुजलानेवाला मनुष्य अपनेको सुम्बी समझता है, उसी प्रकार स्पर्शन, आलिङ्गन आदि दु:खोंसे भी अपनेको सुखी मानता है।
उक्त दोनों गाथाओंमें आचार्यने उदाहरणालद्वारको योजना की है। यहां यथा ओर तथा शब्द प्रयुक्त होकर भाव-साम्य उपस्थित करते हैं। उपमेय और उपमान इन दोनों में विम्ब-प्रतिबिम्बभाव है। निदानजन्य भोगाभिलाषाको व्यर्थ सिद्ध करनेके लिए आचार्यने कुष्ठीका अग्नि-ताप एवं कण्डमानताको तुष्टि आदिके उदाहरण प्रयुक्त किये हैं। इस प्रकार धार्मिक विषयोको सरस और चमत्कृत बनानेके लिए अलङ्कृत शैलीका व्यवहार किया है। कुमार या स्वामी कुमार अथवा कार्तिकेय बोर उनको रचनाएं
कुमार या कार्तिकेयके सम्बन्धमें अभी तक निर्विवाद सामग्री उपलब्ध
धृतधर और सारस्वताचार्य : १३३
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नहीं हुई है। हरिषेण, श्रीचन्द्र और ब्रह्मनेमिदत्तके कयाकोषोंमें बताया गया है कि कार्तिकेयने कुमारावस्थामें ही मुनि-दीक्षा धारण की थी । इनकी बहनका विवाह रोहेड नगरके राजा क्रौञ्चके साथ हुआ था और उन्होंने दारुण उपसर्ग सहन कर स्वर्गलोकको प्राप्त किया । ये अग्निनामक राजाके पुत्र थे। ___ 'तस्वार्थवातिकमें अनुत्तरोपपाददशांगके वर्णन-प्रसंगमें दारुण उपसर्ग सहन करनेवालोंमें कार्तिकेयका भी नाम बाया है। इससे इतना तो स्पष्ट है कि कार्तिकेय नामके कोई उन तपस्यो हुए हैं। ग्रन्थके अन्तमें जो प्रशस्तिमायाएं दी गयो हैं वे निम्न प्रकार हैं
जिणवयणभावपट्ठ, सामिकुमारेण परमसद्धाए। रइया अणुवेहाथो, चंचलमणरंभषटुं च ।। वारसअणुवेक्खागो, भणिया हु विणागमारणुसारेण । जो पढइ सुणइ भावइ, सो पावइ सासयं सोक्खं । तिहयणपहाणसामि, कुमारकालेण तवियतवयरणं ।
वसुपुज्जसुयं मॉल्ल, चरमत्तिय सथुवे णिच्वं ॥ यह अनुप्रेक्षानामक ग्रन्थ स्वामी कुमारने श्रद्धापूर्वक जिनवचनको प्रभावना तथा चंचल मनका रोकनेके लिए बनाया।
ये बारह अनुप्रेक्षाएं जिनागमके अनुसार कहा है, जो भव्य जीव इनको पढ़ता, सुनता और भावना करता है, वह शाश्वत सुख प्राप्त करता है । यह भावनारूप कत्तंव्य अर्थका उपदेशक है। अतः भव्य जोवोंको इन्हें पढ़ना, सुनना और इनका चिंतन करना चाहिए। __ कुमार-कालमें दीक्षा ग्रहण करनेवाले वासुपूजिन, मालाजन, नेमिनाथजिन, पाश्चनाधजिन एवं वर्धपान इन पाँचों बाल-पातियोंका में सदेव स्तवन करता हूँ।
इन प्रशस्ति-गाथाओंसे निम्नलिखित निष्कर्ष निकलते हैं१. वारस अनुप्रेक्षाके रचयिता स्वामी कुमार हैं ।
२. ये स्वामी कुमार बालबह्मचारी थे। इसो कारण इन्होंने अन्त्य मंगलके रूपमें पांच बालतियोंको नमस्कार किया है।
३. चञ्चल मन एवं विषय-वासनाओंके विरोधकेलिए ये अनुप्रेक्षाएं लिखी गई हैं। १. तत्वार्षवार्तिक । २. वारस अमुवेबसा, गाया न. ४८७, ४६८, ४८९ । १३४ : तोषकर महावीर बौर उनको बाचार्य-परम्परा
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मथुराके एक अभिलेखमें उच्च नागरके कुमारनन्दिका उल्लेख आया हैक्षुणे उच्चै गरस्याय्यकुमारनन्दिशिष्यस्य मित्रस्य' ।
एक अन्य अभिलेखमें भी कुमारनन्दिका नाम प्राप्त होता है ।
इन अभिलेखोंमें कुमारनन्दिका नाम आया है और उन्हें नागर शाखाका आचार्य कहा है। इस शाखाका अस्तित्व ई. सम की मासादियों था और इस शाखाके आचार्योंने सरस्वत्तो-आन्दोलनमें ग्रन्थ-निर्माणका कार्य किया । अतः कुमारनन्दि और स्वामी कुमार यदि एक व्यक्ति हों, तो उनका समय ई० सन् को आरम्भिक शताब्दी माना जा सकता है; पर अभी तक इपलब्ध प्रमाणोंके आधारपर इन दोनाका अभिन्नत्व सिद्ध नहीं है।
संक्षेपमें यही कहा जा सकता है कि स्वामी कार्तिकेय प्रतिभाशाली, आगमपारगामी और अपने समयके प्रसिद्ध आचार्य हैं । यो परम्परासे कार्तिकेयकी द्वादश अनुप्रंक्षाएँ मानी जाती हैं । इस ग्रन्थमें कहीं पर भी कार्तिकेयका नाम नहीं आया है और न ग्रन्यको हो कात्तिकयानुप्रंक्षा कहा गया है। ग्रन्थके प्रतिज्ञा ओर समाप्ति वाक्योम ग्रन्थका नाम सामान्यतः 'अणुपेहा' या 'अणपेक्खा' और विशेषतः 'बारस अणवेक्खा' नाम आया है। भद्रारक शुभचन्द्रने इस ग्रन्थपर विक्रम संवत् १६१३ (ई० सन् १५:६) में संस्कृत टोका लिखी है । इस टीकामें अनेक स्थानोंपर ग्रन्थका नाम कार्तिकेयानुप्रेक्षा दिया है और ग्रन्थकारका नाम कार्तिकेय मुनि प्रकट किया है।
बहुत सम्भव है कि कार्तिकेयशब्द कुमार या स्वामी कुमारका पर्यायवाची यहाँ व्यवहृत किया गया हो। यह सत्य है कि शुभचन्द्र भट्टारकके पूर्व अन्य किसी भी ग्रन्थमें बारस-अणुवेक्खाके रचयिताका नाम कातिकेय नहीं आया है। शुभचन्द्रने ३९४ संख्यक गाथाको टोका कात्तिकेय मुनिका उदाहरण प्रस्तुत किया है। लिखा है-“स्वामीकार्तिकेयमुनिः क्रौञ्च राजकृतोपगर्ग सोढ्वा साम्य. परिणामेन समाधिमरणेभ देवलोक प्राप्त ।" स्पष्ट है कि स्वामी कातिकेय मुनि क्रौञ्च राजकृत उपसर्गको समभावस सहकर समाधिपूर्वक मरणके द्वारा देवलोकको प्राप्त हुए।
भगवत्ती आराधनाको गाथा-संख्या १५४९ म क्रौञ्च द्वारा उपसर्गको प्राप्त हए एक व्यक्तिका निर्देश आया है। साथमें उपसर्गस्थान राहेडक और शक्ति
१. जैन शिलालेख संग्रह, द्वितीयभाग, मथुरा अभिलेख संख्या-६४, पु०-४५ । २. वही, अभिलेख-१२१, पृ०१११-१२। ३. स्वामिकातिकेयो मुनीन्द्रा अप्रेक्षाध्याख्यातुकामः । गाथा न०-१ ।
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हथियार का भी उल्लेख है । पर कार्तिकेय नामका स्पष्ट निर्देश नहीं है । उस व्यक्तिको 'अग्निदयितः लिखा है, जिसका अर्थ अग्निप्रिय है। मूलाराधनादर्पण में लिखा है -- " रोहेडयम्मि रोहेटकनाम्नि नगरे सत्तोए शक्त्या शस्त्रविशेषेण कौंचनाम्ना राज्ञा । अग्गिदइदो अग्निराजनाम्नो राज्ञः पुत्रः कार्तिकेयसंज्ञः ।"" अर्थात् रोहेडनगर में कौंच राजाने अग्निराजाके पुत्र कार्तिकेय मुनिको शक्तिनामक शस्त्रसे मारा था और मुनिराजने उस दुःखको समतापूर्वक सहनकर रत्नत्रयकी प्राप्ति की थी। इस टीकासे प्रकट होता है कि कार्तिकेयने कुमारावस्था में मुनिदीक्षा ली थी। बताया गया है कि कार्तिकेयकी बहन रोहेड नगरके कौंच राजाके साथ विवाहित थी। राजा किसी कारणवश कार्तिकेयसे असन्तुष्ट हो गया और उसने कार्तिकेय को दारुण उपसर्ग दिये। इन उपसर्गोको समतासे सहनकर कार्तिकेयने देवलोक प्राप्त किया। इस कथाके आधारपर इतना तो स्पष्ट है कि इस ग्रन्थके रचयिता कार्तिकेय सम्भव है और अन्यका नाम भी कार्तिकेयानुप्रेक्षा कल्पित नहीं है ।
समय-निर्धारण
मूलाचार, भगवती आराधना और कुन्दकुन्दकृत 'बारह अणुवेक्खा' में बारह भावनाओं का क्रम और उनको प्रतिपादक गाथाएं एक ही है । यहाँतक कि उनके नाम भी एक हो हैं । किन्तु कार्तिकेयको 'बारहमप्णुवेक्खा' में न वह क्रम है और न के नाम हैं । इसमें क्रम और नाम तत्त्वाथंसूत्रकी तरह है । तत्वार्थ सूत्र में अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संदर, निर्जरा, लोक, चोधिदुर्लभ और धर्म इस क्रम तथा नामोंसे १२ भावनाएँ आयी है । ठीक यही क्रम और नाम कार्तिकेयको 'अणुवेक्वामें हैं। बतएव इस भिन्नता कार्तिकेय न केवल बटुकेर, शिवार्य और कुन्दकुन्दके उत्तरवर्ती प्रतीत होते हैं, अपितु तत्त्वार्थ सूत्रकारके भी उत्तरवर्ती जान पड़ते हैं।
परन्तु यहाँ कहा जा सकता है कि तत्त्वार्थ सूत्रकारके समक्ष भी कोई क्रम रहा है, तभी उन्होंने अपने ग्रन्थमें उस कमको निबद्ध किया है। साथ ही यह भी सम्भावना है कि भावनाओंके दोनों ही क्रम प्रचलित रहे हों, एक क्रमको कुन्दकुन्द, शिवायें, वटुकेर आदिने अपनाया और दूसरे क्रमको स्वामी कार्तिकेय, गृद्धपिच्छ आदिने । अतः भावनाक्रमके अपनाने के आधारपर कार्तिकेय के समयका
-
भगवती आराधनाकी मूलाराधना-दर्पणटीका, सोलापुर संस्करण, गाथा – १५४९ । १० १४४३ ।
२ ० ० ९-७ ।
१३६ तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य - परम्परा
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निर्धारण नहीं किया जा सकता और न उनके बारह अणुवेक्खा' ग्रन्थको अर्वाचीनता ही सिद्ध की जा सकती है।
स्वामिकार्तिकेयके समयका विचार करते हुए डॉ० ए० एन० उपाध्येने 'बारस - अणुवेक्खा' का अन्तःपरीक्षणकर बतलाया है कि इस ग्रन्थकी २७९ वीं गाथामें 'णिसुनहि' और 'भावहि' ये दो पद अपभ्रंशके आ घुसे हैं, जो वर्तमानकाल तृतीय पुरुषके बहुवचनके रूप हैं । यह गाथा 'जोइन्दु' के योगसारकै ६५ व दोहे के साथ मिलती-जुलती है और दोहा तथा गाथा दोनोंका भाव भी एक है । अतएव इस गाथाको 'जोइन्दु' के दोहे का परिवर्तित रूप माना जा सकता है । यथा
विरला जाणहि तत्तु बहू विरला झार्याह तत्तु जिय
विरला णिसुर्णाह तत्तु | विरला धारहिं तत्तु ॥
X
x
X
X
विरला णिसुणहि तन्त्रं विरला जाणंति तच्चदो तच्चं । विरला भावहि तच्च विरलाणं धारणा होदिर ||
अतः इन दोनों सन्दर्भोंक तुलनात्मक अध्ययन के आधारपर कार्तिकेयका समय जोइन्दुके पश्चात् होना चाहिए ।
श्री जुगलकिशोर मुख्तारने डॉ० उपाध्येके इस अभिमतका परोक्षण करते हुए लिखा है कि " यह गाथा कार्तिकेय द्वारा लिखित नहीं है । जिस लोकमानाके प्रकरणमें यह आयी है, वहाँ इसकी संगति नहीं बैठती ।" आचार्य मुस्तारने अपने कथनको पुष्टिके लिए गाथाओंका कम भी उपस्थित किया है । उन्होंने लिखा है- "स्वामीकुमारने ही योगसारके दोहेको परिवर्तित करके बनाया है, समुचित प्रतीत नहीं होता - खासकर उस हालत में जबकि ग्रन्थभरमें अपभ्रंस भाषाका और कोई प्रयोग भी न पाया जाता हो । बहुत सम्भव है कि किसी दूसरे विद्वानने दोहेको गाथाका रूप देकर उसे अपनी ग्रन्थ- प्रतिमें नोट किया हो, और यह भी सम्भव है कि यह गाथा साधारणसे पाठभेदके साथ अधिक प्राचीन हो, और योगेन्दुने हो इसपरसे थोड़ेसे परिवर्तन के साथ अपना उक्त दोहा बनाया हो; क्योंकि योगेन्दुके परमार्थप्रकाश आदि ग्रन्थोंमें और भी कितने ही दाहं ऐसे पाये जाते हैं, जो भावपाडुड तथा समाधितंत्रादिके पञ्चपरसे परिवर्तन करके बनाये गये है और जिसे डॉ० साहबने स्वयं स्वीकार
१. योगसार, पत्र संख्या ६५ ॥
२. कार्तिकेय, वारसवेखा, माया न० २७९ ।
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किया है। जब कि स्वामीकुमारके इस ग्रन्थकी ऐसी कोई बात अभी तक सामने नहीं आयी ।" ___ आचार्य मुख्तार साहबका यह निष्कर्ष उचित मालूम होता है, क्योंकि योगसारका विषय क्रमबद्ध रूपसे नहीं है । इसमें कुन्दकुन्दको अनेक गाथाओंका रूपान्तरण मिलता है । कुन्दकुन्दने कर्मविमुक्त आत्माको परमात्मा बतलाते हुए; उसे ज्ञानी, परमेष्ठी, सर्वज्ञ, विष्ण, चतुर्मुख और बुद्ध कहा है। योगसारमें भी उसके जिन, बुद्ध, विष्णु, शिव आदि नाम बतलाये है। इसके अतिरिक्त जो इन्दुने कुन्दकुन्दके समान हो निश्चय और व्यवहार नयों द्वारा आस्माका कथन किया है। योगसार और परमार्थप्रकाश इन दोनोंका विषय समान होने पर भी योगसार संग्रहग्रन्थ जैसा प्रतीत होता है। इसमें कई तथ्य छूट भी गये हैं । दाहा ९९-१०३ द्वारा सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसाम्पराय संयमका स्वरूप बतलाया है । यहाँ यथाख्यात चारित्रका स्वरूप छूट गया है। अतएव योगसारके दाहेका परिवर्तित रूप कातिकेयानुप्रेक्षा होनेके आधारपर कार्तिकेयको अर्वाचीन बताना युक्त नहीं है। ___ आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने समय-निर्णय करते हुये लिखा है-“मेरो समझमें यह ग्रन्य उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रसे अधिक बादका नहीं, उसके निकटवर्ती किसो समयका होना चाहिये, और उसके कर्ता वे अग्निपुत्र कातिकेय मुनि नहीं हैं, जो साधारणतः इसके कर्ता समझ जाते हैं, और क्रॉच राजाके द्वारा उपसगको प्राप्त हुए थे, बल्कि स्वामीकुमार नामके आचार्य ही हैं, जिस नामका उल्लेख उन्होंने स्वयं 'अन्त्यमंगल' को गाथामें श्लेष रूपसे किया है"। __ आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारके उक्त मतसे यह निष्कर्ष निकलता है कि कात्तिकेय गृद्धपिच्छके समकालीन अथवा कुछ उत्तरकालोन हैं। अर्थात् वि. सं० को दूसरी-तीसरी शती उनका समय होना चाहिए।
रचना
द्वादशानुप्रक्षामें कुल ४८९ गाथाएं हैं। इनमें अघ्र व, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यस्व, अशुचित्ल, आस्रव, संवर, निजरा, लोक, बोषदुर्लभ और धर्म इन बारह अनुपंक्षाओंका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। प्रसंगवश बीन,
१. जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश, पृ. ४९९ । २. भावपाहुर, गाया १४९ तथा योगसार पद्य ९ । ३. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, प. ५०० 1 १३८ : तीथंकर महावीर कौर उनको आचार्य-परम्पा
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बजोव, आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा ओर माक्ष इ. सात तत्वांका स्वरूप भी बणित है । जीवसमास तथा मार्गणाके निरूपणके साथ. द्वादशव्रत, पात्रोंके भेद. दाताके सात गुण, दानवी श्रेष्ठता, माहात्म्य, सल्लखना, दश धर्म, सम्यक्त्व के आठ अंग, बारह प्रकारके तप एवं ध्यानके भेद-प्रभेदोंका निरूपण किया गया है। आचार्यका स्वरूप एवं आत्मशुद्धिको प्रक्रिया इस ग्रन्थमें विस्तारपूर्वक णित है।
अध्र वानप्रक्षामें ४-२२ गाथाए हैं। अशरणानुप्रक्षाम २३-३१; संसारानुप्रेक्षामें ३२-७३; एकत्वानुप्रक्षामें ७४-७९; अन्यत्वानुशाम ८०-८२: अशुचित्वानुप्रक्षामै ८३-८७; यासवानुप्रक्षाम ८८-१४; संवरानुक्षामें ९५-१०१, निर्जरानुक्षामें १०२-११४; लोकानुप्रेक्षाम ११५-२८३; बोधिदुर्लभानुप्रेक्षामें २८४-३०१ एवं धर्मानुप्रंक्षामें ३०२-४३५ माथाएं हैं । ४३६ माथासे अन्ततक द्वादश तपोंका वर्णन आया है । अध्र वानुप्रेक्षान समस्त वस्तुओंकी अनित्यता बतलाते हए वस्तुका स्वरूप सामान्यविशेषात्मक कहा है। सामान्य द्रव्यरूप है, और विशेष गुण पर्यायरूप । द्रव्यरूपसे वस्तु नित्य है किन्तु पर्यायकी अपेक्षासे वस्तु अनित्य है । यह संसारका प्राणी पर्यायबुद्धि है, जिससे पर्यायोंको उत्पन्न और नष्ट होते देखकर हर्ष विषाद करता है, और उसको नित्य रखना चाहता है । यह शरीर जीव-पुद्गलको संयोग जनित पर्याय है धन-धान्यादिक पुद्गल परणुओंको स्कन्ध पर्याय है। इनके संयोग और वियोग नियमसे अवश्य हैं, जो स्थिरताको वुद्धि करता है, वह माहनित भावके कारण संक्लेश प्राप्त करता है।
ससारको समस्त अवस्थाएं विरोधी भावोंसे युक्त हैं । जब जन्म होता है, तब उसे स्थिर समझकर हर्ष उत्पन्न होता है, मरण होनेपर नाश मानकर शोक करता है । इस प्रकार इष्टकी प्राप्तिमें हर्ष, अप्राप्ति में विषाद तथा अनिष्ट प्राप्तिमें विषाद, अप्राप्तिमें हर्ष करता है, यह भी सब मोहका माहात्म्य है। आचार्य सादृश्यमूलक उपमा प्रस्तुतकर परिवार, वन्धुवर्ग, स्त्रो, पुत्र, मित्र, धनधान्यादिको अनित्यताका चित्रण करते हुए कहते है
अधिरं परियण-सवणं, पुत्त-कलत्तं सुमित्त-लावण्णं ।
गिह-गोहपाइ सन्च, णव-धण-विदेण सारित्थं'। परिवार, बन्धुवर्ग, पुत्र, स्त्री, मित्र, सौन्दर्य, गृह, धन, पशु सम्पत्ति इत्यादि सभी वस्तुएं नवीन मेध-समहके ममान अस्थिर हैं । इन्द्रियोंके विपय, भृत्य, अश्व, गज, रथ आदि सभी पदार्थ इन्द्रधनुषके समान अस्थिर हैं ।
पुण्यके उदयसे प्राप्त होने वाली चक्रवर्तीको लक्ष्मी भी नित्य नहीं हैं, तब १. स्वामिफुमार, द्वादशानुप्रेक्षा, गापा ६ ।
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वह पुण्यहोन अथवा अल्पपुण्यवाले व्यक्तियोंसे केसे प्रेम करेगी ? कविने इसो को समझाते हुए लिखा है
कत्थ वि ण रमइ लच्छो, कुलीण-धोरे वि पंडिए सूरे।
पुज्जे धम्मि? वि य, सरूप-सुयणे महासत्ते' । अर्थात् यह लक्ष्मी कुलवान, धैर्यवान, पंडित, सुघट, पूज्य, धर्मात्मा, रूपवान, सुजन, महापराक्रमी इत्यादि किसी भी पुरुषसे प्रेम नहीं करती, यह जलको तरंगोंके समान चंचल है । इसका निवास एक स्थानपर अधिक समय तक नहीं रहता। इस प्रकार आचार्य स्वामिकुमारने संसार, शरीर, भोग और लक्ष्मीको अस्थिरताके चिन्तनको अघ्र वानप्रेक्षा कहा है।
अशरण भावनामें बताया है कि मरण करते समय कोई मो प्राणीकी शरण नहीं। जिसप्रकार वनमें सिंह मगके बच्चको जब पेरके नीचे दबा लेता है, तब कोई भो उसकी रक्षा नहीं कर सका देव, , त, जोस आदि सभी मृत्युसे रक्षा करने में असमर्थ हैं। रक्षा करने के लिए जितने उपाय किये जाते हैं, वे सब व्यर्य सिद्ध होते हैं। आयुके क्षय होनेपर कोई एक क्षणके लिए भी आयुदान नहीं सकता
आउषखयेण मरणं आउ' दाउं ण सक्कदे को वि ।
तम्हा देविदो वि य, मरणार ण रक्खदे को' वि आयुकर्मके क्षयसे मरण होता है और आयुकर्मको कोई देने में समर्थ नहीं, अतएव देवेन्द्र भी मृत्युसे किसोको रक्षा नहीं कर सकता है । इस प्रकार अशरणरूप चिन्तनका समावेश अशरण-भावनामें होता है।
संसार-अनुप्रेक्षामें बताया है कि संसार-परिभ्रमणका कारण मिथ्यात्व और कषाय है। इन दोनोंके निमित्तसे ही जीव चारों गतियोंमें परिभ्रमण करता है। हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रा और परिग्रहरूप भावनाके कारण विभिन्न गत्तियोंमें इस जीवको परिभ्रमण करना पड़ता है। आघायंने इस भावनामें चर्तुगतिके दुःखोंका वर्णन भी संक्षेपमें किया है। मनुष्यगतिके हुःखोंका प्रतिपादन करते हुए संसार स्वभावका विश्लेषण विश्लेषण किया है--
कस्स वि दुटुकलितं, कस्स वि दुब्बसणवसनिओ पुत्तो । कस्स वि अरिसमबंधू, कस्स वि दुहिता वि दुचरिया ।।
१. वहीं, गाथा ११ 1 २. स्वामिकुमार, द्वादशानुप्रेक्षा, गाथा २८। । १४० : तीयंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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मरदि सुपुत्तो कस्स वि, कस्स वि महिला विणस्सदे इट्ठा | कस्स वि अग्गीपलितं, गिहं कुटुंबं
चडज्झेई' |
संसारमें नहीं है। इस मनुष्यगति में नानाप्रकारके दुःख है । किसीकी स्त्री दुराचारिणी है, किसीका पुत्र व्यसनी है, किमीका भाई शत्रुके समान कलहकारी है । एवं किमीको पुत्रो दुश्चरित्रा है। इस प्रकार संसारकी विषम परिस्थिति मनुष्यको सुखका कण भी प्रदान नहीं करती है ।
किसोके पुत्रका मरा हो जाता है, किसीकी भार्याका मरण हो जाता है और किसीके घर एवं कुटुम्ब जलकर भस्म हो जाते हैं। इसप्रकार मनुष्यगतिमें अनेक प्रकारके दुःखों को सहन करता हुआ यह जीव धर्माचरणबुद्धिके अभाव के कारण कष्ट प्राप्त करता है । मनुष्यगति की तो बात ही क्या, देवगति में भी नानाप्रकारके दुःख इस प्राणीको सहन करने पड़ते हैं । इसप्रकार संसारानुप्रेक्षा में संसार के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप पंचपरावर्तनों का वर्णन आया है ।
एकत्वानुप्रेक्षामें बताया गया है कि जीव अकेला ही उत्पन्न होता है और अकेला ही नाना प्रकार के कष्टों को सहन करता है । नानाप्रकारकी पर्याए यह जोव धारणकर सांसारिक कष्टोंको भोगता है। रोग, शोक जन्य अनेक प्रकारके कष्टोंको अकेला ही भोगता है। पुण्यार्जनकर अकेला ही स्वर्ग जाता है और पापार्जन द्वारा अकेला हो नरक प्राप्त करता है | अपना दुःख अपने को ही भोगना पड़ता है, उसका कोई भी हिस्सेदार नहीं है । इसप्रकार एकत्व भावना में आचार्यने जोवको शरीरसे भिन्न बताया है
सव्वायरेण जाणह, एवकं जावं सरीरदो भिष्णं । जम्हि दु मुणिदे जोवे, होदि असेसं खणे हेय ।।
अर्थात् सब प्रकारके प्रयत्नकर शरीर से भिन्न अकेलं जीवको अवगत करना चाहिये। यह जीव समस्त परद्रव्यों से भिन्न है । अतः स्वयं ही कर्त्ता और भोक्ता है । इसप्रकार एकत्वानुत्र क्षामें अकेले जोवको ही कर्त्ता और भोका होनेके चिन्तनका वर्णन किया है ।
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अन्यत्वानुप्रेक्षामें शरीर से आत्माको भिन्न अनुभव करनेका वर्णन किया है | सभी बाह्य पदार्थ आत्मस्वरूपसे भिन्न हैं। आत्मा ज्ञानदर्शन सुखरूप है और यह संसारके समस्त पुद्गलादि पदार्थोंके स्वरूपसे भिन्न है। इसप्रकार अन्यस्वानुप्रक्षामें आत्मा के भिन्न स्वरूपके चिन्तनका कथन आया है ।
१. स्वामिकुमार, द्वादशानुप्रेक्षा, गाथा ५३-५४ ।
२. वही, माथा ७९ ।
तर और सारस्वताचार्य १४१
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अशुचित्वानुप्रक्षामें शरोरको समस्त अपवित्र वस्तुओंका समूह मानकर विरत डानका संदेश दिया गया है। शरीर अत्यन्त अपवित्र है। इसके सम्पर्क में आनेवाले चन्दन, कपर, केसर आदि सुगन्धित पदार्थ भो दुर्गन्धित हो जात हैं । अतः इसकी अशुचिताका चिन्तन करना अशुचित्वान्प्रेक्षा है ।
आस्रवानप्रक्षामें आस्रवके स्वरूप, कारण, भेद एवं उसके महत्वके चिन्तन का वर्णन आया है। मन, वचन, कायका निमित्त प्राप्तकर जोचके प्रदेशोंका चंचल होना योग हैं, इसीको आस्लच कहते हैं। बन्धका कारण आस्रव है, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगके निमित्तसे बन्ध होता है। यह आसव पुण्य और पापरूप होता है । शुभास्रव पुण्यरूप है और अशुभास्रव पापरूप है। इसी सन्दर्भमें कषायोंके तीव्र और मन्द भेदोंका भी विवेचन आया है। आस्रवानुप्रेक्षामें आस्रवके स्वरूपका विचार करते हुये उससे अलिप्त रहने का उपदेश है। __संवरानुप्रक्षामें संबरके स्वरूप और कारणोंका विवेचन करते हुए सम्यक्त्य, व्रत, गुप्ति, समिति, अनुप्रक्षा, परिगहजय आदिका चिन्तन आवश्यक माना है। इसी सन्दर्भमें आर्त और रोद्र परिणतिके त्यागका भो कथन किया है, जो व्यक्ति इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त होता हुआ संवररूप परिणतिको प्राप्त करता है उसीके संवरभावना होती है।
निर्जराभावनाका विवेचन करते हुये बताया है कि जो अहंकार रहित होकर तप करता है, उसीके निर्जरानुपंक्षा होती है। ख्याति, लाभ, पूजा और इन्द्रियोंके विषयभोग बन्धके निमित्त हैं। निदानरहित सप ही निर्जराका कारण है । आचार्यने प्रारम्भमें हो वैराग्य-भावनाको उद्दीप्तिका वर्णन करते हुए कहा है---
वारसविहेण तवसा, णियाणरहियस्स णिज्जरा होदि ।
वेरग्मभावणादो, णिरहंकारस्स णाभिस्स' ।। निदानरहित, अहंकाररहित, ज्ञानीके बारह प्रकारके तपसे तथा वेगग्य भावनासे निर्जरा होती है। समभावसे निर्जराको वृद्धि होती है। निर्जरा दो प्रकारकी है- सविपाक और अविपाक | कर्म अपनी स्थितिको पूर्ण कर, उदयरस देकर स्विर जाते हैं उसे सबिपाक निर्जरा कहते हैं । यह निर्जरा सब जीवोंके होती है । और तपके कारण जो कर्म स्थिति पूर्ण हये बिना ही खिर जाते हैं, वह अविपाक निर्जरा कहलाती है । सविपाक निर्जरा कार्यकारी नहीं है । अविपाक निर्जरा हो कार्यकारी है । अतएव इन्द्रियों और कषायोंका निग्रह करके परम
१. स्वामिकुमार, द्वादशानुप्रेमा, गापा १०२ ।
१४२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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बीतराग भावरूप आत्मध्यानमें लोन होना उत्कृष्ट निर्जरा है ।
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लोकानुत्रं क्षा में लोकके स्वरूप और आकार-प्रकारका विस्तारसे वर्णन है । आकाशद्रव्यका क्षेत्र अनन्त है और उसके बहुमध्य देशमें स्थित लोक है। यह किसीके द्वारा निर्मित नहीं है। जीवादि द्रव्योका परस्पर एक क्षेत्रावगाह होने से यह लोक कहलाता है । वस्तुतः द्रव्यों का समुदाय लोक कहा जाता है । लोक द्रव्यकी दृष्टिसे नित्य है, पर परिवर्तनशील पर्यायोंकी अपेक्षा परिणामी है । यह पूर्व-पश्चिम दिशामें नीचेके भागमें सात राजु चौड़ा है। वहाँ अनुक्रमसे घटता हुआ मध्यलोकमें एक राजु रहता है। पुनः ऊपर अनुक्रमसे बढ़ता बहता ब्रह्म स्वर्ग तक पांच राजु चौड़ा हो जाता है, पश्चात् घटते घटते अन्तमें एक राज रह जाता है । इसप्रकार बड़े किये गये डेढ़ मृदंगकी तरह लोकका पूर्व-पश्चिममें आकार होता है। उत्तर-दक्षिण में भी सात राजु विस्तार है। मैकके नीचे भी सात राजु अधोलोक है । लोकशब्दका अर्थ बतलाते हुए लिखा हैदीति जत्थ अत्था जीवादीया स भण्णदे लोओ । तस्स सिहरम्मि सिद्धा, अंत्तविहीणा विरायंते ॥
जहाँ जीवादिक पदार्थ देखे जाते हैं, वह लोक कहलाता है । लोकमं जोव. पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छः द्रव्यांका निवास है । इस अनुप्रक्षा इन छहों द्रव्यों का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। लोकानुप्रक्षा में द्रव्योंके स्वभाव-गुणको बतलाते हुये, शरीर से भिन्न आत्माकी अनुभूति करनेका चित्रण किया है । इस भावना में गुणस्थानोंके स्वरूप और भेदोंका भी कथन आया है तथा सप्त नयोंकी अपेक्षासे जोवादि पदार्थोंका विवेन्द्रन भी किया गया है ।
बोधिदुर्लभ भावनाएं आत्मज्ञानकी दुर्लभतापर प्रकाश डाला गया है । आरम्भमें बतलाया गया है कि संसार में समस्त पदार्थोंकी प्राप्ति सुलभ है, पर आत्मज्ञानकी प्राप्ति होना अत्यन्त दुष्कर है। सम्यक्त्वके बिना आत्मज्ञान प्राप्त नहीं होता। जिसे मन्द कर्मोदयसे रत्नत्रय भी प्राप्त हो गया हो, वह व्यक्ति यदि तीव्र कषाय के अधीन रहे, तो उसका रत्नत्रय नष्ट हो जाता है और वह दुर्गतिका पात्र बनता है | प्रथम तो मनुष्यगतिकी प्राप्ति हो दुर्लभ है और इस पर्यायके प्राप्त हो जानेपर भी सम्यक्त्वका मिलना दुष्कर है । सम्यक्त्व के प्राप्त होनेपर भो सम्यक् बोधका मिलना और भी कठिन है। इसप्रकार स्वामिकार्तिकेयने वोधिकी दुर्लभताका कथन करते हुये रत्नत्रयके स्वरूप आदि पर प्रकाश डाला है ।
१. स्वामिकुमार, द्वादशानुप्रेक्षा, १२१ ।
श्रुतवर और सारस्वताचार्य १४३
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धर्मानुप्रेक्षामें धर्मका यथार्थ स्वरूप अतीन्द्रिय बतलाया है। धर्मका वास्तविक रूप सर्वज्ञता है । सर्वज्ञसाके, अस्तित्वमें किसीप्रकारका सन्देह नहीं किया जा सकता है । इस धर्मानुप्रेक्षामें कर्मबन्धके चक्रवालका भी विश्लेषण बाया है। बताया गया है कि संशव सब प्रव्या, कान, काल भायोंको अवस्थाबोंको जानते हैं। सर्वज्ञके ज्ञानमें सब कुछ प्रकाशित होता है। उनके शानमें जिस प्रकारके पदार्थोकी पर्यायें प्रतिविम्बित होती हैं, उन पर्याय जन्य फल वैसा हो घटित होता है। उसमें कोई किसी प्रकारका परिवर्तन नहीं कर सकता है। निम्न दोनों गायाओंसे पर्यायोंकी नियत स्थिति सिद्ध होती है
जं जस्स जम्मि देसे, जेण विहाणेण जम्मि कालम्मि । जादं जिणेण णियदं, बम्म वा अहव मरणं वा ॥ तं तस्स तम्मि देते, तेण विहाणेण तम्मि कालम्मि ।
को सक्कदि वारेवु, ईदा वा मह जिणिदो वा ।' जो जिस जोवके जिस देशमें, जिस कालमें, जिस विधानसे जन्म-मरण, दुःख-सुख, रोग-दारिद्र आदि सर्वज्ञदेवके द्वारा जाने गये हैं, वे नियमसे ही उस प्राणोको उसी देशमें, उसी काल में और उसो विधानसे प्राप्त होते हैं। इन्द्र, जिनेन्द्र या तीर्थंकरदेव अन्य कोई भो उसका निवारण नहीं कर सकते । इस प्रकारके निश्चयसे सब द्रव्य, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन द्रव्यों
और इनकी समस्त पर्यायोंका जो श्रद्धान करता है, वह शुद्ध सम्यकदष्ट है। यह स्मरणीय है कि जीव मिथ्यात्वकर्मके, उपशम, क्षयोपशम या क्षयके बिना तत्त्वार्थको ग्रहण नहीं कर पाता । इसप्रकार धर्मानुप्रेक्षामें व्यवहारधर्म और निश्चयधर्मका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है ।
१८६ गाथाओंमें इस अनुप्रेक्षाका वर्णन आया है । अनशनादि बारह तप भी इसी वर्णनसंदर्भ में समाविष्ट हैं। बारह व्रतोंके निरूपणमें गुणवतों और शिक्षाव्रतोंका क्रम दही है, जो कुन्दकुन्दके 'चारित्रपाङड में पाया जाता है । मेद केवल इतना ही है कि अन्तिम शिक्षावत संल्लेखना नहीं, किंतु देशावकाशिक ग्रहण किया गया है। यह गुणवतों और शिक्षाघ्र तोकी व्यवस्था तत्त्वार्थसूत्रसे संख्याक्रममें भिन्न है, और श्रावकप्राप्तिको व्यवस्थाके तुल्य है।
इस प्रकार धर्मानुप्रेक्षामें तपों और व्रतोंका विस्तारपूर्वक कथन आया है। श्रावकधर्म और मुनिधर्मको संक्षेपमें अवगत करने के लिए यह ग्रन्थ उपयोगी है।
१. स्वामिकुमार, द्वावशानुप्रेक्षा, गाथा ३२१, ३२२।
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रचना-प्रतिभा
स्वामी कार्तिकेयकी रचना-शक्ति शिवार्य ओर कुन्दकुन्दके समान है । विषयको सरल और सुबोध बनानेके लिए उपमानोंका प्रयोग पद-पदपर किया गया है। लेखक जिस तथ्यका प्रतिपादन करना चाहता है, उस तथ्यको बड़ी हो दढ़ताके साथ उपस्थित कर देता है। प्रश्नोत्तर-शैलीमें लिखी गयो गाथाएँ तो विशेष रोचक और महत्त्वपूर्ण हैं। यहाँ उदाहरणार्थ दो गाथाओंका उपस्थित कर लेखककी रचना-प्रतिभाका परिचय प्रस्तुत किया जाता है
को ण वसो इत्थिजणे, कस्स ण मयणेण खंडियं माणं । को इंदिएहि पा जियो, को ण कसाएहिं संतत्तो। सो ण वसो इत्थिजणे, सो ण जिओ इंदिएहि मोहेण ।
जो ण य गिदि गर्थ, अब्भंतर बाहिरं सम्वं ।' इस लोकमें स्त्रीजनके वशमें कौन नहीं ? कामने किसका मान खण्डित नहीं किया ? इन्द्रियोंने किसे नहीं जीता और कषायोंसे कौन सतप्त नहीं हुआ ? ग्रन्थकारने इन समस्त प्रश्नोंका उत्तर सर्कपूर्ण और सुबोध शैलीमें अंकित किया है। वह कहता है, जो मनुष्य बाह्य और आभ्यन्तर संमस्त परिग्रहको ग्रहण नहीं करता, वह मनुष्य न तो स्त्रीजनके वशमें होता है,न कामके अधीन होता है और न मोह और इन्द्रियों के द्वारा हो जोता जा सकता है। __इस ग्रन्थकी अभिव्यंजना बड़ी ही सशक है । ग्रन्थकारने छोटी-सी गाथामें बड़े-बड़े तथ्योंको संजो कर सहजरूपमें अभिव्यक्त किया है। भाषा सरल और परिमार्जित है। शेलीमें अर्थसौष्ठव, स्वच्छता, प्रेषणीयता, सूत्रात्मकता अलंकारात्मकता समवेत है ।
गद्धपिन्छाचार्य परिचय
तत्त्वार्थसूत्रके रचयिता आचार्य गृद्धपिच्छ हैं । इनका अपरनाम उमास्वामी या उमास्वाति भी प्राप्त होता है। आचार्य वीरसेनने जीवस्थानके काल अनुयोगद्वारमें तत्त्वार्थसूत्र और उसके कर्ता गृद्ध पिच्छाचार्यके नामोल्लेखके साथ उनके तत्त्वार्थसूत्रका एक सूत्र उद्धृत किया है-- __'तह गिद्धपिछाइरियप्पयासिदतच्चत्थसुत्ते वि "वर्तनापरिणामक्रियाः पर
१. स्वामिकुमार, द्वादशानप्रेक्षा, गाथा २८१२८२ ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : १४५
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त्वापरत्वे च कालस्य ' इदि दव्वकालो परुविदो ।"
इस उद्धरण
है कि तस्वार्थसूत्र के रचयिता गुद्धपिच्छाचायें हैं। इस नामका समर्थन आचार्य विद्यानन्दके तस्वार्थ लोकवातिकसे भी होता है-
'एतेन मुद्धपिच्छाचार्यपर्यन्तमुनिसूत्रेण व्यभिचारता निरस्ता' । यहाँ विद्यानन्दने भी तत्त्वार्थसूत्रके कर्ताका नाम गृद्धपिच्छाचार्य बतलाया
तत्त्वार्थ सूत्र के किसी टीकाकारने भी निम्न पद्यमें तत्त्वार्थ सूत्र के रचयिताका नाम गृद्धपिच्छाचार्य दिया है—
'तत्त्वार्थ सूत्रकर्त्तारं गृद्धपिच्छोपलक्षितम् । वन्दे गणीन्द्रसंजातमुमास्यामिमुनीश्वरम् ॥”
इसमें गृद्धपिच्छाचार्यं नामके साथ उनका दूसरा नाम 'उमास्वामिमुनीवर ' भी बतलाया गया है । वादिराजने भी अपने पार्श्वनाथचरित्रमें गृद्धपिच्छ नामका उल्लेख किया है
'अतुच्छ गुणसम्पातं गृद्धपिच्छं नतोऽस्मि तम् पक्षीकुर्वन्ति यं भव्या निर्वाणायोत्पतिष्णवः ॥ ४
आकाशमें उड़ने की इच्छा करनेवाले पक्षी जिस प्रकार अपने पंखोंका सहारा लेते हैं उसी प्रकार मोक्षरूपी नगरको जानेके लिए भव्यलोग बिस मुनीश्वरका सहारा लेते हैं उस महामना अगणित गुणोंके भण्डारस्वरूप गृद्धपिच्छ नामक मुनिमहराजके लिए मेरा सविनय नमस्कार है ।
इन प्रमाणोल्लेखोंसे स्पष्ट है कि तत्त्वार्थसूत्र के कर्त्ता गृद्धपिच्छाचार्य हैं । श्रवणवेलगोला के एक अभिलेख में गृद्धपिच्छ नामकी सार्थकता और कुन्दकुन्दके वंशमें उनकी उत्पत्ति बतलाते हुए उनका उमास्वाति नाम भी दिया है । यथा
अभूदुमास्वातिमुनिः पवित्रे वंशे तदीये सकलात्थंवेदी । सूश्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थंजातं मुनिपुङ्गवेन ॥
१. षट्खण्डागम, घवला टीका, जीवस्थान, काल अनुयोगद्वार, पृ० ३१६ । २. तत्त्वार्थश्लोकवातिक पृ० ६ ।
३. तत्त्वार्थसूत्रको अनेक प्रतियोंके अन्त में उपलब्ध पच ।
४. पाश्वंनाच चरित १११६ ।
१४६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी बाचार्य परम्परा
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स प्राणिसंरक्षणसावधानो बभार योगी किल गुदघपक्षान् ।
तदा प्रभृत्येव बुधा यमाहुराचार्यशब्दोत्तरगृध्रपिच्छम् ।।' अन्य शिलालेखमें भी गृद्धपिच्छका उल्लेख प्राप्त होता है
अभूदुमास्यातिमुनीश्वरोऽसावाचार्यशब्दोत्तरगृध्रपिच्छः । तदन्वये सत्सदृशोऽस्ति नान्यस्तात्कालिकाशेषपदार्थवेदी । आचार्य कुन्दकुन्दके पवित्र वंशमें सकलार्थक शाता उमास्वाति मुनीश्वर हुए, जिन्होंने जिनप्रणीत द्वादशांगवाणीको सूत्रोंमें निबद्ध किया । इन आचार्यने प्राणिरक्षाके हेतु गृद्धपिच्छोंको धारण किया। इसी कारण वे गृद्धपिच्छाचार्यके नामसे प्रसिद्ध हुए । आमलेखीय प्रमाणमें गृद्धपिच्छाचार्यको श्रुतकेलिदेशोय भी कहा गया है। इससे उनका आगमसम्बन्धी सातिशय ज्ञान प्रकट होता है। ___तत्वार्थसूत्रके रचयिता गृपिच्छाचार्यका उल्लेख श्रवणबेलगोलाके अभिलेखोंमें ४०, ४२, ४३,४७ और ५० संख्यकमें भी पाया जाता है। अभिलेखसंख्या१०५ और १०८ में तत्त्वार्थसूत्रके कर्ताका नाम उमास्वाति भी आया है और गृपिच्छ उनका दूसरा नाम बतलाया है । यथा--
श्रीमानुमास्वातिरयं यतीशस्तत्त्वार्थसूत्रं प्रकटीचकार । यन्मुक्तिमार्गाचरणोधतानां पाथेयमग्यं भवति प्रजानां ॥ तस्यैव शिष्योजनि गृद्धपिच्छ-द्वित्तीयसंशस्य बलाकपिच्छः ।
यत्सूक्तिरत्नानि भवन्ति लोके मुफ्त्यङ्गनामोहनमण्डनानि ॥ यतियों के अधिपति श्रीमान् उमास्वातिने तत्त्वार्थसूत्रको प्रकट किया, जो मोक्षमार्गके आचरणमें उद्यत मुमुक्षुजनोंके लिए उत्कृष्ट पाथेय है। उन्हींका गृद्धपिच्छ दूसरा नाम है। इन मुद्धपिच्छाचार्य के एक शिष्य बलापिच्छ थे, जिनके सूक्तिरत्न मुक्त्यङ्गनाके मोहन करने के लिए आभूषणोंका काम देते हैं।
इस प्रकार दिगम्बर साहित्य और अभिलेखोंका अध्ययन करनेसे यह ज्ञात होता है कि तत्त्वार्थसूत्रके रचयिता गृद्धपिच्छाचार्य, अपरनाम उमास्वामि या उमास्वाति हैं।
कुछ विद्वानोंने तत्त्वार्थसूत्रका रचयिता कुन्दकुन्दको माना है। आचार्य
१. जनशिलालेखसंग्रह, प्रथम भाग, अभिलेखसं० १०८, पृ० २१०-११ । २. जनशिलालेखसंग्रह, प्रथम माग, अभिलेखसंख्या-४३, पृ० ४३ । ३. वही, अभिलेखसंख्या-१०५, पृ० १९८ ।
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श्री जुगलकिशोर मुस्ताग्ने इस मतकी समीक्षा की है।"
तत्त्वार्थ सूत्र के रचयिता के सम्बन्धमें एक अन्य मत्त यह है कि वाचक उमास्वाति इस सूत्रग्रन्थके रचयिता हैं । पण्डित सुखलालजीने तत्त्वार्थसूत्र (विवेचन ) की प्रस्तावना में बाचक उमास्वातिको तत्त्वार्थसुत्रका कर्ता माना है, गुद्धपिच्छ उमास्वातिको नहीं । ये कहते हैं कि गृद्धपिच्छ उमास्वाति नामके आचार्य हुए अवश्य हैं, पर उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र या तत्त्वार्थाधिगम शास्त्रको रचना नहीं की है। उन्होंने इस सूत्र ग्रन्थका उल्लेख 'तत्त्वार्थाधिगम' शास्त्र के नामसे किया है । पर यह नाम तत्त्वार्थ सूत्रका न होकर उसके 'तत्त्वार्थाधिगम' भाष्यका है ।
तत्त्वार्थाधिगमभाष्यको रचना के पूर्व तत्त्वार्थ सूत्रपर अनेक टीकाएँ लिखी जा चुकी थीं । सर्वार्थसिद्धिका निम्न सूत्र तत्त्वार्थाधिगम भाष्य में कुछ परिवर्धनके साथ पाया जाता है, जिससे भाष्य की सर्वार्थसिद्धिसे उत्तरकालीनता अवगत होती है
(क) मतिश्रुतयन्धिदत्येषु
(ख) मतिश्रुतयोनिबन्धः सर्वद्रव्येष्व सर्वपर्याषु ।
यहाँ तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठकी अपेक्षा द्रव्यपदके साथ विशेषणरूप से 'सर्व' पद स्वीकार किया गया है। किन्तु जब वे ही भाष्यकार इस सूत्र के उत्तरार्धको ११२० के भाष्य में उद्धृत करते हैं तो उसका रूप सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ ले लेता है । यथा--'अत्राह्मतिश्रुतयोस्तुयविषयत्वं वक्ष्यति द्रव्येष्वसर्व पर्यायेषु इति ।'
११४
इससे ज्ञात होता है कि भाष्य के पूर्व तत्त्वार्थ सूत्रपर सर्वार्थसिद्धि टीका लिखी जा चुकी थी और उसमें तत्त्वार्थ सूत्रका एक सूत्रपात्र निर्धारित किया जा चुका था । सिद्धसेनगण और हरिभद्रने भी तत्त्वार्थाधिगमभाष्यके इस अंशको इसी रूपमें स्वीकार किया है । अब प्रश्न यह है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्यकारने जब उल्लिखित सूत्र के उत्तरार्धका 'सर्वद्रव्येष्वसर्व पर्यायेषु' पाठ स्वीकार किया, तब उसे उद्धृत करते समय उसमें से 'सर्व' पद क्यों छोड़ दिया ? यदि 'सर्व' पदको 'द्रव्य' पदके विशेषण के रूपमें आवश्यकता थी तो उन्होंने उद्धृत करते समय क्यों नहीं इस बातका ध्यान रखा ? यह ऐसा प्रश्न
१. जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश, पृ० १०२ १०५ १
२. सर्वार्थसिद्धि १२६ ।
३. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य- १३२७ ।
४. बही, ११२० भाष्य |
१४८ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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है, जिसको उपेक्षा नहीं की जा सकतो। बहुत सम्भव है कि उन्होंने प्राचीन सूत्रपाठकी परम्पराको ध्यानमें रखकर ही प्रथम अध्यायके २०वें सूत्रके भाष्यमें उसे दिया, जो सर्वार्थसिद्धिमें उपलब्ध था। इससे विदित होता है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य लिखते समय वाचक उमास्वातिके समक्ष सर्वार्थसिद्धि अथवा उसमें मान्य सूत्रपाठ रहा है । ___ अर्थविकासको दृष्सेि विचार करने पर प्रतीत होगा कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्यको सर्वार्थसिद्धिके बाद लिखा गया है । कालके उपकारप्रकरण में सर्वार्थसिद्धिमें परत्व और अपरत्व ये दो ही भेद किये गये हैं, जबकि तत्त्वार्थाधिगमभाष्यमें उसके तीन भेद उपलब्ध होते हैं । अतएप प्रज्ञाचक्षु पण्डित सुखलालजीका यह अभिमत कि तत्त्वार्थसूत्रकार और तत्त्वार्थाधिगमभाष्यकार एक ही व्यक्ति हैं, समोचोन प्रतीत नहीं होता। __ तत्वार्थ सूत्रके दो सूत्रपाठ हो जानेपर भी ऐसे अधिकतर सूत्र हैं जो दोनों परम्पराओंमें मान्य हैं और उनमें भी कुछ ऐसे सूत्र अपने मूलरूपमें उपलब्ध हैं, जिनके रचयिताको स्थितिपर प्रकाश पड़ता है । पण्डित फूलचन्द्रजो शास्त्रीने (१) तीर्थंकरप्रकृतिके बन्धके कारणोंका प्रतिपादक सत्र (२)बाइस परीषहाका प्रतिपादक सूत्र, (३) केवलीजिनके ११ परिषहोंके सद्भावका प्रतिपादक सूत्र और (४) एक जीवके एक साथ परीषहसंख्याबोधक सूत्र-इन चार सूत्रोंको उपस्थित कर तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थाधिगमभाष्यके रचयिताओंको मिन्नभिन्न व्यक्ति सिद्ध किया है।' पण्डित फूलचन्द्रजीने 'उमास्वातिवाचकोपज्ञसवभाष्ये' पदके पण्डित सुखलालजो द्वारा किये गये अर्थको समीक्षा करते हुए लिखा है-'पण्डितजी, भाष्यकार और सूत्रकार एक हो व्यक्ति हैं-इस पक्षमें उसका अर्थ लगानेका प्रयत्न करते हैं, किंतु इस पदका सीधा अर्थ हैउमास्वातिवाचकद्वारा बनाया हुआ सूत्रभाष्य । यहाँ 'उमास्वातिवाचकोपज्ञ' पदका सम्बन्ध सबसे न होकर उसके भाष्यसे है। दूसरा प्रमाण पण्डितजीने ९वें अध्यायके २२वें सूत्रको सिद्धसेनीय टीका उपस्थित की है, किंतु यह प्रमाण भी सन्देहास्पद है, क्योंकि सिद्धसेन गणिको टोकाको जो प्राचीन प्रतियां उपलब्ध होती हैं उनमें "स्वकृतसूत्रसन्निवेशमाश्रियोक्तम्" पाठके स्थानमें "कृतस्तत्र सूत्रसन्निवेशमाश्रित्योक्तम्" पाठ भी उपलब्ध होता है। बहुत सम्भव है कि किसी लिपिकारने तत्त्वार्थसूत्रका वाचक उमास्वाति कर्तृत्व दिखलानेके अभिप्रायसे 'कुतस्तत्र' का संशोधन कर 'स्वकृत' पाठ बनाया हो
१. सर्वार्थसिडि, प्रस्तावना, पृ० ६५-६८ ।
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और बादमें यह पाठ चल पड़ा हो ।'
अतः सत्त्वार्थ अथवा तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थाधिगमभाष्य दो पृथक्-पृथक् रचनाएँ हैं। तत्त्वार्थ सर्वार्थसिद्धिसे पूर्ववर्ती और तत्त्वार्थाधिगमभाष्य उससे उत्तरवर्ती रचना है। अतएव तत्त्वाधिगमभाष्यके कर्ता वाचक उमास्वाति रहे होंगे। पर मल तत्वार्थसत्रके कर्ता गपिच्छाचार्य हैं। इस नामका उल्लेख नवीं शताब्दीके आचार्य बोरसेन और विद्यानन्द जैसे आचार्योके साहित्यमें मिलता है। उत्तरकालमें अभिलेखों और ग्रन्थों में उमास्वामो और उमास्वाति इन दो नामोंसे भी इनका उल्लेख किया गया है। लगभग इसी समय श्वेताम्बर सम्प्रदायमें हुए सिद्धसेन गणिके उल्लेखोंसे तत्त्वार्थाधिगमभाष्यका रचयिता वाचक उमास्वातिको माना गया और इन्हें ही तत्त्वार्थसूत्रका रचयिता भी बता दिया गया । पर मूल और भाष्य दोनोंका अन्तःपरीक्षण करनेपर वे दोनों पृथक्-पृथक् दो विभिन्नकालीन कर्तृक सिद्ध होते हैं, जैसा कि ऊपरके विवेचनसे प्रकट है। गुरुपरम्परा
गृपिच्छाचार्य किस मन्वयमें हुए, यह विचारणीय है ! नन्दिसंघको पट्टावलि और श्रवणबेलगोलाके अभिलेखोंसे यह प्रमाणित होता है कि गृद्धपिच्छाचार्य कुन्दकुन्दके अन्वयमें हुए हैं। नन्दिसंघकी पट्टावलि विक्रमके राज्याभिषेकसे प्रारम्भ होतो है । वह निम्न प्रकार है
१ भद्रबाहु द्वितीय (४), २ गुप्तिगुप्त (२६), ३ माघनन्दि (३६), ४ जिनचन्द्र (४०), ५ कुन्दकुन्दाचार्य (४९), ६ उमास्वामि (१०१), ७ लोहाचार्य (१४२), ८ यशःकीति (१५३), ९ यशोनन्दि (२११), १० देवनन्दि (२५८), ११ जयनन्दि {३०८), १२ गुणनन्दि (३५८), १३ वच्चनन्दि (३६४), १४ कुमारनन्दि (३८६), १५ लोकचन्द (४२७), १६ प्रभाचन्द्र (४५३), १७ नेमिचन्द्र (४७२), १८ भानुनन्दि (४८७), १९ सिंहनन्दि (५०८), २० वसुनन्दि (५२५), २१ बीरनन्दि (५३१), २२ रत्ननन्दि (५६१), २३ माणिक्यनन्दि (५८५), २४ मेधचन्द्र (६०१), २५ शान्तिकोति (६२७), २६ मेरुकोति (६४२),।'
उपर्युक्त पट्टालिम आया हुआ गुप्तिगुप्तका नाम अर्हलिके लिये आया है । अन्य प्रमाणोंसे सिद्ध है कि नन्दिसंघकी स्थापना अहवालने की थी, और इसके प्रथम पट्टधर आचार्य माघनन्दि हुए। इस क्रमसे गृपिच्छ नन्दिसंघके १. स० सि. प्रस्तावना, पृ० ६८ । २. जैनसिदान्त भास्कर, भाग १, किरण ४, पृ० ७८ ।
१५० : तीर्थकर महावीर और उनकी माचार्य-परम्परा
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पट्टपर बैठनेवाले आचार्योंमें चतुर्थ आते हैं और इनका समय वीर निर्वाण सं०५७१ सिद्ध होता है । अतएव गडपिच्छके गुरुका नाम कुन्दकुन्दाचार्य होना चाहिये। श्रवणवेलगोलाके अभिलेख न० १०८ में गद्धपिच्छ उमास्वामिका शिष्य बलाकपिच्छाचार्यको बसलाया है । अत: इनके शिष्य बलाकपिच्छ हैं।
सत्त्वार्थसूत्रके निर्माणमें कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंका सर्वाधिक उपयोग किया गया है | आचार्य कुन्दकुन्द बापोवास्तिकाय में द्राका नासाडगे जिया है
दब्वं सल्लवखणियं उपादन्वयधुवत्तसंजुत्तं ।
गुणपज्जयासयं वा जं तं भणति सव्वण्हू' ।। इस गाथाके आधारपर तत्त्वार्थसूत्र में तीन सूत्र उपलब्ध होते हैं। ये तीनों सूत्र क्रमशः गाथाके प्रथम, द्वितीय और तृतीय पाद हैं
(१) सद्व्यलक्षणम्। (२) उत्पादव्ययधोव्ययुक्तं सत् । (३) गुणपर्ययवद् द्रव्यम् ।
अतएव गपिन्छने कुन्दकुन्दका शाब्दिक और वस्तुगत अनुसरण किया है । अतः आश्चर्य नहीं कि गृद्धपिच्छके गुरु कुन्दकुन्द रहे हों । श्रवणबेलगोलाके उक्त अभिलेखानुसार गृद्धपिच्छके शिष्य बलापिच्छ हैं। इनकी गणना नन्दिसंघके आचार्योंमें है।
यद्यपि पंडित सुखलालजीने इन्हें ही तत्वार्थाधिगमभाष्यका कर्ता मानकर उच्च गर शाखाका आचार्य माना है और यह शाखा कल्पसूत्रको स्थविरावलिके अनुसार आर्यशान्तिश्रेणिकसे निकली है । आर्यशान्तिधेणिक आर्यसुहस्तिसे चौथी पीढ़ीमें आते हैं, तथा वह शान्तिश्चेणिक आर्यवनके गुरु आसिहगिरिके गुरुभाई होनेसे, आर्यवनकी पहली पीढ़ीमें आते हैं। तत्वार्थाधिगमभाष्यकी प्रशस्तिमें वाचक उमास्वासिने अपनेको शिवश्रीनामक वाचकमुख्यका प्रशिष्य और एकादशांगवेत्ता घोषनन्दि श्रमणका दीक्षा शिष्य तथा प्रसिद्धकीर्तिवाले महावाचक श्रमण श्रीमुण्डपादका विद्या-प्रशिष्य बतलाया है।
पर यह गुरुशिष्य-परम्परा तत्त्वार्थाधिगमभाष्यकार वाचक उमास्वातिको
१. पंचास्तिकाय, गापा १० २. तत्त्वार्थसूत्र ५।२९ ३. वही ५.३० ४. वही ५३८
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है, तस्वार्थ सूत्रकारपिच्छको नहीं । गृद्धपिच्छ उमास्वामि कुन्दकुन्दान्वयमें ये हैं और ये कुन्दकुन्दाचार्यके उत्तराधिकारी भी हैं ।
समय-निर्धारण
इनका समय नन्दिसंघको पट्टावलिके अनुसार वीर-निर्वाण सम्वत् ५७१ है, जो कि दि० सं० १०१ आता है । 'विद्वज्जनबोधक' में निम्नलिखित पद्य आया है
वर्ष सप्तश चैव सप्तत्या न विस्मृतौ । उमास्वामिमुनिर्जातः कुन्दकुन्दस्तथैव च ॥
अर्थात् वीर निर्वाण संवत् ७७० में उमास्वामि मुनि हुए, तथा उसी समय कुन्दकुन्दाचार्य भी हुये । नन्दिसंघकी पट्टावलिमें बताया है कि उमास्वामी ४० वर्ष ८ महीने आचार्य पदार प्रतिष्ठित रहे । उनकी आयु ८४ वर्षकी थी और विक्रम संवत् १४२ में उनके पट्टपर लोहाचार्य द्वितीय प्रतिष्ठित हुए। प्रो० हानंले', डा० पिटर्सन' और डा० सतीशचन्द्र ने इस पट्टावलिके अधारपर उमास्वादिकां रेड की प्रथम शताब्दीका विद्वान माना है ।
''विद्वज्जनबोधक' के अनुसार उमास्वातिका समय विक्रम सम्वत् ३०० भाता है और वह पट्टावलिके समय से १५० वर्ष पीछे पड़ता है।
इन्दिअपने श्रुतावतार में ६८३ वर्षको श्रुतवर आचार्यों की परम्परा दी है और इसके बाद अंगपूर्व के एकदेशवारी विनयवर, श्रीदत्त और अद्दत्तका नामोल्लेख कर नन्दिसंघ आदि संघों की स्थापना करनेवाले अहंवलिका नाम दिया है। श्रुतावतारमें इसके पश्चात् माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतवलिके उल्लेख हैं। उसके बाद कुन्दकुन्दका नाम आया है। अतः आचार्य गृद्धपिच्छ कुन्दकुन्दके पश्चात् अर्थात् ६८३ वर्षके अनन्तर हुए हैं। यदि इस अनन्तरकालका १०० वर्षे मान लिया जाये, तो वीर निर्वाण सम्वत् ७८३ के लगभग आचार्य गृद्धपिच्छका समय होगा ।
यद्यपि श्रुतधर आचार्यो की परम्परा का निर्देश घवला, आदिपुराण', नन्दि
१. सर्वार्थसिद्धि प्रस्तावना, पृ० ७८ से उद्धृत ।
२. And ant, XX P. 341, 351.
३. Peerrsons fourth oreport on Sanskrit manuscripts P. XVI. ४. History of the Mediaval school of Indian Logic P. 8, 9.
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६. धवला पुस्तक ९, पृ० १३०.
६. आदिपुराण २।१३७.
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संघकी प्राकृत पट्टावल' और त्रिलोकप्रज्ञप्ति आदिमें आया है, पर ये सभी परम्पराएं ६८३ वर्ष तकका हो निर्देश करती हैं । इसके आगेके आचार्यका कथन नहीं मिलता । अतएव श्रुतावतार आदिके आधारसे गृद्धपिच्छका समय निर्णीत नहीं किया जा सकता है |
डॉ० ए० एन उपाध्येने बहुत कहापोह के पश्चात् कुन्कुन्दके समय का निर्णय किया है, और जिससे गृद्धपिच्छ, आचार्य कुन्दकुन्दके शिष्य प्रकट होते हैं । उपाध्येजीके मतानुसार कुन्दकुन्दका समय ई० प्रथम शताब्दी के लगभग है । अतः गृद्धपिच्छाचार्य उसके पश्चात् ही हुए हैं ।
कुन्दकुन्दका समय निर्णीत हो जानेके पश्चात् आचार्य गृद्धपिच्छका समय अवगत करने में कठिनाई नहीं है । यतः पट्टावलियों और शिलालेखों में आचार्य कुन्दकुन्दके पश्चात् गृद्धपिच्छका नाम आया है। अतएव इनका समय ई० प्रथम शताब्दीका अन्तिम भाग और द्वितीय शताब्दीका पूर्वभाग घटित होता है ।
निष्कर्ष यह कि पट्टावलियों, प्रशस्तियों और अभिलेखोंके अध्ययन से गृद्धपिच्छका समय ई० सन् द्वितीय शताब्दी प्रतीत होता है ।
तस्वार्थसूत्रको रचना
आचार्य गृद्धपिच्छकी एकमात्र रचना 'तत्वार्थ सूत्र' है । इस सूत्रग्रन्थका प्राचीन नाम 'तत्त्वार्थ' रहा है । 'तत्त्वार्थ' को तीन टीकाएँ प्रसिद्ध हैं, जिनके साथ तत्त्वार्थपद लगा है, पूज्यपादकी 'तत्त्वार्थवृत्ति', जिसका दूसरा नाम 'सर्वार्थसिद्धि' है, अकलंकका 'सत्त्वार्थवार्तिक' और विद्यानन्दका तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक' । अतएव इस ग्रन्थका प्राचान नाम 'तत्त्वार्थ' ही रहा है । सूत्रशैलीमें निबद्ध होनेसे उत्तरकालमें इसका 'तत्त्वार्थसूत्र' नाम प्रचलित हुआ । इस ग्रन्यकी रचनाके हेतुका वर्णन करते हुए तत्त्वार्थसूत्र के कन्नड़ टीकाकार बालचंद्रने लिखा है
"
" सौराष्ट्र देश के मध्य उर्जयन्तगिरिके निकट गिरिनगर नामके पत्तनमें आसत भव्य स्वहितार्थी द्विजकुलोत्पल श्वेताम्बरभक्त सिद्धय्य नामका एक विद्वान् श्वेताम्बर शास्त्रोंका जाननेवाला था । उसने 'दर्शनशान चारित्राणि मोक्षमार्ग : ' यह सूत्र बनाकर एक पटियेपर लिख दिया था। एक दिन चर्याके लिये गृद्धपिच्छाचाय मुनि वहाँ आये और उन्होंने उस सूत्रके पहले 'सम्यक' पद जोड़ दिया। जब वह विद्वान बाहरसे लौटा और उसने पटिये पर 'सभ्य' १. जनसिद्धान्त मास्कर, माग १, किरण ४, पृ० ७१ ।
२. त्रिलोकप्रज्ञप्ति ४।१४९०-९१ ।
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शब्द लगा देखा, तो वह अपनी मातासे मुनिराजके आनेका समाचार मालूम करके खोजता हुआ उनके पास पहुँचा और पूछने लगा-"आत्माका हित क्या है"। इसके बादका प्रश्नोत्तर प्रायः वही सब है, जो 'सर्वार्थसिद्धि' के प्रारम्भमें आचार्य पूज्यपादने दिया है। प्रभाचन्द्राचार्यने सर्वार्थसिद्धिपर एक टिप्पण लिखा है भीर जरा टिपणाने उन अन्य पदोंकी व्याख्या की है, जो 'सर्वार्थसिद्धि' में छूट गये हैं। इस टिप्पणमें प्रभाचन्द्रने प्रश्नकर्ता भव्यका नाम तो सिद्धय्य ही दिया है, किन्तु कथा नहीं दी है। उक्त कथामें कितना तथ्यांश है, यह नहीं कहा जा सकता।
श्रुतसागरसरिने 'तत्त्वार्थवृत्ति के प्रारम्भमें लिखा है कि किसी समय आचार्य उमास्वामि गद्धपिच्छ आश्रम में बैठे हुए थे। उस समय द्वैपायक नामक भव्यने यहाँ आकर उनसे प्रश्न किया-भगवन् ! आत्माके लिये हितकारी क्या है ? भव्यके ऐसा प्रश्न करनेपर आचार्यवर्यने मंगलपूर्वक उत्तर दिया, मोक्ष | यह सुनकर द्वैपायकने पुनः पूछा-उसका स्वरूप क्या है, और उसकी प्राप्तिका उपाय क्या है ? उत्तरस्वरूप आचार्यवयंने कहा कि यद्यपि प्रवादिजन इसे अन्यथा प्रकारसे मानते हैं, कोई श्रद्धानमात्रको मोक्षमार्ग मानते हैं, कोई ज्ञाननिरपेक्ष चारित्रको मोक्षमार्ग मानते हैं। परन्तु जिस प्रकार ओषधिके केवल ज्ञान, श्रद्धान या प्रयोगसे रोगको निवृत्ति नहीं हो सकती है, उसी प्रकार केवल श्रद्धान, केवल ज्ञान या केवल चारित्रसे मोक्षको प्राप्ति नहीं हो सकती। भव्यने पूछा-तो फिर किस प्रकार उसकी प्राप्ति होती है ? इसीके उत्तरस्वरूप आचार्यने "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:" यह सूत्र रचा है और इसके पश्चात अन्य सूत्रोंकी रचना हुई है । ऐसी हो उत्थानिका प्रायः तत्त्वार्थवात्तिकमें भी आयो है। अतः उपयुंक्त कथामें कुछ तथ्य तो अवश्य प्रतीत होता है।
कनड़ो टीकाके रचयिता बालचन्द्र विक्रमको तेरहवीं शताब्दोके पूर्वार्द्ध में
पूज्यपादकी 'सर्वार्थसिद्धि' 'तत्वार्थसत्र' को उपलब्ध टोकाओंमें आध एवं प्राचीन टीका है। इसके आरम्भमें ग्रन्थ-रचनाका जो संक्षिप्त इतिवृत्त निबद्ध है उसके आधारसे स्पष्ट रूपमें कहा जा सकता है कि तत्त्वार्थसूत्रकारने तत्त्वार्थसुत्रकी रचना किसी आसनभव्यके प्रश्नके उत्तर में की है। इस भव्यका नामोल्लेख सर्वार्थसिद्धिकारने नहीं किया । उत्तवर्ती लेखकोंने किया है। उनका
१. अनेकान्त, वर्ण १, पृ० २७० ।
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आधार क्या है, कुछ कहा नहीं जा सकता। वह अन्वेषणीय है । इतना स्पष्ट तथ्य है कि तत्त्वार्थसूत्र किसी कासनभव्य मुमुक्षुके हितार्थ लिखा गया है । तस्वार्थसूत्रका महत्त्व
इस ग्रन्थ में जिनागमके मूल तत्त्वोंको बहुत ही संक्षेपमे निबद्ध किया है । इसमें कुल दश अध्याय और ३५७ सूत्र हैं। संस्कृत भाषा में सूत्रशैली में लिखित यह पहला सूत्रग्रन्थ है। इसमें करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणायोगका सार समाहित है। इसकी सबसे बड़ी महत्ता यह है कि इसमें साम्प्रदायिकता नहीं है । अतएव यह श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंको थोड़े-से पाठभेदको छोड़कर समानरूपसे प्रिय है । इसकी महत्ताका सबसे बड़ा दूसरा प्रमाण यह है कि दोनों ही सम्प्रदायोंके महान् आचार्यांने इसपर टीकाएँ लिखी हैं। पूज्यपाद, अकलंक और विद्यानन्दने दार्शनिक टीकाएँ लिखकर इस ग्रन्थका महत्त्व व्यक्त किया है । विद्यानन्द ने अपनी 'आसपरीक्षा' में इसे बहुमूल्य रत्नों का उत्पादक, सलिलनिधि – समुद्र कहा है
श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्रादद्भुत सलिलनिधेरिवरत्नोद्भवस्प प्रोत्थानारम्भकाले सकलमलमिदे शास्त्रकारैः कृतं यत् । स्तोत्रं तीर्थोपमानं प्रतिपृथुपथं स्वामिमीमांसितं तत् विद्यानन्देः स्वशक्त्या कथमपि कथितं सत्यवाक्यार्थसिद्धये ॥
प्रकृष्ट रत्नोंके उद्भव के स्थानभूत श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्ररूपी अद्भुत समुद्रकी उत्पत्ति के प्रारम्भकालमें महान् मोक्षपथको प्रसिद्ध करनेवाले मोर तीर्थोपमस्वरूप जिस स्तोत्रको शास्त्रकार गृद्धपिच्छाचार्यने समस्त कर्ममलके भेदन करनेके अभिप्रायसे रचा है और जिसकी स्वामीने मीमांसा की है, उसी स्तोत्रका सत्यवाक्यार्थ ( यथार्थता ) को सिद्धिके लिए मुझ विद्यानन्दने अपनी शक्तिके अनुसार किसी प्रकार व्याख्यान किया है।
तत्त्वार्थं सूत्र जैन धर्मका सारग्रन्थ होनेसे इसके मात्र पाठ या श्रवणका फल एक उपवास बताया गया है, जो उसके महत्त्वको सूचित करता है । वर्तमानमें इस ग्रन्थको जैन परम्परामें वही स्थान प्राप्त है, जो हिन्दू धर्म में भगवद्गीता' को, इस्लाम में 'कुरान' को और ईसाई धर्ममें 'बाइबिल' को प्राप्त है। इससे पूर्व प्राकृत भाषा में ही जैन ग्रन्थोंकी रचना की जाती थी । इसी भाषामें भगवान् महावीरकी देशना हुई थी और इसी भाषामें गौतम गणधरने अंगों १. डॉ० दरबारीलाल कोठिया, आप्तपरीक्षा, उपसंहार-पद्य, पक्ष-संख्या १२३, वीरसेवामन्दिर, सरसावा (सहारनपुर ) ।
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और पूर्वोको रचना की थी। पर जब देश में संस्कृत भाषाका महत्त्व वृद्धिंगत हुआ और विविध दर्शनोंके मन्तब्द सूत्ररूप में निबद्ध किये जाने लगे, तो जैन परम्पराके आचार्योंका ध्यान भी उस ओर आकृष्ट हुआ और उसके फलस्वरूप तत्वार्थ सूत्र जैसे महत्त्वपूर्ण संस्कृत-सूत्रग्रन्थको रचना हुई । इस तरह जैन वाङ्मय में संस्कृत भाषाके सर्वप्रथम सूत्रकार गृद्धपिच्छ हैं और सबसे पहला संस्कृत-सूत्रग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र है ।
वयं विषय
तत्त्वार्थसूत्र धर्म एवं दर्शनका सूत्रग्रन्थ है । इसकी रचना वैशेषिक दर्शन के 'वैशेषिकसूत्र' ग्रन्थकं समान हुई है। वैशेषिक दर्शन के प्रारम्भ में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव इन सात पदार्थोंके तत्वज्ञान से मोक्षप्राप्तिकी बात कही गयी है। अतः इस सूत्रग्रन्थ में मुख्यरूपसे उक्त सात पदार्थों का विवेचन आया है। सांख्य दर्शनमें प्रकृति और पुरुषका विचार करते हुए जगत्के मूलभूत पदार्थोका ही विचार किया है । इसी प्रकार वेदान्तदर्शनम जगतके मूलभूत तत्व ब्रह्मकी मीमांसा की गयी है । न्यायदर्शनमें प्रमाण, प्रमेव, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धांत, अवयय, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान इन सोलह पदार्थों के तत्त्वज्ञान से मोक्षकी प्राप्ति बतलायी है | न्यायदर्शनमें अर्थपरोक्षाके साधनों का ही कथन अया है । योगदर्शन में जीवन में अशुद्धता लानेवाली चित्तवृत्तियों का और उनके निरोधका तथा तत्सम्बन्धी प्रक्रियाका प्रतिपादन आया है। इस प्रकार पूर्वोक्त दर्शनोंका विषय ज्ञेयप्रधान या ज्ञानसाधनप्रधान अथवा चारित्रप्रधान है ।
पर 'तत्त्वार्थ सूत्र' में ज्ञान, ज्ञय और चारित्रका समानरूपसे विवेचन आया है । इसका प्रधान कारण यह है कि जहां वैशेषिक आदि दर्शनों में केवल तत्वज्ञान से 'निःश्रेयस्' प्राप्ति बतलायी गयी है वहाँ जेनदर्शन में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के समुच्चयको मोक्षका मार्ग कहा है । तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय द्वितीयसूत्रमें जीव, अजीव, आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्वोंके सम्यक्दर्शन और छठे सूत्रमें इनके यथार्थज्ञानको सम्यक्ज्ञान कहा है | तत्त्वार्थ सूत्रकारने हेय और उपादेयरूपमें केवल इन्हीं सात तत्त्वोंको श्रद्धेय एवं अधिगम्य बतलाया है। मोक्षमार्ग में इन्हीं का उपयोग है | अन्य अनन्त पदार्थोंका नहीं । इससे पूर्व समयसारमें भी निश्चयनय और व्यव हारनयसे इन्हीं सातों तत्त्वोंका निरूपण किया है ।
अतएव आचार्य गृद्धपिच्छने इस तत्त्वार्थसूत्रमें दश अध्याओंकी परिकल्पना
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करके प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ अध्याय में जीवतत्त्वका, पंचम अध्याय-मैं अजीवतत्त्वका, षष्ठ और सप्तम अध्यायोंमें आस्रवतत्त्वका, अष्टम अध्याय में बन्धतत्त्वका, नवम अध्याय में संवर और निर्जरातत्त्वोंका एवं दशम अध्यायमें मोक्षतत्त्वका विवेचन किया है। प्रथम अध्यायके आरम्भ में सम्यग्दर्शनका स्वरूप और उसके भेदोंकी व्याख्या करनेके पश्चात् " प्रमाणनयेरधिगमः " [१६] सूत्रसे ज्ञान विषयक चर्चाका प्रारम्भ होता है । प्रमाणका कथन तो सभी भारतीय दर्शनों में आया है, पर नयका विवेचन इस ग्रन्थका अपना वैशिष्टय है और यह है जैनदर्शन अनेकान्सवादको देन । नय प्रमाणका ही भेद है । सकलग्राही ज्ञानको प्रमाण और वस्तुके एक अंशको ग्रहण करनेवाले ज्ञानको नय कहते हैं ।
तस्यार्थसूत्र में ज्ञानको ही प्रमाण माना है और ज्ञान के पांच भेद बतलाये है - (१) मति, (२) श्रुत, (३) अवधि, (४) मन:पर्यय और (५) केवलज्ञान । प्रमाणके दो भेद हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष ! उक्त ज्ञानों में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दो परोक्ष हैं, क्योंकि इनकी उत्पत्ति इन्द्रिय और मनको सहायतासे होती है । शेष तोन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि ये आत्मा से ही उत्पन्न होते है - उनमें इन्द्रियादिको अपेक्षा नहीं होतो । तत्त्वार्थसूत्र में उक पाँवों ज्ञानोंका प्रतिपादन किया है । मतिज्ञानकी उत्पत्ति के साधन, उनके भेद-प्रभेद, उनको उत्पतिका क्रम, श्रुतज्ञानके भेद, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानके भेद तथा उनमें पारस्परिक अन्तर, पाँचों ज्ञानोंका विषय एवं एकसाथ एक जोवमें कितने ज्ञानोंका रहना सम्भव है आदिका कथन इसमें आया है। अन्तमें मति, श्रुत और अवधिज्ञानके मिथ्या होनेके कारणका भी विवेचन कर नयोंके भेद परिगणित किये गये हैं । इस अध्यायमें ३३ सूत्र हैं ।
द्वितीय अध्याय ५३ सूत्रों द्वारा जीवतत्त्वका कथन किया है । सर्वप्रथम जोबके स्वतत्त्वरूप पंच भावों और उनके भेदोंका निरूपण आया है । पश्चात् जीवके संसारी और मुक्त भेद बतलाकर संसारी जीवोंके भेद-प्रभेदोंका कथन किया गया है। जीवोंको इन्द्रियोंके भेद-प्रभेद, उनके विषय, संसारी जीवोंमें इन्द्रियों की स्थिति, मृत्यु और जन्मके बीच की स्थिति, जन्मके भेद, उनकी योनियों, जोयोंमें जन्मोंका विभाग, शरीरके भेद उनके स्वामी, एक जीवके एकसाथ सम्भव हो सकनेवाले शरीर, लिंगका विभाग तथा पूरी आयु भोगकर मरण करनेवाले जीवोंका कथन किया है ।
तृतीय अध्याय ३९ सूत्रों में निबद्ध है। इसमें अधोलोक और मध्यलोकका वर्णन आया है । अधोलोकका कथन करते हुए सात पृथिवियाँ तथा उनका
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आधार बतलाकर उनमें नरकोंकी संख्या और उन नरकोंमें बसनेवाले नारकी जीवोंकी दशा एवं उनकी दीर्घ आयु आदि बतलायो गयी है। मध्यलोकके वर्णनमें द्वीप, समुद्र, पर्वत, नदियां एवं क्षेत्रोंका वर्णन करनेके पश्चात् मध्यलोकमें निवास करनेवाले मनुष्य और तियंञ्चोंकी आयु भी बतलायी गयो है।
चतुर्थ अध्यायमें ४२ सूत्रों द्वारा ऊर्ध्वलोक या देवलोकका वर्णन किया गया है । इसमें देवोंके विविध भेदों, ज्योतिमण्डल, तथा स्वर्गलोकका वर्णन है ।
दार्शनिक दृष्टिसे पंचम अध्याय महत्वपूर्ण है। यह ४२ सूत्रोंमें निबद्ध है। इसमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छ: द्रव्योंका वर्णन आया है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक द्रव्यके प्रदेशोंको संख्या उनके द्वारा अवगाहित क्षेत्र और प्रत्येक द्रव्यका कार्य आदि बतलाये हैं। पुद्गलका स्वरूप बतलाते हुए उसके भेद, उसको उत्पत्तिके कारण, पोद्गलिक बन्धकी योग्यताअयोग्यता आदि कथन है । अन्तमें सत, द्रव्य, गुण, नित्य और परिणामका स्वरूप प्रतिपादित कर कालको भी द्रव्य बतलाया है ।
षष्ठ अध्याय २७ सूत्रों में प्रथित है। इस अध्यायमें आम्रवतत्वका स्वरूप उसके भेद-प्रभेद और किन-किन कार्यो के करनेसे किस-किस कर्मका आस्रव होता है, का वर्णन आया है।
सप्तम अध्यायमें ३९ सूत्रों द्वारा प्रतका स्वरूप, उसके भेद, यतोंको स्थिर करनेवाली भावनाएं, हिसादि पाँच पापोंका स्वरूप सप्त शील, सल्लेखना, प्रत्येक प्रत और शोलके अतिचार, दानका स्वरूप एवं दानके फलमें तारतम्य होनेके कारणका कथन आया है। ___ अष्टम अध्यायमें २६ सूत्र हैं । कर्म-बन्धके मूल हेतु बतलाकर उसके स्वरूप तथा भदोंका विस्तारपूर्वक कथन करते हुए आठों कर्मोके नाम प्रत्येक कर्मको उत्तरप्रकृतियां, प्रत्येक कर्मके स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धका स्वरूप बतलाया है।
नवम अध्यायमै ४७ सूत्रों द्वारा संवरका स्वरूप, संवरके हेतु, गुप्ति, समिति, दश धर्म, द्वादश अनुप्रेक्षा वाईस परोषह, चारित्र और अन्तरंग तथा बहिरंग सपके भेद बतलाये गये हैं। ध्यानका स्वरूप, काल, ध्याता, ध्यानके भेद एवं पांच प्रकारके निम्रन्थ साधुनोंका वर्णन वाया है।
दशम अध्यायमें केवल ९ सूत्र हैं। इसमें केवलज्ञानके हेतु, मोक्षका स्वरूप, मुक्तिके पश्चात् जीयके उर्ध्वगमनका दृष्टान्तपूर्वक सयुक्तिक समर्थन तथा मुक्त जीवोंका वर्णन आया है। १५८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी प्राचार्म-परम्परा
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इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्रका वर्ण्य विषय जैनधर्मके मूलभूत समस्त सिद्धान्तोंसे सम्बद्ध है । इसे जैन सिद्धान्तकी कुंजी कहा जा सकता है। तत्त्वार्थसूत्रको रचनाका स्रोत |
तत्त्वार्थ सूत्रके सूत्र कुन्दकुन्दके नियमसार, पंचास्तिकाय, भावपाड, षट्खण्डागम प्रवचनसार, आदिके आधारपर निर्मित हुए हैं । “सम्यग्दर्शनशाचारित्राणि मोक्षमागं" [१-१] सूत्रका मूल स्रोत नियमसार है । कुन्दकुन्दने अपने नियमसारको प्रारम्भ करते हुए लिखा है कि जिनशासनमें मागं और मार्गफलको उपादेय कहा है। मोक्षके उपायको मार्ग कहते हैं और उसका फल निर्वाण है। ज्ञान, दर्शन और चारित्रको नियम कहा जाता है तथा मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रका परिहार करनेके लिए उसके साथ 'सार' पद लगाया है। तस्वार्थसूत्र में भी मिथ्यादर्शनादिका परिहार करनेके लिए दर्शनादिकके साथ सम्यक् पद लगा है।
मग्गो मागफल ति य दुविहं जिणसासणे समक्खादं । मग्गो मोक्खउवायो तस्स फलं होइ णिव्याणं ।। णियमेण य ज कज्जं तणियम णाणदसणचरितं ।
विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि क्षणं ।' तत्त्वार्थसूत्रके द्वितीय सूत्र तथा चतुर्थ सूत्रका आधार भी कुन्दकुन्दके ग्रन्थ हैं । कुन्दकुन्दने सम्यकदर्शनका स्वरूप वतलाते हुए लिखा है
"अत्तागमतच्चाणं सद्दणादो हवेइ सम्मत्तं ।।"२ आप्त, आगम और तत्त्वोंके श्रद्धानको सम्यकदर्शन कहते हैं और तत्त्वार्थ आगममें कहे हुए पदार्थ हैं।
तत्वार्थसूत्रकारने नियमसारके उक्त सन्दर्भको स्रोत मानकर 'सत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यकदर्शनम्"[१-२]सूत्र लिखा है। वस्तुतः यह सूत्र "तच्चाणं सहपादो हवेइ सम्मत्त"का अनुवाद है । सात तत्त्वोंके नाम कुन्दकुन्दके 'भावपाहुड' आदि ग्रन्थोंमें मिलते हैं। "सरसंख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च" [१-८J सूत्रका स्रोत 'षट्खण्डागम'का निम्नलिखित सूत्र है__ "संतपरूवणा दव्वपमाणाणुगमो खेत्ताणुगमो कोसणाणुगमो कालाणुगमो अंतराणुगमो भावाणुगमो अप्पाबहुगाणुगमो चेदि ।" [१-१-७] १. नियमसार, गाषा २,३ । २, बहा, गाथा ५ । ३. वही, गाथा ८।
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गृद्धपिच्छाचार्यने षट्स्खण्डागमके इन आठ अनुयोगद्वारोंको लेकर उक्त सूत्रकी रचना की है । मति, श्रुत आदि पांच ज्ञानोंका जैसा वर्णन तत्वासूत्रमें आया है वह स्रोतकी दृष्टिसे षटवण्डागमके वर्गणाखण्डके अन्तर्गत कर्मप्रकृति-अनुयोगद्वारसे अधिक निकट प्रतीत होता है। इसी प्रकार तत्त्वार्थसूत्रमें 'मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ता [१।१३]को मतिज्ञानके नामान्तर कहा है। इसका स्रोतषट्कण्डागमके कर्मप्रकृति अनुयोगद्वारका 'सण्णा सदो मदीचिन्ता चेदि' ५-५-४१] सूत्र है। इसी प्रकार 'भवप्रत्ययोऽधिदेवनारकामाम् [तत्त्वार्थसूत्र १।२१]का स्रोत षट्खण्डागमके कर्मप्रकृति-अनुयोगद्वारका 'जं तं भवपच्चइयं तं देव-णेरइयाणं" [५-५-५४] सूत्र है।
तत्त्वार्थसत्रमें पांच ज्ञानोंको प्रमाण मानकर उनके प्रत्यक्ष ओर परोक्ष भेद किये गये हैं । इन भेदोंका स्रोत प्रवचनसारकी निम्नलिखित गाथा है
जं परदो विण्णाणं तं तु परोक्ख ति मणिदमत्थेसु ।
जदि केवलेण णादं हदि हि जोवण पच्चक्खं ।' अर्थात् पदार्थविषयक जो ज्ञान परकी सहायतासे होता है, वह परोक्ष कहलाता है और जो ज्ञान केवल आत्माके द्वारा जाना जाता है वह प्रत्यक्ष कहलाता है ।
द्वितीय अध्यायके प्रारम्भमें प्रतिपादित पांच भावोक बोधक सूत्रका स्रोत पञ्चास्तिकायकी निम्न लिखित गाथा है
उदयेण उचसमेण य खयेण दुहि मिस्सदेहि परिणामे ।
जुत्ता ते जीवगुणा बहुसु अत्थेसु विच्छिण्णा ॥२ पञ्चम अध्यायमें प्रतिपादित द्रव्य, गुण, पर्याय, अस्तिकाय आदि विषयोंके स्रोत आचार्य कन्दकुन्दके पश्चास्तिकाय, प्रवचनसार और नियमसारकी अनेक गाथाओंमें प्राप्य हैं। तत्त्वार्थसूत्रमें द्रव्यलक्षणका निरूपण दो प्रकारसे आया है। उसके लिए सत्की परिभाषाके पश्चात् “सद्व्यलक्षणम्" (५।२९) और "गुणपर्ययवद्रव्यम्" (५:३८) सूत्रोंकी रचना की है। ये सभी सूत्र कुन्दकुन्दकी निम्र गाथासे सृजित हैं
"दव्वं सल्लक्खणियं उप्यादन्वयधुवत्त संजुत्तं ।
गुणपज्जयासयं वा जं तं भणति सम्वण्हू ।। पंचम अध्यायमें "स्निग्धरूक्षत्वाद्वन्धः', 'न जघन्यगुणाना', 'गुणसाम्ये सदृशानाम्'; 'द्वधिकादिगुणनां तु [५-३३,३४,३५,३६] सूत्रोंद्वारा स्निग्ध और १, प्रवचनसार, ज्ञानाधिकार, गाथा-५८ । २. पश्चास्तिकाय, गाया ५६ । ३. पश्चास्तिकाम, गाथा १० ।
१६. : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परर
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रूक्ष गुणवाले परमाणुओंके बन्धका विधान आया है। वे सुत्र प्रवचनसारको निम्न गाथाओंपरसे रचे गये हैं
गिद्धा वा लुक्खा वा अणुपरिणामा समा व विसमा वा । समदी दुगधिगा जदि वझति हि आदिपरिहीणा ! गिद्धत्तणेण दुगणी चदुगुणणि द्वेण बंधमणुभवदि । लुमखेण वा तिगुणिदो अणु वज्झदि पंचगुणजुत्तो।। दूपदेसादी खंधा सुहमा वा बादरा ससंठाणा ।
पुढविजलतेउवाक रामपरिणामेहि मा।। अपने शक्त्यशोंमें परिगमन करनेवाले परमाणु यदि स्निग्ध हों अथवा कक्ष हो, दो, चार, छह, आदि अशोकी गणनाको अपेक्षा सम हों, अथवा तीन, पाँच, मात आदि अंशोंको अपेक्षा विषम हों, अपने अंशोंसे दो अधिक हों, और जघन्य अंशमे रहित हो. तो परस्पर बन्धको प्राप्त होते हैं।
स्निग्ध गुणके दो अंशोंको धारण करनेवाले परमाण चतुर्गुण स्निम्पके साथ बंधते हैं । रूक्षगणके तीन अंशोंको धारण करनेवाला परमाणु पांचगुणयुक्त रूक्ष अंशको धारण करनेवाले परमाणु के साथ बन्धको प्राप्त होता है।
दो प्रदेशोंको आदि लेकर सख्यात, असंख्यात और अनन्तपर्यन्त प्रदेशको धारण करनेवाले सूक्ष्म अथवा बादर विभिन्न आकारोसे सहित तथा पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुरूप स्कन्ध अपने-अपने स्निग्ध और रूक्ष गणोंके परिणमनसे होते हैं। ___ इसी प्रकार "बन्धेऽधिको पारिणामिको"|५|३७]सूत्रका स्रोत षट्त्रण्डागमके वर्गणाखण्डका बन्ध-विधान है।
तत्त्वार्थसत्रके षष्ठ अध्यायमें तीर्थकरनामकर्मके बन्धमें कारणभूत सोलह कारणोंका निर्देशक सूत्र निम्न प्रकार है--
दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलवतेष्वनतिचारोऽभोक्षण ज्ञानोपयोगसंवेगो शक्तितस्त्यागसपसी साधुसमाधियावृत्यकरण महंदावार्य बहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्गिप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरवस्य ।। [६-२४]
अर्थात् १ दर्शनविशुद्धि, २ विनयसम्पन्नता, ३ शीलवतोंमें अनतिवार, ४ अभीक्षणज्ञानोपयोग,५संवेग, ६ शक्तितः त्याग,७ शक्तितः तप, ८ साधुसमाधि, १. प्रवचनसार, जयाधिकार, गाथा ७३,७४,७५ ।
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९. वैयावृत्यकरण, १० अदुभक्ति, ११ आचार्यभक्ति १२ बहुश्रुतभवित १३ प्रवचन भक्ति, १४ आवश्यका परिहाणि १५ मार्गप्रभावना और १६ प्रवचनवत्सलत्व ये सोलह भावनाएं तीर्थकरनामकर्मके चन्धको कारण है ।
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उपर्युक्त सूत्रका स्रोत 'षट्खण्डागम' के 'वंधसामित्तविचओ' का निम्न सूत्र है - दंसणविसुज्झदाए विनयसंपण्णदाय सोलव्वदेसु निरदिचारदाए आवासएसु अपरिहीणदाए खण लव - पडबुज्झनदाए लद्धिसंग संपण्णदाए जधाथामे तधात्तवे साहूणं पासुअपरिचानदाए साहूण समाहिसधारणाए माहूणं वेज्जावच्चजोगजुत्तदाए अरहंतमत्तीए बहुसुदभत्तीए पवयणभत्तीए गवयणवच्छलदाए पवयणउपभावणदाए अभिक्खणं अभिक्खणं गाणोवजोगजुतदार, इच्नेदेहि सांसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदं कम्म बघत ॥
दोनों सूत्रों के अध्ययन से स्पष्ट ज्ञान होता है कि गृद्धपिच्छाचार्य प्राकृतसूत्रका संस्कृत रूपान्तर कर दिया है।
तत्वार्थ सूत्र के नवम अध्यायमें बारह अनुप्रेक्षाओं का कपन आया है। इनका स्रोत 'भगवती आराधना', 'मूलाचार' एवं कुन्दकुन्दाचार्यको 'बारसअणुवेक्खा' है । इन तीनों ग्रन्थोंमें द्वादश अनुप्रेक्षाओंको गिनाने वाली गाथा एक ही है । तत्त्वार्थसूत्रकारने द्वादश अनुप्रेक्षाओंके क्रम में मात्र कुछ अन्तर किया है तथा प्रथमानुप्रेक्षाका नाम अनित्य रखा है, जबकि इन ग्रन्थोंमें अव है ।
तत्त्वार्थसूत्र के नवम अध्यायके नवम सूत्रमें २२ परीषहों के नाम गिनाये गए हैं। उनमें एक 'नाग्न्य' परिषह भा है । 'नाग्न्य' का अर्थ नंगापना है । यहाँ आचार्यने अचेलकी अपेक्षा 'नाग्न्य' पदके प्रयोगको अधिक महत्त्व दिया है । इससे ज्ञात होता है कि सूत्रकर्ताको साधुओं की नग्नता इष्ट श्री और उन्हें उसका परीषह सहना ही चाहिए, यह भी मान्य था ।
इस तरह षट्खण्डागम और कुन्दकुन्द साहित्य में तस्वार्थसूत्रके सूत्रोंके अनेक बीज वर्त्तमान हैं ।
सूत्रपाठ
तत्वार्थ सूत्रके दो सूत्रपाठ उपलब्ध होते हैं । पहला सूत्रपाठ वह है जिसपर पूज्यपाद, अकलंकदेव और विद्यानन्दने टीकाएं लिखी है। यह पाठ दिगम्बर परम्परा में प्रचलित है। दूसरा पाठ वह है, जिसपर तस्वार्थाधिगमभाष्य पाया जाता है तथा सिद्धसेन गणि और हरिभद्रने अपनी टीकाएं लिखी हैं। इस दूसरे
१. षट्खण्डागम, पुस्तक ८, पृ० ७९ ।
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सूत्रपाठका प्रचार श्वेताम्बर परम्परा है। इन दोनों सूबपाठोंमें जो अन्तर है, वह निम्न प्रकार अवगत किया जा सकता है--
दोनों पाठोंके अनुसार दशों अध्यायोंके मूत्रोंकी संख्याप्रथमपाठ--३३ +५३ + ३१ + ४२+४२ + २७ + ३९ + २६ + ४७ +९ - ३५७ द्वित्तीयपाठ-३५ + १२+१८+५३+४४ + २६ + ३४ + २६ + ४९ +७% ३४४
दोनों पाठोंके अध्ययनसे ज्ञात होता है कि प्रथम अध्यायमें दो सूत्रोंकी हीनाधिकता है । प्रथम पाठको अपेक्षा द्वितीय पाठमें दो सूत्र अधिक हैं। प्रथम सूत्र 'द्विविघोऽवधिः' [११२१]-अवधिज्ञानके दो मेद हैं | इस सूत्र में कोई सैद्धान्तिक मतभेद नहीं है । अन्तिम दो सूविचारणीय हैं-"नेगमसंग्रहव्यवहारजसत्रशब्दा नयाः"[१३४] आधशब्दो द्वित्रिभेदो' [१॥३५] ये दोनों सूत्र द्वितीय पाठमें मिलते हैं। प्रथम पाठमें नयके सात भेद माने गये हैं, और इन सातोंके नामोंको बतलाने वाला एक ही सूत्र हैं। पर दमरे पाठके अनुसार नयके मूल पाँच मेद है, और उनमें से प्रथम 'गमनय'के दो भेद है और 'शब्दनय के साम्प्रत, समभिरुन और एवंभूत ये तोन मेद हैं। सप्तनयको परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। यह दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों हो बागमोंमें पायी जाती है। तत्त्वार्थसूत्रमें यह जो द्वितीय मान्यता आयो है, उसका समन्वय दिगम्बर और प्येताम्बर दोनों ही परम्पराओंके साथ सम्भव नहीं है । यह तो एक नयो परम्परा है, जिसका आरम्भ तत्त्वार्थाधिगमभाष्यसे होता है। ___ पन्द्रहवें सूत्रमें मत्तिमानका तीसरा मेद भाष्यके अनुसार 'अपाय है और सर्वार्थसिद्धिके अनुसार 'अवाय' है । पंडित सुखलालजी द्वारा सम्पादित 'तत्त्वाथंसूत्र में 'अपाय के स्थानपर 'अवाय पाठ ही मिलता है। नन्दिसूत्र में भी 'अवाय' पाठ है । अकलंकदेवने अपने तत्त्वावातिकमें दोनों पाठों में केवल शब्दभेद बतलाया है। किन्तु उभयपरम्परासम्मत प्राचीन पाठ 'अवाय' ही है, 'अपाय' नहीं। सोलहवें सत्र 'बहबहविष' आदिमें प्रथम पाठमें 'अनिसतानुक्त' पाठ है और दूसरी मान्यतामें 'अनिसृतासन्दिग्ध' पाठ है। इसी प्रकार अवधिज्ञानके दूसरे मेदके प्रतिपादक सूत्रमें प्रथमपाठमें 'क्षयोपशमनिमित्तः' पाठ है
और दूसरे में 'यथोक्तनिर्मितः' पाठ है। इन दोनों पाठोंके बाशयमें कोई अन्तर नहीं है।
द्वितीय अध्यायमें प्रथमपाठके अनुसार 'तेजसमपि' [२२४८ तथा शेषास्त्रिवेदाः [२।१२) ये दो सूत्र अधिक हैं। इसी तरह दूसरे सूत्रपाठमें 'उपयोगः स्पर्शादिषु' [२९] सूत्र अधिक है। शेष सूत्रों में समानता होते हुए भी कतिपय स्थलोंमें अन्तर पाया जाता है। प्रथम मूत्रपाठमें 'जीवभव्याभव्यस्खानि च'
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[२७] पाया जाता है, और द्वितीय सूत्रपाठ में इसके स्थानपर 'जीवभव्याभव्यस्वादीनि च ' [२७] सूत्र है । प्रथम पाठमें जिन पारिणामिक मानोंका ग्रहण 'च' शब्दसे किया है, द्वितीय पाठ में उन्हींका ग्रहण आदि पदसे किया है । अकलंकदेवने आदिपदको सदोष बतलाया है ।"
संसारी जोवोके त्रस और स्थावर ये दो मेद आये हैं । स्थावरके पाँच भेद हैं। इनकी मान्यता दोनों सूत्रपाठोंमें तुल्य है, पर उसका अर्थ भाष्य में बताया है कि जो चलता है, वह उस है । इस अपेक्षासे दूसरे सूत्रपाठ में तैजसकायिक और वायुकायिकको भी त्रप कहा गया है, क्योंकि वायु और अग्नि कायमें चलनकिया पायी जाती है। अतएव द्वितीय अध्यायके तेरह और चौदहवें सूत्रमें अन्तर पड़ गया है। द्वितीय अध्यायके अन्य सूत्रोंमें मो कतिपय स्थलोंपर अन्तर विद्यमान है |
प्रथमसूत्रपाठ
१. एकसमयाऽविग्रहा ||२९|| २. एकं द्वो त्रीन्वाऽनाहारक ||३०|| ३. जराभाडोतानां गर्भः ॥ ४. देवनारकाणामुपपादः ॥३४॥ परं परं सूक्ष्मम् ||३७ ६. ओपपादिक- चरमोत्तमदेहा संख्येयवर्षायुषोऽनपवर्त्यायुषः ॥ ५३ ॥
५.
द्वितीय सूत्रपाठ
एक समयोऽविग्रहः
एकं द्वौ वाऽनाहारकः जरत्खण्डोतजानां गर्भः नारकदेवानामुपपासः
||३०||
॥३१॥
१०३४।।
॥३५॥
||३८||
परं परं सूक्ष्मम्
औपपातिकच रमदेहोत्तमपुरुषाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवर्त्यायुषः
।।५२।।
इन सूत्रोंमें शाब्दिक अन्तर रहनेके कारण सैद्धान्तिक दृष्टिसे भी मतभिन्नता है |
तृतीय अध्याय में प्रथम पाठके अनुसार द्वितीय पाठसे २१ सूत्र अधिक है । द्वितीय पाठमें वे सूत्र नहीं हैं। तृतीय अध्यायके प्रथम सूत्रके पाठ में थोड़ा अन्तर पाया जाता है । द्वितीय पाठ में 'अघोघ' और 'पृथुतरा:' पाठ है जबकि पहले में 'पृथुतराः' पाठ नहीं है। अकलंकदेवने अपने तत्त्वार्थवात्तिकमें इस पाठकी आलोचना की है और उसे सदोष बताया है ।
चतुरं अध्यायमें स्वर्गक संख्या- सूचक सूत्रमें अन्तर है। प्रथम पाठके अनु सार सोलह स्वर्गं गिनाये गये हैं, पर द्वित्तीय पाठके अनुसार बारह ही स्वर्ग परिगमित हैं । स्वर्ग देवोंमें प्रविचारको बतलाने वाले सूत्रमें 'शेषाः स्पर्शरूप
१. सत्स्वार्थवासिक, पृ० ११३ ।
२. पंडित सुखलालजी द्वारा सम्पादित तस्वार्थसूत्र की भूमिका ।
१६४ : सीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा
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शब्दमनःप्रयीचारा' [४८] के स्थानपर 'शेषाः प्रविचारा द्वयोद्वयोः [४९] पाठ आया है। इस द्वितीयपाठमें 'द्वयोदयोः' पाठ अधिक है। बकलंकने इस पाठकी आलोचनाकर इसे आर्षविरुद्ध बतलाया है। प्रथम सूत्रपाठमें लौकान्तिक देवोंकी स्थितिका प्रतिपादक सूत्र आया है, पर द्वित्तीय सूत्रपाठमें वह नहीं है ।
पाँचवें अध्यायमें द्वितीय सूत्रपाठमें "द्रव्याणि जीवाश्च" यह एक सूत्र है। किन्तु प्रथम सूत्रपाठमें 'द्रव्याणि' [पा२] और 'जीवाश्च' [५३] ये दो सूत्र हैं। तत्त्वार्थवातिकमें अफलंकदेवने 'द्रव्याणि जीवाः'-इस प्रकारके एक सूत्रको मीमांसा करते हुए एक ही सूत्र रखनेका समर्थन किया है । इसी प्रकार प्रथम सूत्रपाठके 'असंख्ययाः प्रदेशाः धर्माधर्मकजीवानाम्' [५३८] ये दो सूत्र द्वितीय सूत्रपाठमें स्वीकृत हैं । प्रथम सूत्रपाठमें 'सद् द्रव्यलक्षणम्' [५।२९] यह सूत्र आया है । पर द्वितीय सूत्रपाठमें यह सूत्र नहीं मिलता। इस सूफा आशय भाष्यकारने अवश्य स्पष्ट किया है।
इसी प्रकार प्रथम सत्रपाठमें "बन्धेऽधिको पारिणामिको" [५।३६) सूत्र आया है । इसके स्थानपर द्वितीय सूत्रपाठमें "बन्धे समधिको पारिणामिको" [५३६] सूत्र है। आचार्य अकलंकदेवने 'समधिको' पाठको आलोचना करते हए उसे आर्षविरुद्ध बतलाया है और अपने पक्ष के समर्थनमें खटखण्डागमका प्रमाण दिया है।
प्रथम सत्रपाठके "कालश्च" [५.३९/ सूत्रके स्थानपर दूसरे सूत्रपाठमें "कालाचेत्येके" [५।३८] सूत्र आया है। इस अन्तरका कारण यह है कि दिग. म्बर परम्परामें कालको द्रव्य माना गया है। पर श्वेताम्बर पश्पयमें कालद्रव्यके सम्बन्धमें मतभेद है।
द्वितीय सूत्रपाठके 'अनादिरादिमांश्च' [५।४२), 'रूपिब्वादिमान् [५।४३] और 'योगोपयोगी जोवेषु' ५४४] ये तीन सूत्र प्रथम सूत्रपाठमें नहीं है। इन सूत्रोंमें बाये हुए सिद्धान्तोंको समीक्षा अकलकदेवने की है।
षष्ठ अध्यायमें बाये हुए सूत्र दोनों ही सूत्रपाठोंमें सिद्धान्तको दृष्टिसे समान हैं । पर कहीं-कहीं प्रथम सूत्रपाके एक ही सूत्रके दो सूत्र द्वितीय सूत्रपाठये मिलते हैं । प्रथम सूत्रपाठमें "शुमः पुण्यस्याशुभः पापस्य" [६।३] सूत्र यामाहे । द्वितीय सूत्रपाठमें इसके "शुभः पुण्यस्य" [३३] और "अशुमः पापस्य" ६४] ये दो सत्र मिलते हैं। इसी प्रकार प्रथम सत्रपाठमें "अल्पारम्भपरिपहत्वं मानुषस्य" [६३१७) और "स्वभावमार्दवञ्च" [१११८दो सूत्र थाये है। पर द्वितीय सूत्रपाठमें इन दोनोंके स्थानपर "अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवावं च मानुषस्य" [६।१८] यह एक सूत्र प्राप्त होता है ।
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इस षष्ठ अध्यायमें प्रथम सूत्रपाठ " सम्यक्त्वञ्च" [ ६।२१] सूत्र आया है। पर द्वितीय सूत्रपाठ में यह सूत्र नहीं मिलता है ।
सप्तम अध्यायमें कई सूत्रोंमें शाब्दिक अन्तर आया है। कुछ सूत्र ऐसे भी हैं जो प्रथम सूत्रपाठ उपलब्ध हैं, पर द्वित्तीयमें नहीं । प्रथम सूत्रपाठ व्रतोंको स्थिर करनेके लिए बहिंसादिव्रतोंकी पांच-पांच भावनाएं बतलायी गयी है । इन भावनाओंका अनुचिन्तन करनेसे व्रत स्थिर रहते हैं । अत्तः प्रथम सूत्रपाठ में अहिंसाव्रतकी "वाङ्मनो गुप्तीर्वादाननिक्षेपण समित्या लोकितपानमोजनानि पञ्च" [ ७|४] सत्याणुत्तकी "क्रोध-लोम - मोरुत्व हास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचि भाषणञ्च -मैक्ष्यपञ्च" [७|५] अयोयंव्रतकी "शून्यागार - विमोचितावास-परोपरोधाकरणशुद्धि-सधर्मादिसंवादाः पञ्च ।" [७१६], ब्रह्मचर्य व्रतकी "स्त्री रागकथाश्रवणतन्मनोहराङ्गनिरीक्षण - पूर्वरतानुस्मरण-वृष्येष्टरस-स्वशरीसंस्कारत्यागाः पञ्च" i७७] और परिभ्रहत्यागम्रतके "मनोज्ञामनोकेन्द्रियविषय-राग-द्वेष-वर्जनानि पञ्च” [७|८] — भावनाबोधक सूत्र आये है । ये पांचों सूत्र द्वितीय सूत्रपाठ में नहीं है । किन्तु तृतीय सूत्रके भाष्यमें इनका भाव आ गया है।
अष्टम अध्यायमें प्रथम सूत्रपाठ " सकषायत्वाञ्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गछानादत्ते स बन्धः " [८/२] सूत्र आया है। द्वित्तीय सुत्रपाठमें इसके दो रूप मिलते है । प्रथम सूत्रमें "सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्दपुद्गलानादत्ते" [2] अंश आया है और दूसरे सूत्र में “स बन्धः” [ ८|३] सूत्र बया है। इस प्रकार एक हो सूत्र के दो सूत्र रूप द्वितीय सूत्रपाठ हो गये हैं। प्रथम सूत्रपाठ में “मति श्रुतावधि-मनः पर्यय - केवलानाम् " [ ८६] सूत्र आया है । पर द्वितीय सूत्रपाठ में इसका संक्षिप्त रूप "मत्या दोनाम्" | ८१७] उपलब्ध होता है । आचार्य अकलंकदेवने "मत्यादीनाम्" पाठको समीक्षा कर प्रथम सूत्रपाठमें आये हुए सूत्रको तर्कसंगत बतलाया है। इसी प्रकार प्रथमसूत्रपाठके "दान लाभ-भोगोपभोग-दीर्याणाम् [ ८|१३] सूत्रके स्थानपर द्वितीय सूत्रपाठ "दानादीनाम् [८|१४] संक्षिप्त सूत्र लाया है। भाष्यकारने "अन्तरायः पञ्चविधः । तद्यथा— दानस्यान्तरायः लाभस्यान्तरायः, भोगस्यान्तराय उपभोगस्यान्तरायः, वीर्यान्तराय इति" उपर्युक्त प्रथम सूत्रपाठ आये 'हुए अन्तरायके मेदोंका नामोल्लेख किया है। पुण्यप्रकृतियोंका प्रतिपादन करनेवाले सूत्रोंमें मौलिक अन्तर बाया है। प्रथम सूत्रपाठमें पुष्यप्रकृतियों की गणना करते हुए लिखा है "सद्ध ेद्य-शुभायुर्नाम - गोत्राणि पुष्यम्" [८/२५] और "अतोऽन्यत् पापम्" [८/२६] कहकर पापप्रकृतियोंकी गणना की है। द्वित्तीय सूत्रपाठ में पुष्पप्रकृतियोंका कवन करते हुए "सद्ध असम्यक्त्व हास्यरतिपुरुषवेदशुभायुर्नामगोत्राणि पुष्यम्" [८/२६ ] लिखा है । इस सूत्र के माध्यमें "अतोऽ
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न्यत् पापम्" कहकर पापप्रकृतियों की गणना की है। मूलपात्रतियोंकी परिगणना करानेवाला कोई सूत्र नहीं आया है।
नवम अध्यायके अनेक सूत्रोंमें शाब्दिक भेद पाधा जाता है । प्रथम सूत्रपाठयें “सामायिक-छेदोपस्थापना - परिहारविशुद्धि-सूक्ष्मसाम्पराय यथाख्यातमिति चारित्रम् ' [ ९।१८] सूत्र आया है । द्वितीय सूत्रपाठ में इस सूत्र का रूप प्रारम्भमं ज्यों-का-त्यों है, पर अन्त में 'यथाख्यातानि चारित्रम्' कर दिया गया है। ध्यानका स्वरूप घतलाते हुए प्रथम सूत्रपाठ में "उत्तम संहननस्यैकाग्र चिन्ता निरोधी ध्यानमान्तर्मुहूर्तात्" सूत्र आया है। पर द्वितीय सूत्रपाठ में इस मूत्रके दो रूप उपलब्ध होते है । प्रथम सूत्र "उत्तम संहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम्" [९/२७] और द्वितीय सूत्र "आ मुहूर्तात्" [२८] प्राप्त होता है। इस प्रकार एक हो सूत्र दो सूत्रोंमें विभक्त है। धर्मध्यानका कथन करने वाले प्रसंग में धर्मध्यानके स्वामीको लेकर दोनों सूत्रपाठोंमें मौलिक अन्तर है । प्रथम सूत्रपाठ धर्मध्यानके प्रतिपादक "आज्ञापाय- विपाक - संस्थान विचयाय धयम्" [ ९।३६ ] सूत्रके अन्तमें स्वाभोका विधायक 'अप्रमत्तसंयत्तस्य' अंग नहीं है । जबकि द्वितीय सूत्रपाठ में है तथा दूसरे सूत्रपाठमें इस सूत्र के बाद जो उपशान्तक्षीणकषाययोश्च" [१९६३८ ] सूत्र आया है वह भी प्रथम सूत्रपाठ में नहीं है ।
दशम अध्याय में प्रथम सूत्रपाठका "बन्धहेत्वभाव-निर्जराभ्या कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः " [१०/२] सूत्र द्वितीय सूत्रपाठ "वन्वहेत्वनावनिर्जराभ्याम्" [१०/२] तथा " कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः " इन दो सूत्रोंके रूपमें मिलता है । इसी प्रकार प्रथम सूत्रपाठके दशम अध्यायके तृताय - चतुर्थ सूत्र द्विताय सूत्रपाठ में एक सूत्र के रूपमें संयुक्त मिलते हैं । "ओपशमिकादिभव्यत्वानाञ्च |१०|३] सूत्रके स्थानपर "औपशमिका दिभव्यत्वाभावाच्चान्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शन सिद्धत्वेभ्य:" [१०१४ | पाठ मिलता है । प्रथम सूत्रपाठके सप्तम और अष्टम सूत्र द्वितीय सूत्रपाठ नहीं हैं। उनकी पूर्ति भाष्य में की गयी है ।
इस प्रकार दोनों सूत्रपाठोंका समोक्षात्मक अध्ययन करने से अवगत होता है कि गुद्धपिच्छाचायके मूल सूत्रपाठ वाचक उमास्वातिने तत्त्वार्थाधिगमभाष्य लिखते समय मूल सूत्रपाठ यत्किञ्चित् अन्तर कर किन्हीं सूत्रोंको छोड़ दिया और कुछ नये सूत्र जोड़ दिये हैं । तत्त्वार्थाधिगमभाष्यका अध्ययन करनेसे यह भी स्पष्ट होता है कि भाष्य में जो सूत्रपाठ आये है उनमेंसे सिद्धसेन की टीका में अनेक पाठभेदों का उल्लेख किया गया है । अतः भाष्यसम्मत सूत्रपाठले सिद्धसेनगणि और हरिभद्रके सूत्रपाठोंमें अन्तर पाया जाता है ।
तर और सारस्वताचार्य : १६७
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स
मङ्गलाचरण
तत्त्वार्थ सबके मङ्गलाचरणक विषयम पर्याप्त विवाद रहा । कुछ विद्वानोंका मत था कि सर्वार्थसिद्धिको उत्थानिकाम दिये गये प्रश्नोत्तरको देखते हुए तत्त्वार्थसूत्रकारने मङ्गलाचरण किये बिना ही तत्त्वार्यसूत्रकी रचना की है। 'मोक्षमार्गस्य नतारम् आदि मङ्गल-पद्यको जो तत्वार्थसूत्रका मङ्गलाचरण बताया जाता है वह सर्वार्थसिद्धिके आरम्भमें निबद्ध होने तथा सर्वार्थसिद्धिकारको जसपर व्याख्या उपलब्ध न होनेसे उसोका मङ्गलाचरण है, तत्त्वार्थसुत्रका नहीं। पर इसके विपरीत दूसरे अनेक विद्वानोंका मत है कि सूत्रकारने तत्त्वार्थसत्रके आरम्ममें मङ्गलाचरण किया है और वह 'मोक्षमार्गस्थ नेतारम्' आदि श्लाक उसीका मङ्गलाचरण है । सायोखिमें यह मूल सा : सृत हुआ है। सत्वार्थसूत्रकार आचार्य गपिच्छ परम आस्तिक थे । वे मङ्गलाचरणकी प्राचीन परम्पराका उल्लंघन नहीं कर सकते। अतः 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' आदि पद्य उन्हीं द्वारा तत्त्वायंसूत्रके आरम्भमें निबद्ध मङ्गलाचरण है। टीकाकार पूज्यपाद-देवनन्दिने उसे अपनी टोका सर्वार्थसिद्धिमें अपना लिया है और इसोसे उसको उन्होंने व्याख्या भी नहीं की ।
डॉक्टर दरबारीलाल कोठियाने 'तत्त्वार्थसत्रका मङ्गलाचरण' शीर्षक दो विस्तृत निबन्धोंमें आचार्य विद्यानन्दके प्रचुर ग्रन्योल्लेखों एवं अन्य प्रमाणोंसे सबलताके साथ सिद्ध किया है कि तत्त्वार्थसूत्रके आरम्भमें 'सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्गः' [११] सूत्रसे पहले मङ्गलाचरण किया गया है और वह उक्त महत्त्वपूर्ण मङ्गलश्लोक ही है, जिसे विद्यानन्दने सूत्रकार एवं शास्त्रकार-रचित 'स्तोत्र' प्रकट करते हुए 'तीर्थोपम', 'प्रथित-पथुपव' और 'स्वामिमोमांसित' बतलाया है । विद्यानन्दके इन उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि स्वामी समन्तभद्रने इसी मङ्गलश्लोकके व्याख्यानमें अपनी महत्त्वपूर्ण कृति 'आप्तमीमांसा' लिखो और स्वयं विद्यानन्दने भी ससीके व्याख्यानमें आप्तपरीक्षा रची। सूत्रकार एवं शास्त्रकार पदोंसे विद्यानन्दका अभिप्राय तस्वार्थ सूत्रकारसे है, तत्त्वार्थवृत्तिकारसे नहीं है। सर्वार्थसिद्धिमें उसे अपना मङ्गलाचरण बना लिया गया है और इसी कारण उसकी व्याख्या मो नहीं की गयी।
अत: 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' आदि मङ्गल-पच तत्वार्थ सूत्रका हो आचार्य गुपिच्छ द्वारा रचित मङ्गलाचरण है।
१. बनेकान्त वर्ष ५, अङ्क ६, ७ व १०, ११, वीर सेवा मन्दिर: सरसावा (सहारनपुर) २, आसपरीक्षा, कारिका ३ एवं १२३, बोर सेवामन्दिर-संस्करग, सन् १९४९ ।
१६८ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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रचना-प्रतिभा एवं रचना-शैली
गृपिच्छाचायंक तत्त्वार्थसूत्रका अध्ययन करनेसे अवगत होता है कि उन्होंने 'षट्खण्डागम', 'कषायपाहुड', 'कुन्दकुन्द-साहित्य', 'भगवत्ती आराधना' 'मूलाचार' आदि ग्रन्थोंका सम्यक् परिशोलन कर इस सूत्रग्रन्थको रचना की है । द्रव्यानुयोग, करणानुयोग और चरणानुयोगका कोई भी विषय उनसे छूटने नहीं पाया है । आधुनिक विषयोंको दृष्टि से भूगोल, खगोल, आचार, अध्यात्म, द्रव्य, गुण, पर्याय, पदार्थ, सृष्टिविद्या, कर्म-विज्ञान आदि विषय भी चर्चित हैं। आगमके अन्य प्रतिपाद्य पदार्थो का भी प्रतिपादन इस सत्रग्रन्थ में पाया जाता है । अतएव गृपिच्छाचार्य श्रुतघरपरम्पराके बहुन आचार्य हैं। अनेक विषयोंको संक्षेपमें प्रस्तुत कर 'गागरमें सागर' भर देने की कहाक्त उन्होंने चरितार्थ को है।
शैलीको दृष्टिसे यह ग्रन्थ वैशेषिकदर्शनके वंशेषिकसत्रशैलीमें लिखा गया है । वैशेषिकसूत्रोंमें जहाँ अपने मन्तव्यके समर्थन हेतु तर्क प्रस्तुत किये गये हैं वहाँ तत्त्वार्थसूत्रमें भी सिद्धान्तोंके समर्थनमें तर्क दिये गये हैं।'
सूत्रशैलोकी जो विशेषताएं पहले कही जा चुकी हैं, वे सभी विशेषताएं इस सूत्रपन्यमें विद्यमान हैं । यह रचना इतनी सुसम्बद्ध और प्रामाणिक है कि भगवान महावीरको द्वादशाशवाणीके समान इसे महत्व प्राप्त है । गृद्धपिच्छाचार्य स्वसमय और परसमयके निष्णात जाता थे। उन्होंने दार्शनिक विषयोंको सत्रशैलीमें बड़ी स्पष्टताके साथ प्रस्तुत किया है । संस्कृत-भाषामें सत्रग्रन्थकी रचनाकर इन्होंने जैन परम्परामें नये युगका आरम्भ किया है। ये ऐसे श्रुतधराचार्य हैं, जिन्होंने एक ओर नवोपलब्ध दृष्टि प्राप्तकर परम्परासे प्राप्त तथ्योंको युगानुरूपमें प्रस्तुत किया है तो दूसरी ओर सांस्कृतिक और आगमिक व्यवस्थाके दायित्वका निर्वाह भी भलीभाँति किया है । फलतः इनके पश्चात् संस्कृत भाषामें भी दार्शनिक, सैद्धान्तिक और काव्यादि ग्रन्थोंका प्रणयन हुआ।
१. देखिए त. सू० १-३२, ५-३२, ५-३३, १०-६,७,८ आदि सूत्र ।
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द्वितीय परिच्छेद सारस्वताचार्य
सारस्वताचायोंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थोंकी टोकाऍ, भाष्य एवं वृत्तियाँ भी रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्थप्रणयनके साथ आगमकी वशवर्तिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी खेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका ग्रन्थोंका सृजन किया है. जिन्हें मौलिकताकी श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है । जहाँ श्रुतधराचार्यांने दृष्टि-प्रवाद सम्बन्धी रचनाएँ लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वताचार्योंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्नविषयक वाङ्मयकी रचना की है । अतएव यह मानना अनुचित नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है ।
सारस्वताचायोंमें कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट है। यहाँ उनकी समस्त
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विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायगा
१. आगमके मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन ।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शनविषयक स्वसन्त्र ग्रन्थोंका निर्माण ।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध ग्रन्थोंका प्रणयन और परम्परासे प्राप्त सिद्धान्तोंका पल्लवन । ___४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन । ६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरित और बाख्यानोंका पथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, समसामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टिव्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोंका सयोजन ।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन ।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुतघराचार्यो से की जा सकती है । विभिन्न विषयक अन्य-रचनामें ये अवितोय हैं।
आचार्य समन्तभद्र समन्तभद्रादिकवीन्द्रभास्वतां स्फुरन्ति यत्रामलसूक्ति रश्मयः । वअन्ति खद्योतवदेव हास्यतां न तत्र किं ज्ञानलवोद्धता जनाः' ।। समन्तभद्रादिमहाकवीश्वराः कुवादिविद्याजयलब्धकीर्तयः । सुतकशास्त्रामृतसारसागरा मयि प्रसीदन्तु कवित्वकांक्षिणि ।।
श्रीमत्समन्तभद्रादिकविकुअरसञ्चयम् ।
मुनिवन्धं जनानन्दं नमामि वचनश्रिये ॥ १. मानाणंव १४१ २. बर्द्धमानसरि, वराङ्गचरित, सोलापुर-संस्करण ११७ ३. बलकारचिन्तामणि ॥३
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सारस्वताचार्यों में सबसे प्रमुख और आद्य आचार्य समन्तभद्र है। जिस प्रकार गृद्धपिच्छाचार्य संस्कृतके प्रथम सूत्रकार है, उसी प्रकार जैन वाङ्मयमें स्वामी समन्तभद्र प्रथम संस्कृत-कवि और प्रथम स्तुतिकार हैं। ये कवि होने के साथ प्रकाण्ड दार्शनिक और गम्भीर चिन्तक भी हैं। इन्हें हम श्रुतधर आचार्य परम्परा और सारस्वत आचार्यपरम्पराको जोड़नेवाली अटूट श्रृंखला कह सकते हैं। इनका व्यक्तित्व श्रुतघर आचार्यों से कम नहीं है ।
स्तोत्र-काव्य का सूत्रपात आचार्य समन्तभद्र से ही होता है। ये स्तोत्र - कवि होने के साथ ऐसे तर्ककुशल मनीषी हैं, जिनकी दार्शनिक रचनाओंपर अकलंक और विद्यानन्द जैसे उद्भट आचार्यों ने टीका और विवृत्तियां लिखकर मौलिक ग्रन्थ रचयिताका यश प्राप्त किया है। वीतरागी तीर्थंकरकी स्तुतियों में दार्शनिक मान्यताओं का समावेश करना असाधारण प्रतिभाका हो फल है ।
आदिपुराण वायं जिहें
वाग्मिल कवित्व और गमकत्व इन चार विशेषणोंसे युक्त बताया है । इतना ही नहीं, जिनसेनने इनको कवि-वेधा कहकर कवियोंको उत्पन्न करनेवाला विधाता भी लिखा है
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कवीनां गमकानाञ्च वादिनां वाग्मिनामपि ।
यशः सामन्तभद्रीय मूर्ध्नि नमः समन्तभद्राय महते यद्वचोच पातेन निभिन्ना: कुमताद्रयः ।। "
चूडामणीयते ॥ कविवेधसे ।
मैं कवि समन्तभद्रको नमस्कार करता हूँ, जो कवियोंसे ब्रह्मा हैं, और जिनके वचनरूप वज्रपातसे मिथ्यामतरूपी पर्वत चूर-चूर हो जाते हैं ।
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स्वतन्त्र कविता करनेवाले कवि शिष्योंको मर्मतक पहुँचानेवाले गमक, शास्त्रार्थ करनेवाले वादी और मनोहर व्याख्यान देनेवाले वाग्मियोंके मस्तक पर समन्तभद्रस्वामीका यश चूड़ामणिके समान आचरण करनेवाला है । वादीभसिंहने अपने 'गद्यचिन्तामणि' ग्रन्थमें समन्तभद्रस्वामीको तार्किक प्रतिमा एवं शास्त्रार्थं करनेकी क्षमताकी सुन्दर व्यंजना को है । समन्तभद्रके समक्ष बड़े-बड़े प्रतिपक्षी सिद्धान्तोंका महत्त्व समाप्त हो जाता था और प्रतिवादी मौन हाकर उनके समक्ष स्तब्ध रह जाते थे ।
सरस्वतीस्वैरविहारभूमयः समन्तभद्रप्रमुखा मुनीश्वराः ।
जयन्ति वाग्वज्रनिपातपाटितप्रती पराद्धान्तमहीघ्रकोटयः * ॥
१. महापुराण भाग १, ११४३-४४ ।
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२. गद्य विन्तामणि ।
१७२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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श्रीसमन्तभद्र मुनीश्वर सरस्वतीको स्वच्छन्द विहारभूमि थे | उनके वचनरूपी वञ्ज्ञ्ज्र के निपातसे प्रतिपक्षी सिद्धान्तरूपी पवंतोंको चोटियाँ चूर-चूर हो गयी थीं । उन्होंने जिनशासनकी गौरवमयी पताकाको नीले आकाश में फहरानेका कार्य किया था। परवादी- पंचानन बर्द्धमानसूरिने समन्तभद्रको 'महाकवीश्वर' और 'सुतर्कशास्त्रामृतसागर' कहकर उनसे कवित्वशक्ति प्राप्त करनेकी प्रार्थनाकी है
समन्तभद्रादिमहाकवाश्वराः कुवादिविद्या जयलब्ध कीर्त्तयः । सुतर्कशास्त्रामृत्तसारसागरा मयि प्रसीदन्तु कवित्वकांक्षिणि' | श्रवणबेलगोलाके शिलालेख न० १०५ में समन्तभद्रकी सुन्दर उक्तियों को वादरूपो हस्तियोंको बस करनेके लिए बच्चाकुंश कहा गया है तथा बतलाया हैं कि समन्तभद्र के प्रभावसे यह सम्पूर्ण पृथ्वी दुर्वादों की वार्तासे भी रहित हो गयी थी.
समन्तभद्रस्स चिराय जीयाद्वादी भवज्रांकुशसूक्तिजाल: । यस्य प्रभावात्सकलावनीयं वन्ध्यास दुर्व्वादुकवार्त्तयापि ॥ स्यात्कार मुद्रित समस्त पदार्थ पूर्ण लो-हमखिलं स खलु व्यनक्ति । दुब्बादुकोक्तितमसा पिहितान्तराल सामन्तभद्र-वचन- स्फुटरत्नदीपः ॥ २ ज्ञानार्णवके रचयिता शुभचन्द्राचार्यते समन्तभद्रको 'कवीन्द्र भास्वान' विशेषय के साथ स्मरण करते हुये उन्हें श्रेष्ठ कवीश्वर कहा है
समन्तभद्रादिकवीन्द्र भास्वतां स्फुरन्ति यत्रा मलसूक्ति रश्मयः । व्रजन्ति खद्योत्तवदेव हास्यतां न तत्र किं ज्ञानलयोद्धता जनाः ||
अजित सेनको 'अलंकारचिन्तामणि' और ब्रह्म अजितके 'हनुमच्चरित्' एवं श्रवणबेलगोलाके अभिलेख नं० ५४ और अभिलेख नं० १०८ में समन्तभद्रका स्मरण महाकविके रूपमें किया गया है ।
इस प्रकार जैन वाङ्मय में समन्तभद्र पूर्ण तेजस्वी विद्वान्, प्रभावशाली दार्शनिक, महावादिविजेता और कवि वेधा के रूपमें स्मरण किये गये हैं । जैनधर्म और जैन सिद्धान्त के मर्मज्ञ विद्वान होनेके साथ तर्क, व्याकरण, छन्द, अलंकार एवं काव्य-कोषादि विषयोंमे पूर्णतया निष्णात थे। अपनी अलौकिक प्रतिभा द्वारा इन्होंने तात्कालिक ज्ञान और विज्ञानके प्रायः समस्त विषयोंको आत्मसात्
१. वाराङ्गचरित, वर्तुमानसूरि प्रकाशक रावजी सखाराम दोशी, ११७ ।
२. जैनशिलालेखसंग्रह, प्रथम भाग, अभिलेखसंख्या १०५, पद्य १७ - १८ । ३. ज्ञानार्णव १ १४ १
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कर लिया था। संस्कृत, प्राकृत आदि विभिन्न भाषाओं के पारंगत विद्वान् थे । स्तुतिविद्याग्रन्यसे इनके शब्दाधिपत्यपर पूरा प्रकाश पड़ता है ।
दक्षिण भारत में उच्च कोटिके संस्कृत-ज्ञानको प्रोत्तेजन, प्रोत्साहन और प्रसारण देने वालोंमें समंतभद्रका नाम उल्लेखनीय है । आप ऐसे युगसंस्थापक है, जिन्होंने जेन विद्याके क्षेत्रमें एक नया आलोक विकीर्ण किया है। अपने समय के प्रचलित नैरात्म्यवाद, शून्यवाद, क्षणिकवाद, ब्रह्माद्वैतवाद, पुरुष एवं प्रकृतिवाद आदिकी समीक्षाकर स्याद्वाद सिद्धांत की प्रतिष्ठा की है । 'अलंकार चिन्तामणि' में 'कविकुञ्जर', 'मुनिबंध' और 'जनानन्द' आदि विशेषणों द्वारा अभिहित किया गया है ।गोल अभिलेखों हो सके प्रणेता और भद्रमूर्ति कहा गया है । इस प्रकार वाङ्मयसे समत्तभद्रके शास्त्रीय ज्ञान और प्रभाकका परिचय प्राप्त होता है ।
जीवन परिचय
समत्तभद्रका जन्म दक्षिणभारत में हुआ था । इन्हें बोल राजवंशका राजकुमार अनुमित किया जाता है । इनके पिता उरगपुर (उरेपुर ) के क्षत्रिय राजा थे । यह स्थान कावेरी नदीके तटपर फणिमण्डलके अंतर्गत अत्यंत समृद्धिशाली माना गया है | श्रवणबेलगोला के दौरवलि जिनदास शास्त्रीके भण्डारमें पायी जाने वाली आप्तमीमांसा की प्रतिके अतमें लिखा है - " इति फणि मंडलालंकारस्योरगपुराधिपसूनोः श्रीस्वामीसमन्तभद्रमुनेः कृतौ आप्तमीमांसायाम्" - इस प्रशस्तिवाक्यसे स्पष्ट है कि समन्तभद्र स्वामीका जन्म क्षत्रियवंशमें हुआ था और उनका जन्मस्थान उरगपुर है । 'राजावलिकये' में आपका जन्म उत्कलिका ग्राममें होना लिखा है, जो प्रायः जगपुरके अंतर्गत हो रहा होगा । आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारका अनुमान है कि यह उरगपुर उरेपुरका ही संस्कृत अथवा श्रुतमधुर नाम है, चोल राजाओं की सबसे प्राचीन ऐतिहासिक राजधानी थी । त्रिचितापोली' का ही प्राचीन नाम उरयूर था। यह नगर कावेरीके तटपर बसा हुआ था, बन्दरगाह था और किसी समय बड़ा ही समृद्धशाली जनपद था !
इनका जन्म नाम शांतिवर्मा बताया जाता है । 'स्तुतिविद्या' अथवा 'जिनस्तुतिशतम्' में, जिसका अपर नाम 'जिनशतक' अथवा 'जिनशत कालंकार' है, "गत्वैकस्तुतमेव" आदि पद्य आया है । इस पद्य में कवि और काव्यका नाम चित्रबद्धरूपमें अंकित है। इस काव्यके छह आरे और नव वलय वाली चित्ररचना परसे 'शांतिवर्मकृतम्' और 'जिनस्तुतिशतम्' ये दो पद निकलते हैं । लिखा
१. स्तुतिविद्या, पद्य ११६ ।
१७४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परस्परा
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है-"पहरं नववलयं चक्रमालिख्य सप्तमवलये शांतिवर्मकृतं इति भवति ।' "चतुर्थवलये जिनस्तुतिशतं इति च भवति अतः कवि-काव्यनामगर्भ चक्रवृत्तं भवति'। इससे स्पष्ट है कि आचार्य समन्तभद्रने 'जिनम्तुतिशतम् का रचयिता शांतिवर्मा कहा है, जो उनका स्वयं नामांतर संभव है। यह सत्य है कि यह नाम मुनि अवस्थाका नहीं हो सकता, क्योंकि वर्मान्त नाम मुनियोके नहीं होते। संभव है कि माता-पिताके द्वारा रखा गया यह समन्तभद्रका जन्मनाम हो। 'स्तुतिविद्या किसी अन्य विद्वान द्वारा रचित न होकर समन्तभद्रकी ही कृति मानी जाती है | टीकाकार महाकवि नरसिंहने-'ताफिकचडामणि श्रीमत् समन्तभद्राचार्यविरचित" सूचित किया है और अभ्य आचार्य और विद्वानोंने भी इसे समत्तभद्रकी कृति कहा है। अतएव समन्तभद्रका जन्मनाम शांसियमा रहा हो, तो कोई आश्चर्य नहीं है। मुनिपर और भस्मक व्याधि ____ मुनि-दीक्षा ग्रहण करनेके पश्चात् जब ये मणुवकहल्ली स्थानमें विचरण कर रहे थे कि उन्हें भस्मक व्याधि नामक भयानक रोग हो गया, जिससे दिगम्बर मुनिपदका निर्वाह उन्हें अशक्य प्रतीत हुआ। अतएव उन्होंने गुरुसे समाधिमरण धारण करनेको अनुमति मांगी | गुरुने भविष्य शिष्यको बादेश देते हुए कहा-.. "आपसे धर्म और साहित्यको बड़ी-बड़ी आशाएं हैं, अत: आप दीक्षा छोड़कर रोग-शमनका उपाय करें। रोग दूर होनेपर पुन: दीक्षा ग्रहण कर लें | गरुके इस आदेशानुसार समन्तभन्न रोगोपचारके हेतु नान्यपदको छोड़कर सन्यासी बन गये और इधर-उधर विचरण करने लगे। पश्चात् वाराणसीमें शिवकोटि राजाके भीमसिंग नामक शिवालयमें जाकर राजाको आर्शीवाद दिया और शिवजीको अर्पण किये जाने वाले नैवेद्यको शिवजोको ही खिला देनेकी घोषणा की। राजा इससे प्रसन्न हुआ और उन्हें शिवजीको नैवेद्य भक्षण करानेको अनुमति दे दी। समन्तभद्र अनुमति प्राप्त कर शिवालयके किवाड़ बन्द कर उस नैवेद्यको स्वयं ही भक्षण कर रोगको शांत करने लगे। शनैः शनैः उनकी व्याधिका उपशम होने लगा और भोगको सामग्री बचने लगी । राजाको इसपर सन्देह हुआ। अतः गुप्तरूपसे उसने शिवालयके भीतर कुछ व्यक्तियोंको छिपा दिया। समन्तभद्रको नैवेद्यका भक्षण करते हुए छिपे व्यक्तियोंने देख लिया। समन्तभद्रने इसे उपसर्ग समझ कर चर्तुविशति तीर्थ करोंकी स्तुति आरंभ की । राजा शिवकोटिके डरानेपर भी समन्तभद्र एकाग्रचित्तसे स्तवन करते रहे, जब ये चन्द्रप्रभ स्वामीकी स्तुति कर रहे थे कि भीमलिंग शिवकी पिण्डी विदीर्ण हो १. स्तुतिषि, वसुनन्दि, पद्य ११६, पृ. १४१ ।
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गयो और मध्यसे चन्द्रप्रभ स्वामीका मनोज स्वर्णनिम्न प्रकट हो गया । समन्तभरके इस महात्म्यको देखकर शिक्कोटि राजा अपने भाई शिवायन सहित आश्चर्य चकित हुआ। समन्तभद्रने वर्द्धमान पर्यन्त चतुर्विशति तीर्थङ्करोंको स्तुति पूर्ण हो जानेपर राजाको आशीर्वाद दिया।
यह कथानक 'राजालिकथे'में उपलय्ध है। सेनगणको पटावलिसे भी इस विषयका समर्थन होता है। पट्टावलीमै भीमलिंग शिवालयमें शिवकोटि गजाके समन्तभद्र द्वारा चमत्कृत और दीक्षित होनेका उल्लेख मिलता है। साथ ही उसे नवतिलिंग देशका राजा सूचित किया है, जिसकी राजधानी सम्भवतः काञ्ची रही होगी। यहाँ यह अनुमान लगाना भी अनुचित नहीं है कि सम्भवत्त: यह घटना काशीकी न होकर काञ्चीको है । काञ्चीको दक्षिण काशी भी कहा जाता रहा है.-"नतिलिंगदेशाभिरामद्राक्षाभिरामभोमलिङ्गस्वयन्वादिस्तोटकोत्कीरण ? रुद्रसान्द्रचदिकाविशदयशःश्रीचन्द्रजिनेन्द्रसदर्शनसमुत्पन्नकौतूहलकलितशिवकोटिमहाराजतपोराज्यस्थापकाचार्यश्रीमत्समन्तभद्रस्वामिनाम्"" ___ इस तथ्यका समर्थन श्रवणबेलगोलाके एक अभिलेखसे भी होता है। अभिलेख में समन्तभद्र स्वामीके भस्मक रोगका निर्देश आया है | आपत्काल समाप्त होने पर उन्होंने पुनः मुनि-दीक्षा ग्रहण की। बताया है
"वन्द्यो भस्मक-मस्म-सास्कृति-पदः पद्मावतीदेवतादत्तोदात्त-पदस्व-मन्त्र-वचन-व्याहत-चन्द्रप्रभः । आचार्यस्स समन्तभद्रगणभृधेनेह काले कली,
जैनं वर्त्म समन्तभद्रमभवद्भद्र समन्तान्मुहुः ।।" अर्थात् जो अपने भस्मक रोगको भस्मसात् करनेमें चतुर हैं, पद्मावती नामक देवीकी दिव्यशक्तिके द्वारा जिन्हें उदात्त पदकी प्राप्ति हुई, जिन्होंने अपने मन्त्रवचनोंसे चन्द्रप्रभको प्रकट किया और जिनके द्वारा यह कल्णाभकारी जैन मार्ग इस कलिकालमें सब ओरसे भद्ररूप हुमा, वे गणनायक आचार्य समन्तभद्र बार-बार वन्दना किये जाने योग्य हैं।
यह अभिलेख शक संवत् १०२२ का है । अतः समन्तभद्रको भस्मक व्याधिको कथा ई० सन्के १०वी, ११वीं शताब्दीमें प्रचलित रही है।
ब्रह्म नेमिदत्तके आराधनाकथाकोश में भी शिवकोटि राजाका उल्लेख है। राजाके शिवालयमें शिव-नवेद्यसे भस्मक-व्याधिको शान्ति और चन्द्रप्रभजिनेन्द्रकी स्तुति पढ़ते समय जिनबिम्बका प्रादुर्भूत होना साथ-साथ वर्णित है। यह १. जैन सिद्धान्त मास्कर, भाग १, किरण १, पृ. ३८ । २. जैन शिलालेखसंग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख संख्या ५४, पृ० १०२ ।
१७६ : तीर्थकर महावीर और रनको आचार्ग-परम्परा
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भी बताया गया है कि शिवकोधि महाराजने जिनदीक्षा भी धारण की थी।
ब्रह्मनेमिदत्तने शिबकोटिको काञ्चो अथवा नव तैलङ्ग देशका राजा न लिखकर वाराणसीका राजा लिखा है | भारतीय इतिहासके आलोडनसे न तो काशीके शिवकोटि राजाकर ही उल्लेख मिलता है और न काञ्चीके ही।
प्रो० ए० चक्रवर्तीने पञ्चास्तिकायकी अपनी अंग्रेजी प्रस्तावनामें बताया है कि काञ्चीका एक पल्लवराजा शिवस्कन्ध वर्मा था, जिसने 'मायदाबोल' का दान-पत्र लिखाया है । इस राजाका समय विष्णगोपसे पूर्व प्रथम शताब्दी ईस्वी है। यदि यही शिवकोटि रहा हो, तो समन्तभद्रके साथ इसका सम्बन्ध घटित हो सकता है। 'राजाबाल कथे', पट्टावलि, एवं श्रवणबेलगोलाके अभिलेखमें शिवकोटिका निर्देश जिस रूपमें किया गया है उस रूपक अध्ययनसे उसके अस्तित्वसे इंकार नहीं किया जा सकता है।
ब्रह्म नेमिदत्तने समन्तभद्रकी कथामें काशोका उल्लेख किया है। पर यह कुछ ठीक प्रतीत नहीं होता ! नाथाके ऐसे भी कुछ अंश हैं जो यथार्थ नहीं . मालम होते । कथामें आया है-'काञ्चोम उस समय भस्मक व्याधिको नाश करनेके लिए स्निग्ध भोजनोंको सम्प्राप्तिका अभाव था। अत: वे काञ्ची छोड़कर उत्तरकी ओर चल दिये। वे पुण्ड्डन्द्रनगरमें पहुंचे। यहाँ बौद्धोंको महती दानशाला देखकर उन्होंने बौद्ध भिक्षुका रूप धारण किया । पर जब वहां भी महान्याधिका उपशम नहीं हुआ तो वे वहाँसे निकलकर अनेक नगरोंमें फूमते हुए दशपुर नगरमें पहुंचे । यहाँ भागवतोंका उन्नत मठ देखकर वे विशिष्ट आहारप्राप्तिकी इच्छासे बौद्ध भिक्षका वेष त्याग वैष्णव संन्यासी बन गये । यहाँके विशिष्ट आहार द्वारा भी जब उनकी भस्मक व्याधि शान्त न हुई, तो वे नाना देशों में घमते हुए वाराणसी पहुंचे और वहीं उन्होंने योगि-
लिङ्ग धारण करके शिवकोटि राजाके शिवालयमें प्रवेश किया। यहां घी-दृध-दही-मिष्टान्न बादिनाना प्रकारके नैवेद्य शिवके भोगके लिए तैयार किये जाते थे। समन्तभदने शिवकोटि राजासे निवेदन किया कि वे अपनी दिव्यशक्ति द्वारा समस्त नेवैद्यको शिवको खिला सकते हैं। राजाका आदेश प्राप्त कर समन्तभद्रने मन्दिरके कपाट बन्द कर समस्त नेवेद्य स्वयं ग्रहण किया और आचमनके पश्चात् किवाड़ खोल दिये । राजा शिवकोटिको महान आश्चर्य हा कि मनोंकी परिमाणमें उपस्थित किया गया नैवेद्य साक्षात् शिवने ही अवतरित होकर ग्रहण किया है। योगिराजकी शक्ति अपूर्व है, अतएव उनको शिवालयका प्रधान पुरोहित नियुक्त किया । समन्तभद्र प्रतिदिन नेवेद्य प्राप्त करने लगे और शनैः शनैः उनको मस्मक व्याधि शान्त होने लगी। मन्दिरके प्रमुख पुरोहितोंने
भूतघर और सारस्थतापार्य : १७७
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ईर्ष्यावश समन्तभद्रकी देखरेख को और राजाको सूचना दी कि तथाकथित योगि शिवको नेवेद्य न ग्रहण कराकर स्वयं नेवेद्य ग्रहण कर लेता है। राजाके आदेश:नसार एक दिन समन्तभद्रको भोजन करते हए पकड़ लिया गया और उनसे शिववो नमस्कार करनेके लिए कहा। समन्तभद्रने उत्तर दिया. "रागीद्वेषी देव मेरे नमस्कारको सहन नहीं कर सकता है। राजाने आशा दी कि अपना सामथ्यं दिखलाकर स्ववचनको सिद्ध करो।
राश्मेिं समन्तभद्रको बचन-निर्वाहको चिन्ता हुई, क्योंकि प्रातःकाल ही सनको अपनी परीक्षामें उत्तीर्ण होना था । उनको चिन्ताके कारण अम्बिका देवीका आसन कम्पित हुआ और वह दौड़कर समन्तभद्रके समक्ष उपस्थित हुई और उन्हें आश्वासन दिया । प्रात:काल होनेपर अपार भीड़ एकत्र हुई और समन्तभद्ने अपना स्वयंभूस्तोत्र आरम्भ किया। जिस समय वे चन्द्रप्रभ भगवानको स्तुति करते हुए 'तमस्तमोरेरिव रश्मिभिन्नम्' यह वाक्य पढ़ रहे थे, उसी समय वह शिवलिङ्ग खण्ड-खण्ड हो गया और उसके स्थानपर चन्द्रप्रम भगवानको चतुमुखी प्रतिमा प्रकट हुई। गजा शिवकोटि समन्तभद्रके इस महत्वको देखकर आश्चर्यचकित हो गया और उसने समन्तभद्रसे उनका परिचय पूछा । समन्तभको उत्तर मैले हुए कहा-..
"काच्या भग्नाटकोऽहं मलमलिनतनुलाम्बशे पाण्डुपिण्डः । पुण्ड्रेण्डे शायभिक्षुर्दशपुरनगरे मिष्टभोजी परिवाट् ।। बाराणस्यामभूवं शशकरधवल; पाण्डुराङ्गस्तपस्वी।
राजन् यस्थास्ति शक्तिः स वदतु पुरतो जैननिर्ग्रन्थवादी॥" मैं काञ्चीमें नग्नदिगम्बर यत्तिके रूपमें रहा, शरीरमें रोग होनेपर पुण्डनगगेमें बौद्ध भिक्षु बनकर मैंने निवास किया 1 पश्चात् दशपुर नगरमें मिष्टान्नभोजो परिवाजक बनकर रहा । अनन्तर वाराणसीमें आकर शेव तपस्वी बना। हे राजन् ! मैं जैननिन्थवादी-स्याद्वादी हूँ । यहाँ जिसकी शक्ति वाद करनेकी हो वह मेरे सम्मुख आफर वाद करे । द्वितीय पद्यमें आया है--
पुर्ण पाटलिपुत्र-मध्य-नगरे भेरी मया ताडिता पश्चान्मालव-सिन्धु-ठक्क-विषये काञ्चीपुरे वैदिशे। प्राप्तोऽहं करहाटक बहुभटं विद्योत्कटं सलूट
वादार्थी विचराम्यहानरपते शाई लविक्रीडितम् ॥ १. विदरनमाला, पु. १६६ । २. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख संख्या-५४, पच-७, १० १०२ । १७८ : सीर्थकर महावीर बोर उमको आचार्य-परम्परा
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मैंने पहले पाटलिपुत्र नगरमें वादको भेरी बजाई। पुनः मालवा, सिन्ध देश, उनक-ढाका(बंगाल), काञ्चीपुर और वैदिश-विदिशा-भेलसाके आसपासके प्रदेशोंमें भेरो बाई । अब बड़े-बड़े वीरोंसे युक्त इस करहाटक-कराड़, जिला सतारा, नगरको प्राप्त हुआ हूँ । इस प्रकार हे राजन् ! मैं वाद करनेके लिए सिंहके समान इतस्ततः कोड़ा करता फिरता हूँ।
राजा शिवकोटिको समन्तभद्रका चमत्कारक उक्त आख्यान सुनकर विरक्ति हो गयी और वह अपने पुत्र श्रीकण्ठको राज्य देकर प्रबजित हो गया । समन्तभद्रने भी गुरुके पास जाकर प्रायश्चित्त ले पुनः दीक्षा ग्रहण की।
ब्रह्म नेमिदत्तके आराधनाकथा-कोषकी उक्त कथा प्रभाचन्द्र के गद्यात्मक लिखे गये कथाकोषके आधारपर लिखी गयी है। बुद्धिवादीकी दृष्टिसे उक्त कथाका परीक्षण करनेपर समस्त तथ्य बुद्धिसंगत प्रतीत नहीं होते हैं, फिर भी इतना तो स्पष्ट है कि समन्तभद्रको मस्मक व्याधि हुई थी और उसका शमन किसी शिवकोटिनामक राजाके शिवालयमें जानेपर हआ था। हमारा अनुमान है कि यह घटना दक्षिण काशी अर्थात् काञ्चीकी होनी चाहिए। गुरु-शिष्यपरम्परा ___ समन्तभद्रको गुरु-शिष्यपरम्पराके सम्बन्धमें अभी तक निर्णीत रूपसे कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। समस्त जन वामय में समन्तभद्रके सम्बन्धमें प्रशंसात्मक उक्तियाँ मिलती हैं। समन्तभद्र वर्धमान स्वामीके तीर्थको सहस्रगनी वृद्धि करने वाले हुए और इन्हें श्रुतकेचलिऋद्धि प्राप्त थी। चन्नरायपट्टण ताल्लुकेके अभिलेख न० १४९में श्रुतकेवलो-संतानको उन्नत करने वाले समन्तभद्र बताये गये हैं
"श्रुतकेवलिगलु पलवरून अतीतर् आद् इम्बलिक्के तत्सन्तानोन्नतियं समन्तभद्
वृत्तिपर बलेन्दरू समस्तविद्यानिधिगल ।' यह अभिलेख शक संवत् १०४७का है। इसमें समन्तभद्रको श्रुतकेलियोंके समान कहा गया है | एक अभिलेखमें बताया है कि श्रुतकेलियों और अन्य आचार्यों के पश्चात् समन्तभद्रस्वामी श्रीवर्धमानस्वामीके तीर्थकी सहस्रगणी वृद्धि करते हुए अभ्युदयको प्राप्त हुए। ___ "श्रीवईमानस्वामिगलु तीर्थदोलु केवलिगलु ऋविप्राप्तरूं श्रुतकेलिगलं १. एफियाफिया कणाटिका, पंचम सिल्व, अभिलेखन नं.-१४९।
श्रुतपर और सारस्वताचार्य : १५९
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पलरूं सिद्धसाध्यर् आगे तत्"...."यंमं सहनगणं माठि समन्तभद्र-स्वामिगलु सन्दर......''
इन आभलेखोंते इतना ही निष्कर्ष निकलता है कि समन्तभद्र श्रुतघरोंकी परम्पराके आचार्य थे | इन्हें जो श्रुतपरम्परा प्राप्त हुई थी, उस श्रुतपरम्पराको इन्होंने बहुत ही वृद्धिंगत किया । __विक्रमकी १४ वीं शताब्दीके विद्वान् कवि हस्तिमल्ल और 'अय्यप्पायने' 'श्रीमलसंघश्योमनेन्दु विशेषण द्वारा इनको मूलसंघरूपी आकाशका चन्दमा बताया है । इससे स्पष्ट है कि समन्तभद्र मूलधक आचार्य छ ।
श्रवणबेलगोलके अभिलेखोंसे ज्ञात होता है कि भद्रबाह श्रुतकेवलोके शिष्य चन्द्रगुप्त, चन्द्रगुप्त मुनिके वंशज पयनन्दि अपरनाम कुन्दकुन्द मुनिराज, उनके वंशज गद्धपिच्छाचार्य और गद्धपिच्छके शिष्य बलाफपिच्छाचार्य और उनके वंशज समन्तभद्र हुए । अभिलेखमें बताया है
"श्रीगद्धपिच्छ-मुनिपस्य बलाफपिच्छ: शिष्योजनिऽष्टभुवनत्रयत्तिकोतिः । चारित्रचञ्चुरखिलावनिपाल-मौलि.
माला-शिलीमुख-विराजितपादपप्रः॥ एवं महाचार्यपरम्परायां स्यात्कारमुद्राङ्किततत्त्वदोपः ।
भद्रस्समन्ताद्गुणतो गणोशस्समन्तभद्रोनि वादिसिंहः ।।" इन पद्योंसे विदित है कि समन्तभद्र कुन्दकुन्द, गृद्धपिच्छाचार्य आदि महान् आचार्योंकी परम्रामें हुए थे।
सेनगणको पट्टावलिमें समन्तभद्रको सेनगणका आचार्य सूचित किया है। यद्यपि इस पट्टा में आचार्योकी नामबद्ध परम्परा अंकित नहीं की गयो है, तो भी इतना स्पष्ट है कि समन्तभद्रको उसमें सेनगणका आचार्य परिगणित किया है।
श्रवणबेलगोलाके अभिलेख नं० १०८ में नन्दि, सेन आदि चार प्रकारके संघभेदका भट्टाकलंकदेवके स्वर्गारोहणके पश्चात् उल्लेख है। परन्तु समन्तभद्र अकलंकदेवसे बहुत पहले हो चुके हैं । अकलंकदेवसे पहलेके साहित्यमें इन चार प्रकारके गणों। कोई उल्लेख भी दिखलाई नहीं पड़ता है। यद्यपि इन्द्रनन्दिके श्रतावतार एवं अभिलेखनं०५०५में इन चारोंसोका प्रवर्तक अहंदबलि आचार्यको १. बेलूर तालुकेका कन्नड़ी अभिलेख न०-१७ । २. जैन शिलालस सग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख संख्या ४०, पच ८-९, १० २५ । ३. जैन सिद्धान्त भास्कर, १५१, जम सिद्धान्त भवन, मारा।
१८० : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्ग-परम्पग
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लिखा है । पर श्रुतावतार अकलंकदेवसे पश्चात्वर्ती रचना है।
तिरूमकूडल नरसिपुर ताल्लुकेके शिलालेख नं. १०५में समन्तभद्रको मिल संघके अन्तर्गत नन्दिसंघकी अरूंगल शाखाका विद्वान् सूचित किया है।
अतः यह निश्चयपूर्वक कह सकना कठिन है कि समन्तभद्र अमुक गण या संघके थे । इतना तथ्य है कि समन्तभद्र गुद्धविच्छाचार्यके 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' मंगलस्तोत्रमें स्तुत आप्तके मीमांसक होनेसे वे उनके तथा कुन्दकुन्दके अन्वयमें
समय-निर्धारण
वाचार्य समन्तभद्रके समयके सम्बन्धमें विद्वानोंने पर्याप्त ऊटापोह किया है। मि. लेविस राईसका अनुमान है कि समन्तभद्र ई० को प्रथम या द्वितीय शताब्दीमें हुए हैं। __ 'कर्नाटक गिनींनो' नाम लड़ी अनाक रायता आर नरसिंहाचार्यने समन्तभद्रका समय शक संवत् ६० (ई० सन् १३८)के लगभग माना है। उनके प्रमाण भी राईसके समान ही हैं।
श्रीयुत् एम० एस० रामस्वामी आयंगरने अपनी "Studies in Sowth Indian Jainisni' नामक पुस्तक में लिखा है-“समन्तभद्र उन प्रख्यात दिगम्बर लेखकोंको श्रेणीमें सबसे प्रथम थे, जिन्होंने प्राचीन राष्ट्रकूट राजाओंके समयमें महान् प्राधान्य प्राप्त किया।" ___ मध्यकालीन भारतीय न्यायके इतिहास (हिस्ट्रो ऑफ दो मिडिआयल स्कूल
ऑफ इण्डियन लाजिक) में डॉ० सतीशचन्द्र विद्याभूषणने यह अनुमान प्रकट किया है कि समन्तभद्र ई० सन् ६००के लगभग हुए हैं | उन्होंने अपने इस कथनके लिए कोई तक नहीं दिया। केवल इतना ही बतलाया है कि बौद्ध ताकिफ धर्मकोतिका समकालीन कुमारिलभट्ट है और इनका समय ई० सन् सातवीं शताब्दी है । कुमारिलने समन्तभद्रका निर्देश किया है । अतः कुमारिल. के पूर्व समन्तभद्रका समय मानना उचित है।
सिद्धसेनने अपने न्यायावतारमें समन्तभद्रके रत्नकरण्डकश्रावकाचारका निम्नलिखित पद्य उद्धृत किया है.-.
"आप्तोपजमनुल्लंध्यमदृष्टेष्टविरोषकम् ।
तत्त्वोपदेशकृतसा शास्त्र कापथघट्टनम् ।। १. Inscriptions ar shravan Belgol नामक पुस्तककी प्रस्तावना । २. रस्मकरणश्रावकाचार, पद्य ।
प्रतधर सारस्वताचार्य : १८१
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इस पद्यको लेकर विवाद है । पंडित सुखलालजीका मत है कि यह न्यायाबतारका मल पद्य है। वहींसे यह रत्नकरण्डकश्रावकाचारमें गया है। पर विचार करनेसे यह तर्क संगत प्रतीत नहीं होता है। यतः रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें जिस स्थान पर यह पच आया है वहीं वह क्रमबद्धरूपमें नियोजित है। समन्तभरने सम्यग्दर्शनको परिभाषा जादा दर आप्तमाम मौरोमनने श्रमानो सम्यग्दर्शन कहा है। इस प्रसंगमें उन्होंने सर्व प्रथम आप्तका स्वरूप बतलाया है और तत्पश्चात् आगमका | शास्त्रका स्वरूप बसलाते हुए उक्त पद्य लिखा है। इसके अनन्तर तपोभृतका स्वरूप बतलाया है। अत: क्रमबद्धताको देखते हुए उक्त पद्यका उद्भवस्थान समन्तभद्रका रत्नकरण्डश्रावकाचार है। वह अन्यत्र से उद्धत नहीं है। परन्तु यह स्थिति न्यायावतारमें नहीं है। न्यायावतारमें स्वार्थानुमानका लक्षणनिरूपणके पश्चात् शाब्द-आगम प्रमाणका कथन करनेके लिए एक पद्य, जिसमें शाब्दका पूरा लक्षण आ गया है, निबद्ध कर इस पद्यको उपस्थित किया है, जिसे वहाँसे अलग कर देनेपर ग्रन्थका भङ्ग भी नहीं होता। परन्तु रत्नकरण्डनावकाचारमेंसे उसे हटा देने पर ग्रन्ध-भङ्ग हो जाता है। अत: इस पद्यको न्यायाक्तारमै मूल ग्रन्थरचयिताका नहीं माना जा सकता है । न्यायावतारमें शाब्दप्रमाणका लक्षण निम्न प्रकार है
दृष्टेष्टाव्याहताद्वाक्यात्परमार्थाभिधायिनः ।
तत्त्वग्नाहितयोत्पन्नं मानं शाब्दं प्रकीर्तितम् । इस पद्यके पश्चात् ही उक्त 'आप्तोपज' आदि पद्य दिया है. जो व्यर्थ, पुनरुत और अनावश्यक है। आचार्य श्री जुगलकिशोरने अपने 'स्वामी समन्तभद्र' शीर्षक प्रबन्ध विस्तारसे इसपर विचार किया है। अतएव न्यायावतारमें उल्लिखित उक्त पथके आधार पर समन्तभद्रको उसके कर्ता सिद्धसेनसे उत्तरवर्ती बतलाना समुचित नहीं है।
स्वामी समन्तभद्रके समयपर विचार करनेवाले जैन विचारकोंमें दो विचारधाराएं उपलब्ध हैं। प्रथम विचारधाराके प्रवर्तक पंडित नाथरामजी प्रेमी हैं और उसके समर्थक डॉ० हीरालालजी आदि हैं। प्रेमीजीने स्वामी समन्त. भवका समय छठी शताब्दी माना है। उनका तर्क है कि 'मोक्षमार्गस्य नेतार' मंगलाचरण सूत्रकार उमास्वामीका न होकर सर्वार्थसिद्धिटीकाकार देव. १. रत्नकरण्यायकाचार, पब ।। २. न्यायावतार, सम्पादक ग. पी. एल. पंच, सन् १९२८ । ३, जैन साहित्म और इतिहास, पृ० ४५,४६ । १८२ : तीपंकर महावीर और उनकी आपार्य-परम्परा
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१
नन्दि- पूज्यपादका है और इसी मंगलाचरणके आधार पर स्वामी समन्तभद्रने 'आस मीमांसा' नामक ग्रन्थकी रचना की है। अतएव इनका समय देवनन्दिपूज्यपाद ( ई० ५वीं शती) के अनन्तर होना चाहिये । प्रेमीजीके इस मतका समर्थन कुछ भिन्न युक्तियों द्वारा आचार्य श्रीसुखलालजी संघवी एवं डॉ० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य भी किया है। पंडित सुखलालजोने समन्तभद्रपर प्रसिद्ध ala तार्किक धर्मको र्तिका प्रभाव अनुमित कर उनका समय धर्मकीर्तिके उपरान्त बतलाया है। पं० महेन्द्रकुमारजीने 'मोक्षमार्गस्य नेतारं ' मंगलाच - रणको देवनन्दि-पूज्यपादका सिद्ध कर उसपर आप्तमीमांसा लिखनेवाले समन्तभद्रका समय उनके बाद अर्थात् छठी शताब्दी माना है ।
किन्तु उल्लेखनीय है कि जैन सिद्धान्त भास्कर भाग ९, किरण १ में 'मोक्षमार्गस्थ नेतारम्' शाकसे जो उन्होंने निबन्ध लिखा था और जिसके आधार पर आचार्य समन्तभद्रका उक्त छठी शताब्दी समय निर्धारित किया था, जिसका उल्लेख न्यायकुमुदचन्द्र के द्वितीय भागको प्रस्तावना में किया था, उसपर डॉ० दरबारोलालजी काठियाने 'तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण' शीर्षक दो विस्तृत निबन्धों द्वारा 'अनेकान्स' वर्ष ५, किरण ६, ७ तथा १०, ११ में गहरा विचार करके 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' मंगलस्तोत्रका तत्वार्थ सूत्रकार आचार्य गृद्धपिच्छका सिद्ध किया है। फलतः डॉ० महेन्द्रकुमारजोने अपने पुराने विचारमें परिवर्तन कर समन्तभद्रका समय सिद्धिविनिश्चयटीका' की प्रस्तावना एवं 'जैन दर्शन' ग्रन्थों में ई० सन् द्वितीय शताब्दी स्वीकार कर लिया है, जो आचार्य मुख्तार आदि विद्वानोंकी दृढ़ मान्यता है ।
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आचार्य श्री जुगलकिशोर जो मुख्तार ने समन्तभद्र के साहित्यका गम्भीर आलोडन कर उनका समय विक्रमको द्वितीय शती माना है। इसके इस मतका समर्थन डॉ० ज्योति प्रसाद जैनने अनेक युक्तियोंसे किया है। उन्होंने लिखा है – स्वामां समन्तभद्रका समय १२० - १८५ ई० निर्मित होता है और यह सिद्ध होता है कि उनका जन्म पूर्वतटवर्ती नागराज्य सघके अन्तर्गत उरगपुर (वर्तमान त्रिचनापल्ला ) के नागवंशी चोल नरेश की लिकवमनुके कनिष्ठ पुत्र एवं
१, न्यायकुमुदचन्द्र भाग २ का प्राक्कथन |
२. न्यायकुमुदचन्द्र भाग २ की प्रस्तावना ।
३. सिद्धिविनिश्चमटीका प्रस्तावना, पृ० १७, भारतीयज्ञानपीठ, सभा जैनदर्शन, १० २२, श्रीगणेयाप्रसाद वर्गी जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी ।
४. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, माणि चन्द्रग्रन्थमाला, स्वामी समन्तभद्र शीर्षक प्रबन्ध, तथा अनेक वर्ष १४, किरण१, पृ० ३-८ ।
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उत्तराधिकारी मर्ववर्मन (शेषना) अनुज राजकुमार भारतवर्मनके रूपमें सम्भवसया ई० सन् १२०के लगभग हुमा था, सन् १३८ ई० (पट्टावलि प्रसत्त शक सं०६०)में उन्होंने मनिदीक्षा ली और १८५ ई०के लगभग वे स्वर्गस्थ हुए प्रतीत होते हैं। अतएव समन्तभद्रका समय अनेक प्रमाणोंके आधार पर ईस्वी मन्को द्वितीय शती अवगत होती है।'
इनके चित्रालंकार सम्बन्धी स्तुतिविद्याके आधार पर जो यह कहा जाता है कि समन्तभद्र अलंकृत काव्ययुगके कवि हैं और इनका समय भारविके आस-पास मानना चाहिये । यह तर्क भी अधिक सबल नहीं है। एकाक्षरी या यक्षरी या अन्य चित्रकाव्योंकी परम्परा वैदिक कालसे ही यत्किचित रूप में प्राप्त होने लगती है। दक्षिण भारतमें चित्रकाब्योंकी परम्परा बहुत प्राचीन समयसे चली आ रही है । समन्तभद्ने चित्रकाव्यका प्रयोग उसी परम्पराके आधारपर किया है। अतः उसके आधापर पर उनका समय अर्वाचीन बतलाना युरू नहीं है। अतएव संक्षेपमें समन्तभद्रका समय ई० सन् द्वितीय शताब्दी है और 'माक्षमार्गस्य नेतार'को आचार्य विद्यानन्दने सूत्रकार मृद्धपिच्छका ही मंगलाचरण माना है, सर्वार्थसिद्धिकार पूज्यपाद-देवनन्दिका नहीं । समन्तभरको रचनाएं
संस्कृत काव्यका प्रारम्भ ही स्तुति-काश्यसे हुआ है। जिसप्रकार वैदिक ऋषियोंने स्वानुभूति-जीवनकी जीवन्तधारा और सौन्दयंभावनाको स्तुतिकाव्यको पटभूमिपर ही अंकित किया है, उसीप्रकार स्वामी समन्तमदने भी दर्शन, सिद्धान्त एवं न्यायसम्बन्धी मान्यताओंको स्तुति-काव्यके माध्यमसे अभिव्यक्त किया है । अतएव स्तुतियोंको विभिन्न परम्परामें आद्य जैन स्तुतिकार समन्तभद्रने बौद्धिक चिन्तन और मानवजीवनको प्रोज्जवल कल्पनाको स्तुति-भाग्यके रूपमें हो मूतिमत्ता प्रदान की है। इनके द्वारा रचित स्तुतियोंमें तरल भावनाओंके साथ मस्तिष्कका चिन्तनभी समवेत है। समन्तभद्र द्वारा लिखित निम्नलिखित रचनाएँ मानी जाती हैं१. बृहद स्यम्भूस्तोत्र २. स्तुतिविद्या-जिनशतक । ३. देवागमस्तोत्र-आसमीमांसा ४. युक्त्यनुशासन ५. रत्नकरण्डकश्रावकाचार १. अनेकान्त, वर्ष १४, किरण ११-१२, १० ३३४ । १८४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी माघार्य-परम्परा
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६. जीवसिद्धि
७. तत्त्वानुशासन
८ प्राकृतव्याकरण ९. प्रमाणपदार्थ
१०. कर्मप्रामुतटीका ११. गन्धहस्तिमहाभाष्य
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१. बृहत् स्वम्भूस्तोत्र — इसका अपर नाम स्वम्भूस्तोत्र अथवा चतुर्विंशति स्तोत्र मी' है। इसमें ऋषभदेवसे लेकर महावोर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकरों की क्रमशः स्तुतियाँ है । इस स्तोत्रके भक्तिरसमें गम्भीर अनुभूति एवं तर्कणायुक्त चिन्तन निबद्ध है । अतः इसे सरस्वत्तोकी स्वच्छन्द विहारभूमि कहा जा सकता है। इस 'स्तोत्र' के संस्कृत टीकाकार प्रभाचन्द्र ने इसे 'नि:शेषजिनोगतधर्म' कहा है। इसमें कुल पद्योंकी संख्या निम्न प्रकार है
१. श्री ऋषभजिन स्तवन, पद्य ५ २ श्रीअजितजिन स्तवन, पद्य ५, ३. श्री सम्भवजिन स्तवन, पद्य ५, ४. श्रीअभिनन्दनजिन स्तवन पद्य ५, ५. श्रोसुमति जिन स्तवन पद्य ५, ६ श्रीपद्मप्रभजिन स्तवन पद्य ५, ७. श्री सुपार्श्वबन स्तवन पद्य ५, ८. श्रीचन्द्रप्रभजिन स्तवन पद्य ५, ९ श्रसुबिधजिन स्तवन पद्य ५, १०. श्रीशीतलजिन स्तवन पद्य ५, ११. श्री श्रंयोजिन स्तवन पद्य ५, १२. श्रीवासुपूज्यजिन स्तवन पद्य ५, १३. श्रीविमल जिनस्तवन पद्य ५, १४. श्रीमनन्तजिन स्तवन पद्य ५ १५ श्री मंजिन स्तवन पद्य ५, १६. श्रीशान्तिजिन स्तवन पद्य ५, १७. श्री कुन्थुजिन स्तवन पद्य ५, १८. श्रीअरजिन स्तवन पद्य २०, १९ श्री मल्लिजिन स्तवन पद्य ५, २० श्रीमुनिसुव्रतजिन स्तवन पहा ५,२१. श्रीनमिजिन स्तवन पद्य ५, २. श्रीअरिष्टनेमिजिन स्तवन पद्य १०, २३. श्री पाश्र्वजिन स्तवन पद्म ५, २४. श्रीवीरजिन स्तवन पद्य ८ = १४३ |
इस स्तोत्रमें कविने प्रबन्ध-पद्धति के बीजोंको निहित कर इतिवृत्त सम्बन्धी अनेक तथ्योंको प्रस्तुत किया है। प्रथम तीर्थंकरको प्रजापतिके रूपमें असि, मषि, कृषि, सेवा, शिल्प और वाणिज्यका उपदेश कहा है। इस स्तोत्रमें बाये हुए 'निर्दयभस्मसात्क्रियाम् पदसे सम्मतः आचार्यने अपनी भस्मक व्याधिका संकेत किया है तथा सम्भवनाथको स्तुतिमें सम्भवजिनको वैद्यका रूपक देकर अपनी जीवनघटनामोंको ओर संकेत किया है। इसी प्रकार “यस्याङ्ग- लक्ष्मी - परिवेश भिन्नं
१. अनुवादक और सम्पादक श्री पंडित जुगलकिशोर मुख्तार 'युमवीर', प्रकाशक वीर मन्दिर २१ दरियागंज दिल्ली ।
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समस्तमोरेखि रश्मिभिनम् " पदसे राजा शिवकोटिके शिवालय में घटित ह घटनाका संकेत प्राप्त होता है ।
समस्त भवने बाद (शास्त्रार्थ ) द्वारा जैन सिद्धान्तोंका प्रचार किया था । श्रवणवेलगोलके अभिलेखोंके अनुसार पाटलिपुत्र, ढक्क, मालव, कांची आदि देशोंमें उन्होंने शास्त्रार्थं कर जिनसिद्धान्तोंकी श्रेष्ठता प्रतिपादित की थी। इस ओर भी उनका संकेत "स्व-पक्ष सौस्थित्य मदाऽवलिप्ता बाक्सिंह-ना देविमदा वभूवुः " पद्यांशसे मिलता है ।
शान्तिनाथतीर्थंकरने चक्रवतित्वपद प्राप्त किया था और उन्होंने षट्खण्डकी दिग्विजयकर समस्त राजाओं को करद बनाया था। उनके राज्यकालमें प्रजा अत्यन्त सुखी और समृद्ध थी । इस बातकी सूचना निम्नलिखित पद्यांशोंसे प्राप्त होती है
"चक्रण यः शत्रु-भयङ्करंण जित्वा नृपः सर्व-नरेन्द्र-चक्रम्"
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" विधाय रक्षा परतः प्रजानां राजा चिरं योऽप्रतिम प्रतापः * मल्लिजिन आजन्म ब्रह्मचारी थे। उनकी गणना बालयतियोंमें है । इसी प्रकार अरिष्ट नेमिको भी बालयति कहा गया है । इन दोनों तीर्थंकरोंके स्तवनमें 'महर्षि' या 'ऋषि' शब्दके प्रयोग आये है, जो इन तीर्थंकरोंके बालयतित्वको अभिव्क्त करते हैं ।
पार्श्वनाथस्तोत्रमें तीर्थंकर पार्श्वनाथके मुनिजीवनमें तपश्चर्या करते समय मेरी कमठ द्वारा किये उपसर्ग तथा पद्मावती और घरणेन्द्र द्वारा उसके निवारणका वर्णन निम्नलिखित पत्रोंमें किया है
"तमाल-नीलेः सघनुस्तडिद्गुणेः प्रकीर्ण- मीमाशनि - वायु-वृष्टिभिः । बलाहकैवैरि-वरुपद्रुतो महामना यो न चचाल योगतः ॥ बृहत्फणा-मण्डल- मण्डपेन यं स्फुरतडित्पिङ्ग-कचोपसर्गिणम् । जुगूह नागो धरणो घराघरं विराग-संध्या-सहिदम्बुदो यथा " || इस प्रकार इस स्तोत्र-काव्य में प्रबन्धात्मक बीजसूत्र सर्वत्र विद्यमान हैं ।
१. चन्द्रप्रभजिन स्तवन पद्य २
२. बही, वद्य रे ।
३. पा ंतिजिन स्तवन, पद्म २ ।
४. वही पक्ष १ ।
५. पार्श्वनाथ स्तवन पद्य १, २ ।
१८६ तीर्थकर महावीर और उनकी खाचार्य परम्परा
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स्तोत्रसाहित्यका निर्माता वहीं सफल माना जाता है, जो स्तोत्रोके मध्य में प्रबन्धात्मक बीमा योजना करता है। पहला . तो बनते ही हैं, साथ ही उनमें प्रेषणीयता विशेष उत्पन्न होती है। समन्तभदाचायने वैदिक मन्त्रोंके समान ही प्रबन्धभित स्तोत्रोंका प्रणयनकर दार्शनिक और काव्यात्मक क्षेत्रमें नये परणचिन्ह उपस्थित किये हैं।
वंशस्थ, इन्द्रवजा, उपेन्द्रवजा, उपजाति, वसन्ततिलका, रथोखता, पथ्यावक्त्र-अनुष्टुप, सुभद्रिका-मालप्तीमिश्रित, वानवासिका, वेतासीय, शिखरिणी, उद्गता एवं आर्यागीति इन तेरह प्रकारके छन्दोंका प्रयोग पाया जाता है। अलंकार-योजनाकी दृष्टिसे उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अर्यान्सरन्यास, उदाहरण, दृष्टान्त एवं अन्योक्ति प्रभृति अलंकार उल्लेख्य हैं । अतिशयोक्तिका निम्न उदाहरण ध्यातव्य है
. तव रूपस्य सौन्दर्य दृष्टवा तृप्ति मनापिवान् ।
द्वपक्षः शक्रः सहस्राक्षो वभूव बहु-विस्मयः ।। यहाँ भगवान्के सौन्दर्यको दो नेत्रोंसे देखने में अतृप्तिका अनुभव करते हुए इन्द्रने सहस्र नेत्र धारणकर भगवान्के रूप-सौन्दर्यका अवलोकन कर आश्चर्य प्राप्त किया है। इस सन्दभमें अतिशयोकि हैं । उदाहरणालंकार
सुखाभिलाषाऽनलदाहमूच्छित्तं मनो निजं मानमयाऽमृताम्बुभिः ।
व्यविध्यपस्त्वं विषदाहमोहितं यथा भिषग्मन्त्रगुणैः स्वविग्रहम् ।। जिसप्रकार वैद्य विषदाहसे मूच्छित हुए अपने शरीरको विषापहारमन्त्रके गुणोंसे उसकी अमोघशक्तियोंसे निविष एवं मूर्छा रहित कर देता है, उसीप्रकार हे शोत्तलजिन ! आपने सांसारिक सुखोंको अभिलाषारूप अग्निके दाहसे मूष्ठित हुए अपने आत्माको मानमय अमसके सिञ्चनसे मूच्छारहित-शान्त किया है । रूपकालंकार
स चन्द्रमा भव्यकुमुद्धतीनां विपन्नदोषाधकलकुलेपः ।
व्याकोश-याङ-न्याय-मयूलमाल: पूयात्पवित्रो भगवम्मनो मे ।। यहाँ-'भव्यकुमुदतोना' और 'दोषान-कला-लेपः'में रूपककी योजना है।
१. स्वयम्भू स्तोत्र, अरविनस्तव, पम ४ । २. वही, शीतलजिनस्तवन पद्य २ । ३. बहो, चन्द्रप्रमजिन, १५ ५ ।
श्रुतपर मौर सारस्वताचार्य : १८७
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इन रूपकोंने भावोंको सहज ग्राह्य तो बनाया ही है, साथ ही चन्द्रप्रभ भगवान के गुणोंका प्रभाव भी दिखलाया है। भव्यकुमुदनियोंको विकसित करने के लिए चन्द्रप्रभ चन्द्रमा हैं।
उपमा
पद्मप्रभः पद्यपलाश-लेश्यः पनालयालिङ्गितचारुमूत्तिः ।
बभी भवान् भव्य-पयोरुहाणां पद्माकराणामिव पनबन्धुः ।। पद्मपत्रके समान द्रव्यलेश्याके धारक हैं पद्मप्रभाजन आपको सुन्दरमत्ति पद्मालय-लक्ष्मीसे आलिङ्गित रही है और आप भव्यकमलोंको विकसित करने के लिए उसी तरह भासमान हुए हैं, जिसप्रकार सूर्य कमलसमूहका विकास करता हुआ सुशोभित होता है।
संक्षेपमें स्तोत्रकाव्यमें एकान्ततत्वकी समीक्षापूर्वक स्याद्वादनयसे अनेकान्तामृततस्वकी स्थापना की गयी है। २. स्तुतिविधा
जिनशतक और जिनशतकालंकार भी इसके नाम आये हैं। इसमें चित्रकाव्य और बन्धरचनाका अपूर्व कौशल समाहित है। शतककाव्योंमें इसकी गणना की गयी है । सौ पद्योमें किसी एक विषयसे सम्बद्ध रचना लिखना असाधारण बात मानी जातो थो । प्रस्तुत जिनशतकमें चौबीस तीर्थंकरोंकी चित्रबन्धोंमें स्तुति की गयी है। भावपक्ष और कलापक्ष दोनों नैतिक एवं धार्मिक उपदेशके उपस्कारक बनकर आये हैं | समन्तभद्रकी काव्यकला इस स्तोत्रमें आयन्त व्याप्त है । मुरजादि चक्रबन्धको रचनाके कारण चित्र काव्यका उत्कर्ष इस स्तोत्रकाव्य में पूर्णतया वर्तमान है।
समन्तभद्र की इस कृतिसे स्पष्ट है कि चित्रकाव्यका विकास माघोत्तरकालमें नहीं हुआ, बल्कि भाष करिसे कई सौ वर्ष पूर्व हो चका है। चित्र, श्लेष और यमकका समावेश बाल्मीकि रामायण में भी पाया जाता है, अतः यह सम्भव है कि दाक्षिणत्य भाषाओंके विशिष्ट सम्पकके कारण समन्तभद्रने चित्र-श्लेष और यमकका पर्याप्त विकास कर उक्त काव्यको रचना की। इस कृतिमें मुरजबन्ध, अर्धभ्रम, गतप्रत्यागतार्ष, चक्रबन्ध, अनुलोम, प्रतिलोम क्रम एवं सर्वतोभद्र आदि चित्रोंका प्रयोग आया है | एकाक्षर पचोंको सुन्दरता कलाको दृष्टिसे अत्यन्त प्रशंसनीय है। १. पद्मप्रभजनस्तवन, पद १ । २. अनुवादक पण्डित पन्नालालली साहित्माचार्य, प्रकाशक, वीरसेवामन्दिर, दिल्ली । १८८ : तीर्थकर महावोर और उनकी बाचार्य परम्परा
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कुछ विद्वानोंका इस कृतिको देखकर यह अनुमान है कि जिस कृत्रिम शैलीमें समन्तभद्रने स्तुतिविद्याका प्रणयन किया है यह कृत्रिम शैली ई० सनकी चौथो शताब्दीसे विकसित होती है । अत: कृत्रिम शैलीके कारण यह कृति द्वितीय-तृतीय शतीकी रचना नहीं हो सकती। विचार करनेपर उक्त मत निन्ति प्रतीत नहीं होता, यतः कृत्रिम शैलीके विकासका मूल कारण आर्यभाषाके साथ द्रविड़ भाषाका सम्पर्क है। द्राविड़-परिवारको भाषाओंमें चित्र, श्लेष और चमकलो अधिक भपता है। बार- समन्तभद्रने दाक्षिणात्य होनेके कारण ही इस शैलीका प्रयोग किया है ।
इस स्तोत्रमें कुल ११६ पद्य हैं और अन्तिम पद्यमें "कविकाव्यनामगर्मचक्रवृत्तम" है। जिसके बाहरके षष्ट वलयमें 'शास्तिवर्मकृतम्' और चतुर्थवलय में 'जिनस्तुतिशतम्' की उपलब्धि होती है । उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपकका एक साथ प्रयोग काव्यकलाको दृष्टिसे श्लाघनीय है। यहां उदाहरणार्थ काव्यलिंगको प्रस्तुत किया जा रहा है
सुश्रद्धा मम ते मते स्मृतिरपि त्वय्यर्चनं चापि ते हस्तावेजलये कथाश्रुतिरतः कर्णोऽक्षि संप्रेक्षते । सुस्तुत्यां व्यसनं शिरा नतिपरं सेवेद्वशी येन ते
तेजस्वी सुजनोऽहमेव सुकृतो तेनैव तेजःपते' || जिनेन्द्र भगवानकी आराधना करनेवाले मनुष्यको आत्मा आत्मीय तेजसे जगमगा उठती है । वह सर्वोत्कृष्ट पुरुष गिना आने लगता है। तथा उसके महान पुण्यका बन्ध होता है। यहां स्मरण, पूजन, अञ्जलि-बन्धन, कपा-श्रवण, दर्शन आदिका क्रमशः नियोजन होनेसे परिसंख्या-अलंकार है । आचार्यने हेतु-वाक्योंका प्रयोग कर काव्यलिंगकी मी योजना की है। इस प्रकार यह स्तुति-विद्या स्तोत्र-काव्य और दर्शनगुणों से युक्त है | और है सविवेक भक्ति-रचना। ३. आतमीमांसा या देवागमस्तोत्र
स्तोत्रके रूपमें तर्क और आगमपरम्पराको कसोटीपर आम-सर्वदेवकी मीमांसा की गयी है। समन्तभद्र अन्धश्रद्धालु नहीं हैं, वे श्रद्धाको तर्ककी कसोटीपर कसकर युक्ति-आगमद्वारा बाप्तकी विवेचना करते हैं। आप्तविषयक मूल्यांकनमें सर्वज्ञाभाववादी मीमांसक, भावकान्तवादी सांस्य, १. स्तुतिविद्या, पद्य ११५ । २, आचार्य जुगलकिशोर मुस्तार द्वारा सम्पादित वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन
वाराणसी।
श्रुतघर और सारस्वप्ताधार्य : १८९
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एकान्तपर्यायवादी बौद्ध एवं सर्वथा उभयवादी वैशेषिकका तर्कपूर्वक विवेचन करते हुए निराकरण किया गया है । प्रागभाव, प्रध्वंसामाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभावका सप्तभंगीन्यायद्वारा समर्थन कर वीरशासनकी महत्ता प्रतिपादित की है । सर्वथा असवाद, द्वैतवाद, कर्मद्वैत फलद्वैत, लोकद्वैत प्रभृतिका निरसन कर अनेकान्तात्मकता सिद्ध की गयी है। इसमें अनेकान्तवा का स्वस्थ स्वरूप विद्यमान है । उदाहरणके लिए" द्रव्यपर्यायोरैक्यं तयोरव्यतिरेकतः । परिणामविशेषाच्च शक्तिमच्छक्तिभावतः ॥ संज्ञासंख्याविशेषाच्च स्वलक्षणविशेषतः ।
प्रयोजनादिमेदाच्च तनानात्वं न सर्वथा ॥
द्रव्य और पर्याय कथंचित् एक है, क्योंकि वे भिन्न उपलब्ध नहीं होते तथा वे कथंचित् अनेक है क्योंकि परिणाम, संज्ञा, संख्या, आदिका भेद है । देव- पुरुषार्थ, पुण्य-पाप आदिको सिद्धि अनेकान्तके द्वारा हा होती है । एकान्तवादियोंकी समस्त सारस्यओंका उपाधाय कायके द्वारा प्रस्तुत किया
गया है ।
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इस स्तोत्रमें ११५ पद्य हैं। 'देवागम' पदद्वारा स्तोत्रका आरम्भ होनेके कारण यह 'देवागम' स्तोत्र भी कहा जाता है । समन्तभद्रकी परीक्षा प्रधान दृष्टि इस स्तोत्रकाव्य में समाहित है । कवित्वको दृष्टिसे यह काव्य बोझिल है । काव्य रस- दर्शनकी चट्टान के भीतर प्रवेश करनेपर ही क्वचित् प्राप्त होता है, अप्रस्तुत विधानका भी अभाव है। ओवन और जगत्की विभिन्न समस्याओं का समाधान इस स्तोत्रकाव्य में अवश्य वर्तमान है ।
४. युक्त्यनुशासन - वीरके सर्वोदय तीर्थंका महत्व प्रतिपादित करने के लिए उनको स्तुति की गयी है । युक्तिपूर्णक महावीरके शासनका मण्डन और विरुद्धमतोंका खण्डन किया गया है। समस्त जिनशासनको केवल ६४ पद्मों में ही समाविष्ट कर दिया है। अगौरवको दृष्टिसे यह काव्य उत्तम है, 'गागरमें सागर' को भर देनेकी कहावत चरितार्थ होती है। महावीरके तीर्थ को सर्वोदय ती' कहा है---
"सर्वान्तवत्तद् गुणमुख्य कल्पं सर्वान्तशून्यं च मियोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं सवेयं ॥
P
१. देवम पद्य ७१,७२, बाचार्य जुगलकिशोर मुस्तार द्वारा सम्पादित, बीरसेवामन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन, वाराणसी ।
२. सम्पादन आचार्य जुगलकिशोर, वीर सेवा नन्दिर प्रकाशन । ३. बही - ६२ ।
१९० खोयंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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इसप्रकार महावीरके तीर्थंको ही समस्त विपत्तियोंका अन्त करनेवाला सर्वोदय तीर्थ कहा है ।
५. रत्नकरण्डभावकाचार – जीवन और आचारको व्याख्या इस ग्रन्थ में की गयी है । १५० पद्मों में विस्तारपूर्वक सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चारित्रका विवेचन करते हुए कुन्दकुन्दकेर निर्देशानुसार सल्लेखनाको श्रावकके व्रतोंमें स्थान दिया है। अन्तमें श्रावककी एकादश प्रतिमाएं वर्णित हैं । डाँ० वासुदेवशरण अग्रवालने समीचीन धर्मशास्त्र - रत्नकरण्ड श्रावकाareकी भूमिका में लिखा है---"स्वामी समन्तभद्रने अपनी विश्वलोकोपकारिणी वाणी से न केवल जैनमार्गको सब ओरसे कल्याणकारी बनानेका प्रयत्न किया है। {जैनं वत्मं समन्तभद्रमभवद्भद्र ं समन्तात् मुहुः) किन्तु शुद्धमानवी दृष्टिसे भी उन्होंने मनुष्यको नैतिक बरातलपर प्रतिष्ठित करनेके लिए बुद्धिवादी दृष्टिकोण अपनाया । उनके इस दृष्टिकोण में मानव मात्रको रुचि हो सकती है । समन्तभद्रकी दृष्टिमें मनकी साधना हृदयका परिवर्तन सच्ची साधना है । बाह्य आचार तो बम्बरोंसे भरे भी हो सकते हैं। जेना है कि मोदी मुनिसे निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ है ( कारिका-३३ ) | किसीने चाहे चाण्डाल योनिमें भी शरीर धारण किया हो, किन्तु यदि उसमें सम्यक् दर्शनका उदय हो गया है तो देवता ऐसे व्यक्तिको देव समान ही मानते हैं। ऐसा व्यक्ति भस्मसे ढंके हुए किन्तु अन्तर में दहकते हुए अंगारे की तरह होता है ।"
इस ग्रन्थकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित है१. श्रावकके अष्टमूलगुणोंका विवेचन
२. महत्पूजनका वैयावृत्यके अन्तर्गत स्थान ३. व्रतोंमें प्रसिद्धि पानेवालोंके नामोल्लेख
४. मोही मुनिको अपेक्षा निर्मोही धावककी श्रेष्ठता
५. सम्यक दर्शन सम्पन्न मातंगको देवतुल्य कहकर उदार दृष्टिकोणका
उपन्यास |
६. कुन्दकुन्द और उमास्वामीको श्रावक धर्म सम्बन्धी मान्यताओंोंको आत्मसात्कर स्वतन्त्र रूपमें श्रावकधर्मसम्बन्धी ग्रन्थका प्रणयन
१. इस सन्दके अनेक संस्करण प्रकाशित है । बीर सेवा मन्दिर, दिल्ली से प्रकाशित संस्करण अध्ययनीय है ।
२. कुन्दकुन्दका चारित्रमाहुर गावा २५-२६ ।
३. समीचीन धर्मशास्त्र, भीर सेवा मन्दिर दिल्ली
प्राक्कथन, पु० १६
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इस कृतिमें कति का जपन्तद्रमा मन नहीं भी उपलब्ध नहीं है । टीकाकार प्रभाचन्द्रने इसे समन्तभद्रकृत लिखा है। अत: डॉ० हीरालाल जैन आप्तमीमांसामें निरूपित आप्तके लक्षणको शैलीको अपेक्षा इसकी शैलीमें मित्रता प्राप्तकर और पाचनाथचरितकी उत्थानिकामें योगोन्द्रकी रचनाके निर्देशको पाकर इसे योगीन्द्रदेवकी रचना मानते हैं। ग्रन्थके उपान्त्य श्लोकमें 'बीतकला', विद्या' और 'सर्वार्थसिद्धि' शब्दोंको तत्तद् आचार्य और ग्रन्योंका सूचक मानकर आठवींग्यारहवीं शतीके मध्यको रचना इसे स्वीकार करते हैं।'
अतः डॉ जैनके मतानुसार यह कृति आप्तमीमांमाके रचयिता स्वामी समन्तभद्रकी नहीं है। भले ही कोई दूसरा समन्तभद्र इसका रचयिता रहा हो। डॉ. साहबने उक्त मन्तव्यको प्रकट करने के लिए एक निबन्ध बनेकान्त, वर्ष ८, किरण १-३, पृ. २६-३३, ८६–२० और १२५-१३२ में लिखा था, त्रिसका प्रतिवाद डॉ. प्रो. दरवारोलाल कोठियाने अनेकान्त वर्ष ८ किरण ४-५ में किया है। डॉ० कोठियाने डॉ. जैनके तर्कोका उत्तर देते हुए प्रस्तुत कृतिको बाचार्य समन्तभद्रकी ही रचना सिद्ध किया है। मैं इस विवादमें न पड़कर इतना अवश्य कहंगा कि समन्तभद्र के अन्य ग्रन्थोंके समान इस ग्रन्यके मो दो नाम उपलब्ध हैं.-१. समोचोन धर्मशास्त्र और २. वर्ण्य विषयके अनुसार रलकरण्डकश्रावकाचार। स्वामी समन्तभद्रकी यह शेली है कि वे अपने प्रत्येक प्रन्धके दो नाम रखते हैं--प्रथम नामका निर्देश प्रथम पद्यक प्रारम्भिक वाक्यमें कर देते हैं और दूसरेका निर्देश ग्रन्थके वर्ण्य विषयके आधारपर रहता है।
यह निर्विवाद सत्य है कि इस ग्रन्थमें प्रतिपादित विषय बहुत प्राचीन है। श्रुतधर कुन्दकुन्दके चारित्रपाहुड, प्रवचनसार, दर्शनपाहुड, सोलपाहुद आदिसे विषयको सूत्ररूपमें ग्रहणकर नये रूपमें श्रावकाचारसम्बन्धी सिद्धान्तोंका प्रणयन किया है। अत: विद्वानोंके मध्य मूलगुणसम्बन्धी जो प्रश्न उठाया जाता है उसका समाधान यहाँ सम्भव है। जब समन्तभद्रने श्रावकाचारका प्रणयन नये रूपमें किया, तो उन्होंने बहुत-सो ऐसी बातोंको भी इस ग्रन्यमें स्थान दिया, जो पहलेसे प्रचलित नहीं थीं। हमारा तो दढ़ मत है कि तृयोय मध्यायकी यह ६६ वीं कारिका प्रक्षिप्त है। पीछेके किसी विद्वान्ने प्रतिलिपि करते समय अहिंसाणुव्रतके विशुद्धयर्थ इस कारिकाको जोड़ दिया है। यहाँसे इसे हटा देनेपर भी ग्रन्थके वर्ण्य विषयमें किसीप्रकारकी कमी नहीं आती। यह कारिका एक प्रकारसे विषयका पुनरुक्तीकरण ही करती है । मद्य, मांस, म. १. मारतीय संस्कृतिमें जनधर्मका योगवाम, पृ० ११३ । १९२ : तीर्थकर महावीर और उनकी बारार्य-परम्परा
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के त्याग तथा पंचाणुव्रतोंके पालनको अष्टमूलगुण कहा गया है। अहिंसाणुव्रतके लक्षण कापूर मन-धमकाय, मा, कारित, अनुमोदनारूप व्यापारसे द्वीन्द्रियादि प्राणियोंका घात न करना अहिंसाणुवत है। इस परिभाषाके अन्तर्गत मद्य, मांस, मधुका त्याग स्वयमेव समाविष्ट हो जाता है। पंचाणुक्तोंको चर्चा तो स्पष्टरूपसे पुनरुक्त है ही। अतएव वर्ण्य विषयकी दृष्टिसे इस पद्यको कोई आवश्यकता नहीं है। ___ यदि आचार्य समन्तभद्रको अष्टमूलगुणोंका निर्देश करना अभीष्ट होता, तो वे इस पद्यको अहिंसाणुव्रतके लक्षणके आस-पास निबद्ध करते । अहिंसादि बतोंका पालन करनेवाले व्यक्तियोंके नामोल्लेखके पश्चात् इस कारिकाका संयोजन अनुपयोगी जैसा प्रतीत होता है । यदि यह तर्क दिया जाय कि अणुव्रतोंका वर्णन करनेके पश्चात् मूलगुणोंका निर्देश आवश्यक था, तो यह तर्क भी बहुत सबल नहीं है । अणुव्रत और गुणवतोंके बीच इस पद्यका स्थान नहीं होना चाहिए । अतएव हमारी दृष्टिसे यह पद्य प्रक्षिप्त है। ___ अनेक आचार्योंने बताया है कि कोई नदी और समुद्रके स्नानको धर्म समझता है, कोई भिटी और पत्थरके स्तुपाकार ढेर बनाकर धमकी इतिश्री मानता है। कोई पहाड़से कूदकर प्राणान्त कर लेने अथवा अग्निमें शरीरको जला देनेमें ही कल्याम मानता है । ये सब बातें लोकमूढ़ता है
"आपगा-सागर-स्नानमुच्चयः सिकताऽश्मनाम् ।
गिरिपातोऽग्निपातश्च लोकमूढं निगद्यते ।।" उपर्युक्त पद्यमें गतानुगतिक रूपसे अनुसरण किये जानेवाले मूढतापूर्ण दृष्टिकोणोंका विवेचन किया है और (१) आपगासागरस्नान, (२) सिकताsश्मनामुच्चयः, (३) गिरिपात, (४) अग्निपातको लोकमूढ़ता कहा है । भारतीय संस्कृतिक विकासक्रमका विचार करनेसे अवगत होता है कि उक्त ये चारों प्रथाएँ ई. सन्के पूर्व अत्यधिक रूपमें प्रचलित थीं । उत्तरकालमें इन प्रथाओंमेंसे एक-दोको छोड़कर शेष सभीका लोप हो गया | ऋग्वेदकालमें जीवन तथा जीवनभोगोंके प्रति आसक्तिकी प्रवृत्ति दर्तमान थी । अतः इस युगमें संन्यास और आत्मबलका निर्देश नहीं मिलता। प्रो० हिलनेटने दोक्षाविधिमें प्रयुक्त होनेवाले
१. समीचीन धर्मशास्त्र, प्रथम अध्याय, कारिका २२ । 3. Hillbrandt suggests that Diksha ceremony is in reality a fadad
form of the older practice of suicide by fire.-Suicide-Encyclooidea of Religion and Ethics Vol. XII, Page 33-36,(1921)
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अग्निपातसे अग्निपात द्वारा आत्मबलिका अनुमान किया है। शतपथब्राह्मण में बताया गया है कि पूरुषमे n सर्वमेघयत्नमें समस्त सम्पत्तिका त्याग कर साधक मृत्युका बरण करने के लिए बन जाता है। परिव्राजककी क्रियाओंका विवेचन करते हए जाबालोपनिषद्म विभिष रूपोंमें किये जानेवाले आत्मघातोंको धार्मिक रूप दिया गया है
'वीराध्वाने वा अनाशके वा अपां प्रवेशे वा अग्निप्रवेशे बा महाप्रस्थाने वा'।'
स्पष्ट है कि अग्निपात, जलपात और अनशनवतद्वारा आत्महत्या करना धार्मिक विधानमें शामिल किया गया है।
हिन्दी विश्वकोषमें आत्मघातोंका निरूपण करते हुए लिखा है कि वैध, अवैध, ज्ञानकृत और अज्ञानकृत में चार भेद आत्मघातके हैं। मनु एवं वृद्धगगन लिखा है कि जब मनुष्य अत्यन्त वृद्ध हो जाये और चिकित्सा करानेपर भी आरोग्यकी सम्भावना न हो, तो शौचादि क्रियाओंके लुप्त होनेकी आशंका उत्पन्न होनेसे, उच्च स्थानसे गिरकर, अग्निमें कूदकर, अनशनसे रहकर या जलमें डूबकर प्राण छोड़ देना चाहिए। इस प्रकार प्राण छोड़नेपर त्रिरात्रका अशीच माना जाता है।
उपर्युक्त सन्दर्भाशसे स्पष्ट है कि समन्तभद्र द्वारा विवेचित लोक-मूढ़ताएं ब्राह्मण और उपनिषद कालमें प्रचलित थीं। धर्मशास्त्रोंके अशीच प्रकरणमें इन मान्यताओंका समावेश पाया जाता है।
आपगासागरस्नान' की सांस्कृतिक व्याख्या में प्रवेश करने पर ज्ञात होता है कि मोहनजोदड़ोंके प्राप्त भग्नवशेषोंमें उपलब्ध हए स्नानागारोंसे हड़प्पाके सांस्कृतिक जीवनमें जलकी महत्ताका परिचय मिलता है। विद्वानोंने बताया है कि इसका आर्योंके सांस्कृतिक जीवन पर गहरा प्रभाव है । सरोवरों, नदियों और समुद्रोंके जलमें स्नान करनेको प्रथा तथा सर्योदयके पूर्व और भोजनके पूर्व स्नान करनेकी विधिपर धार्मिक मोहर इस बातका प्रमाण है कि सिन्धु घाटीको सभ्यतामें भी स्नानको सांस्कृतिक महत्त्व प्राप्त था। आर्योंके जीवन में नदियोंका नित्य चहता हआ निर्मल जल ही उनके लिए स्वर्गकी पवित्रता एवं पाचनताका परिचायक था। सिन्धु, वितस्ता, चन्द्रभागा, इरावती, विपासा, शत्तद्रु, यमुना, गंगा एवं ब्रह्मपुत्र आदि नदियोंने धार्मिक प्रेरणाके कारण ही १. निर्णयसागर प्रेस, बम्बईसे सन् १९२५ में प्रकाशित ईशायष्टोत्तरशतोपनिषयः,
पृ० १३१ । २. हिन्दी विश्वकोश, द्वितीय भाग, आत्मघातशब्द । ३. Indus civilization by M wheeler. Page 282-284
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आर्योंके जीवनको उर्वर बनाया था। अतएव नदियों में स्नान करनेकी पवित्र भावनाके साथ उनमें डूबकर आत्मघात करनेकी प्रथा भी धर्मके नामपर ब्राह्मणकालमें प्रचलित थी । जलमाश्रमें स्नान करना या असमर्थ अवस्थामें डूबकर प्राणघात करना धार्मिकताका चिह्न था । ई० पूर्व द्वितीय तृतीय शताब्दीसे लेकर ई० सन् प्रथम- द्वितीय शताब्दी तक इस प्रथाका बहुत प्रचार रहा है । जब संन्यासविधि पूर्णतया विकसित हो गयी, और आत्मशोधन के लिए ध्यान, संयमका मूल्य बढ़ गया, तो उक प्रथाका शनैः-शनैः ह्रास होने लगा । स्वामी समन्तभद्रके समयमें इस प्रथाका जोर-शोर के साथ प्रचार था । अतः उन्होंने अपने इस ग्रन्थ में इसकी समीक्षा की है । यहाँ यह स्मरणीय है कि लोकमूढ़ताओं का रूप समयानुसार बदलता रहता है ।
धर्मके नामपर स्तूप निर्माणको प्रथाका आरम्भ बौद्धकालसे हुआ है बुद्धके अस्थि-अवशेषको स्तूपके भीतर रखा जाता था और इन स्तूपोंकी धार्मिक प्रेरणा प्राप्त करनेके लिए पूजा की जाती थी । सम्राट् अशोकने तथा उसके उत्तरचत्तीं सम्राट् सम्प्रतिने स्तुप और अभिलेखोंका आरम्भ धार्मिक स्मृतिके साथ धर्म-प्रेरणाके लिए कराया । अशोक सम्प्रति सूप और लेख इस प्रकार मिश्रित हो गये हैं कि उनका पृथक्करण सहज सम्भव नहीं है । इसका प्रधान कारण यह है कि धर्म और सदाचारके सामान्य नियम इन दोनों सम्राटों को समानरूपसे ही अभिप्रेत थे । ये स्तूप ठोस गुम्बदके आकारके होते थे और इनके ऊपर छत्र भी बनाये जाते थे। अशोक निर्मित स्तूपों में सांचीका स्तूप अत्यन्त प्रसिद्ध है । कुशाणकालके पूर्व बुद्धको उपासना इन स्मारक चिल्लोंमें प्रयुक्त प्रतीक रूपों में ही होती थी । छत्र, पांव, पुष्प, चन्द्र या चक्रके प्रतीकों में हो बुद्धकी स्मृति अन्तर्निहित थी । महायान सम्प्रदाय के आविर्भावके पश्चात् बुद्ध प्रतिमाओं के निर्माणकी प्रथाका आरम्भ हुआ ।
जब स्तूपनिर्माणका महत्त्व जनसाधारण में प्रचलित हुआ, तो स्तूपोंके प्रतिनिषिस्वरूप 'सिकताश्मनामुच्चयः का प्रचार हुआ। बालू या कंकड़ोंका स्तूपाकार ढेर लगाकर देवकी उपासना होने लगी । यह प्रथा कुषाणकाल के पूर्व तक प्रचलित रहो । समन्तभद्रके समय में इसका बाहुल्य था । अतएव उन्होंने अपने इस ग्रन्थ में इस प्रथाकी ओर संकेत किया है । कुषाणकालके पश्चात् कुछ ही शताब्दियों में मूर्तिकलाका विकास होनेसे उक्त मान्यता क्षीण हो गयी | बत्तएव रत्नकरण्डक श्रावकाच । रमें 'सिकतारमनामुच्नयः का जो प्रयोग आया है, वह उसको प्राचीनताका सूचक है ।
गिरिपातप्रथाका निर्देश समन्तभद्रने किया है। सांस्कृतिकदृष्टिसे इस
श्रवर श्रीर सारस्वताचार्य १९५
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प्रथाका विकास और प्रसार ई० सन् पूर्वको शताब्दियोंसे ई० सन्की प्रारम्भिक शताब्दियों तक ही प्राप्त होता है। योग-क्रियाओंको सम्पादित करने में असमर्थ व्यक्ति गिरिपातद्वारा मुक्तिलाभ करता या। अतएव प्राचीन धर्मशास्त्रके लेखकोंने इस प्रथाकी समीक्षा की है। हरिभद्रकी 'समराइचकहा'के द्वितीय भवमें भी यह प्रथा उल्लिखित है । अतः समन्तभद्रने लोकमुढ़ताका जो वर्णन किया है वह उनकी प्राचीनताका सूचक है।
समन्तभद्रने प्रथम अध्यायको चौबीसवीं कारिकामें 'पाषण्डि-मूढता'को समीक्षा की है। यह 'पाषण्डी' शब्द विचारणीय है। धर्मके अर्थ में इसका प्रयोग प्राचीन साहित्यमें ही उपलब्ध होता है । अशोकके अभिलेखोंके साथ आचार्य कुन्दकुन्दके समयसारमें भी इस शब्दका प्रयोग आया है । कुन्दकुन्दने लिखा है
"पाखंडोलिंगाणि च गिहिलिंगाणि व बहुप्पयाराणि । चित्त वदंति मढा लिंगमिणं मोक्खमग्गो ति।।'
"ण वि एस मोक्खमग्गो पाखंडोगिहिमयाणि लिंगाणि" अशोकने भी गिरिनारके छठे अभिलेखमें 'पाषण्डि'शब्दका प्रयोग धर्म या सम्प्रदायके अर्थ में किया है । लिखा है-'सव-पासंडापि मे पूजित विविधाय पूजाय' इससे स्पष्ट है कि 'पाषंड-गूढता'का निरूपण समन्तभद्रको प्राचीनताका द्योतक है। प्रारम्भमें 'पाषंडी' शब्द पवित्रताके अर्थ में प्रचलित था, पर शन:शनै: इस शब्दका अर्थ अपकर्षित होने लगा और यह आडम्बरपूर्ण जीवन ध्यतीत करनेके अर्थ में प्रचलित हुआ।
जहाँ तक हमारा अध्ययन है पांचवों, छठी शताब्दीके किसी भी साहित्य में पाषंडीका प्रयोग धर्मके अर्थमें नहीं आया है। अतः समन्तभद्रके समयपर तो इससे प्रकाश पड़ता ही है, साथ ही रत्नकरण्डकश्रावकाचारको प्राचीनतापर भी प्रकाश पड़ता है।
एक अन्य विचारणीय विषय यह भी है कि मूढ़ताओंकी समीक्षा धम्मपद, महाभारत आदि प्राचीन ग्रन्योंमें उपलब्ध होती है। धर्मशास्त्रके निर्माताओंने मूढ़ताबोंकी समीक्षा ई. सन पूर्वसे ही आरम्भ कर दी थी । अतः समन्तभद्रको रत्नकरण्डकश्रावकाचारमें इन मढ़ताओं की समीक्षाके लिये धम्मपदादि ग्रन्थोंसे भी प्रेरणा प्राप्त हुई हो, तो कोई आश्चर्य नहीं है। समन्तभद्रने इनकी समीक्षा
१. समयसार, गापा ४०८ । २. वही, गाथा ४१० ।
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उसी शैली में की है जो शैली 'धम्मपद' में मिलती है । अतः मूढ़ताओंके विवेचनसन्दर्भसे रत्नकरण्डक श्रावकाचार के कर्त्ता प्राचीन समन्तभद्र हो सिद्ध होते है । 'धम्मपद' में बताया है
"न नग्गचरिया न जटा न पंका नानासका थण्डिलसायिका वा । रजोवजल्लं उककुटिकप्पधानं सोधेन्ति मच्चं अवितिष्ण कखं ॥ "
अर्थात् जिस पुरुषका सन्देह समाप्त नहीं हुआ है उसकी शुद्धि न नंगे रहने से, न जटासे, न कीचड़ लपेटनेसे, न उपवास करनेसे, न कठिन भूमि पर शयन करनेसे, न धूल लपेटने से और न उकड़ बैठने से होती है।
लोक - मूढ़ताएं विकसित होकर पांचवीं छठी शताब्दी के साहित्य में आडम्बरपूर्ण जीवनके विश्लेषण के रूपमें आयी हैं । अपभ्रंश साहित्य में इन लोक-मूढ़ताओंका रूप बाह्याडम्बर या बाह्य वेशके रूपमें उपस्थित है ।
रत्नकरण्डक श्रावकाचारकी प्राचीनताका एक सबल प्रमाण यह भी है कि इस ग्रन्थके कई पद्य मनुस्मृतिके वर्तमान संस्करणमें पाये जाते हैं । मनुस्मृतिका वर्तमान संस्करण ई० सत्की दूसरी-तीसरी शतोका है। यद्यपि यह संस्करण मी किसी प्राचीन मनुस्मृति के आधार पर प्रस्तुत किया गया है, तो भी इसमें द्वितीय और तृतीय शतीको अनेक रचनाओं के पद्य, वाक्यांश और पदांश उपलब्ध हैं। मनुस्मृति संग्रहमन्य है, इसका प्रमाण मनुस्मृतिमें भृगु द्वारा 'प्रोक वक्तव्यों का पद्यरूपमें निबद्ध करना है। श्री पाण्डुरंग वामन काणेने इसका संकलनफाल दूसरो शताब्दी माना है । तुलनाके लिए पद्य प्रस्तुत किये जाते हैं
सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम | देवा देवं विदुर्भस्मगूढांगा रान्तरौजसम् ।।
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सम्यग्दर्शनशुद्धः संसारशरी र भोग निर्विण्णः । पञ्चगुरुचरणशरणो दर्शनिकस्तत्वपथगृह्यः * ॥
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१. सम्मपद, सम्पादक - मिक्षुधर्मरक्षित, बनारस १९५३, गाथा १४१ |
२. हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र पृ० १३८, १४९, १५६ ।
३. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, प्रथम परिच्छेद, श्लोक २८ । ४. वड़ी, पचम परिच्छेद, श्लोक १६ ।
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सम्यग्दर्शनसम्पन्नः कर्मभिर्न निबद्ध्यते । दर्शनेन विहीनस्तु संसारं प्रतिपद्यते' ||
इदमेवेदशमेव तत्त्वं नान्यन्न चान्यथा । इत्यकम्पायसाम्भोवत्सन्मार्गऽसंशया रुचिः ॥
इदं शरणमज्ञानमिदमेव विजानताम् ।
इदमन्विच्छतांस्वर्गमिदमानन्त्यमिच्छताम् ।। अतएव विषयको प्राचीनताकी दृष्टिसे रत्नकरण्डकश्रावकाचारके कर्ता प्राचीन समन्तभद्र ही हैं। मनुस्मृति और रत्नकरण्डकधावकाचारके प्रकरणोंके अध्ययनसे यह स्पष्ट है कि रत्नकरण्डसे ही उक्त पद्य मनुस्मृतिमें संग्रहीत हैं। पद्योंमें थोड़ा-सा परिवर्तन किया गया है ।
जीवसिद्धि, तत्त्वानुशासन, प्राकृतव्याकरण, प्रमाणपदार्थ, कर्मप्रभृतटीका और गन्धहस्तिमहाभाष्य ये रचनाएं उपलब्ध नहीं है। अत: इनके मानन्ध नितेनन करना समान नहीं ! इन वजनाओंके केवल निर्देश ही जहांतहाँ मिलते हैं । अतएव अब हम आचार्य समन्तभद्रको काव्य-प्रतिमा एवं वेदुष्यपर प्रकाश डालना आवश्यक समझते हैं। प्रतिभा एवं चैबुष्य __समन्तभद्र अत्यन्त प्रतिभाशाली और स्वसमय, परसमयके ज्ञाता सारस्वत हैं। इन्होंने एकान्तवादियोंका निरसन कर अनेकान्तवादकी प्रतिष्ठा दार्शनिक शैलोमें की है । भाव और अभावरूप विरोधी युगलधर्मोको लेकर सप्तभंगात्मक वस्तुको सिद्ध किया है। क्रियाभेद, कारकभेद, पुण्य-पापरूप कर्मद्वेत, सुख-दुखरूप फलदैत, इहलोक-परलोकरूप लोकद्वैत, विद्या-अविद्यारूप ज्ञानद्वेत और बन्ध-मोक्षरूप जीवकी शुद्धाशुद्ध अवस्थाओंका चित्रण किया गया है। बौद्ध, नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त आदि दर्शनोंकी मूल मान्यताओंका अध्ययन कर उनकी यथार्थ समीक्षा समन्तभद्रने की है। हम यहाँ उदाहरणके लिए वैशेषिकोंके परमाणुवादको लेते हैं। वैशेषिकोंमें कोई परमाणुओंमें पाक-अग्नि १. मनुस्मृति, ६ अध्याय, श्लोक ७४–चौखम्बा संस्करण । २. रत्नकरण्डकथावकाचार, प्रथम परिच्छेद, क्लोक ११ । ३. मनु०, ६ अध्याय, श्लोक ८४ ।। ४, म. दरवारीलाल कोठिया : आप्तमीमांसा, वीर सेवामन्दिर दृस्ट, सन् १९६७,
प्रस्तावना पृ० ९-१० ।
१९८ : तीर्थकर, महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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संयोग होकर द्वयणुकादि अवयवोमें क्रमशः पाक मानते हैं और कोई परमाणुओंमें किसी भी प्रकारको विकृति न होनेसे उनमें पाक - अग्निसंयोग न मान कर केव द्व्यणुकादिमें एक स्वीकार करते हैं । जो परमाणुओं में पाक नहीं मानते उनका कहना है कि परमाणु नित्य है और इसलिए वे द्वद्यणुकादि सभी अवस्थाओं में एकरूप बने रहते हैं। उनमें किसी भी प्रकारको अन्यता नहीं होती, अपितु सर्वदा अनन्यता विद्यमान रहती है। इसी मान्यताको आचार्य समन्तभने 'अणुओं का अनन्यतैकान्त' कहा है। इस मान्यता में दोषद्घाटन करते हुए बताया है कि यदि अणु द्व्यणुकादि संघात्तदशामें भी उसी प्रकारके बने रहते हैं, जिस प्रकार वे विभागके समय हैं, तो वे असंत ही रहेंगे और इस अवस्था में अवयवरूप पृथ्वी आदि चारों भूत भ्रान्त हो जायेंगे, जिससे अवयवी - रूप कार्य भी भ्रान्त सिद्ध होगा । इस प्रकार वैशेषिकों के अनन्यतैकान्तकी समीक्षा कर अनेकान्तवादको प्रतिष्ठा की है ।
समन्तभद्रकी कारिकाओंके अवलोकनसे उनका विभिन्न दर्शनोंका पाण्डित्य अभिव्यक्त होता है । प्रमाण, मायकल प्रमाणका विष समन्तभद्रने बहुत हो सूक्ष्मताले किया है। इन्होंने सद्-असद्वादकी तरह द्वैतअद्वैतवाद, शाश्वत अशाश्वतवाद, वक्तव्य-अवक्तव्यवाद, अन्यता- अनन्यतावाद, अपेक्षा अनपेक्षावाद हेतु अहेतुवाद, विज्ञान-बहिरर्थवाद, देव-पुरुषार्थवाद, पाप-पुण्यवाद और बन्ध-मोक्षकारणवादका विवेचन किया है।
डॉ० दरबारीलाल कोठियाने समन्तभद्र के उपादानोंका निर्देश करते हुए लिखा है कि उन्होंने जैनदर्शनको निम्नलिखित सिद्धान्त प्रदान किये हैं
१
१. प्रमाणका स्वपराभासलक्षण
२. प्रमाणके क्रमभावि और अक्रमभावि भेदोंकी परिकल्पना
२. प्रमाणके साक्षात् और परम्परा फलोंका निरूपण
४. प्रमाणका विषय
५. नयका स्वरूप
६. हेतुका स्वरूप
७. स्याद्वादका स्वरूप
८. वाच्यका स्वरूप
९. वाचकका स्वरूप
१०. अभावका वस्तुधर्मनिरूपण एवं भावान्तरकथन ११. तत्त्वका अनेकान्तरूप प्रतिपादन
१. बातमीमांसा, वीरसेवा मन्दिर ट्रस्ट, सन् १९६७, प्रस्तावना, पू० ४५-४६ ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्थं १९९
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१२. अनेकान्सका स्वरूप
१३. अनेकान्तमें भी अनेकान्तकी योजना १४. जैनदर्शनमें अवस्तुका स्वरूप १५. स्यात् निपातका स्वरूप १६. अनुमानसे सर्वज्ञकी सिद्धि १७. युक्तियों से स्याद्वादकी व्यवस्था १८. यसका तार्किक स्वरूप
१९. वस्तु द्रव्य- प्रमेयका स्वरूप
काव्य चमत्कारको दृष्टिसे भी समन्तभद्र अपने क्षेत्र में अद्वितीय हैं । इन्होंने चित्र और श्लेष काव्यका प्रारम्भ कर भारवि और माघके लिये काव्य क्षेत्रका विकास किया है । कवि समन्तभद्रने अपने स्तोत्र-काव्यों में शब्द और अर्थ इन दोनोंकी गम्भीरताका अपूर्व समन्वय बनाये रखनेकी सफल चेष्टा की है । शब्दसंघति, अलंकार-वैचित्र्य, कल्पनासम्पत्ति एवं तार्किक प्रतिभाका समवाय एकत्र प्राप्य है । प्रबन्धकाव्य न लिखने पर भी कतिपय पद्योंमें प्रौढ़ प्रबन्धाहमकता पायी जाती है । इतिवृत्तात्मक धार्मिक तथ्योंका समावेश भी काव्यशैली में मनोरमरूपमें हुआ है । कविप्रतिभा और दार्शनिकताका मणिकांचन संयोग श्लाघ्य है । उत्प्रेक्षाद्वारा आराध्य पद्मप्रभका चित्रण करता हुआ कवि कहता है
" शरीर - रश्मि - प्रसरः प्रभोस्ते बालार्क - रश्मिच्छवि राऽऽलिलेप । नराऽमराऽऽकोण सभां प्रभा वा शैलस्य पद्माभमणेः स्वसानुम् ॥'
अर्थात् हे प्रभो ! प्रातःकालीन सूर्यकिरणोंको छविके समान रक्तवर्णकी आभावाले आपके शरीरकी किरणोंके विस्तारने मनुष्य और देवताओंसे भरी हुई समवशरण सभाको इस प्रकार आलिप्त किया है, जैसे पद्मकान्तमणि पर्वतकी प्रभा अपने पार्श्वभागको आलिप्त करती है।
इस पद्यमें पद्मप्रभ तीर्थंकरकी रक्तवर्ण कान्ति द्वारा समवशरण सभा के व्याप्त किये जानेकी उत्प्रेक्षा पद्यकान्तमणिके पर्वतको प्रभासे की गयी है ।
कवि समन्तभद्र उपमा अलंकारके व्यवहारमें भी पटु हैं। उन्होंने भगवान् आदिनाथको अज्ञानान्धकारका विनाश करने के लिए चन्द्रमाका उपमान प्रदान किया है। कुछ पद्योंमें प्रयुक्त उपमान नवीन प्रतीत होते हैं । यथा
१. स्वम्भुस्तोत्र ६०३ ।
२. 'विधुन्वता तमः क्षपाकरेणेव गुणोत्करैः करैः । स्वम्भू स्तोत्र ११ ।
२०० तोकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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"येन प्रणीतं पृथु धर्म-तीथं ज्येष्ठं जनाः प्राप्य जन्ति दुःखम् ।
गाङ्ग हृदं चन्दन-पर-शोतं गज-प्रवेका इव घर्मतप्ताः ।।"५ जिन्होंने उस महान् और ज्येष्ठ धर्मतीर्थका प्रणयन किया है, जिसका आश्रय पाकर भव्यजन दुःख-सन्तापपर उसी प्रकार विजय प्राप्त करते हैं, जिस प्रकार ग्रीष्मकालीन सूर्यके सन्तापसे सन्तप्त हुए बड़े-बड़े हाथो चन्दनलेपके समान शोतल गङ्गाको प्राप्त कर सूर्यके आतापजन्य दुःखको मिटा डालते हैं ।
यहाँ गंगाजलका उपमान चन्दनलेप है और धर्मतीर्थका उपमान गंगाजल है। जनका उपमान गज है। इस प्रकार इस पद्यमें संसार-आतापको शान्तिके लिए धर्मतीर्थका सामर्थ्य विभिन्न उपमानों द्वारा दिखलाया गया है ।
चन्द्रप्रभजिनकी स्तुति करते हुए उनको संसारका अद्वितीय चन्द्रमा कहा है तथा उपमा द्वारा आराध्यकी रूपाकृतिका मनोरम चित्र अंकित किया है
चन्द्रप्रभ चन्द्र-मरीचि-गौर चन्द्र द्वितीयं जगतोव कान्तम् ।
वन्देऽभिवन्दा गहतामृषीन्द्रं जिनं जित-स्वान्त-कषाय-बन्धम ॥२ चन्द्रकिरणके समान गौरवणसे युक्त चन्द्रप्रभजिन जगत्में द्वितीय चन्द्रमाके समान दीप्तिमान हैं, जिन्होंने अपने अन्तःकरणके कषायबन्धनको जीत अकपायपद प्राप्त किया है और जो ऋद्धिधारी मुनियोंके स्वामी तथा महात्माओं द्वारा वन्दनीय हैं।
इस पद्यमें 'चन्द्रमरीचिगौर' उपमान है, इस उपमान द्वारा चन्द्रप्रभतीर्थकरके गौरवर्ण शरीरकी आकृतिका सुन्दर अंकन किया है।
चन्द्रप्रभजिनके प्रवचनको सिंहका रूपक और एकान्तवादियोंको मदोन्मत्त गजका रूपक देकर कविने आराध्यके उपदेशकी महत्ता प्रदर्शित की है। इस प्रसंगमें रूपक-अलंकारको योजना बहुत ही सर्कसंगत है । यथा
"स्व-पक्ष-सोस्थित्य-मदाऽवलिप्ता वासिंह-नाविमदा वभूवुः ।
प्रवादिनो यस्य मदागण्डा गजा यथा केसरिणो निनादैः ।।"3 जिनके प्रवचनरूप सिंहनादोंको सुनकर अपने मतको सुस्थितिका घमण्ड रखनेवाले प्रवादिजन उसी प्रकार निर्मद हुए हैं, जिस प्रकार मद झरते हुए उन्मत्त हाथी केसरी--सिंहकी गर्जनाको सुनकर निर्मद हो जाते हैं । १. स्वयम्भूस्तोत्र, २०४। २. स्वम्भूस्तोत्र, ८१। ३. वही, ८१३ ।
पुप्तषर और सारस्वताचार्य : २०१
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चन्दन, चन्द्रकिरण, गंगाजल और मुक्ताओंको हारयष्टिकी शीतलताका निषेध कर शीतलनाथ तीर्थकरके वचनोंको आचार्य समन्तभद्रने शीतल सिद्ध किया है। प्रस्तुत सन्दर्भमै व्यतिरेक-अलंकार द्वारा उपमेयमें गुणाधिक्यका आरोप कर उपमानोंमें न्यून गुणका समावेश किया है। शीतलनाथ तीर्थकरके सद्गुणोंका उत्कर्ष यहाँ प्रस्तुत किया गया है । गुणत्व हो उत्कर्षापकर्षका आधार है। अत: तीर्थकरकी अमृतवाणीको शीतलताका चरम साधन मानकर उपमानोंके साधारण धर्मसे आधिक्य दिखलाया गया है । वाणीमें शीतलता और माधुर्यके साथ अमृतत्व भी है, जिससे वह चन्दन, चन्द्रकिरण आदिको अपेक्षा अधिक शोतलता प्रदान करनेकी क्षमता रखती है । यया
"न शीतलाश्चन्दनचन्द्र रश्मयो न गाङ्गमम्भो न च हारयष्ट्यः । यथा मुनेस्तेऽनध! वाक्य-रश्मयः शमाम्बुगर्भाः शिशिरा विपश्चिताम् ॥'
हे अनघ ! निरवद्य निर्दोष श्रीशीतलजिन ! आप जैसे प्रत्यक्षज्ञानी मुनिकी प्रशमजलसे बाप्लावित वाक्यरश्मियां संसार-तापको दूर करने के हेतु उतनी शीतल हैं, जितनी न तो चन्द्रकिरण शीतल है, न चन्दन है, न गङ्गाजल शीतल है और न मोतियोंको हाराष्ट्र ही। तात्पर्य यह है कि शीतलजिनकी अमृतवाणी चन्दन, चन्द्रकिरण, गङ्गाजल और मुक्ताहारयष्टिसे अधिक शीतल और सुखप्रद है। ___ कविताका विषय हृदयको अनुभूति है। अनुभूतिकी अवस्थामें समस्त स्नायुमण्डल तदनुकूल रूप धारण करता है और सच्चरित वाक्यालिम अपूर्व प्रवाह उत्पन्न हो जाता है। अनुभूतिके समयमें हृदयकी प्रधानतः दो अवस्थाएं होती हैं । ये अवस्थाएं हैं-१. उल्लास और २. विह्वलता । कवि जब उल्लसित होता है, तो वह गाता है । यही कारण है कि स्तोत्रोंके समय में कविकी तन्मयता चरमसीमाको पहुँच जाती है। बाराध्यके चरणोंमें वीतरागताकी प्राप्तिके लिए कवि अपनेको समर्पित कर देता है। भाव जहाँ उसके हृदयको उल्लसित और उद्वेलित करते हैं, वहां रमणीय वाक्यावलिके शब्द उसके हृदयको चमत्कारसे भर देते हैं।
चित्रकाव्यमें हृदयकी भावावस्था उतनी द्रवित नहीं होती, जितनी चमस्कारको योजना होनेसे कौतूहल । अतएव संस्कृतकाव्यमें सर्वप्रथम चित्र, श्लेष और यमकका प्रादुर्भाव हआ। भावावस्था में स्थायित्व नहीं रहता है, यतः भाव क्षणभरमें उत्पन्न और विलीन होते रहते हैं, पर चमत्कृत दशा अधिक १. स्वयम्भूस्तोत्र, १०१। २०२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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समय तक विद्यमान रहती है। यही कारण है कि वैदिक ऋषियोंने भी वैदिक मन्त्रोंके प्रयोगमें शब्द रमणीयताको स्थान दिया है । उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक प्रभृति अलंकारोंके साथ श्लेष और यमक भो उपलब्ध हैं ।
स्वामी समन्तभद्रने स्तुतिविद्या में हृदयको भावावस्थाको अधिक क्षणोंतक बनाये रखने के लिए शब्दोंको रम्यकोडाको स्थान दिया है। इसके बिना हृदयमें कोतुहलको स्थिति प्रबल वेंगके साथ जागृत नहीं की जा सकती है । सवेदनाओंको शब्दोंकी रम्यताके गर्भसे प्रस्फुटितकर कौतूहल स्थिति तक पहुँचा देना है । आचार्य समन्तभद्र के चित्रबन्ध केवल शाब्दी रमणीयताका हो सृजन नहीं करते हैं, अपितु इनमें वक्रोकि ओर स्वभावोक्तियोंका चमत्कार भी निहित है ।
'तकार' व्यञ्जन द्वारा निम्नलिखित पद्यका गुम्फन किया है । श्लोक के प्रथमपादमें जो अक्षर है, वे ही सब अगले पादोंमें यत्र-तत्र व्यवस्थित हैं । साध्यरूपमें यहाँ शाब्दी क्रीडा नहीं है, अपितु साधनके रूपमें है, जिससे शब्दचमत्कार 'परिच्छित्ति की योजना द्वारा निर्मित हुआ है ।
ततोतित्ता तु तेतीतस्तोतृतोती तितो तृतः । ततोऽवासितोत्तोते ततता ते ततोततः ॥
हे भगवन् ! आपने ज्ञानावरणादि कर्मोंको नष्ट कर केवलज्ञानादि विशेषगुणोंको प्राप्त किया है, तथा आप परिग्रहरहित स्वतन्त्र है । अतः आप पूज्य और सुरक्षित है । आपने ज्ञानावरणादि कर्मो के विस्तृत - अनादिकालिक सम्बन्धको नष्ट कर दिया है | अतः आपको विशालता - प्रभुता स्पष्ट है - आप तोनों लोकोंके स्वामी है ।
एक-एक व्यंजनके अक्षरक्रमसे प्रत्येक पादका ग्रथन कर चित्रालकारकी योजना द्वारा भावाभिव्यक्ति की गयी है । यहाँ शब्दचमत्कार के साथ अर्थचमत्कार भी प्राप्य है-
येायायाया नानाननाननानन । ममममममामा मिताततीतिततोतितः ॥
हे भगवन्! आपका मोक्षमार्ग उन्हीं जीवोंको प्राप्त हो सकता है, जो कि पुण्यबन्धके सम्मुख हैं अथवा जिन्होंने पुण्यबन्ध कर लिया है। समवशरण में आपके चार मुख दिखलाई पड़ते हैं । आप केवलज्ञानसे युक्त हैं तथा ममता
१. स्तुतिविद्या, पद्म १३ २. स्तुतिविद्या, पद्म १४ ।
श्रुतघर और मारस्वताचार्य : २०३
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भावसे-मोहपरिणामोंसे रहित है, तो भी आप सांसारिक बड़ी-बड़ी व्याधियोंको नष्ट कर देते हैं । हे प्रभो ! मेरे भी जन्म-मरणरूप रोगको नष्ट कर दोजिए।
चन्द्रप्रभ और शीतलजिन स्तुति करते हुए मुजंबन्धोंकी योजनामें व्यतिरेक और श्लेष अलंकारको दिव्य आभाका मिश्रण उपलब्ध होता है
"प्रकाशयन समुद्भुतस्त्वमुद्धाकलालयः ।
विकासयन् समुद्भूतः कुमुदं कमलाप्रियः । हे प्रभो! आप चन्द्ररूप हैं, क्योंकि जिस प्रकार चन्द्रमा उदय होते ही आकाशको प्रकाशित करता है, उसो तरह आप भी समस्त लोकाकाश और अलोकाकाशको प्रकाशित करते हैं । चन्द्रमा जिस प्रकार मृगलांछनसे युक्त है, उसी प्रकार आप भो मनोहर अर्द्धचन्द्रसे युक्त हैं । चन्द्रमा जिस प्रकार सोलह कलाओंका आलय-गृह होता है, उसी तरह आप भी केवलज्ञानादि अनेक कलाओंके आलय-स्थान हैं । चन्द्रमा जिस तरह कुमुदों-नीलकुमुदोंको विकसित करता हुआ उदित होता है. उसी तरह आप भी पथ्वीके समस्त प्राणियोंको आनन्दित करते हैं। चन्द्रमा जिस प्रकार कमलाप्रिय-कमलश होता है, उसी प्रकार आप भी कमलाप्रिय केवलज्ञानादि लक्ष्मोके प्रिय हैं।
श्लेषके समान हो उपर्युक्त पद्यमें व्यतिरेक अलंकार भी है । इस अलंकारके प्रकाशमें चन्द्रमाकी अपेक्षा सोधकर चन्द्रप्रभकी महत्ता प्रदर्शित की गयी है । चन्द्रप्रभमें गुणोंका उत्कर्ष और चन्द्रमामें अपकर्ष दिखलाया गया है।
श्रेयोजिनकी स्तुति में 'अर्द्धभ्रम'का प्रयोग किया है। इसमें औष्ठ्य बोका अभाव है, और चतुर्थ पादके समस्त अक्षरोंको अन्य तीन पादोंमें समाहित किया है
"हरतीज्याहिता तान्ति रक्षार्थायस्य नेदिता।
तीर्थादश्रेयसे नेताज्यायः श्रेयस्ययस्य हि॥ कुछ ऐसे भी पञ्च हैं, जिन्हें क्रमके साथ विपरीत क्रमसे भी पढ़ा जा सकता है, और विपरीत क्रमसे पड़नेपर भिन्नार्थक पद्य ही बन जाता है। कविने स्वयं ही अनुलोम-प्रतिलोमक्रमसे श्लोकोंका प्रणयन किया है । यया
"रक्षमाक्षर वामेश शमी चारुरुचानुतः ।
भो विभोनशनाजोख्नन बिजरामयः ।। १. स्तुति विद्या, पच ३१ । २. मही, पच ४३ । ३. वही, पद्य ८६ । २०४ : तोचकर महावीर और उनकी वाचार्य-परम्परा
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इसी पद्यको प्रतिलोमक्रमसे पढ़नेपर निम्नलिखित पद्य निर्मित होता है ।
" यमराज विनम्रेन रुजोनाशन भो विभो । चारुरुचामीश शमेवारक्ष
माक्षर' ||
तनु
शब्द और अर्थ चमत्कार के साथ नादानुकृति भी कल्पना द्वारा आराध्य की शरीराकृतिके साथ गुणोंका हुआ है।
विद्यमान है। विधायक समवाय भी अभिव्यक्त
इस प्रकार आचार्य समन्तभद्रने जैनन्याथको तार्किकरूप प्रदान करनेके साथ संस्कृतकाव्यको निम्नलिखित तत्त्व प्रदान किये हैं
१. चित्रालंकारका प्रारम्भ
२. श्लेष और यमकों द्वारा काव्यशैलीका उदात्तीकरण
३. शतककाव्यका सूत्रपात
४. स्तवनों में बाह्य चित्रणकी अपेक्षा अन्तरंग गुणों एवं अनेकान्तात्मक सिद्धान्तोंकी बहुलता
५. दर्शन और काव्यभावनाका मणिकांचनसंयोग
आचार्य समन्तभद्रके उक्त काव्यतत्त्वोंका संस्कृत काव्यतत्वोंपर पूर्ण प्रभाव पड़ा है। जब संस्कृत्तकाव्यवा प्रणयन मध्यदेशसे स्थानान्तरित हो गुजरात, कश्मीर और दक्षिणभारतमें प्रविष्ट हुआ, तो समन्तभद्रके काव्यसिद्धान्त सर्वत्र प्रचलित हो गये । भारविमें एकाएक चित्र और श्लेषका प्रादुर्भाव नहीं हुआ है, अपितु समन्तभद्रके काव्य सिद्धान्तोंका उनपर प्रभाव है । मलाबार निवासी वासुदेव कविने यमक और श्लेष सम्बन्धी जिन प्रसिद्ध काव्योंकी रचना की है, उनके लिए वे शैली के क्षेत्रम समन्तभद्र के ऋणी हैं । कवि कुञ्जर द्वारा लिखित राघवपाण्डवीय पर भी समन्तभद्रकी शैलोका प्रभाव है । अतः संक्षेपमें दर्शन, आचार, तर्क, न्याय आदि क्षेत्रोंम प्रस्तुत किये गये ग्रन्थोंकी दृष्टिसे समन्तभद्र ऐसे सारस्वताचार्य है, जिन्होंने कुन्दकुन्दादि आचार्योंके वचनोंको ग्रहण कर, सर्वज्ञका वाणीको एक नये रूपमें प्रस्तुत किया है ।
आचार्य सिद्धसेन
कवि और दार्शनिक के रूप में सिद्धसेन प्रसिद्ध है । श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराएं इन्हें अपना-अपना आचार्य मानती हैं। आचार्य जिनसेनने अपने आदिपुराण में सिद्धसेनको कवि और वादिगजकेसरो दोनों कहा है१. स्तुति विद्या, पद्य ८७ ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : २०५
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कवयः सिद्धसेनाद्या वयं च कवयो मताः । मणय: पद्मरागाचा ननु काचोऽपि मेचकः । प्रवादिकरियूपानां केसरी नयकेसरः |
सिद्धसेनकविर्जीयाद्विकल्पनखराङ्करः ॥' पूर्वकालमें सिद्धसेन आदि अनेक कवि हो गये हैं और में भी कवि हूँ। पर दोनोंमें उतना ही अन्तर है, जितना कि पारागर्माण और कांचर्माणमें होता है।
वे सिद्धसेन कवि जयवन्त हों, जो प्रवादिरूपी हाथियोंके झुण्डके लिए सिंहके समान हैं। नेगमादि नय हो जिनके केशर-अयाल तथा अस्ति-नास्ति आदि विकल्प ही जिनके तीक्ष्ण नाखून थे। ___ आचार्य हेमचन्द्रने अपने शब्दानुशासनमें "उस्कृष्टेनूपेन" (रा२।३९) सूत्रके उदाहरणमें 'अनुसिद्धसेनं कवयः' द्वारा सिद्धसेनको सबसे बड़ा कवि बताया है।
जैनेन्द्र व्याकरणके 'उपेन' (११४१६) सूत्रको वृत्तिमें अभयनन्दिने 'उपसिद्धसेनं वैयाकरणाः' उदाहरण द्वारा सिद्धसेनको श्रेष्ठ व्याकरण बतलाया है।
जिनसेन प्रथमने अपने 'हरिवंशपुराण में सिद्धसेनकी सूक्तियों (वचनों) को तीर्थंकर ऋषभदेवकी सूक्तियोंके समान सारयुक्त एवं महत्त्वपूर्ण बतलाया है । यथा
जगत्प्रसिद्धबोषस्य वृषभस्येव निस्तुषाः ।
बोधन्ति सतां बुद्धि सिद्धसेनस्य सूक्तयः ।। अर्थात् जिनका श्रेष्ठ ज्ञान संसारमें सर्वत्र प्रसिद्ध है ऐसे श्री सिद्धसेनकी निर्मल सूक्तियाँ श्रीऋषभ जिनेन्द्रको सूक्तियोंके समान सस्पुरुषोंको बुद्धिको सदा विकसित करती हैं। जीवन-परिचय
सिद्धसेनके जीवन-वृत्तके सम्बन्धमें प्रभावकचरितमें जो तथ्य उपलब्ध हैं उनसे प्रकट है कि उज्जयिनी नगरीके कात्यायन गोत्रीय देवर्षि ब्राह्मणकी देवश्री पत्नीके उदरसे इनका जन्म हआ था। ये प्रतिभाशाली और समस्त शास्त्रोंके पारंगत विद्वान थे। वृद्धवादि जब उज्जयिनी नगरीमें पधारे तो उनके साथ सिद्धसेनका शास्त्रार्थ हुआ। सिद्धसेन वृद्धवादिसे बहुत प्रभावित हुए और उनका १. आदिपुराण, भाग १, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण-१॥३९-४२ । २. हरिवंशपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण-२३० । २०६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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शिष्यत्व स्वीकार कर लिया । मुरुने इनका दीक्षानाम कुमुदचन्द्र रखा। आगे चलकर ये सिद्धसेनके नामसे प्रसिद्ध हए । हरिभद्रके 'पचवस्तु' अन्यमें 'दिवाकर' विशेषण उपलब्ध होता है। उसमें बताया गया है कि दुषमकालरूप रात्रिके लिए दिवाकर - सूर्यके समान होनेसे दिवाकरका विरुद इन्हें प्राप्त था ।
आयरियसिद्धसेणेण सम्मइए पइट्ठि अजसेणं ।
दूसर्माणसा-दिवागर कप्पंतणो तदक्खेणं ॥ सन्मति-टीकाके प्रारम्भमें अभयदेवसूरि (१२वीं शती ई०)ने भी इन्हें दिवाकर कहा है । दुःषमाकाल श्रमणसंघकी अवचूरिमें सिद्धसेनको 'दिवाकर' के स्थानपर 'प्रभावक' लिखा गया है और इनके गुरुका नाम धर्माचार्य बताया है।
इनके सम्बन्धमें यह भी कहा जाता है कि इन्होंने उज्जयिनीमें महाकालके मन्दिरमें 'कल्याणमन्दिर' स्तोत्र द्वारा रुद्र-लिङ्गका स्फोटन कर पाश्वनायका बिम्ब प्रकट किया था और विक्रमादित्य राजाको सम्बोधित किया पा । यथा
'वृद्धवादी पादलिप्ताश्चात्र तथा सिद्धसेनदिवाकरो येनोज्जयिन्यां महाकालप्रासाद-रुद्रलिङ्गस्फोटनं विधाय कल्याणमन्दिरस्तवेन श्रीपार्श्वनाथबिम्ब प्रकटीकृतं श्रीविक्रमादित्यश्च प्रतिबोधितस्तद्राज्यं तु श्रीवीरसप्ततिवर्षचतुष्टये सज्ञातम् ।।
पट्टावलीसारोदारमें लिखा है
'तथा सिद्धसेनदिवाकरोऽपि जातो येनोज्जयिन्यां महाकालपासादे रुद्रलिङ्गस्फोटनं कृत्वा कल्याणमन्दिरस्तवनेन श्रीपार्श्वनाथबिम्बं प्रकटोकृत्य श्रीविक्रमादित्यराजापि प्रतिबोधितः श्रीवीरनिर्वाणात् सप्ततिवर्षाधिकशतचतुष्टये ४७० विक्रमे श्रीविक्रमादित्यराज्यं सजातम् । ____ गुरुपट्टाबली में भी इसी तथ्यकी पुनरावृत्ति प्राप्त होती है तथा श्रीसिद्धसेनदिवाकरेणोजयिनीनगयाँ महाकालप्रासादे लिङ्गस्फोटनं विधाय स्तुत्या ११ काव्ये श्रीपाश्वनाथबिम्बं प्रकटीकृतम्" कल्याणमन्दिरस्तोत्रं कृतम् ।' १ प्रमावकमरितके अन्तर्गत वृद्धवादिसूरि-चरितम्, १० ५५-६. । २. हरिभा-पञ्चवस्तु गाथा १४०८ । ३. अनेकान्त, बर्ष ९, किरण ११, पृ. ४५७ । ४. मुनि दर्शमविजय द्वारा सम्पादित पट्टाबलीसमुच्चय, प्रबम माग । ५. वही, पृ० १५०। ६. पट्टायलीसमुच्चय, पृ. १६६ ।
श्रुतधर कौर सारस्वताचार्य : २०७
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इन पट्टावलियोंसे ज्ञात होता है कि सिद्धसेनके प्रभावसे उज्जयिनी में शिवलिङ्ग-स्फोटनकी घटना घटी थी। पट्टावलियों के कालक्रमके अवलोकनसे प्रतीत होता है कि उज्जयिनीकी इस घटनाका रामावेश विक्रमको १५ वीं शताब्दी से हुआ है । अतः सम्भव है कि सिद्धसेन की इस घटनाको समन्तभद्रकी शिव पिण्डस्फोटनको घटना अनुकरणपर कल्पित किया गया हो ।
पण्डित जुगुल किशोरजी मुख्तारते सिद्धसेन के स्तुत्यात्मक साहित्यका आकलन कर निम्नलिखित निष्कर्ष उपस्थित किया है
"यहाँ 'स्तुतय:' 'यूथाधिपतेः' तथा 'तस्य शिशुः " ये पद खास तौर से ध्यान देने योग्य हैं । 'स्तुतयः' पदके द्वारा सिद्धसेनीय ग्रन्थोंके रूपमें उन द्वात्रिंशिकाओंको सूचना की गयी हैं जो स्तुत्यात्मक हैं और शेष पदोंके द्वारा सिद्धसेनको अपने सम्प्रदायका प्रमुख आचार्य और अपनेका उनका परम्पराशिष्य घोषित किया गया है । इस तरह श्वेताम्बर सम्प्रदायके आचार्यरूपमें यहाँ वे सिद्धसेन विवक्षित हैं जो कतिपय स्तुतिरूप द्वात्रिंशिकाओंके कर्त्ता हैं, न कि वे सिद्धसेन जो कि स्तुत्येतरद्वात्रिंशिकाओंके अथवा खासकर 'सन्मति' सूत्र के रचयिता है । '
उपर्युक्त कथनसे यह स्पष्ट है कि मुख्तार साहब दो सिद्धसेन मानते है ! एक सिद्धसेन वे हैं जो सन्मतिसूत्र और रति है । और दूसरे वे सिद्धसेन, जिन्होंने स्तुतिरूप द्वात्रिंशिकाओंकी रचना की है ।
दिवाकरयतिके रूप में रविषेणाचार्य के पद्मचरितकी प्रशस्ति में भी एक सिद्धसेनका उल्लेख आया है। इसमें इन्हें इन्द्रगुरुका शिष्य, अर्हन् मुनिका गुरु और रविषेणके गुरु लक्ष्मणसेनका दादागुरु बतलाया है ।
आसीदिन्द्रगुरोदिवाकर-यतिः शिष्योऽस्य चान्मुनिः । तस्माल्लक्ष्मणसेन - सन्मुनिरदः शिष्यो रविस्तु स्मृतम् ॥ ३
ליי
यहाँ यह स्मरणीय है कि श्वेताम्बर प्रबन्धों और पट्टावलियोंके समान सिद्धसेन के साथ उज्जयिनीके महाकाल मंदिर में घटित घटनाका उल्लेख दिगम्बर सम्प्रदाय में भी पाया जाता है । सेनगणकी पट्टावलीके निम्न वाक्यमें कहा है
१. पत्र सिद्धसेन स्तुतयो महाश्र अशिक्षितालापकला क्व चैषा । तथाऽपि यूषाधिपतेः पथस्थः स्वलद्गतिस्तस्य शिशूनं शोच्यः ॥
२. अनेकान्त बर्ष ९, किरण ११, पृ० ४५९ । ३. पद्मचरित भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, १२३०१६७
२०८ : सीर्थंकर महावीर और उनको बाचार्य-परम्परा
- हेमचन्द्र द्वात्रिंशिका |
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"(स्वस्ति) श्रीमदुज्जयिनीमहाकालसंस्थापनमहाकाललिङ्गमहोघर-वाग्वदण्डविष्ट्याविष्कृतश्रीपार्वतीर्थेश्वरप्रतिद्वन्द्वश्रीसिद्धसेनमट्टारकाणाम॥१४॥ समय-निर्धारण
सिद्धसेनके समयके सम्बन्धमें अनेक मान्यताए प्रचलित हैं। एक मान्यता इनको प्रथम शतीका विद्वान् स्वीकार करती है और प्रमाणमें पट्टावली-समुञ्चयमें सङ्कलित पट्टावलियोंको प्रस्तुत करती है । पर यह मत प्रमाणभूत नहीं है । यतः विक्रमादित्य नामके कई राजा हुए हैं। अतएव पट्टावलीमें उल्लिखित विक्रमादित्य वि० सं० का प्रवर्तक नहीं है। उजयिनीके साथ कई विक्रमादित्योंका सम्बन्ध है। अतः सम्भव है कि यह विक्रमादित्य विक्रम उपाधिधारी चन्द्रगुप्त द्वितीय हो ।
द्विसीय मतके अनुसार सिद्धसेनका समय जैनेन्द्र व्याकरणके रयिता पूज्यपादसे पूर्व माना गया है । इस मतके प्रवर्तक बाचार्य पण्डित सुखलालजी संभवी है। आपने पूज्यपादके व्याकरणगत "वेत्तेः सिद्धसेनस्य" ५।१७ सत्र में निर्विष्ट सिबसेनके मसका निरूपण करते हुए कहा है कि अनुपसग और सकर्मक
विद् धातुसे रेफका आगम होता है। इस मान्यताका प्रयोग नवमी विशिफाफे २२वें पचमें 'विद्रते' इस प्रकार रेफ आगमवाला प्रयोग पाया जाता है। अन्य वैयाकरण सम उपसर्गपूर्वक और अकर्मक/विद् धातुमें 'र' का आगम मानते हैं । पर सिद्धसेन अनुपसर्ग और सकर्मक/विद्धातुमें रेफका आगम स्वीकार करते हैं। इनकी इस विलक्षणताका निर्देश उनका बहुश्रुतत्व सूचित करता है । इसके अतिरिक्त सर्वार्थसिद्धिके सातवें अध्यायके १३वे सूत्रमें "उक्तञ्च' के बाद सिद्धसेन दिवाकरके एक पद्यका अंश उद्धृत मिलता है।' इससे उनका समय पूज्यपादके पूर्व विक्रमको पञ्चम शताब्दीका प्रथम पाद अथवा चतुर्थ शताब्दीका अन्तिम पाद होना चाहिए ।
मुनि जिनविजयजीने मल्लवादिके "द्वादशारनयचक्र'' में 'दिवाकर' का उल्लेख प्राप्त कर और प्रभावकारतके अन्तर्गत 'विजयसिंहचरितम्' में वीर निर्वाण संवत् ८८४को मल्लवादिका समय मानकर सिद्धसेनका काल वि० सं० ४१४ माना है।
१. वियोजयति चासुमिर्न न वधेन संयुज्यते,
शिकं च न परोपमर्दपु (प) रुषस्मृतेविधते ।।३।१६।। २. जैन साहित्य संशोधक, भाग २ ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : २०९
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सीसरे मतके प्रवत्तक डॉ. हीरालालजी जैन हैं। इन्होंने सिद्धसेनको गुप्तकालीन सिद्ध किया है। एक द्वात्रिशिकाके आधारपर विक्रमादित्य उपाधिधारी चन्द्रगुस द्वितीयका समकालीन माना है' । अन्यत्र भी आपने लिखा है
"सम्मइसुसका' रचनाकाल चोथी-पांचवीं शताब्दी ई० है ।" डॉ० जैनकी मान्यता पण्डित सुखलालजी संघवीके समान ही है।
चतुर्थ मत डॉ० पी० एल० वैद्यका है, जिन्होंने न्यायावतारकी प्रस्तावनामें प्रभावकचरितके निम्नलिखित पद्यको उद्धृत किया है और उसमें आये 'वीरवत्सरात्' पदकी व्याख्या 'वीरविक्रमात्' पाठ मानकर को है--
श्रीवीरवत्सरादषशताष्टके चतुरशीतिसंयुफ्ते ।
जिग्ये स मल्लवादो बौद्धस्तद्वयन्तरांश्चापि ॥ तदनुसार डॉ. वंद्य सिद्धसेनका समय आठवीं शती मानते हैं । आचार्य जगल किशोर मुख्तारने अनेक तर्क और प्रमाणोंके आधारपर न्यायावतारके कर्ता सिद्धसेन और कतिपय द्वात्रिशिकाओंके कर्ता सिद्धसेनको सन्मतितके कर्ता सिद्धसेनसे भिन्न माना है। इस मिनिस लौर सिस' गीर्षक विस्तृत निबन्धमें यह निष्कर्ष निकाला है कि 'सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन दिगम्बर विद्वान् है और न्यायावतारके कर्ता श्वेताम्बर । द्वात्रिशिकाओंमें कुछके रचयिता दिगम्बर सिद्धसेन हैं और कुछके कर्ता श्वेताम्बर सिद्धसेन । श्वेताम्बर सम्प्रदायमें श्वेताम्बर आगमोंको संस्कृत में रूपान्तरित करनेके विचारमात्रसे सिद्धसेनको बारह वर्ष के लिए संघसे निष्कासित करनेका दण्ड दिया गया था । इस अवधि . सिद्धसेन दिगम्बर साधुओंके सम्पर्क में आये और उनके विचारोंसे प्रभावित हुए। विशेषतः समन्तभद्र के जीवनवृत्तान्तों और उनके साहित्यका उनपर सबसे अधिक प्रभाव पड़ा, इसलिए वे उन्हीं जैसे स्तुत्यादि कार्योमें प्रवृत्त हुए। उन्हीके साहित्यके संस्कारोंके कारण सिद्धसेनके साथ उज्जयिनीकी वह महाकालवाली घटना भी घटित हुई होगी, जिससे उनका प्रभाव सर्वत्र व्याप्त हो गया होगा। सिद्धसेनके इस बढ़ते प्रभावके कारण ही श्वेताम्बर संघको अपनी भलका अनुभव हुआ होगा और प्रायश्चित्तकी शेष अवधिको रहकर उन्हें प्रभावक आचार्य घोषित किया गया होगा।
दिगम्बर सम्प्रदायमें सिद्धसेनको सेनगणका आचार्य माना गया है । अतएव १. A contemporary ode to Chandragupta Vitramaditya, २. भारतीय संस्कृतिमें जैनधर्मका योगदान : मध्यप्रदेश शासन संस्करण, १०-८७ । ३. प्रमाकरित : सिंधी जैनग्रन्थमाला, पृ०-४४, पद्य-८३ ।
२१. : तोपकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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'सन्मतिसूत्र'के कर्ता सिद्धसेनका समय समन्तभद्रके पश्चात् और पूज्यपादके पूर्व या समकालिक माना जा सकता है । ___ आचार्य मुख्तार साहबकी दो सिद्धमेवानी मान्यता बुद्धिसंगत प्रतीत होतो है। ग्रन्थके अन्तरंग परीक्षणसे मुख्तारसाहबने बतलाया है कि विक्रम संवत् ६६६के पूर्व सिद्धसेन हुए हैं । 'सन्मति सूत्रके कर्ता सिद्धसेन केवलीके शान-दर्शनोपयोग-विषयमें अमेववादके पुरस्कर्ता हैं। उनके इस अभेदवादका खण्डन दिगंबर सम्प्रदायमें अकलंकदेवने तरवार्थवात्तिमें और श्वेताम्बर सम्प्रदायमें सर्वप्रथम जिनभद्र क्षमाश्रमणके "विशेषावश्यकभाष्य' और 'विशेषेणती' ग्रन्थोंमें किया है। साथ ही सन्मतिसूत्रके तृतीय काण्डकी "णस्थि पुढवीविसिट्टो" और "दोहि वि णहि गोय" गाथाएं विशेषावश्यकभाष्यमें क्रमशः मा० नं० २१०४, २१९५ पर उद्धृत पायी जाती हैं । इसके अतिरिक्त विशेषावश्यकभाष्यको स्वोपाटीकामें 'णामायिं दबट्टियस्स' इत्यादि गाथाकी व्याख्या करते हुए लिखा है
"द्रव्यास्तिकनयावलम्बिनी संग्रह-व्यवहारो ऋजुसूत्रादयस्तु पर्यायनयमतानु. सारिणः आचार्यसिद्धसेनाऽभिप्रायात्"।
इन उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि सिद्धसेनके मसका और उनके गाथावाक्योंका उनमें उल्लेख किया गया है | अकलंकदेव विक्रम संवत् ७ वीं शताब्दीके विद्वान् हैं और जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने विशेषावश्यकभाष्यको रचना शक सं० ५३१ (वि० सं०६६६) में की है। अतएव सिद्धसेन विक्रमकी ७ वीं शताब्दीसे पूर्ववर्ती हैं। उल्लेखनीय है कि आचार्य वीरसेनने भी धवला' और जयधवला दोनोंमें सिद्धसेनके सन्मतिसूत्रके नामनिर्देशपूर्वक उसके वाक्योंको उद्धृत किया है तथा उनके साथ होनेवाले विरोधका परिहार किया है । वोरसेनका समय ईसाको ९ मी शती है। अतः सिद्धसेन स्पष्टतया उनसे भी पूर्ववर्ती सिद्ध है। पूज्यपाद देवनन्दिने सन्मतिसूत्रके ज्ञानदर्शनोपयोगके अमेदवादकी चर्चा तक नहीं को, जब कि अकलंकदेवने तत्त्वार्थवात्तिकमें उसको चर्चा ही नहीं, सयुक्तिक मीमासा भी की है। यदि पूज्यपादसे पूर्व सन्मतिसूत्र रचा गया होता, तो पूज्यपाद अकलंकको तरह उसके अमेदबादकी मोमांसापूर्वक ही युगपद्वादका प्रतिपादन करते। अतः सिद्धसेनका समय पूज्यपाद (वि० की ६ठी शसी) और अकलक (वि० की ७ वीं शती) का मध्यकाल अर्थात् वि० सं० ६२५ के आसपास होना चाहिए ।
१. षटलण्डागम, धवला, पु० १ पृ० १५ । २. कषायपाइड, जयपवला, पु. १, पृ० २६० ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ११
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रचनाएँ
उपयुक्त विवेचनसे स्पष्ट है कि सिद्धसेन नामके एक-से अधिक विद्वान् हुए हैं । सन्मतिसूत्र और कल्याणमन्दिर जैसे ग्रन्थोंके रचयिता सिद्धसेन दिगम्बर सम्प्रदायमें हुए हैं। इनके साथ दिवाकर विशेषण नहीं है। दिवाकर विशेषण श्वेताम्बर सम्प्रदायमें हुए सिद्धसेनके साथ पाया जाता है, जिनकी कुछ द्वात्रिशिकाएं, न्यायावतार आदि रचनाएं हैं। यहां दिगम्बर परम्परामें हुए सिद्धसेनकी उपलब्ध दो रचनाओंको विवेचित किया जाता है। सन्मतिसूत्र
प्राकृत भाषामें लिखित न्याय और दर्शनका यह अनूठा ग्रन्थ है । आचार्यने नयोंका सांगोपांग विवेचन कर जैनन्यायको सुदढ़ पद्धतिका आरम्भ किया है। भावान कारको पालो 'ग' बनाया और विभिन्न दर्शनोंका अन्तर्भाव विभिन्न नयोंमें किया है। इस ग्रन्यके ३ काण्ड हैं-(१) नयकाण्ड, जीवकाण्ड या शानकाण्ड और (३) सामान्य-विशेषकाण्ड या ज्ञेयकाण्ड ।
प्रथम काण्डमें ५४, द्वितीयमें ४३ और तृतीयमें ६९ गाथाएँ हैं । इस प्रकार कुल १६६ गाथाओं में ग्रन्थ समाप्त हुआ है ।
प्रथम काण्डमें द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नयोंके स्वरूपका विस्तारपूर्वक विवेचन आया है। तोयंकरवचनोंके सामान्य और विशेषभावके मूल प्रतिपादक ये दोनों ही नय हैं। शेष नयोंका विकास और निकास इन्हींसे हुआ है। लिखा है
तिस्थयरवयणसंगह-विसेसपत्थारमलवागरणी। दव्वदिओ य पज्जवणो य सेसा वियप्पा सिं॥ दवट्ठियनयपयडी सुद्धा संगहपरूवणाविसओ।
पडिलवे पुण वयणत्यनिन्छओ सस्स ववहारो॥ द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दोनों नय क्रमशः अभेद और भेदको ग्रहण करते हैं । तोर्थंकरके वचनोंकी सामान्य एवं विशेषरूप राशियोंके मूलप्रतिपादक द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक नय हैं। शेष नय मेद या अभेदको विषय करनेके कारण इन्हीं नयोंके उपभेद हैं । द्रव्याथिक नयको शुद्ध प्रकृति संग्रहको प्ररूपणाका विषय है और प्रत्येक वस्तुके सम्बन्धमें होनेवाला शब्दार्थ-निश्चय तो संग्रहका व्यवहार है। १, सन्मसिसूत्र, ज्ञानोदय ट्रस्ट, अहमदाबाद संस्करण, ११३-४ । २१२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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ऋणुसूत्रनय अर्थात् तदनुसारी जो वचन विभाग, वह पर्यायनयका मूल आधार है। शब्दनय, समभिरुवनय और एवंभूतनय उत्तरोत्तर सूक्ष्म मेव वाले होनेसे पर्यायनयके अन्तर्गत ही है। नाम, स्थापना और द्रव्य ये तीन द्रव्याथिकनयके निक्षेप है और भावनिक्षेप पर्यायार्षिक नयके अन्तर्गत है । इस प्रकार इस काण्डमें उत्पाद, व्यय और नोव्यात्मक वस्तुका निरूपण कर नयोंका विवेचन किया है । मनुष्य ओ कुछ को पसः या कहता है वह या तो बमेदकी ओर झुकता है या मेदको ओर । अभेदको दृष्टि से किये गये विचार और उसके द्वारा प्रतिपादित वस्तुको संग्रह या सामान्य कहते हैं। मेदकी दहिसे किया गया विचार और प्रतिपादित वस्तु विशेष कही जाती है। इस प्रकार इस काण्डमें द्रव्यायिक और पर्यायार्थिक नयोंका विश्लेषण किया गया है।
द्वितीय काण्डमें दर्शन और ज्ञानके स्वरूपका कथन करनेके पश्चात् आत्माके सामान्य विशेषात्मक स्वरूपका निरूपण कर द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नयोंको घटित किया है। इस द्वितीय काण्ड में ज्ञान और दर्शनके समयमेदका कथन करते हुए केवलोके ज्ञान और दर्शनकै अमेदवादका समर्थन किया है। लिखा है
मणपज्जवणाणतो णाणस्स य दरिसणस्स य विसेसो ।
केवलणाणं पुण दंसणं ति गाणं ति य समाण ।' ज्ञान और दर्शनका विश्लेषण अर्थात कालभेद मनःपर्यय ज्ञान तक है. पर केवलज्ञानके विषय में दर्शन और ज्ञान ये दोनों समान हैं । अर्थात् इन दोनोंका एक काल है ।
इस प्रकार केवलोके नान-दर्शनका अमेदवाद स्थापिस कर क्रमवादी और सहवादीको समीक्षा प्रस्तुत की है। ताकिक शैलीमें पक्ष प्रतिपक्ष स्थापन पुरस्सर विषयका निरूपण किया है । दर्शन और ज्ञान इन दोनोंको परिभाषा एवं विषय वस्तुका विवेचन करते हुए केवलज्ञानके पर्यायोंका कथन किया है।
तृतीय कापड में सामान्य और विशेषरूप वस्तुका कथन है । अतः इसे नेयकाण्ड कहा जा सकता है। सामान्य और विशेष परस्परमें एक दूसरेसे खर्णया भिन्न या सर्वथा अभिन्न नहीं हैं । आचार्यने लिखा है
सामण्णम्मि विसेसो विसेसपक्खे य वयणविणिवेसो । दयपरिणाममण्णं दाए तयं च णियमेइ ।।
१. सन्मतिसूत्र, ज्ञानोदय ट्रस्ट, बहमदाबाद संस्करण, २३ ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : २११
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एतणिविसेस एतावसि च बदमाशो दव्वस्स पज्जवे पज्जवा हि दवियं जियते' |
अर्थात् सामान्यमें विशेषविषयक वचनका और विशेषमें सामान्यविषयक वचनका जो प्रयोग होता है, वह अनुक्रमसे सामान्य -- द्रव्यके परिणामको उससे भिन्न रूप में दिखलाता है और उसे - विशेषको सामान्य में नियत करता है ।
एकान्त निर्विशेष सामान्यका और एकान्त विशेषका प्रतिपादन करनेवाला द्रयके पर्यायोंको उससे भिन्न और पृथक् बतलाता है। व्यवहार ज्ञानमूलक होता है और व्यवहारकी अबाधकता हो ज्ञानको यथार्थताका प्रमाण है । वस्तु का स्वरूप निश्चित करनेका एकमात्र साधन यथार्थज्ञान है और वस्तु सामान्यविशेषात्मक है। न तो सामान्य रहित विशेषको प्रतीति होती है और न विशेषरहित सामान्यको हो । सामान्य और विशेष दोनों परस्परमें सापेक्ष है । इस काण्डके अन्त में भगवान् जिनवचन --- अनेकान्तकी भद्र-कामना की हैभद्दे मिच्छादंसणसमूह मह्यस्य अमयसारस्स | traणस्स भगवओ संविग्गसुहागिम्मस्स ||
भगवान् जिनवचन-अनेकान्तशासनका भद्र हो - सबका कल्याण करता हुआ सदा विद्यमान रहे, जो मिथ्यादर्शनों के समूहका मथक - उनमें परस्पर सापेक्षता स्थापक है, अमृतसार है और निष्पक्ष जनों द्वारा सरलतासे ज्ञातव्य है ।
इस ग्रन्थकी प्राकृत भाषा महाराष्ट्री है । 'य' श्रुतिका पालन सर्वत्र हुआ है । 'य' श्रुतिकी यह व्यवस्था वररुचिके व्याकरणमें नहीं मिलती । प्राकृत वैयाकरणों में आचार्य हेमचन्द्रने हो 'य' श्रुतिका विधान किया है। श्वेताम्बर आगम ग्रन्थों की प्राकृत अर्धमागधी है, पर इस ग्रन्थको प्राकृत महाराष्ट्री है, जो शौरसेनीका एक उपभेद है । इस भाषाका प्रयोग ई० सन् की चौथी पांचवीं शताब्दी से हुआ है । नाटकीय शौरसेनी और जैन शौरसेनीके प्रभावसे ही उक्त महाराष्ष्ट्रीका भेद विकसित हुआ है। यहां 'य' श्रुतिके कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं
" तित्थयर ( तीर्थंकर) ११३, वयण ( वदन) १३, सुमभेया (सूक्ष्मभेदा), पयडी (प्रकृति) ११४, जयवाया ( नयवादाः ) ११२५ वियप्पं (विकल्प) ११३३, सत्तवियप्पो ( सप्तविकल्पः ) ११४१, जयव्वं ( यतितव्यम् ) ३६५ सुयणाण (श्रुतज्ञान) २२७ सयले (सकले ) २२२८, सायारं (साकार) २११० सवा (सदा) २११०, यि (निज) २।१४ आदि ।
१. सम्मतिसूत्र, अहमदाबाद संस्करण, ३।१-२ ॥ २. वही, ३६९ ॥
२१४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्पर।
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___महाराष्ट्रीकी अन्य प्रवृत्तियोंमें प्रयमा विभकिके एक वचनमें ओकारका पाया जाना भी उपलब्ध है । यथा-पजणओ (पर्यायापिकनयः) २३, विसओ (विषयः) १४, बवहारो (व्यवहारः) १२४, दविओवओगो (द्रव्योपयोगः) २८, मगो (संसार १५, समूहसिद्धो (समहसिङ्गः ॥२७, अत्थो (अर्थः) ११२७ अगाइणिणो (अनादिनिधनः) ११३७ आदि।
सप्तभी विभक्तिके एक वचनमें 'म्मि'का व्यवहार भी पाया जाता है–थोरम्मि, ससमयम्मि ३२, तम्मि ३।४, दंसम्मि २२४, चक्खुम्मि २०२४ आदि ।
इस ग्रन्थकी उपलब्ध पाण्डुलिपियों में पाठान्सर भी प्राप्त होते हैं । यथा-'सुयणाणं के स्थान पर 'सुदणाण', 'सयले के स्थान पर 'सगले' और 'सायार के स्थान पर 'सागारं' जैसे प्रयोग प्राप्त हैं। इन प्रयोगोंसे प्रतीत होता है कि इस प्रकारके रूप दिगम्बर आगमोंकी शौरसेनीके हैं। इस ग्रन्थ पर दिगम्बराचार्य सुमतिदेव द्वारा विरचित एक टोकाका उल्लेख आचार्य वादिरजने किया है, जो अनुपलब्ध है। दूसरी टोका अभयदेव कुत २५०० श्लोक प्रमाण तत्त्व. विधायिनी नामकी उपलब्ध है। कल्याणमन्दिर
इस स्तोत्रमें ४४ पद्य हैं । रचयिताका नाम कुमुदचन्द्र आया है, जो सिद्धसेनका दीक्षानाम है। लिखा है
__जननयनकुमुदचन्द्रप्रभास्वराः स्वर्गसम्पदो मुक्त्वा ।
ते विगलितमलनिचया अधिरान्मोक्षं प्रपद्यन्ते ॥ -पद्य ४४ इस पद्यमें श्लेष द्वारा कविका नाम अभिव्यक्त किया गया है। स्तोत्रमें पार्श्वनाथको स्तति की गयी है । प्रारम्भमें कविने अपनी अल्पज्ञताका निर्देश किया है । भगवान्के मात्र नामोच्चारणका वर्णन करता हुआ कवि कहता है--
आस्तामचिन्त्यमहिमा जिन ! संस्तवस्ते नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । तीव्रातपोपहतपान्थजनान्निदाचे प्रीणाति पद्मसरसः सरसोऽनिलोऽपि 117
हे देव ! आपके स्तवनकी अचिन्त्य महिमा है। आपका नाममात्र भी जीवोंको संसारके दुःखोंसे बचा लेता है। जिस प्रकार ग्रीष्मर्तमें धपसे पीड़ित व्यक्तिको, कमलयुक्त सरोवर तो सुख पहुंचाते ही हैं, पर उन सरोवरोंको शीतलवायु भी सुख पहुँचाती है। ___ कामजयी वीतरागका महत्व प्रतिपादित करते हुए कविने समीक्षात्मक और तुलनात्मक शैलीमें लिखा है१. कल्याणमन्दिर, पञ्च ७ ।
अतषर और सारस्वताचार्य : २१५
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यस्मिन् हरप्रभृतयोपि हतप्रभावाः सोऽपि त्वया रतिपतिः पापितः क्षणेन । विध्यापिता हुतभुजः पयसाय येन पीसं न कि सदपि दुर्द्धरवाडवेन ॥'
जिस कामने हरि, हर, ब्रह्मा आदि महापुरुषोंको पराजित कर दिया, उस कामको भी आपने पराजित कर दिया, यह आश्चर्यको बात नहीं है । यतः जो जल संसारकी समस्त अग्निको नष्ट करता है, उस जल को भी बड़वानल नामक समुद्र की अग्नि नष्ट कर डालती है। क्रोधस्त्वया यदि विभो । प्रथम निरस्तो ध्वस्तास्तदा वद कथं किल कर्मचौराः । प्लोषत्यमुत्र यदि वा शिशिरापि लोके नीलगु माणि विपिनानि न कि हिमानी ।।
संसारमें प्रायः देखा जाता है कि क्रोधी मनुष्य हो शत्र ओंको जीतते हैं, पर भगवन् ! आपने क्रोधको तो नवम गुणस्थानमे हा जीत लिया था । फिर क्रोधके अभावमें चतुर्दश गुणस्थान तक कर्मरूपो शत्रुओंको कैसे जीता? आचार्य सिद्धसेन–कुमुदचन्द्रने इस लोकविरुद्ध तथ्यपर प्रथम आश्चर्य प्रकट किया, पर जब उन्हें ध्यान आया कि शीतल तुषार बड़े-बड़े धनोंको क्षण भरमें जला देता है अर्थात् क्षमासे भी शत्र जोते जाते हैं, इस प्रकार उनके आश्चर्यका स्वयं ही समाधान हो जाता है। ___ इस स्तोत्र पर वैदिक प्रभाव भी है। वृत्रासुर द्वारा रोको गयो गायोंका मोचन इन्द्रने किया था, इस तथ्यका संकेत निम्नलिखित पद्यपर प्रतिभासित होता है
मुच्यन्त एक मनुजाः सहसा जिनेन्द्र ! रौद्ररुपद्रवशतेस्त्वयि बोकितेऽपि । गोस्वामिनि स्फुरिततेजसि दृष्टमात्र चोरेरिवाशु पशवः प्रपलायमानैः ।।
हे नाथ ! जिस प्रकार तेजस्वी राजाके दिखते हो चोर चुराई हुई गायोंको छोड़कर शीघ्र ही भाग जाते हैं, उसी प्रकार आपके दर्शन होते हो अनेक भयंकर उपद्रव मनुष्योंको छोड़कर भाग जाते हैं।
भक्तकी भगवच्चरणामें अटूट आशाका निरूपण करता हुआ कवि कहता है
जन्मान्तरेऽपि तव पादयुगं न देव ! मन्ये मया महितमीहितदानदक्षम् ।
तेनेह जन्मनि मुनीश ! पराभवानां जातो निकेतमहं मषिताशयानाम् ॥ १. कल्याणमन्दिर, पद्य ११ । २. वही, पच १३ । ३. वही, पत्र । ४, वही, पध ३६ ।
२१६ : तीर्थकर महाबीर और उनको याचार्य-परम्परा
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हे भगवान् ! जो मैं नाना प्रकारके तिरस्कारोंका पात्र हो रहा हूँ, उससे स्पष्ट पता चलता है कि मैंने आपके चरणोंकी पूजा नहीं की, क्योंकि आपके चरणोंके पुजारियोंका कभी किसी जगह भी तिरस्कार नहीं होता ।
भावशून्य भक्तिको निरर्थक और भावपूर्ण भक्तिको सार्थक बतलाते हुए कवि कहता है। आकणितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या । जातोऽस्मि तेनजनबान्धव! दुःखपात्रं यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्या ।' ___ हे भगवन् ! मैंने आपका नाम भी सुना, पूजा भी की और दर्शन भी किये, फिर मी दुःख मेरा पिण्ड नहीं छोड़ता है । इसका कारण यही है कि मैंने भक्तिभावपूर्वक आपका ध्यान नहीं किया । केवल आडम्बरसे ही उन कामोंको किया है, न कि भावपूर्वक । यदि भावपूर्वक भक्ति, अर्षा या स्तवन करता सो संसारके ये दुःख नहीं उठाने पड़ते 1 इस स्तोत्र (पख ३१, ३२, ३३) में 'दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य पार्श्वनाथके उपसर्गोका वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है।
संक्षेप में यह स्तोत्र अत्यन्त सरस और भावमय है। प्रत्येक पासे भक्तिरस निस्यूत होता है। प्रतिमा
सिद्धसेन दार्शनिक और कवि दोनों हैं। दोनों में उनकी गति अस्खलित है । जहाँ उनका काव्यत्त्व उच्च कोटिका है वहां उनका उसके माध्यमसे दार्शनिक विवेचन मी गम्भीर और तत्त्वप्रतिपादनपूर्ण है।
उपजाति, शिखरणी, इन्द्रवज्या, उपेन्द्रवजा, वंशस्य, शार्दूलविक्रीडित, वसन्ततिलका एवं आर्या छन्दोंका व्यवहार किया गया है । ओजगुण इनकी कविताका विशेष उपकरण है !
देवनन्दि पूज्यपाद उत्यामिका
कवि, वैयाकरण और दार्शनिक इन सोनों व्यक्तित्वोंका एकल समवाय देवनम्दि पूज्यपादमें पाया जाता है । आदिपुराणके रचयिता आचार्य जिनसेमने इन्हें कवियोंमें तीर्घकृत लिखा है
कवीनां सार्थकुद्धवः कि ठरां तत्र वर्ण्यते ।
विदुषां वाल्मलध्वंसि तीर्थ यस्य वयोमयम् ॥ मादिपुराण, १५२ १. कायापन्दिर, पच ३८ ।
श्रुतगर मोर सारस्वताचार्य : २१७
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जो कवियों में तीर्थंकरके समान थे, अथवा जिन्होंने कवियोंका पथप्रदर्शन करनेके लिये लक्षणग्रन्थकी रचना की थी और जिनका बचनरूपी तीर्थ विद्वानोंके शब्दसम्बन्धी दोषोंको नष्ट करनेवाला है, ऐसे उन देवनन्दि आचार्यका कोन वर्णन कर सकता है।
ज्ञानार्णवके कर्ता आचार्य शुभचन्द्रने इनकी प्रतिभा और वैशिष्ठ्यका निरूपण करते हुए स्मरण किया है
अपाकुर्वन्ति यद्वाचः कायवाकचित्तसम्भवम् ।
कलङ्कमङ्गिनां सोऽयं देवनन्दो नमस्यते ।। जिनको शास्त्रपद्धति प्राणियोंके शरीर, वचन और चित्तके सभी प्रकारके मलको दूर करनेमें समर्थ है, उन देवनन्दि आचार्यको मैं प्रणाम करता हूँ।
आचार्य देवनन्दि-पूज्यपादका स्मरण हरिवंशपुराणके रचयिता जिनसेन प्रथमने भी किया है। उन्होंने लिखा है--
इन्द्र चन्द्रार्कजैनेन्द्रव्याडिव्याकरणे क्षिणः !
देवस्य देववन्यस्य न वन्यन्ते गिरः कथम् ॥ अर्थात् जो इन्द्र, चन्द्र, अर्क और जैनेन्द्र व्याकरणका अवलोकन करनेवाली है, ऐसो देवबन्ध देवनन्दि आचार्यको वाणी क्यों नहीं वन्दनीय है ।
इससे स्पष्ट है कि आचार्य देवनन्दि प्रसिद्ध वैयाकरण और दार्शनिक विद्वान थे और विद्वन्मान्य ।
इनके सम्बन्धमें आचार्य गुणनन्दिने इनके व्याकरण सूत्रोंका आधार लेकर जैनेन्द्र प्रक्रियामें मंगलाचरण करते हुए लिखा है
नमः श्रीपूज्यपादाय लक्षणं यदुपक्रमम् ।
यदेवात्र तदन्यत्र यन्नावास्ति न तत्क्वचित् ।। जिन्होंने लक्षणशास्त्रकी रचना की है, मैं उन आचार्य पूज्यपादको प्रणाम करता हूँ। उनके इस लक्षणशास्त्रकी महत्ता इसीसे स्पष्ट है कि जो इसमें है, वह अन्यत्र भी है और जो इसमें नहीं है, वह अन्यत्र भी नहीं है।
उनके साहित्यकी यह स्तुति-परम्परा धनंजय, बादिराज आदि प्रमुख - - १. ज्ञानार्णव १११५. रायचन्द्र शास्त्रमाला संस्करण, विक्रम सम्बत् २०१५ । २. हरिवंशपुराण १।३, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, वि० सं० २०१९। ३, जैनेम्न प्रक्रिया, बन सिद्धान्तप्रकाशनो संस्था, कलकत्ता संस्करण, मंगलपन । २१८ : तीर्थकर महावीर और उमको आचार्य-परम्परा
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आचार्यों द्वारा भी अनुभूति हुई । पूज्यपादकी ज्ञानगरिमा और महत्ताका उल्लेख उक्त स्तुतियों में विस्तृत रूपसे आया है ।
उनसे स्पष्ट है कि देवनन्दि-पूज्यपाद कवि और दार्शनिक विद्वानके रूपमें ख्यात हैं ।
जीवन-परिचय
इनका जीवन-परिचय चन्द्रव्य कविक पूज्यपादचार' और देवचन्द्रके 'राजावलिकथे' नामक ग्रन्थोंमें उपलब्ध है | श्रवणबेलगोलाके शिलालेखों में इनके नामोंके सम्बन्धमें उल्लेख मिलते हैं । इन्हें बुद्धिकी प्रखरताके कारण 'जिनेन्द्रबुद्धि' और देवोंके द्वारा चरणोंकी पूजा किये जानेके कारण 'पूज्यपाद' कहा गया है ।
यदीयं ||
यो देवनन्दि- प्रथमाभिधानो बुद्धधा महत्या स जिनेन्द्रबुद्धिः । श्री पूज्यपादोऽजनि देवताभिर्यत्पूजितं पादयुगं जैनेन्द्र निज-शब्द-भोगमतुलं सर्वार्थसिद्धिः परा सिद्धान्ते निपुणत्वमुद्धकवितां जैनाभिषेकः छन्दस्सूक्ष्मधियं समाधिशतक-स्वास्थ्यं यदीयं विदा माख्याती स पूज्यपाद - मुनिपः पूज्यो मुनीनां गणः ॥
स्वक: 1
अर्थात् इनका मूलनाम देवनन्द था । किन्तु ये बुद्धिकी महत्ताके कारण जिनेन्द्रबुद्धि और देवों द्वारा पूजित होनेसे पूज्यपाद कहलाये थे । पूज्यपादने जैनेन्द्र व्याकरण, सर्वार्थसिद्धि, जैन अभिषेक, समाषितक आदि ग्रन्थोंको रचना की है।
शिलालेख न० १०५ से भी उक्त तथ्य पुष्ट होता है ।
प्रागभ्यषायि गुरुणा किल्ल देवनन्दी बुद्धया पुनव्यपुलया स जिनेन्द्रबुद्धिः । श्री पूज्यपाद इति चैष बुधैः प्रचख्ये यत्पूजितः पदयुगे वनदेवताभिः ।। पूज्यपाद और जिनेन्द्रबुद्धि इन दोनों नामोंकी सार्थकता अभिलेख नं० १०८ में भी बतायी है ।
इनके पिताका नाम माषवभट्ट और माताका नाम श्रीदेवी बतलाया जाता है। ये कर्नाटकके 'कोले' नामक ग्रामके निवासी थे और ब्राह्मण कुलके
१. जैन शिलालेख संग्रह प्रथम भाथ, माणिकचन्द्र बिगम्बर जैन ग्रन्थभाला, अभिलेख संख्या ४००२४ लोक १०, ११
२. वही, बभिलेवसंख्या १०५ श्लोकसंख्या २० ।
तर और सारस्वताचार्य : २१९
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भूषण थे। कहा जाता है कि बचपन में ही इन्होंने नाग द्वारा निगले गये मेढककी तड़पन देखकर विरक्त हो दिगम्बरी दीक्षा धारण कर ली थी। 'पूज्यपादचरिते' में इनके जीवनका विस्तृत परिचय भी प्राप्त होता है तथा इनके चमत्कारको व्यक्त करनेवाले अन्य कथानक भी लिखे गये हैं, पर उनमें कितना तथ्य है. निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता है ।
पूज्यपाद किस संघके आचार्य थे, यह विचारणीय है। "राजावलिकथे'से ये नन्दिसंघके आचार्य सिद्ध होते हैं। शुभचन्द्राचाधने अपने पाण्डवपुराणमें अपनी गुर्वावलिका उल्लेख करते हुए बताथा है
"श्रीमूलसंजनि नन्दिसंघस्तस्मिन् बलात्कारगणोऽतिरम्यः ।। तत्राभवत्पूर्वपदांशवेदी श्रीमाधनन्दी नरदेववन्द्यः ॥' अर्थात्-नन्दिसंघ, बलात्कारगण मूलसंघके अन्तर्गत है । इसमें पूर्वोके एकदेश ज्ञाता और मनुष्य एवं देवोंसे पूजनीय माघनन्दि आचार्य हुए। __ माघनन्दिके बाद जिनचन्द्र, पणनन्दि, उमास्वामी, लोहाचार्य, यशःकीर्ति, यशोनन्दि और देवनन्दिके नाम दिये गये हैं। ये सभी नाम क्रमसे नन्दिसंघकी पट्टावलिमें भी मिलते हैं । आगे इसी गुर्वावलिमें ग्यारहवें गुणनन्दिके बाद बारहवें वनन्दिका नाम आया है, पर नन्दिसंधको पट्टावलिमें ग्यारहवें जयनन्दि और बारहवें गुणनन्दिके नाम आते हैं। इन नामोंके पश्चात तेरहवा नाम वजानन्दिका आता है। इसके पश्चात् और पूर्वको आचार्यपरम्परा गुर्वावलि और पट्टावलिमें प्रायः तुल्य है । अतएव संक्षेपमें यह माना जा सकता है कि पृश्यपाद मूलसंघके अन्तर्गत नन्दिसंघ बलात्कारगणके पट्टाधीश थे । अन्य प्रमाणोंसे भी विदित होता है कि इनका गच्छ सरस्वती था और आचार्य कुन्दकुन्द एवं गुदपिच्छको परम्परामें हुए हैं। कथानुभूति
कहा जाता है कि पूज्यपादके पिता माधवभट्टने अपनी पत्नी श्रीदेवीके आग्रहसे जैन धर्म स्वीकार कर लिया था । श्रीदेवीके भाईका नाम पाणिनि था। उससे भी उन्होंने जैन धर्म स्वीकार कर लेनेका अनुरोध किया, पर प्रतिष्ठाको दृष्टिसे वह जेन न होकर मुडीकुण्डग्राममें वैष्णव संन्यासी हो गया। पूज्यपादको कलिनी नामक छोटी बहन थी और इसका विवाह गुण भट्टके साथ हुआ, जिससे गुणभट्टको नागार्जुन नामक पुत्र लाभ हुआ।
एक दिन पूज्यपाद अपनी वाटिका में विचरण कर रहे थे कि उनको दृष्टि १. पाण्डवपुराण, १॥२
२२० : सीकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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साँपके मुंहमें फंसे हुए मेढकपर पड़ो। इससे उन्हें विकि हो गयो । प्रसिद्ध धेयाकरण पाणिनि अपना व्याकरण अन्य रच रहे थे। वह न हो पाया था कि उन्हें अपना मरण काल निकट दिखलाई पड़ा, और पूज्यपादसे अनुरोध किया कि तुम इस अपूर्ण अन्यको पूर्ण कर दो। उन्होंने उसे पूर्ण करना स्वीकार कर लिया । पाणिनि तुनिवश मरकर सर्प हुए । एक बार उन्होंने पूज्यपादको देखकर फूत्कार किया, इसपर पूज्यपादने कहा--"विश्वास रखो, मैं तुम्हारे व्याकरणको पूरा कर दूंगा।" इसके पश्चात् उन्होंने पाणिनि-ध्याकरणको पूर्ण कर दिया। पाणिनि-व्याकरणके पूर्ण करने के पहले पूज्यपादने जैनेन्द्र व्याकरण, अर्हदप्रतिष्ठालक्षण और वैदिक ज्योतिषके ग्रन्थ लिखे थे। ___ गुणभट्टको मृत्युके पश्चात् नागार्जुन अतिशय दरिद्र हो गया। पूज्यपादने उसे पद्माक्सीका एक मन्त्र दिया और सिर करनेकी निधि भी बतलाई। इस मन्त्रके प्रभावसे पद्मावतीने नागार्जुनके निकट प्रकट होकर उसे 'सिदिरस' की जड़ो-बनस्पति बतला दी। इस "सिदिरस'के प्रभावसे नागार्जुन सोना बनाने लगा। उसके गर्वका परिहार करने के लिए पूज्यपादने एक मामूली वनस्पतिसे कई घड़े 'सिद्धिरस' बना दिया । नागार्जुन जब पर्वत्तोंको सुवर्णमय बनाने लगा, तब धरणेन्द्र पद्मावतीने उसे रोका और जिनालय बनानेका आदेश दिया । तद्नुसार उसने एक जिनालय बनवाया और उसमें पास्यनायको प्रतिमा स्थापित की।
पूज्यपाद अपने पैरोंमें गगनगामी लेप लगाकर विदेह क्षेत्र जाया करते पे, उस समय उनके शिष्य वजनन्दिने अपने साथियोंसे झगड़ा कर द्रविड संघकी स्थापना की।
नागार्जुन अनेक मन्त्र-तन्त्र तथा रसादि सिद्ध करके बहुत प्रसिद्ध हो गया। एक बार उसके समक्ष दो सुन्दर रमणियां उपस्थित हुई, जो नृत्य-गान कलामें कुशल थी । नागार्जुन उनपर मोहित हो गया । वे वहीं रहने लगी और कुछ समय बाद ही उसकी रसगुटिका लेकर चलती बनीं।
पूज्यपाद मुनि बहुत दिनों तक योगाभ्यास करते रहे | फिर एक देवविमानमें बैठकर उन्होंने अनेक तीर्थोकी यात्रा को । मार्ग में एक जगह उनकी दृष्टि नष्ट हो गयी थी। अतएव उन्होंने शान्त्यष्टक रच कर ज्यों-की-त्यों दृष्टि प्राप्त की । अपने ग्राममें आकर उन्होंने समाधिमरण किया ।
इस कथामें कितनी सत्यता है, यह विचारणीय है।
श्रुतपर और सारस्वताचार्य : २२१
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समय-विचार
पूज्यपादके समयके सम्बन्ध में विशेष विवाद नहीं है। इनका उल्लेख छठी शतीके मध्यकालसे ही उपलब्ध होने लगता है। आचार्य अकलंकदेवने अपने 'तत्त्वार्थवात्तिक' में 'सर्वार्थसिद्धि' के अनेकों वाक्योंको वात्तिकका रूप दिया है। शब्दानुशासन सम्बन्धी कथनकी पुष्टिके लिए इनके जैनेन्द्र व्याकरणके सूत्रोंको प्रमाणरूपमें उपस्थित किया है । अत: पूज्यपाद अकलंकदेवके पूर्ववर्ती है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं।। ___ 'सर्वार्थसिद्धि' और 'विशेषावश्यक भाष्य' के तुलनात्मक अध्ययनसे पह विदित होता है कि "विशेषावश्यकभाष्य' लिखते समय जिनभन्दगणि क्षमाश्रमणके समक्ष 'सर्वार्थसिद्धि' ग्रन्थ अवश्य उपस्थित था। सर्वार्थसिद्धि अध्याय १, सूत्र १५ में धारणामतिज्ञानका लक्षण लिखते हुए बताया है
"अवेतस्य कालान्तरेऽविस्मरणकारणं धारणा" । विशेषावश्यकभाष्यमें इसी आधारपर लिखा है
"कालतरे प जं पुणरणुसरणं धारणा सा उ' ।।गा० २९॥ चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है, बतलाते हुए सर्वार्थसिद्धि में लिखा है---
___ 'मनोवदप्राप्यकारोति । श१९ विशेषावश्यक नाबमें उन शवासीका निमोना निम्तमार हुआ है .
लोयणमपविसयं मणोव्व ॥ गा० २०९।। इससे ज्ञात होता है कि जिनभद्रगणिके समक्ष पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि विद्यमान थी। इस दृष्टिसे पूज्यपादका समय जिनभद्रगणि (वि० संवत् ६६६)के पूर्व होना चाहिए । ___कुन्दकुन्द और पूज्यपादका तुलनात्मक अध्ययन करनेसे अवगत होता है कि पूज्यपादके समाधितन्त्र और इष्टोपदेश कुन्दकुन्दाचार्य के प्रन्योंके दोहनऋणी हैं । यहाँ दो-एक उदाहरण उपस्थित किये जाते हैं( १ ) जं मया दिस्सदे रूर्व तण्ण जाणादि सव्यहा ।
जाणगं दिस्सदे णं तं तम्हा जपेमि केण हं ॥२
यन्मया दश्यते रूपं तन्न जानाति सर्वथा ।
जानन्न दृश्यते रूपं तत: केन ब्रवीम्यहम् ॥ १. तत्त्वार्थकार्तिक, १।१।३, तथा ४।२१।१ । २. मोक्षपाहुए, गापा २९ । ३. समाधितन्त्र, वीरसेवा मन्दिर संस्करण, पद्य १८ ।
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(२ जो सुत्तो बवहारे सो जोई जग्गए सकज्जम्मि ।
जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणे कज्जे' ।। व्यवहारे सुषुप्तो यः स जागात्मगोचरे ।
जागर्ति व्यवहारेऽस्मिन् सुषुप्तश्चात्मगोचरे ।। यहां समाधितन्त्रके दोनों पद्य मोक्षपाहुडके संस्कृतानुवाद हैं। पूज्यपादने अपने सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थमें 'संसारिणो मुक्ताश्च' [तक सू० २०१०] सूत्रकी व्याख्यामें पंच परावर्तनोंका स्वरूप बतलाते हुए, प्रत्येक परावर्तनके अन्तमें उनके समर्थन में जो 'उक्त च' कहकर गाथाएं लिखी हैं. वे उसी क्रमसे कुन्दकन्दने 'बारसअणुवेक्खा' ग्रन्थमें पायी जातो हैं ।
इसके अतिरिक्त्त पूज्यपादने कुन्दकुन्दके उत्तरवर्ती गृढपिच्छाचार्य उमास्वामीके तत्त्वार्थसूत्रपर तत्त्वार्थवृत्ति-सर्वार्थसिद्धि लिखी है । अतएव इनका समय कुन्दकुन्द और गृद्धपिच्छाचार्य के पश्चात् होना चाहिए | कुन्दकुन्दका समय विक्रमको द्वितीय शताब्दीका पूर्वाद्ध है और सूत्रकार गृपिच्छाचार्यका समय विक्रमकी द्वितीय शताब्दीका अन्तिम पाद है । अतः पूज्यपादका समय विक्रम संवत् ३००के पश्चात् ही सम्भव है।
पूज्यपादने अपने जैनेन्द्र व्याकरणके सूत्रोंमें भूतलि, समन्तभद्र, श्रीदत्त, यशोभद्र और प्रभाचन्द्र नामक पूर्वाचार्योंका निर्देश किया है । इनमेंसे भूतवलि तो 'षट्खण्डागम'के रायता प्रतीत होते हैं, जिनका समय ई० सन् प्रथम शताब्दी है । प्रखर तार्किक और अनेकान्तवादके प्रतिष्ठापक समन्तभद्र प्रसिद्ध ही हैं। श्रीदत्तके 'जल्पनिर्णय' नामक ग्रन्थका उल्लेख विद्यानन्दने अपने 'तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में किया है । अतः स्पष्ट है कि पूज्यपाद इन आचार्यों के उत्तरवर्ती हैं। ___पंडित जुगलकिशोरजी मुख्तारने अपने स्वामी समन्तभद्र' नामक निबन्धमें तथा 'समाधितन्त्र की प्रस्तावनामें बताया है कि पूज्यपाद स्वामी गङ्गराज दुविनीसके शिक्षागुरु थे, जिसका राज्यकाल ई० सन् ४८५-५२२ तक माना जाता है, और इन्हें हेल्बुरु आदिके अनेक शिलालेखोंमें 'शब्दावतार के कर्ताके रूपमें दुर्विनोत राजाका गुरु उल्लिखित किया है । १. मोअपाहर, गापा ३१ । २. समाषितन्त्र, पञ्च ७८ । ३. "द्विप्रकार जो उत्पं तस्वप्रातिभमोचरम् । विषच्छे दिनां बेता श्रीदतो जल्पनिर्णय" ॥
-तत्वार्यश्लोकवार्तिक, पृ० २८०, पद्म ४५ ।
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वि० संवत् ९९०में देवसेनने दर्शनसार नामक ग्रन्थको रचना की थी। यह अन्य पूर्वाचार्यकृत-गाषाओंको एकत्र कर लिखा गया है । इस ग्रन्थमें बताया है कि पूज्यपादका शिष्य पाहुडवेदी, वजनन्दि, द्राविडसंघका कर्ता हुआ और यह संघ वि. संवत् ५२६ में उत्पन्न हुआ ।
सिरिपुज्जपादसोसो दाविडसंघस्स कारगो दुट्ठो । णामेण वजणंदी पाडवेदी महासत्तो ॥ पंचसए छब्बीसे विपकमरायस्स मरणपत्तस्स ।
दक्षिणमहुराजादो दाविडसंघो महामोहो' । बजनन्दि देवनन्दिके शिष्य थे । अतएव द्रविड संघकी उत्पत्तिके उक्तकालसे दस-बीस वर्ष पहले ही उनका समय माना जा सकता है। पंडित नाथूरामजी प्रेमीने पूज्यपाद-देवनन्दिका समय विक्रमको छठी शताब्दीका पूर्वावं माना है। यधिष्ठिर मीमांसकने भी देवनन्दिके समयकी समीक्षा करते हुए इनका काल विक्रमकी छठी शताब्दीका पूर्वाद्ध माना है।
नन्दिसेनको पट्टावली में देवनन्दिका समय विक्रम संवत् २५८-३०८ तक अंकित किया गया है और इनके अनन्तर जयनन्दि, और गुणनन्दिका नाम निर्देश करनेके उपरान्त वजनन्दिका नामोल्लेख आया है। पाण्डवपुराणमें आचार्य शुभचन्द्रने नन्दि-संघको पट्टावलीके अनुसार हो गुर्वावली दी है। देवनन्दि पूज्यपादके गुरुका नाम एक पद्यमें यशोनन्दि बताया गया है । यथा
यशकीत्तिर्यशोनन्दी देवनन्दी महामतिः ।
पूज्यपादापराख्यो यो गुणनन्दी गुणाकरः ॥ अजमेरकी पट्टावलीमें देवनन्दि और पूज्यपाद ये दो नाम पृथक्-पृथक उल्लिखित हैं । इस पट्टावलीके अनुसार देवनन्दिका समय विक्रम संवत् २५८ और पूज्यपादका वि० सं० ३०८ है। यहां पदसंख्या भी क्रमशः १० और ११ है। यह भी कहा गया है कि देवनन्दि पोरवाल थे और पूज्यपाद पद्मावती पोरवाल । पर संस्कृत पट्टावलीके अनुसार दोनों एक हैं, भिन्न नहीं हैं। डॉ० ज्योतिप्रसादने विभिन्न मतोंका समन्वय किया है।' १. दर्शनसार, गाथा २४, २८ २. युधिष्ठिर मीमांसक द्वारा लिखित जैनेन्द्रशम्दानुशासन तथा उसके खिलपाठ
जैनेन्द्रमहावृत्ति, ज्ञानपीठ संस्करण, पृ० ४४ ! ३. अनेकान्त वर्ष १४ किरण ११-१२, प० ३४९ । ४. Jaina Antiquary. Vol. XXI. Page 24. २२४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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इस विवेचनसे आचार्य देवनन्दि-पूज्यपादका समय ई० सन्को छठी शताब्दी सिद्ध होता है, जो सर्वमान्य है। रचनाएँ
पूज्यपाद आचार्य द्वारा लिखित अबतक निम्नलिखित रचनाएँ उपलब्ध है१. दशभक्ति २. जन्माभिषेक ३. तत्त्वार्थवृत्ति (सर्वार्थ मिति ४. समाधितन्त्र ५. इष्टोपदेश ६, जैनेन्द्रव्याकरण ७. सिद्धिप्रिय-स्तोत्र
१. दशभक्ति-जैनागममें भक्तिके द्वादश भेद हैं-(१) सिद्ध-भक्ति, (२) श्रुत-भक्ति, (३) चारित्र-भक्ति, (४) योगि-भक्ति, (५) आचार्य भक्ति, (६) पञ्चगुरुभक्ति, (७) तीर्थकर-भक्ति, (८) शान्ति-भक्ति, (2) समाधि-भक्ति, (१०) निर्वाण-भक्ति, (११) नन्दीश्वर-भक्ति और (१२)चेत्य-भक्ति । पूज्यपाद स्वामोकी संस्कृतमें सिद्ध-भक्ति, श्रुत-भक्ति, चारित्र-भक्ति, योगि-भक्ति, निर्वाण-भक्ति और नन्दीश्वर-भक्ति ये सात हो भक्तियां उपलब्ध हैं। काथ्यको दृष्टिसे ये भक्तियाँ बड़ी ही सरस और गम्भीर हैं । सर्वप्रथम नौ पद्यों में सिद्ध-भक्तिको रचना की गयी है। आरम्भमें बताया है कि आठों कर्मों के नाशसे शुद्ध आत्माकी प्राप्तिका डोना सिद्धि है। इस सिद्धिको प्राप्त करनेवाले सिद्ध कहलाते है । सिद्ध-भक्तिके प्रभावसे साधकको सिद्ध-पदको प्राप्ति हो जाती है । अन्य भक्तियोंमें नामानुसार विषयका विवेचन किया गया है।
२. जन्माभिषक-श्रवणबेलगोलाके अभिलेखोंमें पूज्यपादको कृतियोंमें जन्माभिषेकका भी निर्देश आया है।
दर्तमानमें एक जन्माभिषेक मुद्रित उपलब्ध है । इसे पूज्यपाद द्वारा रचित होना चाहिए । रचना प्रौढ़ और प्रवाहमय है।
३. तत्त्वार्थवृत्ति-पूज्यपादकी यह महनीय कृति है। 'तत्त्वार्थसूत्र' पर गद्यमें लिखो गयी यह मध्यम परिमाणको विशद वृत्ति है। इसमें सूत्रानुसारी सिद्धान्तके प्रतिपादनके साथ दार्शनिक विवेचन भी है। इस तत्त्वार्थवृत्तिको सर्वार्थसिद्धि भी कहा गया है । वृत्तिके अन्तमें लिखा है१. अन शिलालेख-संग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख संख्या ४०, पृ० ५५, पद्य-११ ।
अतधर और सारस्वताचार्य : २२५
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स्वर्गापवर्गसुखमाप्तुमनोभिरायेंजैनेन्द्रशासनवरामृतसारभूता । सर्वार्थ सिद्धिरिति सद्भिरूपात्तनामा तत्त्वार्थवृत्तिरदिशं वा प्रथा' ॥
जो आर्य स्वर्ग और मोक्ष सुखके इच्छुक हैं, वे जिनेन्द्रशासनरूपी श्रेष्ठ अमृतसे भरी सारभूत और सत्पुरुषों द्वारा दत्त 'सर्वार्थसिद्धि' इस नाम से प्रख्यात इस तत्त्वार्थवृत्तिको निरन्तर मनोयोगपूर्वक अवधारण करें ।
इस वृत्तिमें तत्त्वार्थ सूत्रके प्रत्येक सूत्र और उसके प्रत्येक पदका निर्वचन, विवेचन एवं शंका-समाधानपूर्वक व्याख्यान किया गया है । टीकाग्रन्थ होनेपर भी इसमें मौलिकता अक्षुण्ण है ।
इस ग्रन्थके नामकरणका कारण स्वयं ही ग्रन्थकारने अन्तिम रचित पद्योंमेंसे द्वितीय पचमें अंकित किया है
तत्वार्थवृत्तिमुदितां विदितार्थतत्त्वाः
शृण्वन्ति मे परिपठन्ति च धर्मभक्त्या । हस्ते कृतं परमसिद्धिसुखामृतं तै मंर्त्यमरेश्वरमुखेषु किमस्ति वाच्यम् ।।
अर्थात् - अर्थके सारको ज्ञात करनेके लिए जो व्यक्ति धर्म - भक्ति से तत्त्वार्थवृत्तिको पढ़ते और सुनते हैं वे परमसिद्धिके सुखरूपी अमृतको हस्तगत कर लेते हैं, तब चक्रवर्ती और इन्द्रपदके सुख के विषय में तो कहना ही क्या ?
सोलह स्वर्गौके ऊपर पञ्च अनुत्तर विमानोंमें सर्वार्थसिद्धि नामका एक विमान है | सर्वार्थसिद्धिवाले जोव एकभवावतारी होते हैं । यह 'तत्त्वार्थवृत्ति' भी उसीके समकक्ष है | अतः इसे 'सर्वार्थसिद्धि' नामसे अभिहित किया गया है ।
'तत्त्वार्थ सूत्र' की वृत्ति होनेपर भी इस ग्रन्थ में कतिपय मौलिक विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं । मङ्गलाचरणके पश्चात् प्रथम सूत्रकी व्याख्या आरम्भ करते हुए उत्थानिकामें लिखा है- किसी निकटभव्यने एक आश्रम में मुनि परिषद् के मध्य में स्थित निर्ग्रन्थाचार्य से विनयसहित पूछा-भगवन् ! आत्माका हित क्या हैं ? आचार्यने उत्तर दिया- मोक्ष । भव्यने पुनः प्रश्न किया - मोक्षका स्वरूप क्या है और उसकी प्राप्तिका उपाय क्या है ? इसी प्रश्न के उत्तरस्वरूप “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः " -- सूत्र रचा गया है।
१. सर्वार्थसिद्धि, ज्ञानपीठ संस्करण, अन्तिम अंश, पथ १ ० ४७४ २. वहीं, पद्य २, पु० ४७४ ।
२२६ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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I
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मन:
प्रथम अध्यायके षष्ठ सूत्र " प्रमाणनयैरधिगमः" (१६) की व्याक्या करते हुए पूज्यपाद स्वामीने प्रमाणके स्वार्थ और परार्थं भेद करके मति, अवधि, पर्यय और केवल इन चार ज्ञानोंको स्वार्थप्रमाण बतलाते हुए श्रुतज्ञानको स्वार्थ और परार्थ दोनों बतलाया है तथा उसीका भेद नय हैं - यह भी बताया है। इसी सूत्रकी व्याख्या में 'उक्तञ्च' लिखकर "सकलादेश: प्रमाणाधीनः विकलादेशी नयाधीनः " - वाक्य उद्धृत किया है। इस प्रकार प्रमाणके स्वार्थं और परार्थं भेद तथा सकलादेश और विकलादेशकी चचां इन्हींके द्वारा प्रस्तुत की गयी है। इसी अध्यायमें "सत्संख्याक्षेत्र स्पर्शन कालान्तरभावाल्पबहुत्वे रच” ( ११८ ) - की वृत्ति षट्खण्डागमके जीवद्वाणसूत्रोंके आधारपर लिखी गयी है । इसमें सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोगोंके द्वारा चौदह मार्गणाओंमें गुणस्थानोंका विवेचन बहुत सुन्दर रूपमें किया है ।
प्रमाणकी चर्चा में नैयायिक और वैशेषिकोंके सन्निकर्ष-प्रामाण्यवादका एवं सांख्योंके इन्द्रिय-प्रामाण्यका निरसन कर ज्ञानके प्रामाण्यकी व्यवस्था की है। ज्ञानको स्वपरप्रकाशक सिद्ध कर चक्षुः के प्राप्यकारित्वका आमम और युक्तियोंसे खण्डन कर उसे अप्राप्यकारी सिद्ध किया गया है। “सदसतोरविशेषाद्यदुच्छोपलब्धेरन्मत्तवत् (१।३२ ) की वृत्ति में कारणविपर्यास, भेदाभेदविपर्यास और स्वरूपविपर्यासकी चर्चा करते हुए योग, सांख्य, बौद्ध और चार्वाक आदिके मतोंका निर्देश किया है । अन्तिम सूत्र में किया गया नयोंका विवेचन भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है ।
द्वितीय अध्यायकी व्याख्या में भी अनेक विशेषताएँ और मौलिकताएँ उपलब्ध है। तृतीय सूत्रकी व्याख्यामें चारित्रमोहनीयके 'कषायवेदनीय' और 'नोकषाघवेदनीय' ये दो भेद बतलाए हैं तथा दर्शनमोहनोधके सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये तीन भेद बतलाए हैं । इन सात प्रकृतियों के उपशम से औपशमिक सम्यक्त्व होता है । यह सम्यक्त्व अनादिमिथ्यादृष्टि भव्यके कर्मोदयसे प्राप्त कल्पता के रहते हुए किस प्रकार सम्भव है ? इस प्रश्नके उत्तर में आचार्यने बतलाया है - 'काललब्ध्यादिनिमित्तत्वात् ' - काललब्धि आदिके निमित्तसे इनका उपशम होता है । अन्य आगम ग्रन्थों में क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि, काललब्धि और प्रायोग्यलब्धि ये पाँच लब्धियाँ बत्तलायी हैं। आचार्यं पूज्यपादने काललब्धिके साथ लगे आदि शब्दसे जातिस्मरण आदिका निर्देश किया है और काललब्धिके कर्मस्थितिका काललब्धि और भवापेक्षया कालforcinा निर्देश किया है। यह विषय मौलिक और सैद्धान्तिक है ।
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तृतीय-चतुर्थ अध्यायमें लोकका वर्णन किया गया है । ग्रहकेन्द्रवृत्त, ग्रहकक्षाएँ, ग्रहोंको गति, चार-क्षेत्र आदि चर्चाएं तिलोयपण्णत्तिके तुल्य हैं। लोकाकारका वर्णन आचार्य ने मौलिक रूपमें किया है ।
मौलिक तथ्योंके समावेशको दृष्टिसे पंचम अध्याय विशेष महत्त्वपूर्ण है । द्रव्य, गुण भोर पोंका राष्ट्र और gf शिवनन किया गया है । 'व्यत्वयोगात् द्रव्यम्' और 'गुण-समुदायो द्रव्यम्'की समीक्षा सुन्दर रूपमें की गयो है । "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत्' (५॥३०)-सूत्रको व्याख्यामें सोदाहरण उत्पाद, व्यय और नौव्यकी व्याख्या की गयी है तथा "अपितानपितसिद्धेः" (५॥३२) सूत्रकी वृत्तिमें अनेकान्तात्मक वस्तुको सिद्धि की गयी है।
षष्ठ और सप्तम अध्यायमें दर्शनमोहनीयकर्मके आस्रवके कारणोंका विवेचन करते हुए केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देवोंके अवर्णवादप्रसंगमें श्वेताम्बरमान्यताओंकी समीक्षा की है । सप्तम अध्यायके प्रथम सूत्रमें रात्रि-भोजनत्याग नामक षष्ठ अणुव्रतको समीक्षा की गयी है। सप्तम अध्यायके त्रयोदश सूत्रके व्याख्यानमें आचार्यने हिंसा और अहिंसाके स्वरूपका विवेचन करते हुए उनके समर्थनमें अनेक गाथाएं उत्त की है। गुद्धपिच्छाचार्य ने प्रमादयोगसे प्राणोंके घातको हिंसा कहा है । पूज्यपादने प्रमत्तयोग और प्राणका व्यपरोपण इन दोनों पदोंका विवेचन करते हुए केवल प्राणोंके घातमात्रको हिंसा नहीं कहा है । जहाँ प्रमत्तयोग है वहाँ प्राणोंका घात न होनेपर भी हिंसा होती है, क्योंकि धातकका भाव हिंसारूप है ।
अष्टम अध्यायमें कर्मबन्धका और कर्मो के भेद-प्रभेदोंका वर्णन आया है । प्रथम सूत्रमें बन्धके पाँच कारण बतलाये हैं। उनकी व्याख्यामें पूज्यपादने मिथ्यात्वके पांच भेदोंका कथन करते हुए पुरुषाद्वैत एवं श्वेताम्बरीय निर्ग्रन्थसग्नन्थ, केवली-कवलाहार तथा स्त्रो-मोक्ष सम्बन्धो मान्यताको भी विपरीत मिथ्यात्व कहा है। इस अध्यायके अन्य सूत्रोंका व्याख्यान भी महत्त्वपूर्ण है । पदोंको सार्थकताओंके विवेचनके साथ पारिभाषिक शब्दोंके निर्वचन विशेष उल्लेख्य हैं। ___ भवम अध्यायमें संवर, निर्जरा और उनके साधन गुप्ति आदिका विशद विवेचन है। दशममें मोक्ष और मुक्त जीवोंके ऊध्वंगमनका प्रतिपादन है। ___ इस समग्न ग्रन्थको शैली वर्णनात्मक होते हुए भी सूत्रगत पदोंकी सार्थकता. के निरूपणके कारण भाष्यके तुल्य है । निश्चयतः पूज्यपादको तत्त्वार्थसूत्रके सूत्रोंका विषयगत अनुगमन गहरा और तलस्पर्शी था । २२८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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४. समाधितन्त्र---इस ग्रन्थका दूसरा नाम समाधिशतक है । इसमें १०५ पद्य हैं | अध्यात्मविषयका बहुत ही सुन्दर विवेचन किया है। आचार्य पूज्यपादने अपने इस ग्रन्थको विषयवस्तू कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थोंसे हो ग्रहण की है। अनेक पद्य तो रूपान्तर जैसे प्रात्त होते हैं। यहाँ एक उदाहरण प्रस्तुत करते है
यदग्राह्यं न गृह्णाति गृहीतं नापि मुञ्चति ।
जानाति सर्वथा सर्व तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ॥' इस पद्यकी समता निम्न गाथामें है
णियभावं ण वि मुंचइ परभाव णेव गिहए केई ।
जाणदि पस्सदि सच सोहं इदि चित्तए णाणी ॥' बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्माके स्वरूपका विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है । बहिरात्मभाव-मिथ्यात्वका त्याग कर अन्तरात्मा बन कर परमात्मपदको प्राप्तिके लिए प्रयास करना साधकका परम कर्तव्य है। आत्मा, शरीर, इन्द्रिय और कर्मसंयोगका इस ग्रन्थम संक्षेपमें हृदयग्नाहो विवचन किया गया है।
५. इष्टोपवेश-इस आध्यात्मकाव्यम इष्ट-आत्माके स्वरूपका परिचय प्रस्तुत किया गया है। ५१ पद्योंमें पूज्यपादने अध्यात्मसागरको गागरमें भर देनेकी कहावतको चरितार्थ किया है। इसकी रचनाका एकमात्र हतु यही है कि संसारी आत्मा अपने स्वरूपको पहचानकर शरीर, इन्द्रिय एवं सांसारिक अन्य पदार्थोसे अपनेको भिन्न अनुभव करने लगे। असावधान बना प्राणी विषय-भोगोंमें ही अपने समस्त जीवनको व्यतीत न कर दे, इस दुष्टिसे आचापने स्वयं ग्रन्थके अन्त में लिखा है
इष्टोपदेशमिति सम्यगधोत्य धीमान् । मानापमानसमा स्वमताद्वितन्य ॥ मुक्ताग्रहो विनिवसन्सजने बने बा ।
मुक्तिश्चियं निरूपमामुपयाति भव्यः ।। इस ग्रन्थके अध्ययनसे आत्माको शक्ति विकसित हो जाती है और स्वात्मानुभूतिके आधिक्यके कारण मान-अपमान, लाभ-अलाभ, हर्ष-विषाद आदिमें
१. समाधितंत्र, पद्य ३०, वीरसेवामन्दिर-संस्करण 1 २. नियमसार, गाथा ९७ । ३. इष्टोपदेश, सूरत-संस्करण, पद्य ५१ 1
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समसाभाव प्राप्त होता है। संसारको यथार्थ स्थितिका परिज्ञान प्राप्त होनेसे राग, द्वेष, मोहकी परिणति घटती है। इस लघुकाय ग्रन्थमें समयसारको गाथाओंका सार अंकित किया गया है । शैली सरल और प्रवाहमय है।
६. जैनेन्द्र व्याकरण-श्रवणबेलगोलाके अभिलेखों एवं महाकवि धनंजयके नाममालाके निर्देशसे जैनेन्द्र व्याकरणके रचयिता पज्यपाद सिद्ध होते हैं। गुणरत्नमहोदधिके कर्ता वर्षमान और हेमशब्दानुशासनके लघुन्यासरचयिता कनकप्रभ भी जैनेन्द्र व्याकरणके रचयिताका नाम देवनन्दि बतात हैं।
अभिलेखोंसे जैनेन्द्रन्यासक रचयिता भी पूज्यपाद अवगत होते है । पर यह ग्रन्थ अभी तक अनुपलब्ध है।
जैनेन्द्र व्याकरणके दो सूत्रपाठ उपलब्ध हैं-एकमें तीन सहस्र सूत्र हैं, और दूसरेमें लगभग तीन हजार सात सौ । पंडित नायूरामजी प्रमाने यह निष्कर्ष निकाला है कि देवनन्दि या पूज्यपादका बनाया हुआ सूत्रपाठ वहीं है, जिसपर अभयनन्दिने अपनी वृत्ति लिखो है :
जैनेन्द्र व्याकरणमें पांच अध्याय हैं और प्रत्येक अध्यायमें चार-चार पाद हैं । इसका पहला सूत्र महत्त्वपूर्ण है। इसमें सिद्धिरनेकान्तात् सूत्रसे समस्त शब्दोंका साधुत्व अनेकान्तद्वारा स्वीकार किया है, क्योंकि शब्दमें नित्यत्व, अनित्यत्व, उभयत्व, अनुभयत्व आदि विभिन्न धर्म रहते हैं। इन नाना धमोसे विशिष्ट धर्मीरूप शब्दकी सिद्धि अनेकान्तसे ही सम्भव है। एकान्तसिद्धान्तसे अनेकधर्मविशिष्ट शब्दोंका साधुत्व नहीं बतलाया जा सकता । यहाँ अनेकान्तके अन्तर्गत लोकप्रवृत्तिको भी मान्यता दी है। लोकप्रसिद्धिपर आश्रित शब्दव्यवहार भी मान्य है।
जैनेन्द्रका संज्ञाप्रकरण सांकेतिक है । इसमें धातु, प्रत्यय, प्रातिपदिक, विभक्ति, समास आदि महासंज्ञाओंके लिए बीजगणित जैसी अतिसंक्षिप्त संकेतपूर्ण संशाएँ आयी हैं। इस व्याकरणमें उपसर्ग के लिए 'गि', अव्ययके लिए 'झो।' समासके लिए 'सः', वृद्धिके लिए 'ऐप', गुणके लिए 'एप', सम्प्रसारणके लिए 'जिः', प्रथमा विभक्तिके लिए 'या', द्वितीयाके लिए 'इ'', तृतीया विभक्तिके लिए 'म', चतुर्थीके लिए 'अप', पञ्चमीके लिए 'का', षष्ठीके लिए 'ता', सप्तमोके लिए 'इप' और सम्बोधनके लिए किः' को संज्ञाएं बतलायी गयो हैं। निपातके लिये 'निः', दीर्घके लिये 'दी:', प्रगृह्यके लिए 'दिः', उत्तरपदके लिये 'धुः', सर्वनाम स्थानके लिए 'धम्', उपसजनके लिए 'न्यक्', प्लुत्के लिए 'पः', ह्रस्यके लिये 'प्रः', प्रत्ययके लिये 'त्यः', प्रातिपदिकके लिए 'मृत्', परस्मैपदके २३० : सीकर महावीर और उनकी आघाय-परम्परा
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लिए 'मम्', आत्मनेपदके लिए 'द:', अकर्मक के लिए 'त्रिः', संयोगके लिए 'स्फः', सवर्णके लिए ' स्वम्', तद्धितके लिए 'हृत्', लोपके लिए 'खम्', लुप्के लिए 'उस्' लुक्के लिए 'उप्' एवं अभ्यासके लिए 'च' संज्ञाका विधान किया गया है । समासप्रकरणमें अव्ययीभाव के लिए 'ह', तत्पुरुषके लिए 'षम्', कर्मधारयके लिये 'यः, द्विगुके लिए 'र' और बहुव्रीहिके लिए 'वम्' संज्ञा बतलायी गयी है । जैनेन्द्रका यह संज्ञाप्रकरण अत्यन्त सांकेतिक है। पूर्णतया अभ्यस्त हो जानेके पश्चात् ही शब्दसाधुत्व में प्रवृत्ति होती है। यह सत्य है कि इन सज्ञाओं में लाघवनियमका पूर्णतया पालन किया गया है।
जैनेन्द्र व्याकरण में सन्धिके सूत्र चतुर्थ और पञ्चम अध्यायमें आये हैं। 'सन्धी' ४|३|६० सूत्रको सन्धिका अधिकारसूत्र मानकर सन्धिकार्य किया गया है, पश्चात् छकार के परे सन्धिमें तुगागमका विधान किया है। तुगागम करनेवाले ४/३/६१ से ४|३|६४ तक चार सूत्र है। इन सूत्रों द्वारा ह्रस्व, आंग, मांग तथा दी संज्ञकोंसे परे तुगागम किया है और 'त' का 'च' बनाकर गच्छति, इच्छति, आच्छिप्रति माच्छिदत् म्लेच्छति कुवलीच्छाया आदि प्रयोगोंका साधुत्व प्रदर्शित किया है । देवनन्दिका यह विवेचन पाणिनिके तुल्य है। अनन्तर 'यण् ' सन्धिके प्रकरण में 'अचीकोयण् ४।३।६५ सूत्रद्वारा इक् - इ, उ, ऋ, लृको क्रमश: यणादेश - य, चर,लका नियमन किया है। देवनन्दिका यह प्रकरण पाणिनिके समान होने पर भी प्रक्रियाको दृष्टिसे सरल है। इसी प्रकार 'अयादि' सन्धिका ४।३।६६,४।३।६७ द्वारा विधान किया है। वृत्तिकारने इन दोनों सूत्रोंकी व्याख्यामें कई ऐसी नयी बातें उपस्थित की हैं, जिनका समावेश कात्यायन और पतञ्जलिके वचनोंमें किया जा सकता है । जेनेन्द्रकी सन्धिसम्बन्धी तीन विशेषताएं प्रमुख हैं
१. उदाहरणोंका बाहुल्य - चतुर्थ, पंचम शताब्दी में प्रयुक्त होनेवाली भाषाका समावेश करने के लिये नये-नये प्रयोगोंको उदाहरण के रूपमें प्रस्तुत किया गया है । यथा
-
पव्यम्, अवश्यपौव्यम्, नयनम्, गोर्योनम् आदि ।
२. लाघव या संक्षिप्तिकरण के लिये सांकेतिक संज्ञाओं का प्रयोग |
३. अधिकारसूत्रों द्वारा अनुबन्धोंकी व्यवस्था |
सुबन्त प्रकरण में अधिक विशेषताओंके न रहनेपर भी प्रक्रिया सम्बन्धी सरलता अवश्य विद्यमान है। जिन शब्दोंके साधुत्वके लिये पाणिनिने एकाधिक
१-२. ४४३।६८ ।
३-४. ४।३।६७ १
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सूत्रोंका व्यवहार किया है, उन शब्दोंके लिये जैनेन्द्र व्याकरणमें एक ही सूत्रसे साधनिका प्रस्तुत कर दी गयी है ।
जैनेन्द्र व्याकरणमें स्त्री प्रत्यय, समास एवं कारक सम्बन्धी भी फतिपय विशेषताएँ पायो जाती हैं। 'कारके' ११२।१०९ को अधिकारसूत्र मानकर कारक प्रकरणका अनुशासन किया है। देवनन्दिने पंचमी विभवितका अनुशासन सबसे पहले लिखा है, पश्चात् चतुर्थी, तृतीया, सप्तमी, द्वितीया और षष्ठो विभक्तिका नियमन किया है । यह कारकप्रकरण बहुत संक्षिप्त है, पर जितनी विशेषताएं अपेक्षित हैं उन सभीका यहां नियमन किया गया है। इसी प्रकार तिङन्त, तद्धित और कृदन्त प्रकरणोमें भी अनेक विशेषताएं दृष्टिगोचर होती हैं।
इस व्याकरणकी शब्दसाधुत्वसम्बन्धी विशेषताओंके साथ सांस्कृतिक विशेषताएँ भी उल्लेख्य हैं । यहाँ सांस्कृतिक शब्दोंकी तालिका उपस्थित कर उक्त कथनको पुष्टि की जा रही है ।
पति पनसम् ११३ पक्व, पक्ववान् १२४ अतितिलपीडनिः श८-तिलकुट या तेल पेरनेवाली अतिराजकुमारिः ११८ कुवलम्, बदरम्-झरवेर १५११९ आमलव्यम् श१९ पञ्चशष्कुलः शर पञ्चगोणिः १।११० पञ्चमूचिः, सप्तशूचिः १११।१० दधि, मधु श१।११ अश्राद्धभोजी, अलवणभोजी १२१३२ द्रौघणके जातो द्रौषणकीयः शश६८ छतप्रधानोरोदि ११११७१ सम्पन्नानीह्यः—एकोब्रीहिः सम्पन्नः सुभिक्षं करोति १।१९९९ द्वावपूपी भक्षयेति ।१० नाक्यति तैलं शरा८३ यवागू: १।२।२२-जौका हलुआ या लापसी रूपकारः पति शरा१०३ कांस्यपात्र्यां भुङ्क्ते १।११०
वृक्षमवचिनोति फलानि शरा१२१ २३२ : तोपकर महापौर और मनको बाचाय-परम्परा
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भोज्यते माणवकमोदनं १।२।१२१ नटस्य शृणोति श्लोकम् ११२।१२१ उपयोगो दुग्धादि सन्निमित्तं गवादि। गोदोहं स्वपिति १।२।१२१ अजां नयति ग्राम, भारं बति ग्रामम्, शाखां कर्षति नामम् १।२११२१ अध्याप्येते माणचको जैनेन्द्रम् १।२।१२१ । भक्षयति पिण्डी देवदत्तः ||१२२ आसयति गोदोहं देवदत्तम् ।।१२२ पूतयवम्, पूतयानयवम्, संहृतयवम्, संहियमाणयत्रम् ११३।१४ दध्मापटुः, घृतेनपटुः ११३।२७ गुडपृथुका, गडधाना, तिलपृथुका, दध्ना उपमिक्त ओदनोदध्नोदनःघुतोदनः। १।३।३१-गुड़-चूड़ा, गुडधान, तिलचूड़ा, दधिभात, घी-भात । वनेकसेसकाः, बनेवल्वजकाः, कृपेपिशाचिकाः ११३।३८ तत्रमुक्तम्, तत्रपीतम् ११३।४० पुराणान्नम् श३४४ केवलज्ञानम्, मोषकगवी ११३१४४ पञ्चगवधनः, पञ्चपूली, पञ्चकुमारि २३।४६ क्षत्रियभीरः, श्रोत्रिय कितवः, भिक्षुधिरः, मीमांसकदुर्दुरूपः १२३१४८ शस्त्रीथ्यामा, दुर्वाकाण्डथ्यामा, सरकाण्डथ्यामा १।३५० भोज्योष्णम्, भोज्यलवणम्, पानीयशोतम् ॥३॥६४ कपित्थरसः ११३१७५ इक्षुमक्षिकां में धारयसि ११३१७८ सक्तनां पायकः ११३१७९ तेलपीतः, वृत्तपीतः, मद्यपातः ११३।१०३ कुशलो विद्याग्रहणे १।४९४८ माथुरा: पाटलिपुत्रकेभ्य आदयतराः ११४५० पुष्ये पायसमश्नीयात्, मघाभिः ललौदनम् ११४४५३ यवाना लावकः, ओदस्य भोजक: १।४।६८ दास्याः कामुकः, सुकरः, कटो भवता, धान्यं पवमानः १२४७२ पुष्येण योगं जानाति, पुष्येण भोजयसि, चन्द्रमसा मधाभिर्योग बानाति शश२४ मासं कल्याणी काची ११४४
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शरदं मथुरा रमणीया १४|४
अरुणन्महेन्द्रो मथुरां । अरुणद् यवनः साकेतम् २२९२
पौतिमाष्या, गौकक्ष्या ३ | १४ शुचिरियं कन्या ३|१|३०
वृद्धपत्ती, स्थूलपत्नी, ग्रामपत्नी ३।१।३५ पलाण्डुभक्षित, सुरापीतो ३ | ११४६
वाहीकग्रामः दाक्षिपलदीय:, माहकिपलदीयः, माकनगरीयः ३।२।११८ मासिकः, सांवत्सरिकः ३।२।१३१ गोशालम्, खरशालम् ३ | ३|११
मासे देया भिक्षा ३।३।२२
पाटलिपुत्रस्य व्याख्यानं सुकौशला ३१३२४२
पाटलिपुत्रस्य द्वारम् ३।३।६०
वाणिजाः वाराणसीं जिस्वरोति मङ्गलार्थमुपचरन्ति ३।३१५८
गान्धारः पाञ्चालः ३।३।६७
भार्गवका ३।३।९३
हास्तिपदं शकटम् ३।३।१००
आक्षिकः, शालाकिकः ३।३।१२७
दाधिकम् शारिकम्, माराचिकम् ३।३।१२८
चूर्णिनोऽपूपाः, लवणा यवागूः, कषायमुदकम् ३।३।१४७ सिद्धिप्रियस्तोत्र
इस स्तोत्र में २६ पद्य हैं और चतुर्विंशति तीर्थंकरों की स्तुति की गयी ' रचना प्रौढ़ और प्रवाहयुक्त है । कवि वर्द्धमानस्वामीकी स्तुति करता हुआ कहता है
श्रीवर्धमानवचसा परमाकरेण रत्नत्रयोत्तमनिधेः परमाकरेण । कुर्वन्ति यानि मुनयोऽजनता हि तानि वृत्तानि सन्तु सततं जनताहितानि ॥
यहाँ यमकका प्रयोग कर कविने वर्द्धमानस्वामीका महत्त्व प्रदर्शित किया है । 'जनताहितानि' पद विशेषरूपसे विचारणीय है। वस्तुतः तीर्थंकर जननायक होते हैं और वे जनताका कल्याण करनेके लिये सर्वथा प्रयत्नशील रहते हैं ।
१. खसम गुच्छक, काव्यमाला सीरोज, सन् १९२६, पद्म २४ ।
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इन प्रमुख ग्रन्योंके अतिरिक पूज्यपादके वैद्यक सम्बन्धी प्रयोग भी उपलब्ध हैं। जैनसिद्धान्तभवन आरासे 'वैद्यसारसंग्रह' नामक ग्रन्थमें कतिपय प्रयोग प्रकाशित हैं। छन्दशास्त्र सम्बन्धी भी इनका कोई अन्य रहा है, जो उपलब्ध नहीं है। देवनन्धि-पूज्यपादका वैवुष्य एवं काव्यप्रतिभा ___ जीधन और जगत्के रहस्योंकी व्याख्या करते हुए, मानवीय व्यापारके प्रेरक, प्रयोजनों और उसके उत्तरदायित्वकी सांगोपांग विवेचना पूज्यपादके ग्रन्थोंका मूल विषय है। व्यक्तिगत जीवनमें कवि आत्मसंयम और आत्मशुद्धि पर बल देता है । ध्यान, पूजा, प्रार्थना एवं भक्तिको उदात्त जीवनकी भूमिकाके लिये आवश्यक समझता है। आचार्य पूज्यपादको कवितामें काव्यत्तत्त्वको अपेक्षा दर्शन और अध्यात्मतत्त्व अधिक मुखर है। शृङ्गारिक भावनाके अभावमें भो भक्तिरसका शोसल जल मन और हृदय दोनोंको अपूर्व शान्ति प्रदान करने की क्षमता रखता है । शब्द विषयानुसार कोमल हैं, कभी-कभी एक ही पद्यमें ध्वनिका परिवर्तन भो पाया जाता है । वस्तुतः अनुरागको हो पूज्यपादने भक्सि कहा है और यह अनुराग मोहका रूपान्तर है । पर वीतरागके प्रति किया गया अनुराग मोहको कोटिमें नहीं आता है। मोह स्वार्थपूर्ण होता है और भक्तका अनुराग निःस्वार्थ । वीतरागीसे अनुराग करनेका अर्थ है, तद्रूप होनेकी प्रबल आकांक्षाका उदित होना । अतएव पूज्यपादने सिद्धभक्तिमें सिद्धरूप होनेकी प्रक्रिया प्रदर्शित की है।
उनके वैदुष्यका अनुमान सर्वार्थसिद्धिग्रन्थसे किया जा सकता है। नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त, बौद्ध आदि विभिन्न दर्शनोंको समीक्षा कर इन्होंने अपनी विद्वत्ता प्रकट की है। निर्वचन और पदोंकी सार्थकताके विवेचनमें आचार्य पूज्यपादकी समकक्षता कोई नहीं कर सकता है। ___ आचार्य पूज्यपादने कविके रूपमें अध्यात्म, आचार और नीतिका प्रतिपादन किया है । अनुष्टुप् जैसे छोटे छन्दमें गम्भीर भावोंको समाहित करनेका प्रयत्न प्रशंसनीय है। आचार्यने सुख-दुःखका आधार वासनाको ही कहा है, जिसने आत्मतत्त्वका अनुभव कर लिया है, उसे सुख-दुःखका संस्पर्श नहीं होता।
वासनामयमेवैतत् सुखं दुःखं च देहिनाम् । तथा ह्यद्वेजयन्त्येते, भोगा रोगा इवापदि'।
१. इष्टोपदेश, पद्य ६ ।
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देहधारियोंको जो सुख और दुःख होता है, वह केवल कल्पनाजन्य ही है । जिन्हें लोकसुखका साधन समझा जाता है, ऐसे कमनीय कामिनी आदि भोग भी आपत्ति के समय में रोगोंकी तरह प्राणिमांको आकुलता पैदा करनेवाले होते हैं ।
संसारकी विभिन्न परिस्थितियोंका चित्रांकन करते हुए आचार्य पूज्यपादने उदाहरण द्वारा संयोग-वियोगको वास्तविक स्थितिपर प्रकाश डाला है । यथादिग्देशेभ्यः स्वगा एत्य, संवसन्ति नगे नगे 1 स्वस्वकार्यवशाद्यान्ति, देशे दिक्षु प्रगे प्रगे' ||
जिस प्रकार विभिन्न दिशा और देशोंसे एकत्र हो पक्षीगण वृक्षोंपर रात्रि में निवास करते हैं, प्रातः होनेपर अपने-अपने कार्यके वश पृथक-पृथक दिशा और देशों को उड़ जाते हैं । इसी प्रकार परिवार और समाजके व्यक्ति भी थोड़े समय के लिये एकत्र होते हैं और आयुकी समाप्ति होते ही वियुक्त हो जाते हैं ।
इस पद्यमें व्यंजना द्वारा ही संसारी जीवों की स्थितिपर प्रकाश पड़ता है । अभिधासे तो केवल पक्षियों के 'रैन बसेरा' का हो चित्रांकन होता है, परन्तु व्यंजना द्वारा संयोग-वियोगको स्थिति बहुत स्पष्ट हो जाती है और संसारका यथार्थरूप प्रस्तुत हो जाता है। आचार्यने आठवें पद्यमें "चपुगृहं वनं दाराः पुत्रा मित्राणि शत्रवः" में आमुख के रूप में उक्त पद्यके व्यंग्यार्थंका संकेत कर दिया है। अतः पद्योंको गुम्फित करनेकी प्रक्रिया भी मौलिक हैं। तथ्य यह है कि बाह्य प्रकृति के बाद मनुष्य अपने अन्तर्जगत्को ओर दृष्टिपात करता है । यही कारण है कि उदाहरण के रूपमें प्रस्तुत किया गया पद्य बाह्य प्रकृतिके रूपका चित्रण कर आमुख श्लोकके अर्थके साथ अन्वित हो विरक्तिके लिये भूमिका उत्पन्न कर देता है ।
आचार्य पूज्यपादने सकल परमात्मा अर्हन्तको नमस्कार करते हुए उनकी अनेक विशेषताओंमें वाणीकी विशेषता भी वर्णित की है। यह विशेषता उदास अलंकारमें निरूपित है । कविने बताया है कि अर्हन्त इच्छा रहित हैं । अतः बोलनेकी इच्छा न करनेपर भी निरक्षरी दिव्य-ध्वनि द्वारा प्राणियोंकी भलाई करते हैं, जो सकल परमात्माको अनुभूति करने लगता है, उसे आत्माका रहस्य ज्ञात हो जाता है | अतः कविने सूक्ष्मके आधारपर इस चित्रका निर्माण किया है । कल्पना द्वारा भावनाको अमूर्तरूप प्रदान किया गया है। धार्मिक पद्म
१. इष्टोपवेश पद्म ९ ।
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२३६ : तीर्थंकर महावीर बोर उनको आचार्य-परम्परा
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होनेपर भी, छायावादी कविताके समान सकल परमात्माका स्पष्ट चित्र अंकित हो जाता है | काव्यकलाको दष्टिसे पद्य उत्तम कोटिका है.---
जयन्ति यस्यावदतोऽपि भारतीविभूतयस्तीर्थकृतोऽप्यनीहितुः । शिवाय धाने सुगताय विष्णवे जिनाय तस्मै सकलात्मने नमः ।। इच्छारहित होनेपर तथा बोलनेका प्रयास न करनेपर भी जिसको वाणीको विभूति जग्गाको मुख-शान्ति देने में समर्थ है. उस अनेकारी सकल परमात्मा अहंन्तको नमस्कार हो।
बाह्य उदाहरणों द्वारा अन्तरंगकी अनुभूति कराने के लिये आचार्य ने गाढ़वस्त्र, जीर्ण वस्त्र, रक्तवस्त्रके दृष्टान्त प्रस्तुतकर आत्माके स्वरूपको स्पष्ट करनेका प्रयास किया है। जिस प्रकार गाढ़ा-मोटा वस्त्र पहन लेनेपर कोई अपनेको मोटा नहीं मानता, जोर्णवस्त्र पहननेपर कोई अपनेको जीर्ण नहीं मानता और रक्त, पीस, प्रति विभिन्न प्रकारका रंगीन वस्त्र पहननेपर कोई अपनेको लाल, नीला, पीला नहीं समझता, इसी प्रकार शरीरके स्थूल, जीर्ण, गौर एवं कृष्ण होनसे आत्माको भी स्थूल, जीर्ण, काला और गोरा नहीं माना जा सकता है
घने वस्त्रे यथात्मानं न घनं मन्यते तथा । धने स्वदेहेऽप्यास्मान न घनं मन्यते बुधः ।। जीर्ण बस्ने यथाऽऽत्मानं न जीर्ण मन्यते तथा । जीर्ण स्वदेहेऽप्यात्मानं न जोर्ण मन्यते बुधः ।। रक्ते वस्त्रे यथात्मानं न रक्तं मन्यते तथा ।
रक्ते स्वदहेऽप्यात्मानं न रक्तं मन्यते बुधः ।। अनुष्टुप्के साथ वंशस्थ, उपेन्द्रवज्रा आदि छन्दोंका प्रयोग भी किया है । काव्य, दर्शन और अध्यात्मतत्त्वको दृष्टिसे रचनाएँ सुन्दर और सरस हैं।
पात्रकेसरी या पात्रस्वामी कवि और दार्शनिकके रूपमें पात्रकेसरीका नाम विख्यात है ! आचार्य जिनसेनने अपने आदिपुराणमें पात्रकेसरीका उल्लेख करते हुए लिखा है ।
भट्टाकलङ्कश्रीपालपात्रकेसरिणां गुणाः ।
विदुषां हृदयारूढा हारायन्तेऽतिनिर्मलाः ॥ १-२. समाधितन्य ६३ ६६ । ३. आदिपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण--११५३ ।
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भट्टाकलङ्क, श्रीपाल और पात्रकेसरी आचार्यों के निर्मल गुण विद्वानोंके हृदयमें मणिमालाके समान सुशोभित होते हैं।
श्रवणबेलगोलाके अभिलेखसंख्या ५४ में "विलक्षणकदर्थन'के रचयिताके रूपमें पात्रकेसरीका स्मरण किया गया है
महिमा स पात्रकेसरिगुरोः परं भवति यस्य भक्त्यासीत् ।
पद्मावती सहाया विलक्षण-कदर्थन कर्तुम्॥ प्रस्तुत मल्लिषेण-प्रशस्ति शक संवत् १०५० वि० सं० ११८५की है। अत: यह स्पष्ट है कि आचार्य जिनसेन तथा मल्लिगेण प्रशस्तिके लेखकके समय में पात्रकेसरीका यश पर्याप्त प्रसृत था । जोवन-परिचय
पात्रकेसरीका जन्म उच्चकुलीन ब्राह्मण वंशमें हुआ था। सम्भवतः ये किसी राजाके महामात्यपदपर प्रतिष्ठित थे। ब्राह्मण समाजमें इनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। आराधनाकथा-कोषमें लिखा है-"अहिच्छत्रके अनिपाल राजाके राज्यमें ५०० ब्राह्मण रहते थे। इनमें पात्रकेसरी सबसे प्रमुख थे । इस नगरमें तीर्थकर पार्श्वनाथका एक विशाल चैत्यालय था । पात्रकेसरी प्रतिदिन उस चैत्यालयमें जाया करते थे। एक दिन वहां चारित्रभषण मुनिके मखसे स्वामी समन्तभद्रके 'देवागम' स्तोत्रका पाठ सुनकर ताश्चर्यचकित हए। उन्होंने मुनिराजसे स्तोत्रका अर्थ पूछा, पर मुनिराज अर्थ न बतला सके। पात्रकेसरीने अपनी विलक्षण प्रतिभा द्वारा स्तोत्र कण्ठस्थ कर लिया और अर्थ विचारने लगे । जैसे-जैसे स्तोत्रका अर्थ स्पष्ट होने लगा वैसे-वैसे उनकी जैन. तत्त्वोंपर श्रद्धा उत्पन्न होती गयी और अन्तमें उन्होंने जैनधर्म स्वीकार कर लिया । राज्यके अधिकारी पदको छोड़ उन्होंने मुनिपद धारण कर लिया। पर उन्हें हेतुके विषयमें सन्देह बना रहा और उस सन्देहको लिए हुये सो जाने पर रात्रिके अन्तिम प्रहरमें स्वप्न आया कि पाश्वनाथके मन्दिरमें 'फण' पर लिखा हुआ हेतुलक्षण प्राप्त हो जायगा। अतएव प्रातःकाल जब वे पाश्वं. नायके मन्दिर में पहुंचे तो वहाँ उस मूतिके 'फण' पर निम्न प्रकार हेतुलक्षण प्राप्त हुआ
अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।
नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥ पात्रकेसरी हेतुलक्षणको अवगत कर असन्दिग्ध और दीक्षित हुए । १. जैनशिलालेखसंग्रह, प्रथम भाग, अभिलेखसंख्या ५४, पद्य १२, पृ० सं० १०३ । २३८ : वीर्थकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा
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इस कथासे विदित है कि पात्रकेसरी उच्चकुलीन ब्राह्मण थे। स्वामी समन्तभद्रके 'देवागम' स्तोत्रको सूनकर इनको श्रद्धा जैनधर्मके प्रति जागृत हई थी और जैनधर्ममें दीक्षित हो मुनि हो गये थे। कथाकोषके अनुसार इन्हें 'अहिच्छत्रका निवासी कहा गया है। ये मिल-संघके आचार्य थे । शक संवत् १०५९के बेल्लूर ताल्लुकेके शिलालेख नं० १७ में पानसरोका नाम आया है । इस अभिलेखमें समन्तभद्रस्वामीके बाद पात्रकेसरीको मिल-संघका प्रधान आचार्य सूचित किया है। पात्रकेसरोके अनन्तर क्रमश: वकग्रीव, वननन्दि, सुमतिभट्टारक (देव) और समयदोपक अकलङ्क नामके आचार्य हुए हैं। ___ अकलंकदेवके निश्चयीक किडनेवाले समाई मनन्तवीर्यने उनके 'स्वामी' पदका व्याख्यान करते हुए ही विलक्षणकदर्थनके रचयित्ताके रूपमें पात्रकेसरीका उल्लेख किया है । तत्त्वसंग्रह और उसको टोका पंजिकामें पात्रस्वामीका निर्देश आया है और उनके वाक्योंको उद्धृत किया है।
अतः स्पष्ट है कि पात्रकेसरीका व्यक्तित्व तर्कके क्षेत्र में प्रसिद्ध रहा है । समय-निर्णय
पात्रकेसरीका विलक्षणकदर्थन' नामका ग्रन्थ रहा है । इस ग्रन्थको मीमांसा बौद्ध विद्वान् शान्तरक्षितने अपने तत्वसंग्रह नामक ग्रंथमें की है और शान्तरक्षितका समय ई० सन् ७०५-७६२ है। अतः पात्रकेसरीका समय इसके पूर्व है। डॉ० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचायन इनके समयका निर्धारण करते हुए लिखा है-हेतुका विलक्षणस्वरूप दिङ्नागने न्यायप्रवेशमें स्थापित किया है और उसका विस्तार धर्मकीतिने किया है। पात्रस्वामोका पुराना उल्लेख करनेवाले शान्तरक्षित और कणंगामि है । अतः इनका समय दिङ्नाग (ई० ४२५) के बाद और शान्तरक्षितके मध्य में होना चाहिए। ये ई० सन्को छठवीं शताब्दांके उत्तराध और सातवींके पूर्वार्धके विद्वान ज्ञात होते हैं।"
१. तत्.....""स्थेर्थमं सहस्रगुणमाडिसमन्तभद्रस्वामिगलुसम्दर अवीरं बलिकतदीय
श्रीमद् द्रमिल संघाने सरद् अप्पपात्रकेसरि-स्वामी गतिवक्रग्रीवामि'......रिष्द
अनन्तरं ।-एपिग्राफिका कर्णाटिका, जिल्द ५, भाग १ ।। २. नन सदोष तत्, अतस्सवपरिज्ञानमदोषाय इति चेत्, अत्राह–अमलालोकम् .!
कस्य तत् ? इत्यत्राह-स्वामिनः पात्रकेसरिण इत्येके। कुत एतत् ? तेन वहिषय
विलक्षणकदर्थनम्"।-सिद्धिविनिश्चयटीका, जानपीठसंस्करण-पृ. ३७१-७२ । ३. डॉ० बरषारीलाल कोठिया : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमानविधार, पृ० १९५-९६ । ४. सिद्धिविनिश्चय, प्रस्तावना, १० २१ ।
अतषर और सारस्वताचार्य : २३९
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पात्रकेसरीका 'अन्यथानुपपनत्व' पद्म अकलङ्कदेवके न्यायविनिश्चयमें मूलमें भी मिलता है। अतः पात्रकेसरी अकलदेव (वि०७ वी शती) के पूर्ववर्ती हैं। अभिलेखोंमें समन्तभद्रके अनन्तर पात्रकेसरीका नाम आया है। अतः समन्तभद्र (३री शती) के पश्चात् पात्रकेसरीका समय है । अर्थात् इनका समय विक्रम की छठी शताब्दीका उत्तरार्ध है। रचनाएं
इनकी दो रचनाएं मानी जाती हैं-१ विलक्षणकदर्थन और २ पात्रकेसरीस्तोत्र । त्रिलक्षणकदर्थनके तो मात्र उल्लेख मिलते हैं। वह उपलब्ध नहीं है। दूसरी कृति पात्रकेसरीस्तोत्र ही उपलब्ध है।
पात्रकेसरी स्तोत्र-इस स्तोत्रका दूसरा नाम 'जिनेन्द्रगुणसंस्तुसि' भी है । समन्तभद्रके स्तोत्रोंके समान यह स्तोत्र भी न्यायशास्त्रका ग्रन्थ है। भ्रमवश कतिपय आलोचकोंने विद्यानन्द और पात्रकेसरीको एक व्यक्ति समझ लिया था, असः पात्रकेसरीस्तोत्र विद्यानन्दके नामसे प्रकाशित है । परन्तु आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने 'स्वामो विद्यानन्द और पात्रकेसरी' शीर्षक प्रबन्धमें सप्रमाण उक्त मान्यताका खण्डन किया है ।'
प्रस्तुत स्तोत्रमें ५० पद्य हैं । अर्हन्त भगवानकी सयोगकेवली अवस्थाका बहुत ही गवेषणापूर्ण वर्णन प्रस्तुत किया है। बीसरागताका विस्तृत वर्णन करते हुए पात्रस्वामीने कहा है
जिनेन्द्र ! गुणसंस्तुतिस्सव मनागपि प्रस्तुता भवत्यखिलकर्मणां प्रहत्तये पर कारणम् । इति व्यवसिता मतिर्मम ततोऽहमत्यादरात्,
स्फुटार्थनयपेशला सुगत ! संविधास्ये स्तुतिम् ॥ हे भगवन् ! आपके गुणोंको जो थोड़ी भी स्तुति करता है उसके लिए यह स्तुति समस्त कार्यों में आनेवाले विघ्नोंके विध्वंसका कारण बनती है अथवा समस्त कर्मों के नाश करने में सक्षम है। इस निश्चयसे प्रेरित होकर मैं अत्यन्त बादरपूर्वक नयमित स्फुट अर्थवाली स्तुतिको करता हूँ। __ इस प्रतिज्ञावाक्यक अनन्तर आराध्यदेवको स्तुति प्रारम्भ की है । वोत
१. जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकापा, पृ० ६३७-६६७ । २. प्रममगुष्का, पन्नालाल बोषरी, मदनी काशी, वि० सं० १९८२, पु० २८४,
पर ।
२४. : तीर्थकर महावीर और उनकी भाचार्य-परम्परा
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रागीके ज्ञान और संयमका विवेचन कई प्रकारसे किया है। वीतरागीका शासन परस्पर विरोधरहित और सभी प्राणियोंके लिए हितसाधक होता है । अर्हन्त परमेष्ठी उच्चकोटिके तत्त्वचिन्तक एव स्याद्वादनयगर्भित उपदेश देनेबायें हैं । अतएव मिरा की शरण कर की है, उसे रागादिजन्य वेदना व्याप्त नहीं करती। राग, द्वेष और मोह ही संसार में भय उत्पन्न करनेवाले हैं, जिसने उक्त विकारोंको नष्ट कर दिया है, वही त्रिभुवनाधिपति होता है । समस्त आरम्भ और परिग्रहके बन्बनसे मुक्त होनेके कारण वीतरागी अर्हन्स में हो आप्तता रहती है। एकान्तवादसे दुष्ट चित्तवाले व्यक्ति आपके आनन्त्य गुणोंकी थाह नहीं पा सकते हैं। इस सन्दर्भ में यह स्मरणीय है कि यहाँ तैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, मीमांसक आदि मतों और उनके अभिमत आपको भी समीक्षा की गयी है । सर्वज्ञसिद्धिके साथ सम्रन्यता और कला - हारका निरसन भी किया गया है। रचना बड़ी ही भावपूर्ण और प्रौढ़ है ।
२. त्रिलक्षणकदन – इस ग्रन्थम बौद्धों द्वारा प्रतिपादित पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्य और विपक्षाद्व्यावृतिरूप हेतुके रूप्यका खण्डन कर 'अन्यथानुपपन्नत्व' रूप हेतुका समर्थन किया गया है। इस ग्रन्थ के उद्धरण शान्त रक्षितके तत्त्वसंग्रह, अकलकके सिद्धिविनिश्चय तथा न्यायविनिश्चय, विद्यानन्दके तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक एवं उत्तरवर्ती आचार्यो के ग्रन्थोंमें पाये जाते है ।
प्रतिभा एवं वैष्य - पात्रकेसरी न्यायके निष्णात विद्वान् थे । अतः इनके स्तोत्र में भी दार्शनिक मान्यताएँ समाहित हैं । संस्कृतिके मूलस्रोत श्रद्धा, ज्ञान और चरित्र ही हैं। अतः नेयायिक कवि भी प्रधानतः संस्कृति के उन्नायक होते हैं । ये तर्कपूर्ण शेशीमें विभिन्न मान्यताओंकी समीक्षा करते हुए उन्नत विचारों और उदात्त भावोंका समावेश करते हैं। जिस आराध्य के प्रति ये
ज्ञात होते है, उसके गुणों को दर्शनकी कसौटी पर कसकर काव्य - भावनाके रूप में प्रस्तुत करते हैं । पात्रस्वामी में दार्शनिक विचारोंके साथ कोमल तथा भक्तिपूरित हृदयकी अभिव्यक्ति वर्तमान है । यद्यपि दीनताको भावना कहीं भी नहीं है तो भी अर्हन्तकी दिव्य विभूतियोंके दर्शनसे कविके रूपमें आचार्य चकित हैं। उनकी वीतरागता के प्रति अपार श्रद्धा है। अतः भक्त कविके समान भक्तिविभोर हो आराध्यके चरणों में अपनेको समर्पित करनेकी इच्छा व्यक्त करते हैं। प्रमाण, हेतु, नथ, और स्याद्वादका विवेचन भी सर्वत्र होता गया है।
भूत चैतन्यवादका निरसन करते हुए कविने उसके सिद्धान्तपक्षके स्फोटनमें प्रबन्धात्मकता प्रदर्शित की है। इसी प्रकार सांख्य- सिद्धान्त के प्रकृति - पुरुष - वादमीमांसा में भी प्रबन्धसूत्र विद्यमान हैं । आराध्य के स्वरूपविवेचन में कविने तर्कके साथ इतिवृत्तात्मकता का सफल निर्वाह किया है।
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न मृत्युरपि विद्यते प्रकृतिमानुषस्येव ते, मृतस्य परिनिर्वृतिम मसुनर्जन्मवत् । जरा च न हि यद्वपुर्विमलके वलोत्पत्तित्तः, प्रभृत्य रुजमेकरूपमवतिष्ठते प्राङ् मृतेः ' ॥
हे प्रभो ! साधारण मनुष्योंके समान आपकी मृत्यु भी नहीं होती है । यतः जन्ममरण होनेसे निर्वाणको स्थिति घटित नहीं हो सकती है । अतएव न आपका पुनर्जन्म होता है, न मरण । अतएव आप जन्ममरणातीत हैं । निर्मल केवलज्ञानकी उत्पत्ति होनेसे जरा – वृद्धावस्थाजन्य कष्ट भी प्राप्त नहीं होता है । यतः वृद्धावस्थाका होना ही सम्भव नहीं है । और न कभी रोगका ही कष्ट आपको होता है। घातिया कर्मोंके नष्ट होते ही आप जन्म जरा मरणसे मुक्त हो जाते हैं ।
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तीर्थंकरमें लौकिक अभ्युदयके साथ निःस्संगता अपरिग्रहता भी पायी जाती है । अभ्युदय और अपरिग्रह ये दोनों विरोधी धर्म हैं । अतः एकाश्रयमें इन दोनों का साहचर्य किस प्रकार सम्भव है? इसी तथ्यको लेकर कविने विरोधाभास अलङ्कार द्वारा अर्हन्तके गुणोंपर प्रकाश डाला है
सुरेन्द्रपरिकल्पितं बृहदन सिहासन', तथाऽऽतपनिवारणत्रयमपोल्लसच्चामरम् |
वशं च भुवनत्रयं निरुपमा च निःसंगता, न संगतमिदं द्वयं त्वयि तथापि संगच्छते ॥
इन्द्र द्वारा प्रदत्त बहुमूल्य सिंहासन, आतप दूर करनेके लिये छत्रत्रय और चामर सुशोभित होते हैं । त्रिलोककी अन्तरंग और बहिरंग लक्ष्मा आपको प्राप्त हैं । तो भी आप अपरिग्रही हैं। लक्ष्मीका सद्भाव और अपरिग्रहत्व ये दोनों विरोधी धर्म हैं, एक साथ नहीं रह सकते हैं, तो भी ये दोनों आपमें पाये जाते हैं । तात्पर्य यह है कि वीतरागी प्रभुके अन्तरंग रूपमें केवलज्ञानादि लक्ष्मी है और बहिरंग में देवों द्वारा किये गये अतिशयोंके कारण सिंहासन, छत्र, चमर, आदि वैभव विद्यमान है । अतएव उसका अपरिग्रहत्वके साथ किसी भी प्रकारका विरोध नहीं है |
१. प्रथम गुच्छक, पात्रकेसा रस्तो पद्म २७ पु० २८८ । २. वही, पद्म ६, पृ० २८५ ।
२४२ : तीर्थंकर महावोर और उनको आचार्य - परम्परा
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पात्रकेसरिस्तोत्रके अध्ययनसे इनकी प्रतिभा और वैदुष्यका सहजमें परिज्ञान प्राप्त हो जाता है। कविने परस्मैपदी क्रियाओंके स्थानमें संविधास्ये, संगच्छते, विरुध्यते', अश्नुते , उपपद्यते५. परिपूज्यते', नरीनृत्यते , विद्यते', उहते, छिद्यते', युज्यते", अनुषज्यते'२. गम्यते । एवं चेष्टते" आदि आत्मनेपदी क्रियापद प्रयुक्त किये हैं ! इन क्रियापदोंसे यह अनुमान होता है कि आचार्य पात्रकेसरी विविध वादोंकी समीक्षा कर स्वमतकी स्थापना करना चाहते हैं। यतः आत्मनेपदो क्रियाएँ 'स्व'को अभिव्यंजनाके लिये आती हैं। जहां स्तोत्रोंमें स्तोता अपने हृदयको खोलकर रख देता है और अपने समस्त दोष और आवरणोंको स्वीकार करता है वहां आत्मनेपदो क्रियाओंका व्यवहार किया जाता है। परस्मैपदी क्रियाए परस्मै-परार्थ-परबोधक पदम्' अर्थात् जहाँ परका भाव अभिव्यक्त करना होता है वहां प्रायः परस्मैपदी क्रियाओंका व्यवहार किया जाता है।
जो कवि या लेखक सावधान रहकर रचना करता है वह परस्मैपदी और आत्मनेपदी क्रियाओंके भेदोंपर ध्यान रखता है। सामान्यत: जहाँ 'स्व' और 'पर'का मिश्रित भाव अभिव्यक्त करना होता है वहाँ आत्मनेपदी क्रियाएं व्यवहारमें आती है।
आचार्य पात्रस्वामीका न्यायविषयपर भी अपूर्व अधिकार है। उनके विलक्षणफदर्थनके न मिलनेपर भी उसके वानपोंके ग्रन्थान्तरोंमें उपलब्ध होने लथा उपयुक्त स्तोत्रसे न्याविषयक परिज्ञान प्राप्त किया जा सकता है । यहाँ स्तोत्रमे उदाहरणार्थ एक पद्य प्रस्तुत है--
न हीन्द्रियधिया विरोधि न च लिंगबुळ्या वचो,
न चाप्यनुमतेन ते सुनयसप्तधा योजितम् । व्यपेतपरिशङ्कन वितथकारणादर्शनादतोऽपि भगव॑स्त्वमेव परमेष्टितायाः पदम्॥
आचार्य जोइंदु जैन परम्परामें 'जोइंदु या 'योगीन्दु' एक अध्यात्मवेत्ता आचार्य हैं। इनके जीवन-वृत्तके सम्बन्धमें न तो इनके ग्रन्थोंसे सामग्री उपलब्ध होती है और न अन्य वाङ्मयसे ही । परमात्मप्रकाशमें कविने अपने नामका उल्लेख किया है १-१४. पात्रकेसरिस्तोत्र-१, ६, १३, २२, २२, २९, २९, ३१, ३२, ३४, ३४,
३६, ४४, ४८ पद्य । १५. वाही, पद्य ११ ।
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और अपने शिष्यका नाम भट्टप्रभाकर बताया है। पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करनेके पश्चात् भट्टप्रभाकरने जिनदेव और योगोन्दुले निर्मल परिणामोंकी प्राप्ति हेतु प्रार्थना की है । यथा
भावि पणविवि पंच-गुरु सिरि-जोइंदु - जिणाउ । भट्टपहार विविउ विमलु करेविणु भाउ' ।
शुद्धभावसे पंचपरमेष्ठियोंको नमस्कार कर भट्टप्रभाकर अपने परिणामोंको निर्मल करनेके हेतु योगीन्दुदेवसे शुद्धात्मतत्व जानने के लिए महाभक्ति से प्रार्थना करता है ।
परमात्मप्रकाशके टीकाकार ब्रह्मदेवने अपनी संस्कृतटीकामें "जोइंदुजिणाउ" का अर्थ योगीन्द्रदेवनामा भगवान् किया है । समयसारकी टीका में जयसेनने 'तथा योगीन्दुदेवैरप्युक्तम्' कहकर परमात्मप्रकाशका निम्नलिखित दोहा उद्धृत किया है
" ण वि उपज ण कि मरइ बघु भोक्यु करंड जिस परमत्थे जोइया जिणवरु एउ भणेइ ॥
श्रुतसागरसूरिने कुन्दकुन्दके 'चरितपाहुड' की टीका में 'उक्तञ्च योगीन्द्रनामाभट्टारकेण' लिखकर परमात्मप्रकाशके निम्नलिखित पद्यको प्रस्तुत किया है
जसु हरिणच्छी हियवइए तसु ण वि बंभु विधारि । एक्कहि केम समति वढ बे खंडा पडियारि ॥
इस प्रकार संस्कृत टीकाकारोंने जोइंदुको योगीन्दु नामसे अभिहित किया है और इसो नामसे ये प्रसिद्ध भी हुए हैं। योगसार में ग्रन्थकर्ताका नाम योगिचन्द बताया है, जो कि जोइंदुका रूपान्तर है
संसारह भय-भीयएण जोगिचंद - मुणिएण | अप्पा - संबोण कया दोहा इवक मणेण " |
योगीन्दु योगिचन्द्रका रूपान्तर है और इसका अपभ्रंशरूप जोइंदु है ।
१. परमात्मप्रकाश, रामचन्द्रशास्त्रमाला, दोहा ११८ | २. यही ११६८
३. कुन्कुन्द, चारितपाहुड-गाथा - १५ ।
४. परमात्मप्रकाश राय चन्द्रशास्त्रमाला, दोहा--- १।१२९ ।
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५. योगसार, रामचन्द्रशास्त्रमाला, दोहा-- १०८ ।
२४४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी श्राचार्य - परम्परा
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प्रायः चन्द्रान्त नामोंको संक्षिप्त रूप देनेके लिए ग्रन्थकार 'इन्दु' द्वारा अभिहित करते हैं । यथा--प्रभा चन्द्रका प्रभेन्दु, शुभचन्द्रका शुभेन्दु हो गया है । इसीप्रकार योगिचन्द्रका योगीन्दु या जोइंदु हुआ है । अतएव डॉ० ए० एन० उपाका यह सुझाव सर्वथा उचित है कि परमात्मप्रकाशके रचयिताका नाम योगीन्द्र नहीं, योगीन्दु है ।
जीवन-परिचय
जोइंदु कविके जीवन सम्बन्धमें किसी भी साघनसे कोई प्रामाणिक सूचना प्राप्त नहीं होती है । परमात्मप्रकाश में बताया गया है कि यह ग्रन्थ भट्टप्रभा - करके निमित्तसे लिखा जा रहा है। यह बात परमात्मप्रकाशके आदि और अन्तसे भी सिद्ध होती है। मध्यमें भी कई स्थलों पर भट्ट प्रभाकरको सम्बोधन करते हुए कथन किया गया है । ग्रन्थकारने लिखा है
इत्थु ण व पंडियहि गुण-दोसु वि पुणरुसु । भट्ट - पभायर-कारणइँ मई पुणु वि परतु' |
अर्थात् हे भव्यजीवों ! इस ग्रन्थ में पुनरुक्त नामका दोष पण्डितजन ग्रहण नहीं करेंगे और न काव्यकलाको दृष्टिसे ही इसका परीक्षण करेंगे । यतः मैंने प्रभाकरभट्टको सम्बोधित करनेके लिए परमात्मतत्त्वका कथन किया है। इस कथनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि भट्टप्रभाकर कोई मुमुक्षु था, जिसके लिए इस ग्रन्थका प्रतिपादन किया गया है। यह ग्रन्थ मुल्यरूपसे मुनियोंको लक्ष्यकर लिखा गया है । और इसके लेखक भी अध्यात्म रसिक मुनि ही हैं । अन्तिम मङ्गलके लिए आशीर्वाद के रूपमें नमस्कार करते हुए लिखा है कि इस लोक में विषयी जीव जिसे नहीं पा सकते, ऐसा यह परमात्मतत्त्व जयवन्त हो । विषयासीत वीतरागी मुनि ही इस आत्मतस्वको प्राप्त कर सकते हैं। जो मुनि भावपूर्वक इस परमात्मप्रकाशका चिन्तन करते हैं वे समस्त मोहको जीतकर परमार्थके ज्ञाता होते हैं। अन्य जो भी भव्यजीव इस परमात्मप्रकाशको जानते है वे भी लोक और अलोकका प्रकाश करनेवाले ज्ञानको प्राप्त कर लेते हैं । इस ग्रन्थ के पठन-पाठनका फल शुद्ध आत्मतत्त्वकी प्राप्ति है ।
उपर्युक्त कथन से इतना स्पष्ट ज्ञात होता है कि जोइंदु मुनि थे और इनका कोई मुमुक्षु शिष्य भट्टप्रभाकर था । इसीको सम्बोधित करने के लिए परमात्म: प्रकाशकी रचना की गयी है ।
१. परमात्मप्रकाश, रायनशास्त्र माला, दोहा - २।२११ ।
२. परमात्मप्रकाश - २२०४-२०५ ।
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समय - निर्णय
हॉ० ए० एन० उपाध्येने 'जोइंदु' के समयपर विस्तारपूर्वक विचार किया है । उनके निष्कर्ष निम्नप्रकार हैं
पारिपाती टीकायें परमात्मप्रकाशके दोहे उद्धृत
१ किये है।
२. चौदहवीं और बारहवीं शताब्दी में परमात्मप्रकाशपर बालचन्द और ब्रह्मदेवने क्रमश: कन्नड़ एवं संस्कृत टीकाएं लिखी हैं ।
३. कुन्दकुन्दके समयसारके टीकाकार जयसेनने १२वीं शताब्दी के उत्तरार्धमें समयसारटीका में परमात्मप्रकाशका एक दोहा उद्धृत किया है
४. हेमचन्द्र मुनि रामसिंहके दोहे अपने अपभ्रंशव्याकरणमें उद्धृत किये हैं। रामसिंहने जोके योगसार और परमात्मप्रकाशसे बहुतसे दोहे ग्रहण कर अपनो रचनाको समृद्ध बनाया है । अतः जो इंदु हेमचन्द्र और रामचन्द्र दोनोंसे पूर्ववर्ती हैं।
५. देवसेनकृत तत्त्वसारके अनेक पद्म परमात्मप्रकाशके ऋणी है । अत: जोइंदु देवसेनसे भी पूर्ववर्ती हैं।
६. चण्डके प्राकृतलक्षणमें 'यथा तथा मनयोः स्थाने' के उदाहरणमें निम्नलिखित दोहा प्राप्त होता है
काल हेविणु जोश्या जिम-जिम मोहू गलेइ | द्विमुतिमुदंसण लहइ जिउ नियमे अप्पु मुणेइ' |
अर्थात् जोइंदु चण्डके पूर्ववर्ती हैं। पर चण्डके समयके सम्बन्धमें अभी तक मतैक्य नहीं है ! डॉ० पी० डी० गुणेका मत है कि चण्ड उस समय हुए हैं जब अपभ्रंश भाषा केवल आभीरोंके बोलचालकी ही भाषा नहीं थी, अपितु साहित्यिक भाषा हो चुकी थी । अर्थात् ईसाकी छठीं शताब्दिके पश्चात् चण्डका समय होना चाहिए । अन्य विद्वानोंका अनुमान है कि चण्डके व्याकरणको व्यवस्थित रूप ७वीं शताब्दिमे प्राप्त हुआ है । अतएव जोइंदुका समय इसके पूर्व होना सम्भव है ।
कतिपय विद्वानोंने तो प्राकृतलक्षणका समय ई० पूर्व माना है । पर यह तर्कसंगत नहीं है । यतः जोइंदुके परमात्मप्रकाश और कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंके तुलनात्मक अध्ययनसे यह स्पष्ट है कि परमात्मप्रकाश कुन्दकुन्दके मोक्षप्राभृत और पूज्य
१. वही, दोहा ११८५ ।
२४६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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पादके समाधितंत्रके तुल्य है। परमात्मप्रकाश (१११२१-१२४) में आरमाके तीन मेदोंका वर्णन है। यह वर्णन मोक्षप्राभूत (४-८) से मिलता है । सम्यक्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिको परिभाषाएँ भी परमात्मप्रकाश (११७६-७७) और कुन्दकुन्दके मोक्षप्रामृत (१४-१५) में समान रूपसे पायी जाती हैं। ब्रह्मदेवने अपनी संस्कृतटोकामें ७६ और ७७वें दोहेका व्याख्यान लिखते हुए उक्त गापाएँ उद्धृत को हैं । इस प्रकार निम्नलिखित दोहे और गाथाएं समान भावको हैंमोक्खपाहुड
परमात्मप्रकाश २४ गाथा
११८६ दोहा ३७ गाथा ५१ गाथा
२११७६-१७७ दोहा पूज्यपादके समाधितन्त्र और परमात्मप्रकाशकी तुलनासमाधितन्त्र
परमात्मप्रकाश ४-५ पद्य
११-१४ दोहा ३१ पद्य
२२१७५; ११२३ दोहा ६४-६६ पद्य
२।१७८-१८० दोहा ७० पद्य
१८. दोहा समाधितन्त्र और परमात्मप्रकाश दोनों ग्रन्थोंमें विषयगत और शैलीगत अनेक समसाए' पायी जाती है। व्याकरण होनेके कारण पूज्यपादके उद्गार संक्षिा, परिमार्जित और व्यवस्थित हैं। पूज्यपादने समाधितन्त्रमें जिस तथ्यको संक्षेपमें प्रतिपादित किया है उस तथ्यको जोइंदुने विस्तारपूर्वक निरूपित किया है। यहाँ तुलनाके लिए कतिपय पद्य उद्धृत किये जाते हैं
वः परात्मा स एवाहं योऽह स परमस्ततः । अहमेव मयोपास्यो नान्यः कश्चिदिति स्थितिः ॥
... समाधिसन्त्र, पद्म-३१ जो परमप्पा गाणमउ सो हर देउ अर्णतु । जो हर सो परमप्पु परु एहउ भावि णिभंतु ॥
-परमात्मप्रकाश, २०१७५
जीर्णे वस्त्रे यथात्मानं न जीणं मन्यते तथा । जीर्णे स्वदेहेऽप्यात्मानं न जीणं मन्यते बुषः ।।
-समाधिसंत्र, पच-६४ श्रुतपर और सारस्वताचार्य : २४७
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जिणि वत्थि जेम बह देह ण मण्णइ जिण्णु । देहि जिणि गाणि तहँ अप्पु ण मण्णइ जिण्णु ॥
-परमात्मप्रकाश, २२१७९
नष्टे वस्त्रे यथात्मानं न नष्टं मन्यते तथा । नष्टे स्वदहडप्यात्मानं न नष्टं मन्यते बुधः ।।
--समाधितंत्र, पहा ६५ यत्यु पण जेम बुहु देहु ण मण्णइ गर्छ । ण? देहे जाणि तह अप्पू ण मण्ण ण81
--परमात्मप्रकाश, दोहा ।१८० इस सुलनात्मक विवेचनसे निम्नलिखित तीन निष्कर्ष प्रस्तुत होते हैं-(१) बोइंदु पूज्यपाद (ई० सन् छठी शती के उत्तरवर्ती हैं। ' (२) जोइंदु चण्डके पूर्ववर्ती हैं। यतः घण्डने इनके पूर्वोक्त दोहेको उदाहरण के रूपमें उद्धृत किया है ।
(३) अतएव जोइंदुका समय पूज्यपादके पश्चात् और चण्डके पूर्व अर्थात् छठी शतीके पश्चात् और सातवीं शतोके पूर्व ई० सन्की छठी शताब्दीका उत्तराद्ध होना चाहिए। रचनाएं
परम्परासे जोइंदुके नामपर निम्नलिखित रचनाएं मानी जाती है११) परमात्मप्रकाश (अपन श) (२) नौकारवावकाचार (अपभ्रश) (३) योगसार (अपभ्रंश) (४) अध्यात्मसन्दोह (संस्कृत) (५) सुभाषिततंत्र (संस्कृत) (६) तत्त्वार्थटीका (संस्कृत)
इनके अतिरिक्त योगीन्द्रके नामपर दोहापाहुड (अपभ्रंश), अमृताशोत्ती (संस्कृत) और निजात्माष्टक (प्राकृत) रचनाएं भी प्राप्त होती हैं । पर यथार्थमें परमात्मप्रकाश और योगसार दो ही ऐसी रचनाएं हैं जो निर्धान्त रूपसे जोइंदुकी मानी जा सकती हैं। परमात्मप्रकाश
जोइंदु अध्यात्मवादी हैं, कवि नहीं। अपभ्रंशमें शुद्ध अध्यात्मविचारोंकी २४८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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ऐसी सशक्त अभिव्यक्ति अन्यत्र नहीं मिल सकती है 1 इनके परमात्मप्रकाशमें दो अधिकार हैं। प्रथम अधिकारमें १२६ दोहे और द्वितीयमे २१९ हैं। इन दोहोंमें क्षेपक और स्थलसंख्याबाह्यप्रक्षेपक भी सम्मिलित हैं। ब्रह्मदेवके मतानुसार परमात्मप्रकाशमें समस्त ३४५ पद्य हैं। इनमें पांच गाथाएँ, एक स्रग्धरा और एक मालिनी हैं किन्तु इन पद्योंकी भाषा अपभ्रंश नहीं है | एक चतुष्पदिका भी है और शेष ३७७ दोहे हैं, जो अपभ्रशमें निबद्ध हैं।
विषय-वर्णनको दृष्टिसे प्रारम्भके सात पद्योंमें पंचपरमेष्ठीको नमस्कार किया गया है। आठवें, नवें और दसर्वे दोहेम भट्टप्रभाकर जोइंदुसे निवेदन करता है
गउ संसारि वसंताह सामिय कालु अणंतु | पर मई किं पि ण पत्तु सुह दुक्खु जि पत्तु महंतु ॥ चउ-गइ-दुक्खहं तत्ताहँ जो परमप्पउ कोइ।
चउ-गइ-दुक्ख-विणासयरु कहहु पसाएं सो वि॥' हे स्वामिन् ! इस संसारमें रहते हुए अनन्तकाल बीत गया, परन्तु मैंने कुछ भी सुख प्राप्त नहीं किया, प्रत्युत् महान् दुःख ही पाता रहा । अत: चारों गतियोंके दुखोंसे सन्तप्त प्राणियोंके चारों गति-सम्बन्धी दुखोंका विनाश करनेवाले परमात्माका स्वरूप बतलाइए । उत्तरमें जोइंदूने आत्माके तीन भेदोंका कथन किया है—(१) मूढ (२) विचक्षण और (३) ब्रह्म ।
जो शरीरको ही आत्मा मानता है, वह मद है। जो शरीरसे भिन्न ज्ञानमय परमात्माको जानता है, वह विचक्षण या पण्डित है। जिसने कर्मों का नाश कर शरीर आदि परद्रव्योंको छोड़ ज्ञानमय आत्माको प्राप्त कर लिया है वह परमात्मा है।
जोइंदुके मतसे आत्मा हो परमात्मा हो जाती है। निश्चयनयसे आत्मा और परमात्मामें कोई अन्तर नहीं है । जैसा निर्मल ज्ञानमय देव मुक्ति में निवास करता है, वैसा ही परमब्रह्म शरीरमें निवास करता है । अतः दोनोंमें भेद नहीं किया जा सकता है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि जोइंदुने आत्माको ब्रह्मशब्द द्वारा अभिहित किया है, जिससे उनपर अद्वेतका प्रभाव मालूम पड़ता है। १. परमात्मप्रकाश, १।९-१० । २. वही, १०१३-१५ । ३. वही, १।२६।
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जोइंदुने आत्माके स्वरूप और आकारके सम्बन्धमें विभिन्न मतोंका निर्देश करते हुए जैन दृष्टिकोणके सम्बन्ध में बताया है। आत्माके सम्बन्धमें निम्नलिखित मान्यताएं प्रचलित हैं, आचायंने इन मान्यताओंका अनेकान्तवादके आलोकमें समन्वय किया है
१. आत्मा सर्वगत है। २. आत्मा जड़ है। ३. आत्मा शरीरमाण है। ४. आत्मा शन्य है।
१. कर्मबन्धनसे रहित आत्मा केवलज्ञान के द्वारा लोकालोकको जानती है, अतः ज्ञानापेक्षया सर्वगत है।
२. आरमज्ञानमें लीन जीय इन्द्रियजनित ज्ञानसे रहित हो जाते हैं, अतः ध्यान और समाधिको अपेक्षा जड़ है।
३. शरीरबन्धनसे रहित हा शुद्ध जीव अन्तिमशरीरप्रमाण हो रहता है, न वह घटता और न वह बढ़ता ही है, अतः शरीरप्रमाण है। जिस शरीरको आत्मा धारण करती है, उसी शरीरके आकारको हो जातो है, अतएव प्रदेशके संहार और प्रसरपणके कारण आत्मा शरीरप्रमाण है।
४, भोक अवस्था प्राप्त करने पर शुद्ध जीव आठों कर्मों और अठारह दोषोंसे शून्य हो जाता है, अतः उसे शून्य कहा गया है।'
द्वितीय अधिकारमें मोक्ष, मोक्षका फल एवं मोक्षके कारणका कथन किया गया है । प्रथम ग्यारह गाथाओंमें मोक्ष और उसके फलका कथन आया है। पश्चात् मोक्षके कारणोंका निरूपण किया गया है। 'जोइन्दु'ने भी कुन्दकुन्दके समान सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रको मोक्षका कारण बतलाकर इन तीनोंको निश्चयदृष्टिकी अपेक्षासे आत्मस्वरूप ही बतलाया है। इसके पश्चात् समभावको प्रशंसा को गयी है।
जोइन्दुने पुण्य और पापकी समता बतलाते हुए लिखा है कि जो जीव पुण्य और पापको समान नहीं मानता, वह मोहके वशीभूत होकर चिरकाल तक भ्रमण करता है। इतना हो नहीं अपितु यह भी लिखा है कि वह पाप अच्छा है जो जीवको दुःख देकर मोक्षकी ओर लगाता है। इसी प्रकरणमें पुण्यकी निन्दा भी की गयी है । आगेके दोहेमें आर्यशान्तिका मरा दिया गया है ! इस मतमें बसाया गया है कि देव. शास्त्र और मुनियरोंकी भक्ति से पुण्य होता
१. परमात्मप्रकाश १५२-५५ ।
२५० : सोकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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है, कमका क्षय नहीं होता, ऐसा आर्यशान्ति मानते हैं । बन्दना, निन्दा, प्रतिक्रमण आदिको पुण्यका कारण बतलाकर एकमात्र शुद्धभाषको है उपादेय बतलाया है । यतः शुद्धोपयोगीके हो संयम, शील और तप सम्भव है । जिसको सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान प्राप्त है, उसीके कर्मों का क्षय होता है । अतः शुद्धोपयोग ही प्रधान है । चित्तकी शुद्धिके बिना योगियोंका तीर्थाटन करना, शिष्य-प्रशिष्यों का पालन-पोषण करना सब निरर्थक है, जो जिन लिंग धारण कर भी परिग्रह रखता है, वह वमनके भक्षण करनेवालेके समान है । नग्नवेष धारण कर भी भिक्षामें मिष्टान भोजन या स्वादिष्ट भोजनकी कामना करना दोषका कारण है। आत्मनिरीक्षण और बारमशुद्धि सर्वदा अपेक्षित है । योगसार
योगसार में १०८ दोहे हैं । वयं विषय प्रायः परमात्मप्रकाशके तुल्य ही हैं । इन दोहोंमें एक चौपाई और दो सोरठा भी सम्मिलित है। अपभ्रंश भाषामे लिखा गया यह ग्रन्थ एक प्रकारसे परमात्मप्रकाशका सार कहा जा सकता है।
इसके प्रारम्भमें भी आत्माके उन्हीं तीनों भेदोंका निरूपण आया है, जिनका परमात्मप्रकाशमें निर्देश किया जा चुका है। बताया है कि यदि जीव, तू आत्माको आत्मा समझेगा, तो निर्वाण प्राप्त कर लेगा । किन्तु यदि तु परपदार्थों को आत्मा मानेगा, तो संसारमें भटकेगा हो ।
कुन्दकुन्दते कर्मविमुक्त आत्माको परमात्मा बतलाते हुए उसे ज्ञानी, परमेष्ठी, सर्वश, विष्णु, चतुर्मुख और बुद्ध कहा है । योगसारमें भी उसके जिन, बुद्ध, विष्णु, शिव आदि नाम बतलाये है। जोइन्दुने भो कुन्दकुन्दको तरह निश्चय और व्यवहार नयोंके द्वारा आत्माका कथन किया है। योगसारमें ये दोनों ही दृष्टिय विशेषरूपसे विद्यमान हैं
णिएइ ।
देहा- देवलि देउ जिणु जणु देवलिहिं हाउ महू पsिहाइ इहु सिद्धे भिक्ख भमेह ॥
ahar कहा है कि देव न देवालय में है, न तोर्थो में । यह तो शरीर
१. बोमसार, वोहा १२
२. पाणी सिब परमेट्ठी सम्वष्णू विन्लू चउमूहो बुढो ।
अप्पो वि य परमप्पो कम्पदिमुक्को य होह फूयं ॥ भावपाहुड, फक्टन संस्करण,
गाथा १५० ।
३. योगसार, गाथा ४३ ।
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रूपी देवालयमें है. यह निश्चयसे जान लेना चाहिये । जो व्यक्ति शरीरके बाहर अन्य देवालयोंमें देवकी तलाश करते हैं, उन्हें देखकर हंसी आती है ।
योगसारके अध्ययनसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि इसका विषय क्रमबद्ध नहीं है। यह एक संग्रह सा हैं। विषयनिरूपणक लिये क्रमबद्ध शैलीका अनुसरण नहीं किया गया है । फूटकर विषयोका संकलन जैसा प्रतीत होता है । यथा
विरला जाणहिँ तत्तु बुह विरला णिसुणहिं तत्तु ।
विरला झायहिं तत्तु जिय विरला धारहिँ तत्तु ॥ विरल जन तत्वको समझते हैं, विरले ही तत्त्वको सुनते हैं, बिरले ही तत्त्वका ध्यान करते हैं और विरले ही तत्त्वको धारण करते हैं। यह दोहा अपने स्थान पर नहीं है । खींच-तान कर क्रमबद्धता सिद्ध कर भी दी जाय, तो भी उचित स्थान पर इसका सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता।
९८३ संख्यक दोहेमें पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यानोंके नाम गिनाये हैं । इसके आगे दोहा ९९से १०३ तक सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसाम्पदागय संयमका स्वरूप बतलाया गया है। यहां यथाख्यातका स्वरूप छूटा हुआ है । अन्समें बताया है कि जो सिद्ध हो चुके हैं, जो सिद्ध होंगे और जो वर्तमानमें सिद्ध हो रहे हैं, वे सब आत्मदर्शनसे ही सिद्ध हुए हैं । यही आत्मदर्शन इस ग्रन्थका मुख्य प्रतिपाद्य विषय है । प्रतिभा और वैदुष्य ___ जोइन्दु कविका अपभ्रंश भाषापर अपूर्व अधिकार है। इन्होंने अपने उक्त दोनों ग्रन्थों में आध्यात्मरसका सुन्दर चित्रण किया है । ये क्रान्तिकारी विचारधाराके प्रवर्तक हैं। इसी कारण इन्होंने बाह्य आडम्बरका वण्डन कर आत्मज्ञानपर जोर दिया है । कविने लिखा है
तत्तातत्तु मणेवि मणि जे थक्का सम-भावि ।
ते पर सुहिया इत्यु जगि जहँ रइ अप्प-सहावि ।। हे जीव ! जिस मोहसे अथवा मोह उत्पन्न करनेवाली वस्तुसे मनमें कषायभाव उत्पन्न हों, उस मोहको अथवा मोह-निभिसक पदार्थको छोड़, तभी मोहअनित कषायके उदयसे छुटकारा प्राप्त हो सकेगा। तात्पर्य यह है कि विषया१. योगसार, गाथा १६ । ३. परमात्मप्रकाश २।४ ।।
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दिक सब सामग्री और मिथ्यादृष्टि पापियोंका संग सब सरहसे मोहकषायको उत्पन्न करते हैं । इससे ही मनमें कषायरूपी अग्नि दहकती रहती है, जो इसका त्याग करता है, वही सच्ची शान्ति और सुखको पाता है ।
जोइन्दु कविकी अपेक्षा अध्यात्मशक्तिके निरूपक अधिक हैं। विषयासक्त जीवोंको परमात्माका दर्शन नहीं हो सकता। अतएव जिसने इस आसक्तिको दूर कर दिया है, उसीके हृदयमें परमात्माका निवास सम्भव होता है । आचार्य इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुये बतलाते हैं
"जसु हरिणच्छी हियवडए ससु णचि बंभु वियारि | एक्कहि केम समंति वढ बे खंडा पडियारि ।। णिय-मणि णिम्मलि गाणियह णिवसइ देउ अणाई ।
हंसा सरवरि लोणु जिम महु एहज पडिहाइ' । जो विषयों में लीन है, उसे परमात्माका दर्शन नहीं हो सकता। वीतराम निर्विकल्प परमसमाधिरूप अनाकुलता हो आनन्दका कारण है। जिसके चित्तमें स्त्रीसम्बन्धी विकार है, वह शुद्धात्मामें अपनेको स्थिर नहीं कर सकता । विकारी आत्मा बक्र मानी जाती है और वक्र वस्तुमें सरलका प्रवेश नहीं हो पाता। अतएव हाव-भाव और विनमसे दूषित चित्तवाला व्यक्ति ब्रह्म या आत्माका विचार नहीं कर सकता है।
ज्ञानियोंके रागादिमलरहित निज मनमें अनादि देव अराधने योग्य शुद्ध आत्मा निवास कर रही है। जिस प्रकार मानसरोवरमें हंस लीन हुआ बसता है, उसी प्रकार जो शुद्धात्मामें निवास करता है, उसीके रागादि दोष दूर होते हैं। इस प्रकार आचार्य जोइन्दुने अध्यात्मतत्त्वका निरूपण अपने दोनों अन्धोंमें किया है।
जैन रहस्यवादका निरूपण रहस्यवादके रूपमें सर्वप्रथम इन्हींसे आरम्भ होता है। यों तो कुन्दकुन्द, वट्टर और शिवार्यको रचनाओंमें भी रहस्यवादके तत्त्व विद्यमान हैं, पर यथार्थत: रहस्यवादका रूप जोइन्दुकी रचनाओं में ही मिलता है । वर्गसौने जिस रहस्यानुभूतिका स्वरूप प्रस्तुत किया है, वह रहस्यानुभूति हमें इनकी रचनाओंमें प्राप्त होती है-"यदि संसारके प्रति अनासक्सि पूर्ण हो जाय और वह अपने किसी भी ऐन्द्रिय प्रत्यय द्वारा किये किसी व्यापारके प्रति चिपके नहीं, तो यही एक कलाकारको आत्मा होगी, जैसा कि संसारने पहले देखा न होगा । वह युगपत् समानरूपसे प्रत्येक कलामें पारंगत होगा, १. परमात्मप्र०, दोहा १।१२१,१२२ ।
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या यों कहें कि वह 'सब'को 'एक' में परिणत कर लेगा । वह वस्तुमात्रको उसके सहज शुद्ध रूपमें देख लेगा'।" परमात्मप्रकाशके रहस्यवादमें आत्मानुभूति सम्बन्धी विशेषताके साथ अन्य विशेषताएँ भी पायी जाती हैं।
१. आत्मा और परमात्माके बीच पारस्परिक अनुभूतिका साक्षात्कार और दो कि एकत्त्वकी प्रतीति।
२. आत्मामें परमात्मशक्तिका पूर्ण विश्वास ३. ध्येय, ध्याता या ज्ञेय-ज्ञातामें एकत्वका आरोप ४. सांसारिक विषयोंके प्रति उदासीनता
५. लौकिक ज्ञानके साधन इन्द्रिय और मनको सहायताके बिना हो पूर्ण सत्यको जान लेनेकी क्षमता ।
६. सध्यात्मवादकी रहस्यवादके रूपमें कल्पना । ७. निश्चय और व्यवहार नयको दृष्टियोंसे भेदाभेदका विवंचन ।
८. पुण्य-पापको समता तथा दोनोंको ही समान रूपसे त्याज्य माननेको भावनाका संयोजन।
९. अनुभूति द्वारा रसास्वादकी प्रक्रियाका स्थापन ।
इस प्रकार जोइन्दु अपभ्रंशके ऐसे सर्वप्रथम कवि हैं, जिन्होंने क्रान्तिकारी विचारों के साथ भास्मिक रहस्यवादको प्रतिष्ठा कर मोक्षका मार्ग बतलाया है। __ वैदुष्यको दृष्टिसे यह कहा जा सकता है कि इन्होंने कुन्दकुन्द और पूज्यपादके आध्यात्मिक ग्रन्थोंका अध्ययन कर अपने ग्रन्थ-लेखनके लिये विषय-वस्तु ग्रहण की है। पूर्वाचार्योंकी मान्य परम्पराको एक नये रूपमें ही उपस्थित किया है। यही कारण है कि जोइन्दुका प्रभाव अपभ्रशके कवियोंके साथ हिन्दीके सन्त कवियों पर भी पड़ा है। कबीरने जिस क्रान्तिकारी विचारधाराकी प्रतिष्ठा को है, उशका मूल स्रोत जोइन्दुकी रचनामें पाया जाता है ।
विमलसूरि प्राकृतिके चरित-काव्यके रचयिताके रूपमें विमलसूरि पहले कवि और आचार्य हैं। इनसे पूर्व आचार्य यतिवृषभने अपने 'सिलोयपण्णत्ति' ग्रन्थमें त्रिषष्ठिशलाकापुरुषोंके माता-पिताओंके नाम, जन्मस्थान, जन्मनक्षत्र, आदि प्रमुख तथ्योंका संकलन ही किया था, पर चरितकाज्यके रूपमें उन्होंने कोई ग्रन्थ नहीं लिखा है। आचार्य शिवार्यने भगवती आराधनामें आराधकोंके नाम मात्र ही १. कुमारी एवलिन अवहिल दि मिस्टिक धे--प. १५ । १५४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आघायं-परम्परा
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दिये हैं, चरित नहीं । अतएव प्राकृतमें चरित-काव्य के रचयिताके रूपमें आचार्य विमलसूरिका स्थान सबसे आगे है । 'कुवलयमाला' में इनके 'पउमचरिय का उल्लेख होनेसे विदित होता है कि विमलसूरिका 'पउमचरिय' वि० सं० ८३५ के लगभग पर्याप्त प्रसिद्धि पा चुका था ।
जीवन-परिचय
विमलसूरिने ग्रन्यान्त में अपनी प्रशस्ति अंकित की है। इस प्रशस्तिके अनुसार ये आचार्य राहु के प्रशिष्य, विजयके शिष्य और 'नाइल कुल' के वंशज थे । नाइल कुलके सम्बन्ध में मुनि कल्याणविजयजीका अनुमान है कि नाइल कुल नागिल कुल अथवा नगेन्द्र कुल है। इसका अस्तित्व १२वीं शताब्दी तक प्राप्त होता है । १२वींसे १५वीं शताब्दी तक यह नगेन्द्र गच्छके नामसे प्रसिद्ध रहा है । इस गच्छके आचार्य एकान्तः संप्रदायका अनुकरण नहीं करते थे । इनके विचार उदार रहते थे ।
यही कारण है कि विद्वानोंने इन्हें यापनीय संघका अनुयायी माना है । लिखा है कि विमलसूरिकी दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायोंके प्रति उदारताका मुख्य कारण उनका यापनीय संघका अनुयायी होना है। श्री बी० एम० कुलruffa निष्कर्ष निकाला है कि आचार्य विमलसूरि यापनीय संघके थे ।
४
यापनीय संघका साहित्य पर्याप्त मात्रा में प्राप्त होता है। यह सम्प्रदाय दर्शनसारके कर्त्ता देवसेन सुरिके अनुसार वि० सं० २०५ में स्थापित प्रतीत होता है। कदम्ब, राष्ट्रकूट और दूसरे वंशके राजाओंने इस संघको भूमि इत्यादि दान में दी है । श्वेताम्बराचार्य हरिभद्रसूरिने भी अपने ललितविस्तर ग्रंथ में पापनीय तन्त्रका सम्मान पूर्वक उल्लेख किया है । यापनीय संघका अस्तित्व विक्रमी १५वीं शताब्दी तक प्राप्त होता है । कागबाड़ेके अभिलेखसे यापनीय संघके धर्मकीर्ति और नागचन्द्रके समाधि ले लेनेका उल्लेख गया है । अतः बहुत सम्भव है कि विक्रमको १५वीं - १६वीं शताब्दी के पश्चात् इस संघका लोप हुआ होगा । वेलगांवके दोडवस्ती अभिलेख से यह ज्ञात होता है कि यापनियों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमा दिगम्बरों द्वारा पूजी जाती थी । अतः यह माना जा सकता है कि यापनीय सघके आचार्य दिगम्बरों में प्रतिष्ठित या मान्य थे |
१. कुवलयमाला, अनुच्छेद ६, पृ० ४ ।
२. पउमचरियं प्रथम भाग, सम्पादक, डॉ० हर्मन जेकोवी, इन्ट्रोडक्शन, पू० १५ । ३ वही, पृ० १८ ।
४. कल्लाणे वरणगरे दुष्णिसए पंजउत्तरे जाये ।
जायणिय संघभावो सिरिकलसादो हु सेवडदो दर्शनसार, गाया २९ ।
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यही कारण है कि विमलसूरिने 'पउमचरिय में दिगम्बर परम्पराके अनुसार तथ्यों का समावेश किया है | लेखकने कथाकी उत्थानिका श्रेणिकके प्रश्नोत्तर द्वारा ही उपस्थित की है, जो कि दिगम्बराचायोंको विशेषता है। इसके अतिरिक्त अन्य तथ्य भी दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुसार समाविष्ट हैं। यथा
१. महावीरका अविवाहित रहना
२. सिलाके गर्भ में महावीरका आना
३. स्थावर काय के ५ भेटों की मान्यता
४. चौदह कुलकरों की मान्यता ५. चतुर्थ शिक्षाव्रत में समाधिमरणका ग्रहण
६. ऋषभ द्वारा अचेलक व्रतका अपनाया जाना
७. सात नरक और सोलह स्वर्गों की मान्यता
८. स्त्रीमुक्ति सम्बन्में मौन
९. केवीके कवलाहारका अभाव १०. अष्टद्रव्यद्वारा पूजनविधि
इनके अतिरिक्त श्वेताम्बर मान्यताएं भी इस ग्रन्थ में उपलब्ध है। दिगम्बर मान्यता के सोलह स्वप्नोंके स्थानपर चौदह स्वप्नोंका माना जाना, भरत चक्रवर्तीके ९६ हजार रानियोंके स्थानपर ६४ हजार रानियोंकी कल्पना, आशीर्वादिके रूपमें गुरुओं या मुनियों द्वारा धर्मलाभ शब्दका प्रयोग किया जाना आदि ऐसे तथ्य हैं, जिनसे श्वेताम्बर मान्यताकी पुष्टि होती है । वस्तुस्थिति यह है कि विमलसूरिने रामकथाका वह रूप अंकित किया है, जो दिगम्बर श्वेताम्बर दोनोंको अभिप्रेत है । संक्षेपमें विमलसूरि यापनीय सम्प्रदायके अनुयायी है ।
समय-निर्धारण
विमलसूरिने 'पउमचरिय' को प्रशस्तिमें अपने समयका अंकन किया है । उसके आधारपर इनका समय ई० सन् प्रथम शती है, पर ग्रन्थके अन्तः परीक्षणसे यह समय घटित नहीं होता है । अतः जैकोवो और अन्य विद्वानोंने इनका समय ई० सन् चौथी, पाँचवीं शताब्दी माना है ।
विमलसूरके 'अउमचरिय' के आधार पर रविषेणने संस्कृत 'पद्मचरितं' की रचना की है और इसका रचनाकाल ई० सन् 9वीं शताब्दी है । अत: विमलसूरिका समय ७वीं शताब्दी के पूर्व होना चाहिये । विमलसूरिने जिस परिमार्जित महाराष्ट्री प्राकृतका प्रयोग इस ग्रन्थ में किया है, भाषाका वह रूप ई० सन्
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द्वितीय शताब्दीके पश्चात्का ही है । अतएव भाषा और शैलोकी दृष्टिसे विमलसरिके समयकी पूर्वावधि ई० सन् द्वितीय शताब्दी मानी जा सकती है। इस ग्रन्थमें उज्जैनके स्वतन्त्र राजा सिहोदरका उल्लेख आया है, जिसका दशपुरके भृत्य राजाके साथ युद्ध हुआ था। यह इस ग्रन्थको ई० सन् दूसरी शतीके पूर्वका सिद्ध नहीं करता है । यतः यह युद्ध महाक्षत्रिपोंको ओर संकेत करता है। श्रीशैल और श्रीपर्वतवासियोंका उल्लेख तृतीय शतीके आन्ध्र देशके श्रीपर्वतीय इध्वाकु राजाओंका स्मरण कराता है। आनन्द लोगोंका उल्लेख तीसरी-चौथी शतीके आनन्दवंशकी ओर संकेत करता है। दोनारका निर्देश भी इस रचनाको गुप्तकालीन सिद्ध करता है । अपभ्रंश भाषाका प्रभाव और उत्तरकालीन छन्दोंका प्रयोग इस रचनाको तीसरी-चौथी शताब्दीका सिद्ध करता है। जैकोबी ने भी यही समय माना है । अतएव संक्षेपमं विमलसूरिका समय ई० सन् चौथो शताब्दीके लगभग मानना चाहिये । रचनाएँ _ विमलसूरिकी दो रचनाएँ मानी जाती रही हैं, 'पउमचरिय' और 'हरिवंसचरिपं' । पर अब कुछ विद्वान् 'हरिवंसरिय'को विमलसूरिकी रचना नहीं मानते हैं । उनका अभिमत है कि विमलसुरिको एक ही रचना है 'पउमरियं', यह दूसरी रचना भ्रान्तिवश ही उनको मान ली गयी है। पउमचरिय
इस ग्रन्थमें ११८ सर्ग है और सास अधिकारों में समस्त वाथावस्तु अंकित है। स्थिति, वंशसमुत्पत्ति, प्रस्थान, लबांकुशोत्पत्ति, निर्वाण और अनेक भव इन सात अधिकारोंका निर्देश किया गया है और समस्त रामकथाका समावेश इन सात अधिकारोंमें ही किया है। __ कथावस्तु-अयोध्या नगरीके अधिपति महाराज दारथकी अपगजिता और अमित्रा दो रानियां थीं । एक समय नारदने दशरथस कहा कि आपके पुत्र द्वारा सोताके निमित्त गयणका बंध होनेकी भविष्यवाणी सुनकर विभीषण आपको मारने आ रहा है। नारदसे इस सूचनाको प्राप्त कर दशरथ छद्मवेशमें राजधानी छोड़कर चले गये। संयोगवश कैकयीक स्वयंबरमें पचे । कैकयीने दशरथका वरण किया, जिससे अन्य राजकुमार मप्र होकर युद्ध करनेके लिए तैयार हो गये । युद्ध में दशरथके रवका संचालन कैकयीने बड़ी कुशलताके साथ किया, जिससे दशरथ विजयो हुए । अतः प्रसन्न होकर दशरथने कैकयीको एक वरदान दिया।
श्रुतधर और सारस्वताचार्य : २५७
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अपराजिता के गर्भ से एक पुत्रका जन्म हुआ, जिसका मुख पद्म जैसा सुन्दर होनेसे पद्म नाम रखा गया। इनका दूसरा नाम राम है, जो पद्मको अपेक्षा अधिक प्रसिद्ध है । इसी प्रकार सुमित्रासे लक्ष्मण और केकयीके गर्भसे भरतका जन्म हुआ ।
एक बार राम - पद्म अर्ध-बर्बरोंके आक्रमण से जनककी रक्षा करते हैं, जनक प्रसन्न हो अपनी औरस पुत्री सीताका सम्बन्ध रामके साथ तय करते हैं । जनकके पुत्र भामण्डलको शैशवकालमें ही चन्द्रगति विद्याधर हरण कर ले जाता है। युवा होने पर अज्ञानतावश सीतासे उसे मोह उत्पन्न हो जाता है । चन्द्रगति जनकसे भामण्डल के लिये सीताकी याचना करता है । जनक असमंजसमें पड़ जाते हैं और सीता स्वयंवरमें धनुषयज्ञ रचते हैं । सीताके साथ रामका विवाह हो जाता है ।
दशरथ रामको राज्य देकर भरत सहित दीक्षा धारण करना चाहते हैं । कैकयी भरतको गृहस्थ बनाये रखनेके हेतु वरदान स्वरूप दशरथसे भरतके राज्याभिषेककी याचना करती है, दशरथ भरतको राज्य देनेके लिये तैयार हो जाते है | भरतके द्वारा आनाकानी करने पर भी राम उन्हें स्वयं समझाबुझाकर राज्याधिकारी बनाते हैं और स्वयं अपनी इच्छा से लक्ष्मण तथा सीता के साथ वन चले जाते हैं । दशरथ श्रमणदीक्षा धारण कर करने लगते हैं। इधर अपराजिता और सुमित्रा अपने पुत्रके वियोग से बहुत दुःखो होती हैं ! कैकयीसे यह देखा नहीं जाता, अतः वह पारियात्र वनमें जाकर उनको लौटाने का प्रयत्न करती है, पर राम अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहते हैं ।
जब राम दण्डकारण्य वनमें पहुँचते हैं, तो लक्ष्मणको एक दिन तलवारकी प्राप्ति होती है। उसकी शक्तिकी परीक्षाके लिये वे एक झुरमुटको काटते हैं । असावधानीसे शंबुककी हत्या हो जाती है, जो कि उस झुरमुट में तपस्या कर रहा था। शंबुककी माता चन्द्रनखा, जो रावणकी बहन थी, पुत्रकी खोजमें वहाँ आ जाती है । वह राजकुमारोंको देखकर प्रथमतः क्षुब्ध होती है, पश्चात् उनके रूपसे मोहित होकर वह दोनों भाइयोंमेंसे किसी एक को अपना पति बननेकी याचना करती है। राम-लक्ष्मण द्वारा चन्द्रनखाका प्रस्ताव ठुकराये जाने पर वह क्रुद्ध होकर अपने पति खरदूषणको उल्टा सीधा समझाकर उनके वधके लिये भेजती है । इधर रावण भी अपने बहनोईकी सहायताके लिये वहीं पहुँचता है। रावण सीता के सौन्दर्य पर मुग्ध हो राम और लक्ष्मणकी अनुपस्थिति में सीताका हरण कर लेता है। खरदूषणको मारनेके अनन्तर राम सीताको न पाकर बहुत दुःखी होते हैं । उसी समय एक विद्याधर विराधित रामको २५८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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अपनी पैतृक राजधानी पातालपुर लंका में ले जाता है, जिसे खरदूषणने विराचितके पिताका वध कर छीन लिया था ।
सुग्रीच अपनी पत्नी ताराको विटसुग्रीवके चंगुलसे बचाने के लिये रामकी शरण में जाता है और राम सुग्रीवके शत्रु विटसुग्रीवको पराजित कर वानरवंशी सुग्रीवका उपकार करते हैं। लक्ष्मण सुग्रीव की सहायतासे रावणका वध करते हैं । सीताको साथ लेकर राम लक्ष्मण सहित अयोध्या लौट आते हैं ।
अयोध्या लौटने पर केकयी और भरत दीक्षा धारण करते हैं। राम स्वयं राजा न बनकर लक्ष्मणको राज्य देते हैं। कुछ समय पश्चात् सीता गर्भवती होती है, पर लोकापवादके कारण राम उनका निर्वासन करते हैं। संयोगवश पुंडरीकपुरका राजा सीताको भयानक अटवीसे ले जाकर अपने यहाँ बहनकी तरह रखता है । वहाँ पर लवण और अंकुशका जन्म होता है । वे देश विजय करनेके पश्चात् अपने दुःखका बदला लेनेके लिये राम पर चढ़ाई करते हैं, और अन्तमें पिताके साथ उनका प्रेमपूर्वक समागम होता है। सीताकी अग्निपरीक्षा होती है जिसमें वह निष्कलंक सिद्ध होतो है और उसो समय साध्वी बन जाती है । लक्ष्मण की अकस्मात् मृत्यु हो जाने पर राम शोकाभिभूत हो जाते हैं और भ्रातृमोहमें उनका शव उठाकर इधर-उधर भटकते हैं, तब वे दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं और कठोर तप करके निर्वाण प्राप्त करते हैं ।
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समीक्षा- इस चरितकाव्य में पौराणिक प्रबन्ध और शास्त्रीय प्रबन्ध दोनोंके लक्षणोंका समावेश है । वाल्मीकि रामायणकी कथावस्तुमें किचित् संशोधन कर यथार्थ बुद्धिवादको प्रतिष्ठा की है। राक्षस और वानर इन दोनोंको नृवंशीय कहा है। मेघवाहनने लंका तथा अन्य द्वीपोंकी रक्षा की थी अतः रक्षा करनेके कारण उसके वंशका नाम राक्षस वंश प्रसिद्ध हुआ । विद्याधर राजा अमरप्रभने अपनी प्राचीन परम्पराको जीवित रखने के लिए महलोंके तोरणों और ध्वजाओं पर वानरोंकी आकृतियाँ अंकित करायी थीं तथा उन्हें राज्यचिह्नको मान्यता दी, अतः उसका वंश बानरवंश कहलाया । ये दोनों वंश दैत्य और पशु नहीं थे, बल्कि मानवजातिके ही गंशविशेष थे । इसी प्रकार इन्द्र, सोम, वरुण इत्यदि देव नहीं थे, बल्कि विभिन्न प्रान्तोंके मानववंशी सामन्त थे | रावणको उसकी माताने नो मणियों का हार पहनाया, जिससे उसके मुखके नौ प्रतिबिम्ब दृश्यमान होनेके कारण पिताने उसका नाम
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दशानन रखा ।
इसी प्रकार हनुमान विद्याधर राजा प्रह्लादके पुत्र पवनञ्जय और उनकी पत्नी अंजना सुन्दरीके औरस पुत्र थे । सूर्यको फल समझकर हनुमान द्वारा
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ग्रसित किये जानेका वृत्तान्त इस चरितकाव्य में नहीं है। हनुरुहपुरमें जन्म होनेके कारण उनका नाम हनुमान रखा गया था ।
सीताको उत्पत्ति भी हलकी नोकसे भूमि खोदे जाने पर नहीं हुई है । वह तो राजा जनक और उनकी पत्नी विदेहाकी स्वाभाविक औरस पुत्री थी ।
हनुमान कोई पर्वत उठाकर नहीं लाये । वे विशल्या नामक एक स्त्री चिकित्सकको घायल लक्ष्मण की चिकित्सा के लिए सम्मानपूर्वक लाये थे ।
चरितकाव्यका सबसे प्रधान गुण नायकके चरित्रका उत्कर्ष दिखलाना है ! दशरथ द्वारा भरतको राज्य देनेका समाचार सुनकर राम अपने पिताको धैर्य देते हुए कहते हैं कि पिताजी आप अपने वचनकी रक्षा करें। मैं नहीं चाहता कि मेरे कारण आपका लोकमें अपयश हो । जब भरत राज्य ग्रहण करनेमें आनाकानी करते हैं, तब राम उन्हें अपने पित्ताको विमल कीर्ति बनाये रखने और माताके वचनको रक्षा करनेका परामर्श देते हैं । जब भरत अनुरोध स्वीकार नहीं करते, तो राम स्वयं ही अपनी इच्छासे वन चले जाते हैं। यह नायककी स्वाभाविक उदारताका निदर्शन है । युद्धके समय जब विभीषण रामसे कहता है कि विद्यासाधना में ध्यानमग्न रावणको क्यों नहीं बन्दी बना लिया जाए, तब राय क्षात्रधर्म बतलाते हुए कहते हैं कि धर्म-कर्त्तव्यमें लगे व्यक्तिको घोखेसे बन्दी बनाना अनुचित है । परिस्थितिवश लोकापवादके भयसे राम सीताका निर्वासन करते हैं । किन्तु सीताके अग्निपरीक्षाके अनन्तर राम बहुत पछताते हैं और क्षमा याचना करते हैं।
रावण स्वयं धार्मिक और व्रती पुरुष अंकित किया गया है । सोताकी सुन्दरता पर मोहित होकर रावणने अपहरण अवश्य किया, किन्तु सोताको इच्छा के विरुद्ध उसपर कभी बलात्कार करनेकी इच्छा नहीं की जब मन्दोदरीने बलपूर्वक सीताके साथ दुराचार करनेकी सलाह रावणको दो, तो उसने उत्तर दिया- "यह संभव नहीं है, मेरा व्रत है कि में किसी भी स्त्रीके साथ उसकी इच्छा के विरुद्ध बलात्कार नहीं करूंगा" । वह सीताको लोटा देना चाहता था, किन्तु लोग कायर न समझ लें, इस भयसे नहीं लौटाता । उसने मनमें निश्चय किया था कि युद्धमें राम और लक्ष्मणको जीतकर परम वैभवके साथ सीताको वापस करूंगा। इससे उसकी कीर्तिमें कलंक नहीं लगेगा और यश भी उज्जवल हो जायगा । रावणकी यह विचारधारा रावणके चरित्रको उदात्तभूमि पर ले जाती है। वास्तवमें विमलसूरिने रावण जैसे पात्रोंके चरित्रको भी उन्नत दिखलाया है ।
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दशरथ रामके वियोगमें अपने प्राणोंका त्याग नहीं करते, बल्कि निर्भयareकी तरह दीक्षा ग्रहण कर तपश्चरण करते हैं। कैकेयी ईर्ष्यावश भरतको राज्य नहीं दिलाती, किन्तु पति और पुत्र दोनोंको दीक्षा ग्रहण करते देखकर उसको मानसिक पीड़ा होती है । अतः वात्सल्यभाव से प्रेरित हो अपने पुत्रको गृहस्थी में बाँध रखना चाहती है। राम स्वयं वन जाते हैं, वे स्वयं भरतको राजा बनाते हैं। रामके वनसे लौटने के पश्चात् केकयो प्रब्रजित हो जाती है और रामसे कहती है कि भरत को अभी बहुत कुछ सीखना हैं । भरतके दीक्षित हो जानेपर वह घर में नहीं रह पाती, इसी कारण शान्तिलाभके लिए वह दीक्षित होती है। इस प्रकार 'पउमचरियं" के सभी पात्रोंका उदात्त चरित्र अंकित किया गया है ।
यह प्राकृत का सर्वप्रथम चरित महाकाव्य है । इसकी भाषा महाराष्ट्रीय प्राकृत है, जिसपर यत्र-तत्र अपभ्रंशका प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । भाषा में प्रवाह तथा सरलता है। वर्णनानुकूल भाषा खोज, माधुर्य और प्रसाद गुण से युक्त होती गयी है । उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अर्थान्तरन्यास, काव्यलिङ्ग, श्लेष मादि अलंकारोंका प्रचुर प्रयोग पाया जाता है । वर्णन संक्षिप्त होनेपर भी मार्मिक है, जैसे दशरथके कंचुकीको वृद्धावस्था, सीताहरणपर रामका क्रन्दन, युद्धके पूर्व राक्षस सैनिकों द्वारा अपनी प्रियतमाओंसे विदा लेना, लंकामें वानर सेनाका प्रवेश होनेपर नागरिकों को घबड़ाहट और भागदौड़, लक्ष्मणकी मृत्युसे रामकी उन्मत्त अवस्था आदि । माहिष्मतीके राजाकी नर्मदामें जलक्रीड़ा तथा कुलाङ्गनाओं द्वारा गवाक्षोंसे रावणको देखनेका वर्णन भी मनोहर है ।
समुद्र, वन, नदी, पर्वत, सूर्योदय, सूर्यास्त, ऋतु, युद्ध आदिके वर्णन महाकाव्योंके समान है । घटनाओंकी प्रधानता होनेके कारण वर्णन लम्बे नहीं हैं । भावात्मक और रसात्मक वर्णनोंकी कमी नहीं है ।
इस चरित महाकाव्यको निम्न प्रमुख विशेषताएं हैं(१) कृत्रिमताका अभाव ।
(२) रस, भाव और अलंकारोंकी स्वाभाविक योजना |
(३) प्रसंगानुसार कर्कश या कोमल ध्वनियों का प्रयोग ।
(४) भावाभिव्यक्ति में सरलता और स्वाभाविकताका समावेश |
(५) चरितोंकी तर्कसंगत स्थापना ।
(६) बुद्धिवादकी प्रतिष्ठा ।
(७) उदात्तताके साथ चरितोंमें स्वाभाविकताका समवाय ।
(८) कथाके निर्वाह के लिये मुख्य कथाके साथ अवान्तर कथाओं का प्रयोग |
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(९) महाकाव्योचित गरिमाका पूर्ण निर्वाह
(१०) सौन्दर्य के उपकरणोंका काव्यत्ववृद्धिके हेतु प्रयोग | (११) आर्य जीवनका अकृत्रिम और साङ्गोपाङ्ग वर्णन । (१२) सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियोंपर पूर्ण प्रकाश ।
आचार्य ऋषिपुत्र
जेनाचार्य ऋषिपुत्र ज्योतिषके प्रकाण्ड विद्वान् थे। इनके वंशादिकका सम्यक् परिचय नहीं मिला है। इतना ही पता चला है कि ये जैनाचार्य गर्गके पुत्र थे । गर्ग ज्योतिषशास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान् है । इनका एक ग्रन्थ ख़ुदा बस्शखाँ पब्लिक लाइब्रेरी पटना में 'पाशकेवली' नामका है । ग्रन्थ तो अशुद्ध है, पर विषयकी दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण है । इस ग्रन्थकी अन्तिम प्रशस्ति में बताया है
जैन आसीज्जगद्वंद्यो गर्मनामा महामुनिः । तेन स्वयं निर्णीत यं सत्पाशात्रकेवली ॥ एतज्ज्ञानं महाज्ञानं जैन षिभिरुदाहृतम् | प्रकाश्य शुद्धशीलाय कुलीनाम महात्मना ॥
" शनोऽगुहलिकां दत्त्वा पूजापूर्वकमघवा कुमारों भव्यास्थासने स्थापयित्वा पाशको ढालाप्यते पश्चाच्छुभाशुभं ब्रवीति - इति गर्गेनामा महर्षिविरचितः पाशकेवली सम्पूर्ण: " ।
इन पंक्तियोंसे स्पष्ट है कि गर्गाचार्य ज्योतिषशास्त्र के विशेषज्ञ थे ! सम्भव है कि इन्हींके वंश में आचार्य ऋषिपुत्र उत्पन्न हुए हों। जैनेत्तर ज्योतिष ग्रन्थ 'वाराहिसंहिता' और 'अद्भुत सागर' में इनके वचन उद्धृत हैं। इससे इनकी विद्वत्तापर प्रकाश पड़ता है । आचार्य ऋषिपुत्रके वचन वाराहसंहिताकी भट्टोत्पलिटीका में भी उद्धृत है । अत: इनकी प्रसिद्धिका भी इसीसे अनुमान होता है ।
भट्टोत्पलि- टीका में इनकी गणना ज्योतिष के प्राचीन आचार्य आर्यभट्ट, कणाद, काश्यप, कपिल, गर्ग, पाराशर, बलभद्र और भद्रबाहु के साथ की गयी है । इससे ऋषिपुत्र प्राचीन एवं प्रभावक आचार्य ज्ञात होते हैं । सम्भवतः गर्गके पुत्र होनेके कारण ही ये ऋषिपुत्र कहे गये हैं । इनका निवासस्थान उज्जैनीके आस-पास ही प्रतीत होता है। Catalogus catajagorum में ऋषिपुत्र संहिताका भी उल्लेख आया है । मदनरत्न नामक ग्रन्थमें भी ऋषिपुत्र संहिताका कथन प्राप्त होता है । इन्हें निमित्तशास्त्र, शकुनशास्त्र तथा ग्रहों की स्थिति द्वारा भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालीन फल, भूशोधन, दिक्शोधन, शल्यो
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बार, मेलापक, आयाद्यानयन, गृहोपकरण, गृहप्रवेश, उल्कापात, गन्धर्वनगर एवं ग्रहोंके उदयास्तका फल आदि बातोंका प्रतिपादक कहा गया है । ऋषिपुत्रने अपने निमित्तशास्त्रमें जिन तत्त्वोंका उल्लेख किया है या जो गणितके संकेत दिये हैं, उज्जयिनीके रेखांश और अक्षांश द्वारा घटित होते हैं । अतएव इनका जन्मस्थान उज्जयिनी होना सम्भव है। . भट्टोत्पलि-टोकामें राहुचारके प्रतिपादन सन्दर्भ में ऋषिपुत्रके वचन निम्न प्रकार उद्धृत्त मिलते हैं
यावतोंऽशान् असित्वेन्दोरुदयत्यस्तमेति वा । तावतोंऽशान् पृथिव्यास्तु तम एव विनाशयेत् ।। उदयेऽस्तमये वापि सूर्यस्य ग्रह्ण भवेत् । तदा नृपभयं विद्यात् परचक्रस्य चागमम् ॥ चिरं गृह्णाति सोमार्को सर्वं वा नसते यदा । हन्यात् स्फीतान् जनपदान् वरिष्ठांश्च जनाधिपान् ।। ग्रेष्मेणा जल जोवन्ति दराग्वानुमनेट बा । भयभिक्षरोगश्च सम्पीड्यन्ते प्रजास्तथा ।।
–सवि० बृ. पृ० १३४-१३५ उपर्युक्त पद्य आचार्य ऋषिपुत्रके नामसे अद्भुतसागरके "राहोरद्भुतवात्तः" नामक अध्याय में 'अथ चिरग्राससर्वग्रासयोः फलम् तत्र ऋषिपुत्रः' लिखकर दो स्थानोंपर उद्धृत किये गये हैं। इन श्लोकोंमें "शस्यैर्न तत्र जीवन्ति नरा मूलफलोदकः' इतना पाठ और अधिक मिलता है । इन्हीं पद्योंसे मिलता-जुलता वर्णन इनके "प्राकृतनिमित्तशास्त्र में है, पर वहाँको गाथाए छाया नहीं हैं। अतः इतना स्पष्ट है कि ऋषिपुत्रके ज्योतिषविषयक ग्रन्थोंका प्राचीन भारतमें पर्याप्त प्रचार रहा है। उनके उत्तरकालीन आचार्यो ने इनके सिद्धान्तोंको अपने ग्रन्थोंमें उद्धृत कर अपने वचनोंकी प्रामाणिकता घटित की है। समय निर्धारण
आचार्य ऋषिपुत्रके समय-निर्धारणमें भारतीय ज्योतिषशास्त्रके संहितासम्बन्धी इतिहाससे बहुत सहायता मिलती है, क्योंकि यह परम्परा शक संवत् ४०० से विकसित रूपमें प्राप्त है । वराहमिहिरने (शक संवत् ४२७, ई० सन् ४४८) बृहज्जातकके २६वें अध्यायके ५वें पद्य में कहा है.-"मुनिमतान्यवलोक्य सम्यग्नोरां वराहमिहिरो रुचिरां चकार ।" इस उद्धरणसे यह स्पष्ट है कि 'वराहमिहिर के पूर्व होरा और संहिता सम्बन्धी ग्रन्थराशि वर्तमान थी। यही
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कारण है कि बृहज्जासकमें मय, यवन, विष्णुगुप्त, देवस्वामी, सिद्धसेन, जीवशर्मा एवं सत्याचार्य आदि कई महर्षियोंके वचनोंकी समीक्षा की गयी है । संहिताशास्त्रको प्रौढ़ रचनाएँ वराहमिहिरसे आरम्भ होती हैं। वराहमिहिरके बाद कल्याणवर्माने शक संवत् ५०० के आस-पास सारावली नामक होरा ग्रन्थ बनाया, जिसमें उन्होंने वराहमिहिरके समान अनेक आचार्यों के नामोल्लेखके साथ कनकाचार्य और देवकात्तिराजका भी उल्लेख किया है । संहिता-सम्बन्धी अनेक विषय भी सारावली में पाये जाते हैं । इस युगमें अनेक जैन एवं जेनेतर आचार्योने संहितासम्बन्धी प्रौद रचनाएँ लिखीं हैं। इन रचनाओंकी परस्पर तुलना करने पर प्रतीत होगा कि इनमें एकका दूसरे ग्रन्थपर पर्याप्त प्रभाव है । कई विषय समानरूपमें प्रतिपादित किये गये है। उदाहरणके लिए गर्ग, वराहमिहिर और ऋषिपुत्रके एक-एक पद्य उद्धृत किये जाते हैं
शशिशोणितवर्णाभो, यदा भवति भास्करः । तदा भवन्ति संग्रामा, घोरा रुधिरकदमाः ।।
-गर्ग शिशिरुधिनिभे भानो नभःस्थले भवन्ति संग्रामाः ।
-वराहमिहिर ससिलोहिवण्णहोरि संकुण इत्ति होइ णायब्बो ! संगाम पुण घोरं खग्गं सुरो णिवेदेई ।
-ऋषिपुत्र इसी प्रकार चन्द्रमा द्वारा प्रतिपादित किये गये फलमें भी समानता है। ऋषिपुत्र निमित्तशास्त्रका चन्द्रप्रकरण सोहताके चन्द्राचार अध्यायसे प्रायः मिलता-जुलता है । इस प्रकार के फल प्रतिपादनकी प्रक्रिया शक संवत्की ५-६वीं शताब्दी में प्रचलित थी । वृद्धगर्ग के अनेक पद्य ऋषिपुत्रके निमित्तशास्त्रसे मिलते-जुलते हैं।
कृष्णे शरीरे सोमस्य शद्राणां वधमादिशेत् । पीते शरीरे सोमस्य धेश्यानां वधमादिशेत् ।। रक्ते शरीरे सोमस्य राज्ञां च वधमादिशेत् ।
-वृद्धगर्ग विप्पाणं देइ भयं वाहिरणो तहा णिवेदेई । पीलो रेखत्तियणासं धूसरवण्णो य वयसाणं ।।३।। किण्हो सुद्दविणासो चित्तलवण्णो य हवइ पयहेऊ । दहिखीरसंखवण्णो सम्हि य पाहिदो चंदो ॥३९३
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उपर्युक्त तुलनात्मक विवेचनका तात्पर्य यही है कि संहिताकालको प्रायः सभी रचनाएं विषयको दृष्टि से समान हैं । इस कालके लेखकोंने नवीन बातें बहुत कम कहीं हैं | फलप्रतिपादनको प्रणाली गणितपर आश्रित न होने के कारण बाह्य निमित्ताधीन रही है। इस कालके ग्रन्थोंमें भीम, दिव्य और अन्तरिक्ष, इन तीन प्रकारके निमित्तोका विशेषरूपसे वर्णन किया है । यथा
दिव्यान्तरिक्षं भीमं तु त्रिविधं परिकीर्तितम् |
अद्भुतसागर पृ० ६ बाराहो संहिता में इन तीनों निमित्तों के सम्बन्धमें लिखा है कि "भौमं चिरस्थिरभवं तच्छान्तिभिराहतं शममुपैति । नामसममुपैति मृदुतां क्षति न दिव्यं बदन्त्येके” ॥ इसी प्रकार आचार्य ऋषिपुत्रने — "जे दिट्ठ भुविरसपण जे दिट्ठा कुह मेणकत्ता । सदसंकुलेन दिट्ठा वकसट्टिय एण मार्णाधिया" । इत्यादि लिखा है | अतएव संहिताकालकी उक्त रचनाओंके अध्ययनसे यह स्पष्ट है कि ई० सन् ५वीं - ६ठी शती में ऋषिपुत्रने अपना निमित्तशास्त्र लिखा होगा । निमित्तशास्त्रके अतिरिक्त संस्कृत में भी इनकी कोई संहिताविषयक रचना रही है, जिसके उद्ध रण भट्टोत्पली, अद्भुतसागर, शकुनसारोद्धार, वसन्तराजशाकुन प्रभृति ग्रन्थोंमें पाये जाते हैं। इन ग्रन्थोंका रचनाकाल और संकलनकाल ई० सन् दशवींग्यारहवीं शती है। अतएव ऋषिपुत्रके समय की अवधि दशवीं शती सम्भव है । गर्गाचार्य और ऋषि की रचनाओं में समता रहनेके कारण इनके समयकी निचली अवधि ई० सन् पांचवीं शती है । इसी प्रकार वराहमिहिरको रचनाओंके साथ समता रहने से भी पञ्चम शती समय आता है ।
ऋषिपुत्रका समय ज्ञात करने के लिए एक अन्य प्रमाण यह है कि अद्भुतसागर में ऋषिपुत्रके नामसे कुछ पद्य प्राप्त होते हैं, जिससे उनका वराहमिहिरसे पूर्ववत्तित्व सिद्ध होता है— उक्त ऋषिपुत्रेण -
गर्गशिष्या यथा प्राहुस्तथा वक्ष्याम्यतः परम् । भीमभागंबरा केतवो यामिनो ग्रहाः ॥ आक्रन्दसारिणामिन्दुर्ये शेषा नागरास्तु ते । गुरुसौरबुधानेव नागरानाह देवलः ॥ परान् घूमेन सहितान् राहुभागवलोहितान् । इन पद्यों में गर्गशिष्य और देवल इन दो व्यक्तियोंके नामांका उल्लेख किया गया है । यहाँ गर्मशिष्यसे कोन सा व्यक्ति अभिप्रेत है, यह नहीं कहा जा सकता, पर द्वितीय व्यक्ति देवलकी रचनाओंक देखने से प्रतीत होता है कि यह वराहमिहिर के पूर्ववर्ती हैं, क्योंकि अद्भुतसागर के प्रारम्भमें ज्योतिषके निर्माता
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आचार्योकी नामावली कालक्रमके हिसाबसे दी गयी प्रतीत होती है। इसमें वृद्धगर्ग, गर्ग, पाराशर, वशिष्ठ, वृहस्पति, सूर्य, वादरायण, पीलुकाचार्य, नृपपुत्र, देवल, काश्यप, नारद, यवन, वराहमिहिर, वसन्तराज आदि आचार्यों के नाम आये हैं। इससे ध्वनित होता है कि आचार्य ऋषिपुत्र देवलके पश्चात् और वराहमिहिरके पूर्ववर्ती हैं। दोनोंकी रचना-पद्धतिसे भी यह भेद प्रकट होता है, क्योंकि विषयप्रतिपादनकी जितनी गम्भीरता वराहमिहिरमें पायी जाती है, उतनी उनके पूर्ववर्ती आचार्यों में नहीं।
यदि Catalogus Catalasorum के अनुसार आचार्य ऋषिपुत्रके पिता जैनाचार्य गगं मान लिये जाये, तब तो उनका समय निर्विवाद रूपसे ई० सन् की चौथी शती है, क्योंकि गर्गाचार्य वराहमिहिरसे कम-से-कम सौ वर्ष पहले हुए हैं । गर्गसिद्धान्तके तत्व उदयकालीन ज्योतिष-तत्त्वोंके समकक्ष हैं। इस हिसाबसे ऋषिपुत्रका समय ई० सन् चतुर्थ शतीका मध्य भाग आता है।
भट्टोत्पलका समय शक सं० ८८८ और अद्भुतसागरके संकलयिता मिथिलाधिपति महाराज लक्ष्मणसेनके पुत्र महाराज बल्लालसेनका शक सं० १०९० है। अद्भुतसागरमें बराह, वृद्धगर्ग, देवल, यवनेश्वर, मयूरचित्र, राजपुत्र, ऋषिपुत्र, ब्रह्मगुप्त, बलभद्र, युलिश, विष्णुचन्द्र, प्रभाकर आदि अनेक आचार्योके वचन संग्रहीत हैं। अतः निविवाद रूपसे आचार्य ऋषिपुत्रका समय भट्टोत्पल और वल्लालसेनके पूर्व है।
ऋषिपुत्रने प्राचीन प्राकृतमें निमित्तशास्त्रको रचना की है, इसकी भाषा सिद्धसेनके 'सम्मइ-सुत्त'की भाषासे मिलती-जुलती है 1 उपसर्ग और अध्ययोंक प्रयोग समान रूपमें पाये जाते हैं । ध्वनिपरिवर्तन सम्बन्धी नियम भी तुल्य हैं। ह्रस्वमात्रिक नियमका प्रयोग भी इस ग्रन्थको भाषामें किया गया है। भतएव भाषाको दृष्टिसे इसका रचनाकाल ई० सन् छठी-सातवीं शती होना चाहिए । ज्योतिषविषयक ज्ञान और रचना __ आचार्य ऋषिपुत्र फलितज्योतिषके विद्वान् थे । गणितसम्बन्धी इनकी एक भी रचनाका अब तक पता नहीं लग सका है । उपलब्ध उद्धरण और ऋषिपुत्र निमित्तशास्त्रमें इनकी गणितविषयक विद्वत्ताका पता नहीं चलता है। इनकी त्रिस्कन्धात्मक ज्योतिषमेंसे केवल संहिता विषयसे सम्बद्ध रचनाएं ही प्राप्त हैं। प्रारम्भिक रचनाए रहनेके कारण विषयकी गम्भीरता नहीं है, केवल सूत्ररूपमें ही संहिताके विषयोंका प्रथन किया गया है।
निमित्तोंके तीन भेद बतलाकर फलादेश लिखा है२६६ - तीर्थकर महावीर और उनकी वाचार्य-परम्परा
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१. भौमिक – पृथ्वी सम्बन्धी निमित्त |
२. दिव्यक-आकाश सम्बन्धी निमित्त |
३. शाब्दिक – विभिन्न प्रकारके सुनाई पड़नेवाले शब्दजन्य निमित्त । आकाशसम्बन्धी निमित्तोंको बतलाते हुए लिखा है
सूरोदय
अच्छमणे
चंदमसरिक्खगहचरियं । तं पिच्छियं निमित्तं सव्वं आएसिहं कुणहं ॥
सूर्योदय के पहले और मस्त होनेके पहचान नन्द्रमा नमत्र ग्रहचार एवं उल्का आदि गमन एवं पतनको देखकर शुभाशुभ फलका ज्ञान करना चाहिए। इस शास्त्र में दिव्य, अन्तरिक्ष और मौम इन तोनों प्रकारके उत्पातोंका वर्णन भी विस्तारसे किया है। वर्षोत्पात, दवोत्पात, उल्कोत्पात्त, गन्धर्वोत्पात, इत्यादि अनेक उत्पातोंके द्वारा शुभाशुभ फलका प्रतिपादन आया है। आचार्य ऋषिपुत्रके निमित्तशास्त्रमें सबसे बड़ा महत्वपूर्ण विषय 'मेघयोग' का है। इस प्रकरणमें नक्षत्रानुसार वर्षाके फलका अच्छा विवेचन किया है। प्रथम वृष्टि यदि कृत्तिका नक्षत्र में हो, तो अनाजकी हानि, रोहिणी में हो, तो देशकी हानि, मृगशिरामें हो, तो सुभिक्ष, आर्द्रामें हो, तो खण्डवृष्टि, पुनर्वसुमें हो, तो एक माह वृष्टि, पुष्यमें हो, तो श्रेष्ठ वर्षा, आश्लेषा में हो, तो अन्न-हानि, मषा और पूर्वा फाल्गुनी में हो, तो सुभिक्ष, उत्तराफाल्गुनी और हस्तमें हो, तो प्रसन्नता, विशाखा और अनुराधामें हो, तो अत्यधिक वर्षा, ज्येष्ठा में हो, तो वर्षाकी कमी मूलमें हो, तो पर्याप्त वर्षा, पूर्वाषाढ़ा उत्तराषाढ़ा और श्रवणमें हो, तो अच्छी वर्षा, षनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद और उत्तराभाद्रपदमें हो, तो उत्तम वृष्टि और सुभिक्ष, एवं रेवती आश्विनी और भरणी में हो, तो पर्याप्त वृष्टिके साथ अन्नभाव श्रेष्ठ रहता है और प्रजा सब तरहसे सुख प्राप्त करती है । भट्टोपलि टीकामें जो उद्धरण आये हैं उनमें सप्तमस्थ गुरु शुक्रके फलका प्रतिपादन बहुत ही रोचक और महत्वपूर्ण है । सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण का फलादेश भी तिथि और नक्षत्रोंके क्रमसे वर्णित है । भुक्त, अभुक्त नक्षत्रोंका फलादेश भी बतलाया गया है । सारांश यह है कि ऋषिपुत्रकी पूर्ण रचना एक निमित्तशास्त्र ही उपलब्ध है । विभिन्न ग्रन्थोंमें उद्धरण पाये जानेसे इनकी संहिता विषयक रचनाका भी अनुमान लगाया जा सकता है ।
आचार्य मानतुंग
उत्पानिका
भक्तिपूर्ण काव्य के सृष्टा कविके रूपमें आचार्य मानतुंग प्रसिद्ध है। इनका प्रसिद्ध
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स्तोत्र 'भकामर' दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में समानरूपसे समादृत्त है । भक्त कविके रूपमें इनकी ख्याति चली आ रही है। इनको रचना इतनी लोकप्रिय रही है, जिससे उसके प्रत्येक पथके प्रत्येक चरणको लेकर समस्यापूर्त्यात्मक स्तोत्रकाव्य लिखे जाते रहे हैं । भछामरस्तोत्रकी कई समस्यापूर्तियां प्राप्त हैं । ओवन परिचय
आचार्यं कवि मानतुंगके जीवनवृत्तके सम्बन्धमें अनेक विरोधी विचारधाराएँ प्रचलित है । भट्टारक सकलचन्द्रके शिष्य ब्रह्मचारी 'पायमल्ल' कृत 'भक्तामरवृत्तिमें', जो कि वि० सं० १६६७ में समाप्त हुई है, लिखा है कि “धाराधीश भोजकी राजसभायें कालिदास, भारवि माघ आदि कवि रहते थे । मानतुंगने ४८ सांकलोंको तोड़कर जैनधर्मको प्रभावना की तथा राजा भोजको जैनधर्मका उपासक बनाया । "
दूसरी कथा भट्टारक विश्वभूषणकृत 'मक्तामरचरित में निबद्ध है । इसमें भोज, भर्तृहरि, शुभचन्द्र, कालिदास, वनञ्जय, वररुचि और मानतुंग आदिको समकालीन लिखा है । बताया है व्वाचार्य मानतुंगने भक्तामरस्तोत्रके प्रभावसे मड़तालीस कोठरियोंके सालोंको तोड़कर अपना प्रभाव दिखलाया
आचार्य प्रभाचन्द्रने क्रिया-कलाप' की टीकाके अन्तर्गत भक्तामर स्तोत्र टीकाको उत्थानिका में लिखा है
" मानतुंगनामा सिताम्बरो महाकविः निर्ग्रन्याचार्य वयँ रपनीत महाव्याधिप्रतिपनिन्यमार्गो भगवन् किं क्रियतामिति ब्रुवाणो भगवता परमात्मनो गुणगणस्तोत्रं विधीयतामित्यादिष्टः भक्तामरेत्यादि" ।
अर्थात् — मानतुंग श्वेताम्बर महाकवि थे । एक दिगम्बराचार्यने उनको व्याधिसे मुक्त कर दिया, इससे उन्होंने दिगम्बरमागं ग्रहण कर लिया और पूछा—भगवन् ! अब मैं क्या करूं । आचार्यने माज्ञा दी - परमात्माके गुणोंका स्तोत्र बनाओ । फलतः आदेशानुसार भक्तामर स्तोत्रका प्रणयन किया ।
विक्रम संवत् १३३४ के श्वेताम्बराचार्य प्रभाचन्द्रसूरिकृत 'प्रभावकचरित' में मानतुंग सम्बन्ध में लिखा है-ये काशी निवासी धनदेव सेठके पुत्र
१. इस वृत्तिका अनुवाद पंडित उदयलाल कासलीवाल द्वारा सम्पन्न हुबा है और यह प्रकाशित है ।
२. यह कथा जैन इतिहास विशारद पंडित नाथूरामजी प्रेमीने सन् १९१६ ई० में बम्बईसे प्रकाशित भक्तामरस्तोत्रको भूमिकामें लिखी है ।
३. प्रभावकारितके अन्तर्गत मानतुंगसुरिचरितम् पु० ११२ - ११७ ।
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थे। पहले इन्होंने एक दिगम्बर मुनिसे दीक्षा ली और इनका नाम चारुकीर्ति महाकीर्ति रखा गया। अनन्तर एक श्वेताम्बर सम्प्रदायको अनुयायिनी श्राविकाने उनके कमण्डलुके जलमें प्रसजीव बतलाये, जिससे उन्हें दिगम्बर चर्यासे विरक्ति हो गयी और जितसिंह नामक श्वेताम्बराचार्यके निकट दीक्षित होकर श्वेताम्बर साबु हो गये और उसी अवस्था में भक्तामरस्तोत्रको रचना की।
वि० सं० १३६१ के मेमतुगकृत 'प्रबन्धचिन्तामणि' ग्रन्यमें लिखा है कि मयूर और बाण नामक साला-बहनोई पंडित थे। वे अपनी विद्वत्तासे एक दुसरेके साथ स्पर्धा करते थे। एक बार बाण पंडित अपने बहनोईसे मिलने गया और उसके घर जाकर रातमें द्वार पर सो गया । उसकी मानवतो बहन रातमें रूठी हुई थी और बहनोई रातभर मनाता रहा । प्रातः होने पर मयूरने कहा-हे! तन्वंगी प्रायः सारी रात बीत चली, चन्द्रमा क्षीण-सा हो रहा है, यह प्रदीप मानो निद्राके अधीन होकर झूम रहा है, और मानको सीमा तो प्रणाम करने तक होतो है | अहो ! तो भी तुम क्रोध नहीं छोड़ रही हो?"
काव्यके तीन पाद बार-बार कहते सुनकर बापने चौथा चरण बनाकर कहा-हे चण्डि ! कुचोंके निकटवर्ती होनेसे तुम्हारा हृदय भी कठिन हो गया है।
गतप्राया रात्रिः कृशतनुशिः शीर्यत इव प्रदोपोऽयं निद्रावशमुपगतो धूणित इव । प्रणामान्तो मानस्त्यजसि न तयापि क्रुधमहो
कुचप्रत्यासत्या हृदयमपि ते चण्डि ! कठिनम् ।।' भाईके मुंहसे चौथा चरण सुनकर बहन लज्जित हो गयी और अभिशाप दिया कि तुम कुष्ठी हो जाओ। बाण पतिव्रताके शापसे तत्काल कुष्ठो हो गया। प्रातःकाल शालसे शरीर ढककर राजसभामें आया । मयूरने 'वरकोढ़ी' कहकर बाणका स्वागत किया । वाणने देवताराधनका विचार किया और सूर्यके स्तवन द्वारा कुष्ठरोग दूर किया । मयूरने भी अपने हाय-पैर काट लिये और चण्डिकाको
१. प्रभावकचरितके कथानक बाण और मयूरको ससुर और दामाद लिसा है तथा
उपर्युक श्लोकके चतुर्थ चरणमें "चण्डि के स्थानके "सुन" पाठ पाया जाता है। २. 'घरकोढ़ी' प्राकृत पदका पदच्छेद करने पर 'वरक ओढ़ी'-शाल ओढ़कर आये हो तथा 'बरकोड़ी' अच्छे कुष्त्री बने हो, वर्ष निकलता है।
श्रुतपर और सारस्वताचार्य : २६९
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"मां भांक्षीविधमम्" स्तुति द्वारा अपना शरीर स्वस्थ कर चमत्कार उपस्थित किया। ___ इन चमत्कारोंके अनन्तर किसी जैनधर्मद्वेषीने राजासे कहा कि यदि जैनोंमें कोई ऐसा चमत्कारी हो, तभी जैन यहाँ रहें, अन्यथा इन्हें नगर से निर्वासित कर दिया जाय । मानतुंग आचार्यको बुलाकर राजाने कहा कि आप अपने देवताओंके कुछ चमत्कार दिखलाइये।
आचार्य-हमारे देवता वीतरागी हैं, उनमें क्या चमत्कार हो सकता है। जो मोक्ष चला गया है, वह चमत्कार दिखलाने क्या आयेगा । उनके किंकर देवता हो अपना प्रभाव दिखलाते हैं। अतः यदि चमत्कार देखना है, तो उनके किंकर देवताओंसे अनुरोध करना होगा । इस प्रकार कहकर अपने शरीरको ४४ हयकड़ियों और बेड़ियोंसे कसवाकर उस नगरके श्रीयुगादिदेवके मन्दिरके पिछले भागमें बैठ गये। "भक्तामरस्तोत्र के प्रमावसे उनकी बेड़ियां टूट गयीं
और मन्दिर अपना स्थान परिवर्तित कर उनके सम्मुख उपस्थित हो गया । इस प्रकार मानतुगने जिनशासनका प्रभाव दिखलाया।
मानतुंगके सम्बन्धमें एक इतिवृत्त श्वेताम्बराचार्य गुणाकरका उपलब्ध है। उन्होंने भक्तामरस्तोत्रवृत्तिमें, जिसकी रचना वि० सं० १४२६ में हुई है, प्रभावकचरितके अनुसार मयर और बाणको वसूर और जामाता बताया है तथा इनके द्वारा रचित सूर्यशतक और चण्डोशतकका निर्देश किया है। राजाका नाम वृद्धभोज है, जिसको सभामें मानतुंग उपस्थित हुए थे।
उपयुक्त विरोधी आख्यानों पर दृष्टिपात करनेसे तथा वल्लालकविरचित भोजप्रबन्ध नामक ग्रन्यका अवलोकन करनेसे निम्नलिखित तथ्य उपस्थित होते हैं
१. मयूर, बाण, कालिदास और माघ बादि विभिन्न समयवर्ती प्रसिद्ध कवियोंका एकत्र समवाय दिखलानेको प्रथा १० वीं शतीसे १५ वीं शती तकके साहित्यमें प्राप्त होती है।
२. मानतूंगको श्वेताम्बर आख्यानोंमें पहले दिगम्बर और पश्चात् श्वेताम्बर माना गया है । इसी प्रकार दिगम्बर लेखकोंने उन्हें पहले श्वेताम्बर पश्चात् दिगम्बर लिखा है। यह कल्पना सम्प्रदायव्यामोहका ही फल है। दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायोंमें जब परस्पर कटुता उत्पन्न हो गयी और मान्य आचार्योंकी अपनी ओर खींच-तान होने लगी, सो इस प्रकार विकृत इतिवृत्तोंका साहित्यमें प्रविष्ट होना स्वाभाविक है । २५० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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३. मानतुगने भक्तामरस्तोत्रको रचना की। दोनों सम्प्रदायोंने अपनीअपनी मान्यताके अनुसार इस स्तोत्रको प्रतिष्ठा दी। प्रारम्भमें इस स्तोत्रमें ४८ स्तोत्र थे, जो काव्य कहलाते थे । प्रायः हस्तलिखित ग्रन्थों में ४८ काव्य ही मिलते हैं। प्रत्येक पद्यमें काव्यत्व रहनेके कारण ही ४८ पद्योंको ४८ काव्य कहा गया है। इन पद्योंमें श्वेताम्वर सम्प्रदायने अशोकवृक्ष, पुष्पवृष्टि, दिव्य ध्वनि और चमर इन चार प्रातिहारियोंके बोधक पद्योंको ग्रहण किया और सिंहासन, भापण्डल, दुन्दुभिः एवं छत्र इन चार प्रातिहारियोंके विवेचक पद्योंको निकाल दिया। इधर दिगम्बर सम्प्रदायकी कुछ हस्तलिखित पाण्डुलिपियोंमें श्वेताम्बर सम्प्रदाय द्वारा निकाले हुए चार प्रातिहारियोंके बोधक चार नये पद्य और जोड़ दिये गये । इस प्रकार ५२ पद्योंको संख्या गढ़ लो गयी । वस्तुतः इस स्तोत्रकाव्यमें ४८ हो पद्य है।
४. स्तोत्र-काव्योंका महत्व दिखलानेके लिए उनके साथ चमत्कारपूर्ण आख्यानोंकी योजना की गयी है । मयूर. पुष्पदन्त, बाण प्रभृति सभी कवियोंके स्तोत्रोंके पीछे कोई-न-कोई चमत्कारपूर्ण आख्यान विद्यमान हैं। भगवदर्भाक्त, चाहे वह वीतरागीको हो या सरागीकी, अभीष्टमूर्ति करती है। पूजापद्धतिक आरम्भके पूर्व स्तोत्रोंको परम्परा ही भक्तिके क्षेत्र में विद्यमान थी। भक्त या श्रद्धालु पाठक स्तोत्र द्वारा भगवद्गुणोंका स्मरण कर अपनी आत्माको पवित्र बनाता है। यही कारण है कि भक्तामर, एकीभाव, कल्याणमन्दिर प्रति स्तोत्रोंके साथ भी चमत्कारपूर्ण आख्यान जुड़े हुए हैं । __ अतएव इन आख्यानोंमें तथ्यांश हो या न हो, पर इतना सत्य है कि एकाग्रतापूर्वक इन स्तोत्रोंका पाठ करनेसे आत्मशुद्धिके साथ मनोकामनाको पूति भी होती है । स्तोत्रोंके पढ़नेसे जो आत्मशुद्धि होती है, वही आत्मशुद्धि कामनापूर्तिका साधन बनती है। मानतुंग अपने समयके प्रसिद्ध आचार्य हैं और इनकी मान्यता दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों में है। समय-विचार __मानतुंगके समय-निर्धारणमें उक्त विरोधी बाख्यानोंसे यह प्रकट होता है कि वे हर्ष अथवा भोजके समकालीन हैं। इन दोनों राजाओंमेंसे किसी एककी समकालीनता सिद्ध होनेपर मानतुगके समयका निर्णय किया जा सकता है। सर्वप्रथम हम यहाँ भोजकी समकालीनता पर विचार करेंगे।
भोजनामके कई राजा हुए हैं तथा भारतीय आख्यानोंमें विक्रमादित्य और भोजको संस्कृतकवियोंका आश्रयदाता एवं संस्कृत साहित्यका लेखक माना गया है।
श्रुतधर और पारस्वताचार्य : २७१
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भारतीय इतिहासमें बताया गया है कि सीयक-हर्षके बाद उसका यशस्वी पुत्र मुंज उपनाम वाक्पति वि० सं० १०३१ (ई० सन् ९७४)में मालवाको गद्दी पर आसीन हुवा। वाक्पति मुंजने लाट, कर्णाटक, चोल और केरल के साथ युद्ध किया था । यह योद्धा तो था ही, साथ ही कला और साहित्यका संरक्षक भी था। उसने धारानगरीमें अनेक तालाब खुदवाये थे । उसको सभामें पद्मगुप्त, धनञ्जय, धनिक और हलायुध प्रभृति ख्यातिनामा साहित्यिक रहते थे । मुंजके अनन्तर सिन्धुराज या नवसाहशांक सिंहासनासीन हुआ। सिन्धराजके अल्पकालीन शासनके बाद उसका पुत्र भोज परमारोंकी गद्दी पर बैठा। इस राजकुलका यह सर्वशक्तिमान और यशस्वी नपति था। इसके राज्यासोन होनेका समय ई. सन् १००८ है । भोजने दक्षिणी राजाओंके साथ तो युद्ध किया हो, पर तुरुष्क एवं गुजरातके कोतिराजके साथ भी युद्ध किया । मेरुतुंगके अनुसार भोजने ५५ वर्ष ७ मास और ३ दिन राज्य किया है। भोज विद्यारसिक था। उसके द्वारा रचित ग्रन्थ लगभग एक दर्जन है। इन्हीं भोजके समयमें आचार्य प्रभाचन्द्र ने अपना प्रमेयकमलमार्तण्ड लिखा है-श्रीभोजदेवराज्ये श्रीमद्वारा लियासिना परापरसरमा पदप्रगाभाजितानलपुण्यनिराकृतनिखिलमलकलङ्कन श्रीमत्प्रभाचन्द्रपण्डितेन निखिलप्रमाणप्रमेयस्वरूपोद्योतपरीक्षामुखपदमिदं विवृतमिति'।
श्री पंडित कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने प्रभाचन्द्रका समय ई. सन् १०५० के लगभग माना है। अतः भोजका राज्यकाल ११वीं शताब्दी है।
आचार्य कवि मानतुगके भक्तामरस्तोत्रको शैली मयूर और बाणको स्तोत्रशैलीके समान है। अतएव शैलो तथा अन्य ऐतिहासिक तथ्योंके न मिलनेसे मानतुंगने अपने स्तोत्रको रचना भोजराज्यकालमें नहीं की है। यतः भोजके समयमें मयूर और बाणका अस्तित्व सम्भव नहीं है । यह चमत्कारी आख्यानोंसे स्पष्ट है कि मानतुग वाण-मयूरकालीन हैं और किसी न किसी रूपमें इनका सम्बन्ध बाण और मयूरके साथ रहा है।
संस्कृत साहित्यके प्रसिद्ध इतिहासज्ञ विद्वान डॉ० ए० वो० कीथने भक्तामर कथाके सम्बन्धमें अनुमान किया है कि कोठरियोंके ताले या पाशवद्धता संसार
१. प्रमेयकमलमार्तण्ड, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, सन् १९४१. अन्तिम प्रशस्ति
१० २९४ । २. A History of Sanskrit Litrature 1941, Page 214-215 (Religi
ous portry)
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बन्धनका रूपक है । इस प्रकारके रूपक छठी सातवीं शताब्दीमें अनेक लिखे गये हैं | वसुदेव-हिंडीमें गर्भवासदुःख, विषयसुख, इन्द्रियसुख, जन्म-मरणके भव आदि सम्बन्धी अनेक रूपक आये है। डॉ० कोथका यह अनुमान यदि सत्य है, तो इसका रचनाकाल छठी शताब्दीका उत्तराद्ध या सातवीका पूर्वार्द्ध होना चाहिये । ___डॉ० कीथने यह भी अनुमान किया है कि मानतुग बाणके समकालीन हैं। सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ पं० गौरीशंकर हीराचन्द ओझाने अपने "सिरोहीका इतिहास' नामक ग्रन्थमें मानतुगका समय हर्षकालीन माना है । श्रीहर्षका राज्याभिषेक ई. सन् ६०८ में हुआ था । अतएवं मानतुगका समय ई० सन् की ७वीं शताब्दीका मध्यभाग होना सम्भव है ।
भक्तामरस्तोत्रके अन्तरंग परीक्षणसे प्रतीत होता है कि यह स्तोत्र 'कल्याण-मन्दिरका परवर्ती है। 'कल्याण-मन्दिर'ले रनगिता सिद्धसेनका समय षष्ठी शताब्दो सिद्ध किया जा चुका है। अत: मानतुगका समय इनसे कुछ उत्तरवतों होना चाहिये । हमारा अनुमान है कि दोनो स्तोत्रों में उपलब्ध समता एक-दूसरेसे प्रभावित है। _ 'कल्याण-मन्दिर में कल्पनाकी जैसी स्वच्छता है, वैसी प्रायः इस स्तोत्रमें नहीं है । अतः कल्याण-मन्दिर भक्तामरके पहले की रचना हो, तो आश्चर्य नहीं है । यत: इस स्तोत्रको कल्पनाओंका पल्लवन एवं उन कल्पनाओम कुछ नवीनताओंका समावेश चमत्कारपूर्ण शैलीमें इस स्तोत्रमें हआ है। भक्तामरमें कहा है कि सूर्य की बात ही क्या, उसकी प्रभा ही तालाबोंम कमलोंको विकसित कर देती है, उसी प्रकार हे प्रभो ! आपका स्तोत्र तो दूर हो रहे, पर आपके नामकी कथा ही समस्त पापोंको दूर कर देती है। यह नाम-माहात्म्य मुलत: श्रीमद्भागवतसे स्तोत्र-साहित्यमें स्थानान्तरित हुआ है । यथा--.
आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्तदोषं
त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति । दूरे सहस्रकिरणः कुरुते प्रभव
पद्माकरेषु जलजानि विकासभाजि ।। कल्याण-मन्दिरमें भी उपर्युक्त कल्पना ज्यों-की-त्यों मिलती है । बताया है कि जब निदाघमें कमलसे युक्त तालाबको सरस वायु ही तीन आतापसे संतप्त १. ए हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर, पृ० २१५ । २. भक्तामरस्तोत्र, पद्य ९ ।
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पथिकोंकी गर्मी से रक्षा करती है, तब जलाशयको बात ही क्या, उसी प्रकार जब आपका नाम ही संसारके तापको दूर कर सकता है, तब आपके स्तोत्रके सामर्थ्य का क्या कहना 1
आस्तामचिन्त्यमहिमा जिन संस्तवस्ते
नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । तीव्रातपोपहतपान्यजनान्निदाधे,
प्रीणाति पद्मसरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥
भक्तामर स्तोत्र और कल्याणमन्दिरकी गुणगान महत्त्व सूचक कल्पना तुल्य है । दोनों ही जगह नामका महत्व है। अतः एक दूसरेसे प्रभावित हैं अथवा दोनोंने किसी अन्य पौराणिक स्तोत्र से उक्त कल्पनाएं ग्रहण की हैं |
भक्तामरस्तोत्रमें बतलाया है कि हे प्रभो ! संग्राम में आपके नामकर स्मरण करनेसे बलवान राजाओंके युद्ध करते हुए घोड़ों और हाथियोंको भयानक गर्जनासे युक्त सैन्यदल उसी प्रकार नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है, जिस प्रकार सूर्यके उदय होने से अन्धकार नष्ट हो जाता है । यथा
वल्गत्तुरङ्गगजगजितभीमनाद -
माजी बलं बलवतामपि भूपतीनाम् ।
उद्यद्दिवाकर मयूख शिखापद्ध
त्वत्कीर्त्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति ।
उपर्युक्त कल्पनाका समानान्तर रूप कल्याणमंदिरके ३२ वें पद्म में उसी प्रकार पाया जाता है जिस प्रकार जिनसेनके पार्श्वाभ्युदय में । कल्याणमंदिर में भी यही कल्पना प्राप्त होती है । यथायद्गजं दुजितघनौघमदभ्रभीमभ्रश्यत्तडिन्मुसलमांसलघोरधारम् । दत्येन मुक्तमथ दुस्तरवारि दक्षं
तेनैव तस्य जिन ! दुस्तरवारिकृत्यम् ||
इसी प्रकार भक्तामर स्तोत्रके "स्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांसम्" ( भक्तामर पद्य २३ ) और "स्वां योगिनो जिन सदा परमात्मरूपम्' (कल्याणमंदिर पद्य १४ ) तुलनीय हैं |
१. कल्याणमन्दिर, पद्य ७ ।
१. भक्तामर स्तोत्र, पद्म ४२ ।
२. कल्याणमन्दिर, पद्म ३२ ।
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उपर्युक्त विश्लेषणके प्रकाशमें इस स्वीकृतिका विरोध नहीं किया जा सकता कि भक्तामर और कल्याणमन्दिर दोनोंकी पदावलो, कल्पनाएं एवं तथ्यनिरूपण-प्रणाली समान हैं।
ये दोनों स्तोत्र तथ्य-विश्लेषणको दृष्टिसे श्रीमद्भागवद् और शैलीको दृष्टिसे पुष्पदन्तके शिवमहिम्नस्तोत्रके समकक्ष हैं । रचना-परिचय और काव्यप्रतिभा
मानतुङ्गकी एकमात्र रचना ४८ पद्यप्रमाण भक्तामर स्तोत्र है। यह समस्त स्तोत्र वसन्ततिलकाछन्दमें लिखा गया है। इसमें आदितीर्थङ्कर ऋषभनाथकी स्तुति की गयी है । इस स्तोत्रको यह विशेषता है कि इसे किसी भी तीर्थङ्कर पर घटित किया जा सकता है। प्रत्येक पद्यमें उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपक अलङ्कारका समावेश किया है। इसका भाषा-सौष्ठव और भावगाम्भीयं आकर्षक है। कवि अपनी नम्रता प्रकट करता हआ कहता है कि हे प्रभो ! में अल्पज्ञ बहुश्रुतज्ञ विद्वानों द्वारा हँसीका पात्र होने पर भी आपको भक्ति ही मुझे मुखर बनाती है। बसन्तमें कोकिल स्वयं नहीं बोलना चाहतो, प्रत्युत आम्रमञ्जरी ही उसे बलात् कूजनेका निमन्त्रण देती है। यथा
अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम
त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् । पत्कोकिल: किल मघौ मधुरं विरौति
तच्चाम्रचारुकलिकानिकरैकहेतुः ॥ अतिशयोक्ति अलंकारके उदाहरण इस स्तोत्रमें कई आये हैं। पर १७ वें पद्यका अतिशयोक्ति अलङ्कार बहुत ही सुन्दर है । कवि कहता है कि हे भगवन् ! आपकी महिमा सूर्यसे भी बढ़कर है, क्योंकि आप कभी भी अस्त नहीं होते । न राहुगम्य हैं, न आपका महान प्रभाव मेघोंसे अवरुद्ध होता है। आप समस्त लोकोंको एक साथ अनायास स्पष्ट रूपसे प्रकाशित करते हैं, जब कि सूर्य गहसे ग्रस्त या मेघोंसे आच्छम्म हो जाने पर अकेले मध्यलोकको भी प्रकाशित करने में अक्षम रहता है । यथानास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः ।
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति । नाम्भोघरोदरनिरूद्धमहाप्रभाव:
सूर्यातिशायिमहिमासि मुनीन्द्र ! लोके ।। १. भक्तामरस्तोत्र, पद्य । २. वही, पद्य १७ ।
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यहाँ भगवानको अद्भुत सूर्यके रूपमें वणित कर अतिशयोक्तिका चमत्कार दिखलाया गया है।
कवि आदिजिनको बुद्ध, शङ्कर, धाता और पुरुषोत्तम सिद्ध करता हुआ कहता हैबुद्धस्त्वमेव विबुधाचित्तबुद्धिबोधा
त्वं शङ्करोऽसि भुवनत्रयशङ्करत्वात् । धातासि धीर शिवमार्गविविधाना
द्वयकं त्वमेव भगवन्पुरुषोत्तमोऽसि ।। इस प्रकार इस स्तोत्र-काव्यमें भक्ति, दर्शन और काव्यको त्रिवेणी एक साथ प्रवाहित प्राप्त होतो है ।।
रविषेण रविषेणाचार्य ऐसे कलाकार कवि हैं, जिन्होंने संस्कृतमें लोकप्रिय पौराणिक चरितकाव्यका ग्रथन किया है। पौराणिक चरितकाव्य-रचयिताके रूपमें रविषेणका सारस्वताचार्योंमें महत्त्वपूर्ण स्थान है । जीवन परिचय __ आचार्य रविषेण किस संघ या गण-गच्छके थे, इसका उल्लेख उनके ग्रन्थ 'पद्मधारत में उपलब्ध नहीं करता। सनात्त नाम ही इस बातका सूचक प्रतीत होता है कि ये सेनसंघके आचार्य थे। पद्मचरितमे निदिष्ट गरुपरम्परासे अवगत होता है कि इन्द्रसेनके शिष्य दिवाकरसेन थे और दिवाकरसेन. के शिष्य अहंत्सेन । इन अर्हत्तसेनके शिष्य लक्ष्मणसेन हुए और लक्ष्मणसेनके शिष्य रविषेण । यथा
ज्ञाताशेषकृतान्तसन्मुनिमनःसोपानपर्वावली पारम्पर्यसमाधित सुवचनं सारार्थमत्यद्भुतम् । आसीदिन्द्रगुरोदिवाकरयतिः शिष्योऽस्य चाहन्मुनिस्तस्माल्लक्ष्मणसेनसन्मुनिरदः शिष्यो रविस्तु स्मृतम् ।। सम्यग्दर्शनशुद्धिकारणगुरुश्रेयस्करं पुष्कलं विस्पष्टं परमं पुराणममलं श्रीमत्प्रबोधिप्रदम् । रामस्थाद्भुतविक्रमस्य सुकृतो माहात्म्यसङ्कीर्तने
श्रोतव्यं सततं विचक्षणजनैरात्मोपकाराथिभिः ॥ १. भक्तामरस्तोत्र, पद्य २५ । २. पपचरितम्, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, १२३।१६८-१६९ । २७६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आरार्य-परम्परा
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अर्थात् यह पद्मचरित समस्त शास्त्रोंके ज्ञाता उत्तम मुनियोंके मनकी सोपान - परम्परा के समान नाना की परम्परासे युक्त है, सुभाषितों परिपूर्ण है, सारपूर्ण है तथा अत्यन्त आश्चर्यकारी है । इन्द्रगुरुके शिष्य श्रीदिवाकरयति थे । उनके शिष्य अर्हयति हुए । उनके शिष्य लक्ष्मणसेन मुनि थे और उनका शिष्य में रविषेण हूँ ।
मेरे द्वारा रचित यह 'पद्मचरित' सम्यग्दर्शनको शुद्धताके कारणोंसे श्रेष्ठ है, कल्याणकारी है, विस्तृत है, अत्यन्त स्पष्ट है, उत्कृष्ट है, निर्मल है, श्रीसम्पन्न है, रत्नत्रयरूप बोधिका दायक है, तथा अद्भुत पराक्रमी पुण्यस्वरूप श्रीरामके माहात्म्यका उत्तम कीर्तन करनेवाला है, ऐसा यह पुराण आत्मोपका के इच्छुक विद्वज्जनोंके द्वारा निरन्तर श्रवण करने योग्य है ।
उपर्युक्त पद्योंसे रविषेणकी गुरु-परम्पराका परिज्ञान तो हो जाता है, पर उनके जन्मस्थान, बाल्यकाल, विवाहित जीवन आदिके सम्बन्ध में कुछ भी जानकारी नहीं हो पाती ।
रविषेणने पद्मचरित ४२ वें पर्व में जिन वृक्षों का वर्णन किया है वे वृक्ष दक्षिण भारतमें पाये जाते हैं । कविका भौगोलिक ज्ञान भी दक्षिण भारतका जितना स्पष्ट और अधिक है उतना अन्य भारतीय प्रदेशोंका नहीं । अतएव कविका जन्मस्थान दक्षिण भारतका भूभाग होना चाहिए ।
समय-1
य-निर्धारण
आचार्य रविषेणके समय निर्धारण में विशेष कठिनाई नहीं है, क्योंकि रविघेणने स्वयं अपने पद्मचरितकी समाप्ति समयका निर्देश किया है
द्विशताभ्यधिके समासहस्रे समतीतेऽद्धं चतुर्थवषंयुक्ते । जिनभास्करवर्द्धमानसिद्धेश्चरितं पद्ममुनेरिदं निबद्धम् ॥
जिनसूर्य -- भगवान् महावीरके निर्वाण प्राप्त करनेके १२०३ वर्षं छः माह बीत जानेपर पद्ममुनिका यह चरित निबद्ध किया । इस प्रकार इसकी रचना वि० सं० ७३४ (ई० सन् ६७७ ) में पूर्ण हुई है। बोर निर्वाण सं० कार्तिक कृष्णा ३० वि० सं० ४६९ पूर्व से ही भगवान् महावीरके मोक्ष जानेकी परम्परा प्रच लित है । इस तरह छ: मासका समय और जोड़ देने पर वैशाख शुक्ल पक्ष वि० सं० ७३४ रचना - तिथि आती है ।
१. पग्रचरितम् १२३३१८२ ।
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बहिस्साक्ष्य - रविषेण स्वयंके उल्लेखोंके अतिरिक्त समकालीन और उत्तरवर्ती आचार्याक निर्देश भी रावण के समयपर प्रकाश पड़ता है।
इनके उत्तरवर्ती उद्योतनसूरिने अपनी कुवलयमालामें रविषेणको पद्मचरितके कर्ताक रूपमें स्मरण किया है। उद्योतनसुरिका समय ई० सन् ७७८ (वि० सं० ८३५) है ! प्रतीत होता है कि रविषणको ख्याति १०० वर्षों में ही पर्याप्त विस्तृत हो तुको थी। उद्योतनसूरिने लिखा है
जेहि कए रमणिज्जे बरंग-पउमाणरिय विस्थारे ।
कब ण सलाहिज्जे ते कइणो जडिय-रविसेणे' । जिन्होंने रमणीय एवं विस्तृत वरांगचरित और पारित लिखे, वे जडित तथा रविषेण कवि कैसे श्लाघ्य नहीं, अपितू श्लाघ्य हैं। हरिवंशपुराणके रचयिता प्रथम जिनसेनने भी रविणका पद्मचरितके कर्ताक रूपमें स्मरण किया है---
कृतपद्मोदयोद्योता प्रत्यहं परिवत्तिता ।
मूत्तिः काव्यमयी लोके रवेरिव रवेः प्रिया || आचार्य रविषेणको काव्यमयी मूर्ति सूर्यको मूतिके समान लोकमें अत्यन्त प्रिय है । यतः सूर्य जिस प्रकार कमलोंको विकसित करता है उसी प्रकार रविषेणने पद्म-रामके चरितको विस्तृत किया है। आचार्य जिमसेनने हरिवंशपुराणकी रचना वि० सं० ८४०में की है। इससे स्पष्ट है कि रविषेण वि० सं० ८४० से पूर्ववर्ती हैं और यशस्वी कवि हैं। अतः बहिःसाक्ष्य भी रविणद्वारा स्वयं सूचित समयके साधक हैं। रचना-परिचय और काव्य-प्रतिभा
पश्चचरितमें पुराण और काव्य इन दोनों के लक्षण सम्मिलित हैं । विमलसूरिकृत प्राकृत पउमरियमका आधार रहनेपर भी इसमें मौलिकत्ताकी कमी नहीं है | कथानक और विषयवस्तुमें पर्याप्त परिवर्तन किया है। वस्तुतः इस ग्रन्थका प्रणयन उस समय हुआ है जब संस्कृतमें चरित-काव्योंको परम्पराका पूर्ण विकास नहीं हुआ था। इसमें वन, नदी, पर्वत, ग्राम, ऋतु-वर्णन, संध्या, सूर्योदय आदिका चित्रण महाकाव्यके समान ही किया गया है । कथाका आयाम पर्याप्त विस्तृत है । पद्म--रामके कई जन्मोंकी कथा तथा उनके परिकर में निवास १. कुवलयमाला-अनुच्छेद-६, पृ०-४ । २. हरिवंशपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, ११३४ ।
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करनेवाले सुग्रीय, विभीषण, हनुमानको जीवन-व्यापी कथा भी इस चरितकाव्यमें सम्बद्ध है । कतिपय पात्रोंके जीवन-आख्यान तो इतने विस्तृत आये हैं, जिससे उन्हें स्वतंत्र काव्य या पुराण से पाला जा है : ___ आधिकारिक कथावस्तु मुनि रामचन्द्रजीकी है और अवान्तर या प्रासंगिक कथाएँ बानर-वंश या विद्याधर-वंशके आख्यानके रूपमें आयीं हैं। इन दोनों वंशोंका कविने बहुत विस्तृत वर्णन किया है । यही कारण है कि चरितकान्यके समस्त गुण इस ग्रन्थमें समाविष्ट हैं । अंगीरूपमें शान्त रसका परिपाक हुआ है। शृंगारके संयोग और वियोग दोनों हो पक्ष सोता-अपहरण एवं राम-विवाहके अनन्तर घटित हुए हैं । करुण-रसके चित्रण में अभूतपूर्व सफलता मिली है । युद्ध में भाई-बंधुओंके काम आनेपर कुटुम्बियोंके विलाप पाषाणहृदयको भी द्रवीभूत करने में समर्थ हैं । वर्णनोंके चित्रगमें कविको पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है। नर्मदाका रमणीय दृश्य अनेक उत्प्रेक्षाओं द्वारा चित्रित हआ है। नर्मदा मधुरशब्द करनेवाले सानापक्षियोंके समूहके साथ वार्तालाप करती हुई-सी प्रतीत होती है । फेनके समूहसे वह हँसती हुई-सी मालम पड़ती है। तरंगरूपी भृकुटोके विलासके कारण वह क्रुद्ध होता हुई नायिका-सी, आवर्तरूपी बुबुदोंसे युक्त नायिकाको नाभि जैसी, विशाल तटोंसे युक्त स्थल नितम्ब जैसी एवं निर्मल जल-वस्त्र जैसे प्रतीत होते थे ।
इस ग्रन्थमें १२३ पर्व हैं । इसे छह खण्डों में विभक्त किया जा सकता है१. विद्याधरकाण्ड २. जन्म और विवाहकाण्ड ३. वन-भ्रमण ४, सोता-हरण और उसका अन्वेषण
६. उत्तरचरित संक्षिप्त कथावस्तु
भगवान महावीरके प्रथम गणधर गौतमस्वामीको नमस्कार कर, उनसे रामकथा जाननेकी इच्छा प्रकट करनेपर, गौतमस्वामीने यह रामकथा कही है।
कथारम्भमें १. विद्याधरलोक २. राक्षसवंश ३. वानरवंश ४. सोमवंश ५. सूर्यबंश और ६. इक्ष्वाकुवंशके वर्णनके पश्चात् कथास्रोत सरिताको वेगवती धाराके समान आगे बढ़ता है। रावणका जन्म (७-८ पर्व)-राक्षसवंशी राजा रत्नश्रवा तथा महारानी
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केकसीको रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण नामक तीन पुत्र एवं चन्द्रनखा नामक पुत्रीका लाभ हुआ। ये चारों सन्ताने पैदा होते ही अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार अपनी-अपनी महताका संकेत देने लगीं । रत्नश्रवाने जन्मके समय ही रावणको दिव्यहारसे युक्त एवं मौलिक मालामें प्रतिबिम्बित, उसके एक ही सिरके दश प्रतिबिम्ब दिखलाई पड़नेके कारण उसका नाम दशानन रखा । विद्यासिद्धि (८ बां पर्व) अपने मौसेरे भाई इन्द्रकी विभूतिका श्रवण कर उसे परास्त करनेका लक्ष्य रखकर वे तीनों भाई विद्यासिद्धि हेतू घनघोर तपश्चरण करने लगे । अन्तम अपनी दढ़ता एवं एकाग्रता और निमाहिता एव निभीकताके कारण उन तीनों भाइयोंने अनेक विद्याओंको सिद्ध कर लिया । अपनी सफलताका प्रारम्भिक चरण मान वे तीनों भाई दिग्विजयकी तैयारी करने लगे।
दक्षिण विजय (९-११ पर्व)-रथनपुरका राजा इन्द्र अत्यन्त शक्तिशाली था । अतः उसे परास्त करने के उद्देश्यसे इन्होंने आक्रमणको तैयारी की । रावणने अपनी वीरता और कुशलतासे इन्द्र के सहायक यम, वरुण आदिको तो पहल हा परास्त कर दिया था। अब उसको दष्टि इन्द्रपर हो था। इन्द्र मानव हात हुए भी अपने लिये इन्द्र ही समझ रहा था । इसी कारण उसने प्रान्तीय शासकोंको बम, वरुण, सोम आदि संज्ञाओसे अभिहित किया था। उसने कारागारको नरकसंज्ञा और अर्थमंत्रोको कुबर संज्ञा आहित की थी। रावण ने समस्त साधनपूर्ण सना लेकर किकन्धापुरके राजा बलि को अपमानित किया और उसके साधुभाई सुग्रीवको अपना मित्र बनाया ।
रथनपुर के चारों ओर मायामयी परकोटा बना हुआ था। उसकी रक्षा अनेक विद्यावाका साथ मलकवर करता था । यह परकोटा अभेद्य था । इसके भंदनवा परिज्ञान नलकूवरको पनाका ज्ञात था और यह नारी रावण के रूपको देखते ही माहित हो गया । रावणने झूठा आश्वासन देकर परकोटाभेदनका उपाय ज्ञात कर लिया और अन्त में विजयके पश्चात् नलकूवरको वहाँका राजा नियुक्त कर उसकी पत्नीको मां अन्दरो सम्बोधित कार एवं पतिव्रता बने रहनका उपदेश दे, वहाँसे आगे बढ़ा । अनेक प्रकारसे युद्ध होन के पश्चात इन्द्र अपने मंत्रिमंडल सहित बंदी बना लिया गया, पर उसके पिता सहस्रशर के अनुरोध पर रावणने उसे मुक्त किया और अपनी महत्ताका उदाहरण प्रस्तुत किया । हनुमान-जन्म (१५-१८ पर्व)
आदित्यपुर के राजा प्रहलादके पुत्र पवनञ्जयका विवाह राजा महेन्द्रकी पुत्री २८० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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अंजनासे हुआ। पबनमय उसकी सुन्दरतासे आकृष्ट होनेपर भी, अंजनाको एक सत्री द्वारा अपनो निन्दा सुनकर वह अंजनासे रुष्ट हो गया और विवाह हो जानेपर उसने अंजनाका परित्याग कर दिया। जब पवनजय रावणको किसी युद्ध में सहायता देनेने लिये जा रहा था, तो उसका शिविर एक नदीके तट पर स्थित हआ । यहाँ चकवाके वियोगमें एक चकवीको विलाप करते देख, उसे अंजनाकी स्मृति हा आयी और अपने विये कार्यों पर पश्चात्ताप करने लगा। वह सेनाकी वहीं छोड़ श्रिम ही अंजना के पास चला आया। प्रथम मिलनके फलस्वरूप अंजना गर्भवती हुई। पवनजय प्रभात होने के पूर्व ही बिना किसीसे कहे-सुने अंजना भवसे चला गया | अंजनाकी सास तथा अन्य परिवारके व्यक्तियोंने जब उसके गर्भवतीक चिह्न देखे, तो परिवारके अपवादके भयसे उन्होंने अंजनाको घरो बाहर निकाल दिया । वह दर-दर भटकती हुई एक निर्जन वनम पहचो । यहाँ उसने एम का जन्म दिया | इसी समय आकाशमागंसे राजा प्रतिसूर्य जा रहा था । उसने जब एक नारीका करुण चीत्कार सुना, तो उसका हृदय नया और गावे आकर परिचय जानना चाहा । इस परिचयके क्रममें जब उसे यह मालम हुआ कि यह उसकी भांजो है, तो उसे अपार हर्ष हुआ और उस पुत्रसहित लकर अपने घर हनुरुह द्वीपमें चला आया । मागम चलते हए हनुमान अपने बाल्य-चांचल्यके कारण विमानसे नीचे गिर पड़े, पर हनुमानको चाट न लगी और जिस शिला पर व गिरे थे वह शिला चूर-चूर हो गयी। हनुरुह तापम बालकके संस्कार सम्पन्न किय गये । इसी कारण इसका नाम हनुमान रखा गया ।
युद्धमें विजय प्राप्त करने के पश्चात् पवनञ्जय घर वापस लौटा, पर अंजनाको न पाकर तथा उसत्र अपवादको ज्ञातकर उसे अपार वेदना हुई । फलत: वह घर छोड़कर वनकी खाक छानन चल दिया। वह वन-बन भटकता हुआ, वृक्ष और लताओंस अजनाका पता पूछता हुआ उन्मत्तकी तरह भ्रमण करने लगा। कुछ समय पश्चात् बह नम करता हआ हनुरुह द्वाप पहचा और वहाँ अपनी पत्नी और पुत्रको देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ तथा सभी के साथ आदित्यपुर लौट आया।
चन्द्रनखाका विवाह खरदूषण नामक राक्षसको साथ हुआ और इस दम्पतिके शबूक नामक पुत्र उत्पन्न हुआ ।
राजा दशरथका जन्म (१९-२१ पर्व)- इक्ष्वाकुवंशमें अयोध्याके राजा अजके यहाँ दशरथका जन्म हुआ । दशरथका जन्म उत्तम नक्षत्र और उत्तम
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मुहूर्त में हुआ । फलस्वरूप यह जन्मसे हो वीर, प्रतापी और यशस्वी था। इनकी तीन रानियाँ थीं ।
(क) दर्पपुर के राजाकी पुत्री अपराजिता या कौशल्या (ख) पद्मपत्र नगर के राधाकी सुमित्र (ग) रत्नपुरके राजाकी पुत्री सुप्रभा
एक दिन रावणको किसीसे विदित हुआ कि उसकी मृत्यु राजा जनक और दशरथकी सन्तानोंके द्वारा होगी । अतः रावणने अपने भाई विभीषणको मिथिलानरेश जनक और अयोध्यानरेश दशरथको मारनेके लिए भेजा, पर विभीषणके आनेके पूर्व ही नारदने उन दोनों को सचेत कर दिया था । जिससे वे दोनों अपने-अपने भवनों में अपने-अपने अनुरूप कृत्रिम मूर्ति छोड़कर बाहर निकल गये । विभीषण ने इन पुतलोंको हो सचमुचका जनक और दशरथ समझा और उन्हींका मस्तक काटकर समुद्रमें गिरा दिया तथा वापस लोटकर लंका में वैभवपूर्वक राज्य करने लगा |
राजा दथरथको विजय एवं कैकेयीसे परिणय ( २१ - २५ पर्व ) - भ्रमण करते हुए राजा दशरथ अनेक सामन्तोंके साथ केकय देश पहुँचे और वहाँ की राजपुत्री कैकेयीको स्वयम्वरमें जीत लिया । स्वयंवर में समागत राजाओंने इन्हें अज्ञातकुलशील समझकर इनकी युद्ध करनेका निमन्त्रण दिया । दशरथने रणभूमि में उतरकर वीरतापूर्वक युद्ध किया और कैकेयांने उनके रथका संचालन किया । जिससे महाराज दशरथ बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कैकयीसे वर माँगने को कहा । समय पाकर चारों रानियोंको चार पुत्र उत्पन्न हुए । कौशल्याने राम, सुमित्राने लक्ष्मण, कैकेयीने भरत और सुप्रभाने शत्रुघ्नको जन्म दिया।
I
सीताका अम्म (२६-३० पर्व ) – राजा जनकके यहाँ सोता नामक पुत्री और भामण्डल नामक पुत्रने जन्म लिया । पूर्वजन्मकी शत्रुताके कारण किसी विद्याधरकुमारने भामण्डलका अपहरण किया और उसे वनमें छोड़ दिया । इस कुमारका लालन-पालन चन्द्रगति नामक विद्याधरने किया । नारद किसी कारणवश सोतासे रुष्ट हो गये और उसका एक सुन्दर चित्रपट तैयार कर भामण्डलको भेंट किया। भामण्डल सीता के सुन्दर रूपको देखते ही आसक्त हो गया और विद्याधरों सहित मिथिला पर आक्रमण कर दिया, पर मनोहर नगर और वाटिका को देखते ही उसे जातिस्मरण हो गया और उसे यह ज्ञात हो गया कि सोता उसकी सहोदरा है । अतएव उसने जनकके समक्ष अपना परिचय प्रस्तुत किया तथा उन्हें सीताका स्वयम्बर करनेका परामर्श दिया ।
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स्वयम्वरमें वजावर्त धनुषको चढ़ानेकी शतं रखी गयो । अन्य राजाओंके असमर्थ रहने पर रामने इस धनुषको चढ़ाया और सीताके साथ उनका विवाह सम्पन्न हुआ।
रामके बड़े होने पर दशरथको संसारसे विरक्ति हो गयो और बे रामको राजा बनाकर स्वयं मुनिदीक्षा ग्रहण करनेकी तैयारी करने लगे। जब कैकेयीको यह समाचार ज्ञात हुआ, तो उसने अपने सुरक्षित घरको माँग लिया, जिसके अनुसार भरतको अयोध्याका राज्य और रामको वनवास दिया गया। ३. वनभ्रमण
(क) रामका वनवास (४१ वां पर्व)-राम लक्ष्मण और सीताके साथ दक्षिण दिशाकी ओर चल दिये। मार्ग में कितने हो त्रस्त राजाओंका अभयदानद्वारा उद्धार किया। कैकेयी और भरत वनमें जाकर रामको लोद आनेका अनुरोध करने लगे, पर पिताको इच्छाके विरुद्ध कार्य करना रामने स्वीकार नहीं किया।
(ख) युद्धोंका वर्णन (४२ वा पर्व)--राम-लक्ष्मणने यहाँ पर अनेक शत्रुओं, धर्मविरोधियों, पापियों और अन्यायो अत्याचारियोंको सही मार्ग पर न आनेके कारण यमलोक भेज दिया। राजा वचकणको सिंहोदरके चक्रसे बचाया, वाल्याविल्यको म्लेच्छके कारागारसे मुक्त किया एव भरतका विरोध करनेवाले अतिवीर्यका नर्तकीका वेशधारण कर लक्ष्मणने उसका मान खण्डित किया। लक्ष्मणका अनेक राजकुमारियोंके साथ विवाह हुआ। दण्डकबनमें निवास करते हुए राम-लक्ष्मणने मुनिको आहारदान दिया और जटायु नामक वृद्ध तपस्वीसे सम्पर्क स्थापित किया।
(ग) शम्बूकमरण एवं खरदूषणसे युद्ध (४३-४४ पर्व)—सूर्यहास नामक तलवारको पाने हेतु खरदूषणका पुत्र शम्बूक तपस्या कर रहा था, किन्तु भ्रमश बाँसोंके भिड़ेमें छिपे हुए शम्बुकका लक्ष्मण द्वारा अस्त्रपरीक्षासे मरण हो गया। विलाप करती हुई उसकी माता चन्द्रनखा लक्ष्मणके रूपसे मोहित होकर कामतृप्तिको भिक्षा मांगने लगी, किन्तु उसमें असफलता देख, पतिसे लक्ष्मणपर बलात्कारका दोषारोपण कर युद्ध करनेका अनुरोध किया। दोनों पक्षोंमें भयंकर युद्ध हुआ, खरदूषण आदि अनेक राक्षस यमपुरी पहुंचा दिये गये।
४. सीताहरण और अन्वेषन (४५-५५ पर्व)—अपने बहनोईको सहायता करनेके हेतु आया हुआ रावण सीताके अनिन्द्य लावण्यको देखकर मोहित हो
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गया। उस समय राम-लक्ष्मण बाहर गये हुए थे। अतः बलात् उसका अपहरण कर, अपने पुष्पक विमानमें बैठाकर लंकाकी ओर चल दिया ! मार्ग में जटायु एवं रत्नजटो नामक विद्याधरोंसे युद्ध करना पड़ा, पर इस युद्ध में रावणको हो विजय रही।
राम जब युद्ध समाप्त कर वापस लौटे, तो कुटियाको सोतासे शन्य देखकर विलाप करने लगे। रामने अपने कार्यके सिद्ध्यर्थ वानरवंशी राजा सुग्रीवसे मित्रता को और उनका सहायतासे सोताका पता लगाया।
५. युद्ध (५६-७८ पर्व)-सुग्रीव आदि विद्याधरोंको सहायतासे रामको समस्त सेना आकाशमागं द्वारा लंका पहँच गयो और रामने भयंकर युद्ध आरम्भ किया । सर्वप्रथम रामने रावण के पास संधिका प्रस्ताव भेजा, पर उसने उसे अस्वीकार कर दिया। रावणके अनैतिक व्यवहारसे दुःखो होकर विभीषण भी रामसे आकर मिल गया और रामने विभीषणको लंकाका राज्य देनेका संकल्प कर लिया। दोनों ओरसे भयंकर युद्ध हुआ और अन्तमें पापपर पुण्यको विजय हुई । रामने रावणका बध कर पृथ्वीको निष्कटक बनाया । ६. उत्तरचरित
(क) राज्योंका वितरण एवं सोतात्याग { ७९-१०३ पर्व )-रावणको मृत्युके पश्चात् राम-लक्ष्मणनं लंकावासियोंका आश्वासन दिया और युद्धसे अस्त-व्यस्त लंकाको स्थितिको सम्भाला। अनन्तर अयोध्या लौट आनेपर अपने राज्यका समुचित बंटवारा किया।
समय पाकर सीता गर्भवती हुई किन्तु दुर्भाग्यसे रावणके यहाँ निवास करनेके कारण प्रजा द्वारा निन्दा होनेसे, रामने सौताका निर्वासन कर दिया। सोता वन-यन भ्रमण करने लगी, उसने वनजंघ मुनिके आश्रममें लव और कुशको जन्म दिया।
(ख) जग्निपरीक्षा (१०४-१०९ पर्व)-दिग्विजयके समय लव और कुशका राम-लक्ष्मणके साथ घनघोर युद्ध हुआ। नारदने उपस्थित होकर राम-लक्ष्मणको लव और कुशका परिचय कराया | अग्निपरीक्षा द्वारा साताको शुद्धि की गयी। सीताके शोलके प्रभावसे अग्निका दहकता कुण्ड शीतल जल बन गया। रामने सोतासे पुनः गहावासमें सम्मिलित होनेका अनुरोध किया, पर सीताने अनुरोधको ठुकरा दिया और आर्यिकाका व्रत ग्रहण कर लिया तथा तपश्चरण द्वारा द्वादशम स्वर्गका लाभ किया। २८४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी माधार्य-परम्परा
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नारायण और बलभद्रके प्रेम-सौहार्दकी चर्चा स्वर्गलोक तक व्याप्त हो गयी। अतएव परीक्षार्थ दो देव अयोध्या आये और लक्ष्मणसे गमके मरणका असत्य समाचार कहा। लक्ष्मण सुनते ही निष्प्राण हो गये, इस समाचारसे राम अत्यन्त दुःखित हये और लक्ष्मणके मोहमें उनके शवको लिये हुए छः मास तक घूमते रहे । अन्तमें कृतान्सवको जीवने, जो स्वर्ग में देव हुआ था, रामको समझाया। रामने लक्ष्मणके शवको अन्त्येष्टि क्रिया की और राम जिनदीक्षा लेकर तपश्चरण द्वारा मोक्ष पधारे। समीक्षा
इस कथावस्तमें घटनाओं और डाख्यानों का नियोजन बड़े ही सुन्दररूपमें किया गया है। चरित-काव्यको सफलताके लिए कथानकका जेसा गठन होना चाहिये वैसा इस ग्रन्थमें उपलब्ध है। कालक्रमसे विशृंखलित घटनाओंको रोढ़की हड्डीके समान दृढ़ और सुसंगठित रूपमें उपस्थित किया है। रामको मलकथाके चारों ओर अन्य घटनाएं लताके समान उगती, बढ़ती और फैलती हुई चली हैं। कथानकोंका उतार-चढ़ाव पर्याप्त सुगठित है। पात्रों के भाग्य बदलते हैं । परिस्थितियाँ उन्हें कुछसे कुछ बना देती हैं । वे जीवनसंघर्ष में जूझकर धर्षणशील रूपको अवतारणा करते हैं। निस्संदेह रविषेणने कथानकसूत्रोंको कलात्मक ढंगसे संजोया है । पारितको कथावस्तुमें निम्नलिखित तत्त्व उपलब्ध हैं(क) योग्यता (ख) अवसर (ग) सत्कार्यता
(घ) रूपाकृति योग्यता
कथानकको अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियों की ओर मोड़ना योग्यताके अन्तर्गत आता है। रावणद्वारा 'दशरथ-जनक-संतति विनाशका कारण होगी' ऐसी शंका होने पर उनके विनाशकी योजना, साहसगति विद्याधर द्वारा सुग्रीवका वेष बनाकर उसके राज्य पर आधिपत्य करना, रामके वनवासमें छायाके समान लक्ष्मण द्वारा भाईकी सेवा करना आदि प्रसंगोंके गठनमें कविने योग्यतातत्त्वका समावेश किया है। रावणका राम-लक्ष्मणको बलिष्ठ समझ अपने भाई एवं पुत्रोंके बन्दो होने पर विजयप्राप्त्यर्थ बहुरूपिणी विद्याको सिद्ध करनेके लिए प्रस्तुत होना कथानकको प्रतिकूलसे अनुकूल परिस्थितियोंकी ओर
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मोड़ना है। इसी प्रकार अग्निपरीक्षामें अग्नि-कुण्डका जल-कुण्ड होना भी योग्यतातत्वके अन्तर्गत है।
अवसर
___ रसपुष्टि के लिए यथासमय रसमय प्रसंग या सन्द का प्रस्तुतीकरण कथानकनियोजनमें अवसरतत्व है । पवनन्जय विलाप करतो हुई अंजनापर, दष्टिपात भी नहीं करता है, किन्तु सूर्यास्तके समय पतिवियोगमें विलपती हुई चकन्दीको देखकर अंजनाको मानसिक स्थितिका अनुमान लगा, पवनञ्जयका युद्ध के लिए जाते हुए मार्ग मेंसे लौट आना अवसरतत्त्वके अन्तर्गत है । इसो प्रकार भरतद्वारा रामसे राज्य करनेका आग्रह करनेपर भी रामकी अस्वीकृत्तिके कारण उन्होंकी आज्ञासे निश्चित समय तक राज्य स्वीकार करना भी कथानकका अवसरतत्त्व है। रथनूपुरके मायामयी परकोटेको तोड़नेके लिए नलकुवरकी पत्नोका प्रसाधन भी अवसरतत्त्वके अन्तर्गत है। सत्कार्यता
सत्कायंतासे तात्पर्य इस प्रकारसे संदर्भोके संयोजनसे है, जो स्वतन्त्ररूपमें अपना अस्तित्व रखकर प्रसंगगर्भत्वको प्राप्त हो किसी कार्यविशेषकी अभिव्यंजना करते हैं। रावणद्वारा विद्यासिद्धिहेतु तपस्या करना, देवोंका उपद्रव कर उसको अपने लक्ष्यसे विचलित करनेका प्रयत्न करना, दशरथद्वारा कैकयीको स्वयम्वरमें प्राप्त कर, युद्ध में सहयोग देनेपर बर प्रदान करना आदि प्रसंग स्वतन्त्र होते हुए भी मूलकथानकमें गभित होकर कार्याचशेषकी अभिव्यंजना कर रहे हैं। रूपाकृति
कथावस्तुमें इतिवृत्तका वस्तुव्यापारोंके साथ उचित एवं संतुलितरूपमें नियोजन द्वारा रूपाकृति उपस्थित करना, रूपाकृति नामक तत्त्व है। मूल कथानकके साथ अवान्तर कथाओंका संमिश्रण अंग-अंगीभाव द्वारा करना ही इस तत्त्वका कार्य है। कवि कथावस्तुका विस्तार न करके छोटी-छोटी कथाओं द्वारा भी रूपाकृति तत्वका नियोजन कर सकता है । 'पप्रचरितम्' में राम-लक्ष्मण वनमें निवास करते हैं, लक्ष्मणद्वारा शम्बकका वध हो जाता है । शोकाकुलिता उसकी मासा चन्द्रनखा राम-लक्ष्मणको देखकर मोहित हो, अभिलाषाकी पूर्ति न होनेपर रुष्ट हो जाती है और अपने पतिसे उल्टा-सीधा भिड़ा देती है। इस प्रकारको अवान्तरकथाएँ पप्रचरितमें कई दशक हैं। इन अवान्सरकथाओंका २८६ : तीर्थकर महावीर और उनकी माचार्य-परम्परा
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वस्तुव्यापारोंके साथ अंग-अंगीभावसे संयोजन किया गया है । अतएव रूपाकृतितत्त्वका पूर्ण समावेश हुआ है ।
रविषेणने कथा-वस्तुके साथ वानरवंश, राक्षसबंश आदिको व्याख्याएं भी बुद्धिसंगत की हैं। निःसन्देह कविका यह ग्रन्थ प्राकृत 'पउमचरिय' पर आधत होनेपर भी कई मौलिकताओंकी दष्टिसे अद्वितीय है।
वानरवंशकी उत्पसिके सम्बन्ध में वाल्मीकिने लिखा है कि ब्रह्माका निर्देश पाकर अनेवा देवताओंने अप्सराओं, यक्ष, ऋक्ष, नागकन्याओं, किन्नरियों, विद्याधरियों एवं वारिबाक संयोगस सहस्रों पुत्र उत्पन्न किये। माता-पिताके प्राकृतिक गुणोंसे युक्त होने के कारण ये स्वभावतः साहसी, पराक्रमी, धर्मात्मा, म्यायनीतिप्रिय एवं तेजस्वी हुए। ब्रह्मासे जामवान, इन्द्रसे बलि, सूयंसे सुग्रीव, विश्वकर्माम नल, अग्निस नील, वृविर से गन्धमादन, बृहस्पतिसे तार, अश्वनीकुमार से मयन्द और द्विविन्द, वरुणसे सुषेण एवं वायुसे हनुमानको उत्पत्ति
रविषेणके मतानुसार देवताओंसे वानरोंको उत्पत्ति नहीं हुई है, ' न वानर और देवताओंका शारीरिक संयोग सम्बन्ध ही सिद्ध होता है। अनः ब्रह्मा, इन्द्र, सूर्य, विश्वकर्मा, मल, अग्नि, कुबेर, वरुण, पवन आदि तत्तद् नामधारी मानवव्यक्तिविशेष हैं। इन व्यक्तिविशेषोंसे हो वानरजातिके व्यक्ति पैदा हुए हैं।
रविषेणके मत्तम वानर एक मानवजातिविशेष हैं। जिन विद्याधर राजाओंने अपना ध्वज-चित वानर अपना लिया था, वे विद्याधर राजा बानरवशी कहलाने लगे। धानर पशु नहीं हैं, मनुष्य हैं जो विद्याधरों या भूमिगाचरियोंके रूप में वणित हैं। इस प्रकार रविषणने बाल्मोकिद्वारा कल्पित पशुजातिका गानवीकरण किया है।
इसी प्रकार राक्षसवंशके सम्बन्धमें भी रविषणको मान्यता वाल्मीकिसे भिन्न है। रविषेणने जिस प्रकार वानरद्वीपनिवासियोंको बानरवंशी माना है, उसी प्रकार राक्षसद्वीपवासियोंको राक्षसवंशी कहा है। बताया है कि विजयाईके पश्चिममें एक द्वीप है, जहाँ विद्याधर राजाओंका निवास है। उस द्वीपका नाम राक्षस द्वीप है । अत: वहाँके निवासो राक्षस कहलाने लगे हैं। अमराख्य और भानुराख्य नामक तेजस्वी राजाओंकी परम्परामें मेघवाहन नामक पुत्रने जन्म लिया । इसके राक्षसनामक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो अत्यन्त १. पप्रचरितम् ६।१३३, ६७०-७१, ६१७२-७५ । २. वही ६।२१४, ६।१८२-१८६ । ३. वही ५५३८५ ।
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प्रभावशाली एवं स्वयशाभिलापी हुआ इस राक्षस राजा से प्रवर्तित वंश राधासवंश कहलाने लगा 1 ये राक्षस जनसाधारणकी रक्षा करते थे, इसलिये भी राक्षस कहलाने लगे । अतएव रावणकी राक्षस मानना भूल है । वे सम्भ्रान्त मानव थे, राक्षस नहीं । इस प्रकार कविने राक्षस और दानरवंशकी विशिष्ट व्याख्याएँ प्रस्तुत की है ।
छन्द.
अलंकार आदिको दृष्टिसे भी यह ग्रन्य महत्वपूर्ण है। इसमें ४१ प्रकारके छन्दों का व्यवहार किया गया है।
क्रमसं ウ
१
२
३
४
19
4
a.
१०
११
१२
१३
१४
१५
१६
१७
१८
नामछन्द
अनुष्टुप् अतिश्चिरा
अपवर्क
अश्चललितम्
आर्या
आर्यावृत्तम्
आर्याछन्द
आर्यागीति
इन्द्रवज्रा
इन्द्रवदना
उपजाति
उपेन्द्रवज्रा
कोकिलकच्छन्द
चण्डी
चतुष्पदिका
द्रुतविलम्बित
दोधक
त्रोटक
पृथ्वी
प्रहर्षिणी
१९
२०
२१
२२
२३
१. पद्मवरित ५१३८६ |
२८८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
पुष्पितामा प्रमाणिका
भद्रक
संख्या
१६४४०
१
१
१२
८
४९
२७
१२
२
१३४
३३
१
१
२
१०
१०
१
३
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क्रमसं०
૨૪
२५
२६
२७
२८
२९
३०
३१
३२
नामछन्द
भुजंगप्रयात
मन्दाक्रान्ता
मत्तमयूर
मालिनी
रथोद्धता
रुचिरा
वंशस्य
१९
वसन्ततिलका
वियोगिनी
विद्युन्माला
वंशपत्रपतितम्
स्रग्धरा
शार्दूलविक्रीडितम् शालिनी
शिखरिणी
श्रकुछन्द
हरिणी
१ संगीत- धर्मका प्रादुर्भाव २. रागात्मक वृत्तियोंका अनुरंजन
३. विशेष मनोभावों का क्षनुरंजन ४. प्रेषणीयताका समावेश
संख्या
१५
१
२१९
*
३३
३४
३५
३६
३७
३८
३९
४०
इस ग्रन्थ में इक्कीस छन्द इस प्रकारके आये हैं, जिनका निर्धारण सम्भव नहीं है । यथा १७१४०५-४०६, ४२ ३७, ६४, ७७ ११२/१५, १६, ११४/५४, ५५, १२३।१७०-१७९,१८१,१८२ । रविषेणाचार्यने संगीतात्मक संगीत विकासके लिये छन्दोयोजना की है । यतः विशिष्ट भावोंकी अभिव्यक्ति विशिष्ट छन्दोंके द्वारा ही उपयुक्त होती हैं। लपको व्यवस्था छन्दोंके निर्माण में सहायक होती है । यहीं कारण है कि रविषेणने लय और स्वरोंका सुन्दर निर्वाह किया है। इनको छन्दोयोजना के निम्नलिखित उद्देश्य हैं
←
२५
६
७
१
५
७
३
१
१
अलंकार-योजनाकी अपेक्षा से भी यह काव्य सफल है। इसमें अनुप्रास, श्लेष, उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अतिशयोकि, सन्देह, मोलित, सार, विरोधाभास भ्रान्तिमान, उल्लेख, उत्तर, स्मरण, परिकर, अनन्वय, विनोक्ति, दृष्टान्त,
भुतघर और सारस्वताचार्य २८९
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काव्यलिंग, निदर्शना, यथासंख्या, विशेषोक्ति, स्वभावोक्ति, प्रतीप, उदात्त, संसृष्टि आदि ३२ प्रकारके अलंकार प्रयुक्त हुए हैं । विशेषोक्ति, यथासंख्य ओर कायलिंगके उदाहरण दिये जा रहे हैंविशेषोक्ति--
शौर्य रक्षितलो कोऽपि नयानुगतमानसः ।
लक्ष्म्यापि कृतसम्बन्धो न गर्वग्रहदूषितः ।। राजा श्रेणिक अपनी शर-वीरतासे समस्त लोकोंकी रक्षा करता था, तो भी उसका मन सदा नीतिपूर्ण था । लक्ष्मोसे उसका सम्बन्ध था, फिर भी वह अहंकारग्रहसे दूषित नहीं होता था ।
यहाँ पर कारण दर्शाते हुए भी कार्यामुख बताया गया है, अतः विशेषोक्ति अलंकार है। यथासंस्थ
स्फूरद्यशःप्रतापाभ्यामाक्रान्तभुवनावय ।
अभिरामदुरालोको शीततिग्मकराविव ॥ बढ़ते हुये यश और प्रतापसे लोकको व्याप्त करनेवाले लव और कुश चन्द्र एवं सूर्यके समान सुन्दर तथा दुरालोक हो गये । यहाँ पर चन्द्र और सूर्यका अन्वय सुन्दर और दुरालोकके साथ क्रमशः ही किया गया है। स्वभावोक्ति
बीक्षमाणः सितान् दन्तान् दाडिमीपुष्पलोहिते। ___ अवटीटे मखे तेषां भास्वत्काञ्चनतारके । इस पद्यमें वानरजातिके स्वाभाविक गुणोंका वर्णन होनेसे स्वभावोक्ति अलंकार है। इसी प्रकार नर्मदावर्णन, सुमेरुवर्णन, वनवर्णन आदिमें भी मानवीकरण किया गया है। आचार्यने अपने काव्यके आधारका स्वयं निरूपण करते हुये लिखा है
वर्द्धमानजिनेन्द्रोक्तः सोऽयमर्थो गणेश्वरम् । इन्द्रभूति परिणाप्तः सुधर्म धारणीभवम् ।। प्रभवं क्रमतः कीर्ति ततोऽनु(नोत्तरवाग्मिनम् ।
लिखितं तस्य संप्राप्य रवेर्यत्नोऽयमुद्गतः ।। १. पद्मचरित २०५३ २. वही १००।५३ । ३. पमचरित, ६११४ । ४. वही ११४१-४२ ।
२९० : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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वर्द्धमान जिनेन्द्र के द्वारा कहा हुआ यह अर्थ इन्द्रभूति नामक गौतम गणधरको प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् धारिणीके पुत्र सुधर्माचार्यको । तदनन्तर प्रभवको और पश्चात् श्रेष्ठ वक्ता कीर्तिवर आचार्यको उक्त अर्थ प्राप्त हुआ | आचार्य रविषेणने इन्हीं कीर्तिधर आचार्यके वचनोंका अवलोकन कर, इस 'पद्मचरितम्' की रचना की है।
यहाँ यह विचारणीय है कि पद्यमें आया हुआ कीर्तिघर आचार्य कौन है और उसके द्वारा रामकथा सम्बन्धी कौन-सा काव्य लिखा गया है ? जैन साहित्यके आलोक में उक्त प्रश्नों का उत्तर प्राप्त नहीं होता है। श्रीनाथूरामजी प्रेमीने इस ग्रन्थको रचना प्राकृत 'पउमचरिय के आधार पर मानी है। अतः संक्षेपमें यहो कहा जा सकता है कि यह एक सफल काव्य है, जिसकी रचना कवि आचार्य रविषेणके द्वारा की गयी है ।
भूगोलकी दृष्टि से भी यह ग्रन्थ अत्यधिक उपयोगी है। इसमें सृष्टिको अनादिनिधन बताया गया है और उत्सर्पण एवं अवसर्पण कालमें होने वाली वृद्धि हानिका कथन आया है । युगमानका वर्णन प्रायः 'तिलोयपण्णत्ति' के समान है । भोगभूमि और कर्मभूमिकी व्यवस्था भी उसी के समान वर्णित है। बताया है कि भोगभूमिके पर्वत अत्यन्त ऊँचे, पाँच प्रकारके वर्णोंसे उज्जवल, नाना प्रकारकी रत्नोंकी कान्तिसे व्याप्त एवं सर्वप्राणियोंको सुखोत्पादक होते हैं । नदियोंमें मगरमच्छ आदि नहीं रहते, पर कर्मभूमिमें यह व्यवस्था परिवर्तित हो जाती है ।
जटासिंहनन्दि
पुराण - काव्यनिर्माताके रूपमें जटाचार्यका नाम विशेषरूपसे प्रसिद्ध है । जिनसेन, उद्योतनसूरि आदि प्राचीन आचार्योंने जटासिंनन्दिकी प्रशंसा की हैं । जिनसेन प्रथमने लिखा है
वराङ्गनेव सर्वाङ्गर्वराङ्गचरितार्थवाक् ।
कस्य नोपादयेद् गाढमनुरागं स्वगोचरम् ।। '
जिस प्रकार उत्तम स्त्री अपने हस्त, मुख, पाद आदि अंगोंके द्वारा अपने विषय में गाढ़ अनुराग उत्पन्न करती है, उसी प्रकार बराङ्गचरितको अर्थपूर्ण वाणी भी अपने समस्त छन्द, अलंकार, रोति आदि अंगों अपने विषयमें किसी भी रसिक समालोचक के हृदय में गाढ़ राग उत्पन्न करतो है ।
जिनसेन द्वितीयने भी अपने आदिपुराणमें जटाचार्यका आदरपूर्वक स्मरण किया है । लिखा है
१. हरिवंशपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण १।३५ ।
Aaer और सारस्वताचार्य : २९१
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काव्यानुचिन्तते यस्य जटाः प्रबलवृत्तयः ।
अर्थानस्मान् वदन्तीव जटाचार्यः स नोऽवतात् । जिनकी जटारूप प्रबल-युक्तिपूर्ण वृत्तियाँ-टोकाएँ काव्योंके अनुचिन्तनमें ऐसी शोभायमान होती थी, मानों हमें उन काव्योंका अर्थ ही बतला रही हैं, इस प्रकारके वे आचार्य जटासिंह हमलोगोंको रक्षा करें।
उद्योतनसूरिने अपनी कुबलयमालामें वराङ्गचरितके रचयिताके रूपमें जटाचार्यका उल्लेख किया है ।
जेहि कार रमणिज्जे बरंग-पउमाण-चरिय वित्थारे ।
कह व ण सलाहणिज्जे ते कइणो अडिय-रविसेणे ॥२ इसी प्रकार धवल कविने भी जटाचार्यका आदर पूर्वक स्मरण किया है
मुणि महसेणु सुलोयणु जेण पउमरिउ मणि रविसेणेण ।
जिणसेणेण हरिवंसु पवित्तु जडिल मुणिणा बरंगचरित्त ।' चामुण्डरायने चामुण्डपुराणमें जटासिंहनन्दि आचार्यका वर्णन किया है और इसमें उन्होंने वराङ्गचरितके रचयिताके रूपमें जटासिंहनन्दिको माना है। जीवन-परिचय ___डॉ० ए० एन० उ'राध्येने भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूनाकी पत्रिका १४ वौं जिल्दके प्रथम-द्वितीय अंकमें वराङ्गचरित और उसके कर्ता जटासिंहनन्दिपर विस्तृत शोधनिबन्ध प्रकाशित किया था । तदनन्तर उन्हीं द्वारा सम्पादित उक्त ग्रन्थ सन् १९३८ में प्रकाशित हुआ | इसकी प्रस्तावनामें आपने लिखा है
"किसी समय निजाम स्टेटका 'कोपल' ग्राम, जिसे 'कोपण' भी कहते हैं, संस्कृतिका एक प्रसिद्ध केन्द्र था। मध्यकालीन भारतमें जैनोंमें इसकी अच्छी स्याति थी और आज भी यह स्थान पुरातन-प्रेमियोंके स्नेहका भाजन बना हआ है। इसके निकट पल्लकोगण्डु नामकी पहाड़ीपर अशोकका एक अभिलेख उत्कीणित है, जिसके निकट दो पद-चिह्न अंकित हैं। उनके ठीक नीचे
१. आदिपुराण १।५। २. कुवलयमाला, सिंथो सीरिज, अनुच्छेद छः पृ. ४ । ३. सी० पी० और परारको संस्कृतप्रतियोंका कैटलॉग, पृ० ७६४ । २९२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी वाचार्य-परम्परा
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पुरानी कशड़में दो पंक्तिका एक अभिलेख उत्कीर्ण है, जिसमें लिखा है कि "वावय्यने जटासिंहनन्द्याचार्यके पदचिन्हों को तैयार कराया" । "
इससे विदित है कि जटासिंहनन्द्याचार्यने 'कोप्पल' में समाधिमरण धारण किया था। डॉ० उपाध्येका अनुमान है कि ये जटासिह्नन्दि ही प्रस्तुत महाकवि हैं। कसाहित्य में आये हुये इनके विविध उल्लेख इन्हें कर्नाटक अधिवासी सिद्ध करते हैं। साथ ही यह भी सिद्ध होता है कि कोप्पलमें इन्होंने अपना अन्तिम जीवन का दो रित भागे हुये वर्णनोंसे भो ये दाक्षिणात्य सिद्ध होते हैं ।
स्थितिकाल
ग्रन्थकार अपने परिचय और ग्रन्थरचना - समय के सम्बन्ध में मौन हैं। उत्तरकालीन लेखकोंके उल्लेखोंके आधारपर ही इनके समयका अनुमान किया जाता है । उद्योतनसूरिकी 'कुवलयमाला', जिनसेन प्रथमके 'हरिवंशपुराण' एवं जिनसेन द्वितीय के 'आदिपुराण' के उल्लेखों के अतिरिक्त उत्तरवर्ती पम्प, रायमल्ल के मन्त्री और सेनापति चामुण्डराय, धवल, नयसेन, पार्श्वपण्डित, महाकवि जन, गुणवर्म, कमलभव एवं महाबल कवियोंने भी वराङ्गवरित या जटाचार्य अथवा दोनोंका स्मरण किया है । अतएव यह निष्कर्ष निकालना सहज है कि जटाचार्य और उनके बराङ्गचरितकी ख्याति ई० सन् को आठवीं शती के पूर्व ही हो चुकी थी । यतः उद्योतनसूरिका समय ई० सन् ७७८ है । जिनसेन प्रथमने हरिवंशकी समाप्ति सन् ७८३ ई० में की थी। आदिपुराण (८३८ ई०) में जिनसेन द्वितीयने जटाचार्यके जिस स्वरूपका निर्देश किया है, उस स्वरूपसे प्रतीत होता है कि इनकी लहाती हुई जटाएँ लम्बी-लम्बी थीं। इसी कारण ये जटिल या जटाचार्य कहे जाते थे । इसके पश्चात् तो जटाचार्य और उनके बराङ्गचरितकी ख्याति इतनी बढ़ी कि १०वीं शताब्दी के कन्नड़ महाकवि पम्पने इनका आदर पूर्वक स्मरण किया और चामुण्डरायने तो वराङ्गचरितके उद्धरण हा दे डाले हैं । ११ वीं और १२ वीं शती के अपभ्रंशके महाकवि ववल और कन्नड़ के महाकवि नयसेन ने भी इनका स्मरण किया है । १३ वीं शती में वराङ्गचरित कवियोंका आदर्श काव्य बन गया था । फलतः पार्श्वपण्डित ( ई० १२०५) जन्न ( ई० सन् १२०९), गुणवमं ( ई० १२३०), कमलभव ( अनुमानत: ई० १२३५) और महाबल ( ई० १२५४) नं गौरवके साथ इनका स्मरण किया है। ये उल्लेख वराङ्गचरित और उसके कर्त्ता जटाचार्य की व्याति एवं लोकप्रियताको प्रकट
१. वराङ्गचरित प्रस्तावना, १० ६३ ।
₹
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : २९३
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करते हैं । तथा सभी भाषा और सम्प्रदायोंके कवियों द्वारा उनका आदर किया जाना बताते हैं । उद्योतनसूरिने इनका उल्लेख रविषेणसे पहले किया है । उससे अनुमान है कि आचार्य रविषेणसे वराङ्गचरितकार पूर्ववर्ती हैं और अधिक प्रसिद्ध रहे होंगे । अतः कहा जा सकता है कि जेन संस्कृत-प्रबन्ध-काव्यके ये ही आद्य रचयिता है। जिस प्रकार आचार्य समन्तभद्र संस्कृतके आद्य स्तुतिकार हैं, उसी प्रकार जटासिह्नन्दि आदि प्रबन्ध-काव्यरचयिता हैं ।
पद्मचरित और वराङ्गचरित इन दोनोंकी शैली और स्थापत्य के अध्ययन से ऐसा भी अवगत होता है कि वराङ्गचरित पद्मचरितके पश्चात् लिखा गया है । यतः पद्मचरितका स्थापत्य पुराणका है, तो वराङ्गचरितका स्थापत्य पुराणकाव्यका है। पुराण और पुराण- काव्यमें पर्याप्त अन्तर है । पुराणमें कथा सर्ग - बद्ध होती है और साथ ही उसमें सानुबन्धता पायों जाता है। वराङ्गचरितकी कथा में अनुबन्धों की कमी है। अतः हमारा अनुमान है कि बरांगचरित पद्मचरितसे कम-से-कम बोस वर्ष बाद लिखा गया है। संस्कृत काव्यक्षेत्र में रामायण, व महाभारतके पश्चात् अलंकृतकाव्यों का प्रादुर्भाव होने लगा था और भारवि जैसे कवि किरातार्जुनीय जैसे काव्योंका प्रणयन कर चुके थे । वराङ्गचरित पर 'किरात' के स्थापत्यका गहरा प्रभाव है । छन्दों का प्रयोग तो 'किरात' के समान है ही, पर युद्ध और वस्तु वर्णन भी 'किरात' के समकक्ष है। अतएव जटासिंहनन्दिका समय भारविसे कुछ पश्चादूवर्ती अर्थात् ७वीं शताब्दीका अन्तिम पाद होना चाहिये | उद्योतनसूरि के निर्देशले ये ९ वीं शताब्दी से पूर्ववर्ती हैं। अतएव इनका समय ७वींका उत्तरार्ध एवं वीं शताब्दीका पूर्वार्द्ध है ।
१. नयसेनने धर्मामृत के प्रारम्भ में नदम पञ्चसे लेकर उन्नतालीसवें पच तक गुरुपरम्पराका स्मरण किया है। यह निम्न प्रकार है- अबलि गुणधरभट्टारक, आर्थमंक्ष, नागहस्ति, घरसेनाचार्य, पुष्पदन्त भूतबल, जयनन्द कुन्दकुन्दाचार्य, जटासिंहनन्दि, कूधी भट्टारक, समन्तभद्र, पूज्यपाद, विद्यानन्द, सिद्धसेन श्रुतकीर्ति, प्रभाचन्द्र, जिनसेन पण्डिल, यतिवृषभ, शुभचन्द्र, सिद्धान्तदेव, रामनन्दि सैद्धान्तिक जिनसेनाचार्य, इन्द्रसेन, भेरुण्ड पण्डित, सिद्धातेष, वादिराज, मेघचन्द्र, कीर्तिदेव
राजसिह, पचनन्दि, सागरचन्द, वासपूज्य भट्टारक, प्रभाचन्द्र भट्टारक. चारुसेनाचार्य अमोघचन्द्र, रामसेनवृत्ति, कनकनन्दि, अकलंक देव, माघनन्दि, पम्प, रन्न, जन्न और गुणधर्मका स्मरण किया है। नयसेनका प्रस्तुत ग्रन्थ शक सं० १०३७ नन्द संवत्सर के भाद्रपद के शुक्लपक्ष में हस्तार्क दिनको समाप्त हुआ हूँ । प्रन्धका रचनाकाल ग्रन्थमें अंकित है ।
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रचनाएँ और प्रतिभा
जटासिनन्दिको वराङ्गचरितके अतिरिक्त अन्य कोई रचना उपलब्ध नहीं है । पर वराङ्गचरितको प्रौढ़ता और उसमें प्रसंगवश आये हुये सैद्धान्तिक वर्णना के अवलोकनसे यह विश्वास नहीं होता कि इस कविको यही एक रचना रही होगी। हमारे इस अनुमानकी पूष्टि योगेन्द्र रचित 'अमृताशीति में जटाचार्यके नामसे आये हुए निम्नलिखित उद्धरणसे भी होती है'जटासिंहनन्धाचार्यवृत्तम्
ताबक्रियाः प्रवर्तन्ते यावदद्वैतस्य गोचरं ।
अद्वये निष्फले प्राप्ते निष्क्रियस्य कुतः क्रिया॥ यह पद्य वराङ्गचरितमें नहीं मिलता है। जटाचार्य के नामसे उल्लिखित होने के कारण, जिसमें यह पद्य रहा है, ऐसी अन्य कोई रचना होनी चाहिए ।
कदिने वराङ्गचरितको चतुर्वर्ग समन्वित, सरल शब्द-अर्थ गुम्फित धर्मकथा कहा है
सर्वज्ञभाषितमहानदधीतबुद्धिः
स्पष्टेन्द्रियः स्थिरमतिमितबाङ्मनोशः । मृष्टाक्षरो जितसभः प्रगृहीतवाक्यो ।
वक्तुं कथां प्रभवति प्रतिभादियुक्तः ।। इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते ।
स्फुटशब्दार्थसंदर्भ वराङ्गचरिताश्रिते ।। जनपद-नगर-नृपति-नृपपत्नीवर्णनो नाम प्रथमः सर्ग: 1 वराङ्गचरित एक पौराणिक महाकाव्य है। इसमें पुराणतत्त्व और काव्यतत्त्वका मिश्रण है । इसकी कथावस्तुके नायक २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ तथा श्रीकृष्णके समकालिक वराङ्ग है। नायकमें धीरोदात्तके सभी गुण विद्यमान हैं। इस पौराणिक महाकाव्यमें नगर, ऋतु, उत्सव, कोड़ा, रति विप्रलम्भ, विवाह, जन्म, राज्याभिषेक, युद्ध, बिजय आदिका वर्णन महाकाव्यके समान ही है । इसमें ३१ सर्ग हैं। पर लक्षण-ग्रन्थोंके अनुसार महाकाव्यमें ३० सर्गसे अधिक नहीं होने चाहिए। नायक वराङ्गमें धर्मनिष्ठा, सदाचार, कर्तव्यपरायणता,
१. अमृताशीति, माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, पु० २१, पृ० ५८, पद्म ६७ २. घराङ्गचरित, मा० दि० जन मन्यमाला, १९३८ ।
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सहिष्णुता, विवेक, साहस, लौकिक और आध्यात्मिक शत्रुओं पर विजयप्राप्ति आदि धीरोदात्त नायक के गुण पाये जाते हैं ।
कथावस्तु
विनीत देशकी रम्या नदीके तटपर स्थिति उत्तमपुर में भोजनंगी महाराज धर्मसेन राज्य करते थे | इनकी पट्टरानोका नाम गुणवती था, इस महादेवी के गर्भमे कुमार वराङ्गका जन्म हुआ था। वयस्क होनेपर वराङ्गकुमारका विवाह देश कुलीन कन्याओं के साथ कर दिया गया । वरदत्त नामक केवली से धर्मोपदेश सुनकर वराङ्गने अणुव्रत ग्रहण किये। जब वराङ्गको युवराज पद दिया गया, तो उसकी सौतेली माता तथा भाई सुषेणको ईर्ष्या हुई। इन्होंने सुबुद्धि मन्त्रीसे मिलकर षड्यन्त्र किया, फलतः मन्त्री द्वारा सुशिक्षित एक दुष्ट घोड़ा वराङ्गको लेकर जंगलकी ओर भागा और वराङ्ग सहित एक कुएँ में गिर गया । वराङ्ग किसी प्रकार कुएँसे निकलकर चला तो दुर्गम वनमें एक व्याघ्नने उसका पीछा किया | जंगली हाथीकी सहायता से उसकी रक्षा होती है । अनन्तर एक यक्षिणी उसे एक अजगर से बचाती है । अरण्य में भटकते हुये वराङ्ग बलिके हेतु भील द्वारा पकड़ लिया जाता है; किन्तु सांपसे दंशित भिल्लराजके पुत्रका विष उतार देनेके कारण उसे मुक्ति मिल जाती है । कुमार वराङ्ग सेठ सागरबुद्धिके बंजारे से मिलता है और उसकी जंगली डाकुओंसे रक्षा करता है। फलतः कश्चिद्भटके नामसे अज्ञातवास करने लगता है । हाथी के लोभसे मथुराधिपतिले ललितपुर पर आक्रमण किया, तो कश्चिद् भटने उसका सामना कर अपनी वीरताका परिचय दिया । अतएव ललितपुराधिपने आधा राज्य देकर वराङ्गका विवाह अपनी कन्यासे कर दिया।
वरांगके लुप्त होनेपर सुषेणको यौवराज पद प्राप्त होता है, पर योग्यताके अभाव में उसे शासनप्रबन्धमें सफलता प्राप्त नहीं होती । धर्मसेनको वृद्ध एवं उत्तराधिकारी शासक सुषेणको कायर समझकर वकुलाधिप उत्तमपुर पर आक्रमण करता है | अतः धर्मसेन ललितपुराधिपसे सैनिक सहायता मांगता है । इस अवसर पर वराङ्गकुमार उपस्थित हो वकुलाधिपको परास्त कर देता है। जनता उसका स्वागत करतो है और वह विरोधियोंको क्षमाकर पिताकी अनुमतिसे दिग्विजय के लिए प्रस्थान करता है। एक नये समृद्ध राज्यकी वह स्थापना करता है, जिसकी राजधानी सरस्वती नदीके तटपर स्थित आनतंपुरको बनाता है। कुमार वराङ्ग यहाँ पर एक विशाल जिन मन्दिरका निर्माण कराता १. साहित्यदर्पण ३३२ ।
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है और धार्मिक आयोजन पूर्वक निम्बप्रतिष्ठाविधिको सम्पन्न कराता है । नास्तिक मतोंका खण्डन कर मंत्रियोंके संदेहको निर्मूल कर उन्हें दृढ़ श्रद्धानी बनाता है । कुछ दिनोंके अनन्तर कुमार वरांगकी अनुपमा महारानीको कुक्षिसे पुत्रका जन्म होता है, जिसका नाम सुगान रखा जाता है ।
एक दिन कुमार बरांग आकाशसे टूटते हुए तारेको देखकर विरक्त हो जाता है और उसे संसारको अनित्यताका भान होता है । वह अपने पुत्र सुगात्र को राजसिंहासन सौंपकर वरदत्त केवलोके समक्ष जाता है और वहां दिगम्बरो दीक्षा ग्रहण कर लेता है । रानियाँ भी धार्मिक दोक्षा धारण करता हैं । वराङ्ग कुमार उग्र तपश्चरण करता है और शुक्लध्यान द्वारा कर्मशत्रुओं को परास्त कर सद्गति लाभ करता है ।
समीक्षा
प्रस्तुत 'वरांमचरित' के रचयिताने इसे धर्मकथा कहा है । पर वस्तुतः है यह पौराणिक महाकाव्य । इसमें पौराणिक काव्यके तत्त्व समवेत हैं । कविने आरम्भमें ही कहा है
द्रव्यं फलं प्रकृतमेव हि सप्रभेदं
क्षेत्र च तीर्थमथ कालविभागभावी । अङ्गानि सप्त कथयन्ति कथाप्रबन्धे
तेः संयुक्ता भवति युक्तिमती कया सा || ---बराङ्गचरितम् ११६
स्पष्ट है कि कविने इसे धर्मकथा - पौराणिक कथाकाव्य कहकर इसमें पुराणके सात अंगों का समावेश किया है । कथा रामबद्ध है तथा कथामें नाटककी सन्धियों का नियोजन भी है। आरम्भसे बराङ्गके जन्म तकको कथा में मुखसन्धिका नियोजन है । वरांगका युवराज होना और ईष्यांका पात्र बनना प्रतिमुख- सन्धि है । घोड़े द्वारा उसका अपहरण, कुँएमें गिराया जाना, कुँएसे निकल कर बाहर आना, व्याघ्र, भिल्ल आदिके आक्रमणोंसे उसका रक्षित रहना तथा कुमार वराङ्गका सागरदत्त सेठके यहाँ गुप्तरूपसे निवास करना, बकुलाधिप का उत्तमपुर पर आक्रमण करना और कुमार द्वारा प्रतिरोध करने तककी कथावस्तु में गर्भसन्धि है। इस सन्धिमें फल छिपा हुआ है और प्राप्त्याशा और पताकाका योग भी वर्तमान है । कुमारकी दिग्विजय, राज्यस्थापना तथा प्रतिद्वन्द्वी सुषेण द्वारा शत्रुताका त्याग नियताप्ति है । दिग्विजयके कारण
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विरोधियोंका उन्मूलन, समृद्धि और अभ्युदयके साधनोंके सद्भावके कारण, आत्मकल्याणके साघनोंका विरलत्व, जिनालय निर्माण और जिनबिम्बप्रतिष्ठा सम्पन्न होने पर भी निर्वाणरूप फलकी प्राप्तिको असन्निकटता फल प्राप्ति में बाधक है । अतएव इस स्थितिको विमर्शसन्धिकी स्थिति कहा जा सकता है । वाराङ्गका विरक्त होकर तपश्चरण करना और सद्गतिलाभ निर्वहणसन्धि है | अतः सामान्यतः कथावस्तुमं स्यटन सन्निहित है, पर चतुर्थ सर्गसे दशम सगं पर्यन्त तथा २६वें और २७वें सर्गको कथावस्तुका मुख्य कथासे कोई सम्बन्ध नहीं है। इन सगक हटा देने पर भी, कथावस्तुमें कोई कमी नहीं आती है । ये सगँ केवल जैन सिद्धान्त के विभिन्न तत्वोंका प्रतिपादन करने के लिये ही लिखे गये हैं ।
1
यक्षिणीका आगमन और कुमारका अजगरसे रक्षा करना, हाथीकी सहायतासे व्याघ्र से बचना आदि अलौलिक तत्त्व हैं । इसी प्रकार घोड़े द्वारा कुमारका अपहरण, मन्त्र द्वारा भिल्लराजके पुत्रका निर्विषीकरण प्रभृति आदि अप्राकृतिक तत्त्व भी समाविष्ट हैं । प्रकृतिचित्रण और वस्तुव्यापारवर्णनमें कवि प्रत्येक वस्तुको सूक्ष्म से सूक्ष्म विगत देता हुआ दृश्योंका तांता बाँधता चलता है । युद्ध, अटवी आदिके वर्णन तो बाल्मीकि और व्यासके समान सांगोपांग हैं। चरित्र चित्रण में कवि आवृत्ति, अनुप्रास आदिका प्रयोग करता तथा सदुपदेश प्रस्तुत करता हुआ आगे बढ़ता है । वस्तुचित्रणका निम्नलिखित उदाहरण दृष्टव्य है
जलप्रभाभिः कृतभूमिभागां प्राचीनदेशोपहितप्रबालाम् । सर्वाजं नोपात्तकपोलपालीं वैडूर्यसव्यानवतीं परार्थ्याम् ॥ हेमोत्तमस्तम्भवृतां विशालां महेद्रनीलप्रतिबद्धकुम्भाम् । तां पद्मरागोपगृहीतकण्ठां विशुद्धरूपोन्नतचारुकूटाम् ॥ द्विजातिवक्त्रोद्गलितप्रलब्धां मुक्ताकलापच्छुरितान्त रालाम् । मन्दानिला कम्पिचलत्पताकामात्मप्रभा पितसूर्यभासम् ॥ नानाप्रका रोज्जवल रत्नदण्डां विलासिनीधारितचामरा ह्वाम् । आरुह्य कन्यां शिविकां पृथुश्रीः पुरीं विवेशोत्तमनामधेयाम् ' ॥ पालकीका घरातल पानी के समान रंगों का बनाया गया था, फलतः वह जलकुण्डको भ्रान्ति उत्पन्न करता था । उसको बन्दनवारमें लगे हुए मूंगे दूर देशसे लाये गये थे । उसके कबूतरों युक्त छज्जे बनाने में तो सारे संसारका धन ही खर्च हो गया था। उसकी छत वैदूर्य मणियोंसे निर्मित थी । स्वर्णं १. वराङ्गचरित २।५३-५६ ।
२९८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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निर्मित स्तम्भों पर महेन्द्रनीलमणिके कलश तथा ऊपरी भाग पद्मरागमणिसे खचित था और रजतके कलश सुशोभित थे। ऊपरी भागमें मणियोंके पक्षी बने थे, जिनके मुखस गिरते हुए मुक्ताफल चित्रित किये गये थे । पालको का मध्यभाग मुक्तामणियोसे व्याप्त था । ऊपर लगी हुई पताकाएं लहरा रही थीं। उठानेके दण्डोंमें नाना प्रकारके रत्न जटित थे।
स्पष्ट है कि कल्पनाके ऐश्वर्य के साथ-साथ कविका सूक्ष्म निरीक्षण भी अभिनन्दनीय है। पालकोंके स्तम्भों पर ऊपर और नीचे दोनों और कलशोंका विवेचन, कविकी दष्टिकी जागरूकताका परिचायक है । यद्यपि इस प्रकारके वर्णन कान्यकी रसपेशलताको वृद्धि नहीं करते, तो भी वर्णनकी मंजुल छटा विकीर्ण कर पाठकोंको चमत्कृत करते हैं। __ कल्पना और वर्णनोंके स्रोत कविने बाल्मीकि और अश्वघोषसे ग्रहण किय हैं। वाल्मीकि रामायण में जिस प्रकार शर्पणखा राम-लक्ष्मणसे पति बननेकी प्रार्थना करता है, उसी प्रकार पक्षिणी इस काव्यमें वराङ्गसे । निश्चयतः इस कल्पनाका स्रोत बाल्मीकि रामायण है। ___ वर्णन, धाभिक, तथ्य और काव्य चमत्कारोंके रहने पर भी कविने रसाभिव्यक्तिमें पुरा कौशल प्रदर्शित किया है । वरांड और उसकी नवोढा पत्नियोंकी केलि क्रीड़ाओके चित्र में संभोग-शृंगारका सजीव रूप प्रस्तुत किया गया। है। कविने त्रयोदश सर्गमें वीभत्स रसका बहुत ही सुन्दर निरूपण किया है। पुलिन्दका वस्तीमें जन कुमार वराङ्ग पहुँचा, तो उसे वहीं पुलिन्दराजके झोपड़ेके चारों ओर हाथियोंके दाँतोंकी बाढ़, मृगोंको अस्थियोंके ढ़ेर, मांस और रक्तसे प्लावित शवों द्वारा उसका अच्छादन, बैठनेके मण्डपमें चर्वी, औते, नसनाड़ियों के विस्तार तथा दुर्गन्ध पूर्ण वातावरण मिला। कविने यहां पुलिन्दराजके झोपड़ेको वीभत्सताका मूर्तरूप चित्रित किया है। पुलिन्दके भोषण कारागारका चित्रण भी कम वीभत्सता उत्पन्न नहीं करता है।
कविने चतुर्दश सगंमें वीररसका पूर्ण चित्रण किया है। पुलिन्दराजके साथ उसके सम्पन्न हुए युद्धका समस्त विभाब और अनुभावों सहित निरूपण किया गया है।
इस काव्यमें वसन्ततिलका, उपजाति, पुष्पित्ताया, महर्षिणी, मालिनी, १. वराङ्गचरित, सर्ग २, पद्य ८९.५४ । २. वहीं सर्ग १३ श्लोक ५०-५१ । ३. वहीं सर्ग १३ श्लोक ५६-५७ । ४, वही सर्ग १६ श्लोक ३५-४६ ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : २९९
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भुजंगप्रयात, वंशस्थ, अनुष्टुप्, मालभारिणी और द्रुतविलम्बित छन्दोंका प्रयोग हुआ है । कविको उपजाति छन्द बहुत प्रिय है । भाषामें जहाँ पाडित्य है, वहाँ व्याकरण-स्खलन भी पाया जाता है । इस काव्यके प्रारम्भके तीन सगोंमें कविकी अपूर्व काव्यप्रसिभा परिलक्षित होती है 1
आचार्य अकलंकदेव प्रास्ताविक
जैन परम्परामें यदि समन्तभद्र जैन न्यायके दादा है, तो अकलंक पिता। ये बड़े प्रखर तार्किक और दार्शनिक थे। बौद्ध दर्शनमें जो स्थान धर्मकोतिको प्राप्त है, जैन दर्शनमें वही स्थान अकलंकदेवका है। इनके द्वारा रचित प्राय: सभी ग्रन्थ जैन दर्शन और जैन न्याय विषयक हैं। इनके इन ग्रन्थोंको, इन विषयोंका कार' ग्रन्थ कहा जा सकता
. अकलंकके सम्बन्ध में श्रवणवेलगोलाके अभिलेखोंमें अनेक स्थान पर स्मरण आया है। अभिलेखसंख्या ४७ में लिखा है
"बट्तकेंवकलङ्कदेवविबुधः साक्षादयं भूतले." अर्थात् अकलंकदेव षट्दर्शन और तर्कशास्त्रमें इस पृथ्वी पर साक्षात् विबुध (बृहस्पतिदेव) थे।
एक अन्य अभिलेखमें इनके द्वारा बौद्धादि एकान्तवादियोंको परास्त किये जानेकी चर्चा की गयी है
भट्टाकलङ्कोऽकृत सौगतादिदुर्वाक्यपङ्कस्सकलभूतं ।
जगत्स्वनामेव विधातुमुच्चैः सार्थ सामन्तादकलङ्कमेव ।। निश्चयतः अकलंकदेव द्वास जैन न्यायका सम्बर्द्धन हुआ है। अभिलेख नं. १०८ में पूज्यपादके पश्चात् अकलंकदेवका स्मरण किया गया है और मिथ्यात्व अन्धकारको दूर करनेके लिये सूर्यके तुल्य बताया गया है-- ततः परं शास्त्रविदां मुनीना
मग्रेसरोऽभूदकलङ्कसूरिः । मिश्यान्धकारस्थगिताखिलाः
प्रकाशिता यस्य वचोमयूखैः ॥ १. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख ४७, पृ० ६२, प ३० । २. वही, पु० १९८-१९९, पद्य २१ ।। २. वही, पृ. २११, पच १८, अभिलेख १०८ । ३०० : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा
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जीवन-परिचय
अकलंक मान्यष्क राजा, शुभम भात्री पुरुषालमत्र थे । 'राजापलिकथे' में इन्हें काञ्चोंके जिनदास नामक ब्राह्मणका पुत्र कहा गया है। पर तत्वार्थवातिकके प्रथम अध्यायके अन्त में उपलब्ध प्रशस्तिसे ये लघहब्बनृपत्तिके पुत्र प्रतीत होते हैं। प्रशस्तिमें लिखा है.....
जीयाच्चिरमकल'ब्रह्मा लघहल्चनपतिवरतनयः ।
अनबरतनिखिलजननुसविधः प्रशस्तजनहृद्यः ।। ये लघुहव्वनृपति कौन हैं और किस प्रदेशके राजा थे, यह इस पद्यसे या अन्य स्रोनसे ज्ञात नहीं होता। नामसे इतना प्रतीत होता है कि उन्हें दक्षिणका होना चाहिए और उसी क्षेत्रके वे नृपति रहे होंगे।
प्रभाचन्द्र के कथाकोषमें अकलंकको कथा देते हुए लिखा है कि एकबार अष्टाह्निका पर्वके अबसरपर अकलंकके माता-पिता अपने पुत्र अकलंक और निकलक महित मुनिराजके पास दर्शन करने गये। धर्मोपदेश श्रवण करनेके पश्चात उन्होंने आठ दिनोंके लिये ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया और पुत्रोंको भी ब्रह्मचर्यव्रत दिलाया । जब दोनों भाई वयस्क हए और माता-पिताने उनका विवाह करना चाहा, तो उन्होंने मुनिके समक्ष ली गयी प्रतिज्ञाकी याद दिलायो और विवाह करनेसे इन्कार कर दिया। पिताने पुत्रोंको समझाते हुये कहा कि "वह व्रत तो केबल आठ दिनोंके लिये ही ग्रहण किया गया था । अतः विवाह करने में कोई भी रुकावट नहीं है ।" पिताके उक्न वचनोंको सुनकर पुत्रोंने उत्तर दिया-"उस समय, समय-सोमाका जिक नहीं किया गया था। अत: ली गयी प्रतिज्ञाको तोड़ा नहीं जा सकता।"
पिताने पुन: कहा-"वत्स ! तुम लोग उस समय अबुद्ध थे। अत: ली गयी प्रतिज्ञामें समय-सोमाका ध्यान नहीं रखा । वहाँ लिये गये यतका आशय केवल आठ दिनोंके लिये ही था, जीवन-पर्यन्तके लिये नहीं । अतएव विवाह कर तुम्हें हमारी इश्छाओंको पूर्ण करना चाहिये।"
पत्र बोले-"पिताजी! एक बार ली गयी प्रतिज्ञाको तोड़ा नहीं जा सकता । अत: यह व्रत तो जीवन-पर्यन्त के लिये है । विवाह करनेका अब प्रश्न ही नहीं उठता।"
पुत्रोंको दृढ़ताको देखकर माता-पिताको आश्चर्य हुआ। पर वे उनके अभ्युदयका ख्यालकर उनका विवाह करने में समर्थ न हुए। अकलंक और निष्कलंक ब्रह्मवर्यकी साधना करते हुए विद्याध्ययन करने लगे।
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काञ्चीपुरीमें बौद्धधर्मके पालक पल्लवराजको छत्रछायामें अकलंकने बौद्धन्यायका अध्ययन किया । अकलंक शास्त्रार्थी विद्वान् थे । इन्होंने दीक्षा लेकर सुधापुरके देशीयगणका आचार्यपद सुशोभित किया । अकलंकने हिमशीतल राजाकी सभामें शास्त्रार्थ कर तारादेवीको परास्त किया ।'
'ब्रह्म नेभिदत्तकृत आराधनाकथाकोष और मल्लिषेण-प्रशस्तिसे भी उक्त तथ्य पुष्ट होता है। मल्लिषेण-प्रशस्तिका अंकनकाल शक सं० १०५० है । अतएव ई० सन् १०७१ के लगभग अकलंकदेवके सम्बन्धमें उक्त मान्यता प्रचलित हो गयी थो
तारा येन विनिजिता घट-कुटी-गढ़ावतारा सम बौद्धों धूत-पोठ-पीडित-कुदृग्देवात्त-सेवाञ्जलिः । प्रायश्चित्तमिवाज्रि-वारिज-रज-स्नानं च यस्याचरत्
दोषाणां सुगतस्स कस्य विषयो देवाकलयुः कृती ॥ चूणि॥ यस्येदमात्मनोऽनन्य-सामान्य-निरवद्य-विद्या-विभवोपवर्णनमाकण्यते।।
राजन्साहसतुङ्ग सन्ति बहवः श्वेतातपत्रा नृपाः किन्तु त्वत्सदशा रणे विजयिनस्त्यागोन्नता दुल्लभाः। त्वद्वत्सन्ति बुधा न सन्ति कवयो वादोश्वरा वाग्मिनो
नाना-शास्त्र-विचारचातुरधियः काले कलो मद्विधाः' ।। नेमिदत्तके आरावनाकथाकोषमें बताया है-'मान्यखेटके राजा शुभतुंग थे। उनके मंत्रीका नाम पुरुषोत्तम था । पद्मावती उनकी पत्नी थी । पद्मावतीके गर्भसे दो पुत्र उत्पन्न हुए-अकलंक और निष्कलंक । अष्टाहिका महोत्सवके प्रारम्भमें पुरुषोत्तम मन्त्री सकुटुम्ब रविगुप्त नामक मुनिके दर्शनार्थ गये और वहां उन्होंने पुत्रों सहित आठ दिनोंका ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया। पुवावस्था होनेपर पुत्रोंने विवाह करनेसे इन्कार कर दिया और विद्याध्ययनमें संलग्न हो गये । उस सयय बौद्धधर्मका सर्वत्र प्रचार था । अतएव वे दोनों महाबोधि-विद्यालयमें बौद्ध-शास्त्रोंका अध्ययन करने लगे।
एक दिन गुरुमहोदय शिष्योंको सप्तभंगो-सिद्धान्त समझा रहे थे, पर पाठ अशुद्ध होनेके कारण वे उसे ठीक नहीं समझा सके । गुरुके कहीं चले जाने पर अकलंकने उस पाठको शुद्ध कर दिया। इससे गुरुमहोदयको उनपर जैन होनेका सन्देह हमा। कुछ दिनों में उन्होंने अपने प्रयत्नों द्वारा उनको जैन प्रमाणित कर लिया। दोनों भाई कारागृहमें बन्द कर दिये गये । रात्रिके १. जैन शिलालेखसंग्रह, प्रथमभाग, अभिलेख ५४, पृ० १०४, पद्य २०-२१ । ३०२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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समय दोनों भाईयोंने कारागृहसे निकल जानेका प्रयत्न किया। वे अपने प्रयत्नमें सफल भी हुये और कारागृहसे निकल भागे । प्रातःकाल ही बोद्ध गुरुको उनके भाग जानेका पता चला । उन्होंने चारों ओर घुड़सवारोंको दौड़ाकर दोनों भाईयोंको पकड़ लानेका आदेश दिया ।
घुड़सवारों ने उनका पीछा किया। कुछ दूर आगे चलन पर दोनों भाईयोने अपने पीछे आनेवाले घुड़सवारोंको देखा और अपने प्राणोंकी रक्षा न होते देख अकलंक निकटके एक तालाब में कूद पड़े । और कमलपत्रोंसे अपने आपको आच्छादित कर लिया । निष्कलंक भी प्राणरक्षाके लिये शोघ्रतासे भाग रहे थे। उन्हें भागता देख तालाबका एक धोबी भी भयभीत होकर साथ-साथ भागने लगा। घुड़सवार निकट आ चुके थे । उन्होंने उन दोनोंको शीघ्र ही पकड़ लिया और उनका वध कर डाला। घुड़सवारोके चले जाने पर, अकलंक तालाबसे निकल निभय होकर भ्रमण करने लगे।
कलिंग देशके रतनसंचयपुरका राजा हिमशीतल था। उसकी रानी मदनसुन्दरी जिनधर्मकी भक थी। वह बड़े उत्साहके साथ जैन रथ निकालना चाहती थो । किन्तु बौद्ध गुरु रथ निकलने देनेके पक्षमें नहीं थे। उनका कहना था कि कोई भी जन विद्वान जब तक मुझे शास्त्रार्थ में पराजित नहीं कर देगा, तबतक रथ नहीं निकाला जा सकता है | गुरुके विरुद्ध राजा कुछ नहीं कर सकता था । बड़े धर्मसंकटका समय उपस्थित था । जब अकलंकको यह समाचार मिला, तो वे राजा हिमशीतलकी सभामें गये और बौद्ध गुरुसे शास्त्रार्थ करनेको कहा । दोनोंमें छ: मास तक परदेके अन्दर शास्त्रार्थ होता रहा । अकलंकको इस शास्त्रार्थसे बड़ा आश्चर्य हुआ | उन्होंने इसका रहस्य जानना चाहा । उन्हें शोध्न हो ज्ञात हो गया कि बौद्ध गरुके स्थान पर, परदेके अन्दर घड़े में बैठी बौद्धदेवो तारा शाल्त्रार्थ कर रही है। उन्होंने परदेको खोलकर घड़ेको फोड़ डाला। तारादेवो भाग गयी और बौद्ध गुरु पराजित हुए। जनरथ निकाला गया और जैनधर्मका महत्त्व प्रकट हुआ ।' ।
'राजावालकथे'में भी उक्त कथा प्रायः समान रूपमें मिलती है। अन्तर इतना ही है कि काञ्चीक बौद्धोने हिमशीतलकी सभामे जैनोसे इसी शतं पर शास्त्रार्थ किया कि हारने पर उस सम्प्रदायके सभी मनुष्य कोल्हमें पेलवा दिये दिये जायं । इस कथाक अनुसार यह शास्त्रार्थ १७ दिनों तक चला है। अकलकको कुसूमाण्डिनी देवाने स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि तुम अपने प्रश्नोंको प्रकारान्तरस उपस्थित करने पर जीत सकोगे। अकलंकने वैसा ही किया और वे विजयी हुए । बौद्ध कलिंगसे सिलोन चले गये ।
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उपर्युक्त कथानकोंसे यह स्पष्ट है कि अकलंकदेव दिग्विजयी शास्त्रार्थी विद्वान थे। मल्लिषेण-प्रशस्तिके दूसरे पद्यमें आया है कि राष्ट्रकूटवंशी राजा , साहसतुंगकी सभा में उन्होंने सम्पूर्ण बौद्ध विद्वानोंको पराजित किया । काञ्चीके पल्लववंशो राजा हिमशीतलको राजसभामें भी उन्होंने अपूर्व विजय प्राप्त की थी । इसी कारण विद्यानन्दने अफाकफो सकतनकायमचूदमाग कहा है ।
समय-निर्धारण-अकलंकदेवके समयके सम्बन्धमें दो धारणाएं प्रचलित हैं। प्रथम धारणाके प्रवर्तक डा० के० बी०' पाठक हैं और दूसरी धारणाके प्रवर्तक प्रो. श्रीकण्ठ शास्त्री तथा आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार हैं। डा. पाठकने मल्लिषेण-प्रशस्तिके 'राजन् साहसतुंग' श्लोकके आधार पर इन्हें राष्ट्रकृट-बंशी राजा दन्तिदुर्ग या कृष्णराज प्रथमका समकालीन सिद्ध किया है तथा अकलंकचरितके निम्नलिखित पद्यमें आये हुए "विक्रमार्क' पदका अर्थ शक संवत् किया है
विक्रमार्कशकाब्दीयशतसप्तप्रमाजुषि ।
काले अकलंकयतिनो बौद्धर्वादो महानभूत् ।। अतः इनके मतानुसार अफलंका समय शक सं० ७०० (७७८ ई०) है।
दूसरी विचारधाराके पोषक श्रीकण्ठशास्त्री और आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार उक्त पद्यमें आये हए 'विक्रमाक' पदका अर्थ विक्रम संवत् करते हैं । अतः अकलंकका समय वि० सं० ७०० (ई० सन् ६४३) का विद्वान् मानते हैं। प्रथम परम्पराके समर्थकों में स्व. डा० आर० जी० भण्डारकर, स्व. डा. सतीशचन्द्र विद्याभूषण और स्व. श्री पं० नाथूरामजी प्रेमी हैं। दूसरी धारणाके १. डा. के० बी० पाठक-(भर्तृहरि) और कुमारिल-ज- छ० रा. ए. सो.
भाग १८), अ० सतीशचन्द विद्याभूषण-(हि- इ. ला• पृ० १८६), डा. एस. आल्टेकर (दी राष्ट्रकूटाज एसड देअर टाइम्स, पृ० ४०९). पं० नाथूरामजी प्रेमी (जै हि. भाग ११ अंक ५-८), डा. वी. ए. सालेतोर (मिडि० अंनि पृ० ३५), आर नरसिंहाचार्य (इन्स० एट वणवेलगोलाके द्वि० सं० की भूमिका), एस. श्रीकण्ठ शास्त्री (ए. मा० ओ० रि० ई० भाग १२ में 'दी एज आफ शंकर'), पं. जुगलकिशोर मुख्तार (ज. सा. ६० वि० प्र० पु. ५४१), डा. ए. एन. उपाध्ये (डा. पाठकाज व्यु ऑन अनन्तवीर्याज डेट-ए. भा० दि०६० माग १३, पृ० १६१), पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री (न्या. कु. प., प्रथम मागकी प्रस्ता० पु. १०४), डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन-जन सन्देश शोक तथा पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य (सिं० बि. की प्रस्ता, पृ. ४४), डा. आर. जो भण्डारकर (शान्तरक्षितास रिपटेंसस), पिटर्सन आदि ।
३०४ : सीकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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पोषकों में डा० ए० एन० उपाध्ये, आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार और श्री पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री प्रभृति विद्वान् हैं ।
उक्त दोनों धारणाओंका आलोडन कर डा० महेन्द्रकुमारजो न्यायाचार्यने अकलंकद्वारा भर्तृहरि कुमारिल धर्मति की आदि आचार्य के विचारोंकी आलोचना पाकर अकलंकका समय ई० सन् ८ वीं शती सिद्ध किया है । न्यायाचार्य जीके प्रमाण पर्याप्त सबल हैं। आपने अकलंकदेवके ग्रन्थोंका सुक्ष्म अध्ययन कर उक्त निष्कर्ष निकाला है' ।
आचार्य कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने गहन अध्ययन कर अकलंकदेवका समय ई . ० सन् ६२० - ६८० तक निश्चित किया है और महेन्द्रकुमारजीके अनुसार यह समय ई० सन् ७२० - ७८० आता है। इस तरह इन दोनो समयोंके मध्यमे १०० वर्षोंका अन्तर है ।
धनञ्जयने अपनी नाममाला में एक पद्य लिखा है, जिसमें अकलंकके प्रमाणका जिक्र आया है । लिखा है
प्रमाणमकलङ्कस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् 1 धनञ्जयकवेः काव्यं रत्नत्रयभपश्चिमम् ||
अकलंकका प्रमाण, पूज्यपादका व्याकरण और धनञ्जय कविका काव्य ये तीनों अपश्चिम रत्न हैं ।
अकलंकदेवकी जेनन्यायको सबसे बड़ी देन है प्रमाण । इनके द्वारा की गयी प्रमाणव्यवस्था दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोके आचार्योंने अपनी-अपनी प्रमाणमीमांसाविषयक रचनाओं में ज्यों-का-त्यों अनुकरण किया है । अतः धनंजयने इस पद्यमें जैन तार्किक अकलंकदेव और उनके प्रमाणशास्त्रका उल्लेख किया है ।
धनञ्जयके पश्चात् वीरसेनस्वामीने अपनी घवला तथा जयधवला टीकाओंमें और उनके शिष्य जिनसेनने महापुराण में अकलंकका निर्देश किया है। वीरसेन स्वामीने अकलंकदेवका नामोल्लेख किये बिना 'तत्त्वार्थभाष्य' के नामसे उनके तत्त्वार्थवार्तिकका तथा सिद्धिविनिश्चयका उल्लेख करके उनके उद्धरण दिये हैं। जिनसेनने लिखा है
१. न्यायकुमुदचन्द्र भाग २, अकलंकग्रन्यत्रय एवं सिद्धिविनिश्चयटीका इन तीनों ग्रन्थोंकी प्रस्तावना |
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श्रुतधर और सारस्वताचार्य : ३०५
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भट्टाकलङ्कश्रीपालपात्रकेसरिणां गुणाः ।
विदुषां हृदयातः हारायन्तेऽतिनिर्मा। अर्थात् भट्ट अकलंक, श्रीपाल और पात्रकेसरी आदि आचार्योंके अत्यन्त निर्मल गुण विद्वानोंके हृदय में मणिमालाके समान सुशोभित होते हैं ।
वीरसेनने धधलाटोकामें 'पति' शब्दका अर्थ बतलानेके लिए एक पद्य उद्धृत किया है, जो धनञ्जय कविकी अनेकार्थनाममालाका ३९ वां पद्य है। अतः धनञ्जय वीरसेनसे पूर्ववर्ती हैं और धनञ्जयसे पूर्ववर्ती अकलंक हुए हैं। अतएव अकलंकका समय सातवीं शतीका उत्तराद्धं सिद्ध होता है । रचनाएँ
अकलंकदेवकी रचनाओंको दो वर्गोमें विभक्त किया जा सकता है। प्रथम वर्गमें उनके स्वतन्त्र-ग्रन्थ और द्वितीय वर्गमें टीका-ग्रन्थ रखे जा सकते हैं। स्वतन्त्र-ग्रन्थ निम्नलिखित हैं
१. स्वोपज्ञवृत्तिसहित लघीयस्त्रय २. न्यायविनिश्चय सवृत्ति ३. सिद्धिविनिश्चय सवृत्ति
४. प्रमाणसंग्रह सवृत्ति टीकाग्रन्थ
१. तत्त्वावात्तिक सभाष्य । २. अष्टशती-देवागमविवृति ।
१. सधीयस्त्रयों में तीन छोटे-छोटे प्रकरणोंका संग्रह है-(१) प्रमाणप्रवेश (२) नयप्रवेश और (३) निक्षेपप्रवेश । प्रमाणप्रवेशके चार परिच्छेद हैं-(१) प्रत्यक्षपरिच्छेद (२) विषयपरिच्छेद (३) परोक्षपरिच्छेद और (४) आगमपरिच्छेद । इन चार परिच्छेदोंके साथ नयप्रवेश तथा प्रवचनप्रवेशको मिलाकर कुल छः परिच्छेद स्वोपज्ञविवृत्तिमें पाये जाते हैं । लघीयस्त्रयके व्याख्याकार आचार्य प्रभाचन्द्रने प्रवचनप्रवेशके भी दो परिच्छेद करके कुल सात परिच्छेदों पर अपनी 'न्यायकुमुदचन्द्र' व्याख्या लिखी है। लघीयस्त्रय में कुल ७८ कारिकाएँ हैं किन्तु मद्रित लघीयस्त्रयमें ७७ हो कारिकाएं हैं, "लक्षणं क्षणिकैकान्ते'(कारिका ३५) नहीं है । इसके प्रथम परिच्छेदमें साढ़े छः, द्वितीय परिच्छेदमें ३, तृतीयमें १२, चतुर्थमें ७, पंचममें २१ तथा षष्ठी २८ इस प्रकार कुल ७८ कारिकाएं हैं। १. आदिपुराण, भारतीय ज्ञानपीट संस्करण, ११५३ । २. अकललग्रन्थत्रयके अन्तर्गत, सिंघी सिरीज । ३०६ : तीर्थकर महावीर ओर उनकी आचार्य-परम्परा
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अकलंकदेवने इसपर संक्षिप्त विवृति भी लिखी है। पर यह विवृति कारिकाओंका व्याख्यानरूप न होकर सूचित विषयोंकी पूरक है। यह मूल श्लोकोंके साथ ही साथ लिखी गयी है। पं० महेन्द्रकुमारजीने लिखा है-"मालूम होता है कि अकलदेव जिस पदार्थको कहना चाहते हैं, वे उसके अमुक अंशकी कारिका अनाकर बाकीको गद्यभागमें लिखते हैं। अत: विषयकी दृष्टिसे गद्य और पद्य दोनों मिलकर ही ग्रन्थकी अखण्डता स्थिर रखते हैं। धर्मकीर्तिकी प्रमाणवार्तिकको वृत्ति भी कुछ इसी प्रकारको है। उसमें भी कारिकोक्त पदार्थको पूर्ति तथा स्पष्टताके लिए बहुत कुछ लिखा गया है ।
लघीयस्त्रयके प्रथम परिच्छेदमें सम्यक्ज्ञानकी प्रमाणता, प्रत्यक्ष परोक्षका लक्षण, प्रत्यक्षके सांव्यवहारिक और मुख्य रूपसे दो भेद, सांव्यवहारिकके इन्द्रियानिन्द्रिय प्रत्यक्षरूपसे दो भेद, मुख्य प्रत्यक्षका समर्थन, सांव्यवहारिकके अवग्रहादिरूप भेद तथा उनके लक्षण, अवग्रहादिके बह्वादिरूप मेद, भावइन्द्रिय, द्रव्य इन्द्रियके लक्षण, पूर्व-पूर्व जानकी प्रमाणता और उत्तरोत्तर ज्ञानोंकी फळरूपता आदि विषयोंका कथन आया है।
द्वितीय परिच्छेदमेंद्रव्य पर्यायात्मक वस्तुका प्रमाणविषयत्व तथा अर्थक्रियाकारित्वके विवेचनके पश्चात् नित्यैकान्त और क्षणिकैकान्तमें क्रम-योगपद्यसे अर्थक्रियाकारित्वका अमाव प्रतिपादित किया है। वस्तुको नित्य माननेपर आनेवाले दोषोंको समीक्षा की है। वस्तु न सर्वथा नित्य है और न अनित्य । वह किसी नविशेषकी अपेक्षासे नित्य है और इतर नयकी अपेक्षासे अनित्य । लिखा है कि मेदाभेदात्मक वस्तु द्रव्याथिक और पर्यायिक नयकी अपेक्षासे हो घटित होती है। द्रव्याथिक अभेदका आश्रय करता है और पर्याथिक भेदका । यथा
अर्थक्रिया न युज्यते नित्य-क्षणिकपक्षयोः ।
क्रमाऽक्रमाभ्यां भावानां सा लक्षणतया मता ॥ तृतीय परिच्छेदमें मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता तथा अभिनिबोधका शब्दयोजनासे पूर्व अवस्थामें मतिव्यपदेश तथा उत्तर अवस्थामें श्रुतव्यपदेश, व्याप्तिका ग्रहण प्रत्यक्ष और अनुमानके द्वारा सम्भव न होनेसे व्याप्तिग्राही तर्कका प्रामाण्य, अनुमानका लक्षण, जलचन्द्रके दृष्टान्तसे कारणहेतुका समर्थन, कृत्तिकोदय आदि पूर्वचर हेतुका समर्थन, अदृश्यानुपलब्धिसे परचैतन्य आदिका
१. अकलकपन्यत्रय, प्रस्तावना, पुष्ठ ३५-३६ । २. लत्रीयस्त्रय, कारिका ८।
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अभावज्ञान, नैयायिकाभिमत उपमानका सादृश्यप्रत्यभिज्ञानमें अन्तर्भाव, प्रत्यभिज्ञानके देसादृश्य, आपेक्षिक प्रतियोगी आदि मेदोंका निरूपण, बौद्धमतमें स्वभावादि हेतुओंके प्रयोगमें कठिनता, अनुमान-अनुमेयव्यवहारकी वास्तविकता एवं विकल्पबुद्धिकी प्रमाणता आदि परोक्षज्ञानसे सम्बन्ध रखनेवाले विषयोंका निरूपण किया है। चतुर्थ परिसर, ज्ञान का
किया अपमानाका निषेध कर प्रमाणाभासका स्वरूप, सविकल्प ज्ञानमें प्रत्यक्षभासताका अभाव, अविसंवाद और विसंवादसे प्रमाण-प्रमाणभासव्यवस्था, विप्रकृष्ट विषयों में श्रुतकी प्रमाणता, हेतूवाद और आप्तोक्त रूपसे द्विविध श्रुतकी अविसंवादि होनेसे प्रमाणता, शब्दोंके विवक्षावाचित्वका खण्डनकर उनकी अर्थवाचकता आदि श्रुतसम्बन्धी विषयोंका विवेचन किया गया है। प्रमाणके स्वरूप, संख्या, विषय और फलका निरूपण मी प्रमाणप्रवेशमें किया है।
पञ्चम परिच्छेदमें नय-दुर्नयके लक्षण, द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक रूपसे नयके मूल भेद, सद्रूपसे समस्त वस्तुओंके ग्रहणका संग्रहनयत्व, ब्रह्मवादका संग्रहाभासत्व, बौद्धाभिमत क्षणिक एकान्तका निरास, गण-गुणी, धर्म-धर्मीकी गौण-मुख्य विषक्षामें नेगमत्रयकी प्रवृत्ति, वैशेषिकसम्मत गुण-गुण्यादिके एकान्त भेदका नेगमाभासत्व, प्रमाणिक भेदका व्यवहारनयत्व, काल्पनिक भेदका व्यवहाराभासत्व, कालकारकादिके मेदसे अर्थभेदनिरूपणको शब्दनयता, पर्यायभेदसे अर्थभेदक कचनका समभिरू नयत्व, क्रियाभेदसे अर्थभेदप्ररूपणका एवं. भूतनयत्व, सामग्री-भेदसे अभिन्न वस्तुमें भी षटकारकीका सम्भवत्व प्रतिपादित किया गया है। यहाँ लधीयस्त्रयका द्वितीय प्रकरण नयप्रवेश समाप्त होता है। शब्दज्ञानको प्रत्यक्षताका निरसनकर अनुमानवत् उसको परोक्षता सिद्ध करते हुए अकलङ्कदेवने लिखा है
'अक्षशब्दार्थविज्ञानमविसंवादतः समम् ।
अस्पष्ट शब्दविज्ञानं प्रमाणमनुमानबत् ॥ तदुत्पत्तिसारूप्यादिलक्षणव्यभिचारेऽपि आत्मना यदर्थपरिच्छेदलक्षणं ज्ञानं तत्तस्येति सम्बन्धात् । वागर्थज्ञानस्यापि स्वयमविसंवादात् प्रमाणत्वं समक्षवत् । विवक्षाव्यतिरेकेण वागर्थज्ञानं वस्तुतत्त्वं प्रत्याययति अनुमानवत्, सम्बन्धनियमाभावात् । वाच्यवाचकलक्षणस्यापि सम्बन्धस्य बहिरर्थप्रतिपत्तिहेतुतोपलब्धेः ' ।।
१. लधीयस्त्रय, सवृत्ति, कारिका ४६ । ३०८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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प्रवचनप्रवेशमें प्रमाण, नय और निक्षेपके कयनको प्रतिज्ञा, अर्थ और आलोकको ज्ञानकारणताका खण्डन, अन्धकारको ज्ञानका विषय होनेसे आवरणरूपताका अभाव, तज्जन्म, ताद्रूप्य और तदध्यवसायका प्रमाण में अत्रयोंजकत्व, श्रुतके सकला देश और विकलादेशरूप उपयोग, "स्यादस्त्येव जीवः " इस वाक्यको विकलादेशता, "स्याज्जीव एव" इस वाक्यको सकलादेशता, शब्दकी विवक्षासे भिन्न वास्तविक अर्थकी वाचकता, नैगमादि सात नयों में से आदिके चार नयोंका अर्थनयस्व, शेष तीन नयोंका शब्दनयत्व, नामादि चार निक्षेपोंके लक्षण, अप्रस्तुतनिराकरण तथा प्रस्तुत अर्थका निरूपणरूप निक्षेपका फल इत्यादि प्रवचनके अधिगमोपायभूत प्रमाण, नय और निक्षेपका निरूपण किया गया है। शास्त्रज्ञानका सादित्व अनादित्व सिद्ध करते हुए लिखा है ।
यथा
श्रुतादर्थमनेकान्तमधिगम्याभिसन्धिभिः ।
परीक्ष्य तांस्तान् तद्धर्माननेकान् व्यावहारिकान् ॥ नयानुगतनिक्षेपैरुपायैर्भेदवेदने । विरचय्यार्थवाक्प्रत्ययात्ममेदान् श्रुतापितान् ॥ अनुयुज्यानुयोगेश्च निर्देशादिभिदां गतः । द्रव्याणि जीवादीन्यात्मा विवृद्धाभिनिवेशनः || जीवस्थानगुणस्थानमागंणास्थान तत्त्ववित् । तपोनिर्जीर्णकर्माऽयं विमुक्तः सुखमृच्छति' ||
इस प्रकार इसमें प्रमाण, नय और निक्षेपका निरूपण किया है । २. न्यायविनिश्चय सवृत्ति
विनिश्चयान्त ग्रन्थ लिखनेको प्रणाली प्राचीन रही है । धर्मकीर्तिका भी प्रमाण विनिश्चय नामक ग्रन्थ मिलता है । 'तिलोयपण्णत्ति' में भी 'लोकविनिश्चय' नामक ग्रन्थको सूचना है। न्यायविनिश्चय में प्रत्यक्ष, अनुमान और प्रवचन ये तीन प्रस्ताव हैं । प्रथम प्रस्ताव में १६९३, द्वितीयमें २१६३ और तृतीय में ९४, कुल ४८० कारिकाएं हैं। सिद्धसेन के न्यायाचतारमें भी प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द इन तीन प्रमाणोंका विवेचन किया गया है ।
प्रथम प्रत्यक्ष प्रस्ताव में प्रत्यक्ष प्रमाणपर विस्तारपूर्वक विचार किया गया है । इसमें इन्द्रियप्रत्यक्षका लक्षण, प्रमाणसम्प्लवसुचन, चक्षुरादि
१. लघीयस्त्रय, कारिका ७३–७६ ।
२. वादिराजसूरिकी टीकासहित भारतीय ज्ञानपीठ काशी द्वारा प्रकाशित है ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ३०९
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बुद्धियों का व्यवसायकल विकले अलि आदि लक्षणोंका खण्डन, ज्ञान के परोक्षवादका निराकरण, ज्ञानके स्वसंवेदनकी सिद्धि, ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानका निरास, अचेतनज्ञाननिरास, साकारज्ञाननिरास, निराकारज्ञानसिद्धि, सवेदनाद्वैतनिरास, विभ्रमवादनिरास, बहिरर्थसिद्धि चित्रज्ञानखण्डन, परमाणुरूप बहिरर्थका निराकरण, अवयवोंसे भिन्न अवयवीका खण्डन, अर्थके उत्पाद-व्ययद्रव्यका लक्षण, गुण- पर्यायका स्वरूप, सामान्यका स्वरूप, श्रौव्यका समर्थन, अपोहरूप सामान्यका निरास, व्यक्तिसे भिन्न सामान्यका खण्डन, धर्मकीतिसम्मत प्रत्यक्षलक्षणका खण्डन, बौद्धकल्पित स्वसंवेदन, योगि, मानस प्रत्यक्ष निरास, सांख्यकल्पित प्रत्यक्षलक्षणका खण्डन, नैयायिक के प्रत्यक्षका समालोचन, अतीन्द्रिय प्रत्यक्षका लक्षण आदि विषयोंका विवेचन किया गया है ।
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द्वितीय अनुमानप्रस्ताव अनुमानसे सम्बद्ध है । इसमें अनुमानका लक्षण, प्रत्यक्षकी तरह अनुमानको बहिरर्थविषयता, साध्य - साध्याभासके लक्षण, बौद्धादिमतों में साध्य प्रयोगकी असम्भवता शब्दका अर्थवाचकत्व, शब्दसङ्कतग्रहणप्रकार, भूतचैतन्यवादका निराकरण, गुण-गुणीभेदका निराकरण, साधन-साधनाभासके लक्षण, प्रमेयत्वहेतुकी अनेकान्तसाधकता, सत्व हेतु की परिणामिता प्रसाधकता, वैरूप्यखण्डनपूर्वक अन्यथानुपपत्तिसमर्थन, तर्ककी प्रमाणता, अनुपलम्भहेतुका समर्थन पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर हेतुका समर्थन, असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक और अकिञ्चित्कर हेत्वाभासों का विवेचन, दूषणा भासलक्षण, जातिलक्षण, जयेतरव्यवस्था, दृष्टान्त, दृष्टान्ताभासविचार, वादका लक्षण, निग्रहस्थानलक्षण, वादाभासलक्षण आदि अनुमानसे सम्बन्ध रखनेवाले विषयोंका वर्णन आया है ।
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तृतीय प्रवचनप्रस्तावमें आगमसम्बन्धी विचार किया गया है। इसमें प्रवचनका स्वरूप, सुगत्तके आप्तत्वका निरास, सुगतके करुणावत्व तथा चतुसत्यप्रतिपादकत्वका समालोचन, आगमके अपौरुषेयत्वका खण्डन, सर्वज्ञत्व समर्थन, ज्योतिर्ज्ञानोपदेश, सत्यस्वप्नज्ञान तथा ईक्षणिकादि विद्याके दृष्टान्त द्वारा सर्वज्ञत्वसिद्धि, शब्दनित्यत्वनिरास, जीवादितत्त्वनिरूपण, नैरात्म्य भावनाको निरर्थकता, मोक्षका स्वरूप, सप्तभंगीनिरूपण, स्याद्वादमें दिये जाने वाले संशयादि दोषोंका परिहार, स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदिका प्रामाण्य, प्रमाणका फल आदि विषयोंका विवेचन आया है ।
यह ग्रन्थ कई दृष्टियोंसे महत्त्वपूर्ण है | कारिकाओंके साथ उत्थानिका वाक्य भी गद्य में निबद्ध हैं। त्रिवृत्ति टीकात्मक न होकर विशेष विषयके सुचन
३१० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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रूपमें लिखी गयी है। कारिकाएँ और वृत्ति दोनों प्रौढ़ एवं गम्भीर भाषामें निबद्ध हैं। उनसे अकलङ्कदेवकी सूक्ष्म प्रज्ञा और तीक्ष्ण समालोचना अवगत कर पाठक प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। उदाहरणार्थ नित्येकान्त, क्षणिकैकान्त आदिकी उनके द्वारा की गयी समीक्षा दुष्ष्य है
अत्यन्ताभेदभेदौ न तद्वतो न परस्परम् । दृश्यादृश्यात्ममोर्बुद्धिनिर्भासक्षणभङ्गयोः ॥ सर्वथार्थक्रियाऽयोगात् तथा सुप्तप्रबुद्धयोः । अंशयोर्यदि तादात्म्यमभिज्ञानमनन्यवत् ।। संयोगसमवायादिसम्बन्धाद्यादि घर्तते।
अनेकत्रैकमेकत्रानेक वा परिणामिनः || सर्वथा नित्यका खण्डन करते हुए लिखा है
नित्यं सर्वगतं मत्वं निरंशं व्यमिभियंटि ।। व्यक्तं व्यक्तं सदा व्यक्तं त्रैलोक्यं सचराचरम् । सत्तायोगाद्विना सन्ति यथा सत्तादयस्तथा ॥ सर्वेऽर्थाः देशकालाश्च सामान्य सकलं मतम् ।
सर्वभेदप्रभेदं सत् सकलाङ्ग शरीरवत् ।। ३. प्रमाणसंग्रह
इसमें ९ प्रस्ताव और ८७३ कारिकाएँ हैं 1 प्रथम प्रस्तावमें ९ कारिकाएं, द्वितीयमें ९, तृतीयमें १०, चतुर्थमें ११३, पञ्चममें १०६, षष्ठमें १२३, सप्तममें १०, अष्टममें १३ और भवममें २ कारिकाएं हैं। प्रथम प्रस्तावमें प्रत्यक्षका लक्षण, श्रुतका प्रत्यक्षानुमानागमपूर्वकत्व, प्रमाणका फल, मुख्यप्रत्यक्षका लक्षण आदि प्रत्यक्षविषयक सामग्री णित है।
द्वितीय प्रस्तावमें स्मृतिकी प्रमाणता, प्रत्यभिज्ञानका प्रामाण्य, तर्कका लक्षण, प्रत्यक्षानुपलम्भसे तर्कका उद्भव, कुतर्कका लक्षण, विवक्षाके बिना भी शब्दप्रयोगका सम्भव, परोक्ष पदार्थोंमें श्रुतसे अविनाभावग्रहण आदिका कथन है।
इस प्रस्तावमें परोक्षके भेद, स्मृति प्रत्यभिज्ञान और तर्कका विशेष रूपसे कथन आया है। १. न्यायविनिश्चय सवृत्ति, प्रत्यक्षप्रस्ताव, कारिका १४१-१४३ । २. बहो. प्रत्यक्षप्रस्ताव, कारिका १५१-१५३ । ३. अकलङ्कग्रन्थ त्रय सिपी सिरीज ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ३११
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तृतीय प्रस्तावमें अनुमान के अवयव, साध्य साधनका लक्षण, साध्याभासका लक्षण, सदसदेकान्त में साध्यप्रयोगकी असम्भवता सामान्य विशेषात्मक वस्तुकी साध्यता एवं अनेकान्तात्मक वस्तुमें दिये जानेवाले संशयादि आठ दोषोंकी समीक्षा अति है। चतुर्थं प्रस्तावमें हेतुसम्बन्धी विचार आया है । इसमें त्रिरूप हेतुका खण्डन करके अन्यथानुपपत्तिरूप हेतुलक्षणका समर्थन किया गया है। हेतुके उपलब्धि और अनुलब्धिरूप भेदों का विवेचन कर पूर्वघर, उत्तरचर और सहचर हेतुसम्बन्धी विचार किया गया है। इस प्रस्ताव में विभिन्न मतोंकी समीक्षा पूर्वक हेतुका स्वरूप निर्धारित किया है।
पञ्चम प्रस्ताव में असिद्ध, विरुद्धादि हेत्वाभासोंका निरूपण, सर्वथा एकान्त में सत्वहेतुकी विरुद्धता, सहोपलम्भनियम, हेतुकी विरुद्धता, विरुद्धाव्यभिचारीका विरुद्ध में अन्तर्भाव, अज्ञातहेतुका अकिञ्चित्कर में अन्तर्भाव आदि हेत्वाभासविषयक प्ररूपण आया है तथा इसमें अन्तर्व्याप्तिका भी समर्थन किया है।
षष्ट प्रस्ताव में वादका लक्षण, जय-पराजयव्यवस्थाका स्वरूप, जातिका लक्षण, दध्युष्टत्वादिके अभेदप्रसंगका सयुक्तिक उत्तर उत्पादादित्रयात्मकत्व समर्थन, सर्वथा नित्य सिद्ध करने में सत्व हेतुका असिद्धत्वादि निरूपण आया है। इस प्रस्ताव में शून्यवाग, संभाष विज्ञानदाद क्षणभंगवाद, असत्कार्यवाद आदिको भी समीक्षा की गयी है ।
सप्तम प्रस्ताव प्रवचनका लक्षण, सर्वज्ञसिद्धि, अपौरुषेयत्वका निरसन, तत्त्वज्ञानसहित चारित्रको मोक्षहेतुता आदि विषयोंकर विवेचन आया है ।
अष्टम प्रस्ताव में सप्तभंगीके निरूपणके साथ नेगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवम्भूत इन सात नयोंका कथन आया है ।
नवम प्रस्ताव में प्रमाण, नय और निक्षेपका उपसंहार किया गया है। ४. सिद्धिविनिश्चय सवृत्ति'
सिद्धिविनिश्चयमें १२ प्रस्ताव हैं । इनमें प्रमाण, नय और निक्षेपका विवेचन है | प्रथम प्रस्ताव प्रत्यक्ष- सिद्धि है। इसमें प्रमाणका सामान्य लक्षण, प्रमाणका फल, बाह्यार्थको सिद्धि, व्यवसायात्मक विकल्पको प्रमाणता और विशदता, चित्रज्ञानकी तरह विचित्र बाह्य पदार्थो को सिद्धि, निर्विकल्पक प्रत्यक्षका निरास,
१. सिद्धिविनिश्चय अनन्तवीर्यकी टीका सहित, भारतीय ज्ञानपीठ काशी संस्करण । ३१२ : तीर्थकर महावीर और उनकी माचार्य-परम्परा
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स्वसंवेदन प्रत्यक्षके निर्विकल्पकत्वका खण्डन, अविसंवादकी बहुलता से प्रमाणव्यवस्था आदि विषयोंका विचार किया गया है ।
द्वितीय सविकल्प सिद्धि प्रस्ताव में अवग्रहादि ज्ञानोंका वर्णन, मानस-प्रत्यक्षकी आलोचना, निर्विकल्प से सविकल्पकी उत्पत्ति एवं अवग्रहादिमें पूर्व-पूर्व की प्रमाणता और उत्तर-उत्तर में फलरूपता की सिद्धि की गयी है ।
तृतीय प्रमाणान्तर - सिद्धिमं स्मरणको प्रमाणता, प्रत्यभिज्ञानका प्रामाण्य, उपमानका सादृश्यप्रत्यभिज्ञान में अन्तर्भाव, तर्कको प्रमाणताका समर्थन, क्षणिकपक्ष में अर्थक्रियाका अभाव आदिकी समीक्षा आयी है ।
चतुथं जीवसिद्धि प्रस्ताव में ज्ञानको ज्ञानावरण के उदयसे मिथ्याज्ञान, क्षणिकचित्त में कार्यकारणभाव, सन्तान आदिको अनुत्पांत, जीव और कर्म चेतन और अचेतन होकर भी बन्धके प्रति एक है, कर्मास्रव तत्तोपप्लववाद, भूत चैतन्यवाद एवं विभिन्न दर्शनों में मान्य आत्मस्वरूपका विवेचन किया है।
पञ्चम प्रस्ताव जल्प- सिद्धि है । इसमें जल्पका लक्षण, उसकी चतुरङ्गता, जल्पका फलमार्ग प्रभावना, शव्दकी अर्थवाचकता, निग्रहस्थान एवं जयपराजयव्यवस्था की समोक्षा को गयी है ।
छठा हेतुलक्षण सिद्धि प्रस्ताव है। इसमें हेतुका अन्यथानुपपत्तिलक्षण, तादात्म्य तदुत्पत्तिसे ही अविनाभावकी व्याप्ति नहीं, हेतुके भेद, कारण आदिका कथन आया है ।
सप्तम प्रस्ताव शास्त्र सिद्धि है । इसमें श्रुतका श्रेयोमार्गसाधकत्व शब्दका अर्थवाचकत्व, स्वप्नादि दशा में भी जीवको चेतनता, भेदेकान्त में कारक ज्ञापक स्थितिका अभाव, ईश्वरवाद, पुरुषाद्वैतवाद, वेदका अपौरुषेयवाद आदिका समालोचन किया है ।
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अष्टम सर्वज्ञसिद्धि प्रस्ताव में सर्वज्ञकी सिद्धि और नवम शब्दसिद्धि प्रस्तावमें शब्दका पौद्गलिकत्व सिद्ध किया है। दशम प्रस्तावका नाम अर्थनयसिद्धि है । इसमें नयका स्वरूप, नेगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजु-सूत्र इन चार अर्थनयों और नयाभासों का वर्णन आया है ।
ग्यारहवाँ शब्दनयसिद्धि प्रस्ताव है। इसमें शब्दका स्वरूप, स्फोटवादका खण्डन, शब्दनित्यत्वका निरास शब्दनय, समभिरूढनय एवं एवम्भूतनध यादिका वर्णन आया है ।
बारहवाँ निक्षेपसिद्धि प्रस्ताव है । इसमें निक्षेपका लक्षण, भेद, उपभेदोंका स्वरूप एवं उनकी सम्भावनाओं पर विचार किया गया है ।
तबर और सारस्वताचार्य : ३१३
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५. तस्वार्थवातिक सभाध्य
इस ग्रन्थके मंगा चतुर्ग नाणो 'न ततावासिद' लिखकर अकलंकदेवने इस ग्रन्थको 'तत्त्वार्थवार्तिक' कहा है। तत्त्वार्थसूत्रके प्रत्येक सूत्रपर वात्तिकरूपमें व्याख्या लिखे जाने के कारण यह तत्त्वार्थवात्तिक कही गयी है। बात्तिक श्लोकात्मक भी होते हैं और गद्यात्मक भी। कुमारिलका मीमांसाश्लोकवात्तिक और धर्मकीतिका 'प्रमाणवातिक' पद्यों में लिखे गये हैं। पर न्यायदर्शनके सूत्रोंपर उद्योतकरने जो वात्तिक रचा है, वह गद्यात्मक है । अतएव यह अनुमान लगाना सहज है कि अकलंकने उद्योतकरके अनुकरण पर गद्यात्मक तत्त्वार्थबातिक रचा है। अकलङ्कको विशेषता यह है कि उन्होंने तत्वार्थसूत्रके सूत्रोंपर वात्तिक रचे और वात्र्तिकोंपर भाष्य भी लिखा है। इस तरह इस ग्रन्थमें बात्तिक पृथक हैं और उनकी व्याख्या-भाष्य अलग है। इसी कारण इसकी पुष्पिकाओंमें इसे 'तत्त्वार्थवात्तिकव्याख्यानालंकार' संज्ञा दी गयी है ।
यह ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्रको व्याख्या होनेके कारण दश अध्यायोंमें विभक्त है । इसका विषय भी तन्वार्थसूत्रके विषयके समान ही सैद्धान्तिक और दार्शनिक है । तत्त्वार्थसूत्रके प्रथम तथा पंचम अध्यायमें क्रमशः ज्ञान एवं द्रव्योंकी चर्चा आयी है और ये दोनों विषय ही दर्शनशास्त्रके प्रधान अंग हैं। अतः अकलंकदेवने इन दोनों अध्यायों में अनेक दार्शनिक विषयोंकी समीक्षा की है। दर्शन शास्त्र के अध्येताओंके लिये तत्वार्थवात्तिकके ये दोनों अध्याय विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। ___ तत्त्वार्थवात्तिककी एक प्रमुख विशेषता यह है कि जितने भी मन्तव्य उसमें चचित हुए, उन सबका समाधान अनेकान्तके द्वारा किया गया है । अतः दार्शनिक विषयोंसे सम्बद्ध सूत्रोंके व्याख्यानमें 'अनेकान्तात्'वात्तिक अवश्य पाया जाता है । यहाँ यह स्मरणीय है कि वातिककारने दार्शनिक विषयोंके कथनसन्दर्भमें आगमिक विषयोंको भी प्रस्तुत कर अनेकान्तवादकी प्रतिष्ठा को है। __ तृतीय, चतुर्थ अध्यायोंमें लोकानुयोगसे सम्बद्ध विषय आये हैं । इस विषयके प्रतिपादनमें 'तिलोयपण्णत्ति' आदि प्राचीन ग्रन्थोंको अपेक्षा अनेक नवीनताओंका समावेश किया गया है । इस ग्रन्थकी विशेषताओंके सम्बन्ध में प्रज्ञाचक्ष पं० सुखलालजीने लिखा है-"राजवात्तिक और लोकवात्तिकके इतिहासज्ञ अभ्यासीको मालूम पड़ेगा कि दक्षिण हिन्दुस्तानमें जो दार्शनिक विद्या और स्पर्धाका समय आया और अनेकमुख पाण्डित्य विकसित हुआ, उसीका प्रतिबिम्ब इन दोनों ग्रन्थों में है। प्रस्तुत दोनों वात्तिक जैनदर्शनका प्रामाणिक अभ्यास करनेके पर्याप्त साधन है। परन्तु इनमें से 'राजवात्तिक'का गद्य सरल और विस्तृत ३१४ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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होनेसे खत्त्वार्थक सम्पूर्ण टोका ग्रन्थोंकी गरज अकेला ही पूर्ण करता है । ये दो वातिक यदि नहीं होते, तो दशवीं शताब्दी तकके दिगम्बर साहित्यमें जो विशिष्टता आयो, और उसकी जो प्रतिष्ठा बंधी वह निश्चयसे अधूरी हो रहती। ये दो वात्तिक साम्प्रदायिक होनेपर भी अनेक दृष्टियोंसे भारतीय दार्शनिक साहित्य में विशिष्ट स्थान प्राप्त करें, ऐरा, योग्यता से हैं। इस अवलोक बौद्ध ओर वैदिक परम्पराके अनेक विषयों पर तथा अनेक ग्रन्थों पर ऐतिहासिक प्रकाश डालता है।" _ 'तत्त्वार्थवात्तिक'का मूल आधार पूज्यपादकी सवार्थसिद्धि है । सवार्थसिद्धिकी वाक्यरचना, सूत्र जैसी संतुलित और परिमित है । यही कारण है कि अकलंकदेवने उसके सभी विशेष वाक्योंको अपने वार्तिक बना डाले हैं, और उनका व्याख्यान किया है। आवश्यकतानुसार नये वात्तिकोंको भी रचना की है, पर सर्वार्थसिद्धिका उपयोग पूरी तरह से किया है । जिस प्रकार बोज वृक्षमें समाविष्ट हो जाता है, उसी प्रकार समस्त सर्वार्थसिद्धि तत्त्वार्थवात्तिकमें समाविष्ट है, पर विशेषता यह है कि सर्वासिद्धि के विशिष्ट अम्यासीको भी यह प्रतीति नहीं हो पाती कि वह प्रकारान्तरसे सर्वार्थसिद्धिका अध्ययन कर रहा है ।
तत्त्वार्थवात्तिक में यों तो अनेक विषयोंकी चर्चा की गयी है, पर विशेषरूपसे जिन विषयोंपर प्रकाश डाला गया है, वे निम्नलिखित हैं
१. कर्ता और करण के भेदाभेदको चर्चा । तोनों वाच्यों द्वारा ज्ञानकी व्युत्पत्ति २. आत्माका ज्ञानसे भिन्नाभिन्नत्व ।
३. केवल ज्ञानप्राप्तिके द्वारा मोक्षको मान्यताका निरसन कर मोक्षमागेका निरूपण । सन्दर्भानुसार सांख्य, वैशेषिक, न्याय और बौद्ध दर्शनोंको समीक्षा
४. मुख्य और अमुख्योंका विवेचन करते हुए अनेकान्तदृष्टिका समर्थन । ५. सप्तभंगीके निरूपणके पश्चात् अनेकान्तमें अनेकान्सको सुघटना ।
६. अनेकान्तमें प्रतिपादत छल, संशय आदि दोषोंका निराकरण करते हए अनेकान्तात्मकताको सिद्धि ।
७. एकान्तवादमें ज्ञानके करण-कर्तृत्वका अभाव | ८. आत्म-अनात्मवादियोंको समीक्षा । १. प्रत्यक्ष-परोक्षसम्बन्धो ज्ञानकी व्याख्याओंका विस्तृत विवेचन ।
इस सन्दर्भ में पूर्वपक्षके रूपमें बौद्ध, न्याय, वैशेषिक, मोमांसक आदि दार्शनिकोंकी समीक्षा। १. तत्त्वार्थसूत्र, भारत जैन महामंडल वर्मा, द्वितीय संस्करण, सन् १९५२,पृ० ७८, ७९ ।
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१०, चक्षु के प्राप्यकारित्व और श्रोत्रके अप्राप्यकारित्वका निराकरण ।
११. श्रुतज्ञानके अन्तर्गत अनुमानके पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट भेद तथा उपमान, ऐतिह्म, अर्थापत्ति, सम्भव और अभावका समावेश ।
१२. आत्मसिद्धि ।
१३. स्वात्मा और परमात्माके विश्लेषणके साथ सप्तभंगीके सकलादेश और विकलादेशोंका विवेचन ।
१४. 'द्रव्यत्वयोगात् द्रव्यं' और 'गुणसंद्रावो द्रव्यं'की विस्तृत समीक्षा । १५. विभिन्न दर्शनोंके आलोक में शब्दके मूर्तिकत्वका विवेचन ।। १६. स्फोटवाद-समीक्षा ।
१७ कोक्वल, काण्ठेविद्दि, कौशिक, हरि, मश्रुमान, कपिल, रोमस, हरिताश्व, मुण्ड और थापा बादशादियों मालोचः ।
१८, मरीचिकुमार, उलूक, कपिल, गाग्र्य, व्याघ्रभूति, माठर, मौद्गलायन आदि अक्रियावादी दार्शनिकोंकी समीक्षा ।
१९. साकल्य, वासकल, कुथुमि, सात्यमुनी, चारायण, कठ, माध्यन्दिन, मौद, पैपलादि, वादरायण, येतिकायन, वसु और जैमिनि आदि अज्ञानवादियोंका समालोचन ।
२०. वशिष्ठ, पाराशर, जतुकर्ण, बाल्मीकि, रोमहर्षिणी, व्यास, एलापुत्र, औपमन्यव, इन्द्रदत्त आदि बैंनिक वादियोंकी समीक्षा ।
२१. जीव-अजीव आदि तस्वोंका निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधानपूर्वक विवेचन ।
२२. ज्ञानोंके विषयक्षेत्रका कथन । २३. नयोंका सोपपत्तिक निरूपण । २४. शरीरोंका सविस्तर निरूपण | २५. लोकरचना-क्षेत्रफल और घनफलोंका निरूपण । २६ गुणस्थान, ध्यान, अनुप्रेक्षा एवं मार्गणा आदिका विस्तृत कथन । २७. द्रव्य और तत्त्वोंकी व्यवस्थाका कथन |
इस प्रकार 'तत्त्वार्थराजवात्तिक' में अनेक विशेष बातोंका कथन आया है । यह ग्रन्थ अध्याय, आह्निक और वातिकों में विमक है। यहाँ उदाहरणार्थ एकाध वातिक प्रस्तुत करते हैं, जिससे अकलंकदेवको विषयप्रतिपादनसम्बन्धी विशेषता अभिव्यक्त हो जायगी !
प्रमाणनयाणणाभवात-"एकान्तो द्विविधः सम्यगेकान्तो मिथ्र्यकान्त इति । अनेकान्तोऽपि द्विविधः-सम्यगनेकान्तो मिथ्यानेकान्त इति । तत्र सम्य
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कान्ती हेतु विशेषसामर्थ्यापेक्षः प्रमाणप्ररूपिताथैकदेशादेशः । एकात्मावधारणेन अन्याशेषनिराकरणप्रवणप्राणिधिमिथ्यैकान्तः । एकत्र सप्रतिपक्षानेकधर्मस्वरूपनिरूपणो युक्त्यागमाभ्यामविरुद्धः सम्यगनेकान्तः । तदतत्स्वभाववस्तुशून्यं परिकल्पिताने काम केवलं वाग्विज्ञानं मिथ्याऽनेकान्तः । तत्र सम्यगेकान्तो नय इत्युच्यते । सम्यगनेकान्तः प्रमाणम् । नयार्पणादेकान्सो भवति एकनिश्चयप्रवणत्वात् प्रमाणार्पणादनेकान्तो भवति अनेकनिश्चयाधिकरणत्वात्' ।
६. अष्टशती
जैनदर्शन अनेकान्तवादी दर्शन है। आचार्य समन्तभद्र अनेकान्तवाद के सबसे बड़े व्यवस्थापक हैं । उन्होंने आप्तमीमांसा नामक ग्रन्थ द्वारा उसकी व्यवस्था की है । इसी आप्तमीमांसापर अकलंकदेवने अपनी 'अष्टदशती' वृत्ति लिखी है। इस वृत्तिका प्रमाण ८०० श्लोक है, अतः यह अष्टशती कहलाती है । विद्यानन्दने समन्तभद्रके उक्त अष्टसहस्रो नामकी दी लिखी है, जिसमें अष्टशतीको 'दूधमें चोनी' की तरह समाविष्ट कर लिया है। अकलंकदेवने इसमें अनेक नये तथ्योंपर प्रकाश डाला है । विभिन्न दर्शनोंके द्वैत-अद्वैतवाद, शाश्वत अशाश्वतवाद, बक्तव्य - अवक्तव्यवाद, अन्यता- अनन्यतावाद, सापेक्ष-अनपेक्षवाद, हेतु-अहेनुवाद, विज्ञान- बहिरर्थवाद, देव पुरुषार्थंवाद, पुण्य-पापवाद और बन्ध-मोक्षकारणवादकी समीक्षा की गयी है । उनके प्रतिपादनका एक उदाहरण प्रस्तुत है—
शतीके रचयिता
" स्वभावान्तरात्स्वभावव्यावृत्तिरन्यापोहः" संविदो ग्राह्याकारात्कथञ्चिद्व्यावृत्तौ — अनेकान्तसंवित्तेः स्वलक्षणप्रत्यक्षवृत्तावपि संवेद्याकारविवेक स्वभावान्तरानुपलब्धेः स्वभावव्यावृत्तिः शवलविषर्या नर्भासेऽपि लोहितादीनां परस्परव्यावृत्तिरन्यथाचित्रप्रतिभासासंभवात् तदन्यतमवत्तदालम्बनस्यापि नीलादेरभेदस्वभावापत्तेः तद्वतस्तेभ्यो व्यावृत्तिरेकानेकस्वभावत्वात् रूपादिवत् अन्यथा द्रव्यमेव स्थान्न रूपादयः " | २
अनेकान्तात्मक वस्तुकी सिद्धि करते हुए लिखा है
" यत्सत् तत्सर्वमनेकान्तात्मकं वस्तुतस्वं सर्वथा तदर्थं क्रयाकारित्वात् । स्वविषयाकार संवित्तिवत् । न किञ्चिदेकान्तं वस्तुतत्त्वं सर्वथा तदर्थक्रियासंभ
१. तत्त्वार्थवात्तिक, भारतीय ज्ञानपीठ काशी संस्करण १।६-७ । २. अष्टशती, भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, काशी, सन् १९१४ ई०, कारिका
११, पृ० १० ।
श्रुतवर और सारस्वताचार्य : ३१७
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वात् गगनकुसुमादिवत् । नास्ति सदेकान्तः सर्वव्यापारविरोधप्रसंगात् असदेकान्तवदिति विधिना प्रतिषेधेन या वस्तुतत्त्वं नियम्यते" |' शैली एवं काव्यप्रतिभा
अकलंकदेवकी शैली गूढ एवं शब्दार्थभित है । ये जिस विषयको भी ग्रहण करते हैं, उसका गम्भीर और अर्थपूर्ण बाक्शोंमें विवेचन करते हैं। अतः कमसे-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक विषयका निरूपण करना इनका लक्ष्य है। अकलंकदेवका उनकी रचनाओंपरसे षड्दर्शनोंका गम्भीर और सूक्ष्म चिन्सन अवगत होता है। फलतः उनका अतल तलस्पर्शी ज्ञान सर्वत्र उपलब्ध है। इनकी कारिकाओंमें अर्थगाम्भीर्य है, प्रसंगवश वे वादियोंपर करारा व्यंग्य करनेसे भी चूकते नहीं हैं । व्यंग्यके समय इनको रचनाओं में सरसता आ जाती है, और दर्शनके शुष्क विषय भी साहित्यके समान सरस प्रतीत होने लगते हैं। अदश्यानुपलब्धिसे अभाग की सिद्धि न माननेपर वे बौद्धोंपर व्यंग करते हुए कहते हैं
दध्यादां न प्रवत बौद्धः तद्भुतये जनः । अदश्यां सौगतीं तत्र तनुं संशङ्कमानक: || दध्यादिके तथा भुक्ते. न भुक्तं काजिकादिकम् ।
इत्यसो वेत्तु नो वेत्ति न भुक्ता सौगती तनुः ।। अदृश्यको आशंकासे बौद्ध दही खानेमें निःशंक प्रवृत्ति नहीं कर सकेंगे, क्योंकि वहाँ सुगत्तके अदृश्य शरीरको शंका बनी रहेगी । दही खानेपर काजी नहीं खायी, यह तो वे समझ सकते हैं, पर बुद्ध शरीर नहीं खाया, यह समझना उन्हें असम्भव है।
यह कितना मार्मिक व्यंग्य है । धर्मकीतिके अभेदप्रसंगका उत्तर भी अकलंकदेवने व्यंग्यात्मक रूपमें दिया है । अकलंकदेब कठिन-से-कठिन विषयको भी व्यंग्यात्मक सरलरूपमें प्रस्तुत करते हैं । यों तो अकलंकदेवने अनुष्टुप छन्दों में ही अधिकांश कारिकाएं लिखी हैं, पर उन्हें शार्दूलविक्रीडित और स्रग्धरा छन्द भी विशेष प्रिय हैं । जहाँ उन्हें थोड़ा-सा भो अवसर मिलता है कि वे इन छन्दोंका प्रयोग करने लगते हैं। न्यायके प्रकरणों में उद्देश्यनिर्देशक और उपसंहारात्मक पद्यों में इन छन्दोंका प्रयोग पाया जाता है। मंगलाचरणके पद्योंमें अलंकारोंका नियोजन भी विद्यमान है । निम्नलिखित पद्य में सम्यक्ज्ञानको जल१, अष्टशती, कारिका १०९, पृ० ४८ । २. सिद्धधिनिश्चमटीका, भारतीय ज्ञानपीठ काशी संस्करण, भाग २,पृ. ४३७ । ३९८ : तीर्थकर महावीर और उनको बाचार्य-परम्परा
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रूपक प्रदान कर मलिन हुए न्याय मार्ग के प्रक्षालनकी बात वे कितनी सदयता से व्यक्त करते हैं
बालानां हितकामिनामतिमहापापैः पुरोपार्जितैः माहात्म्यात्तमसः स्वयं कलिबलात् प्रायो गुणद्वेषिभिः । न्यायोऽयं मलिनीकृतः कथमपि प्रक्षाल्य नेनीयते, सम्यग्ज्ञानजलेर्वचोभिरमलं
तत्रानुकम्पापरैः ||"
इसी प्रकार अनुप्रास, यमक आदि अलंकार भी इनके दर्शन-ग्रन्थोंमें काव्यरचना न होनेपर भी प्राप्त हैं । शैलीकी दृष्टिसे अकलंक निश्चय ही उद्योतकर और धर्मकीर्ति के समकक्ष हैं ।
एलाचार्य
एलाचार्यका स्मरण आचार्य वीरसेनने विद्यागुरुके रूपमें किया है। उन्होंने लखा है
जस्साए सेण मए सिद्धंतमिदं हि अहिलहृदं । महु सो एलाइरियो पसियत वरवीरसेणस्से ||
जिसके आदेश से मैंने इस सिद्धान्तग्रन्थको लिखा है वह एलाचार्य मेरे ऊपर प्रसन्न हों ।
वीरसेनाचार्यने जयधवलाटीका में भी एलाचार्यका स्मरण किया है तथा उनकी कृपासे प्राप्त आगम-सिद्धान्तको लिखे जानेका निर्देश किया है। बताया है--' 'एदेण वयणेण सुत्तस्स देसाभासियत्तं जेण जाणाविदं तेण चउन्हं गईण उतुच्चारणाबलेण एलाइरियपसाएण य सेसकम्माणं परूवणा को दे ।"
प्रसादसे चारों गतियोंमें शेष
अर्थात् उच्चारण के बलसे और एलाचार्य के कर्मों की प्ररूपणा करते हैं— कालानुगमको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । इनमेंसे ओषको अपेक्षा मिथ्यात्वको तीन प्रकृतियोंका जघन्यकाल एक समय है, तथा उत्कृष्टकाल दो समय है । इसी प्रकार असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि, संख्यातगुण-हानि और असंख्यातगुण-हानिके जघन्य और उत्कृष्ट कालका आनयन एलाचार्य के उपदेशसे किया है ।
१. धवलाटीका, अन्तिम प्रशस्ति पुस्तक १६, गाथा १ ।
२. जयघवलाटोका समन्वित कसायपाहुड, भाग ४, पृ० १६९ ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ३१९
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परिचय
गृद्धपिच्छके नामान्तरोंमें एलाचार्यके नामकी गणना पायी जाती है। किन्तु प्रस्तुत एलाचार्य उनसे भिन्न हैं। ये वोरसेनके समकालीन हैं और उनका सैद्धान्तिक पाण्डित्य असाधारण होगा । इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें पलाचार्यके सम्बन्धमें लिखा है
काले गते कियत्यपि तत्त: पुनश्चित्रकूटपुरवासी । श्रीमानेलाचायों बभूव सिद्धान्ततरचज्ञः !! तस्य समीपे सकलं सिद्धान्तमधीत्य वीरसेनगुरुः ।
उपरितमनिबन्धनाद्याधिकारानष्ट च लिलेखे । बप्पदेवके पश्चात् कुछ वर्ष बीत जानेपर सिद्धान्तशास्त्रके रहस्य ज्ञाता एलाचार्य हए । ये चित्रकूट नगरके निवासी थे। इनके पार्श्व में रहकर वीरसेनाचार्यने सकल सिद्धान्तोंका अध्ययन कर निबन्धनादि आठ अधिकारोंको लिखा। __ इस उद्धरणसे यह स्पष्ट है कि बीरसेन आचार्यने आगमग्रन्थोंका अध्ययन एलाचार्यसे किया था। प्राचीन समयमें विद्यामुरु और दोक्षागुरु पृथक्-पृथक हुआ करते थे । अतः एलाचार्य वीरसेनके विद्यागुरुके रूप में रहे होंगे।
जयधवलाटीकाके प्रथम भागमें एलाचार्यके वात्सल्यको आचार्य वीरसेनने प्रशंसा को है । लिखा है-'जीन्भमेलाइरियवच्छओ'३ इस कथनसे ध्वनित होता है कि एलाचार्य वीरसेनको बहुत स्नेह करते थे। यही कारण है कि उन्होंने अपनेको एलाचार्यका वत्स कहा है। समय-निर्णय
इनके समयका निर्धारक रूपसे बड़ा प्रमाण यही है कि वीरसेनने उन्हें अपना गुरु बताया है और उन्हींके आदेशसे सिद्धान्त-ग्रन्थोंका प्रणयन किया है। अत: एलाचार्य वीरसेनके समकालीन अथवा कुछ पूर्ववर्ती हैं। वीरसेनने धवलाटीका शक संवत् ७३८ (ई० सन् ८१६)में समाप्त की थी । अतएव एलाचार्य आठवीं शताब्दीके उत्तरार्ध और नवमी शतीके पूर्वार्द्धके विद्वानाचार्य हैं । प्रतिभा एवं वैवुष्य ___ एलाचार्यके ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है और न कोई ऐसी कृति ही उपलब्ध है, १. इन्द्रनन्दि श्रुतावतार, श्लोक १७७-१७८ । २. जयधवलाटीका समन्वित कसायपाइड, १ पृ. ८१ । ३२० : तोयंकर महावीर और इनकी बाचार्य-परम्परा
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एलाचार्यकी कृतियोंके उद्धरण ही मिलते हों । वीरसेनके गुरु होनेके कारण ये सिद्धान्नशास्त्रके मर्मज्ञ विद्वान थे, इसमें सन्देह नहीं । वीरसेनस्वामीने जयधवलाटीकामें मतभेदों का निर्देश करते हुए स्पष्ट लिखा है कि भट्टारक एलाचार्यके द्वारा उपदिष्ट व्याख्यान ही समीचीन होनेसे ग्राह्य है । यथा"तदो पुव्युत्तमेलाइरियभडारएण उवहट्टवक्खाणमेव एत्य घेतव्यं ।"
पट्ठाणभावेण
इस उद्धरणसे एलाचार्यकी प्रतिभाका अनुमान लगाया जा सकता है । एलाचार्य वाचकगुरु थे और उनकी प्रतिभा अप्रतिम थी ।
वीरसेनाचार्य
जिनसेन प्रथमने अपने हरिवंशपुराण में कविचक्रवर्तीके रूपमें वीरसेन आचार्यका स्मरण किया है । यथा
जितात्म-परलोकस्य कवीनां चक्रवर्तिनः । वीरसेनगुरोः कीर्तिरकला व भासते ।
जिन्होंने स्वपक्ष और परपक्षके लोगों को जीत लिया है तथा जो कवियोंके चक्रवर्ती हैं, ऐसे वीरसेनस्वामोकी निर्मल कीर्ति प्रकाशित हो रही है ।
आचार्य वीरसेन सिद्धान्तके पारङ्गत विद्वान् तो थे ही, साथ ही गणित, न्याय, ज्योतिष, व्याकरण आदि विषयोंका भी तलस्पर्शी पाण्डित्य उन्हें प्राप्त था | इनका बुद्धिवैभव अत्यन्त अगाध और पाण्डित्यपूर्ण है । वीरसेनस्वामीके शिष्य जिनसेनने अपने आदिपुराण एवं घवला - प्रशस्ति में इनकी 'कविवृन्दारक' कहकर स्तुति की है। उन्होंने लिखा है
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श्रवीरसेन इत्यात्तभट्टारकपृथुप्रथः स नः पुनातु पूतात्मा कविवृन्दारका मुनिः ॥ लोकवित्वं कवित्वञ्च स्थितं भट्टारके द्वयम् । वाङ् मिताऽवामिता यस्य वाचा वाचस्पतेरपि ॥ सिद्धान्तो पनिबन्धानां विधातुर्मद्गुरोश्चिरम् | मन्मनः सरसि स्थेयान् मुदुपादकुशेशयम् ॥
3
१. कसायपाहुड, भाग १, पृ० १६२ |
२. हरिवंशपुराण १।३९ ॥
३. आदिपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण १४५५-९७ ।
२१
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ३२१
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ये अत्यन्त प्रसिद्ध वीरसेन भट्टारक हमें पवित्र करें, जिनकी आत्मा स्वयं पवित्र है, जो कवियों में श्रेष्ठ हैं, जो लोकव्यवहार और काव्यस्वरूपके महान् ज्ञाता हैं तथा जिनकी वाणीके समक्ष औरोंकी तो बात ही क्या, स्वयं सुर-गुरु बृहस्पतिको वाणी भी सीमित - अल्प जान पड़ती है । सिद्धान्त - षट्खण्डागम सिद्धान्तग्रन्थके ऊपर उपनिबन्धन - निबन्धात्मक टीका रचनेवाले मेरे गुरु वीरसेन भट्टारकके कोमल चरण कमल सर्वदा मेरे मतरूपी सरोवरमें विद्य मान रहें ।
ऊपरके अवतरणसे यह स्पष्ट है कि वीरसेनाचार्य कवि और वाग्मी तो थे ही, साथ ही सिद्धान्तग्रन्थोंके टीकाकारके रूपमें भी प्रसिद्ध थे । जीवन-परिचय
वीरसेनने अपनी ववलाटीका - प्रशस्तिमें अपने गुरुका नाम एलाचार्य लिखा है । पर इसी प्रशस्तिकी चौथी गाथामें गुरुका नाम आर्यनन्दि और दादागुरुका नाम चन्द्रसेन कहा है ! डॉ० हीरालाल ' जेनका अनुमान है कि एलाचार्य इनके विद्या-गुरु और आर्यनदि इनके दीक्षा- गुरु थे । इनकी शाखा पञ्चस्तूपान्वय कही गयी है । इस शाखाका सम्बन्ध उत्तर भारतके मथुरा और हस्तिनापुरके साथ रहा है। इसकी एक उपशाखा दक्षिण भारतमें भी जा बसी थी । प्रशस्तिसे वीरसेनायं सिद्धान्त छन्द ज्योतिष, व्याकरण और न्याय शास्त्रके वेत्ता तथा भट्टारकपदसे विभूषित सिद्ध होते हैं ।
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इन्द्रनन्दिके 'श्रुतावतार' से ज्ञात होता है कि बप्पदेवकी टीका लिखे जानेके उपरान्त कितने ही वर्ष पश्चात् सिद्धान्तोंके तत्त्वह एलाचार्य हुए, ये चित्रकूटमें निवास करते थे । वीरसेनने इनके पास समस्त सिद्धान्तग्रन्थोंका अध्ययन किया । गुरुकी अनुशा प्राप्त कर वाटग्राम ( बड़ौदा ) में आये और वह कि आनतेन्द्र द्वारा बनवाये हुए जिनालय में ठहरे। यहाँ बप्पदेव गुरु द्वारा निर्मित टीका प्राप्त हुई । अनन्तर उन्होंने ७२००० श्लोकप्रमाण समस्त षट्खण्डागमको धवलाटीका लिखी। तत्पश्चात् कषायप्राभृतकी चार विभक्तियोंकी २०,००० श्लोकप्रगाण ही जयधवलाटीका लिखे जानेके उपरान्त उनका स्वर्गवास हो
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१. चचलाटीका, पुस्तक प्रथम प्रस्तावना, पृ० ३६ । २. सिद्धत - छंद-जोइस वाय रण- पमाण सत्य णिणेण । भट्टारएण टीका लिहिएसा वीरसेणेण ||५||
- धन लाटीकाको अन्तिम प्रशस्ति ।
३. श्रुतावतार श्लोक १७७ - १८४ ।
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गया और उनके शिष्य जिनसेन द्वितीयने व्यवशेष जयघवलाटोका ४०,००० श्लोकप्रमाण लिखकर पूरी की ।
भट्टारक पदवीको प्राप्त वीरसेनस्वामी साक्षात् केवलोके समान समस्त विद्याओंके पारगामी थे। उनकी भारती' - दिव्यवाणी भारती— भरतचक्र वर्तीको आशाके समान षट्खण्डमें प्रवर्तित थी । अर्थात् जिस प्रकार षट्खण्डपृथ्वीपर भरत चक्रवर्तीको आज्ञाका अबाधगतिसे पालन किया जाता था, उसी प्रकार आचार्य वीरसेनकी वाणीका भी सञ्चार छह खण्डरूप षट्खण्डागम नामके परमागममें सब ही विषयोंमें निविवादरूपसे मान्य है। उन्होंने मूल ग्रन्थमें आये हुए विषयोंकी बहुत स्पष्ट व्याख्या की है, जिसका खण्डन कोई नहीं कर सकता है। चक्रवती भरतकी आज्ञा जहाँ सम्पत्ति - लक्ष्मीवन्तोंको प्रसन्न करनेवाली थी, वहीं वीरसेनकी मधुर वाणी समस्त प्राणियोंको प्रमुदित करनेवाली थी । भरतकी आज्ञाका सञ्चार यदि उनके द्वारा आक्रान्त समस्त पृथ्वी पर था, तो उनकी वाणोका सञ्चार कुशाग्र बुद्धिके कारण समस्त विषयोंमेंसिद्धान्त, न्याय एवं व्याकरण आदि शास्त्रोंमें था । उनकी स्वाभाविक प्रज्ञा-अदृष्ट और पदार्थोको अवगत करने रूप योग्यताको देखकर विज्ञजनोंको सर्वज्ञके विषयमें आशङ्का नष्ट हो गयी थी । यतः जब एक व्यक्ति आगम द्वारा इतना बड़ा ज्ञानी हो सकता है, तो अतीन्द्रियप्रत्यक्षज्ञानधारी सर्वज्ञ समस्त पदार्थों का ज्ञाता यदि है, तो इसमें कौन-सा बाश्चर्य है। बताया है-
यं प्राहुः प्रस्फुरद्बोधदी घितिप्रसरोदयः । श्रुतकेवलिनं प्राज्ञाः प्रज्ञाश्रमणसत्तमम् ॥ यस्य नैसगिकों प्रज्ञां दृष्ट्वा सर्वार्थगामिनीम् । जाताः सर्वज्ञसद्भावे निरारेका मनीषिणः ॥ -- जयधवलाप्रशस्ति, पद्य २२-२१ ।
स्थिति-काल
आचार्यं वोरसेनका स्थिति-काल विवादास्पद नहीं है, क्योंकि उनके शिष्य जिनसेनने उनको अपूर्णं जयघवलाटीकाको शक संवत् ७५९ की फाल्गुन शुक्ला दशमीको पूर्ण किया है। अतः इस तिथि के पूर्व ही वीरसेनाचार्यका समय होना चाहिए और उनकी घवलाटीकाकी समाप्ति इससे बहुत पहले होनी चाहिए | यह टीका जयतुङ्गदेवके राज्यमें समाप्त हुई थी । राष्ट्रकूट १. प्रीणितप्राणिसम्पत्तिराकान्तःशेषगोचरा
३
भारती भारतीवाज्ञा षट्खण्ये यस्य नास्खलत् ॥
– जयपनलाप्रशस्ति ।
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नरेशों में जयतुङ्ग उपाधि अनेक राजाओंकी है, पर इनमेंसे प्रथम जयतुङ्ग गोविन्द तृत्तीय थे, जिनके शिलालेख शक संवत् ७१६-७३५ के मिले हैं। अतएव यह अनुमान लगाना सहज है कि धवला टीकाकी समाप्ति इन्हीं गोविन्द तृतीय के समयमें हुई है । डॉ० हीरालालजी जैनने अनेक प्रमाणोंके आधारपर घवलाटीकाका समाप्ति काल शक संवत् ७३८ सिद्ध किया है । आपने लिखा है कि जब जयतुङ्गदेवका राज्य पूर्ण हो चूका था और बोद्दणराय (अमोघ वर्ष) राजगद्दीपर आसीन हो चुका था, उस समय धवलाटीका समाप्त हुई । '
अतः
आचार्य वीरसेनका समय ई० सन् को ९वीं शताब्दि ( ई० सन् ८१६ ) है ।
रचनाएँ
इनको दो ही रचनाएँ उपलब्ध है। इन दोमेंसे एक पूर्ण रचना है और दूसरी अपूर्ण । इन्होंने बहत्तर हजार श्लोकप्रमाण प्राकृत और संस्कृत-मिश्रित भाषा में मणि- प्रवालन्यायसे 'धवला' टीका लिखी है ।
दूसरी रचना 'जयघवला 'टीका है । इस टीकाको केवल बीस हजार श्लोकप्रमाण ही लिख सके थे कि असमयमें उनका स्वर्गवास हो गया । इस तरह वीरसेनस्वामीने बानबे हजार श्लोकप्रमाण रचनाएँ लिखी है । एक व्यक्ति अपने जीवनमें इतना अधिक लिख सका, यह आश्चर्यकी वस्तु है। इन टीकाओंसे वीरसेनकी विशेषज्ञता के साथ बहुज्ञता भी प्रकट होती है। सैद्धान्तिक विषयोंकी कितनी सूक्ष्म जानकारी थी, यह देखते ही बनता है ।
लाटोकाकी रचना करनेका हेतु
इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारसे ज्ञात होता है कि बप्पदेवकी टोकाको देखकर वीरसेनाचार्यको धचलाटीका लिखनेकी प्रेरणा प्राप्त हुई। इस टीकाके स्वाध्याय से वीरसेनने अनुभव किया कि सिद्धान्तके अनेक विषयोंका निर्वचन छूट गया है, तथा अनेक स्थलों पर विस्तृत सिद्धान्त-स्फोटन सम्बन्धी व्याख्याएँ भी मपेक्षत हैं । अतएव इन्होंने एक नयी विवृति लिखनेको परम आवश्यकता अनुभव की । फलतः बप्पदेवकी टीकासे प्रेरणा प्राप्त कर 'घवला' एवं 'जयघवला' नामक टीकाएँ लिखीं ।
टीकासम्बन्धी मौलिकताएँ
वीरसेनाचार्य मूलतः संद्धान्तिक, दार्शनिक और कवि हैं। आचार्य जिन१. वलाटीका समन्चित षट्खण्डागम, प्रथम पुस्तक प्रस्तावना, पृ० ४०–४१ ।
३२४ : वीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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सेनने उन्हें उपनिबन्धनकर्ता कहा है। अतएव इनकी धवला एवं जयघवला टोकाएं वस्तुत: उपनिबन्धन हैं। उपनिबन्धनमें परम्परानुमोदनके साथ जिस विषयका प्रस्तुतीकरण किया जाता है, उस विषय या वस्तुपर उसके स्वरूप, प्रकृति, गुण-दोष आदिको दृष्टिसे तर्कपूर्ण विवेचन या समालोचन भी अपेक्षित होता है। इस टीकामै विचार-प्रगल्भता, अनुभव-शीलता एवं विषयको प्रौढ़ता रहनेके कारण ही इसे उपनिबन्धकी संज्ञा दी गयी है। सांस्कृतिक उपकरणोंका अत्यधिक बाहुल्य है । निमित्त, ज्योतिष एवं न्यायशास्त्रकी अगणित सूक्ष्म और विशेष बातें पायी जाती हैं। इसमें दो मान्यताओंका उल्लेख उपलब्ध होता है-(१) दक्षिण प्रतिपत्ति और (२) उत्तर प्रतिपत्ति'।
दक्षिण प्रतिपत्तिको आचार्य प्रमाण मानते हैं और उत्तर प्रतिपत्तिको वाम, क्लिष्ट एवं आचार्याननुमोदित । टीकामें उक्त दोनों प्रतिपत्तियोंका विवेचन करते हुए लिखा है कि तिर्यञ्च, दो मास और मुहूत्तंपृथकत्वके ऊपर सम्यक्त्व और संयमासंयमको तथा मनुष्य गर्भसे लेकर आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्तके ऊपर सम्यक्त्व, संयम और संयमासंयमको प्राप्तकर सकते है | इस उपदेशको आचार्यपरम्परागत होनेसे उन्होंने दक्षिण प्रतिपत्ति या ऋजु प्रतिपत्ति बतलाया है। इसके विपरीत तिर्यञ्च तीन पक्ष, तीन दिन और तोन अन्तमुहर्तके ऊपर सम्यक्त्व, संयमासंयमको तथा मनुष्य बाठ वर्षके ऊपर सम्यक्त्व, संयमासंयमको प्राप्तकर सकते हैं । इस उपदेशको परम्परागत न होनेके कारण उत्तर प्रतिपत्ति या अनृजु कहा गया है। १. के वि पुवुत्तपमाणं पंचूर्ण कति । एदं पंचूर्ण वक्खाणं पकाइज्जमाणं दक्षिण
माइरियपरंपरागमिदं जं वुत्त होइ । पुन्चुतबक्साणमपयाइज्जमाणं वाउं आइरियपरंपरा-अणागदमिदि णाय......"एसा उत्तरपरिवत्ती । एत्व दस अवणिदे दक्षिण-पडिवत्ती हवदि ।
-धवलाटोका खण्ड १, भाग २, पु० ३, पृ० ९२-९४ । २. एत्थ वे उवदेसा–वं जहा-तिरिक्खेसु वेमास-मुहुत्त-युधस्सुचरि सम्मत्तं संजमा
संजमं च जीयो पहिवजदि । मणुस्सेसु गब्भादिअटु वस्सेसु अंतोमुत्तहिएसु सम्मतं संजमें संजमासंजमं च पहियदि त्ति । एसा दक्षिणपडिबत्ती । दक्षिण उज्जुबं आइरियपरंपरागदमिदि एयट्ठो ।
--धवला, पु. ५. पृ० ३२ । ३, (क) तिरिक्खेसु तिष्णिपक्ख-तिणिदिवस-अंतोमुहुत्तस्सुवरि सम्मत्तं संजमासंजमं च
पडिवज्जदि । मणुस्सेसु अट्ठवस्साणमुवरि सम्मत्तं संजमं संजमासंजम च पस्विजदि त्ति । एसा उत्तरपटिवत्तो उत्तरमगुज्जुवं । बाइरियपरंपराए णागदमिदि।
--धवला, पु. ५, पृ. ३२ ।
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जयघवलाप्रशस्तिसे अवगत होता है कि वीरसेनकी टोका हो यथार्थ टोका है। शेष तो पद्धति या पंजिका हैं । यथा
टोका श्रीवीरसेनीया शेषाः पद्धति-पत्रिका:'। स्पष्ट है कि वीरसेनस्वामोने अपनी इन विशाल टोकाओंमें सैद्धान्तिक चर्चाओंका पूर्णतया समावेश किया है । समस्त श्रुतज्ञानको ऐसी सुन्दर व्याख्या अन्यत्र मिलना सम्भव नहीं। महाकर्मप्रकृतिप्राभूत और कषायप्राभुतसंबधी बो ज्ञान वीरसेनको गुरुपम्परासे उपलब्ध हुआ, उसे इन दोनों टीकाओंमें यथावत् निबद्ध किया गया है । आगमकी परिभाषामें ये दोनों टीकाएं दृष्टिवादके अंगभूत दोनों प्राभूतोंका प्रतिनिधित्व करती हैं। अतएव इन्हें स्वतन्त्र ग्रन्थांकी संज्ञा दी जा सकती है। यही कारण है कि आज 'षट्खण्डायम' सिद्धांत धवलसिद्धान्तके नामसे और 'पेज्जदोसपाहुड' जयधवलसिद्धान्तके नामसे ख्यात है। ___टोकाकी प्रामाणिकताके लिए वोरसेनाचार्यने समस्त परम्पराके अनुसार ही विवक्षित विषयका प्रतिपादन किया है। यदि उन्हें कहीं किसी भाचार्यका अभिप्राय सूत्रविरुद्ध या परम्पराविरुद्ध प्रतीत हुआ है, तो उन्होंने उसे अग्राह्य घोषित किया है। उदाहरणार्थ द्रव्यप्रमाणसूत्र ७ को व्याख्यामें प्रमत्तसंयतोंका प्रमाण ५९, ३९, ८२,०, ६ बतलाया गया है । इसपर वहाँ शहा की गयी है कि सूत्रमें जब उनका प्रमाण कोटिपृथक्त्व ही निर्दिष्ट किया गया है तब उसे एक निश्चित संख्यामें कैसे गिनाया गया ? इस शंकाके उत्तरमें बताया गया है कि हमने इरो आचार्यपरम्परागत जिनोपदेशसे जाना है। ___यदि वीरसेनको कहीं किसा आचार्यका व्याख्यान सूत्रसे विरुद्ध मालूम हुआ है, तो उसे उन्होंने अप्रमाण बताया है । यथा-परिकर्ममें राजुके अर्धच्छेदोंकी संख्या और द्वीप-सागरसंख्या जम्बूद्वीपके अर्धच्छेदोंसे एक अधिक निर्दिष्ट की गयी है । इस व्याख्यानको सूविरुद्ध बतलाकर अग्राह्य कहा है। (ख) एसा उत्तरपहिवत्ती । एत्य दस अवपिदे दक्षिणपडिबत्ती हवदि ।
-धवला, पु० ३, पृ० ९४ । (ग) एसा दक्षिणपहिवत्ती"एतो उत्तरपडित्ति वत्तइस्सामो ।
वही, ३९८, ९९ । १. जयधवला प्रशस्ति, पद्य ३९ । २. एदत्तियं होदि त्ति कत्र णम्पदे ? आइरियपरंपरागदजिणोवदेसादो।
---अबला पु० ३, पृ०८९ । ३१६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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जहाँ उन्हें आचार्यपरम्परागत उपदेश प्राप्त नहीं हुआ, किन्तु गुरुका उपदेश प्राप्त रहा है वहां उन्होंने उसके आधारसे भी विषयका विवेचन किया है। ___ यदि उन्हें कहींपर उक्त दोनों ही प्रकारका उपदेश नहीं प्राप्त हुआ, तो वहां उन्होंने युक्तिबलसे सूत्रके अनुकूल विषय-व्यवस्था प्रतिपादित की है । पर इसकी घोषणा उन्होंने कर दी है। यथा
द्वीपसमुद्रोंको संख्याक विषयमें आचार्यों में मतभेद रहा है । आचार्य बोरसेनस्वामी ज्योतिषी देवोंकी संख्या लानेके लिए स्वम्भूरमण समुद्रकी 'बाह्यवेदिका' के आगे भी पृथ्वीका अस्तित्व स्वीकार करते हैं. तथा राजुके संख्यात अद्धच्छेदोंका पतन भी अनिवार्य मानते हैं । इस प्रकार उनको अर्द्धच्छेदोंके प्रमाणको परोक्षा-बिधि अभ्य आचार्यों की उपदेश-परम्पराका अनुसरण नहीं करती है । यह तो केवल 'तिलोयपणत्ती के अनुसार ज्योतिषी देवोंके भागहारको उत्पन्न करनेवाले सूत्रके आश्रयसे युक्ति द्वारा कथन किया है। इस सम्बन्धमें अन्य उदाहरण भी दृष्टव्य हैं । यथा, सासादन स्थानगत जोवोंकी संख्या निकालने में 'अन्तर्मुहत' शब्दमें अवस्थित 'अन्सर' शब्दको सामीप्य अर्थका वाचक मानकर मुहूर्तसे अधिक कालको भी अन्तर्मुहर्त स्वीकार करते हुए असंख्यात आवली प्रमाण अवहार कालका कथन किया है। इसी प्रकार आपत्तचतुरस्र लोकका कथन किया है। __ आचार्य वीरसेनस्वामीने सूत्रों द्वारा प्राप्त होनेवाले विरोधोंका भी समन्वय करनेकी चेष्टा को है। सूत्रविरोध-समन्वय ___ आचार्य वीरसेनने सूत्रों में प्राप्त होनेवाले पारस्परिक विरोधोंका समन्वय करते हुए व्याख्यान किया है । छुद्रकबन्धके अन्तर्गत अल्पबहुत्व अगुयोगद्वारके ७४ वें सूत्रमें सूक्ष्म वनस्पतिकायिकजीवोंसे वनस्पतिकायिक जीवोंका प्रमाण विशेष अधिक कहकर ७५ वे सूत्रमें निगोदजीदोंको उन वनस्पतिकायिकजीवोंसे विशेष अधिक निर्दिष्ट किया है। इसपर शंकाकारने निगोदजीवोंके वनस्पतिकायिकजीवोंसे भिन्न न होनेके कारण उक्त बनस्पतिकायिकोंके ही अन्तर्गत होनेसे इस ७५ वे सूत्रको निरर्थक बताया है। आचार्य वीरसेनने शंकाकारको शंकाका समाधान करते हुए लिखा है कि वनस्पतिकायिकजीवोंके अल्पबहत्वका कथन करनेके पश्चात् उसके आगे निगोदजीवोंको विशेष अधिक कहनेवाला १. सम्यक्रम्माणं द्विदीओ ण घेपति, किंतु एक्कस्सेत्र कम्मदिदी घेप्पदि । कृदो ? गुरुवदेपादो।
--धवला, पुस्तक ५, पृ. ४०२ । श्रुतधर और सारस्वताचार्य : ३२७
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वह सूत्र यदि न माना जाय, तो सिद्धान्त-विरोध आयगा । केवली और श्रुतकेवलोके न रहनेके कारण उपलब्ध सूत्रोंमें कौन सूत्र आवश्यक है और कौन । आवश्यक नहीं, इसका निर्णय सम्भव नहीं है। अतएव सत्रकी आशातनाके भयसे दोनों हा सूत्रोंको व्याख्या करना आवश्यक है। हमने तो गोतमस्वामी द्वारा प्रतिपादित अभिप्रायका कथन किया है। ___ इसी प्रकार भागाभागानुगम अनुयोगद्वारमें भी यही समस्या उपस्थित हई है। वहाँ सूक्ष्म वनस्पतिकायिकजीवोंके साथ-साथ सक्ष्म निगोदियाजीवोंका निर्देश भी अलगसे किया गया है । अतएव निम्नलिखित तीनों सूत्रोंका समन्वय नहीं हो पासा हैसुहमवणफदिकाश्या सुमागोदबोचा सयजीवाणां केवडियो भागो ? सुहमवणप्फदिकाइय-सुहमणिगोदजीवपजत्ता सबजोवाणां केवडियो भागो ? सुहुमवणप्फदिकाइय-सुहमणिगोदजीवअपज्जत्ता सव्वजीवाणां केवडियो भागो'?
इसका समाधान करते हुए वीरसेनस्वामीने लिखा है---"णिगोदा सव्वे बणफदिकाइया चेव, ण अण्णे; एदेण अहिप्पाएण काणि विभागाभागसुत्ताणि द्विदाणि । कुदो ? सुहुमवणादिकाइयभागाभागस्स तिसु वि सुत्तेसु गिगोदजीवणिद्देसाभावादो। तदो तेहि सुतेहि एदेसि सुत्ताणं विरोही होदि त्ति भणिदे दि एवं तो उवदेसं लद्ध ण इदं सुत्तं इदं चासुत्तमिदि आगमणिउणा भणत, ण च अम्हे एल्थ वोत्तुं समस्था, अलद्धोबदेसत्तादो।"२ यहाँ ३४वें सूत्रकी व्याख्याने शंका उठायो गयो है कि भागाभागसे सम्बद्ध कुछ सूत्र ऐसे हैं, जिनके अभिप्रायसे सब निगोदजीव वनस्पतिकायिक ही सिद्ध होते हैं, उनसे वे भिन्न सिद्ध नहीं होते, चयोंकि उक्त तीनों सूत्रोम केवल सूक्ष्मवनस्पतिकायिक जोवोंका ही निर्देश किया गया है, निगोदजावोंका निर्देश वहां अलगसे नहीं आया है। ऐसी अवस्थामें उन सूत्रोंसे इन सूत्रोंका विरोध होना अनिवार्य है ? इस शंकाके उत्तर में आचार्य वीरसेनने बताया है कि यदि ऐसा है, तो यह सूत्र है और यह सूत्र नहीं है, इसका कथन उपदेश पाकर वे करें, जो आगममे निपुण हैं। हम इस प्रसंगमें कुछ नहीं कह सकते, क्योंकि इसके सम्बन्धमें हमें उपदेश प्राप्त नहीं है। ___ इसी प्रकार वर्गणाखण्डके अन्तर्गत प्रकृतिअनुयोगद्वारके १६०३ सूत्रमें मनुष्यतिप्रयोग्यानुपूर्वीके भेदोंकी संख्या निर्दिष्ट की गयी है। इस सूत्रके व्याख्यानमें कुछ आचार्योका अभिप्राय तो यह है कि उर्वकपाटछेदनसे निष्पन्न १. षट्खण्डागम, पुस्तक ७, सूत्र २९, ३१, ३३ पृ० ५०३-५०६ । २. षट्सण्डागम, पु. ७, पृ० ५०६-५०७ । ३२८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आपाय-परम्परा
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४५ लाख योजन बाहुल्यरूप तिर्यक् प्रतरोंको श्रेणीके मसंख्यासवें भागमात्र अवगाहनामेदोंसे गुणित करने पर प्राप्त राशि प्रमाण मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके भेद हैं, और दूसरोंका मत यह है कि ४५ लाख योजनोंके राजुप्रत्तरके अर्द्धच्छेद करने पर पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र जो अर्द्धच्छेद प्राप्त होते हैं, उतने प्रमाण मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके मेद है ।
इसपर धवलाकारने कहा है कि उपदेश प्राप्त कर, कौन व्याख्यान सत्य है और कौन असत्य, इसका निर्णय करना चाहिये। ये दोनों ही उपदेश सूत्र हैं । यतः आगे इन दोनों ही उपदेशोंके आश्रयसे पृथक्-पृथक् अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गयी है । यथा---" एत्थ उचदेसं लद्बण एदं चैव वक्खाणं सच्चमण्णं असच्चमिदि णिच्छओ कायव्वो । एदे च दो वि उवएसा सुत्तसिद्धा | कुदो ? उवरि दो चि उपदेसे अस्सिदूण अप्पा बहुगपरूवणोदो" । इस प्रकार विरोधी सूत्रों का समन्वयकर आगमप्रमाणका कथन किया है ।
अन्य ग्रन्थोंके निर्देश
वीरसेनस्वामी के वैदुष्यका परिज्ञान इसी बात से किया जा सकता है कि उन्होंने अपनी इस टीकामें प्राचीन आगमके उपलब्ध साहित्यका पूर्णतया उपयोग किया है। जिन आचार्योंके नामका निर्देश ग्रन्थोल्लेख पूर्वक किया गया है, वे निम्न प्रकार हैं
'ধ
१. गृद्धपिच्छाचार्यंका तत्त्वार्थसूत्र २ तत्स्वार्थ भाष्य (तत्त्वार्थवातिकभाष्य ), ३. सन्मतिसूत्र, ४ सत्कर्मप्राभूत, ५५ पिण्डिया, ६ तिलोयपण्णत्ति, " ७. व्याख्याप्रशहि', ८. पंचास्तिकाय प्राभृस ९, ९ जीवसमास १०, १०. पूज्यपाद
१. धवलाटीका समन्वित षट्खण्डागम, पु० १३, पृ० ३८१ ।
२. बही, पृ० ४, पृ० ३१६, पृ० १, पृ० २५८ ।
१०३ ।
३. वही, पृ० १, पृ० ४. वही, पृ० १, पृ० ५. वही, पु० १, पृ० ६. वही, पु० २ ०
७,
वही, पु० ३, पृ० ८. वही, पृ० ३, पृ० ९. वही, पृ० ४, पृ० १०. वही, पु० ४, ५०
१५: पु० ९, १० २४३-४४ । २१७, २२१: पु० ११, पृ० २१ । ७८८ ।
३६, ५०४, पृ० १५७ । ३५, पु० १०, ५० २३८ ।
३१५-३१७ ।
३१५ ।
भूतपर और सारस्वताचार्य : ३२९
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विरचित सारसंग्रह, ११. प्रभाचन्द्र भट्टारक (अन्धकार), १२. समन्तभद्र स्वामी (ग्रन्थकार), १३. छेदसूत्र, १४. सत्कर्म प्रकृतिप्राभृत५, १५. मूलतन्त्र', १६. योनिभूत और १७ सिद्धिविनिश्चय' ।
4
इनके अतिरिक्त 'बट्खण्डागम' के अन्तर्गत विविध अनुयोगद्वार जैसे सन्तसूत्र (२०६५) ( पृ० वेदनाक्षेत्र विधान (पु०४, पृ० ९४ ), चूलिकासूत्र ( पु० ६, पृ० ११८) और वर्गणासूत्र ( पु० १, पृ० २९० ) इत्यादि उसी षट्खण्डागमके छठे खण्डस्वरूप महाबन्ध (पु० ७, पृ० १९५) तथा कसायपाहुड (पु० १, पृ० २१७) व उससे सम्बद्ध चूर्णि सूत्र (५०६, पृ० १७७, उच्चारणाचार्य (पु० १०, पृ० १४४), निक्षेपाचार्य (पु० १०, पृ० ४५७), महावाचक आर्यनन्दी (पु० १६, पृ० ५७७), आर्यमक्षु क्षमाश्रमण (पु० १६, पू० ५१८) और नागहस्ती (५० १५, पृ० ३२७) आदिका उल्लेख तो जहाँ-तहाँ बहुतायत से हुआ है। इसमें सन्देह नहीं कि आचार्य वीरसेनने 'कसा पाहुड' और उससे सम्बद्ध चूर्णिसूत्रोंका अध्ययन भी सूक्ष्मरूपसे किया
| वलाटोका में अनेक स्थलोंपर चूर्णिसूत्र और कसायपाहुडके उल्लेख आये हैं। निम्नलिखित ग्रन्थोंके उद्धरण या नाम भी धवलाटीका में पाये जाते हैं। १ आचाराङ्गनिर्युक्ति, २ मूलाचार, ३ प्रवचनसार, ४ सन्मतिसूत्र ५ पंचास्तिकायप्राभृत, ६ दशवेकालिक, ७ भगवती आराधना, ८ अनुयोगद्वार, ९ चारित्रप्राभूत, १० स्थानांगसूत्र ११ शाकटायनन्यास, १२ आचाराङ्गसूत्र, १३ लघीयस्त्रय, १४ आप्तमोमांसा, १५ युक्त्यनुशासन, १६ विशेषावश्यकभाष्य, १७ सर्वार्थसिद्धि, १८ सौन्दरनन्द, १९ धनञ्जयनाममाला और अनेकार्थनाममाला, २० भावप्राभृत, २१ बृहत्स्वयम्भूस्तोत्र, २२ नन्दिसूत्र, २३ समवायाङ्ग, २४आवश्यकसूत्र, २५ प्रमाणवार्तिक, २६ सांख्यकारिका और २७ कर्मप्रकृति ।
धवलाटीका में जिन गाथाओंको उद्धृत किया गया है उनमें से अधिकांश
१. धवलटीका समन्वित षट्खण्डागम, पृ० ९ १० १६७ ।
२. वही, पु० ९ पृ० १६६ ।
३. वही, पु० ९, पृ० ६७ ।
४. वही, पु० ११, १० ११५ ।
५. वही, पु० ९, पृ० ३१८: पु० १५, पृ० ४३
६. वही, पु० १३, पु० ९० ।
७. वही, पु० १३, पृ० ३४९ ।
८. वहीं, पु० १३, पृ० ३५६
३३० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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गाथाएं गोम्मटसारमें उपलब्ध होती हैं। कुछ गाथाएँ 'त्रिलोकसार', 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' और 'वसुतन्दिश्रावकाचार में भी पायी जाती हैं। ये सब ग्रन्थ धवलाटीकाके पश्चात् रचे गये है। अतः हमाग सोता है कि इन प्रान गाथाओंका स्रोत एक ही रहा है। उस एक ही स्रोतसे वोरसेनाचार्यने गाथाएं ग्रहण की हैं और उसी स्रोतसे अन्य ग्रन्थरचयिताओंने भी । अतएव वीरसेनाचार्यका वैदुष्य बहुशके रूपमें स्पष्टतया अवगत होता है । ज्योतिष एवं गणित विषयक निर्देश
आचार्य वीरसेन ज्योतिष, गणित, निमित्त आदि विषयोंके भो ज्ञाता थे। ज्योतिषको अनेक महत्त्वपूर्ण चर्चाएं इनकी टोकामें आयी हैं। ५ वीं शताब्दोसे लेकर ८ वीं शताब्दी तक ज्योतिषविषयक इतिहास लिखनेके लिए इनको यह रचना बड़ी ही उपयोगी है ।
ज्योतिषसम्बन्धी चर्चाओंमें नन्दा, भद्रा, जया, रिक्ता, पूर्णा संज्ञाओंके नाम आये हैं । रात्रि-मुहूतं और दिन-मुहूर्तों को भी चर्चा की गयी है। वर्ष, अयन और ऋतु सम्बन्धी विचार भी महत्त्वपूर्ण हैं । निमित्तोंमें व्यंजन और छिन्न निमित्तोंकी चर्चाएं आयी हैं। . बीजगणित
गणितकी दृष्टिसे भी यह ग्रन्थ अपूर्व है। यहाँ हम गणितके कुछ उदाहरण प्रस्तुत करेंगे।
इसमें प्रधानरूपसे एकवर्णसमीकरण, अनेकवर्णसमीकरण, करणी, कल्पितराशियाँ, समानान्तर, गुणोत्तर, व्युत्क्रम, समानान्तर श्रेणियाँ, क्रम, संघय, घातांकों और लघुगणकोंका सिद्धान्त आदि बीजसम्बन्धी प्रक्रियाएं मिलती हैं । धवलामें अ को अके घनका प्रथम वर्गमूल कहा है । अ को अके घनका घन बताया है । अ को अके वर्गका धन बतलाया है । अके उत्तरोत्तरवर्ग और घनमूल निम्नप्रकार है :
अ का प्रथम वर्ग अर्थात् (अ)- अ , द्वितीय वर्ग , (*)= = * , तृतीय वर्ग , (अ)3 =ब'- 3
॥ चतुर्थ वर्ग , (A)* = अ.-अर इसी प्रकार क वर्ग
"
(अ) - अनेक श्रुतपर मोर सारस्वठाचार्य : ३३१
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इन्हीं सिद्धान्तोंपर से घाता - सिद्धान्त निम्न प्रकार बनाया है
म
-
म
। अने
2. ( ~ ) * - * *
न =
अ
क = + ब २.
अ
क
य
१.
+ अ भ
घातांक - सिद्धान्तोंके उदाहरण धवलाके फुटकर गणित में मिलते हैं ।
,
3
म
अ
१. प्रसादगुण २. समाहारशकि ३. तर्क या न्यायशैली ४. पाठकशैली ५. सर्जकशैली
=
म
अ
श्रेणोव्यवहार, अर्द्धच्छेद, व्यास, त्रिज्या, चतुरस्र, त्रिकोण एवं अनेक प्रकारके बहुभुज क्षेत्रोंके क्षेत्रफलानयनको विधि विस्तारपूर्वक वर्णित है ! गणितानुयोगका दुष्टिसे वीरसेनाचार्यका ज्ञान असाधारण था। उन्होंने वर्गांक, घातांक, वर्गवर्गाक, घनांक, ऋण एवं घन करणियोंके गणित विस्तारपूर्वक वर्णित किये हैं। कोण, रेखा, समकोण, अधिकोण, न्यूनकोण, समतल, घनपरिमाण, व्यवच्छेदक सूचीछंद, वक्ररेखा आदिको गणितविधियाँ भी वर्णित हैं।
शैलो
न ३.
न, इन
घवला और जयधवला टीकाओं की शैलीमें निम्नलिखित पाँच गुण समाहित हैं-
३३२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य -परम्परा
१. प्रसादगुण
विषय-विवेचन में आचार्यने पद और वाक्योंका अर्थ तो स्पष्ट किया ही है, पर साथ ही तत्सम्बन्धी विषयको उपस्थित कर सूत्रोंका इतना स्पष्टीकरण किया है, जिससे सूत्रके समान्य अर्थ के साथ उसके विशेष हृद्यको भी अवगत करने में बुद्धिको व्यायाम नहीं करना पड़ता है । शंका-समाधानद्वारा विषयनिरूपण में सरलता, स्वच्छता और आडम्बर होनता परिलक्षित होती है । इस टोकाका धबलानाम भी विषय प्रतिपादनकी स्वच्छता का द्योतक है यथा" "एत्ता' एतस्मादित्यर्थः । कस्मात् प्रमाणात् । कुत एतदवगम्यते ? प्रमाणस्य जीवस्थानस्याप्रमाणादवतारविरोधात् । नाजलात्मक हिमवतो निपतञ्जलात्मकगङ्गया व्यभिचारः, अवयविनोऽवयस्यात्र वियोगापायस्य विवक्षितत्वात् । नावय१. छटुवग्गस्स उर्वारि सत्तमवम्गस्स दो त्ति वुझे बत्थवत्ती न जादेत्ति ।
- धबला, पुस्तक ३, पृ० २५३ ।
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विनोऽवयवो भिन्नो, विरोधात् । तदपि प्रमाण द्विविधं द्रव्यभावप्रमाणभेदात् । द्रव्यप्रमाणात् संख्येयासंख्येयानन्तात्मकद्रव्यजीवस्थानस्यावतारः । भावप्रमाण पञ्चविधम्-आर्भािणबोहियभावपमाणं सुदभावपमाणं मणपज्जबभावपमाण ओहिभावपमाण केवलभावपमाणं चेदि" । २. समाहारशक्ति __ शंका-समाधान द्वारा विषयका समन्वय और संक्षेपण करते हुए विविध भगका संयोजन करना समाहाराक्तिके अन्तर्गत है ।-टीकामें इस गुणके कारण अपने विषयको पुष्टिके लिए पूर्वाचार्यों द्वारा प्ररूपित गाथाओं और वाक्योंका 'उकञ्च' कहकर ऐसा उपन्यास किया है, जिससे उद्धृतांश विषयमें दूध-पानीकी तरह मिश्रित हो गये हैं । आचार्यकी यह समाहारशक्तिका हो परिणाम है। जिससे विस्तृत विवतिमें विभिन्न विषयोंका समावेश गंगा में समाविष्ट होनेवाली विभिन्न नदियोंके समान एक ही स्थान पर हुआ है और सभी विषय अन्तिम निष्कर्ष के रूपमें एक ही तथ्यको सम्मिलित रूपमे अभिव्यञ्जना करते हैं। यथा-"तद्व्यतिरिक्तं द्विविध कर्मनोकर्ममङ्गलभेदात् । तत्र कर्ममङ्गलं दर्शनविशुद्धयादि-बोडशधा-प्रविभक-तीर्थकर-नामकर्म-कारणीव-प्रदेश -निबद्ध-तीर्थकर-नामकर्म माङ्गल्य-निबन्धनवान्मङ्गलम् । यत्तनोकर्ममङ्गलं तद् द्विविधम्, लौकिक लोकोत्तरमिति । तत्र लौकिक विविधम्, सचित्तचित्तं मिश्रमिति । तत्राचित्तमङ्गलम्
सिद्धत्य-पुण्ण-कूमो वंदणमाला य मंगलं छत्तं ।
सेदो वण्णो भादंसणो य कण्णा य जच्चस्सो।। सचित्तमङ्गलम् । मिश्रमङ्गलं सालङ्कारकन्यादिः ।" तकं या न्यायशेली
न्यायको शैलीमें स्वयं नानाप्रकारके विकल्प उठाकर तटस्थभावसे विषयको प्रस्तुत करना और विषयके उपस्थापनमें सर्कका आश्रय लेकर निष्कर्ष निकालना आचार्य वीरसेनको अभीष्ट है। लोकिक और सैद्धान्तिक दोनों ही प्रकारके विषयोंके प्ररूपणमें उक्त प्रक्रियाको अपनाया गया है। यथा-"स्यादअस्तु वग्रहो निर्णयरूपो वा स्यादनिर्णयरूपो वा ? आधे अवायान्तर्भावः । चेन्न, ससः पश्चात्संशयोत्पत्तेरभावप्रसंगान्निर्णयस्य विपर्ययानध्यवसाय विरोधात् । अनिर्णयरूपश्च त्, संशयविपर्ययानध्यवसायेष्वन्तर्भावादिति ? न, १. भवसाटोका समन्वित षट्खण्डागम, पु. १, पृ. ९२-९३ । २. वही, पृ० १, पृ. २६-२७ ।
श्रुतपर और सारस्वताचार्य : ३३३
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अवग्रहस्य वैविध्यात् । द्विविधोऽवग्रहो विशदाविशदावग्रहभेदेन । तत्र विशदो निर्णयरूपः अनियमेनेहावाय-धारणाप्रत्ययोत्पत्तिनिबन्धनः'। यहाँ अवग्रह ' निर्णयरूप है या अनिर्णयरूप । प्रथम पक्षमें उसका अवायमें अन्तर्भाव होना चाहिये, पर ऐसा सम्भव नहीं, क्योंकि ऐसा माननेपर उसके संशयको उत्पत्तिके अभावका प्रसंग आयमा । तथा निर्णयके विपर्यय और अनध्यवसाय रूप होनेका विरोध भी है | अनिर्णयस्वरूप माननेपर अवग्रह प्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा होनेपर उसका संशय, विपयर्य और अनध्यवसायमें अन्तर्भाव होगा? उक्त शङ्का ठीक नहीं है, क्योंकि अवग्रह दो प्रकारका है विशदावग्रह और अविशदावग्रह । इस प्रकार तर्कपूर्वक विषयका प्रस्तुतीकरण किया गया है। ४. पाठकशैली
जिस प्रकार कोई पाठक-शिक्षक अपने छात्रको विषय समझाते समय जानकी विभिन्न दिशाओंसे तथ्योंका चयन कर उदाहरणों और दृष्टान्तों द्वारा विषयबोध कराता है तथा अपने अभिमतकी पुष्टि के लिए प्रामाणिक व्यक्तियोंके मतोंको उद्धरणके रूप में उपस्थित करता है। ठीक इसी प्रकारको धवलाटीकाको शैली है। कठिन शब्दों और वाक्योंके निर्व वन एक कुशल प्राध्यापककी शैली में निबद्ध किये गये हैं। ५. सर्जकशैली
'धवलाटीका' टीका होनेपर भी, एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है। आचार्य वीरसेनने इस टीकाको टीका या भाष्यके रूपमें ही प्रथित नहीं किया है, बल्कि एक स्वतन्त्र ग्रन्थके रूपमें विषयको उपस्थित किया है। स्वतन्त्रग्रन्थकर्ता और भाष्यप्रणेतामें मल अन्तर यह होता है कि स्वतन्त्रग्रन्थरचयिता विषयकी अभिव्यन्जना अपने क्रमसे निश्चित शैलीमें प्रस्तुत करता है, साथ ही मौलिक तथ्योंको स्थापना भी करता चलता है । विषयप्ररूपणके लिए उसके समक्ष किसी भी तरहका अवरोध या अन्य कोई बन्धन नहीं रहता है। भाष्य या विवृतिकारके समक्ष मूल-ग्रन्थकार द्वारा निरूपित विषयोंको सीमा एवं उनके प्रतिपादनके मार्गमें विभिन्न प्रकारके अवरोध उपस्थित रहते हैं । अतः टीकाकारमें परवशानुवतित्त्व पाया जाता है। विवृति-लेखक स्वतन्त्र मतकी स्थापनाके लिए भीतरसे बेचैन रहता है, पर उसको सोमा उसे आगे बढ़नेसे रोकती है। आचार्य वीरसेनमें परवशानुवर्तित्त्व रहनेपर भी स्वतन्त्र रूपसे कर्म-सिद्धान्त एवं विभिन्न दार्शनिक मान्यताओं के निरूपणको पूर्ण क्षमता है। यही कारण है १. षट्पण्डागम, धवला पु० ९, पृ० १४४-१४५ । ३३४ : तीपंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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कि उन्होंने कतिपय तथ्य बहुत मौलिक और नूतनरूपमें अभिव्यक्त किये हैं । अतएव वीरसेनस्वामीकी शैलीमें सर्जनात्मक प्रतिभाका पूर्ण समावेश पाया जाता है। मूल्य एवं निष्कर्ष
यह पहले ही लिखा जा चुका है कि धवलाटोकाका मूल्य किसी भी स्वतन्त्र ग्रन्थसे कम नहीं है । इसमें ग्रहीतग्राही ज्ञानको प्रमाण माना गया है। आचार्य वीरसेनकी दृष्टि में प्रमाणताका कारण संशय, विपर्यय और अनध्यवसायका न उत्पन्न होना है । जिस ज्ञानमें तीनों अज्ञानोंकी निवृत्ति रहती है, वह ज्ञान प्रमाण होता है। इसी प्रकार अवग्रह, ईहा आदि ज्ञानोंके निर्वचन भी नवीन रूपमें प्रस्तुत किये गये हैं । उपयोगके स्वरूप-विवेचनमें सामान्यपदसे आत्माका ग्रहण कर दर्शनोपयोगका स्वरूप आभ्यन्तरप्रवृत्ति और ज्ञानोपयोगका स्वरूप बाह्यप्रवृत्ति बतलाया है । संक्षेपमें इस टीकाका मूल्य निम्नलिखित सूत्रोंमें अभिव्यक्त किया जा सकता है
१. पूर्वाचार्योको मान्यताओंका पुष्टीकरण । २. पारिभाषिक शब्दोंके व्युत्पत्तिमूलक निर्वचनोंका विवेचन । ३. नवीन दार्शनिक मान्यताओंका सयुक्तिक प्रतिपादन ।
४. मणि-प्रवालन्यायद्वारा मिश्रित भाषाका प्रयोग कर अपने युग तकको भाषामलक प्रवृत्तियोंका निरूपण।
५. पाठकशैलीद्वारा विषयोंका विशदीकरण । ६. संख्याओं, सूत्रों एवं गणितविषयक मान्यताओंका विवेचन ।
७. भंग और विकल्प जालका विस्तार कर विषयका वितत भिन्नकी प्रक्रिया द्वारा उत्थापन ।
८. मूलसूत्रोंमें प्रयुक्त प्रत्येक पदका पर्याप्त विस्तार और सन्दर्भोका विशदीकरण ।
९. प्रश्नोत्तरों द्वारा विषयका स्फुटीकरण । १०. शंकाओं और समाधानोंके सन्दर्भ में पाठान्तरोंका संकेतीकरण। ११. पूर्वाचार्योंके सन्दर्भोको उद्धृत कर ऐतिहासिक तथ्योंका प्रतिपादन !
१२. स्वकथनके पुष्टीकरणके हेतु अन्य आचार्यो के वाक्यों या मान्यताओंका प्रस्तुतीकरण ।
१३. विरोधी विषयोंमें गुरु-परम्पराका अनुसरण कर निर्णयका प्रतिपादन।
१४. श्रुतबहुभागको विस्मृत्तिके गर्भसे निकालकर स्वतन्त्र एवं सर्जनात्मक शक्तिमें निबद्धीकरण ।
भुतघर और सारस्वताचार्य : ३३५
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१५. सूत्रकारके वंशानुवतित्व रहनेपर भी स्वतन्त्ररूपसे कम-सिद्धान्त एवं दार्शनिक सिद्धान्तोंका निरूपण ।
वीरसेनाचार्यने अकेले वह कार्य किया है, जो कार्य महाभारत के रचयिताने किया है। महाभारतका प्रमाण एक लक्ष श्लोक है और यह टीका भी लगभग इतनी ही बड़ी है । अतएव 'यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तद्वचिद्' उक्ति यहाँ भी चरितार्थ है।
जिनसेन द्वितीय
आचार्य जिनसेन द्वितीय, श्रुतधर और प्रबुद्धाचार्योके बोचकी कड़ी होनेके कारण इनका स्थान सारस्वताचार्यों में परिगणित है। ये प्रतिभा और कल्पनाके अद्वितोय धनी हैं। यही कारण है कि इन्हें 'भगवत् जिनसेनाचार्य' कहा जाता है। श्रत या आगम ग्रन्थोंकी टोका रचनेके अतिरिक्त मुलग्रन्थरचयिता भी हैं। इनका पाण्डित्य साहित्य-गगनमें भास्करके समान निरन्तर प्रकाशित है । जीवन-परिता
इनके वैयक्तिक जीवनके सम्बन्धमें विशेष जानकारी अप्राप्त है। जयधवला टोकाके अन्तमें दो गयो पद्य-रचनासे इनके व्यक्तित्वके सम्बन्धमें कुछ जानकारी प्राप्त होती है। इन्होने बाल्यकालमें (आबद्धकर्ण-कर्णसंस्कारके पूर्व) ही जिनदीक्षा ग्रहण कर ली थी। कठोर ब्रह्मचर्यको साधना द्वारा वाग्देवीको आराधनामें तत्पर रहे । इनका शरीर कृश था, आकृति भी भव्य और रम्य नहीं थी। बाह्य व्यक्तित्वके मनोरम न होनेपर भी तपश्चरण, ज्ञानाराधन एवं कुशाग्र बद्धिके कारण इनका अन्तरङ्ग व्यक्तित्व बहुत ही भव्य था। ये जान और अध्यात्मके अवतार थे 1 इनको जन्म देनेका गौरव किस जाति-कुलको प्राप्त हुआ, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता।
जिनसेन मूलसंघके पञ्चस्तुपान्वयके आचार्य हैं । इनके गुरुका नाम वीरसेन और दादागुरुका नाम आर्यनन्दि था | वीरसेनके एक गुरुभाई जयसेन थे। यही कारण है कि जिनसेनने अपने आदिपुराणमें 'जयसेन का भी गुरुरूपमें स्मरण किया है । जिनसेनके सतीर्थ दशरथ नामके आचार्य थे । उत्तरपुराणको प्रशस्तिमें गुणभद्राचार्य ने बताया है कि जिस प्रकार चन्द्रमाका सघर्मी सूर्य होता है, उसी प्रकार जिनसेनके सधर्मी या सतीथं दशरथ गुरु थे, जो कि ससारके पदार्थोंका अवलोकन करानेके लिए अद्वितीय नेत्र थे। इनकी वाणीसे जगत्का स्वरूप
३३६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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अवगत किया जाता था।'
जिनसेन और दशरथ गुरुका सुप्रसिद्ध शिष्य गुणभन्न हुआ, जो व्याकरण, सिद्धान्त और काव्यका परगामी था। मुणभद्रने आदिपुराणके अवशिष्ट अंशको आरम्भ करते समय जिनसेनके प्रति अपनी बड़ी भारी श्रद्धा-भक्ति समर्पित की है तथा उनके ज्ञान-चरित्रको मुक्तकण्ठसे प्रशंसा की है।
जिनसेनका चित्रकूट, बंकापुर सौर उग्राम र रहार उस समय वनवास देशको राजधानी था, जो वर्तमानमें धारवाड़ जिले में है। इसे राष्ट्रकूट अकालवर्षके सामन्त लोकादित्यके पिता केयरसने अपने नामसे राजधानी बनाया था। बटग्राम और बटपदको एक मानकर कुछ विद्वान् बड़ौदाको बटग्राम या बटपद कहते हैं । चित्रकूट भी वर्तमान चित्तोड़से भिन्न नहीं है। इसी चित्रकूटमें एलाचार्य निवास करते थे, जिनके पास जाकर वीरसेनस्वामीने सिद्धान्तग्रन्थों का अध्ययन किया था।
जिनसेनके समयमें राजनीतिक स्थिति सुदृढ़ थी तथा शास्त्रसमुन्नतिका यह युग था। इनके समकालीन नरेश राष्ट्रकूटवंशी जयतुङ्ग और नृपतुङ्ग अपरनाम अमोघवर्ष (सन् ८१५-८७७ ई०) थे। इनकी राजधानी मान्यखेटमें उस समय विद्वानोंका अच्छा समागम था। अमोघवर्ष स्वयं कवि और विद्वान था । उसने 'कविराजमार्ग' नामक एक अलङ्कारविषयक ग्रन्थ कन्नड़ भाषामें लिखा है । अमोघवर्ष जिनसेनका बड़ा भक्क था। महावीराचार्य के 'गणित्तसारसंग्रह और 'संस्कृतकाव्य प्रश्नोत्तररत्नमाला के उल्लेखोंसे समध है कि अमाघवर्षने जेन दीक्षा ग्रहण कर ली थी। अमोघवर्ष के समयमें केरल, मालवा, गर्जर और चित्रकूट भी राष्ट्रकूट राज्यमें सम्मिलित थे। श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीका अनुमान है कि बड़ौदा भी अमोघवर्ष के राज्य में सम्मिलित था । आनतेन्द्र कोई राष्ट्रकूट राजा या सामन्त रहा होगा, जिनके बनना मन्दिा धवलाटीका लिखो गयी। अतएव जिनसेनका सम्बन्ध चित्रकुट के साथ रहने तथा अमोघवर्ष द्वारा सम्मानित होनेसे इनका जन्मस्थान महाराष्ट्र और कर्याटकको सीमाभूमिको अनुमानित किया जा सकता है। १. उत्तरपुराणप्रशस्ति श्लोक ११-१३ तक । २. आगल्य चित्रकूटात्ततः स भगवान् गुरोरनुज्ञानात् । ३. उत्तरपुराण प्रशस्ति ३२-३४ तथा श्रुतावतार श्लोक-१७९ । ४, महावीर गणितसार, शोलापुर संस्करण, १३, १४८ । ५. आदिपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ प्रथम संस्करण प्रस्तावना, पृ० १९ 1
श्रुतधर और सारस्वताचार्य : ३७
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अभिलेखों में वर्णित जिनसेनका व्यक्तित्य
श्रवणबेलगोलाके अभिलेखोंमें जिनसेनके उल्लेख अनेक स्थानों पर आये हैं। अभिलेखसंख्या ४७, ५०, १०५ और ४२२ में जिनसेनका निर्देश आया है। मेषचन्द्रप्रशस्तिमें लिखा है"सिना जिम वोरसेगा TETTER.मा-मस्कारः !"" जोयाज्जगत्यां जिनसेनसूरिय॑स्योपदेशोज्जवलदपणेन । व्यक्तीकृतं सर्वमिदं विनेयाः पुण्यं पुराणं पुरुषा विदन्ति ।। विनय भरण-पात्रं भव्यलोकैकमित्रं विबुधनुतचरित्रं तद्गणेन्द्राग्रपुत्र । विहितभुवनभद्रं वीतमोहोनिद्रं विनमत गुणभद्रं तीर्णविधासमुद्रं ॥
इन दोनों पद्योंमें जिनसेन और गुणभद्र दोनोंकी प्रशंसा की गयी है । जिनसेनके उपदेशसे गुणभद्रने अवशिष्ट आदिपुराणको पूर्ण किया और उत्तरप्राणको रचना की है । अभिलेख संख्या ४२२ में जिन जिनसेनका नाम आया है वे आचार्य जिनसेन द्वितीयसे भिन्न कोई भट्रारक हैं। अतः अभिलेखोंसे यह स्पष्ट है कि जिनसेन द्वितीय सिद्धान्त, पुराण और काव्यरचनामें अत्यन्त पटु थे। इनकी कविता-निझरिणीके सीकरोंसे सन्तुष्ट भव्यजन आनन्दमें मग्न होने लगते हैं । सरस्वतीका ग्रह लाड़ला अपने युगका महान् विद्वान् और आचार्य है ।
अभिलेख में जो जिनसेनके उपदेशको बात कही गयी है उसकी पुष्टि महापुराणके मङ्गलपद्योंसे भी होती है । उन्होंने मङ्गलाचरणमें ही यह निर्देश कर दिया है कि यदि मेरे द्वारा यह ग्रन्थ पूर्ण न हो सके तो तुम (गुणभद्र) इसे पूर्ण करना। अतः अभिलेखोंका सम्बन्ध जिनसेनाचार्यके साहित्यके साथ भी घटित हो जाता है । समय-विचार
हरिवशपुराणके रचयिता जिनसेन प्रथमने वीरसेन और जिनसेनका उल्लेख किया है । उन्होंने लिखा है
जितात्मपरलोकस्य कवीनां चक्रवर्तिनः । बीरसेनगुरोः कीतिरफलकावभासते॥ याऽमिताभ्युदये पायें जिनेन्द्रगुणसंस्तुतिः । स्वामिनो जिनसेनस्य कीर्ति सङ्कीर्तयत्यसौ ।।
१. जनशिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख ४७, पृ० ६२, पद्य ३० । २. वहीं, अभिलेख-१०५, पृ० १९९, पद्य २२-२३ ।
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वर्धमानपुराणोद्यदादित्योक्ति गभस्तयः । प्रस्फुरन्ति गिरीशान्तः स्फुटस्फटिक भित्तिषु ।।
जिन्होंने परलोकको जीत लिया है और जो कवियोंके चक्रवर्ती हैं उन वीरसेनगुरुकी कलङ्करहित कीर्ति प्रकाशित हो रही है। जिनसेनस्वामीने पार्श्वनाथ भगवान के गुणोंकी स्तुति बनायी है- पाश्र्वभ्युदयकी रचना की है, बही स्तुति उनकी कीत्तिका वर्णन कर रही है। इन जिनसेनके वर्धमानपुराण रूपो उदित होते हुए सूर्य की उक्तिरूपी रश्मियाँ विद्वद् पुरुषोंके अन्तःकरणरूपी स्फटिक भूमिमें प्रकाशमान हो रही है ।
उक्त सन्दर्भ में प्रयुक्त 'अवभासते', 'सङ्कीर्तयति', 'प्रस्फुरन्ति' जैसे वत्तंमानकालिक क्रियापद हरिवंशपुराणके रचयिता जिनसेनका इनको समकालीन सिद्ध करते हैं । हरिवंशपुराणकी रचना शक संवत् ७०५ ( ई० सन् ७८३) में पूर्ण हुई है। अतः जिनसेनस्वामीका समय ई० सन्की आठवीं शतीका उत्तरार्द्ध है । जयधवलाटीकाकी प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि इसकी समाप्ति जिनसेनने शक संवत् ७५९ फाल्गुन शुक्ला दशमकिं पूर्वामें की है। इस टीकाको वीरसेनस्वामीने प्रारम्भ किया था, पर वे ४० हजार श्लोकप्रमाण हो सके थे। अपने गुरुके इस अपूर्ण कार्यको जिनसेनने पूर्ण किया है । जिनसेनने आदिपुराणका प्रारम्भ अपनी वृद्धावस्था में किया होगा । इसी कारण वे इसके ४२ पर्व हो लिख सके | अतः जयजवलाटीकाके अनन्तर आदिपुराणकी रचना मानने से जिनसेनका अस्तित्व ई० सन्की नवम् शर्ती तक माना जा सकता है । गुणभद्रने उत्तरपुराणको समाप्ति ई० सन् ८९७ में की है ।
यह पहले ही लिखा जा चुका है कि जिनसेनाचार्य के वित्र्य गुणभद्रने आदिपुराण ४३ पर्वके चतुर्थं पद्यसे समाप्तिपर्यन्त कुल १६२० इलोक र हैं। महापुराणके द्वित्तीय भागस्वरूप उत्तरपुराणको गुणभद्रने पूर्ण किया है। आदिपुराण में आदितीर्थङ्करका जीवनवृत्त है और उत्तरपुराण में अजितनाथ करो महावीपर्यन्त २३ तीर्थकर १२ चक्रवर्ती, ९ नारायण, ९ बलभद्र और प्रतिनारायण तथा जीवन्वर स्वामी आदि विशिष्ट पुण्यात्मा पुरुषोंके कथानक अंकित किये गये हैं। उत्तर पुराण के अन्त में गुणभद्रक शिष्य लोकसेन द्वारा लिखित प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि शक संवत ८२० श्रावण शुक्ला पंचमी गुरुवार को इस ग्रन्थकी पूजा भी गयी। अतः उत्तरपुराणकी १. हरिवंशपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, ११३९ - ४३ |
तर और सारस्वताचार्य : ३३९
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समाप्ति इससे पहले होनी चाहिये । इस प्रकार गुणभद्रका समय भी ई० सन्को दशम शताब्दि मानने में किसी प्रकारकी बाधा नहीं आतो है। वास्तव में वीरसेन, जिनसेन और गुणभद्र-इन तीनों आचार्यों का साहित्यिक व्यक्तित्व अत्यन्त महनीय है और तीनों एक दूसरेके अनुपूरक हैं। योरसेनके अपूर्ण कार्यको जिनसेनने पूर्ण किया है और जिनसेनके अपूर्ण कार्यको गुणभद्ने । रचनाएँ
जिनसेनाचार्य काव्य, व्याकरण, नाटक, दर्शन, अलङ्कार, आचार, कर्मसिद्धान्त प्रभृति अनेक विषयों के बहुज विद्वान थे। इनकी केवल तीन ही रचनाएँ उपलब्ध हैं । वर्धमानचरितकी सुचना अवश्य प्राप्त होती है, पर यह कृति अभी तक देखने में नहीं आयी है ।
१, पार्वाभ्युदय २. आदिपुराण
३. जयवबलाटीका १. पाश्र्वाभ्युदय'
यह कालिदासके मेघदूत नामक काव्यकी समस्यापूर्ति है। इसमें कहीं मेघदतके एक और कहीं दो पादोंको लेकर पद्य-रचना की गयी है । इस काव्यग्रन्थमें सम्पूर्ण मेघदूत समाविष्ट है । अतः मेघदूतके पाठशोधनके लिए भी इस ग्रन्थका मूल्य कम नहीं है।
दीक्षा धारण कर तीर्थंकर पार्श्वनाथ प्रतिमायोगमें विराजमान हैं। पूर्व भवका विरोधी कमठका जीव शम्बर नामक ज्योतिष्कदेव अवधिज्ञानसे अपने शत्रुका परिज्ञान कर नानाप्रकारके उपसर्ग देता है। इसी कथावस्तुको अभिव्यञ्जना पाश्र्वाभ्युदय में की गयी है। शृंगाररससे ओत-प्रोत मेघदूतको शान्तरसमें परिवर्तित कर दिया गया है । साहित्यिक दृष्टिसे यह काव्य बहुत सुन्दर और काव्यगुणोंसे मंडित है। इसमें चार सर्ग हैं--प्रथम सर्गमें ११८, द्वितोय सगंमें ११८, तुतीयमें ५७ और चतुर्थ में ७१ पद्य हैं। इस काव्यमें शम्बर (कमठ) यक्षके रूपमें कल्पित है । कविता अत्यन्त प्रौढ़ एवं चमत्कारपूर्ण है । यहाँ उदाहरणार्थ एक-दो पद्य उद्धृत किये जाते हैं .
तन्त्रीमार्दा नयनसलिल: सारयित्वा कथंचित
स्वाङ्गुल्यः कुसुममृदुभिर्वल्लरीमस्पृशन्ती । १. पाश्र्वाभ्युदय, निर्णय सागर प्रेस. बम्बई ।
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ध्यायं ध्यायं त्वदुपगमनं शून्यचिन्तानुकण्ठी,
भूयोभूयः स्वयमपि कृतां मूर्छनां विस्मरन्ती' ।। आम्रकूट पर्वतके शिखर पर मेघके पहुंचने पर कवि पर्वत-शोभाका वर्णन करता हुआ कहता है
कृष्णाहिः किं बलयिततनुः मध्यमस्याधिशेते; किं वा नीलोत्पलविरचितं शेखरं भूभृतः स्यात् । इत्याशङ्कां जनयति पुरा मुग्धावद्याधरीणां,
वाय्यारूढे शिखरमचल: स्निग्धवेणीसवर्णे ॥ समस्यापूतिमें कविने सर्गथा नवीन भावयोजना की है। मार्गवर्णन और बसुन्धराको विरहावस्थाका वर्णन मेघदूतके समान ही है। परन्तु इसका संदेश मेघदतसे भिन्न है। शम्बर पाचर्णनाथके धैर्य, सौजन्य, सहिष्णुता और अपार शक्तिसे प्रभावित होकर स्वयं वैरभावका त्याग कर उनको शरणमें पहुंचता है और पश्चात्ताप करता हुआ अपने अपराधको क्षमायाचना करता है । कविने काव्यके बीचमें “पापापाये प्रथममुदितं कारणं भक्तिरेव" जैसी सूक्तियोंकी भी योजना की है । इस काव्यमें कुल ३६४ मन्दाक्रान्ता पद्य हैं। २. आदिपुराण
यह आकर ग्रन्थ है। पुराण होते हुए भी इसमें इतिहास, भूगोल, संस्कृति समाज, राजनीति और अर्थशास्त्र आदि वषय भी समाविष्ट हैं। जिनसेनने पुराणके लिए आठ वर्ण्य विषय बतलाये हैं।
१. लोक-लोक-संस्थान, लोक-आकृति, क्षेत्रफल, भेद एवं उर्घा, मध्य और अधोलोकका वर्णन, क्षेत्र, ढोप, पर्वत, नदी आदिका वर्णन ।
२. देश--जनपदोंका चित्रण । ३. नगर-अयोध्या, बाराणसो प्रभृति नगरियोंका चित्रण । ४. राज्य---राज्योंकी समृद्धिका चित्रण । ५, तीर्थ - धर्मप्रवृत्ति एवं तीर्थभूमियोंका निरूपण । ६. दान-तप-तप-दानकी फलोत्पादक कथाओंका वर्णन । ७, गति-चतर्गतिके दुःखोंका वर्णन 1
८. फल-पुण्य-पापके फलके साथ मोक्षप्राप्तिका निरूपण । १. पााम्युदय ३।३९ । २. वहीं १७ । ३. यह भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित है।
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इन आठ विषयोंके अतिरिक्त आदिपुराण में निम्नलिखित पौराणिक तत्त्व भी विद्यमान हैं
१. शलाकापुरुषोंके कोनों पर आश्रयण । २. आख्यानों में सहसा दिशापरिवर्तन |
३. समकालीन सामाजिक समस्याओं का उद्घाटन ।
४. पारिवारिक जीवनके कटु-मधु चित्र |
५. संवाद तत्वकी अल्पता रहनेपर भी घटनासूत्रों द्वारा आख्यानोंमें गतिमत्वधर्मकी उत्पत्ति ।
६. कथाओं के मध्य में पूर्वजन्मके आख्यानोंका समवाय, धर्मतत्त्व और धर्मसिद्धान्तोंका नियोजन |
७. रोचकता मध्यविन्दु तक रहती है। अतः आगेकी कथावस्तुमें सघनता और घटनाओंका बाहुल्य |
८. अलंकृत वर्णन के साथ लोकतत्त्व और कथानक रूढ़ियों का प्रयोग । ९. लोकानुश्रुतियां, पुराणगाथाएँ, लोकविश्वास प्रभूतिका संयोग । १०. प्रेम, शृंगार, कुतूहल, मनोरजन, रहस्य एवं धर्मश्रद्धाका वर्णन । ११. जनमानसका प्रतिफलन, पूर्वजन्मके संस्कार और फलोपभोगोंकी तरलताका चित्रण |
आदिपुराणकी संक्षिप्त कथा-वस्तु
आदिपुराणको कथा वस्तुके प्रधान नायक आदि तीर्थंकर ऋषभदेव और उनके पुत्र भरत चक्रवर्ती हैं। इन दोनों शलाकापुरुषोंके जीवनसे सम्पर्क रखनेवाले कितने ही अन्य महापुरुषोंकी कथाएँ भी आयी हैं। इस महाग्रन्थकी कथावस्तु ४७ पर्वो में विभक है । प्रथम दो पर्वों में कथाके वक्ता, श्रोता एवं पुराण श्रवणका फल आदि वर्णित है । तृत्तीय पर्व में उत्सर्पण और अवसर्पण कालों के सुषुमसुमादिभेदों एवं भोगभूमिकी व्यवस्थापर प्रकाश डाला गया है। प्रतिश्रुति आदि कुलकरोंकी उत्पत्ति, उनके कार्य और उनकी आयु आदिका वर्णन आया है । अन्तिम कुलकर नाभिरायके समय में गगनाङ्गग में सर्वप्रथम घनघटा, विद्युत् प्रकाश और सूर्य की स्वर्णरश्मियोंके सम्पर्क से उसमें रंग-विरंगे इन्द्रधनुष दिखलायी पड़ते हैं। वर्षा होती है और वसुधातल जलमय हो जाता है । मयूर नृत्य करने लगते हैं और चिरसंतप्त चातक सन्तोषको साँस लेता कल्पवृक्ष नष्ट हो जाते हैं और विविध प्रकारके धान्य अपने-आप उत्पन्न होने लगते हैं । कल्पवृक्षोंके न रहने से प्रजा में व्याकुलता व्याप्त हो जाती है आर
३४२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा
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सभी लोग आजीविकाविहीन दुःखी हो, नाभिरायके पास जाकर निर्वाह योग्य व्यवस्था पूछते हैं।
नाभिराय चौदहवें कुलकर मनु थे। उन्होंने धान्य, फल, इक्षु, रस आदिउपयोग करने के विधि बतलायी तथा मिट्टीक बत्तन बनाकर आवश्यकता की पूर्ति करनेका उपदेश दिया। प्रजामें सुख और शान्ति बनाये रखने के लिए दण्डव्यवस्था भी प्रतिपादित की। इसी पर्व में सभी कुलकरोंके कार्यों का वर्णन आया है । चतुर्थ पर्व में पुराणके वर्णनीय विषयोंका प्रतिपादन करने के अनन्तर जम्बू द्वीपके विदेह क्षेत्र के अन्तर्गत गन्धिलदेश और उसकी अलकानगरीका चित्रण आया है। इस नगरी के अधिपति अतिबल विद्याधर और उसकी मनोह्रा नामक राज्ञीका वर्णन किया है। इस दम्पतिके महाबल नामका पुत्र उत्पन्न हुआ । अतिबल विरक्त होकर दोक्षित हो गया और महाबलको शासनभार प्राप्त हुआ | महाबलके महामति, सम्भिन्नमति, शतमति और स्वयं बुद्ध ये चार मन्त्री थे। राजा मन्त्रियोंके ऊपर शासनभार छोड़कर भोगोपभोगोंके सेवनमें आसक्त हो गया ।
पंचम पर्व में महाबलको विरक्ति और सलेखनाका निरूपण किया है। २२ दिनोंकी संलेखना के प्रभावसे महाबल ऐशान स्वर्ग में ललितांग नामका महद्धिक देव होता है । षष्ठ पर्व में आयुके छः मास शेष रहनेपर ललितांग दुःखी होता है, पर समझाये जानेपर वह अच्युत स्वर्गको जिनप्रतिमाओंका पूजन करतेकरते चैत्यवृक्ष के नीचे पंचनमस्कार मन्त्र का जाप करते-करते स्वर्गकी आयुको पूर्ण करता है | ललितांग स्वर्गसे च्युत हो, पुष्कलावत देशके उत्पलस्वेट नगर के राजा ववाह और रानी वसुन्धराके गर्भसे वज्रजंच नामका राजपुत्र होता है । ललितांगको प्रिया स्वयंप्रभा पुण्डरोकणी नगरीके राजा बज्रदन्तके यहाँ श्रीमती नामकी पुत्री होती है । यशोधर गुरुके कैवल्यमहोत्सव के लिए देवोंको आकाशमें जाते देखकर श्रीमतीको पूर्वभवका स्मरण हो आत्ता है और वह अपने प्रिय ललितांगदेवको प्राप्त करने के लिए कृत्संकल्प हो जाती है | पंडितत्राय उसकी सहायता करती है । वह श्रीमती द्वारा निर्मित पूर्वभवप्रतीकोंसे युक्त चित्रपटका लंकर उत्पलखेटके महापूत जिनालय में पहुँचता है। यहां पर चित्रपटको फैला देती है । दर्शकवृन्द उसे देखकर चकित हो जाते हैं, पर उसके यथार्थ रहस्यसे अनभिज्ञ ही रहते हैं ।
सप्तम पर्व में बताया गया है कि ललितांगदेवका जीव वज्यजंघ महापुत चैन्यालय में आता है, और उस चित्रपटको देखते ही, उसे अपने पूर्वजन्मका स्मरण हो जाता है, जिससे वह अपनी प्रिया स्वयंप्रभाको प्राप्त करनेके लिए
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अष्टम पर्व में वजंघ और
भोगोपभोग
बेचैन हो जाता है । पण्डिताधायको वह भी एक चित्रपट भेंट करता है, जिसमें स्वयंप्रभा जीवन रहस्यको अंकित किया गया है। वज्रजंत्र पुण्डरीकिणी नगरी में आता है और श्रीमती के साथ उसका विवाह हो जाता है । ललितांगदेव और स्वयंप्रभा पुनः बच्चजघ और श्रीमतोके रूप में सयोगको प्राप्त करते हैं । किया गया है। वज्रजंघका श्वसुर वज्रदन्त चक्रवर्ती कमलमें बन्द मृत भ्रमरको देखकर विरक्त हो जाता है । पुत्र अमिततेजके द्वारा शासन स्वीकृत न किये जानेपर वह उसके पुत्र पुण्डरीकको राज्य देकर यशोधर मुनिके समक्ष अनेक राजाओंके साथ दीक्षित हो जाता है । पण्डिताधाय भी दीक्षित हो जाती है। चक्रवर्तीकी पत्नी लक्ष्मीमति पुण्डरीकको अल्पवयस्क जानकर राज्य सम्भालने के लिए अपने जामाता वज्रजघको बुलाती है । वज्रजंघ अपनी प्रिया श्रीमती के साथ पुण्डरीकिणी नगरीको प्रस्थान करता है । वह मार्ग में चारणऋद्धिधारी मुनियोंको आहारदान देता है । वह दमधर नामक मुनिराज से अपने भवान्तर जानना चाहता है, मुनिराज उसे आठवें भाव में तीर्थंकर होने तथा श्रीमतोको दानतीर्थका प्रवर्तक श्रेयांस होने की भविष्यवाणी करते हैं । वज्ञजंघ पुण्डरीकिणी नगरमें पहुंचकर सबको सान्त्वना देता है और अपने नगर में लौट आता है ।
I
I
नवम पर्व के प्रारम्भ में भोगोपभोगोंका चित्रण आया है । एक दिन नजंघ और श्रीमती शयनागारमें शयन कर रहे थे, सुगन्धित द्रव्यका धूम्र फैलनेस शयनागार अत्यन्त सुवासित हो रहा था । संयोगवश द्वारपाल उस दिन गवाक्ष खोलना भूल गया, जिससे श्वास रुक जाने के कारण उन दोनोकी मृत्यु हो गयी । पात्रदानके प्रभाव से दोनों उत्तरकुरुमें आर्य आर्या हुए। प्रीतिकर मुनिराज के सम्पर्क से आर्य मरण कर ईशान स्वर्ग में श्रीधर नामका देव हुआ । आर्या भी उसी स्वर्ग में देवी हुई ।
दशम पर्व के प्रारम्भ में प्रीतिकरके केवलज्ञान - उत्सवका वर्णन आया है । श्रीधर भी इस उत्सव में सम्मिलित हुआ । अन्तमें वह स्वर्ग से व्युक्त होकर जम्बू द्वीपके पूर्व विदेहकी सुषमा नगरीमें सुदृष्टि राजाकी सुन्दरनन्दा नामक रानीके गर्भसे सुविधि नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। यह चक्रवर्ती राजा हुआ और श्रीमतीका जीव केशब नामक उसका पुत्र हुआ। सुविधि पुत्रके अनुरागके कारण मुनि न बन सका, पर धरपर ही धावकके व्रतोंका पालन कर सन्यासके प्रभावसे सोलहवें स्वर्ग में अच्युतेन्द्र हुआ ।
एकादश पर्व में अच्यूतेन्द्र के पर्याय वज्रनाभिका वर्णन आया है। वज्रनाभि चक्ररत्नकी प्राप्तिके अनन्तर दिग्विजय के लिए प्रस्थान करता है । राज्यको
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समृद्ध करने के पश्चात् वह दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारणभावनाओंका चिंतन कर तीर्थंकरप्रकृतिका बन्ध करता है। अन्तमें प्रायोपगमन सन्यास धारण कर सर्वार्थसिद्धि विमानमें उत्पन्न होता है। ____ द्वादश पर्वमें अहमिन्द्रका जीव ऋषभदेवके रूप में नाभिराय और मरुदेवीके यहाँ जन्म धारण करता है । इस पर्वमें मरुदेवीकी गर्भावस्था और देवियोंको की गयी सेवांका वर्णन किया है। ___त्रयोदय पर्वमें आदितीर्थंकर ऋषभदेवका इन्द्र द्वारा जन्माभिषेक उत्सवके किये जाने का निरूपण आया है। उनका सुमेरु पर्वतपर एक हजार आठ कलशोंके द्वारा अभिषेक सम्पन्न होता है। चतुर्दश पर्वमें इन्द्राणी बालकको वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित कर माताको सौंप देसी है 1 इन्द्र ताण्डवनृत्य कर उनका ऋषभदेव नाम रखता है।
पञ्चदश पर्वमें ऋषभदेवके शारीरिक सौन्दर्य और उनके एक हजार आठ शुभ लक्षणोंका वर्णन आया है। महाराज नाभिराय युवक होनेपर पुत्रसे विवाह करनेका अनुरोध करते हैं। फलस्वरूप कच्छ और महाकच्छकी बहनें यशस्वती और सुनन्दाके साथ ऋषभदेवका विवाह सम्पत्र होता है।
षोड़शपर्वके अनुसार यशस्वतीके उदरसे भरतचक्रवर्तीका जन्म होता है और सुनन्दाके उदरसे बाहरलोका । ऋषभदेवका यशस्वतीसे अन्य ९८ पूत्र और ब्राह्मी नामक कन्याको प्राप्ति होती है । सुनन्दासे बाहुवलीके अतिरिक्त मुन्दरी नामक कन्यारत्न भी उपलब्ध होती है । ऋषभदेव प्रजाको असि, मषि, कृषि, बाणिज्य, सेवा और शिल्प इन षट् आजाविकोपयोगी कर्मोको शिक्षा देते हैं । क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णो को व्यवस्था करते हैं ।
सप्तदश पर्वमें ऋषभदेवको विरक्ति प्राप्त करनेके लिए एक मार्मिक घटना घटित होती है। नीलाञ्जना नामक नर्तको अचानक विलीन हो जाती है। ऋषभदेव इस अघटित घटनाको देखते ही विरक्त हो जाते हैं । स्वर्गसे लौकान्तिकदेव आकर उनके वैराग्यको पुष्टि करते हैं । वे अयोध्या के पट्टपर भरतका राज्याभिषेक कर अन्य पुत्रोंको यथायोग्य राज्य देते हैं । सिद्धार्थवनमें जाकर परिग्रहका त्यागकर चैत्र कृष्णा नवमोके दिन ऋषभदेव दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं । इनके साथ चार हजार अन्य राजा भी दीक्षित हो जाते हैं । ____ अष्टदश पर्वमें बताया गया है कि ऋषभदेव छः माहका योग लेकर शिलापट्रपर आसीन हो जाते है। दीक्षा धारण करते ही मनःपयंयज्ञान उत्पन्न हो जाता है । साथमें दीक्षित हुए राजा भ्रष्ट हो जाते हैं और विभिन्न मतोंका
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प्रचार करते हैं। कच्छ, महाकच्छके पुत्र नमि-विनमि भगवान ऋषभदेवसे कुछ माँगने आते हैं | धरणेन्द्र उन्हें समझाकर विजयार्धपर्वत पर ले जाता है ।
एकोनविंश पर्वमें धरणेन्द्र द्वारा नमि-बिनमिको विजया पर्वतको नगरियोंका परिचय दिया गया है। विशपर्वम आदितीर्थंकर ऋषभदेवका एक वर्षके तपःका . अनन्त हस्तिनापुर गांराके यहां पशु रसका आहार होता है ।
एकविंश पर्वमें ध्यानका वर्णन किया गया है । द्वाविंश पर्वमें ऋषभदेवको केवलज्ञानको प्राप्ति, ज्ञानकल्याणक उत्सव एवं समवशरणका चित्रण आया है। त्रयोविंश पर्वमें समवशरणमें इन्द्रने आदि तीर्थकरको पूजा-स्तुति की है । चतुविंश पर्व में भरत द्वारा भगवान ऋषभदेवको पूजा की गयी है। इसी पर्वमें भगवानको दिव्यध्वनिका भी वर्णन आया है। पंचविश पर्व में अष्टप्रातिहाय, चौंतीस अतिशय और अनन्तचतुष्टय सुशोभित तीर्थकरकी स्तुति की गयी है। इस पर्वमें सहस्रनामरूप महास्तवन भी आया है।
षड्विंशतितम पर्व में भरत द्वारा चक्ररत्नको पूजा और पुत्रोत्सव सम्पन्न करनेका वर्णन समाहित है। चक्रवर्ती दिग्विजपके लिए पूर्व दिशाको ओर प्रस्थान करता है । सप्तविंशतितम पर्वमें गंगा और बन शोभाका वर्णन आया है। अष्टविंशतितम पर्वका आरम्भ दिग्विजयार्थ चक्रवर्तीक सैनिक प्रयाणसे होता है । चक्रवर्तीको सेना स्थलमार्गसे गंगाके किनारेके उपवनमें प्रविष्ट होती है । उसने लवण समुद्रको पार कर मागधदेवको जीता। एकोनविंशत्तम पर्व में दक्षिण दिशाको ओर अभियान करनेका वर्णन आया है। विशतितम पर्वमें चक्रवर्ती दक्षिणको विजय कर पश्चिम दिशाकी ओर बढ़ता है और विन्ध्यगिरिपर पहुंचता है। अनन्तर समुद्रके किनारे-किनारे जाकर लवण समुद्रके सटपर पहुंचता है।
एकत्रिशत्तम पर्वमें आया है कि अठारह रोड़ घोड़ों का अधिपति भरत उत्तरकी ओर प्रस्थान करता है और विजयाद्ध की उपत्यकामें पहुंचता है। द्वात्रिंशत्तमपर्वमें विजयार्धके गुहा-द्वारके उद्घाटनके अनन्तर नागजातिको वशमें किये जानेका वर्णन है । चिलात और आवतं दोनों ही मलेच्छ राजा निरुपाय होकर शरणमें आते हैं। __ त्रयस्त्रिंशत्तम पर्व में बताया है कि भरतचक्रवर्ती दिग्विजय करनेके पश्चात् सेना सहित अपनी नगरीमें आता है । मार्गमें अनेक देश, नगर और नदियोंका उल्लंघन कर कैलासपर्वतपर अनेक राजाओंके साथ ऋषभदेवकी पूजा करता है।
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चतुस्त्रिशत्तम पर्व में चक्रवर्ती कैलाससे उतरकर अयोध्याकी ओर बढ़ता है । यहाँ चक्ररत्न नगरीके भीतर प्रविष्ट नहीं होता, निमितज्ञानियों द्वारा भाइयों को विजित करने की बात झालकर करत उके पास दूत भेजता है । बाहुबलीको छोड़ भारत के अन्य सब भाई ऋषभदेवके चरणमूलमें जाकर दीक्षित हो जाते हैं ।
पञ्चत्रिंशत्तमपत्र में बाहुबलिद्वारा भरतका युद्ध निमन्त्रण स्वीकार कर लिया जाता है । षट्त्रिंशत्तम पर्व में भरत और बाहुबलिके नेत्र, जल और मल्लयुद्धका वर्णन आया है । उक्त तीनों युद्धों में बाहुबलिको विजयी देखकर भरत कुपित हो चक्ररत्नका उपयोग करते हैं, जिससे बाहुबलि विरक्त हो जिनदीक्षा ग्रहण कर लेते हैं । सप्तत्रिंशत्तम पर्व में चक्रवर्तीके अयोध्या नगरीमें प्रवेशका वर्णन आया है । अष्टत्रिंशत्तम पर्वमे भरतद्वारा अणुव्रतियोंको अपने घर बुलाये जानेका उल्लेख आता है। भरत इस सन्दर्भ में ब्राह्मण वर्णकी स्थापना करते हैं । एकोनचत्वारिंशत्तम और एकचत्वारिंशत्तम पर्वो में क्रियाओं और संस्कारोंका वर्णन आया है । द्विचत्वारिंशत्तम पदमें राजनीति और वर्णाश्रमधर्मका उपदेश अंकित है । त्रिचत्वारिंशत्तम और चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्वो में जयकुमारका सुलोचनाके स्वयंवर में सम्मिलित होना तथा अन्य राजाओंके साथ युद्ध करनेका वर्णन आया है ।
I
पञ्चचत्वारिंशत्तम पर्व में जयकुमार और सुलोचनाके प्रेम-मिलनका चित्रण आया है । जयकुमार सुलोचनाको पटरानी बनाता है । षट्चत्वारिंशत्तमपर्व में जयकुमार और सुलोचनाके अपने पूर्व भवका स्मरणकर मूर्छित होनेका वर्णन आया है । अन्तिम सप्तचत्वारिंशत्तम पर्व में पूर्वभवावलीको चर्चा करते हुए कहा है कि जयकुमार संसारसे विरक्त हो जाता है और दीक्षित हो ऋषभदेव के समवशरण में गणवरपद प्राप्त करता है । चक्रवर्ती भरत दाक्षा ग्रहण करता है, और उसे तत्काल केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है। भगवान ऋषभदेव अन्तिम बिहार करते हैं और कैलासपर्वतपर उन्हें निर्वाणप्राप्ति हो जाती है ।
इस प्रकार आदिपुराण में ऋषभदेव के दस पूर्वभवोंकी कथाएँ आयो है । दोनों शलाकापुरुषोंका विस्तृत जीवन-परिचय इस पुराण में अकित है।
इस ग्रन्थके ४२ वर्ष (वर्ग) जिनसेनने लिखे हैं और उनको मृत्यु हो जानेपर शेष पाँच पर्व उनके शिष्य गुणभन्ने लिखे हैं । सम्पूर्ण ग्रन्थ 'महापुराण' के नामसे प्रसिद्ध है और सुयोग्य गुरु-शिष्य को यह अनुपम कृत्ति मानी जाती है । ३. जयधवलाटोका
कषायप्राभूत के प्रथम स्कन्धको चारों विभक्तियों पर जयधवला नामको
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बीस हजार श्लोकप्रमाण टीका लिखनेके अनन्तर आचार्य वीरसेनका स्वर्गवास हो गया, अतः उनके शिष्य जिनसेनने अवशिष्ट भागपर चालीस हजार श्लोकप्रमाण टीका लिखकर उसे पूर्ण किया। यह टीका भी वीरसेनस्वामीको शैली (संस्कृतमिश्रित प्राकृत भाषा) में मणि-प्रवालन्यायसे लिखी गयी है। टीका इस रूपमें लिखी गयी है कि अन्तःपरीक्षणसे भी यह निर्णय नहीं किया जा सकता कि गुरु और शिष्यमसे किसने कितना भाग रचा है । इसीसे जिनसेनाचार्यके वेष्य और रचनाचातुर्यका अनुमान किया जा सकता है। इन्होंने जयघक्लाको प्रशस्तिमें लिखा है कि गुरुके द्वारा बहुवक्तव्य पूर्वाधके प्रकाशित कर दिये जानेपर, उसको देखकर इस अल्पवक्तव्य उत्तरार्धको पूरा किया।
इस टीकाको तीन स्कन्धों में विभाजित किया गया है-१. प्रदेशविर्भाक्तपर्यन्त गारमाध; २ म, उद: बार उपयोग विसीय स्कन्ध एवं ३. शेष भाग तृतीय स्कन्ध है। इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारके अनुसार संक्रमके पहलेका विभक्तिपर्यन्त भाग वीरसेनस्वामोने रचा है। गणना करनेपर विभक्तिपर्यन्त अन्यका परिमाण साढ़े छब्बीस हजार श्लोक है, पर यहाँ गणना स्थूलरूपमें ग्रहणकर बीस हजार प्रमाण कहा गया है । अवशेष टोका जिनसेनस्वामीकी है।
आचार्य विद्यानन्द आचार्य विद्यानन्द ऐसे सारस्वत हैं, जिन्होंने प्रमाण और दर्शनसम्बन्धी ग्रन्थोंको रचनाकर श्रुतपरम्पराको गतिशील बनाया है। इनके जीवनवृत्तके सम्बन्धमें प्रामाणिक इतिवृत्त ज्ञात नहीं है । 'राजावलोकये में विद्यानन्दिका उल्लेख आता है और संक्षिप्त जीवन-वृत्त भी उपलब्ध होता है, पर वे सारस्वताचार्य विद्यानन्द नहीं हैं, परम्परा-पोषक विद्यानन्दि हैं। जीवन-वृत्त - आचार्य विद्यानन्दको रचनाओंके अवलोकनसे यह अवगत होता है कि ये दक्षिण भारतके कर्णाटक प्रान्तके निवासी थे। इसी प्रदेशको इनकी साधना और कार्यभमि होनेका सौभाग्य प्राप्त है। किंवदन्तियोंके आधारपर यह माना जाता है कि इनका जन्म ब्राह्मण परिवारमें दया था। इस मान्यताकी सिद्धि इनके प्रखर पाहित्य और महती विद्वतासे भी होती है । इन्होंने कुमारावस्थामें
-... -- . - . १. पष्ठिरष सहस्राणि ग्रन्यानां परिमाणतः । श्लोकेनानुष्टुभेनात्र निर्दिष्टान्यानपूर्वशः ।। विभक्तिः प्रथमस्कन्यो द्वितीयः संक्रमोदयौ। उपयोगरच शेषस्तु तृतीयः स्कन्ध इष्यते ॥
जयघवला प्रशस्ति ९।१०।
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हो वैशेषिक, न्याय, मीमांसा, वेदान्त आदि दर्शनोंका अध्ययन कर लिया था । इन आस्तिक दर्शनोंके अतिरिक्त ये दिङ्नाग, धर्मकीति और प्रज्ञाकर आदि बौद्ध दार्शनिकों के मन्तव्योंसे भी परिचित थे। शक संवत् १३२० के एक अभिलेखमें वर्णित नन्दिसंघके मुनियोंकी नामावलि में विद्यानन्दका नाम प्राप्त कर यह अनुमान सहजमें लगाया जा सकता है कि इन्होंने नन्दिसंघके किसी आचार्यसे दोक्षा ग्रहण की होगी। जैन-वाङ्मयका आलोडन-विलोडन कर इन्होंने अपूर्व पाण्डित्य प्राप्त विन्या। साथ हा मुनि-पद धारणकर तपश्चर्या द्वारा अपने चरितको भी निर्मल बनाया।
इनके पाण्डित्यकी ख्याति १० वी, ११ वीं शतीमें ही हो चुकी थी। यही कारण है कि बादिराजने (ई. सन् १०५५) अपने 'पार्श्वनाथचरित' नामक काव्यमें इनका स्मरण करते हुए लिखा है
ऋजुसत्र स्फुरद्रलं विद्यानन्दस्य विस्मयः ।
शृण्वतामप्यलङ्कारं दीप्तिरङ्गेषु रङ्गति ॥ आश्चर्य है कि विद्यानन्दके तत्त्वार्थश्लोकवातिक और अष्टसहस्री जैसे दीप्तिमान अलङ्कारोंको सुननेवालोंके भी अङ्गोंमें दीप्ति आ जाती है, तो उन्हें धारण करनेवालोंकी बात ही क्या है ?
इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि सारस्वताचार्य विद्यानन्दकी कीति ई० सन् की १०वों शताब्दिमें हो व्याप्त हो चुकी थी। उनके महनीय व्यकित्वका सभी पर प्रभाव था । दक्षिण से उत्तर तक उनकी प्रखर न्यायप्रतिभासे सभी आश्चर्यचकित थे। समय विचार ____ आचार्य विद्यानन्दने अपनी किसी भी कृतिमें समयका निर्देश नहीं किया है । अतः इनके समयका निर्णय इनकी रचनाओंको विषय-वस्तुके आधारपर ही सम्भव है। विद्यानन्द और इनकी कृतियोंपर पूर्ववर्ती ग्रन्थकार गृपिच्छाचार्य, स्वामी समन्तभद्र, श्रीदत्त, सिद्धसेन, पात्रस्वामी, भट्टाकलङ्क, कुमारसेन, कुमारनन्दि भट्टारकका प्रभाव स्पष्टसया लक्षित होता है। अतः विद्यानन्द इन आचार्यों के पश्चात्वर्ती है। विद्यानन्दते 'तत्त्वार्थश्लोकवातिकमें श्रीदत्तके जल्प और वाद सम्बन्धी नियमोंका उल्लेख किया है। वादके दो भेद हैं-१. वीतरागवाद और २. आभिमानिकवाद। वीतरागवाद तत्त्व-जिज्ञासुओंमें होता है। अतः १. जैनशिललेख संग्रह, प्रथम भाग, लेखाङ्क १०५, १२५४) । २. पाश्वनाथचरित, २२८ ।
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इसके दो अंग हैं - बादी और प्रतिवादी । आभिमानिकवाद जिगीषुओंमें होता है और उसके वादी प्रतिवादी, सभापति और प्राश्निक - ये चार अङ्ग हैं | अभिमानिकवाद के भी दो भेद हैं- (१) तात्त्विकवाद और (२) प्रातिभवाद | अपने इस वादसम्बन्धी कथन की पुष्टि के लिए श्रीदत्तके मतका उपस्थापन किया है । जल्पके भी तात्विक और प्रतिभ ये दो भेद किये गये हैं। इस प्रकार विद्यानन्दने अपने से पूर्ववर्ती श्रीदत्त और उनके 'जल्पनिर्णय' ग्रन्थका उल्लेख किया है ।
आचार्य जिनसेन द्वितीयने श्रीदत्तका स्मरण किया है और जिनसेनका समय ई० सन् नौवीं शताब्दि है । अतः श्रीदत्तका समय इनसे पहले होना चाहिए । आचार्य पूज्यपादने अपने जैनेन्द्र व्याकरणके "गणे श्रीदत्तस्य स्त्रियां "" सूत्र द्वारा श्रीदत्तका उल्लेख किया है। यदि ये श्रीदत्त ही प्रस्तुत श्रीदत्त हों तो श्रीदत्तका समय पूज्यपादसे पूर्व अर्थात् छठी शताब्दिसे पूर्व आता है | अतः इस आधारसे विद्यानन्दका समय छठीं शताब्दिके बाद सिद्ध होता है ।
विद्यानन्द ने 'तत्त्वार्थरलोकवातिक' में सिद्धसेनके सम्मतिसूत्रके तीसरे काण्डगत "जो हेउवापक्वम्मि" आदि ४५वीं गाथा उद्भुत की है । एक दूसरी जगह "जाबदिया वज्रणवहा तावदिया होंति णयवाया" आदि तीसरे काण्डको ४७वीं गाथाका संस्कृतरूपान्तर दिया है। अतः विद्यानन्द सिद्धसेन के पश्चादुवर्ती हैं, यह स्पष्ट है । पात्रस्वामी और भट्टाकलङ्कके उद्धरण और नामोल्लेख भी इनके ग्रन्थों में मिलते हैं। अकलङ्ककी 'अष्टशतो' को तो अष्टसहस्री में आत्मसात् ही कर लिया गया है। अतएव इनका समय सातवीं शताब्दिके पश्चात् होना चाहिए। अकलङ्कके उत्तरवर्ती कुमारनन्दि भट्टारकके वादन्यायका 'तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक', 'प्रमाणपरीक्षा' और 'पत्रपरीक्षा' में नामोल्लेख किया है, तथा वादन्यायसे कुछ कारिकाएं भी उद्धृत की हैं। अतः विद्यानन्द कुमारनन्दि भट्टारकके उत्तरवर्ती हैं । कुमारनन्दि अकलडू और विद्यानन्दके मध्यमें हुए हैं । अतः इनका समय आठवीं और नौवीं शताब्दिका मध्यभाग होना चाहिए ।
विद्यानन्दका प्रभाव माणिक्यनन्दि वादिराज, प्रभाचन्द्र, अभयदेव, देवसूरि आदि आचार्यो पर है । माणिक्यनन्दिका समय विक्रमकी ११ वीं शती है और अकलंकदेवका समय विक्रमकी ८ वीं शती है। अतएव विद्यानन्दका समय माणिक्यनन्दि और अकलंकका मध्य अर्थात् ९ वीं शती होना चाहिए । १. जैनेन्द्रध्याकरण १।४।३४ ।
२. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, ३. वहीं, पु० ११४
पृ० ३ ।
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विद्यानन्दने अपने 'सस्वार्थ श्लोकवात्तिक' और अष्टसहस्री' में उद्योतकर, वाक्यपदोपकार भर्तृहरि, वामारिल भट्ट, प्रभाकर, प्रशस्तपाद, व्योमशिवाचार्य, धर्मकीति, प्रज्ञाकर, मण्डनमिश्र और सुरेश्वरमिश्रके मतोंकी समीक्षा की है। है। इन दार्शनिक विद्वानोंका समय ई० सन् ७८८ के पहले ही है । अतः विद्यानन्दके समयकी पूर्ववर्ती सीमा ७८८ ई० है और उत्तर सीमा पार्श्वनाथचरित और न्यायविनिश्चयविवरण (प्रशस्ति श्लोक २i में विद्यानन्दका उल्लेख रहनेसे ई० सन् १०२५ है। इन दोनों समय-सीमाओंके बीच ही इनका स्थितिकाल है।
आचार्य विद्यानन्दने 'प्रशस्तपादभाष्य' पर लिखी गयी चार टीकाओं मेंसे व्योमशिवकी 'व्योमवती' टोकाके अतिरिक्त अन्य तीन टोकाओंमेंसे किसी भो टीकाकी समीक्षा नहीं की है। अतः स्पष्ट है कि श्रीधरको न्यायकन्दली (ई० सन् ९९१) और उदयनकी किरणावली (ई० सन् ९८४) के पूर्व विद्यानन्दका समय होना चाहिए। इस प्रकार इनकी उत्तर सीमा ई० सन् १०२५ से हटकर ई० सन् ९८४ हो जाती है।
'अष्टसहस्री' को अन्तिम प्रशस्तिमें बताया है कि कुमारसेनकी युक्तियोंके वर्धनार्थ ही यह रचना लिखी जा रही है । यथा
वीरसेनाख्यमोक्षगे चारगुणानध्यरत्नसिन्धुगिरिसततम् । सारतरात्मध्यानगे मारमदाम्भोदपवनगिरिगह्वरायितु ॥ कष्टसहस्री सिद्धा साष्टसहस्रीयमत्र मे पुष्यात् ।
शश्वदभीष्टसहस्री कुमारसेनोक्तिवर्धमानार्था ।। (ना) इससे ध्वनित होता है कि कुमारसेनने आप्तमीमांपर कोई विवृति या विवरण लिखा होगा, जिसका स्पष्टीकरण विद्यानन्दने किया है। निश्चयत: कुमारसेन इनके पूर्ववर्ती हैं। कुमारसेनका समय ई० सन् ७८३ के पूर्व माना गया है। जिनसेन प्रथमने अपने हरिवंशपुराणमें कुमारसेनका उल्लेख किया है
_ 'आकूपार यशो लोके प्रभाचन्द्रोदयोज्जवलम् ।
गुरोः कुमारसेनस्य विचरस्यजितात्मकम् ॥ और जिनसेनने अपने हरिवंशपुराणकी रचना ई० सन् ७८३में की है। यहाँ यह विचारणीय है कि जिनसेन प्रथमने कूमारसेनका तो स्मरण किया है, पर विद्यानन्दका नहीं। अतः इससे सिद्ध होता है कि हरिवंशपुराणको
१. अष्टसहस्री, निर्णयसार प्रेस, बम्बई, सन् १९१५, अन्तिम प्रशस्ति पृ० २९५ । १. हरिवंशपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, ११३८ पु० ५।
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रचनाके समय तक विद्यानन्दको ऐसी ख्याति प्राप्त नहीं हुई थी, जिससे पुगणकार उनका स्मरण करता ।
कतिपय निहा नोंका अभियान है कि विद्यानन्दका कार्यक्षेत्र दक्षिणमें गंगवंशका गंगवाड़ो प्रदेश है और विद्यानन्दकी स्थिति गंगनरेश शिवमार द्वितीय तथा राममल्ल सत्यवाक्य प्रथम (ई० सन् ८१०-८१६)के समयमै रही है। विद्यानन्दने प्रायः अपनी समस्त कृतियोंको रचना गंगनरेशोंके राज्यकालमें' की है । अतः सम्भव है कि पुन्नाटवंशो जिनसेनने इनका स्मरण न किया हो ।
जैनन्यायके उद्भट विद्वान् डॉ. पं० दरबारीलाल कोठियाने विद्यानन्दके जीवन और समय पर विशेष विचार किया है। उन्होंने निष्कर्ष निकालते हए लिस्त्रा है
"विद्यानन्द गङ्गनरेश शिवमार द्वितीय (ई० सन् ८१०) और राचल्ल सत्य. वाक्य प्रथम (ई० सन् ८१६) के समकालीन हैं। और इन्होंने अपनी कृतियाँ प्रायः इन्हींके राज्य-समयमें बनाई हैं, विद्यानन्दमहोदय और तत्त्वार्थश्लोकवात्तिकको शिवमार द्वितीयके और आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा तथा युक्त्यनुशासनालकृति ये तीन कृतियाँ राचमल्ल सत्यवाक्य प्रथम ई० ८१६-८३०) के राज्यकालमें बनी जान पड़ती हैं। अष्टसहस्त्री, श्लोकवात्तिकके बादकी और आप्तपरीक्षा आदिके पूर्वकी-रचना है-करीब ई०८१०-८१५ में रची गयी प्रतीत होती है तथा पत्रपरीक्षा, श्रीपुरपाश्वनाथस्तोत्र और सत्यशासनपरीक्षा ये तीन रचनाएं ई० सन् ८३०-८४० में रची ज्ञात होती हैं। इससे भी आचार्य विद्यानन्दका समय ई० सन् ७७५-८४० ई० प्रमाणित होता है ।"२
डॉ० कोठिया द्वारा निर्धारित समय मी उपर्युक्त समयके समकक्ष है। अतएव आचार्य विद्यानन्दका समय ई० सन् की नवम शती है । रचनाएँ
आचार्य विद्यानन्दकी रचनाओंको दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है-१. स्वतन्त्र ग्रन्थ और २. टीका ग्रन्थ । स्वतन्त्र ग्रन्य
इनको स्वतन्त्र रचनाएं निम्नलिखित हैं१. आप्तपरीक्षा स्वोपज्ञवृत्तिसहित
१. श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र, वीर सेवा मन्दिर सरसावा, सन् १९४९ ई०, प्रस्तावना,
पृ० १२ । २. आप्तपरीक्षा, वीरसेबामन्दिर संस्करण; सन् १९४९, १० ५३ ।
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२. प्रमाणपरीक्षा ३. पत्रपरीक्षा
४. सत्यशासनपरीक्षा ५. श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र ६. विद्यानन्दमहोदय
टीकाग्रम्प
१. असली
२. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक
३. युक्त्यनुशासनालङ्कार
१. आप्त-परीक्षा' स्वोपज्ञवृत्तिसहित
इस ग्रन्थ में १२४ कारिकाएँ, स्वोपज्ञ वृत्ति सहित निबद्ध हैं। इस ग्रन्थमें परमेष्ठी गुणस्तोत्र की आवश्यकता प्रतिपादित करनेके पश्चात् पर अपर निःश्रेयस् का स्वरूप, बन्ध और बन्धकारणोंकी सिद्धि, उनके अभावकी सिद्धि, सहेतुक निर्जराकी सिद्धि परमेष्ठीगत प्रसादका लक्षण, मंगलकी निर्युक्ति और अर्थ, शास्त्रारम्भमें परमेष्ठीगुणस्तोत्रकी आवश्यकता एवं पराभिमत आप्तोके निराकरणकी सार्थकता बतलायी गयी है।
ईश्वर-परीक्षा प्रकरण में ईश्वर के मोक्षमार्गोपदेशकी असम्भवता, वैशेषिकाभिमत षट्पदार्थ समीक्षा, द्रव्यलक्षण के योगसे एक द्रव्यपदार्थ की असिद्धि, द्रव्य - लक्षणत्वके योगसे दो द्रव्यलक्षणों में एकताको असिद्धि द्रव्यत्वके योगसे एक द्रव्यपदार्थ की असिद्धि, गुणत्वादिके योगसे एक-एक गुणादि पदार्थोंकी असिद्धि, 'इदम् प्रत्यय' सामान्यसे भी द्रव्यादि पदार्थों की असिद्धि संग्रहसे भी द्रव्यादि पदार्थो की असिद्धि, द्रव्यत्वाभिसम्बन्धसे एक द्रव्यपदार्थ माननेका निरास, गुणत्वादि अभिसम्बन्धसे एक-एक गुणादिपदार्थ माननेका निरास, पृथ्वीत्वादि अभिसम्बन्धसे एक-एक पृथ्वी आदि द्रव्य मानने का निरास, संग्रहके तीन भेद और उनकी समीक्षा, ईश्वरके जगत् कर्तृत्वको समालोचना, ईश्वर के नित्य ज्ञान मानने में दोष-प्रदर्शन, ईश्वरके अनित्यज्ञानकी मोमांसा, अव्यापक ज्ञानमें दोष, ईश्वरके नित्य व्यापक ज्ञान में दोष, समवायका स्वरूप और समोक्षा, संयोग और समवायकी व्यर्थता, सत्ता और समवायके एकत्वका खण्डन, सत्ताको
१. डॉ० दरबारीलाल कोठिया द्वारा सम्पादित और वीरसेवा मन्दिर द्वारा प्रकाशित, १९४९ ।
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स्वतन्त्र पदार्थ न माननेमें दोष एवं ईश्वर-परीक्षाका उपसंहार आदि विषय वर्णित हैं।
कपिल-परीक्षाके अन्तर्गत कपिलके मोक्षमार्गोपदेशकत्वका निरास, प्रधानके मुक्तामुक्तत्वको कल्पना और उसकी समीक्षा एवं प्रधानके मोक्षमार्गोपदेशकत्वका समालोचन आया है।
सुगत-परीक्षामें सुगतके आप्तत्वका परीक्षण किया गया है । इस प्रकरण में सगतके मोक्षमार्गोपदेशकत्वका निराकरण, सौत्रान्तिकोंके मतको समीक्षा, योगाचार--संवेदनाद्वैत और चित्राद्वैतका समालोचन विस्तारपूर्वक किया गया है।
परमपुरुष-परीक्षाके अन्तर्गत ब्रह्माद्वैत-प्रतिभाससामान्य-अद्वैतको समीक्षा आयी है। ___ अहंत्सर्वसिद्धि-प्रकरणमें प्रमेयत्वहेतुसे सामान्यसर्वज्ञकी सिद्धि की गयी है। सर्वज्ञाभाववादी भट्टके मतको उपस्थितकर उसके मतका निराकरण किया गया है। बायकासातुसे मालो गरि किला है और पुष्टिके लिए प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति, आगम और अभाव प्रमाणके द्वारा सर्वज्ञके बाधकत्वका निरास किया गया है। ____ अर्हत-कर्मभूभृतभेतृत्व-सिद्धिप्रसङ्गमें सञ्चित और आगामी कर्मोंके निरोधका कारण संवर और निर्जराको सिद्ध किया है। इस सन्दर्भमें नैयायिक, वैशेषिक और सांख्य द्वारा अभिमत कर्मके स्वरूपका विवेचन कर उसकी पौद्गलिकता सिद्ध की गयी है। ___ अर्हन्तको मोक्षमार्गका नेता सिद्ध करते हुए मोक्ष, आत्मा, संवर, निर्जरा
आदिके स्वरूप और भेदोंका प्रतिपादन किया है। नास्तिक मतका प्रतिवाद कर मोक्षमार्गका स्वरूप और उसके प्रणेताको सर्वज्ञ सिद्ध किया गया है। यह ग्रन्थ निम्नलिखित प्रकरणों में विभक्त है.--
१. परमेष्ठीगुणस्तोत्र २. परमेष्ठोगुणस्तोत्रका प्रयोजन ३. ईश्वरपरीक्षा ४, कपिलपरीक्षा ५. सुगतपरीक्षा ६. परमपुरुषपरीक्षा या ब्रह्मात्तिपरीक्षा
७. अर्हत्सर्वज्ञसिद्धि ३५४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आनाय-परम्परा
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८. अहंत्कर्मभूभृभेतृत्वसिद्धि ९. अर्हन्मोक्षमार्गनेतृत्वसिद्धि
१०. अहंद्वन्द्यत्वसिद्धि २. प्रमाणपरीक्षा'
प्रमाणपरीक्षामें प्रमाणका स्वरूप, प्रामाण्यकी उत्पत्ति एवं ज्ञप्ति, प्रमाणको संख्या, विषय एवं उसके फल पर विचार किया गया है। भारम्भमें 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं प्रमाणत्वान्यथानुपपत्तेः। सन्निकर्षादिरज्ञानमपि प्रमाणं स्वार्थप्रमिती साधकतमत्वात्, इति नाशंकनीयं, ग. प्रमितो गामकाममाजवा"। अर्थात् सम्यग्ज्ञान प्रमाण है, क्योंकि प्रमाणत्वकी उपपत्ति अन्यथा नहीं हो सकती। सन्निकर्षादि अज्ञानमय होनेके कारण प्रमाण नहीं हैं, और न वे अर्थक्रियाके प्रति साधकतम ही हैं, जो स्वप्रमितिके प्रति साधकतम होता है, वही प्रमाण हो सकता है, अन्य नहीं। इस प्रकार ज्ञानको प्रमाण सिद्ध कर सन्निकर्ष, इन्द्रिय आदिका खण्डन किया है। प्रमाणके प्रसंगमें ताद्प्य, तदुत्पत्ति और तदाकारताका भी निरसन किया गया है । विद्यानन्दने अपने समालोचनको पुष्ट बनानेके हेतु 'उक्तञ्च' कहकर अन्य व्यक्तियोंकी कारिकाएं भी उद्धृत की हैं । ___इस सन्दर्भ में सविकल्पक और निर्विकल्पक ज्ञानको प्रामाणताका भो विचार किया गया है। सौगत अभ्यास, प्रकरण, बुद्धिपाटव आदिके कारण निर्विकल्पकको प्रमाण मानता है । विद्यानन्दने इस सन्दर्भमें सौगतमतको सुन्दर समीक्षा की है और स्वलक्षणका भी निरसन किया है 1 क्षणिकवादी बौद्ध स्थलपदार्थोंका अस्तित्व स्वीकार न कर स्वलक्षण परमाणु पदार्थको ही ज्ञानका विषय मानता है । ब्रह्माद्वैतवाद और स्वलक्षणवादको समीक्षा कर स्वप्नज्ञानकी प्रामाणिकताका भी निरसन किया है। 'नेक स्वस्मात्प्रजायते' को उद्धत करते हुए ज्ञानके ज्ञानान्तरवेद्यत्वका खण्डन किया है। ___ कपिलमत-समीक्षा और तत्वोपप्लवादका विचार-विमर्श करते हुए अनुमान
और आगम प्रमाणको सिद्धि की मयी है । यहाँ उपमान और अर्थापत्तिका प्रत्यभिज्ञान और अनुमान में अन्तर्भाव दिखलाया गया है । 'प्रमेयवैविध्यात प्रमाणवविध्यम्' की समीक्षा करते हुए स्वार्थानुमान और परार्थानुमानको सिद्धि की गयी है। प्रत्यक्षके सांव्यवहारिक और अनिन्द्रिय प्रत्यक्षका निरूपण करते हए अवग्रह
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१. रानातन जैन ग्रन्थमालामें प्राप्तमीमांसाके साथ प्रकाशित तथा डॉ० दरबारीलाल
कोठिया द्वारा सम्पादित एवं वीर सेवामन्दिर ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित, १९७३ । २. प्रमाणपरीक्षा, सनातन जैन ग्रन्थमाला संस्करण, पु० ५१ ।
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ईहा, अवाय और धारणाका विचार किया गया है। "साधनात् साध्यविज्ञानमनुमानम्" का विचार करते हुए व्याप्ति, साध्य-साधनका स्वरूप निर्धारण किया गया है। हेतुके रूप्य और पाँचरूप्यकी समीक्षा करते हुए अन्यथानुपपन्नत्वको ही हेतुका निर्दोष स्वरूप बताया है। पात्रकेसरीके त्रिलक्षणकदर्थनका उद्धरण देते हुए लिखा है.--
अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किं ।
नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किं ।। इसीके अनुकरणपर विद्यानन्दने पांचरूप्यके खण्डनके लिए निम्न कारिका रची है
अन्यथानुपपन्नत्वं रूपैः कि पंचभिः कृतं ।।
नान्यथानुपपन्नत्वं रूपैः किं पंचभिः कृतं' ।। पदार्थके स्वरूपका विवेचन करते हुए उत्पाद, व्यय और ध्रौव्ययुक्त पदार्थको स्थिति स्वीकार की है। प्रमाणके फलका विवेचन करते हुए उसे प्रमाणसे कञ्चित् भिन्न और कञ्चित् अभिन्न बताया है । अन्तमें ग्रन्थका सार और उसका उपयोग बताते हुए लिखा है
इति प्रमाणस्य परीक्ष्य लक्षणं विशेषसंख्याविषयं फलं ततः ।
प्रबुध्य तत्त्वं दृढशुद्धदृष्टयः प्रयान्तु विद्याफलमिष्टमुच्चकैः ।। ३. पत्रपरीक्षा
इस लघुकाय ग्रन्थमें विभिन दर्शनोंको अपेक्षा 'पत्र' के लक्षणोंको उद्धृत कर जेन दृष्टिकोणसे 'पत्र' का लक्षण दिया गया है तथा प्रतिक्षा और हेतु इन दो अवयवोंको हो अनुमानका अंग बताया है। प्रतिपाद्याशयानुरोधसे दशावयवोंका भी समर्थन किया है। पर ये दश अवयव न्यायदर्शनप्रसिद्ध दशावयवोंसे भिन्न हैं। पत्रका लक्षण बताते हुए लिखा है-"पुनः प्रसिद्धावयवत्वादिविशेषणविशिष्ट वाक्यं पत्रं नाम, तस्य श्रुतिपथसमधिगम्यपदसमुदायविशेषरूपत्वात्, पत्रस्य तद्विपरीताकारस्वात् । न च यद्यतोऽन्यत्तत्तन व्यपदिश्यतेऽतिप्रसंगात्। नीलादयोपि हि कंबलादिभ्योऽन्ये नाते नीलादिव्यपदेशहेतवः, तेषां तद्व्यपदेशहेतुतया प्रतीयमानत्वात्, किरीटादीनां पुरुषे तद्व्यपदेशहेतुत्ववत्, तद्योगात्तत्र मत्व१, प्रमाणपरीक्षा, सनातन ग्रन्थमाला संस्करण, पृ०७२। २. वही, पृ० ८०। ३, आप्तपरीक्षाके साथ सनातन जैन प्रत्यमाला द्वारा सन् १९१३ में प्रकाशित । ३५६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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धीयविधानात् । नौलादयः संति येषां ते नीलादयः कंबलाढ्य इति गुणवचनेभ्यो मत्वावस्थाभावप्रसिरिति पर, उपचारतोपचारादिति कमः ।" इस प्रकार पत्रका लक्षण लिखकर अन्य मतमतान्तरोंकी विस्तारपूर्वक समीक्षा की गयी है। वाद-विवादके लिए प्रतिज्ञा और हेतु इन दो अवयवोंको ही अनुमानके अवयव माने गये हैं। नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक, कपिल, सुगत आदिके मतोंकी समीक्षा करते हुए स्फोटवादका भी निरसन किया है। बीच-बीच में प्राचीन आचार्योके श्लोकोंको उद्धृत किया गया है। इस प्रकार इस लघुकाय ग्रन्थमें वाद-विषयक चर्चाका समावेश किया है । ४. सत्यशासनपरीक्षा
सत्यशासनपरोक्षाको महत्ताके सम्बन्धमें पंडित महेन्द्रकुमारजो न्यायाचार्यने लिखा है-"तग्रन्थोंके अभ्यासी विद्यानन्दके अतुल पाण्डित्य, तलस्पर्शी विवेचन, सूक्ष्मता तथा गहराईके साथ किये जानेवाले पदार्थोके स्पष्टीकरण एवं प्रसन्न भाषामें गूंथे गये युक्तिजालसे परिचित होंगे। उनके प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा और आप्तपरीक्षा प्रकरण अपने-अपने विषयके बेजोड़ निबन्ध हैं। ये ही निबन्ध तथा विद्यानन्दके अन्य ग्रन्थ आगे बने हुए समस्त दिगम्बर, श्वे. ताम्बर न्यायग्रन्थोके आधारभूत हैं । इनके ही विचार तथा शब्द उत्तरकालोन दिगम्बर, श्वेताम्बर न्यायग्रन्थोंपर अपनी अमिट छाप लगाये हुए हैं। यदि जैन न्यायके कोषागारसे विद्यानन्दके ग्रन्थोंको अलग कर दिया जाय, तो वह एकदम निष्प्रभ-सा हो जायगा | उनको यह सत्यशासनपरीक्षा ऐसा एक तेजोमय रत्न हैं, जिससे जैन न्यायका आकाश दमदमा उठेगा । यद्यपि इसमें आये हुए पदार्थ फुटकर रूपसे उनके अष्टसहस्री आदि ग्रन्थों में खोजे जा सकते हैं, पर इतना सुन्दर और व्यवस्थित तथा अनेक नये प्रमेयोंका सुरुचिपूर्ण संकलन, जिसे स्वयं विद्यानन्दने ही किया है, अन्यत्र मिलना असम्भव है।"
इस प्रन्थमें निम्नलिखित शासनोंको परीक्षा की गयी है१. पुरुषाद्वैत-शासन-परोक्षा। २. शब्दाद्वैत-शासन परीक्षा | ३. विज्ञानाद्वत्त-शासन-परीक्षा। ४. चित्राद्वेत-शासन-परीक्षा।
१. भारतीय ज्ञानपीठ कात्री द्वाराडा गोकुलचन्द्र जैनके सम्पायकत्वमें सन् १९६४ ई०
में प्रकाशित । २. अनेकान्त, वर्ष ६, किरण ११ ॥
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५. चाक-शासन-परीक्षा । ६. बौद्ध-शासन-परीक्षा। ७. सेश्वरसांख्य शासन-परीक्षा । ८. निरीश्वरसांख्य-शासन-परीक्षा । ९. नैयायिक-शासन-परीक्षा । १०. वैशेषिक-शासन-परीक्षा। ११. माट्ट-शासन-परीक्षा। १२. प्रभाकर-शासन-परीक्षा। १३. तत्त्वोपप्लव-शासन-परीक्षा ! १४. अनेकान्त-शासन-परीक्षा ।
उपर्युक्त शासनोंको दो श्रेणियोंमें विभक्त किया गया है--(१) असवादी या अभेदवादो और (२)द्वतवादा या भेदवादों। अद्वैतवादा सिद्धान्तोंमें एक तत्वको प्रमुखता है और ससारके समस्त पदार्थ उस तत्त्व के ही रूपान्तर हैं। द्वैतवादो वे सम्प्रदाय हैं जो एक से अधिक तत्व मानते हैं । नैयायिक, वैशेषिक चार्वाक और बुद्ध आदि दर्शन एकाधिक तत्वोंको महत्त्व देनेके कारण द्वैतवादी कहे जाते हैं।
पुरुषाद्वैतकी परीक्षा करने समय अनुमान द्वारा पूर्वपक्ष स्थापित किया है-ब्रह्मएक है, अद्वितीय है, अखण्ड ज्ञानानन्दमय है, सम्पूर्ण अवस्थाओंको व्याप्त करनेवाला है, प्रतिभासमात्र होनेसे । यतः एक ही ब्रह्म अनेक पदाथों में जलम चन्द्रमाकी तरह भिन्न-भिन्न प्रकारसे दिखलाई देता है, इसी प्रकार पृथ्वी आदि ब्रह्माविवर्त हैं, भिन्न तत्त्व नहीं। अतएव चराचर संसारको उत्पत्ति ब्रह्मसे होता है। इस प्रकार पूर्वपथको स्थापना कर उत्सरमें बताया है कि ब्रह्माद्वेत प्रत्यक्षविरुद्ध है। प्रत्यक्षसे बाह्य अर्थ परस्परभिन्न और सत्य दिखलायो पड़ते हैं, अतएव ब्रह्माद्वैत नहीं बन सकता। इस तरह प्रतिभासमानहेतुमें अनेक दोषोंका उद्भावन कर पुरुषाद्वैतकी समीक्षा की गयी है। __ शब्दाद्वंतमें भी ब्रह्माद्वैतके समान दोष आते हैं । विज्ञानाद्वैतकी परीक्षाके प्रसंगमें पूर्वपथको सिद्धिके लिए अनुमान उपस्थित करते हुए लिखा है कि सम्पूर्ण ग्राह्य-ग्राहकाकार ज्ञान भ्रान्त है। जिस प्रकार स्वप्न और इन्द्रमाल आदि ज्ञान प्रान्स होते हैं, उसी प्रकार ग्राह्य-ग्राहकाकार आदि प्रत्यक्ष भी भ्रान्त हैं। भ्रान्त प्रत्यक्ष आदिके द्वारा जाने गये बाह्य अर्थ वास्तविक नहीं हैं, अन्यथा स्वप्नप्रत्यक्षको भी वास्तविक मानना होगा। इस तरह बाह्य अर्थ असम्भव है, स्वसंवित्ति ही खण्डशः प्रतिभासित होती हुई समस्त वेद्य-वेदक ३५८ : तीर्थंकर महाबीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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व्यवहारको करती है। अतः पृथ्वी, जल, अग्नि आदि पदार्थ ज्ञानसे भिन्न नहीं हैं।
उत्तर पक्षमें पूर्ववत् असिद्ध, विरुद्ध आदि दोषोंकी उद्भावना की गयी है। अनुमानस संवित्तिका बंध-वेदकभार भागने पर बाह्य अर्थ भी उसीसे वेद्य. वेदकभाव मान लेना चाहिए, क्योंकि दोनोंमें कोई असर नहीं है। "सन्ति बहिरर्थाः साधनदूषणप्रयोगात्" द्वारा बाह्य पदार्थ सिद्ध किये गये हैं। इसी प्रकार चित्रातकी परीक्षा भी की है।
चार्वाक, बौद्धशासन, सांख्यपरीक्षा, वैशेषिकशासनपरीक्षा, नैयायिकशासनपरीक्षा, मीमांसकपरीक्षा और भाट्ट-प्रभाकरशासनपरीक्षा भी तर्कपूर्वक लिखी गयी है।
इस ग्रन्थ पर तत्त्वार्थसत्रका प्रभाव भी दिखलायी पड़ता है । विद्यानन्दने अपनेसे पूर्ववर्ती आचार्योंका प्रभाव ग्रहण किया है । बीच-बीचमें अनेक ग्रन्थोंके उद्धरण भी आये हैं। ५. विद्यानन्दमहोदय ___आचार्य विद्यानन्दकी यह सबसे पहली रचना है। इसके पश्चात् हो उन्होंने तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक और अष्टसहस्री आदि महत्त्वपूर्ण ग्रन्योंकी रचना की है। यह ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं हैं, पर उसका नामोल्लेख श्लोकवात्तिक आदि ग्रन्थों में मिलता है। देवसूरिने तो अपने स्याद्वादरत्नाकरमें इसकी एक पंक्ति भी उद्धृत की है-"महोदये च 'कालान्तराविस्मरणकारणं हि धारणाभिधानं ज्ञानं संस्कारः प्रतीयते' इति वदन (विद्यानन्दः) संस्कारधारणयोरंकार्यमचकथत्"। इस ग्रन्थका नाम विद्यानन्दमहोदय और संक्षिप्त महोदय है। ६. श्रीपुर-पार्षनाथ स्तोत्र
श्रीपुर या अन्तरिक्षके पाश्वनाथको स्तुतिमें तीस पद्य लिखे गये हैं। इस स्तोत्रमें दर्शन और काव्यका गंगा-यमुनी संगम है । रूपक अलंकारको योजना करते हुए आराध्यकी भक्तिको प्रशंसा की गयी है । कवि कहता है
शरण्यं नाथाऽहंन् भव भव भवारण्य-विगतिच्युतानामस्माकं निरवकर-कारुण्य-निलय । यतोगण्यात्पुण्याच्चिरतरमपेक्ष्यं तव पदम
परिप्राप्ता भक्त्या वयमचल-लक्ष्मीगृहमिदम् ॥ १. स्याद्वादरत्नाकर, पु. ३४९ । २. श्रीपुरपार्श्वनाथ-स्तोत्र, पद्य २९, वीरसेवामन्दिर-संस्करण ।
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हे नाथ ! अर्हन् ! आप संसारके लिए शरण हैं! आप हमें अपना आश्रय प्रदान कर संसार परिभ्रमण से मुक करें; यतः आप पूर्णतया करुणानिधान है। हम चिरकालसे आपके पदों - चरणोंकी अपेक्षा कर रहे हैं । आज बड़े पुण्योदयसे मोक्षलक्ष्मी के स्थानभूत आपके चरणोंकी भक्ति प्राप्त हुई ।
इस पद्य में भवारण्य, कारुण्यनिलय और लक्ष्मीगृह पदोंमें रूपक है । कविने भक्ति की निष्ठा दिखलाते हुए अन्य दार्शनिकों द्वारा अभिमत आप्तका निरसन किया है। भाषाका प्रवाह और शैलीकी उदात्तता सहृदय पाठकके मनको सहज ही अपनी ओर आकृष्ट करती है ।
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त्वदन्येऽध्यक्षादि प्रतिहत वचो युक्ति विषया विलुप्ताभा लोक व्यपलपन सम्बन्ध मनसः | भजन्ते नाऽऽप्तत्वं तदिह विदिता चञ्चन - कृतिः विसंवादस्तेषां प्रभवति तदर्थापरिगतेः ॥ इच्छा वा नियतेतरा न लभते सम्बन्धमोशेन तत् कर्मप्राभवतः सुखादिविभवः पर्याप्तमेतेन हि । मेत्ता कर्ममहीभृतां सकलविज्ञानादिसिद्धस्ततो यत्कारणाद्-हतादापादगदितं तत्स्यात्कथं श्रेयसे ॥
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प्रथम पद्य में आपकी समीक्षा करते हुए कपिलादिकको अनाप्त बताया गया है, क्योंकि वे प्रत्यक्षादिविरुद्ध अर्थका प्रतिपादन करनेवाले हैं । प्रामाणिकता रूप सच्ची ज्योतिसे शून्य हैं और लोगोंको गुमराह करनेवाले हैं। चूँकि लोकमें उनकी वञ्चना प्रसिद्ध है तथा पदार्थोंका यथार्थ ज्ञान न होनेसे उनके विसम्वाद भी स्पष्ट है, अतएव वे आसताको प्राप्त नहीं होते । द्वितीय पद्य में नैयायिक और वैशेषिकों द्वारा अभिमत ईश्वरेच्छाको जगतके कारणका खण्डन किया है | संसारके समस्त पदार्थोंका निर्माण ईश्वरको इच्छासे सम्भव नहीं है | यह इच्छा नियत - नित्य है अथवा अनियत - अनित्य । यदि नित्य है, तो एक स्वभाव ईश्वर की तरह, वह भी एक स्वभाववाली हो जायगी और संसार के सभी कार्य एक समान होने लगेंगे । यदि अनित्य है, तो संसारके कार्य हो उत्पन्न नहीं हो पायेंगे । अतएव सुख-दुःखादि ईश्वरेच्छाजन्य नहीं, अपितु कर्मजन्य हैं । कोई भी परमात्मा अनादिसिद्ध सर्वज्ञ नहीं होता 1 वह कर्म
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१. श्रीपुर-पार्श्वनाथ स्तोत्र, पद्य १६ ।
२. वही पद्य २० ।
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समूहको नाश करके ही सर्वज्ञपद प्राप्त करता है । ऐसी अवस्थामें नैयायिक और वैशेषिकों द्वारा, जो अनादिसिद्ध सर्वज्ञ माना गया है, उससे जगत्-कर्तृत्व सिद्ध नहीं हो सकता।
इस स्तोत्रमें सर्वसिद्धि,अनेकान्तसिद्धि, भावाभवात्मक वस्तुनिरूपण, सप्तभंगीनय, सुनय, निक्षेप, जीवादिपदार्थ, मोक्षमार्ग, वेदकी अपौरुषेयताका निराकरण, ईश्वरके जगत्कर्तृत्वका खण्डन, सर्वथा क्षणिकत्व और नित्यत्व मोमांसा, कपिलाभिमत पच्चीस तत्त्व समीक्षा, ब्रह्माद्वत-मीमांसा, चार्वाक-समीक्षा आदि दार्शनिक विषयोंका समावेश किया गया है। भगवान पार्श्वनाथको राग-द्वेषका विजेता सिद्ध करते हुए, उनको दिव्यवाणीका जयघोष किया है
विदधतिशवः मित्त-सि-मुनिमाय-ममममा नमिस-सुर-रवि-भुवन-परगुरु-तीर्थकृत्त्व-सनामयत् । उदय-पथ-गत - तदनु - विसृतिरशेष-तत्त्व-विभासिनी
जयति जिन जिन विजित-मनसिज भारती तव भासुरा॥ इस प्रकार विद्यानन्दने इस दार्शनिक ग्रन्थमें भी काव्यत्वका निर्वाह किया है। ७. तस्वार्थश्लोकवार्तिकर ___टोकाग्रन्थोंमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक है। यह ग्रन्थ आचार्य गृपिच्छके सुप्रसिद्ध तत्त्वार्थसूत्रपर कुमारिलके मीमांसाश्लोकवार्तिक और धर्मकीतिके प्रमाणवातिककी तरह पद्यात्मक शैलीमें लिखा गया है। साथ ही पद्यवातिकों पर उन्होंने स्वयं भाष्य अथवा गद्यमें व्याख्यान भी लिखा है । यह जेनदर्शनके प्रमाणभूत ग्रन्थों में प्रथमकोटिका ग्रन्थ है । विद्यानन्दने इसकी रचना करके कुमारिल, धर्मकीति जैसे प्रसिद्ध ताकिकोंके जैनदर्शन पर किये गये माक्षेपोंका उत्तर दिया है | इस ग्रन्थको समता करनेवाला जैनदर्शनमैं तो क्या अन्य किसी भी दर्शन में एक भी ग्रन्थ नहीं है ।
इस ग्रन्थमें आगमके मूल आप्तकी सिद्धि कर पराभिमत आप्तका खण्डन किया गया है। विषयका वर्गीकरण तत्त्वार्थसूत्रके समान ही दश अध्यायोंमें है। चार्वाक आत्माका अस्तित्व न मानकर भूतचतुष्टयका अस्तित्व स्वीकार करता है । अत: विद्यानन्दने चार्वाकका खण्डन कर आत्मतत्त्वको सिद्धि की है। यतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको उत्पत्तिका स्थान आत्मा ही १. श्रीपुरवा० पच २७ । २. तत्त्वार्थश्लोकवातिक, सम्पादक पंडित मनोहरलाल शास्त्री, प्रकाशक गांधी नाथा
रंग जैन ग्रन्थमाला, पोस्ट माण्डवी बम्बई, सन् १९१८ ।
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है । आत्मा सद्भावमें ही मोक्ष और मोक्षके कारणीभूत तत्वोंकी सिद्धि सम्भव है ।
प्रथम अध्यायमें मोक्षमार्ग के निरूपणके साथ-साथ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञानका विस्तारपूर्वक निरूपण किया गया है । बताया है
ज्ञानमेव स्थिरीभूतं समाधिरिति चेन्मतम् । तस्य प्रधानधर्मत्वे निवृत्तिस्तत्क्षयाद्यदि । तदा सोपि कुतो ज्ञानादुक्तदोषानुषंगतः समाध्यंतरतश्चेन्न तुल्य पर्यनुयोगतः ' ।।
स्पष्ट है कि आचार्य विद्यानन्दने तत्त्वार्थ सूत्र के प्रमेयोंका अत्यन्त सूक्ष्म और विस्तृत वर्णन इस ग्रन्थमें किया है। प्रथम सूत्र के वार्तिकोंमें मोक्षोपायके सम्बन्धमें अत्यन्त विष्ना साथ विचार किया है। जीवका अतिम ध्येय मोक्ष है । बन्धनबद्ध आत्माको मुक्ति के अतिरिक्त और क्या चाहिए ? अतः मुक्ति साधनभूत रत्नत्रय मार्गका सुन्दर और गहन विवेचन किया है । अनन्तर सम्यग्दर्शनका स्वरूप, भेद, अधिगमोपाय तत्वोंका स्वरूप और भेद, एवं सत्-संख्या क्षेत्रादि तत्त्वज्ञानके साधनों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। पश्चात् सम्यग्ज्ञानका स्वरूप, सम्यग्ज्ञानके भेद, मतिज्ञान और श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यायज्ञान और केवलज्ञानके विषय, क्षेत्र, स्वामी आदिका निर्देश किया है । इस सन्दर्भ में सर्वज्ञसिद्धिका भी प्रकरण आया है, जिसमें मीमांसक द्वारा उठाई गयी शंकाओंका समाधान भी किया है ।
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ज्ञान बाह्य अर्थों को किस प्रकार विषय करता है, इस आशंकाका उत्तर देते हुए आचार्य विद्यानन्दने लिखा है
श्रुतेनार्थं परिच्छिद्य वर्त्तमानो न बाध्यते । अक्षजेनैव तत्तस्य बाह्यार्थालंबना स्थितिः ॥
सामान्यमेव श्रुतं प्रकाशयति विशेषमेव परस्परनिरपेक्ष मुभयमेवेति वाशंकामपाकरोति ।
अनेकान्तात्मकं वस्तु संप्रकाशयति श्रुतं । सबोधत्वाद्ययाक्षोत्यबोध इत्युपपत्तिमत् ॥ नयेन व्यभिचारश्चेत्र तस्य गुणभावतः । स्वगोचराधर्माधर्म्मार्थप्रकाशनात् ॥
१. तस्वार्थ श्लोकवार्तिक, प्रथम अध्याय, श्लोक ५१-५२, पृ० १७ ।
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परप्रभावतः
श्रुतस्यावस्तुवे थिरके संवृतेश्चेद् वृथैवेषा परमार्थस्य निश्चितेः ॥
नमु स्वत एव परमार्थव्यवस्थितेः कुतश्चिदविद्याप्रक्षयान पुनः श्रुतविक ल्पात् । तदुक्तं "शास्त्रेषु प्रक्रिया भेदे र विद्येयोपवण्यते । अनागमविकल्पा हि स्वयं विद्योपवत्तंत" इति तदयुक्तं परेष्टतत्वस्याप्रत्यक्ष विषयत्वात्तद्विपरीतस्यानेकान्तात्मनो वस्तुनः सर्गदा परस्याप्यवभासनात् । लिङ्गस्य त्वस्याङ्गीकरणीयत्वात् ।
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अर्थात् श्रुतज्ञान द्वारा अर्थकी परिच्छिति कर प्रवृत्ति करनेवाला अर्थपुरुष क्रिया करनेमें उसी प्रकार बाधा नहीं प्राप्त करता है, जिस प्रकार इन्द्रियजन्य मतिज्ञान द्वारा अर्थको अवग्रह कर प्रवृत्ति करने वाला पुरुष बाधाको प्राप्त नहीं करता है। श्रुतज्ञान सामान्यका प्रकाशन करता है, विशेषका प्रकाशन करता है या निरपेक्ष दोनोंका प्रकाशन करता है ? इस शंकाका उत्तर देते हुए आचार्य विद्यानन्द ने बताया है -- सामान्यविशेषात्मक अनेकान्तरूप वस्तुको श्रुतज्ञान अवगत करता है । जिस प्रकार इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुआ सांव्यवहारिक प्रत्यक्षज्ञान अनेकान्तात्मक अर्थका प्रकाशन करता है, उसी प्रकार श्रुतज्ञान सामान्यविशेषात्मक वस्तुको प्रकाशित करने में समर्थ रहता है । अतः "अनेकान्तात्मकं वस्तु श्रुतं प्रकाशयति सद्द्बोधत्वात् " यह अनुमान समीचीन है। इसका नयके साथ भी दोष नहीं है, क्योंकि नयज्ञान मुख्यरूपसे एक धर्मको जानता है, पर गौणरूप से वस्तु के अन्य धर्मो का भी वह ज्ञाता है । अतः श्रुतज्ञानका नयज्ञानके साथ दोष नहीं आता ।
यदि श्रुतज्ञानको वस्तुभूत पदार्थका ज्ञापक नहीं माना जाय तो प्रतिवादी या शिष्यों को स्वकीय तत्वोंका ज्ञान किस प्रकार कराया जा सकेगा । अतएव श्रुतज्ञान द्वारा ज्ञात वस्तु प्रमाणभूत है। इस प्रकार विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें प्रमेयोंका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है।
८. अष्टसहस्त्री
जेन न्यायका यह अत्यन्त महनीय ग्रन्थ है । इस एक ग्रन्यके अध्ययन कर लेनेपर अन्य ग्रन्थ पढ़नेकी आवश्यकता नहीं । विद्यानन्दने स्वयं ही यहप्रकट किया है
१. तत्वार्थश्लोकवार्तिक, गांधी नाथारंग जैन ग्रन्थमाला प्रथम अध्याय, सूत्र २६ श्लोक १५-१८ तथा गद्यांश, पृ० २४९
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श्रोतव्याटसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानैः ।
विज्ञायेत ययैव हि स्वसमय-परसमयसद्भावः ।।' अर्थात् हजार शास्त्रोंको सुननेसे क्या, केवल अष्टसहस्रोको सुन लेनेसे, स्वसिद्धान्त और परसिद्धान्तोंका ज्ञान हो जायगा ।
यह समन्तभद्रविरचित आप्तमीमांसा अपरनाम देवागमस्तोत्रपर लिखा गया विस्तृत एवं महत्त्वपूर्ण भाष्य है। विद्यानन्दने बड़ी हो कुशलताके साथ अफलंकदेव द्वारा रचित अष्टशतोको अष्टसहस्रीमें अन्तःप्रविष्ट कर लिया है। यह न्यायको प्राञ्जल भाषामें रचा गया दुरूह और जटिल ग्रन्थ है । स्वयं विद्यानन्दने इसे कष्टसहस्रो कहा है । उन्होंने लिखा है
'कष्टसहस्रो सिद्धा साष्टसहस्रीयमत्र में पुष्यात्'२ इस ग्रन्थमें एकादश नियोग, विधि और भावनावाद और उनका निरसन, चार्वाकमत, तत्वोपालववाद, संवेदनाद्वैत, चिनादेत, ब्रह्माद्वत, सर्वज्ञाभाव, अनुमानद्वारा सर्वसिद्धि, महदसवंतसिद्धि आदि अनेक विषयों का समावेश किया गया है। यह गन्ध दश परिवाने बम है। प्रथमपरिच्छेद सबसे बड़ा है और आधा ग्रन्थ इसी में समाप्त है ।
प्रथमपरिच्छेदमें अनुमान द्वारा सर्वशको सिद्धिके पश्चात् माव, अभाव, भावाभवरूप, तस्वका निराकरण कर अनेकान्तात्मक वस्तुको सिद्धि की गयी है। इस सन्दर्भमें भावापह्नववादी बौद्ध और अत्यन्ता भावप्रागभाव और प्रध्वंसाभाव अस्वीकार करनेवाले सांख्य मतमें दूषण दिया गया है। वस्तुतः इस अध्यायमें नैयायिक, सांख्य, वेदान्त, बौद्ध, मीमांसक आदि दर्शनोंका वस्तुतस्वके सम्बन्ध में विचार किया गया है। द्वितीय परिच्छेदमें द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत आदिका विचार किया है। तृतीयपरिच्छेदमें क्षणिकवादमें दोषोंका प्रतिपादन कर कार्यकरिणादि समन्वित कथञ्चित्क्षणिक वस्तुको सिद्धि को गयी है। प्राग्भावको सर्वथा अभाव न मानकर कश्चित सद्भावरूप सिद्ध किया गया है । वैशेषिक और नेयायिकाभिमत अवयव-अवयवी का विचार किया गया है । चतुर्थ में वैशेषिकाभिमत भेदेकान्तका खण्डन कर कथंचित् मेंदाभेदात्मक वस्तुको सिद्धि की है । पंचम परिच्छेद में बौद्धको अपेक्षासे सर्वथा अनापेक्षिक वस्तुका निरसन किया है । षष्ठ परिच्छेदमें बस्तुकी सिद्धिके लिए प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीनों प्रमाणोंकी सिद्धि की गयी है। वेद१. मष्टसहस्री, पृ० १५७ ॥ २. अष्टसहली, अन्तिम प्रशस्ति, पृ० २९५ । ३६४ : तीर्थंकर महावीर और चनको आचार्य-परम्परा
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प्रमाण्यवादको समीक्षा भी विस्तारपूर्वक इसी परिच्छेदमें प्रतिपादित है । सप्तम परिच्छेदमें बौद्धाभिमत ज्ञानेकान्तका निरसन किया गया है । उपेय और उपाय तत्त्वकी चर्चा भी इसी परिच्छेद में आयी है । अष्टम परिच्छेद में देवपुरुषार्थवादकी समीक्षा है। नवममें पुण्य-पापकी समीक्षा की गयी है | दशममें सांख्य, नैयायिक और बौद्धमतानुसार बन्ध, मोक्ष और उनके कारणोंको चर्चा आयी है। वाक्य और नयका लक्षण भी इसी परिच्छेदमें वर्णित है। ९. युस्त्यनुशासनालङ्कार
स्वामी समन्तभद्रके ६४ कारिकात्मक दार्शनिक 'युक्त्यनुशासनस्तोत्र' पर विद्यानन्दने मध्यम परिमाणकी यह 'युक्त्यनुशासनालङ्कार' टीका लिखी है। टोला सरल एवं विशद है।
वस्तुतः समन्तभद्रने मुल कारिकाओंमें जिन प्रमेयोंकी स्थापना की है, उनपर विस्तारपूर्वक इसमें विचार किया है । अद्वैतवाद तवाद, शाश्वतवाद, अशाश्वतवाद, वक्तव्यवाद, अक्तव्यवाद, अन्यतावाद, अनन्यतावाद, अपेक्षावाद, अनपेक्षावाद, हेतुबाद, अहेतुवाद, विज्ञानवाद, बहिरर्थवाद, देववाद, पुरुषार्थवाद, पाप-पुण्यवाद, बन्धवाद, मोक्षवाद और बन्ध-मोक्षकारणवादको समीक्षा विभिन्न दर्शनोंके पूर्वपक्षोंको उपस्थित कर की है। निश्चयतः समग्र दर्शनोंके प्रमेयोंका विचार इस ग्रन्थमें किया गया है । अतः हमें विद्यानन्दको "श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतैः किमन्य सहस्रसंख्यानः। विज्ञायते ययेव स्वसमयपरसमयसद्भावः ।।" आदि गर्वोक्ति स्वभावोक्सि प्रतीत होती है।
आचार्य देवसेन देवसेन नामके कई आचार्योंके उल्लेख मिलते हैं। एक देवसेन वे हैं, जिन्होंने विक्रम सं० ९९० में दर्शनसारनामक ग्रन्थको रचना की थी। आलापपद्धति, लघुनयचक्र, आराधनासार और तत्त्वसार नामक ग्रन्थ भी देवसेनके द्वारा रचित हैं। इन सब ग्रन्थोंको दर्शनसारके रचयिता देवसेनकी कृति माना जाता है । दर्शनसारके अन्त में प्रशस्तिरूप दो गाथाएं बायी हैं, जो निम्न प्रकार हैं
पुवायरियकयाई गाहाई संचिकण एपत्य । सिरिदेवसेणगणिणा धाराए संवसंतेण ॥ रइओ दसणसारो हारो भष्वाण णवसए णवए ।
सिरिसासणाहगेहे सुविसुद्धे माहसुलदसमीए ।' है. दर्शनसार, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, वि० सं १९७४, गाथा-४९-५० ।
श्रुतपर और सारस्वताचाय : ३६५
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अर्थात् पूर्वाचार्योंके द्वारा रची हुई गाथाओंको एकत्र करके यह दर्शनसार नामका ग्रन्थ श्री देवसेनगणिने माघ शुक्ला दशमी, विक्रम सं० ९९०में धारानगरीमें निवास करते समय पार्श्वनाथ भगवानके मन्दिरमें रचा, जो भव्यजीवोंके हृदय में हारके समान शोभा देगा। तत्त्वसारकी प्रशस्तिमें बताया गया है
सोऊण तच्चसारे रइयं मुणिणादेवसेणेण ।
जो सट्ठिी भावइ सो पावइ सासयं सोक्खं ।' मुनिनाथ देवसेनने सुनकर तत्वसार रचा, जो सम्यदृष्टि उसकी भावना करता है वह शाश्वत सुख प्राप्त करता है। आराधनासारके अन्तमें बताया है
ण य मे अस्थि कवित्तं ण मुणामो छंदलवखणं कि पि । जियभावणाणिमित्तं रइय आराहणासारं ॥ अमुणियतच्चेण इमं भणियं जं कि पि देवसेणेण |
सोहंतु तं मुणिंदा अस्थि हु जइ पबयण-विरुद्धं ।। न मुझे वनिनका परिक्षान है, न काम र व्याकग का ही । अपनीभावनाके निमित्त मैंने आराधनासार रचा है। पूर्णतत्त्वज्ञानसे अपरिचित देवसेनने जो कुछ भी इसमें कहा है यदि उसमें आगमविरुद्ध कथन हो तो मुनीन्द्र उसे शुद्ध कर लें।
- इस तरह देवसेनने दर्शनसारमें रचनाकाल और रचना-स्थानका निर्देश किया है किन्तु अन्य रचनाओंमें रचना-काल और रचना-स्थानका निर्देश नहीं है । दर्शनसारमें देवसेनने अपनेको देवसेनर्माण कहा है और तत्त्वसारमें मुनिनाथ देवसेन कहा है तथा आराधनासारमें केवल देवसेन । गणि और मनिनाथपदको एकार्थबाचक मान लेने पर एकरूपता आ सकती है।
भावसंग्रहके अतिरिक्त अन्यत्र किसी भी रचनामें गुरुके नामका स्पष्ट निर्देश नहीं मिलता है, पर प्रकारान्तरसे गुरुके नामका अध्याहार किया जा सकता है। आराधनासारको मङ्गलगाथामें "विमल गुणसमिद्ध" पदके द्वारा, दर्शनसारमें "विमलणाण" पद द्वारा, नयचक्रमें "विगयमलं" और "विमलणाणसंयुक्तं" पदोंके द्वारा गुरुके नामका उल्लेख माना जा सकता है। अत: आराधनासार, दर्शनसार, भाव-संग्रह भादिके रचयिता एक ही व्यक्ति हैं। दर्शनसार और भाव-संग्रह तो एक ही व्यक्तिकी रचनाएं हैं क्योंकि श्वेताम्बर मतको १. तत्त्वसार, अन्तिम प्रशस्त्रि, गाथा ७४ । २. आराधनासार, गाथा ११४-११५ ।
३६६ : तीर्थकर महावीर और उनकी भाचार्य परम्परा
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उत्पत्तिके सम्बन्धमें दी गयी गाथाओंमेंसे एक गाथा ज्यों-की-त्यों है और अन्य गाथाओंके भाव प्रायः मिलते हैं । यहाँ तुलनाके लिए कुछ गाथाएँ उद्धृत की जाती हैं। यथा
छत्तीसे after विषकमरायस्स मरणपत्तस्स । सोने उप्पण्णो सेasसंघो हु वलहीए || आसि उज्जेणिणयरे आयरिओ भद्द्वाहुणामेण । जाणिय सुणिमित्रो भणिओ संघो जिओ तेण || होहर वह दुब्भिक्खं बारह वरसाणि जाम पुण्णाणि । देसंतरा गच्छत् णिणियसंघेण संजुत्ता || सोकण इमं वधणं णाणादेसेहिं गणहरा सब्वे । णियणियसंघ पत्ता विहरी जत्य सुब्भिक्वं" ॥ दर्शनसार में श्वेताम्बरमतकी उत्पत्ति निम्न प्रकार बतायी है— छत्तीसे रिस-सए विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । गो चलदीए पण मे बडो संधो ॥ सिरिभवाहुमणिणो सोसो णामेण संति आइरिओ । तस्सय सीसो ट्टो जिणचंदो मंदचारितो || ते किये ममेयं इत्योणं अत्थि तब्भवे मोक्खो । केवलणाणीण पुणो अद्दक्खाणं तहा रोओ 11 इन गाथाओं की तुलना से यह स्पष्ट है कि दोनों ग्रन्थोंका रचयिता एक ही व्यक्ति है ।
पण्डित परमानन्दजो शास्त्री दिल्लीका अभिमत है कि 'भावसंग्रह' 'दर्शनसार' के रचयिता देवसेनकी कृति नहीं है, क्योंकि 'दर्शनसार' मूल संघका ग्रन्थ है, उसमें काष्ठासंघ, द्रविडसंघ, यापनीयसंघ और माधुरसंघको जेनाभास घोषित किया है । पर 'भावसंग्रह' केवल मूलसंघका ही मालूम नहीं होता, क्योंकि उसमें 'त्रिवर्णाचार' के समान आचमन, सकलीकरण और पञ्चामृताभिषेक आदिका विधान है। इतना ही नहीं, अपितु इन्द्र, अग्नि, यम, नैऋत्य, वरुण, पवन, यक्ष और ऐशान आदि दिग्पाल देवोंको सशस्त्र और युवतिवाहन सहित आह्वान करने, बलि, चरु आदि पूजा- द्रव्य तथा यज्ञके भागको बीजाक्षरयुक्त मन्त्रोंसे देनेका विधान है । अतएव पं० परमानन्दजीने बताया है कि
१. मायसंग्रह, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, गाथा १३७-१४० ।
२, दर्शनसार, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, गाथा ११-१३ ।
श्रुतधर और सारस्वताचार्य : ३६७
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अपनश-भाषाके 'सुलोचनाचरिउ'के रचयिता देवसेन ही 'भावसंग्रह' के कर्ता हैं। इनके गुरुका नाम भी विमलसेनगणि है।
श्री प्रेमीजीने भी उनके इस मतको प्रायः स्वीकार करते हुए लिखा है"एक और प्राकृत ग्रन्थ 'भाव संग्रह' है, जो विमलगणिके शिष्य देवसेनका है । यह भी मुद्रित हो चुका है। इसमें कई जगह 'दर्शनसार'को अनेक गाथाएँ उद्धृत हैं। इसपरसे हमने अनुमान किया था कि 'दर्शनसार के कर्ता ही इसके कर्ता हैं, परन्तु परमानन्दजी शास्त्रीने (अनेकान्त वर्ष ७ अंक ११-१२में) इस पर सन्देह किया है और सुलोचनाचरिउके कर्ता तथा भावसंग्रहके कर्ताको एक बतलाया है, जो कि विमलगणिके शिष्य हैं।" _ 'सुलोचनाधरिउ में उसके रचना-कालका निर्देश करते हुए लिखा है कि संवत्सरकी श्रावण शुक्ला चतुर्दशीके दिन यह ग्रन्थ पूर्ण हुआ । पं० परमानन्दजोने ज्योतिष गणनाका प्रमाण देते हुए उक्त कालको विक्रम संवत् ११३२ तथा १६.२ में पड़ता हुषा शिखः है :
पता नहीं पं० परमानन्दजोने किस आधारपर यह ज्योतिष गणना को है । राक्षस-संवत्सर श्रावण शुक्ला चतुर्दशीको ग्रह-लाघवके गणित्तानुसार वि० सं० १०१२ में आता है। यों राक्षससंवत्सरकी स्थिति वि० सं०९५२,१०१२, १०७२, ११३२ और ११९२ में आती है, पर श्रावणशुक्ला चतुर्दशीको राक्षस संवत्सरका योग विक्रम सं० १०१२ के अतिरिक्क १३७२ में आता है। इसके बीचके संवत्सरोंमें बार्हस्पत्य गणनानुसार राक्षससंवत्सर और श्रावण शुक्ला चतुर्दशीको स्थिति एक साथ घटित नहीं होती है। अतः अनुमान है कि दर्शनसार, भावसंग्रह और सुलोचनाधरिउ इन तीनों गन्थोंका का एक देवसेन नहीं है । श्री जुगलकिशोर मुख्तारने श्री पं० परमानन्दजीको समालोचना करते हुए लिखा है- "अतः भावसंग्रहके कर्ता देवसेन उनसे पहले हुए, तब सुलोचनाचरितके कर्ता देवसेन और पाण्डवपुराणकी गुरुपरम्परावाले देवसेनके साथ उनकी एकता किसी भी तरह स्थापित नहीं की जा सकती और न उन्हें १२वीं १३वीं शताब्दीका विद्वान् ही ठहराया जा सकता है। इसलिए जब तक भिन्न कत्तु कताका द्योतक कोई दूसरा स्पष्ट प्रमाण सामने न आ जावे, तब तक दर्शनसार और भावसंग्रहको एक ही देवसेनकृत मानने में कोई खास बाधा मालूम नही होती" ।२ १. जैन साहित्य और इतिहास, द्वितीय संस्करण पृ०-१७६ २. पुरातनवाक्यसूचीकी प्रस्तावना, पृ० १६ । ३६८ : पीकर महावीर और उनकी वाचार्य-परम्परा
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मुस्तार साहबके इस कथनसे स्पष्ट है कि सुलोचनाचरिउ १४ वीं शतीके किसी देवसेनका है । भावसंग्रह और दर्शनसार एक ही कर्ताकी रचनाएँ हैं।
श्री पं० परमानन्दजी का यह तर्क कि 'दर्शनशा नूरका ग्रन्थ है और 'भावसंग्रह' मूलसंघसे इतर संघका ग्रन्थ है, क्योंकि इसमें पञ्चामृत अभिषेक आदिको विधि प्रतिपादित की गयी है, अधिक सबल नहीं है, क्योंकि काष्ठासंध में, जो कि मूलसंघके समान ही मान्य था, पञ्चामृत अभिषेक आदिका विधान किया है।
श्री प्रेमीजीने दर्शनसारके अन्तर्गत आये हुए संघोकी समीक्षा करते हुए लिखा है कि दर्शनसारमें आये हुए चार संघोंमें यापनीयसंघको छोड़ शेष तीन संघका मूलसंघसे इतना पार्थक्य नहीं है कि वे जैनाभास बतला दिये जायें । दर्शनसार की रचना वि० सं० ९९० में की है। भावसंग्रह, आराधनासार और तत्त्वसार इनकी रचना दर्शनसारके बाद की गयी है | अतः हमारा अनुमान है कि दर्शनसार देवसेनकी सबसे पहली रचना है । इस रचना के समय में वे कट्टर मूलसंघी रहे होंगे। पर पाँच-दस वर्षके बीच उनके विचार और अधिक परिपक्व हुए तथा वे काष्ठासंघ आचार्योंके सम्पर्क में पहुँचे, जिससे उन्होंने प्रभावित होकर वि० सं० २००५ के लगभग भावसंग्रह लिखा ।
श्री मुख्तार साहब ने श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीके मतको उपस्थित करते हुए लिखा है - " इसके प्रारम्भिक अंश में अन्य ग्रंथोंके उद्धरणोंकी भरमार है, जो मूलग्रन्यकारके द्वारा उद्धृत नहीं हुए हैं और अनेक स्थानोंपर - खासकर पांचवें गुणस्थानके वर्णनमें - इसके पद्योंकी स्थिति रयणसार जैसी सन्दिग्ध पायी जाती है । अतः प्राचीन प्रतियोंकी खोज करके इसके मूलरूप को सुनिश्चित करनेकी खास जरूरत है"" |
एक और तर्क भी विचारणीय है कि प्राकृत भाषाके ग्रन्थोंकी रचनाके पश्चात् ही अपभ्रं शमें रचनाएं लिखी जाती हैं। कोई भी लेखक प्रथम प्राकृत और संस्कृत में रचना करता है, तत्पश्चात् अपभ्रंशमें। जो लेखक तीनों भाषाओं में ही रचनाओंका प्रणयन करते हैं, वे प्रथम प्राकृत अनन्तर संस्कृत और तत्पश्चात् अपभ्रंश में ग्रन्थ लिखते हैं। अतएव देवसेनने भी प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश रचनाओं का प्रणयन किया होगा । उनकी सरस्वती आराधनाका काल वि० [सं० ९९० ( ई० सन् ९३३) से वि० सं० १०१२ ( ई० सन् ९५५) तक है ।
१. पुरातन जैन वाक्य सूची, प्रस्तावना ५० ६१ १
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अतएव दर्शनसार, भावसंग्रह, आराधनासार, तत्त्वसार आदि ग्रन्थोंके रचयिता बिमलनगणिके शिष्य देवसेनगणि हैं ।
रचनाएँ
१. दर्शनसार, २ भावसंग्रह, ३. आलापपद्धति, ४. लघुनयचक, ५ आराधनासार, ६ तत्त्वसार ।
१. दर्शनसार - इस लघुकाय ग्रन्थमें कुल ५१ गाथाएं हैं। प्रथम गाथामें श्लेष में गुरुका स्मरण करते हुए तीर्थंकर महावीरको नमस्कार किया है और पूर्वाचार्यों द्वारा कथित गाथाओं का संग्रह किया है। उत्थानिक के अनन्तर समस्त इतर दार्शनिक मतोंका प्रवर्तक ऋषभदेव के पुत्र मरीचिको माना है । मरीचिने एकान्त, संशय, विपरीत, विनय और अज्ञान इन पाँचों एकान्त मार्गो का प्रवर्तन किया है। बताया है कि तीर्थंकर पार्श्वनाथके तीर्थंकाल में सरयू नदी के तटवर्ती पलाश नामक नगरमें पिहितास्रव साधुका शिष्य बुद्धिकीर्ति मुनि हुआ, जो बहुत बड़ा शास्त्रज्ञ था । मत्स्याहारके कारण वह दीक्षासे भ्रष्ट हो गया और रक्ताम्बर धारण कर उसने एकान्तमतका प्रचलन किया । फल, दधि, दुग्ध, शक्कर आदिके समान मांसमें भी जीब नहीं है, अतएव उसकी इच्छा करने और भक्षण करने में कोई पाप नहीं है। उसने बतलाया कि जिस प्रकार जल एक द्रव पदार्थ है, उसके सेवनमें दोष नहीं उसी प्रकार मद्य भी द्रव पदार्थ है, उसके सेवन में भी किसी प्रकारका दोष नहीं है ।
एक पाप करता है और फल दुसरा भोगता है । इस प्रकार अनर्गल सिद्धान्तोंका प्रचार कर वह बुद्धकीर्ति नरक गया | कर्ता कोई अन्य व्यक्ति है और फल भोक्ता कोई अन्य। इस सिद्धान्तमें क्षणिकवादका कथन किया गया है । इस प्रकार मरीचि और बुद्धकीर्तिने मिथ्या मतोंका प्रचार किया ।
इस अवतारणके पश्चात् श्वेताम्बर मत, विपरीत मत, वाचनिक मत, अज्ञान मत, द्राविडसंघ, यापनीयसंघ, काष्ठासंघ, माथुरसंघ और भिल्लकसंघकी उत्पत्ति एवं समीक्षा की गयी है । काष्ठासंघकी समीक्षा करते हुए चोरसेन स्वामी के शिष्य जिनसेन, कुन्दकुन्द, गुणभद्र, विनयसेन, कुमारसेनके निर्देश आये हैं | कुमारसेनको काष्ठासंघका उपदेशक बतलाया है और इस संघका उत्पत्तिकाल वि० सं० ७५३ माना है । माथुरसंघकी उत्पत्ति रामसेन द्वारा वि० सं० ९५३ में मथुरा नगरी में मानी गयी है। भिल्लकसंघकी उत्पत्ति भविष्य- कल्पनाके रूपमें अति है-
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पण मय वीरजिणिदं सुरसेजण मंसियं विमलणाणं । वोच्छं दंसणसारं जह कहियं पुख्वसूरीहि ॥ * भरहे तित्ययराणं पणमिय देविदणागरुडाणं । समएलु होंति केई मिच्छत्तपवट्टगा जीवा ॥२
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सिरियासणाहतित्ये सरयूतीरे पलासणयरत्थो । पिहियासचस्स सिस्सो महासुदो बुड्डकित्तिमुणी ॥
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गंदिवडे वरगामे कुमारी य सत्यविषाणी । कट्टो दंसणभट्टो जादो सल्लेहणाकाले ॥ ४ तत्तो दुसए तोदे महुराए माहुराण गुरुणा हो । णामेण रामसेणो णिष्पिच्छं वण्णियं तेण ॥
५
दर्शनसारसे देवसेनके अक्खड़ स्वभावका पता चलता है। उन्होंने अन्तिम गाथा में अपनी स्पष्टता व्यक्त करते हुए लिखा है
रूसउ तूसउ लोओ सन्वं अक्वंयस्स साहुस्स । कि जूयभए साडी विवज्जियव्वा णरिदेण ॥ *
सत्य कहने वाले साधुसे कोई रुष्ट हो, चाहे सन्तुष्ट हो, इसको चिन्ता नहीं । क्या राजाको युका (आ) के भयसे वस्त्र पहनना छोड़ देना चाहिए ? कभी नहीं ।
इससे देवसेनका अक्खड़पना प्रकट होता है ।
२. भावसंग्रह
इस ग्रन्थमें ७०१ गाथाएं हैं। इसमें चौदह गुणस्थानोंका अवलम्बन लेकर fafaa विषयोंका निरूपण किया गया है। दो गाथाओं द्वारा १४ गुणस्थानोंके नाम बतला कर मिथ्यात्वगुणस्थानका स्वरूप प्रतिपादित किया है । मिध्यात्वके एकान्त, विनय, संशय, अज्ञान और विपरीत इन पांच भेदोंको बतलाकर ब्राह्मण मलको विपरीतमिध्यादृष्टि कहा है
nors जलेण सुद्धि तिति मंसेण पियरवग्गस्स । पसुकयवहेण सग्गं धम्मं गोत्रोणिफासेण ॥ जइ जलम्हाणपउत्ता जोवा मुइ निययपावेण ! तो तत्थ वसिय जलयरा सव्वे पावंति दिवलोयं ॥
१-५. दर्शनसार, गाथा १, २, ६, ३९, ४० । ६. दर्शनसार, गाथा ५१ ।
श्रुतवर
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जं कम दिढबद्ध जीवपएसेहि तिविहजोएण। तं जलफासणिमित्ते कह फट्टइ तित्थण्हाणेण ।। मलिणो देहो णिच्वं देही पुण णिम्मलो सयारुवी।
को इह जलेण सुज्झइ तम्हा हाणे ण हु सुद्धी जलसे शुद्धि होती है, मांससे पितरोंकी तृप्ति होती है, पशुबलिसे स्वर्ग मिलता है और गोयोनिके स्पर्शसे धर्म होता है, इन चार ब्राह्मणधर्मके प्रमुख सिद्धान्तोंकी समीक्षा करते हुए बताया है कि जलस्नानसे यदि समस्त पापोंका प्रक्षालन सम्भव हो, ती नदी, समुद्र और तालाबों में रहनेवाले बलवर बोव भी स्वर्गको प्राप्त कर लेंगे । कर्म-मेलसे मलिन इस आत्माको जलसे शद्धि नहीं हो सकती है, जो जलसे शुद्धि मानता है, वह अच्छा विचारक नहीं है। आत्माकी शद्धि तप, इन्द्रियनिग्रह और रत्नत्रयके द्वारा होती है। जिस प्रकार अग्निके संयोगसे स्वर्ण पवित्र हो जाता है, उसी प्रकार अनशन, ऊनोदर आदि तपोंके करनेसे जीव भी पवित्र हो जाता है । जो व्यक्ति विषय और कषायमें संलग्न हैं और राग-द्वेषको उत्पन्न करनेवाले महकायोंमें आसक्त हैं उनकी जलस्नानसे शुद्धि नहीं हो सकती। कषायरहित, व्रतनियम और शीलसे युक्त व्यक्ति जलस्नानके बिना भी आत्माको पवित्र कर सकता है।
मांसद्वारा पितरोंकी तृप्ति मानने वाला व्यक्ति भो विवेको नहीं है । हिंसा, क्रूरता और निर्दयता करने वाला व्यक्ति चारों गतियोंके दुःखोंको उठाता है। जो मांस द्वारा श्राद्ध करके पितरोंकी तृप्ति चाहता है वह व्यक्ति भी बालूसे तेल निकालना चाहता है । अतएव मांसको न तो दान ही माना जा सकता है, और न इससे पितरोंकी तृप्ति ही हो सकती है ।
जो श्राद्धद्वारा पितरोंकी तृप्ति मानता है, वह भ्रममें है । किसीके भोजनसे किसीकी तृप्ति नहीं हो सकती। यदि पिता भोजन करता है, तो पुत्रका पेट नहीं भरता, और पुत्र भोजन करता है तो पिताका पेट नहीं भरता। जो भोजन करता है, वही तप्त हो सकता है, अन्य कैसे तुप्त हो सकता है ? जो यह मानता है कि पाप करके नरक जाने पर पिताको पिण्डदानद्वारा पुत्र स्वर्ग भेज सकता है, उसके यहाँ जो कार्य करने वाला है उसे फल न मिल कर अन्यको होगा। अतः कृतनाश और अकृताभ्यागम नामक दोष आयगा । इस प्रकार उक्त चारों सिद्धान्तोंकी समीक्षा करते हुए गीता, महाभारत आदि ग्रन्थोंसे ही समर्थनके लिए प्रमाण उद्धृत किये हैं।
विपरीतमिथ्यात्वके पश्चात् एकान्तमिथ्यात्वको समीक्षा की गयी है।
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१. मावसंग्रह, गाथा १७-२० ।
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इस प्रसंग में क्षणिककान्तवादी बुद्धका खण्डन किया है। वैनायिक मिथ्यात्वके निरसनमें यक्ष, नाग, दुर्गा, चण्डिका आदिके पूजनेका निषेध किया है। संशयमिथ्यात्वका निरूपण करते हुए उदाहरण हेतु श्वेताम्बर मतका निरसन किया गया है । वेताम्बर सम्प्रदाय स्त्रीमुक्ति, केवली कवलाहार और साधुओंका वस्त्र पात्र रखना इन तीनों बातोंकी आलोचना को गयी है । स्वेताम्बर अपने साधुयोंको स्थविरकल्पी बतलाते हैं । ग्रन्थकार के मतसे वे स्थविर नहीं, बल्कि गृहस्थकल्पी हैं । जिनकरूप और स्थविरकल्पका विवेचन विस्तारपूर्वक किया है। इस सन्दर्भ में बताया है
दुद्धरतवस्स भग्गा परिसहविसएहि पीडिया जेय । जो गिरूप्पो लोए स थविरकप्पो कओ तेहि ॥
अर्थात् परोष से पीडित और दुर्द्धर तपसे भीत जनोने गृहस्थकल्पको स्थविर कल्प बना दिया है । १३७ बी गाथासे श्वेताम्बर मतकी उत्पत्तिकी कथा दी गयी है। इस कथामें बताया है कि सौराष्ट्र देशकी बलभी नगरीमें वि० सं० १३६ में श्वेताम्बर संघकी उत्पत्ति हुई । दर्शनसार में भी श्वेताम्बर मतकी उत्पत्तिका यही समय अंकित किया गया है।
अज्ञान मिथ्यात्वका कथन करते हुए लिखा है कि भगवान पार्श्वनाथके तीर्थकल्पमें मस्करीपूरण नामक ऋषि हुआ । यह भगवान महावीरके समवचरण में गया, किन्तु उसके जानेपर भगवानकी वाणो नहीं खिरो । चह रुष्ट होकर समवशरणसे चला आया और कहने लगा - में ग्यारह अंगोंका धारी हूँ, फिर भी मेरे जाने पर तीर्थंकर महावीरको दिव्यध्वनि प्रवाहित नहीं हुई और गौतमके आने पर दिव्यध्वनि होने लगी । गौतमने अभी दीक्षा ली । वह तो वेदवादी पण्डित है । वह जिनोक्त श्रुतको क्या जाने । अतः उसने अनसे लोगोंके मध्य मोक्षका उपदेश दिया
I
अण्णाणाओ मोक्खं एवं लोयाण पयडमाणो देवो ण अस्थि कोई सुण्णं झाएह इच्छाएर ॥
अर्थात् अज्ञानसे ही मोक्ष होता है। इसके लिये ध्यान, संयम, तप, सज्ज्ञान की आवश्यकता नहीं । इस प्रकार पाँचों मिथ्यात्वों को समीक्षा करनेके पश्चात् चार्वाक के द्वारा मान्य दर्शनको समीक्षा की है । चार्वाक चैतन्यको भूतोंका विकारमात्र मानता है । ग्रन्थकारने इसे कोलिकाचार्यका मस कहा है
१. भावसंग्रह, गाया १३३ ।
२. भावसंग्रह, गाया १६४ १
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कउलायरिओ अक्खइ अस्थि ण जीवो हु कस्स तं पावं ।
पुण्णं वा कस्स भवे को गच्छद गरय-सगं' वा ।। यह कोलिकमत शैवतन्त्रका एकमत है। एक प्रकारसे यह वामानों है । है। मांस, मदिराके सेवनके साथ स्वोरमण एवं स्वयं शिव-पार्वतीका प्रतिरूपक अपनेको मानना आदि इसके सिद्धान्त हैं। यहाँ हमें प्रन्यकारका भ्रम प्रतीत होता है । कोलिक और चार्वाक ये दोनों मत स्वतन्त्र हैं। दोनोंमें समता इतनी है कि पुण्य-पाप, परलोक आदिकी स्थिति दोनोंमें तुत्य है। कोलिक मतके ग्रन्योंमें वामाचारको भी पुण्यरूप कहा गया है तथा वाममार्गीधर्माचरणसे स्वर्गादिक सुखोंकी उपलब्धि भी मानी गयी है। शिव और पार्वती रूप कृत्यअकृत्योंका संकल्प कर लेने पर कहीं कोई बाधा नहीं आती और स्वार्गादिक प्राप्त हो जाते हैं।
चार्वाकमतके पश्चात् सांख्यमतकी समीक्षा को गयी है । बताया है कि जीव सदा अकर्ता है और पुष्य-पापका भोक्ता भी नहीं है। ऐसा लोक में प्रकट करके बहन और पुत्रीको भी अंगीकार किया गया है । यथा
जीवो सयः सकत्ता सागस हो गुमरालस्म । इय पयडिऊण लोए गहिया वहिणी सध्या वि।।
x
घूयमायरिवहिणि अण्णावि पुत्तस्थिणि । आयति य पासवयणपयडे वि विप्पें । जह रमियकामासरेण वेयगव्वे उप्पण्णदप्प ॥ बंभणि-छिपिणि-डोंवि-नडिय-वडि-रज्जइ-चम्मारि।
कवले समइ समागमइ तह मुत्ति य परणारि ।। अर्थात् पुत्री, माता, वहन या अन्य कोई भी नारी पुत्रोत्पत्तिको भाबनासे कामवचन प्रकट करे, तो कामातुर हो वेदज्ञानी ब्राह्मणको उसका उपभोग करना चाहिये। लेखकने बतलाया है कि कपिलदर्शनमें प्रतिपादित ब्राह्मणी, डोम्बी, नटी, घोबिन, चमारिन आदि परनारियोंके साथ भोग करना उचित है।
स्मृतिकारोंके इस कथनका आशय लेकर कि जो पुरुष स्वयं आगता नारीका भोग नहीं करता उसे ब्रह्महत्याका पाप लगता है; को लक्ष्यमें रखकर १. भावसंग्रह, गाथा १७२ । २. वही, गाया १७९ । ३. मावसंग्रह, गाथा १८५ । ३७४ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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ही उक्त कथन किया गया है। सांख्यदर्शनके साथ इसका कुछ भी मेल नहीं है। हाँ, कौलिक सम्प्रदायमें उक्त सिद्धान्त अवश्य स्वीकृत है। राजशेखरने अपनी 'कर्पूरमंजरी-सट्रक में रण्डा, चण्डा आदिके भोगका औचित्य बतलाया है । अतः कपिलदर्शनका यह सिद्धान्त न होकर, स्मृति या कोलिक सम्प्रदायका सिद्धान्त है। देवसेनने इसी सिद्धान्तको समीक्षा को है।
तुतीय मिश्रगुणस्थानका कथन करते हुए ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रको समालोचना की गयी है । ब्रह्माकी आलोचना करते हए तिलोत्तमा आदिके उपाख्यानोंको उपस्थित किया है । विष्णुको आलोचनामें उनके विभिन्न अवतारोंकी समीक्षा की गयी है। रुद्रको आलोचनामें उनके स्वरूप और ब्रह्महत्या आदि कार्योंकी समीक्षा आयी है।
चतुर्थ अविरतसम्यग्दष्टि गणस्थानका स्वरूप बतलाते हुए सात तत्वों का कथन किया गया है। पांचवें गुणस्थानका स्वरूप २५० गाथाओंके द्वारा बहुत विस्तारसे बतलाया है । इसमें अण व्रत, गुणवस, और शिक्षाव्रतोंके साथ अष्टमूलगुणोंका भी उल्लेख आया है। चार प्रकारके ध्यान, देवपूजा, स्वाध्याय, संयम, तप, दान, आदि श्रावकाचारका भी निरूपण आया है। अभिषेकके समय यम, वरुण, कुवेर, ईशान आदिके आह्वानपूर्वक पञ्चामृत-अभिषेक करनेका विधान किया है ।
षष्ठ व सप्तम गुणस्थानके स्वरूपकथनमें पिण्डस्थ, पदस्थ रूपस्थ, और रूपातीत ध्यानोंका कथन आया है। शेष गणस्थानोंका सामान्यतया स्वरूपविवेचन हुआ है। गुणस्थानोंके स्वरूपकथनमें देवसेनने पंचसंग्रहप्राकृससे अनेक गाथाएँ ज्यों-को-त्यों रूपमें ग्रहण की हैं। नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने गोम्मटसारमें पंचसंग्रहकी अनेक गाथाएं ग्रहण की हैं । यहाँ तुलनाके लिए कतिपय सामान गाथाएं दी जाती हैं
मिच्छो सासण मिस्सो अविरयसम्मो य देसविरदो य । विरओ पमत्त इयरो अपुब्ब अणियट्टि सुहमो य ।। उवसंत खीणमोहे सजोइकेवलिजिणो अजोगी य । ए चउदस गुणठाणा कमेण सिद्धा य गायव्या ।। णो इंदिएस बिरओ पो जीवे थावरे तसे वा पि ।
जो सहइ जिणुतं अविरइसम्मो ति णायथ्यो ।' इस प्रकार अनेक गाथाएँ पंचसंग्रहमें प्राप्त होती हैं । इतना ही नहीं, भाव१. पंचसंग्रह, गापा १०, ११, २६१ ।
श्रुतघर धोर सारस्वताचार्य : ३७५
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संग्रहको कई गाथाएं कुछ रूपान्तरके साथ राजशेखरकी कर्पूरमंजरीमें भी मिलती हैं। कुछ गाथाएँ ऐसी भी हैं, जिनमें पंचसंग्रह और धवलाटीकाका मिश्रित रूप है। पंचसंग्रह
जे तसवहाज विरदो णो विरओ अवखथावरवहाओ।
पडिसमयं सो जोवी बिरयाविरओ जिणेक्कमई ।। - गाथा १३ धवला और जीयकांड
जो तसबहादु बिरदो अविरदओ तह य थावरवहाओ।
एक्कसमम्मि जीवो विरदाविरदो जिणेनकमाई ॥-माथा ३१ भावसंग्रह
जो तसवहाउ विरओणो विरओ तह य थावरवहाओ ।
एक्कसमम्मि जीवो विरयाविरस ति जिणु कहई ।।-गाथा ३५१ भावसंग्रहपर कुन्दकुन्दाचार्यके पञ्चास्तिकाय ग्रन्थका भी प्रभाव हैपञ्चास्तिकाय
जीवो त्ति हवदि वेदा उवओविसेसिदो पहूँ कत्ता। भोत्ता य देहमेत्तो ण हि मुत्तो कम्मसंजुत्तो ।' पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीवरसाद जो हु जीविदो पुन् ।
सो जीवो पाणा पुण बलमिदियमाउ उस्सासो ॥ भावसंग्रह.
जीवो अणाइ णिच्चो उवओगसंजुदो देहमित्तो य । कत्ता भोक्ता चेत्ता ण हु मुत्तो सहावउड्ढगई ।। पाणचक्कपउत्तो जीवस्सइ जो हु जीविको पुव्वं ।
जोवेइ वट्टमाणं जीवत्तणगुण समावण्णो॥ स्पष्ट है क भावसंग्रहपर पञ्चास्तिकायका भी प्रभाव है।
१. पंचास्तिकाय, गाथा २७ । २. वही, गाथा ३० । ३. भावसंग्रह, गाया-२८६ । ४. भावसंग्रह, गाथा-२८८ ।
३७६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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३. आराधनासार
एकसौ पन्द्रह प्राकृत-गाथाओं में यह ग्रन्थ रचा गया है । आराधनाओं का वर्णन करते हुए बताया है
आराहणा इसारो सो दुब्भेओ उत्तो ववहारो चेन
॥
अर्थात् तपाराधना, दर्शनाराधना, ज्ञानाराधना और चारित्राराधना इन चारों का रोग। यार दो प्रकारका है - ( १ ) व्यवहार और (२) परमार्थ । व्यवहार-आराधनाका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है कि सूत्र और अर्थ द्वारा कथित वस्तुको ग्रहण करना ज्ञानाराधना है । अर्थात् तीर्थंकरकी वाणी द्वारा प्रतिपादित १९ अंग और १४ पूर्वोको अवगत करना ज्ञानाराधना है। भावशुद्धिपूर्वक १३ प्रकारकं चारित्रका आचरण करना चारित्राराधना है । १३ प्रकारके चारित्रमें ५ महाव्रत, ५ समिति और ३ गुप्तिको स्थान दिया गया है । १२ प्रकारके तपोंका आचरण करनेके लिए प्रवृत्त होना तपाराधना है। इस प्रकार व्यवहार-आराधनाका स्वरूप कथन कर निश्चय आराधनाका स्वरूप बसलाते हुए लिखा है
तब दंसण णाण चरणसभाम
सुद्धणये चउखंषं उत्तं राहणाइ एरिसियं । सम्बवियप्पविमुक्को सुद्धो अप्पा निरालंबो ॥
अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्र और सपरूप इन चारों भेद- विकल्पों का त्याग कर पञ्चेन्द्रियके विषयसुखसे रहित निर्विकल्प आत्मतत्त्वका आराधन करना निश्चय - आराधना है। आगे इसीके स्वरूपका विशेषरूप से वर्णन करते हुए बताया है
सद्दहइ सहावं जाणह अप्पाणमप्पणो सुद्धं ।
तं चि य अणुचर पुणो इंदियविसए णि रोहिता ॥
अर्थात् स्वस्वरूपका श्रद्धान करना, शुद्ध आत्माको जानना और निज आत्मरूप आचरण करना एवं निज स्वरूप तपश्चरण करना निश्चयारायना है । निश्चय-आराधनामें इन्द्रियोंकी वृत्तियां रुक जाती हैं और आत्मस्वरूप श्रद्धान, ज्ञान, आचरण और सपाराधना होने लगती है । इसलिए दर्शन, ज्ञान,
१. आधनासार, भाषा २ ।
२. आराघनासार, गाया ८ । ३. वही, गाया ९ ।
श्रुतवर और सारस्वताचार्य : ३७७
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चारित्र, तपरूप आत्मा ही है, जो राग-द्वेष छोड़कर इस शुद्ध आत्माका आराधन करता है उसीकी निश्चय-आराधना होती है।
जीव चतुर्गतिमें भ्रमण करता है, भ्रमण करेगा और भ्रमण किया है । इसका कारण ज्ञानमयो आत्माराधनको प्राप्त न करना है। मरणकालमें वही व्यक्ति आत्माराधन कर सकता है जो राग-द्वेष रहित है। बताया है--
अप्पसहावे णिरओ वज्जियपरदन्वसंगसुक्खरसो । णिग्गहियराघदोसो हबई आराहमो मरणे ॥ जो रयणत्तयमइओ मुत्तणं अप्पणो विसुद्धप्पा।
चितेइ य परदव्वं विराहो णिच्छयं मणियो' । राग-द्वेषोंको दूर कर और परद्रव्योंके संयोगजन्य सुखका त्याग कर जो आत्मस्वभावमें निरत है बही मरण-कालमें आराधक होता है । जो रत्नत्रयमयी विशुद्ध आत्माको छोड़कर परद्रव्योंका चिन्तन करता है वह आराधनाका विराधक माना जाता है। जो न सम्यक् दर्शन, शान, चरित्ररूप आत्माको समझता है और न आत्मासे विलक्षण शरीरादि परद्रब्योंको ही जानता है, उसे न ज्ञानको प्राप्ति रहती है और न आराधनाको हो । ___जब तक वृद्धावस्था नहीं आती है, इन्द्रियोंकी शक्ति क्षीण नहीं होती है, बुद्धि नष्ट नहीं होती है, आयरूपी जल समाप्त नहीं होता है तब तक आत्मकल्याणके लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। जो व्यक्ति यह सोचता रहता है कि अभी तो युवावस्था है, विषयसुख-सेवनके दिन हैं यह वृद्धावस्था आने पर कुछ नहीं कर सकता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपरूप आराधनाकी प्राप्ति शारीरिक शक्ति और इन्द्रियोंकी शक्ति रहने पर ही सम्भव है। बसाया है
जरवग्विणी ण चंपइ जाम प वियलाइ हंति अक्खाई। बुद्धी जाम ण णासइ आउजलं जाम ण परिगलई ।। जा उज्जमो ण वियलई संजम-तव-णाण-झाणजोएसु ।
तारिहो सो पुरिसो उत्तमठाणस्स संभवई बाह्य और अन्तरङ्ग परिग्रहका त्यागकर अन्तरङ्ग कषाय और विकारोंको कृश करनेका प्रयास करना ही वास्तविक आराधना है। कषाएँ अत्यधिक शक्तिशाली हैं। इन्हींके कारण चतुर्गति परिभ्रमण होता है । जब तक कषाय १. आराधनासार, माणिचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, माथा १९,२० । २. वही, प्राथा २५, २८ । ३७८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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और भोगोंका त्याग नहीं किया जायगा, तब तक संयम की प्रवृत्ति नहीं हो सकती है और संयम रहित व्यक्तिके गुण विशुद्ध नहीं हो सकते । बताया हैजाम ण हृणइ कसाए सकसाई णेव संजमी होई संजम हियस्स गुणा ण हंति सव्वे विसुद्धियरा ॥
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जो परीषहों को सहन करता हुआ शान्तिभावपूर्वक व्रत समिति और गुशियों का पालन करता है वह अनादिकालीन काम-क्रोधादिको नष्ट कर देता है । इस प्रसङ्गमें उपसर्ग और परीषहोंको सहन करनेवाले शिवभूति, सुकुमाल और सुकोशलके उदाहरण दिये गये हैं और मुनुष्यकृत उपसर्ग सहन करने में गुरुदत्त पाण्डव और गजकुमारके आख्यान दृष्टान्तके रूपमें प्रस्तुत किये हैं । देवकृत उपसर्ग के सहन करनेमें प्रसिद्ध हुए श्रीदत्त, सुवर्णभद्र आदिके उदाहरण दिये गये हैं । इस प्रकार उदाहरणों और प्रत्युदाहरणों द्वारा सैद्धान्तिक विषयको भी सरस बनानेकी वेष्टा की है।
मन, वचन और कायको वश करनेकी आवश्यकता पर जोर देते हुए लिखा है---
सिक्खह मणवसिय रणं सवसीहूएण जेण मणुआणं । णासंति राय-दोसे तेसि मासे समो परमो ॥२
मनको वशमें करनेकी शिक्षा देनी चाहिए। जिसका मन वशीभूत है वही राग-द्वेषको नाश कर सकता है और राग-द्वेषके नाश करनेसे ही परमपदकी प्राप्ति होती है ।
उपशभवान जीव ही मनका निग्रह कर सकता है और मनका निग्रह करने से ही आत्मा परमात्मापदको प्राप्त कर सकती है |
आचार्यने ध्यान, ध्याता और ध्येयका लक्षण बतलाया है और ध्यानके द्वारा ही सकल कर्मो का नाश होता है । अतः राग-द्वेष, मोहका विनाश करने पर ही ध्यानकी प्राप्ति सम्भव है। जो यह अनुभव करता है कि न में देह हूँ, न मन हूँ और न भुझमें दुःख ही है वह क्षपक समभावनासे युक्त होकर दुःखका विनाश कर लेता है । यथा-
नाहं देहो ण मणो ण तेण मे समभावणाई जुत्तो वि सहसु
१. आराधनासार गाथा ३७ । २. वही, माषा ६४
३. वही, गाचा १०१ ।
अत्यि इत्थ दुखाई । दुक्खं अहो खवय ॥ ३
श्रुतभर और सारस्वताचार्य : ३७९
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इस प्रकार समस्त परिग्रहका त्यागकर बात्मसाधनामें संलग्न रहनेका निर्देश किया है। ४. तत्त्वसार
इस ग्रन्थमें ।७१ गाथाएं हैं। तत्वके मूलस: दो भेद हैं—(१) स्वगत तत्त्व और (२) गरगत तस्। स्वगत तत्व निजात्मा है और परगत तत्वमें परमेष्ठी हैं। स्वगत तत्वके भी दो भेद हैं-(१) सविकल्पक और (२) निर्विकल्पक । आस्रवसहितको सविकल्पक कहते हैं और आस्रवरहितको निर्विकल्पक । इन्द्रियविषय-सुखके समाप्त होनेपर मनको चंचलता जब अस्वद्ध हो जाती है तब आत्मा अपने स्वरूप निविकल्प हो जाता है। या--
जं पुणु सगयं तच्च सवियप्पं हबइ तह य अवियप्पं । सवियप्पं सासवयं णिरासवं विगयसंकप्पं ।। इंदियविसविरामे मणस्स गिल्लूरणं हवे जइया।
तइया तं अविअप्प ससख्ये अप्पणो त तु॥' जो अविकल्पक तत्त्व है वही मोक्षका कारण है । उसोको शुद्ध समानकर ध्यान करना चाहिए।
इस प्रकरणमें श्रमण और योगीको व्युत्पत्ति बतलाते हुए लिखा है-'मनवचन-कायसे जो बाह्य और आभ्यन्सर परिग्रहसे रहित है, वह निर्ग्रन्थ कहलाता है और जिसने जिनलिमा आश्रय ग्रहण किया है वह श्रमण कहलाता है--
बहिरभंतरगंथा मुक्का जेणेह तिविहजोएण ।
सो णिग्गयो भणिो जिलिंगसमासिओ सवणों ।। लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, मित्र-शत्रुको जो समानरूपसे ध्यान करता है वह योगी है । यथा
लाहालाहे सरिसो सुहसुक्खे तह य जीविए मरथे।
बंधव-अरयसमाणो झाणसमत्थो हु सो जोई॥ जो व्यक्ति आत्माको सिद्धि करना चाहता है वह ध्यान द्वारा कोका क्षय कर मोक्षको प्राप्त करे। यह आत्मा दर्शन, ज्ञान, चारित्रस्वरूप है, असंख्यात प्रदेशी है और प्रदेशोंके संहार तथा विसर्पणके कारण यह शरीरप्रमाण है जो
१. तत्त्वसार, गाथा-५,६ । २. वही, गाया-१०। ३. वही, गाथा-११ ।
३८० : तीर्थकर महावीर और उनकी भाचार्य-परम्परा
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राग, द्वेष, मोहका त्याग कर जन्म-जरा-मरणसे रहित इस निरञ्जन आत्माका ध्यान करता है वह सिद्धिको प्राप्त कर लेता है । आत्मामें न रूप है, न रस है, न गन्ध है, न शब्द है । यह तो शुद्ध चेतनस्वरूप निरञ्जन है । यथा
फासरसरूवगंधा सद्दादीया य जस्स गरिय पुणो ।
शुद्धो चेयणभावो पिरंजणो सो अहं भणिओ ।' व्यवहारनयसे इस आत्मामें कर्म-नोकर्म माने जाते हैं । आत्मा और कर्मका सम्बन्ध दूध-पानीके समान है। जिस प्रकार दूध और पानी अपने-अपने स्वभावसे विकृत होकर एकमें एक मिल जाते हैं उसी प्रकार आत्मा और पौद्गलिक कर्म भी अपने अपने स्वभावको छोड़ एकमें एक मिल गये हैं। अतएव में शुद्ध हूँ, सिद्ध हूँ, ज्ञानरूप हूँ, कर्म-नोकर्म से रहित हूँ, एक हूँ, निरालम्ब हूँ, देहप्रमाण हूँ, नित्य हूं, असंख्यातदेशिक हूँ, अमूर्त हूँ। इस प्रकार चिन्तन कर आत्मस्वरूपको प्राप्त करना चाहिए । जब तक पर द्रव्योंसे चित्त व्यावृत्त नहीं होता तब तक भव्यजाव मोक्षको प्राप्त नहीं कर सकता है। चाहे कितना भी उग्र तप क्यों न करता रहे। आत्मसिद्धिका मलकारण राग-द्वेष और विषयसूखसे मुक्ति प्राप्त कर लेना है। __ यह ग्रन्थ आध्यात्मिक है तथा इसमें आत्मानुमूति तथा आत्मसिद्धिका उपाय वर्णित है। ५. लघुनयचक
इस ग्रन्थमें ८७ गाथाएँ हैं । नयका स्वरूप, उपयोगिता एवं उसके भेदप्रभेदोंका वर्णन किया है । नयका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है
जं गाणीण वियप्पं सुयभयं वत्यूयससंगहणं ।
ते इह गयं पउत्तं पाणी पुण तेहि णाणेहिं ।' जो वस्तुके एक अंशका ग्रहण करता है श्रुतज्ञानका वह भेद नय कहलासा है । नयके बिना बस्तुस्वरूपको प्रतिपति नहीं हो सकती है और नय द्वारा ही स्यावादका ज्ञान होता है । अतः नयका ज्ञान अनेकान्तात्मक वस्तुको प्रसिपत्तिके लिए अत्यन्त आवश्यक है । नयसे जिन वचनोंका बोध होता है और नयसे ही वस्तुको प्रतिपत्ति होती है। भूल नय दोहै-द्रव्याथिक और पर्यायाथिका नयके सामान्यतया नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरून और एवम्भूत ये सात भेद हैं । अन्य भेद निम्न प्रकार हैं१. त० सा०, गाथा २१ । २, लघुनयचक्र, गाथा २।
धुतघर और सारस्वताचार्य : ३८१
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दत्थं दहमेयं छन्भेयं पज्जयत्थियं णेयं । तिविहं च गमं तद् दुविहं पुण संग्रहं तत्थ | ववहार रिउसुतं दुवियप्पं सेसमाहू एक्केक्का ।" उत्ता इह णयमेया उपणयभैया वि पभणामो ॥ द्रव्यार्थिकके १० भेद, पर्यायाथिक ६ भेद, नैगम नयके तीन भेद, संग्रहके दो, व्यवहार और ऋतुसूत्र के दो-दो भेद और शेष नयोंका एक-एक भेद है । उपनयके तीन भेद हैं--- (१) सद्भूत, (२) असद्भूत और (३) उपचरित नय | सद्भूत के दो भेद हैं और असद्भूत के तीन तथा उपचरितके तीन । इस प्रकार नयके भेद-प्रभेदोंका कथन कर द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक नयोंकी अपेक्षासे वस्तु विवेचन किया गया है।
६. बालाप पद्धति
यह संस्कृत गद्य में रचित छोटी सो रचना है । अन्य ग्रन्थोंके समान इसका प्रकाशन भी माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमालासे हुआ है । इस ग्रन्थमें गुण, पर्याय, स्वभाव, प्रमाण, नय, गुण-व्यत्पत्ति, स्वभावव्युत्पत्ति, प्रमाणका कथन, निक्षेपकी व्युत्पत्ति, नयोंके भेदोंकी व्युत्पत्ति एवं अध्यात्मनयों का कथन किया गया है। आरम्भमें वचनपद्धतिको हो आलापपद्धति कहा है। यह ग्रन्थ निम्नलिखित अधिकारोंमें विभक्त है-
१. द्रव्याधिकार, २ गुणाधिकार ३. पर्यायाधिकार, ४. स्वभावाधिकार, ५. प्रमाणाधिकार, ६. नय-अधिकार, ७ गुण व्युत्पत्ति-अधिकार ८. पर्यायव्युत्पत्ति अधिकार, ९ स्वभावव्युत्पत्ति अधिकार, १०. एकान्तपक्षमें दोष, ११. नययोजना, १२ प्रमाणकथन, १३. नयलक्षण और भेद, १४, निक्षेप व्युत्पत्ति, १५ नोंके भेदोंकी व्युत्पत्ति, १६ अध्यात्मनय ।
नामानुसार विषयोंका निरूपण इन अधिकारोंमें किया गया है। जैन सिद्धान्तको अवगत करनेके लिए यह छोटा-सा ग्रन्थ बहुत उपयोगी है । द्रव्य के सामान्य और विशेष गुणोंका विवेचन करते हुए लिखा है
I
2
"अस्तित्वं, वस्तुत्त्वं द्रव्यत्वं, प्रमेयत्वं अगुरुलघुत्वं, प्रदेशत्वं, चेतनत्वमचेतनत्वं, मूर्त्तत्वममूर्त्तत्वं द्रव्याणां दश सामान्यगुणाः । प्रत्येकमष्टावष्टो सर्वेषाम् ।
3
[ एकैकद्रव्ये अष्टौ अष्टौ गुणा भवंति । जीवद्रव्ये अचेतनत्वं मूतत्वं च नास्ति, पुद्गलद्रव्ये चेतनत्वममृतत्वं च नास्ति, धर्माधर्माकाशकालद्रव्येषु
१. आलापपद्धति, गाया १३-१४ ।
३८२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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चेतनत्वं मूर्तत्वं च नास्ति । एवं द्विद्विगुणवर्जिते मष्टौ अष्टौ गुणाः प्रत्येकद्रव्ये भवन्ति ।]
ज्ञानदर्शनसुखवीर्याणि स्पर्शरसगंधवर्णाः गतिहेतुत्वं स्थितिहेतुत्वमवगाह्नहेतुत्वं वर्त्तनाहेतुत्वं चेतनत्वमचेतनत्वं मूर्तस्वममूर्तत्वं द्रव्याणां षोडश विशेष
uit: 15
"अर्थात् अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व और अमूर्तस्व ये द्रव्योंके सामान्यगुण हैं । सदेव द्रव्यों के साथ रहते हैं, द्रव्योंसे पृथक नहीं होते । प्रत्येक द्रव्यमें दश सामान्यगुणों से आठ-आठ गुण रहते हैं, दो-दो गुण नहीं होते । ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, अवगाहन हेतुत्व, वर्तनाहेतुत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व और अमूर्तस्व ये द्रव्योंके सोलह विशेषगुण हैं । इस प्रकार द्रव्य, गुण, स्वभाव के अतिरिवत नय और प्रमाणका भी विवेचन किया है ।
आचार्य अमितगति प्रथम
जैन साहित्य में अमितगति नामके दो आचार्योंके उल्लेख मिलते हैं । एक माधवसेन के शिष्य और नेमिषेणके प्रशिष्य हैं। और जिन्होंने सुभाषित रत्नसन्दोह, धर्मपरीक्षा, उपासकाचार, संस्कृतपञ्चसंग्रह आदि ग्रन्थ रचे हैं । दूसरे अमितगति से हैं, जो नेमिषेणके गुरु तथा देवसेनसूरिके शिष्य हैं और जिनका गुणकीर्तन सुभाषितरत्नसन्दोहको अन्तिम प्रशस्तिमें उसके रचयिता अमितगतिने स्वयं किया है । इस तरह सुभाषितरत्नसन्दोहके कर्ता अमितगति द्वारा उल्लिखित एवं नेमिषेणके गुरु तथा देवसेनके शिष्य अमितगति प्रथमअमितगति हैं और इनका उल्लेख करनेवाले तथा दो पोढ़ी पीछे होनेवाले माधवसेन के शिष्य और नेमिषेणके प्रशिष्य सुभाषितरत्नसन्दोहकार अमितगति द्वितीय अमितगति हैं । इन अमितगतिने प्रथम अमितगतिको 'त्यनि:शेषशङ्गः' विशेषण देकर अपनेको उनसे पृथक् सिद्ध किया है। प्रथम अमितगतिने स्वयं उक्त विशेषण अपने साथ लगाया है । आचार्य जुगलकिशोर
१. आलापपद्धति, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, पु० १३३ - १३४ ।
२. 'निःसङ्गात्मामितगतिरिदं प्राभृतं योगसारम्' – योगसारप्राभृत, सम्पादक पण्डित जुगलकिशोर मुख्तार, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, सन् १९६८ अधिकार ९,
पद्म ८३ ।
तघर और सारस्वताचार्य : ३८३
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मुल्तारका अभिमत है-.-"यह कृति (योगसार प्राभत्) निश्चितरूपसे अमिगति प्रथमकी कृति है, जिसका प्रमाण अमितगतिके साथ निःसंङ्गात्मा विशेषणका प्रयोग है, जिसे ग्रन्थकारने स्वयं अपने लिये प्रयुक्त किया है ।.....। यह विशेषण अमित्तगति द्वितीयके लिये कहीं भी प्रयुक्त नहीं हुआ हैबल्कि स्वयं अमितगति द्वितीयने इस विशेषणको - 'त्यक्त-निःशेषसगः' रूपमें अमितगति प्रथमके लिये प्रयुरः “कर है। जैसा सु
इ को प्रशस्तिो निम्नपद्यसे जाना जाता है और जिससे उत्तः निश्चय एवं विणयको भरपूर पुष्टि होती है
आशोविध्वस्त-कन्तोविपुलशमभृतः श्रीमतः कान्तकीर्तेः सूरेातस्य पार श्रुतसलिलनिधेर्देवसेनस्य शिष्यः । विज्ञाताशेषशास्त्रो व्रतसमितिभृतामग्रणीरस्तकोपः
श्रीमान्मान्या मुनीनाममितगतियतिस्त्यक्तनिःशेषसंगः । इस पद्यमें अमितगति प्रथमके गुरु देवसेनका नामोल्लेख करते हुए उन्हें विध्वस्तकामदेव, दिपुलशमभृत, कान्तकोति और श्रुतसमुद्रका परगामी आचार्य लिखा है तथा उनके शिष्य अमितगति योगीको अशेषशास्त्रोंका ज्ञाता, महाव्रत-समितियोके धारकोमें अग्रणी, क्रोधरहित, मुनिमान्य और समस्त वाह्याभ्यन्तर परिग्रहका त्यागी सूचित किया है। पिछला विशेषण सर्वोपरि मुख्य जान पड़ता है। इसीसे अमितगतिने उसे निःसंङ्गात्माके रूपमें अपने लिये प्रयुक्त किया है।"
इस प्रकार द्वितीय अमितगतिसे अमितगति प्रथमका 'निःसङ्गात्मा' विशेषण द्वारा पार्थक्य सिद्ध है। इसके अतिरिक्त अमितगति द्वितीयने सुभाषितरत्नसन्दोह, धर्मपरीक्षा आदि ग्रन्थोंमें अमिप्तगति प्रथमके महान गुणोंकी स्तुति की है। अत: अमितगति प्रथम उनसे पूर्ववर्ती हैं। स्थितिकाल
अमितगति द्वितीयने सुभाषितरत्नसन्दोहको वि० सं० १०५० में पोष शुक्ला पञ्चमीके दिन समाप्त किया है। इसके पश्चात् धर्मपरीक्षाको वि० सं० १०७० में और पञ्चसंग्रहको वि० सं०१०७३ में पूरा किया हैं । असएव अमितगति द्वितीयका समय वि० सं० १०५० है । इनके द्वारा उल्लिखित अमितगति प्रथम इनसे दो पोढी पूर्व होनेसे उनका समय वि० सं० १००० निश्चित होता है।
१. योगसारप्राभूत, प्रस्तावना, पृ० २० । ३८४ : तीकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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रचना
इनका एकमात्र योगसारप्राभृत नामक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, जो प्रकाशित हो चुका है। यह ग्रन्थ ९ अधिकारोंमें विभक्त है-१, जीवाधिकार, २. अजीवाधिकार, ३. आस्रवाधिकार, ४. बन्धाधिकार, ५. संवराधिकार, ६. निर्जराधिकार,७. मोक्षाधिकार और ८. चारित्राधिकार और नवम अधिकारको नवाधिकार या नवमाधिकारके नामसे उल्लिखित किया है। इस अधिकारकी संजा चूलिकाधिकारके रूपमें की गयी है।
प्रथम अधिकारमें मङ्गलाचरणके अनन्तर स्वभावको उपलब्धिके हेतु जीव और अजीवके लक्षणोंके जाननेकी प्रेरणा की है, क्योंकि दो प्रकारके पदार्थोसे भिन्न संसारने तीसरे प्रकारका कोई नया नहीं है। सभी का अन्तर्भाव इन दो पदार्थों में हो जाता है । जीव-अजीवको वास्तविक रूपमें जान लेनेसे जीवकी अजीवमें अतुक्ति तथा आसक्ति नहीं रहती है और आत्मलीनतासे रागद्वेषका क्षय हो जाता है। अन्तर जीवके उपयोग लक्षण और उसके भेद-प्रभेदोंका निर्देश करके केवलज्ञान और केवलदर्शन नामके दोनों उपयोगोंका कर्मोके क्षयसे और शेष उपयोगोंका कर्मो के क्षयोपशमसे उदित होना बताया है। यात्माको ज्ञानप्रमाण, ज्ञानको ज्ञेयप्रमाण, सवंगत और ज्ञेयको लोकालोकप्रमाण बतलाकर ज्ञानको आत्मप्रदेशोंके तुल्य गिद्ध किया है । जान ज्ञेयको जानता हुआ भी ज्ञेयरूप परिणत नहीं होता है। आसार्यने इस अधिकारमें केवलज्ञानको त्रिकालगोचर, सभी सत्-असत् विषयों का ज्ञाता, युगपदभासक सिद्ध किया है।
आत्मा सम्यक्चारित्रको कब प्राप्त करती है, इस कथदके पश्चात् निश्चय और व्यबहारचारित्रका स्वरूप बतलाया है। इस प्रकार प्रथम अधिकारमें आत्माके शुद्धस्वरूपका निरूपण किया गया है।
दूसरे अधिकारमें धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल इन पाँचों अजीवद्रव्योंका कथन किया है । ये पांचों अजीबद्रव्य परस्पर मिलते-जुलते एकदसरेको अपने में अवकाश देते हए कभी भी अपने स्वभावको नहीं छोड़ते। इनमें पदगलको छोड़कर शेष सब अमतिक और निष्क्रिय हैं । जीवसहित ये पाँचों द्रव्य मरलाते हैं, क्योंकि गुण पयंयवद्रव्यं इस लक्षणसे युक्त हैं। इसके पश्चात् द्रव्यको निर्युक्तिपरक लिखकर सभी द्रव्योंको सत्तात्मक कहा है।
पश्चात् पुद्गलके स्कन्ध, देश, प्रदेश और अणु मे चार भेद बतलाये गये हैं। सभी द्रव्योंके मतं और अमुर्तके भेदसे दो भेद बतलाकर उनका स्वरूपांकन किया है । कर्मरूप परिणत होनेवाली कर्मवर्गणाओंका भी प्रतिपादन किया
शुमार और सारस्वताचार्य : ३८५ २५
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है । मिथ्यात्व आदि १३ गुणस्थान मी पौद्गलिक तथा अचेतन हैं । देह-चेतनको एक मानना मोहका परिणाम है । जो इन्द्रियगोचर है, वह सब आत्मबाह्य है । जीव कभी कर्मरूप और कर्म कभी जोवरूप नहीं होता है ।
तृतीय अधिकारों साचन-कारली सुलूग अतिशयोका निरूप वर्णन आया है। निश्चय और व्यवहारनयकी दृष्टिसे आत्मा और कर्मके कर्तृत्व और भोक्तृत्वपर प्रकाश डाला गया है। एकको उपादानरूपसे दूसरेका कर्ता मानने तथा एकके कर्मफलका दूसरेको भोका माननेपर, जो आपत्ति प्रस्तुत होती है, उसे दर्शाया है । कषायस्रोतसे बाया हुमा कर्म हो जीवमें स्थित होता है। तदनन्तर पाही जीव कर्मसंतति हेतु इन्द्रियजन्य सुख, कर्मों के आसवबन्धके कारण आदिका कथन किया है। ___ चतुर्ध अधिकारमें बन्धका लक्षण लिखकर उसे जीवको पराधीनताका कारण बताया है। बन्धके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन चारों भेदोंका निर्देश करते हए कौन जोव कर्म बांधता है कोन नहीं बांधता, इसका सोदाहरण स्पष्टोकरण किया है। इसी प्रकार रागी, वीतरागी, झानी और अज्ञानीके कर्मबन्धके होने न होनेका भी निर्देश किया है। ज्ञानी जानता है, अज्ञानी वेदता है । इसलिए एक अबन्धक और दूसरा बन्धक होता है। पर द्रव्यगत दोषसे कोई वीतरागी बन्धको प्राप्त नहीं करता ।। __ पञ्चम अधिकारमें संवरका लक्षण बतलाकर द्रव्य-भावके भेदसे उसके दो भेद बतलाये हैं । कषायोंके निरोधको भावसंवर और कषायोंका निरोष होनेपर द्रव्यकोंके आस्रवविच्छेदको द्रव्यसंवर बतलाया है। कषाय और द्रव्यकर्म दोनोंके अभावसे पूर्ण शुद्धि प्राप्त होती है । इस प्रकार इस अधिकारमें संवरका विस्तारपूर्वक विचार किया गया है।
षष्ठ अधिकारमें निर्जरातत्त्वका कथन आया है। निर्जराकी नियुक्तिके पश्चात् उसके पाकजा और अपाकजा दो भेद बतलाये हैं। संवरके बिना निर्जरा अकार्यकारी हैं । ध्यान और तप द्वारा योगी कर्मो को निर्जरा करता है और कर्ममलको धो डालता है। __ सप्तम अधिकारमें मोक्षतत्त्वका निरूपण किया गया है । आत्मा शुद्धात्माके ध्यान बिना मोहादिदोषोंका नाश नहीं कर पाता । ध्यानवजसे कर्मग्रन्यका छेदन सम्भव है । इसी अधिकारमें जीवके शुद्ध और अशुद्ध इन दो भेदोंका कथन भी आया है । कमसे युक्त संसारी जीव अशुद्ध है और कर्मरहित मुक्त जीव शुद्ध है । शुद्ध जीवको 'अपुनभंद' कहनेके हेतुका निर्देश किया है। साथ ही मुक्तिमें आत्मा किस रूपमें निवास करती है, यह भी बतलाया है। ध्यान
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विधिसे कर्मों का उन्मूलन होता है, अतएव ध्यानकी महिमाका वर्णन किया गया है | ध्यानको बाह्यसामग्री के साथ ध्यानप्राप्तिके लिए बुद्धिका आगम, अनुमान और ध्यानाभ्यासरससे संशोधन आवश्यक बतलाया है । इस प्रकार इस अधिकारमें ध्यानकी विभिन्न स्थितियों का निरूपण आया है।
अष्टम अधिकार में चारित्रका निरूपण है । इसमें भ्रमण बननेकी योग्यता और आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए श्रमणोंके २८ मूलगुणोंके नाम दिये गये हैं, जिनका योगी निष्प्रमाद रूपसे पालन करता है। जो इनके पालन करने में प्रमाद करता है, उस योगीको छेदोपस्थापक कहा है | श्रमणोंके दो भेद बतलाये हैं, सूरि और निर्यापक । इन दोनोंका विवेचन किया गया है। इस अधिकार में श्रमणों की स्वीकाकरण आा हे ।
नवम अधिकारमें मुक्तात्माकी सदानन्दरूप स्थितिका उल्लेख करते हुए चेतनस्वभावकी अविनश्वरतापर प्रकाश डाला गया है। योगोके योगका लक्षण बतलाकर योगसे उत्पन्न सुखकी विशिष्टता, सुख-दुःखका संक्षिप्त लक्षण और उस लक्षणकी दृष्टिसे पुण्य से उत्पन्न होनेवाले भोगों की भी दुःखरूप निर्दिष्ट किया है । संसारके विषयभोगोंकी निस्सारता तथा भोक्ताकी स्थितिका विवेचन किया है। भोग संसारसे सच्ची विरक्ति कब प्राप्त होती है और निर्वाणतत्त्वमें परमभक्ति किस प्रकार उपलब्ध होती है, इसे भी बतलाया है । इस प्रकार इस ग्रन्थ में आत्मोपलब्धिके साधन, विषयभोगोंको अस्थिरता और ध्यानकी महत्तापर प्रकाश डाला गया है।
I
योगसम्बन्धी ग्रन्थों में इस योगसारप्राभृतका महत्वपूर्ण स्थान है । निःमन्देह योगके अध्ययन, मनन और चिन्तनके लिए यह नितान्त उपादेय है ।
अमितगति द्वितीय
I
आचार्य अमितगति द्वितीय भी प्रथितयश सारस्वताचार्य है । ये माथुर संघके आचार्य थे । दर्शनसारके कर्ता देवसेनने अपने 'दर्शनसार' में माथुर संघको जैनाभासों में परिगणित किया है। इसे निः पिच्छिक भी कहा गया है, क्योंकि इस संघके मुनि मयूरपिच्छ नहीं रखते थे । यह संघ काष्ठासंघकी एक शाखा है । इस संघकी उत्पत्ति वीरसेनके शिष्य कुमारसेन द्वारा हुई है ।
अमितगति द्वितीयने अपनी धर्मपरीक्षा में, जो प्रशस्ति अंकित की है, उससे इनकी गुरुपरम्परापर प्रकाश पड़ता है
वीरसेन, इनके शिष्य देवसेन, देवसेन के शिष्य अमितगति प्रथम, इनके
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शिष्य नेमिषेण नेमिषेणके शिष्य माधवसेन और माधवसेनके शिष्य अमितगति
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हुए। अमितगतिको शिष्यपरम्पराका परिज्ञान अमरकीर्तिके 'छक्कम्मोवएस' से भी होता है। इस ग्रन्थके अनुसार अमितगति, शान्तिषेण, अमरसेन, श्रीसेन, चन्द्रकीति और चन्द्रकीतिके शिष्य अमरकीर्ति हुए हैं। इनकी गुरु-शिष्यपरम्परा निम्न प्रकार ज्ञातव्य है
(अमितमति द्वितीयकी धर्मपरीक्षानुसार)
वीरसेन
देवसेन
योगसार प्राभृतकार अमितगति ( प्रथम )
नेमिषेण
I मायसेन
धर्मपरीक्षादिकार अमितगति (द्वितीय) } ( अमरकीर्ति 'मोवत' के अनुसार)
शान्तिषेण
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अमरसेन
I
श्रीसेन
1
चन्द्रकीर्ति
T
'छक्क मोबएस' के कर्ता अमरकीर्ति
श्री पण्डित विश्वेश्वरनाथ' रेवने अमितगति द्वितीयको वाक्पतिराज मुञ्जकी सभाके एक रत्नके रूपमें स्वीकार किया है ।
अमितगति बहुश्रुत थे । उन्होंने विविध विषयोंपर ग्रन्थोंका निर्माण किया है । काव्य, न्याय, व्याकरण, आाचारप्रभृति अनेक विषयोंके विद्वान् थे । इन्होंने पञ्चसंग्रहकी रचना मसूतिकापुर में की थी । यह स्थान बारसे सात कोस दूर मसीदकिलोदा नामक गाँव बताया जाता है ।
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१. भारत के प्राचीन राजवंश, प्रथम भाग, प्रकाशक हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय बम्बई, सन् १९२० पृ० १०१ ।
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समय- विचार
श्री विश्वेश्वरनाथ रेउने लिखा है "अमितगतिने विक्रम सं० १०५० ( ई० सन् ९९३) में राजा मुंजके राज्यकाल में सुभाषितरत्नसंदोहनामक ग्रन्थ बनाया और वि० सं० १०७० ( ई० १०१३ ) में धर्मपरीक्षानामक ग्रन्थकी रचना की । इनके गुरुका नाम माधवसेन था" ।
'सुभाषित रत्न संदोह को प्रशस्तिमें रचनाकालका निर्देश निम्न प्रकार है"समारूढे पूत्रिदशवति विक्रमनृपे सहस्र वर्षाणां प्रभवति हि पंचाशदधिके । समाप्ते पंचभ्यामवति धरणों मुंजनृपती सित पक्षे पौधे बुधहितमिदं शास्त्रम नधम् ॥ अर्थात् वि० सं० १०५० पौष शुक्ला पञ्चमीको मुंज राजाके राज्यकालमें यह निर्दोष शास्त्र पूर्ण हुआ ।
धर्मपरीक्षाका रचना काल वि० सं० १०७० और संस्कृतपञ्चसंग्रहका वि० सं० २०७३ हैं। पंचसंग्रहको प्रशस्ति में लिखा है
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त्रिसप्तत्यधिकेऽदानां सहस्रे शकविद्विषः । मसूतिकापुरे जातमिदं शास्त्रं मनारमम् ॥
अर्थात् वि० सं० १०७३ में, जबकि मुंजके राज्यपट्टपर भोज आसीन हुआ, यह ग्रन्थ लिखा गया । अतएव स्पष्ट है कि अमितगतिका समय वि० सं०की ११वीं शताब्दि है ।
रचनाएँ
अमितगतिको अनेक रचनाएं मानी जाती हैं। पर जिन्हें निर्विवादरूपसे अमितगतिको रचना माना गया है उनके नाम निम्नलिखित है
१. सुभाषित रत्नसंदोह
२. धर्मपरीक्षा
३. उपासकाचार
४. पञ्चसंग्रह
५. आराधना
६. भावनाद्वात्रिंशतिका
१. भारतके प्राचीन राजवंश, प्रथम भाग, हिन्दी ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बम्बई, सन् १९३० पु० १०६ ।
२. सुभाषित रत्न संदोह पच ९२२ ।
३. पञ्चसंग्रह, अन्तिम प्रशस्ति, पृ० २३९, पद्य ६ ।
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७. चन्द्र-प्रज्ञप्ति ८. साद्धद्वयद्वीप-प्रज्ञप्ति
९. व्याख्या-प्रशप्ति १. सुभाषितरत्नसंवोह
सुभाषितरत्नसंदोह काव्यमें सुभाषितरूपी रत्नोंका भण्डार निबद्ध है। इसमें ९२२ पञ्च हैं । कविने सांसारिक लियनिराकर, गार गाहार. निराकरण, इन्द्रिय-निग्रहोपदेश, स्त्री-गुण-दोष, कोप-लोभ-निराकरण, सदसद्स्वरूपनिरूपण, ज्ञाननिरूपण, चारित्रनिरूपण, जातिनिरूपण, जरा-निरूपण, मृत्यु-सामान्यनित्यता-देव-जठर-जीव-सम्बोधन-दुर्जन-सज्जनदान-मद्यनिषेध-मांसनिषेध-मधुनिषेध - कामनिषेध - वेश्यासंग-चूत-आत्मस्वरूप गुरुस्वरूप-धर्म-शोक-शौच-श्रावकधर्म और द्वादविध तपश्चरण इस प्रकार बत्तीस विषयोंका प्रतिपादन किया है।
कविने अपने सुभाषितोंका उद्देश्य बतलाते हुए लिखा है-- जनयति मुदमन्तभव्यपाथोकहाणां, हरति तिमिरराशि या प्रभा मानवीव । कृसनिखिलपदार्थद्योतना भारतीद्धा वितरतु युतदोषा सोऽहंति भारती वः' ।
अर्थात् जिस प्रकार सूर्यको किरणें अन्धकारका नाश कर समस्त पदार्थोंको प्रकाशित करती हैं और कमलोंको विकसित करती हैं, उसी प्रकार ये सुभाषित घेतन-अचेतनविषयक अज्ञानको दूर कर भक्तोंके-सहृदयों के चित्तको प्रसन्न करते हैं।
कविने उत्प्रेक्षाद्वारा वृद्धावस्थाका कितना सजीव और साङ्गोपाङ्ग चित्रण किया है । काव्य कलाको दृष्टिसे यह चित्रण रमणीय हैप्रबलपवनापातध्वस्तप्रदीपशिस्त्रोपमै
रलमलनिचयैः कामोद्भूतैः सुखैविषसंनिभैः । समपरिचितैर्दुःखप्राप्तः सतामतिनिन्दितै--
रिति कृतमनाः शङ्क वृद्धः प्रकम्पयते करौ॥ अर्थात् वृद्धावस्थामें जो हाथ कांपते हैं, वे यह प्रकट करते हैं कि युवावस्थामें जो कामजन्य सुख भोगे थे वे विषतुल्य हानिकारक सिज्ञ हुए । आँधीके वेगसे शान्त की गयी दीपककी लौंके समान क्षण-विध्वंसी और अत्यन्त दुःख१. सुभाषितरत्नसंदोह, पद्य १ । २. वही, पद्य २७० ।
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कारक इन विषयभोगोंकी सज्जनोंने पहले निन्दा की थी, वह निन्दा, निन्दा नहीं है, यथार्थ है।
उक्त पद्यमें हाथोंके कांपनेपर कवि द्वारा की गयी कल्पना सहृदयोंको अपनी ओर आकृष्ट करती है । उक्ति-वैचित्र्य भी यहाँ निहित है।
मदिराको उपमा देकर वृद्धावस्थाका जीवन्त चित्रण किया है। यह उपमा श्लेषमूलक है। विशेषण जरा और मदिरा दोनों पक्षोंमें समानरूपसेघटित होते हैं । यथा
चलयति तनुं दालेप्रति कशि शरीरे;
रचयति बलादव्यक्तीक्ति तनोति गतिक्षितिम् । जनयति जनेनुधां निन्दामनर्थपरम्परा
हरति सुरभिगन्धं देहाज्जरा मदिरा यथा' ।। जिस प्रकार मदिरा-पान शरीरको अस्त-व्यस्त कर देता है, आँखें घूमने लगती हैं, महसे अस्फुट वचन निकलते हैं, चलने में बाधा होती है, लोगों में निन्दाका पात्र बन जाता है एवं शरीरसे दुर्गन्धि निकलती है---उसी प्रकार वृद्धावस्था शरीरको कंपा देतो है, नेत्रोंकी ज्योति घट जाती है, दांत टूट जानेसे मुंहसे अस्फुट ध्वनि निकलती है, चलने में कष्ट होता है, शरोरसे दुर्गन्धि निकलती और नाना प्रकारको अवहेलना होनेसे निन्दा होती है । इस प्रकार कविने मदिरापानको स्थितिसे वृद्धावस्थाकी तुलना की है।
इस सुभाषित काव्यमें नारीकी सर्वत्र प्रशंसा की गयी है। कवि नारीको श्रेष्ठरत्तका रूपक देकर उसके गुणोंका उद्घाटन करता हुआ कहता हैयत्कामाति धुनीते सुखमुपचिनुते प्रीतिमाविष्करोति
सत्पात्राहारदानप्रभववरवृषस्यास्तदोषस्य हेतुः । वंशाभ्युद्धारकर्तुभवति तनुभुवः कारणं कान्तकीति
स्तत्सर्वाभीष्टदात्री प्रक्दत न कथं प्राय॑ते स्त्रीसुरत्नम् ॥ अर्थात् स्त्री वासना शान्त करती है, परम सुख देती है, अपना प्रेम प्रकट करती है, सत्पात्रको आहारदान देने में सहायता करती है, वंशोद्धार करनेवाले पुत्रको जन्म देती है। नारी-श्रेष्ठ-रत्न समस्त मनोरथोंको पूर्ण करने में समर्थ है । कचि कहता है कि स्वल्पज्ञानी बकुल और अशोक वृक्ष जब नारीका सम्मान करते हैं उसके सानिध्यसे प्रसन्न हो जाते हैं, तब मनुष्यकी १. सुभाषिक, पच २७१ । २. वहीं, पद्य १०९।
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बात ही क्या । जो पुरुष नारीका परित्याग कर देता है, वह बड़ वृक्षोंसे मी हीन है, विवेक-शून्य है।
कारणमालालङ्कारकी योजना करते हुए ज्ञानका महत्त्व प्रदर्शित किया है
शानं विना नास्त्यहितान्निवृत्तिस्ततः प्रवृत्तिनं हिते जनानाम् ।
ततो न पूर्वाजितकर्मनाशस्ततो न सौख्यं लभतेऽप्यभीष्टम् ॥ अर्थात् ज्ञानके बिना मनुष्यको अहितसे निवृत्ति नहीं होती है और अहितको निवृत्ति न होनेसे हितकार्य में प्रवृत्ति नहीं होती। हितकार्यमें प्रवृत्ति न होनेसे पूर्वोपार्जित कर्मोंका नाश नहीं होता और पूर्वोपार्जित कर्मके नाश न होनेसे अभीष्ट मोक्ष-सुख नहीं मिलता। कषायका सदभाव ही चरित्रका असद्भाव है । कषायको जितने रूपमें कमी होने लगती है उतने ही रूप में चरित्रका विकास होने लगता है । कविने संसार, कषाय और चरित्र इन तीनोंको व्याख्या बड़े ही सुन्दर रूपमें की है। शोकाभिभूत व्यक्तिको अवस्थाका चित्रण करता हुवा कवि कहता है
वितनोति वच: करुणं विमना विधनौति करौ च रणौ च भूशाम् । रमते न गृहे न वने न जने
पुरुष: कुरुते न किमत्र शुचार शोकके कारण व्यक्ति निमनस्क हो जाता है, दोन वचन बोलता है, हाथ-पैरोंको पटकता है और घर-बाहर स्वजनों एवं परिजनोंके बीच कहीं भी शान्तिलाभ प्राप्त नहीं करता । शोकके कारण मनुष्यको स्थिति बहुत विचित्र हो जाती है । कवि द्वारा अङ्कित चित्र बहुत ही सजीव है। अतएव संसारको यथार्थ स्थितिका चित्रण करता हुआ कवि कहता है
स्वजनोऽन्यजनः कुरुते न सुखं न धनं न वृषो विषयो न भवेत् । विमतेः स्वहितस्य शुचा भविनः स्तुतिमस्य न कोषिकरोति बुधः ।।
शोकसे विह्वलचित्त पुरुष स्वहितसे वंचित रहता है । अत: वह न तो स्वजनोंसे सुख प्राप्त करता है और न परिजनोंके सम्बन्धसे हो आनन्दित होता
१. सुभाषि०, पद्य १९८ । २. वही, पद्य ७१३ । ३. वही, पद्य ७१६ ।
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है, न धनसे ही किसी प्रकारको शान्ति प्राप्त करता है और न किसी धर्मध्यानका आचरण कर पाता है और न हन्द्रियविषयका सेवन ही कर पाता है । कवि शोक-त्यागके लिए पुनः जोर देता हुआ कहता है
यदि रक्षणमन्यजनस्य भवेद्यदि कोऽपि करोति बुधः स्तवनं । यदि किञ्चन सौख्यमथ स्वतनयीर्यदि कञ्चन तस्य गुणो भवति।। यदि वाऽऽगमनं कुरुतेऽत्र मृतः सगुणं भुवि शोचनमस्य तदा । विगुणं विमना बहु शोचति यो विगुणां स दशां लभते मनुजः ।। यदि शोक करनेसे अन्य व्यक्तिकी रक्षा हो जाग या शोक करनेवाल व्यक्तिको लोग प्रशंसा करे अथवा शोक करनेसे शरीरको सुख प्राप्त हो या शोक करनेसे मत प्राणि जोवित हो जाय, तभी शोक करना उचित कहा जायगा। शोक करनेसे कोई भी गुण तो प्राप्त नहीं होता है बल्कि शोक करनेसे श्रेष्ठ गुणोंका विनाश हो जाता है । अतएव शोक करना निरर्थक है।
इस ग्रन्थमें आध्यात्मिक आचारात्मक और नैतिक तथ्योंकी अभिव्यंजना सुभाषितों द्वारा की गयी है। २. धर्मपरीक्षा
संस्कृत-साहित्यमें व्यंग्यप्रधान यह अपने लंगकी अद्भुत रचना है । इसमें पौराणिक ऊटपटांग कथाओं और मान्यताओंको बड़े ही मनोरञ्जकरूपमें
अविश्वसनीय सिद्ध किया है । सथ्योंकी अभिव्यञ्जनाके लिए कथानकोंका आश्रय लिया गया है। इस ग्रन्थमें निम्नलिखित मान्यताओंकी समीक्षा कथाओं द्वारा की गयी है
१. सृष्टि-उत्पत्तिवाद २. सृष्टि-प्रलयवाद ३. त्रिदेव-ब्रह्मा, विष्णु और महेश सम्बन्धी भ्रान्त धारणाएं ४. अन्ध-विश्वास ५. अस्वाभाविक मान्यताएं-अग्निका वीर्यपान, तिलोत्तमाकी उत्पत्ति ६. जातिवाद-सम्भ्रान्त जातिमें उत्पन्न होनेका अहङ्कार ७. ऋषियोंके सम्बन्धमें असम्भव और असंगत मान्यताएं ८. अमानवीय तत्व ९. अविश्वसनीय और अबुद्धिसंगत पौराणिक उपाख्यान
१. सुभाषि०, पद्य ७१८, ७१९ ।
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यद्यपि इस ग्रन्थका आधार हरिभद्रका बूतख्यान है, पर कविने स्वेच्छया कथावस्तु में परिवर्तन भी किया है। संस्कृतकाव्यमें इस कोटिके व्यंग्यप्रधान - काव्योंका प्रायः अभाव है । इस ग्रन्थकी कथाओंकी शैली आक्रमणात्मक नहीं है, सुझावात्मक है । व्यंग्य और संकेतोंके आधारपर असम्भव एवं मनगढन्त बातोंका निराकरण किया गया है।
३. उपासकाचार
यह अमितगति-श्रावकाचारके नामसे प्रसिद्ध है। उपलब्ध श्रावकाचारोंमें यह बहुत विशद, सुगम और विस्तृत है। इसमें १३५२ पद्य और १५ अध्याय हैं । अन्त में गुरुपरम्परा तो पायी जाती है, पर रचना - काल निर्दिष्ट नहीं है । मिथ्यात्व और सम्यक्त्वका अन्तर, सप्ततस्त्व, अष्टमूलगुण, द्वादशव्रत और उनके अतिचार, सामायिकादि षट् आवश्यक, दान, पूजा, उपवास एवं १२ भावनाओंका सुविस्तृत वर्णन आया है। अनि अध्यायमें चोंमें किया गया है। ध्यान, ध्याता, ध्येय और ध्यान- फल - इन चारोंका विस्तृत वर्णन किया गया है ।
४. आराधना
शिवार्यकृत प्राकृत आराधनाका यह संस्कृत रूपान्तर है । कविने इस रूपान्तरको चार महीने में पूर्ण किया है। इसमें दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपइन चारों आराधनाओंका प्राकृत आराधनाके समान ही वर्णन किया है । प्रसंगवश जैनधमंके प्रायः समस्त प्रमेय इसमें समाविष्ट है । प्रशस्ति में देवसेन से लेकर अमितगति तककी गुरुपरम्परा भी दी गयी है ।
५. भावना द्वात्रिंशतिका
३२ पद्योंका यह छोटा-सा प्रकरण है । संसारके पदार्थोंसे पृथक् अनुभवकर आत्मशुद्धिको भावना व्यक्त की गयी है । हृदयको पवित्र बनानेके लिए यह एक अच्छा काव्य है । इसके पढ़नेसे पवित्र और उच्च भावनाओंका सञ्चार होता है ।
प्रारम्भ में ही प्राणी मात्र के साथ मैत्रीको भावना प्रकट करते हुए लिखा है
सत्त्वेषु मैत्रीं गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव ॥'
कविने इसमें परपदार्थों से भिन्न आत्मानुभूति करते हुए अपने द्वारा किये १. द्वात्रिंशतिका प्रथम पद्य, यह ग्रन्थ माणिकचन्द्र ग्रन्थमालामें प्रकाशित है, साथ ही काशी से प्रकाशित प्रथम गुच्छकमें भी संगृहीत है ।
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गये मिथ्याचरणको निन्दा की है। प्रत्येक जीवात्मा प्रमाद और कषायके योग से नाना प्रकारके कदाचारका सेवन करता है । इतस्ततः भ्रमण करनेवाले एकइन्द्रियादि जीवोंकी विराधना करता है और द्वीन्द्रियादि त्रसजीवोंको भी कष्ट पहुँचाता है। इसके लिए उसे अपनी निन्दा आदिके द्वारा प्रायश्चित्त करना चाहिए ।
कविने आराध्य देवकी बड़े ही सुन्दररूपमें स्तुति की है। यह आराध्य वीतरागी, हितोपदेशी और सर्वज्ञ ही हो सकता है। कवि उसकी स्तुति करता हुआ कहता है
यः स्मयंते सर्वमुनीन्द्रबुन्देयः स्तूयते सर्वनरामरेन्द्रः । यो गीयते वेदपुराणशास्त्रः स देवदेव) हृदये ममास्ताम् ॥ यो दर्शनानसुखस्वा रामस्थांसारविकारबाह्यः । समाधिगम्यः परमात्मसंज्ञः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥ निषूदते यो भवदुःखजालं निरीक्षते यो जगदन्तरालं । योऽन्तर्गत योगिनिरीक्षणीयः स देवदेवी हृदये ममास्ताम् ॥ विमुकिमा प्रतिपादको यो यो जन्ममृत्युव्यसनाद्यतीतः । त्रिलोकलोकी विकलोकलङ्कः स देवदेवी हृदये ममास्ताम् || कोडीकृताशेषशरीरिवर्गा रागादयो यस्य न सन्ति दोषाः । निरिन्द्रियो ज्ञानमयोऽनपायः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥ यो व्यापको विश्वजनीनवृत्तेः सिद्धो विबुढो धुतकर्मबन्धः ।
ध्यातो धुनीते सकलं विकारं स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥
यह छोटा-सा ग्रन्थ अत्यन्त सरस और हृदयको पावन करनेवाला है । परमात्माका स्वरूप इसमें निर्धारित किया गया है और उसी परमात्माको स्तुति की गयी है ।
६.
संग्रह (संस्कृत)
यह पञ्चसंग्रह प्राकृतपञ्चसंग्रहके समान पाँच प्रकरणोंमें विभक्त है । जीवसमास, प्रकृतिस्तव, कर्मबन्धस्तव, शतक और सप्तति । प्रथम प्रकरण में ३५३ पद्य, द्वित्तीय ४८, तृतीय में १०६ चतुर्थ में ७७८ और पञ्चममें ९० पद्य हैं। कुल पद्योंकी संख्या १३७५ है । प्राकृतपंचसंग्रह के समान संस्कृतपंचसंग्रह में भी पद्यों के साथ गद्य भी प्रयुक्त मिलता है। यह प्राकृतपंचसंग्रहका रूपान्तर होनेपर भी कई दृष्टियों से विशिष्ट है । जहाँ प्राकृतमें दो गाथाओंमें बात कही गयी है, वहाँ
१. द्वात्रिंश० पद्य १२-१७ ।
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संस्कृतपंचसंग्रहमें एक ही पद्यमें उसी तथ्यमें सन्निविष्ट कर दिया गया है और जहाँ एक पद्य तथ्य कहा गया है उसे दो या अधिक पद्योंमें भी कहा गया है । अमितगतिको यह रचना अत्यन्त सरल और मधुर है । कहीं-कहीं अन्य ग्रन्थोंसे आधार ग्रहणकर नये पद्य भी लिखे गये हैं । अतः प्राकृतपंचसंग्रहको अपेक्षा यह संस्कृत पंचसंग्रह किन्हीं रूपोंमें विशिष्ट है । प्राकृतपंचसंग्रहके प्रथम प्रकरणमें वेदमागंणाके अन्तर्गत द्रव्यवेद और भाववेदको अपेक्षासे जीवोंकी सदशता और विसदशताका वर्णन करनेवाली दो गाथाएं आयी हैं। इनके स्थानपर अमितगतिने संस्कृतपद्यसंग्रहमें एक ही पद्य रचा है । यथाप्राकृतपंचसंग्रह
तिब्वेद एव सब्वे वि जीवा दिट्ठा हु दन्वभावादो । ते चेव हु विवरीया संभवंति जहाफम सब्वे ॥१०२॥ इत्थी पुरसि संसय क्या खलु दव-भावदो होति ।।
ते चेव य विवरीया हति सब्वे जहाकमसो ॥१०४॥ संस्कृतपंचसंग्रह
स्त्रीपुन्नपुंसका जीवा: सदृशाः द्रव्य-भावतः ।
जायन्ते विसदृक्षाश्च कर्मपाकनियन्त्रिताः ॥१९२॥ प्राकृतपञ्चसंग्रह
छहब्ब-णवपयत्थे दवाइचन्विहेण जाणते ।
वंदिता अरहते जीवस्स परूवणं वोच्छं ।। १॥ संस्कृतपश्चसंग्रह
ये षट् द्रव्याणि बुध्यते द्रव्यक्षेत्रादिभेदतः ।
जिनेशास्तास्त्रिया नत्वा करिष्ये जीवरूपणम् ॥ ३ ॥ प्राकृतपंचसंग्रह
गुण जीवा पज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणाओ य ।
उवओगो वि य कमसो वीसं तु परूवणा भणिया ।। २ ।। संस्कृतपंचसंग्रह
विज्ञातव्या गुणा जीवाः प्राणपर्याप्तिमार्गणाः ।
उपयोगा बुधैः संज्ञा विशतिर्जीवरूपणाः ॥ ११ ॥ प्राकृतपंचसंग्रह
बेहिं दु लक्खिज्जते उदयादिसु संभवेहिं भावहिं ।
जीवा ते गुणसण्णा णिहिट्ठा सव्वदरिसीहिं ॥ ३ ।। ३९६ : तीर्थकर महाबीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा
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संस्कृत पंससंग्रह
जीवा येरवबुध्यन्ते भावेरौद धिकादिभिः । गुणागुणस्वरूपज्ञेरत्र ते गदिता
गुणाः ॥ १२ ॥
अमितगति पञ्चसंग्रहका वैशिष्टच
प्राकृतपंचसंग्रहको अपेक्षा संस्कृतपञ्चसंग्रह में कई विशेषताएं हैं। इन विशेषताओंको हम निम्नलिखित वर्गों में विभक्त कर सकते हैं
१. संक्षेपीकरण,
२. पल्लवन,
३. विषयोंका प्रकारान्तरसे संयोजन |
उपर्युक्त विशेषताओंके स्पष्टीकरण के लिए प्राकृतपंचसंग्रह के साथ तुलनात्मक अध्ययन अपेक्षित है ।
जीवसमास नामक प्रथम प्रकरणमें चौदह गुणस्थानों और गिद्धोंका कन करनेके बाद किस गुणस्थानमें कौन भाव होता है, इसका विवेषव किया है । अनन्तर चौदह् गुणस्थानोंमें रहनेवाले जीवोंकी संख्याका निगण आया है । यह कथन गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ११-१४ तथा ६२२-६३ : में किया गया है । संस्कृत पंचसंग्रह में इससे भी कुछ विशेष कथन आया है। अमितगतिने जीवद्वाण के द्रव्यप्रमाणानुगमकी घवलाटीकासे उक्त विषय ग्रहण किया गया है | इसी प्रकार योगनिरूपण के अन्त में पद्य १८१ - १८५ तक विग्रहगति आदिमें शरीरोंका कथन आया है । यह कथन प्राकृतपञ्चसंग्रहको अपेक्षा विशिष्ट है । इसी तरह वेदमार्गंणाके कथन के अन्तमें पद्य १९३ - २०२ में वेदवैषम्यके नवभंगों का विवेचन तथा स्त्रीवेद आदिके चिह्नोंका कथन भी प्राकृतपंचसंगको अपेक्षा विशिष्ट है । ज्ञानमार्गणांके निरूपण में भी कई विशेषताएँ आयी हैं । इन सन्दर्भों में प्राकृतपंचसंग्रहका आधार न ग्रहणकर तत्त्वार्थवार्तिकका आधार ग्रहण किया गया है । मतिज्ञानके २८८, ३३६ और ३८४ भेद आये हैं तथा श्रुतपूर्वक श्रुतका भी समर्थन किया गया है | अवधिज्ञानके लक्षणों और चिह्नोंका कथन तत्त्वार्थवार्तिकके अनुसार आया हैं ।
प्राकृतपंचसंग्रह में लेश्याका कथन प्रथम प्रकरण में दो स्थलोंपर आया है, पर संस्कृतपञ्चसंग्रह में अमितगतिने इसे एक ही स्थानपर निबद्ध कर दिया है। रूपान्तरोंमें भी मौलिकताका कई जगह समावेश किया है। यहाँ एक उदरहरण प्रस्तुत किया जाता है-
भन्दो पचिदिओ सणी जोवो पज्जत्तओ तहा । काललाइ संजुत्तो
सम्मतं
पडिवज्जए ||१|१५८|
श्रुतवर और सारस्वताचार्य : ३९७
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अमितगतिने इसका रूपान्तर निम्न प्रकार किया है
पूर्णपंचेन्द्रियः संजी लब्धकालादिलब्धिकः ।
सम्यक्त्वग्रहणे योग्यो भन्यो भवति शुद्धधीः ॥ २८६ ॥ अर्थात् संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव कालादिलब्धिकी प्राप्ति होनेपर सम्यक्त्व ग्रहण करने योग्य होता है। अमितगतिने यहाँ लब्धियोंका वर्णन भी विस्तारपूर्वक किया है और तत्त्वार्थवातिकके नवम अध्यायके प्रथम सूत्रसे बहुत-सा गद्यांश ज्यों-का-त्यों ले लिया है। सम्यक्त्वके भेद-प्रभेदोंका विवेचन भी विस्तारपूर्वक किया गया है, जो प्राकृतपंचसंग्रहमें प्राप्त नहीं है। इसी सन्दर्भ में मिथ्यात्वका कथन करते हुए ३६३ मतोंको उत्पत्ति दो गयी है, जो कर्मकाण्डके अनुरूप है। प्रथम अध्यायके अतिरिक अन्य समायोके में भी यशतः वैशिष्टय दष्टिगोचर होता है। चतुर्थ अध्यायमें ९वें गुणस्थान में होनेवाले प्रत्ययोंका कथन प्राकृतपंचसंग्रहमें आया है। यथा
संजलण-तिवेदाणं णवजोगाणं च होइ एयदरं । संढणदुवेदाणं एयदरं पुरिसवेदो य १।४।२०१॥
-ज्ञानपीठ संस्करण
। अर्थात् नवें गणस्थानके सवेद भागमें चार संज्वलन कषायमेंसे एक, तीन वेदोंमेंसे एक और नौ वेदों से एक होता है । नपुसकवेदकी उदयव्युच्छित्ति हो जानेपर दो वेदों में से एक वेदका उदय होता है और स्त्रीवेदकी उदय. च्छित्ति हो जानेपर एक पुरुषवेदका उदय होता है। अतः ४४३ ४९% १०८, ४४२४९ = ७२ और ४४१४९-३६ भंग होते हैं और कुल भंग १०८ + ७२ + ३६ = २१६ ये भंग सवेद भागके हुए । अवेदभागमें भंगोंका क्रम निम्नप्रकार है
चदुसंजलणणवण्हं जोगाणं होइ एयदर दो ते । कोहणमाणबज्ज मायारहियाण एगदरगं वा ॥४॥२०॥
-ज्ञानपीठ संस्करण अर्थात् अवेदभागमें चार स्वंजलन कषायों से एकका, तथा नौ योगोंमेंसे एकका उदय होता है। क्रोधकी उदयव्य च्छिप्ति हो जानेपर तीन कषायोंमेंसे एकका उदय होता है। मानकी व्यच्छित्ति हो जानेपर दो कषायोंमेंसे एकका उदय और मायाको व्युच्छित्ति हो जानेपर केवल लोभ कषायका उदय होता है। नो योगोंमेंसे एक योगका उदय सर्वत्र रहता है । अतएव ४४१४९ - ३६, ३४१४९ - २७, २४१४५ = १८ और १x१४९ = ९ इस प्रकार
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अवेदभागके कुल भंग ३६ + २७ + १८ +९ - १० । सवेद और अवेद भागके कुल भंग २१६ +९० = ३०६ ।
अमितगतिने संस्कृतपञ्चमंग्रह में नवें गणस्थानके अवेद भागमें चार कषाय और ९ योगोंमेंसे एक-एकके उदयकी अपेक्षा ४४९, == ३६ भंग बताये हैं
जघन्यो प्रत्ययो ज्ञेयो द्वाबवेदानिवृत्तिके ।
संज्वालेषु चतुष्की यांगाना नवेक परः ।४।६।। १४१ भंग = ४९ अन्योन्याभ्यस्त करनेपर ४:५३ ४९ = १०८. सवेद भाग 1 यहाँ ४ कषाय, ३ वेद और २ योगोंमेंसे एक-एक योगका उदय होता है। अवेद भाममें
कषायवेदयोगानामैकैकग्रहणे सति ।
अनिवृत्तेः सवेदस्य प्रकृष्टाः प्रत्ययास्त्रयः ||४/६७|| ४१३/९ अन्योन्याभ्यस्त करनेपर १०ः होते हैं।
इस प्रकार अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके सवेदभाग और अवेदभागमें १४४ भंग योगको अपेक्षा मोहनीयके उदयस्थान बतलाये गये हैं। प्राकृतपंचसंग्रहमें भी इतने ही भंग लिये हैं। गोग्नटसार कर्मकाण्डमें भी १४४ ही भंगसंख्या आयी है। यही कारण है कि अमितगतिने सर्वसम्मत १४४ भेदोंको ही मान्यता दी है, शेष भंगोंका उल्लेख नहीं किया।
पञ्चम अध्यायमें भी कई विशेषताएं पायी जाती हैं। प्राकृतपंचसंग्रहमें मनुष्यतिमें नामकर्मके २६०९ भंग बतलाये हैं, पर संस्कृत पत्रसंग्रहमें २६६८ भंग आये हैं। यहाँ २६०९ भंगोंमें सयोगकेवलोके ५९ भंग और जोड़े गये हैं । इसप्रकारके जोड़नेकी प्रक्रिया प्राकृतपंचसंग्रहमें नहीं मिलती है।
प्राकृतपंचसंग्रह और संस्कृतपञ्चसंग्रहमें योगको अपेक्षा गुणस्थानोंमें मोहनीयकर्मके उदयस्थानोंके भग १३२०९ बतलाये हैं और कर्म-काण्डमें छठे १२९५३ भंग आये हैं। इस अन्तरका कारण यह है कि कर्मकाण्डमें छठे गणस्थानमें आहारकका उदय स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके उदयमें नहीं माना गया है। अत: छठे गुणस्थानमें पञ्चसंग्रहकी अपेक्षा २१५२ भंग होते हैं और कर्मकाण्डकी अपेक्षा १८५६ भंग होते हैं । इस प्रकार २५६ भंगका अन्तर पड़ता है। यहाँ यह स्मरणीय है कि अमितगतिमे प्रथम अध्यायके ३४३वें पद्य द्वारा इस बातको स्वीकार किया है कि आहारकऋद्धि, परिहार विशुद्धि, तीर्थंकरप्रकृतिका उदय और मनःपर्ययज्ञान ये स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके उदयमें नहीं होते |
श्रुतधर और सारस्वताचार्य : ३९९
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विषय- परिचय
प्रथम प्रकरण जीवसमास है । इसमें गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणा और उपयोग इन २० प्ररूपणाओं द्वारा जीवोंकी विविध दशाओं का वर्णन किया गया है !
मोह और योगके निमित्तसे होनेवाले जीवोंके परिणामोंके तारतम्यरूप क्रमविकसित स्थानों - भावोंको गुणस्थान कहा है । गुणस्थान १४ हैं - मिध्यात्व, सासादन, सम्यग्मिथ्यात्व अविरतसम्यक्त्व, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली । प्रथम प्रकरणके प्रारम्भमें ही इन गुणस्थानोंका स्वरूप विवेचन किया गया है।
दूसरी प्ररूपणा जीवसमास है । जिन धर्मविशेषोंके द्वारा नाना जीव और नाना प्रकारकी उनकी जातियां जानी जाती हैं, उन धर्मविशेषोंको जीवसमास कहते हैं । जीवसमासके संक्षेपकी अपेक्षा १४ मेद हैं और विस्तारकी अपेक्षा २१, ३०, ३२, ३६, ३८, ४८, ५४ और ५७ भेद हैं। प्रथम प्रकरणमें इन समस्त भेदोंका विस्तारपूर्वक विवेचन आया है ।
तीसरी पर्याप्रिरूपणा है । प्राणोंके कारणभूत शक्तिकी प्राप्तिको पर्याप्त कहते हैं | पर्याप्तियाँ छह हैं- आहारपर्याप्त शरीर पर्याप्त इन्द्रियपर्याप्त, दवासोच्छवासपर्याप्ति, भाषापर्याप्ति और मनः पर्याप्ति । एकेन्द्रियजीवके प्रारम्भकी चार पर्याप्तियाँ, ढोइन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रियपर्यन्त पाँच पर्याप्तियाँ और संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवको छह पर्याप्तियाँ होती हैं ।
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चौथी प्राणप्ररूपणा है । पर्याप्तियोंके कार्यरूप इन्द्रियादिकके उत्पन्न होनेको प्राण कहते हैं । प्राणोंके दश भेद हैं- पाँच इन्द्रियाँ, मनोबल, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छवास । एकेन्द्रिय जीवके स्पर्शन इन्द्रिय, कायवल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण होते हैं । द्वीन्द्रियजीवके रसनेन्द्रिय और वचनबल इन दो प्राणों के अधिक होनेसे छह प्राण होते हैं । त्रन्द्रियजोवके घ्राणेन्द्रिय बढ़ने से सात प्राण, चतुरिन्द्रियजीवके चक्षु इन्द्रिय बढ़नेसे आठ प्राण, असंज्ञी पंचेन्द्रियजीवके कर्णेन्द्रिय बढ़ने से ९ प्राण और संज्ञी पचेन्द्रियजीवके मनोबल बढ़ने से दश प्राण होते हैं ।
पांचवीं संज्ञाप्ररूपणा है । आहारादिकी वाञ्च्छाको संज्ञा कहते हैं। संज्ञाके चार भेद हैं-- आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा । चारों संज्ञाएँ सभी संसारी जीवोंमें पायी जाती है ।
४०० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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जिन अवस्थाविशेषों में जीवोंका अन्वेषण किया जाता है, उन्हें मार्गणा कहते हैं | मार्गणाओंके चौदह भेद हैं-गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संजी और आहारमार्गणा | प्रथम प्रकरणमें इन १४ मार्गणाओंका विस्तारके साथ वर्णन किया गया है ।
२०वौं उपयोगप्ररूपणा है। वस्तुके स्वरूपको जानने के लिए जीवका जो भाव प्रवृत्त होता है, उसे उपयोग कहते हैं। उपयोग दो प्रकारका होता हैसाकारोपयोग और निराकारोपयोग | निराकारोपयोगके चार भेद हैं।।
इस प्रकार प्रथम जीवसमासप्रकरणमें २० प्ररूपणाओं द्वारा जीवोंकी विविध दशाओंका विस्तारके साथ वर्णन किया है।
दूसरा प्रकरण प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामका है। इसमें कोंकी मूलप्रकृतियों और उत्तरप्रकृतियोंका वर्णन किया गया है। मलप्रकृतियां आठ हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आय, नाम, गोत्र और अन्तराय । इनकी उत्तर प्रकृतियों क्रमशः पांच, नौ, दो, अट्ठाईस, घार, तिरानवे, दो और पाँच हैं। सब उत्तरप्रकृत्तियाँ १४८ होती हैं। इनमेंसे बन्धयोग्य १२० प्रकृतियाँ, उदययोग्य १२२ प्रकृतियां, उद्वेलन ११ प्रकृतियाँ, ध्रुवबन्धी ४७, अध्रवबन्धी ११, वर्तमान प्रकृतियाँ ६२ एवं सत्त्वयोग्य १४८ प्रकृतियां हैं। पञ्चसंग्रहके पाँचों प्रकरणोंमें यह सबसे छोटा प्रकरण है।
कर्मस्तव नामका तीसरा प्रकरण है। इसके अन्य नामान्तर बन्धस्तव और कही कर्मबन्धस्तव भी हैं । इस प्रकरणमें १४ गुणस्थानोंमें बंधनेवाली, नहीं बंधने वाली और बन्धव्युच्छित्तिको प्राप्त होनेवाली प्रकृतियोंका तथा सत्वयोग्य, असत्वयोग्य और सत्वसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृत्तियोंका विवेचन किया गया है। अन्तमें चूलिकाके अन्तर्गत नौ प्रश्नोंको उठाकर उनका समाधान करते हए बतलाया गया है कि किन प्रकृतियोंकी बन्धव्युग्छित्ति, उदयव्युच्छित्ति और सखन्युच्छित्ति पहिलं, पीछे या साथमें होती है। इस नौ प्रश्नरूप चूलिकामें कर्मप्रकृतियोंके बन्ध, उदय और सत्त्वव्युच्छित्ति सम्बन्धी कितनी ही ज्ञातव्य बातें बतलाई गयी हैं।
चौथे प्रकरण का नाम शतक है । इस प्रकरण में १४ मार्गणाओंके आधारसे जीवसमास, गुणस्थान, उपयोग और योगका वर्णन करनेके अनन्तर कर्मबन्धके कारणभत मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग वन्धप्रत्ययोंका विस्तारसे वर्णन किया है। साथ ही मिथ्यात्व आदि मुणस्थानोंमें जघन्य और उत्कृष्ट प्रत्ययोंकी अपेक्षा सम्भव संयोगी भंगोंका विस्तृत विवेचन किया है। तत्पश्चात् शानावरणादि आठ कर्मोके विशेष बन्धप्रत्ययोंका वर्णन किया गया है।
श्रुतपर और सारस्वताचार्य : ४०१
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पञ्चम प्रकरणका नाम सप्तति या सप्ततिका है। इसे सित्तरी भी कहते हैं। इस प्रकरणमें मूल कर्मों और उनके अवान्तर मेदोंके बन्धस्थान, उदयस्थान और स्तवस्थानोंका स्वतन्त्र रूपसे एवं चौदह जीवसमास और गण. स्थानोंके आश्रयसे भंगोंका विस्तारपूर्वक विवेचन किया है । अन्तमें कोकी उपशमना और घरगना विवेच बावा है। सपा और सप्ततिका इन दोनों ही प्रकरणोंमें भंगोंका विवेचन करनेवाले पत्र प्राकृतपंचसंग्रहके तुल्य ही हैं। कर्मसिद्धान्तको अवगत करनेके लिये यह एक अच्छा साधनग्रन्थ है।
उपर्युक्त ग्रन्थोंके अतिरिक लघु एवं बृहद सामायिक पाठ, जम्बूद्वीपप्राप्ति सार्द्धद्वयद्वीपप्राप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्राप्ति ग्रन्थ भी इनके द्वारा रचे गये माने जाते हैं । सामायिकपाठमें १२० पद्य हैं। इसमें सामायिकका स्वरूप, विधि और महत्त्व प्रसिपादित किया गया है। शेष चार अन्य बभी तक उपलब्ध नहीं हैं।
अमृतचन्द्रसूरि सारस्वताचार्योंमें टीकाकार अमृतचन्द्रसूरिका यही स्थान है, जो स्थान संस्कृतकाव्यरचयिताओंमें कालिदासके टीकाकार मल्लिनाथका है। कहा जाता है कि यदि मल्लिनाथ न होते, तो कालिदासके अन्थोंके रहस्यको समझना कठिन हो जाता। उसी तरह यदि अमृतचन्द्रसूरि न होते, तो आचार्य कुन्दकुन्दके रहस्यको समझना कठिन हो जाता। अतएव कुन्दकुन्द आचार्यके व्याख्याताके रूपमें और मौलिक ग्रन्थरचयिताके रूपमें अमृतचन्द्रसूरिका महत्वपूर्ण स्थान है। निश्चयतः इन आचार्यको विद्वत्ता, वाग्मिता और प्राञ्जल शैली अप्रतिम है । इनका परिचय किसी भी कृतिमें प्राप्त नहीं होता है, पर कुछ ऐसे संकेत अवश्य मिलते हैं, जिनसे इनके व्यक्तित्वका निश्चय किया जा सकता है । ____ अध्यात्मिक विद्वानों में कुन्दकुन्दके पश्चात् यदि आदरपूर्वक किसीका नाम लिया जा सकता है, तो वे अमृतचन्द्रसूरि ही हैं। इन्होंने टोकाओंके अन्तमें जो संक्षिप्त परिचय दिया है उससे अवगत होता है कि ये बड़े निस्पृह आध्यास्मिक आचार्य थे। 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' के अन्तमें लिखा है--
वर्णः कृतानि चित्रः पदानि तु पदैः कृतानि वाक्यानि ।
वाक्यैः कृतं पवित्र शास्त्रमिदं न पुनरस्माभिः ॥ २२६ ॥ अर्थात् नाना प्रकारके वर्णोसे पद बन गये, पदोंसे वाक्य बन गये और वाक्योंसे यह पवित्र शास्त्र बन गया। इसमें मेरा कर्तृत्व कुछ भी नहीं है। ४०२ : तीयंकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा
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इसमें अमृतचन्द्रसुरिको कितनी निस्पृहता और आध्यात्मिकता टपक रही है । अतः वे अपनेको आत्मभावोंका ही कर्ता मानते हैं, परवस्तुका नहीं । इससे उनकी आध्यात्मिकता तो सिद्ध होती ही है, साथ ही वे आचार्य या मुनिपदसे विभूषित भी व्यक्त होते हैं। जीवन-परिचय
पंडित आशाधरने अमृतचन्द्रसूरिका उल्लेख ठक्कुरपदके साथ किया है
'एतच्च विस्तरेण ठक्कुरामृतचन्द्रसूरिविरचितसमयसारदीकायां दृष्टव्यम् ।' अनगारधर्मामृत टीका, पृ० ५८८ । ___ यहाँ 'ठक्कुर' शब्द विचारणीय है । ठक्कुरका प्रयोग जागीरदार या जमीदारोंके लिए होता है । हरिभद्रसुरिने अपनी 'समराइच्चकहा' में ठक्कूर पदका प्रयोग किया है। यह पद क्षत्रिय और ब्राह्मण इन दोनोंके लिए समान रूपमें प्रयुक्त होता है। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि अमृतचन्द्रसूरि क्षत्रिय थे या ब्राह्मण । इतना निश्चित है कि वे किसी सम्मानित कुलके व्यक्ति थे । ___ संस्कृत और प्राकृत इन दोनों ही भाषाओंपर इनका पूर्ण अधिकार था। ये मूलसंघके आचार्य थे। समय-विधार
पण्डित आशाघरजीने अमृतपन्द्रसूरिका उल्लेख किया है और आशाघरजीका समय वि० सं० १३०० है । अतः अमृतचन्द्रसूरिका समय वि० सं० १३०० के पहले होना चाहिये । अमृतचन्द्रसूरिने प्रवचनसारको टीकामें चार गाथायें उद्धृत की हैं । “णिद्धा णिद्धेण" और "णिद्धस्स णिद्धेण" ये दो गाथाएं क्रमसे एक साथ उद्धृत की हैं और 'जावदिया वयणवहा' तथा 'परसमयाणं वयणं' आदि दो गाथाएं 'तदुत्तम्' कहकर क्रमसे एक साथ टीकाके अन्त (पृ० ३७२) में उद्धत हैं। पहलेकी दोनों गाथाएं गोम्मटसार जीवकाण्डको क्रमशः ६१२ तथा ६१४ संख्यक हैं और दूसरी दोनों गाथाएँ गोम्मटसार कर्मकाण्डको ८९४ और ८९५ संख्यक हैं। इन गाथाओंके सम्बन्धमें डॉ० उपाध्येने लिखा है कि चूंकि गोम्मटसार कर्मकाण्डमें वे दोनों गाथाएं उसी क्रमसे पायी जाती हैं और उनमें शाब्दिक समानता भी है । अतएव यह अनुमान लगाना असंगत नहीं है कि अमतचन्द्रने इन गाथाओंको गोम्मटसार कर्मकाण्डसे लिया है । बहुत सम्भव है कि ये दोनों गाथाएं 'धवला' और 'जयधवला' टीकामें भी मिल जाएं। इन दोनोंमेंसे 'जावदिया वयणबहा' गाथा सन्मतितर्क (३।४७) में भी पायी जाती है। डॉ० उपाध्येने लिखा है कि अमृतचन्द्र सिद्धसेनके सन्मतितकसे परिचित्त
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अवश्य थे, पर उन्होंने उक्त गाथा वहाँसे उद्धृत नहीं की है । इसके प्रमुख दो कारण हैं। पहली बात तो यह है कि सिद्धसेनकी गाथाका रूप महाराष्ट्रो है जबकि अमृतचन्द्रके द्वारा उद्धृत गाथाएँ शौरसेनीमें हैं। दूसरी बात यह है कि अमृतचन्द्रने दोनों गाथाओंको एक साथ उद्धृत किया है जबकि सिद्धसेनके ग्रंथमें उनमेंसे एक ही पायी जाती है । अतः डॉ. उपाध्येने अमृतचन्द्रका समय गोम्मटसार जीवकाण्ड व कर्मकाण्डके कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके बाद अर्थात् ई० सन् को दशवीं शताब्दीके लगभग माना है। ___डॉ० उपाध्येके अभिमतको समीक्षा पण्डित परमानन्दजीने की है। उनका कथन है कि वि० सं० १०५५ में बने हुए धर्मरत्नाकर प्रत्यमें आचार्य अमृत. चन्द्रके कुछ पद्य उद्धृत हैं, तो अमृतचन्द्र वि० की ११ वीं शतीके पूर्वार्द्ध में रचे गये गोम्मटसारसे कैसे पद्य उद्धृत कर सकते हैं ? प्रवचनसारको प्रस्तावना लिखते समय डॉ० उपाध्येके सामने धर्मरलाकरवाली बात नहीं थी। तथा अमतचन्द्र के द्वारा प्रवचनसारको टीकामें उद्धत चारों गाथाओंमेंसे प्रथम दो गाथाएं 'षट्खण्डागम'की धवलाटीकासे उद्धृत की गयी हैं, किन्तु दूसरी दो गाथाओंमेंसे प्रथम गाथा सिद्धसेनके सन्मतितर्क में भी है, पर उसके साथवाली दूसरी गाथा गोम्मटसार कर्मकाण्डके अतिरिक्त अन्यत्र नहीं मिलती। अत: धर्मरत्नाकरमें अमृतचन्द्रके पद्योंको उद्धृत देखकर यह मानने के लिए बाध्य होना पड़ता है कि गोम्मटसारमें वह गाथा किसी अन्य स्रोतसे ग्रहण की गयी है । अथवा यह भी सम्भव है कि गोम्मटसारमें ही दोनों उक्त गाथाएं अमृतचन्द्रके प्रवचनसारकी टीकासे ली गयी हों, क्योंकि गोम्मटसार एक संग्रहग्रन्थ है। यदि गोम्मटसारकी रचना अमृतचन्द्रके पश्चात् हुई है, तो निश्चयत: ये दोनों गाथा प्रवचनसारको टीकासे ली गयी हैं। अत: अमतचन्द्रका समय आचार्य नेमिचन्द्र के पहले है। श्री पण्डित नाथूरामजी प्रेमीने अमृतचन्द्रके सम्बन्धमें जो नया प्रकाश प्राप्त किया है उसके आधारपर उन्होंने बताया है कि माधवचन्द्रके शिष्य अमतचन्द्र विहार करते हुए बाँभणबाड़ेमें आये । कविने रल्हणके पुत्र सिंह या सिद्ध नामक कविको 'पञ्जुण्णचरिउ' बनानेको प्रेरणा की । उस समय वहाँका राजा गुहिलवंशी भुल्लण था, जो मालवनरेश वल्लालका माण्डलिक था, जिसका राज्यकाल वि० सं० १२०० के आस-पास है। यदि इस उल्लेखके आधारपर मल्लहधारि माधवचन्द्र के शिष्य अमृतचन्द्रको इन अमतचन्द्रसे अभिन्न मान लिया जाये, तो अमृतचन्द्रका समय ११ वीं शताब्दीका उत्तरार्घ या १२ वीं शताब्दीका पूर्वार्द्ध सिद्ध होता है । ___ आचार्य शुभचन्द्रने अपने ज्ञानार्णवमें अमृतचन्द्र के पुरुषार्थसिद्धयुपायका ४०४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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'मिध्यात्ववेदरागा' आदि पद्य 'उक्तञ्च' रूपसे उद्धृत किया है। अतएव अमृतचन्द्र, शुभचन्द्रसे भी पूर्ववर्ती हैं और पद्मप्रभ मलधारिदेवने शुभचन्द्रके ज्ञानार्णवका एक श्लोक उद्धृत किया है । अतएव शुभचन्द्र पद्मप्रभसे पूर्ववर्ती हैं । पद्मप्रभका समय वि० की १२ वीं शतीका अन्त माना जाता है । अतः अमृतचन्द्रका समय इसके पहले होना चाहिये । हमारा अनुमान है कि इनका समय ई० सन्की १०वीं शताब्दीका अन्तिम भाग है। पट्टावली में अमृतचन्द्रके पट्टारोहणका समय वि० सं० ९६२ दिया है, जो ठीक प्रतीत होता है । पुरुषार्थं - सिद्धयुपाय में जयसेन के धर्मरत्नाकर के कई पद्य पाये जाते हैं और धर्मरत्नाकरका रचनाकाल वि० सं० १०५५ है, अतएव अमृतचन्द्रकी यह उत्तरसीमा समय है । रचनाएँ
अमृतचन्द्रसूरिको निम्नलिखित रचनाएँ मानी जाती हैं । इनकी रचनाओंको दो कोटिमें रखा जा सकता है— मौलिक और टीकाग्रन्थ ।
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मौलिक रचनाएँ – १ पुरुषार्थसिद्धयुपाय, २ तस्वार्थसार, ३ समयसार कलश । टीकाग्रन्थ–४ समयसारटोका, ५ प्रवचनसारटीका, ६ पंचास्तिकायटीका |
१. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय -यह श्रावकाचार सम्बन्धी ग्रन्थ है । इसमें २२६ पद्य हैं। आर्यावृत्तमें लिखा गया है। प्रारम्भके आठ पद्यों में ग्रन्थकी उत्थानिका दो गयी है । इस उत्पानिका में निश्चय और व्यवहार नयका स्वरूप, कर्मोका कर्त्ता और भोका आत्मा, जीवपरिणमन एवं पुरुषार्थ सिद्धयुपायका अर्थ बतलाया गया है । ग्रन्थ पांच भागोंमें विभक्त है १. सम्यक्त्व-विवेचन, २. सम्यकज्ञानव्याख्यान, ३, सम्यक् चारित्रव्याख्यान, ४. सल्लेखनाधर्मव्याख्यान, ५. सकलचारित्रव्याख्यान 1 यह आत्मा ज्ञान, दर्शन, सुखस्वरूप है, चेतनायुक्त है, अमूर्तिक है और स्पर्श, गंध, रस, वर्णसे रहित है 1 यह अनादिकाल से अशुद्ध हो रही है । रागादिरूप भावकर्मोंके कारण पुद्गलद्रव्य आत्मामें प्रविष्ट हो कर्मबन्धरूप परिणमन करता है। कर्मबन्धकी इस प्रक्रियाका वर्णन करते हुए कहा है
जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेने ॥ १२ ॥
जिस समय जीव राग-द्वेष- मोभावरूप परिणमन करता है, उस समय उन भावोंका निमित पाकर पुद्गलद्रव्य स्वतः ही कर्मअवस्थाको धारण कर लेते हैं। जो प्रशस्त रागादिरूप परिणमन करता है उसके शुभ कर्मबन्ध होता है १. पुरुषार्थं सि०, पद्य १२ ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ४०५
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और जो अप्रशस्त राग-द्वेष-मोहरूप परिणमन करता है उसके पापबन्ध होता है । आचार्य ने कमंबन्धके प्रति नियसकारण कपन बारसे हुए कहा है
परिणममानस्य चितश्चिदात्मकः स्वयमपि स्वर्भावः ।
भवति हि निमित्तमात्रं पोद्गलिक कर्म तस्यापि ॥१३॥ इस प्रकार राग-द्वेष, कर्म बन्धके स्वरूप विश्लेषणके पश्चात् श्रावकधर्मका ध्याख्यान किया गया है। आरम्भमें रत्नत्रयको मोक्षमार्ग बतलाकर गहस्थको यथाशक्ति इसके सेवन करनेपर जोर दिया है। और बताया है कि सम्यक्त्वके बिना ग्यारह अंगपर्यन्त किया हुआ पठन-पाठन ज्ञान भी अज्ञान कहलाता है तथा महावतादिकोंको साधनासे अन्तिम ग्रेवेयकपर्यन्त बन्धयोग्य विशुद्ध परिणामोंसे भी असंयमी कहलाता है। परन्तु सम्यक्त्वसहित थोड़ा-सा ज्ञान भी सम्यकशान और अल्पत्याग भी सम्यक्चारित्र कहलाता है। जिस प्रकार अंकरहित शून्य कुछ भी कार्यसाधक नहीं होता, उसी प्रकार सम्यक्त्वरहित ज्ञान और चारित्र भी कार्यसाधक नहीं होता। इस तरह सम्यक्त्वका महत्त्व बतलाते हुए उसके स्वरूपका विवेचन किया है--
जीवाजीवादीनां तत्त्वार्थानां सदैव कत्तव्यम् ।
श्रद्धानं विपरीताभिनिवेशविविक्तमात्मरूपं तत् ।। जीव-अजीव आदि तत्त्वरूप पदार्थोंका विपरीत आग्रह रहित श्रद्धान करना सम्यक्त्व कहलाता है।
सम्यक्त्वको परिभाषाके अनन्तर निःशंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टित्व, उपगृहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना इन आठों अंगोंके स्वरूपका विवेचन किया है 1
पदार्थका जो स्वरूप जिनागममें मिलता है, उसे यथावत् जानना सम्यग्ज्ञान है । सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शनमें कार्यकारणभावका सम्बन्ध है। सम्यग्ज्ञान कार्य है और सम्यग्दर्शन कारण । इन दोनोंके एक कालमें उत्पन्न होनेपर भी दीपक और प्रकाशके समान कार्य-कारणभाव घटित होता है । अतएव तत्त्वार्थश्रद्धान प्राप्त करनेके अनन्तर संशय, विपर्यय और अनध्यवसायसे रहित हो पदार्थोके स्वरूपको अवगत करने के लिए प्रवृत्त होना चाहिये। ग्रन्थका ज्ञान आठ प्रकारसे प्राप्त किया जाता है-१. शब्दाचार, २. अर्थाचार, ३.
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१. पुरुषा०, पद्य १३। २. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, पद्म २२ । ४०६ : तीर्थकर महाबीर और उनकी आचार्य परम्परा
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उभयाचार, ४. कालाचार, ५. विनयाचार ६. उपधानाचार, ७. बहुमानाचार, ८ बनिन्ह्वाचार ज्ञानप्राप्तिके ये आठ अंग हैं।
तृतीय अधिकारमें सम्यकचारित्रका व्याख्यान किया गया है और सकलचारित्र और विकलचारित्र कहकर मुनिधर्म और श्रावकधर्मका विवेचन किया है। पंचक्रतोंके प्रसंगमें अहिंसा, सत्य अस्तेय, ब्रहाचर्य और अपरिग्रहका मुनि एवं गृहस्थकी अपेक्षासे स्वरूप बतलाया गया है । कषायसे 'अपने' और 'पर'के भावप्राण और द्रव्यप्राणका घात करना हिंसा है । हिंसा और अहिंसाका सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए लिखा है
अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवहिसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः । युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावेशमन्तरेणापि । न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव ।। यस्मात्सकषायःसनहन्त्यारमा प्रथममात्मनात्मानम्।
पश्चाज्जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तराणां' तु॥ निश्चयत्तः रागादि भावोंका प्रकट न होना अहिंसा है और रागादिभावोंको उत्पत्ति होना हिंसा है । रागादि भावोंके न रहनेपर सन्त पुरुषोंके केवल प्राणपीड़नसे हिंसा नहीं होती। रागादि मावोंके वशमें प्रवृत्त हुई अयतनाचाररूप प्रमाद अवस्थामें जीव भरे अथवा न मरे हिंसा अवश्य होती है। आशय यह है कि हिंसाशब्दका अर्थ धात करना है। यह बात दो प्रकारका है-एक आत्मघात दूसरा परघात । जिस समय आत्मामें कषायभावोंको उत्पत्ति होती है उसी समय आत्मघात हो जाता है । पश्चात् यदि अन्य जीबकी आयु पूरी हो गयी हो अथवा पापका उदय आया हो, तो उनका भी घात हो जाता है । अन्यथा बायुकर्म पूर्ण न हुआ हो, पापका उदय न आया हो तो कुछ भी नहीं होता है, क्योंकि उनका घात उनके कमोंके अधीन है। परन्तु आत्मघात तो कषायोंको उत्पत्ति होते ही हो जाता है और आत्म तथा परघात दोनों ही हिंसा हैं । इस प्रकार रागदि कषायभावको हिंसा बताया है। इन रागादिभावोंके सद्भावके कारण ही हिंसा न करनेपर भी हिंसाका सद्भाव बताया है तथा कई भंगों द्वारा हिंसा-अहिंसाका विवेचन किया है।
१. एक व्यक्ति पाप करता है और अनेक व्यक्ति फल भोगते हैं।
२. अनेक व्यक्ति हिंसा करते हैं और एक व्यक्ति फल भोगता है। १. पुरुषार्थसिदधुपाय, पद्य ४४, ४५, ४७ ।
श्रुतपर और सारस्वताचार्य : ४०७
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३. हिंसा करनेपर भी अहिंसक बना रहता है ।
४. प्राणघात न करने पर भी हिंसक हो जाता है ।
इस प्रकार अनेक भंगों द्वारा हिंसा के अल्पबहुत्वका कथन किया गया है । हिंसाके कारण, मद्य, मांस, मधु और पंचउदम्बर फलोंके त्यागका उपदेश दिया गया है । इस प्रसंग में मद्य, मांस, मधु और पंचउदम्बर फलोंके दोषोंका भी विश्लेषण किया गया है। इसके पश्चात् अनृतका वर्णन आया है। अनृतके अन्तर्गत गर्हित, साक्य और अविचन से सम्मिलित है । वहिवचनोंमें शास्त्रविरुद्ध कहे जानेवाले वचनों को शामिल किया गया है । छेदन-भेदन, मारण, कर्षण, वाणिज्य, चौर्य आदि वचन सावद्यवचन कहलाते हैं । अरतिकर, भीतिकर, खेदकर, बेरकर, शोककर, कलहकर आदि सन्ताप देनेवाले वचन अप्रियवचन कहलाते हैं । स्तेयका विवेचन करते हुए घनके साथ अधिकार अपहरणको भी स्तेय बतलाया है । रागादिकके आवेगसे मैथुनरूप प्रवृत्ति करना अब्रह्म है । इस अब्रह्मके त्यागको ब्रह्मचर्यव्रत कहा है। मूर्छाको परिग्रहलक्षण बतलाकर अन्तरंग और बहिरंग परिग्रहके भेद-प्रभेदोंको निरूपण किया है । पंचतोंके पश्चात् रात्रिभोजनत्यागका महत्त्व प्रतिपादित किया गया है । पञ्चव्रतों का पालन करनेके लिए सात शीलव्रतोंका पालन करना चाहिये । जिस प्रकार परकोटा नगरकी रक्षा करता है, उसी प्रकार तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत पञ्चनतोंकी रक्षा करते हैं। गुणव्रत के तीन भेद बतलाये हैंदिक्त, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत । अनर्थदण्ड के अपध्यान, पापोंपदेश, प्रमादचर्या, हिंसादान और दुःश्रुति इन पाँच भेदोंका स्वरूपसहित विवेचन किया गया है। शिक्षावत के सामायिक, प्रौषधोपवास, अतिथिसंविभाग और भोगोपभोगपरिमाण इन चारोंका विवेचन किया है ।
चतुर्थं सल्लेखना अधिकरण में संल्लेखनाका स्वरूप, आवश्यकता और उसकी विधिका वर्णन किया गया है। पंचम सकलचारित्रव्याख्यानाधिकारमें मुनियोंके व्रत चरित्रका वर्णन किया है। इसमें द्वादश तप, दशधर्म द्वादश अनुप्रेक्षा, बाईस परिषह्जयका वर्णन किया है। इस प्रकार इस लघुकाय ग्रन्यमें श्रावकधर्मका वर्णन आया है । 'तस्वायंसार
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यह ग्रन्थ ९ अधिकारोंमें विभक्त है। प्रथम अधिकार में ५४ पद्य, द्वितीय अधिकार २३८ पद्य, तृत्तीय अधिकार में ७७ पद्य, चतुर्थ अधिकारमें १०५ पद्य, १. यह पण्डित पन्नालालजी साहित्याचार्य द्वारा सम्पादित अनूदित और श्री गणेशप्रसाद वर्णी गन्थमाला काशी द्वारा सन् १९७० में प्रकाशित है ।
४०८ तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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पंचम आंधकारमें ५४ पद्य, षष्ठ अधिकारमें ५२ पद्य, सप्तम अधिकारमें ६० पद्य, अष्टम अधिकारमें ५५ पद्य और नवम अधिकारमें २३ पद्य हैं । इन अधिकारोंके नाम क्रमशः निम्न प्रकार है--
१. मोक्षमार्गाधिकार---जीवाधिकार २. जीवतत्त्वनिरूपणाधिकार ३. अजीवाधिकार, ४ आस्रवत्तत्त्वाधिकार, ५. बन्धतत्वाविकार, ६. संवरतत्त्वाधिकार, ७. निर्जरातत्त्वाधिकार, ८. मोक्षतत्त्वाधिकार, ९ उपसंहार,
इस ग्रन्थको बाचायने मोक्षमार्गका प्रकाश करनेवाला दीपक बतलाया है; क्योंकि इसमें युक्ति और आगमसे सुनिश्चित सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रका स्वरूप प्रतिपादित किया है। सम्यग्दर्शनादिका स्वरूप बतलाते हुए जोवादितत्त्वोंका विशद विवेचन किया है। जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्व बतलाये हैं। इनमें जीवतत्त्व उपादेय है और अजीवतत्त्व हेय है । अजीवका जीवके साथ सम्बन्ध क्यों होता है, इसका कारण बतलानेके लिए आस्रवका और अजीबका सम्बन्ध होनेसे जीवकी क्या दशा होती है, यह बतलानेके लिए बन्धका कथन किया है । हेय-अजीवतत्त्वका सम्बन्ध जीवसे किस प्रकार छूट सकता है, यह बतलाने के लिए संवर और निर्जराका कथन तथा अजीवतत्त्वका सम्बन्ध छटनेपर जीवकी क्या दशा होती है, यह दिखलानेके लिए मोक्षतत्त्वका कथन किया है । इन सात तत्त्वोंके सम्यक्-परिज्ञानके लिए नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपोंका तथा प्रमाण और नयोंका विस्तारसे वर्णन किया है। प्रथम अधिकारके यन्तमें निर्देश स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान तथा सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्प-बहुत्व अनुयोगोंका भी उल्लेख किया है।
द्वितीय अधिकारमें जीवके औपशमिक, झायिक, क्षायोपमिक, औदायिक और पारिणामिक इन पांच स्वतत्त्वोंका वर्णन किया गया है । जीवका लक्षण बतलानेके लिए उपयोगका निरूपण पाया है। उपयोगके साकार और अनाकारके भेदसे दी मेद बतलाते हुए शानोपयोग और दर्शनोपयोगका वर्णन किया है।
श्रतधर और सारस्वताचार्य । ४०९
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पश्चात् जीवके संसारी और मुक्तके भेदसे दो भेद कर संसारी जीवोंका वर्णन गुणस्थान आदि बीस प्ररूपणाओके द्वारा किया है।
तृतीय अधिकारमें अजीवतत्त्वका वर्णन करते हुए पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल और जीव इन छह द्रव्योंका स्वरूप, इनके देश, काल, पुद्गलोंके भेद, अणु और स्कन्धका स्वरूप, पुद्गल द्रव्यको पर्याएं तथा स्कन्ध बननेकी प्रक्रियाका वर्णन किया गया है।
चतुर्थ अधिकारमें आस्रवतत्वका वर्णन है। कर्मोके आस्रवोंका विस्तारसहित वर्णन किया है। शुभास्रवके वर्णनप्रसंगमें व्रतोंका निर्देश आया है। पंचम अधिकारमें बन्धका स्वरूप, बन्धके कारण और बन्धके भेद पणित हैं। इसमें कर्मोंको मल तथा उत्तर प्रकृतियों के नाम, लक्षण तथा उनकी स्थिति आदिका कथन किया है।
षष्ठ अधिकारमें संवरतत्त्वका वर्णन है। इसमें संवरका स्वरूप तथा उसके कारणभूत गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषह, जय और चारित्रका वर्णन किया गया है। साम अधिकारमें निर्जराका वर्णन आया है। इसमें निर्जराके भेद तथा निर्जराके कारणभूत तपोंका विस्तारसे वर्णन किया गया है।
अष्टम अधिकारमें मोक्षका वर्णन है। मोक्षके लक्षण तथा उसकी प्राप्तिके क्रमका सुन्दर विवेचन किया है।
नवम अधिकारमें ग्रन्थका उपसंहार करते हुए प्रमाण, नय, निक्षेप और निर्देश आदिके द्वारा सात तत्त्वोंको जानकर मोक्षमार्गका आश्रय लेनेका कथन किया है। निश्चय और व्यवहारके भेदसे मोक्षमार्ग दो प्रकारका है। निश्चयमोक्षमार्ग साध्य है और व्यवहारमोक्षमार्ग साधन है। अपनी शुद्धात्माकी जो श्रद्धा, ज्ञान और उपेक्षण-राग-द्वेषसे रहित प्रवर्तन है वह निश्चयमोक्षमार्ग है और देव-शास्त्रगुरुका श्रद्धान व्यवहारमोक्षमार्ग है। व्यवहारमोक्षमार्ग अन्तमें चलकर निश्चयमोक्षमार्गमें विलीन हो जाता है और उससे साक्षात् मोक्षकी प्राप्ति होती है । अतः मोक्षप्राप्तिका साक्षात् कारण निश्चयमोक्षमार्ग है। व्यवहारमोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्गका साधक होनेके कारण परम्परासे मोक्षमार्ग है । अतएव साधकको निश्चय और व्यवहार मोक्षमार्गको अपनाकर मोक्षकी प्राप्ति करनी चाहिये। बताया है-- स्यात्सम्यक्त्वज्ञानचारित्ररूप:
पर्यायार्थादेशतो मुक्तिमार्गः ॥ एको ज्ञाता सर्वदेवाद्वितीयः
स्याद् द्रव्यादेशतो मुक्तिमार्ग:। १. तत्त्वार्थसार, वर्णीग्रम्पमाला संस्करण ९४२१ । ४१० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप है और द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा सदा अद्वितीय रहने वाला एक ज्ञानी आत्मा ही मोक्ष मार्ग है ।
विषय - स्रोत
यों तो तत्त्वार्थसार तत्त्वार्थसूत्रका ही व्याख्यान अथवा सार है, फिर भी इसके विषय स्रोत गृद्धपिच्छाचार्यके तत्त्वार्थ सूत्रके अतिरिक्त पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि, अकलङ्कदेव का तत्त्वार्थवात्तिक, प्राकृतपंचसंग्रह आदि ग्रन्थ हैं ! प्रथम अधिकार तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर ही रचा गया है ! द्वितीय अधिकारको विषयवस्तुका आधार पंचसंग्रह और तत्त्वार्थवार्तिक है । तत्त्वार्थसूत्रके द्वितीय तृतीय और चतुर्थ अध्याय में वर्णित समस्त प्रमेयोंको तत्त्वार्थसारके द्वितीय अधिकार में समाविष्ट किया गया है । सर्वार्थसिद्धिसे भी अनेक विषय गृहीत है ।
तृतीय अधिकारमें वर्णित अजीवतत्त्व और षद्रव्योंके निरूपणका आधार तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिकका पञ्चम अध्याय है ।
चतुर्य अधिकरण के प्रमेयोंका स्रोत तत्वार्थसूत्रके षष्ठ और सप्तम अध्याय हैं । अनेक प्रमेय इन्हीं अध्यानों पर औरर्थसिद्धिसे
भी संगृहीत हैं । पञ्चम अधिकारका आधार तत्त्वार्थसूत्र और उससे सम्बन्धित टीकाओंका अष्टम अध्याय है । अष्टम अधिकार के प्रमेय तत्त्वार्थं वातिकसे ग्रहण किये गये हैं । यहाँ हम तुलना द्वारा अपने उपर्युक्त कथनको पुष्टि करते हैं
जवणालियामसरीचंदद्ध अदमुत्तफुल्लतुल्लाई । इंदियठाणाई फासं पुण यवनालमसू रातिमुक्ते न्द्व समाः श्रोत्राक्षिप्राणजिह्वाः स्युः स्पर्शनं
गठाणं ||१|६५॥
क्रमात् । नैकसंस्थितिः ॥ २५० ॥
कुंथुपिपोलयमंकुणविच्छियजूविदगोवगोम्हीया ।
उत्ति गमट्टियाई
- पंचसंग्रह
खुल्ला चराडसंखा अंक्खुणहअरिगा य गंडोला ।
कुक्खिकमिसिपिआई गेया वेइंदिया जीवा ॥ १७० ॥ - पंचसंग्रह शम्बूकः शंखशुक्तिर्वा कुक्षिक्रम्यादयश्चैते द्वीन्द्रिया: प्राणिनो मताः ॥२५३॥
गण्डूपदकपर्दकाः ।
त० सा०, अधिकार-२
त० सा०, अधिकार-२
या तेइंदिया जीवा ॥१॥ ७१ ॥ - पंचसंग्रह
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ४११
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कुंथुः पिपीलिका कुम्भी वृश्चिकश्चेन्द्रगोपकः । घुणमत्कुणपूकाद्यास्त्रोन्द्रियाः
सन्ति जन्तवः || २|५४१। त० सा० 'अथोत्पादः क्व तेषामिति ? अत्रोच्यते प्रथमायामसंज्ञिन उत्पद्यते, प्रथमाद्वित्तीययोः सरीसृपाः, तिसृषु पक्षिणः, चतसृषूरगाः, पञ्चसु सिंहाः, षट्सु स्त्रियः, सप्तसु मत्स्य- मनुष्याः । न च देवा नारका वा नरकेषु उत्पद्यन्ते ।' - तत्त्वार्थवार्तिक, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, पृष्ठ- १६८
धर्मामसंज्ञिनो यान्ति वंशान्ताश्च मेघान्ताश्च विहङ्गाश्च अञ्जनान्ताश्च
तामरियां च सिहास्तु मेवारान्तास्तु नरा मत्स्याश्च गच्छन्ति माघवीं ताश्च
आद्यभावान्न अन्ताभावः
आद्यभावादन्ताभाव इति चेत्, न दृष्टत्वादन्त्यबीजवत्
भावस्य
अकस्मादिति
प्रसज्येत
-- तत्त्वार्थवार्तिक, ज्ञानपीठ संस्करण पृ० ६४१
—-
कर्मबन्धनसन्ततेः । दृष्टत्वादन्त्यबीजवत् ||
सरीसृपाः । भोगिनः ॥
चेत्,
अकस्माच्च न बन्धः बन्धोपपत्तिस्तत्र
म
गौरवाभावाच || या तथातिगौरवाभावास
वृन्तसम्बन्धविच्छेदो
पुनबन्धप्रसंगो जानतः पश्यतश्च कारुण्यादिति चेत्, न, सर्वास्रवपरिक्षयात् - तत्त्वार्थवार्तिक, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, पृ० ६४३ जानतः पश्यतश्चोर्ध्वं जगत्कारुण्यतः पुनः । तस्य बन्धप्रसङ्गो
सर्वास्त्रवपरिक्षयात् ॥
- तत्त्वार्थसार | २११४६
योषितः 1 पापिनः ।।
-- तत्त्वार्थसार । २११४७
४१२ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
- तत्त्वार्थसार | ८|६
पातोऽस्य
पतत्यानफलं
अनिर्मोक्षप्रसङ्गः । -- तत्त्वार्थवार्तिक पृ० ६४३
- तत्त्वार्थसार | ८९
स्यादनिर्मोक्षप्रसङ्गतः । स्यान्मुक्तिप्राप्तेरनन्तरम् ॥
- तत्त्वार्थसार ८१० -तत्त्वार्थवार्तिक पृ०-६४३ प्रसज्जते ।
गुरु ।। - तत्त्वार्थसार | ८|१२
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शरीरानुविधायित्वे तदभावाद्विसर्पणप्रसङ्ग इति चेत्, न, कारणाभावात्।।१३।।
-तत्त्वार्थवार्तिक पृ०-७४३ गरीराविधायित्वे तद्भावाद्विसर्पणम् । लोकाकाराप्रमाणस्य तावन्नाकारणत्वतः।।
-तत्वार्थसार १६ दुष्टत्वाच्च निगलादिवियोगे देवदत्ताद्यवस्थानवत् ।
–तत्वार्थवातिक पृ०-६४४ कस्यचिच्छृङ्खलामोक्षे तत्रावस्थानदर्शनात् । अवस्थानं न मुक्तानामूद्रवज्यात्मकत्त्वतः ॥
- तत्त्वार्थसार 1 ८१९ समयसार-कलश
समयसार-कलश यर्थार्थतः कुन्दकुन्दके समयसारपर कलशरूपमें लिखा गया है। इसका विषय-वर्गीकरण भी कुन्दकुन्दके विषयके समान ही है। इसमें कुल २७८ पद्य हैं, जो निम्न अधिकारों में विभक्त हैं
१. पूर्वरङ्ग २. जीवाजीवाधिकार ३. कर्तृकर्माधिकार ४. पुण्यपापाधिकार ५. आस्रवाधिकार ६. संवराधिकार ७. निर्जराधिकार ८. बन्धाधिकार ९. मोक्षाधिकार १०. सर्वविशद्धज्ञानाधिकार ११. स्याद्वादाधिकार १२. साध्य-साधकाधिकार आरम्भमें ही आत्म-तत्त्वको नमस्कार करते हुए बताया है
नमः समयसाराय स्वानुभत्या चकासते ।
चित्स्वभावाच भावाय सर्वभावान्तरच्छिदे ॥ --पद्य-१ । मैं समयसार-समस्त पदार्थों में श्रेष्ठ उस आत्मतत्त्वको नमस्कार करता हूँ, जो स्वानुभूतिसे स्वयंप्रकाश है, चैतन्यस्वभाववाला है, शुद्ध सत्ता-रूप
श्रुतषर और सारस्वताचार्य : ४१३
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है और समस्त पदार्थोंको जाननेवाला है अथवा चैतन्यस्वभावसे भिन्न समस्त रागादि विकारोको न करनेवाला है। इस का आरम्भमें ही शुद्ध आत्मतत्त्वको नमस्कार किया गया है। समयसारको व्याख्याका प्रयोजन बतलाते हुए लिखा है-- परपरिणतिहेतोर्मोहनाम्नोऽनुभावा
दविरतमनुभाव्यव्याप्तिकल्माषितायाः । ममपरमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्ते
भवतु समयसारव्याख्ययैवानुभूतेः ॥३॥ इस समयसारकी व्याख्यासे मेरी अनुभूतिकी परम विशुद्धता प्रकट हो । यद्यपि मेरी वह अनुभूति शुद्ध चैतन्यमात्र मुर्तिसे युक्त है अर्थात् परम ज्ञायक भावसे सहित है तथापि वर्तमानमें परपरिणतिका कारण जो मोहनामका कर्म है, उसके उदयरूप विषाकसे निरन्सर रागादिकी व्याप्तिसे कल्माषित-मलिन हो रही है । अर्थात् इस व्याख्यासे मेरो अनुभूतिमें परम विशुद्धसा उत्पन्न होगी। निश्चय और व्यवहार नयके विवादको समाप्त करते हुए बताया है-- उभयनयविरोषध्वंसिनि स्यात्पदाके
जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहः । सपदि समयसारं ते पर ज्योतिरुच्चै
रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव ॥४॥ अर्थात् निश्चय और व्यवहार नयके विषयमें परस्पर विरोध है, क्योंकि निश्चयनय अभेदको ग्रहण करता है और व्यवहारनय भेदको । किन्तु इस विरोधका परिहार करनेवाला स्थाद्वादवचन है, उस वचनमें वे ही रमण कर सकते हैं, जिन्होंने मोहका वमन कर दिया है और वे ही पुरुष शीघ्र ही उस समयसारका अवलोकन करते हैं, जो कि अतिशयसे परमज्योतिस्वरूप है। नवीन नहीं अर्थात् द्रव्यदृष्टि से नित्य हैं और एकान्तपक्षसे जिसका खण्डन नहीं हो सकता।
शुद्धनयकी दृष्टिसे आत्मा अपने एकपनमें नियत है । स्वकीय गुणपर्यायों में व्याप्त होकर रहता है तथा पूर्णज्ञानका पिण्ड है। ऐसे आत्मतत्त्वका आत्मातिरिक द्रव्योंसे भिन्न अवलोकन करता है, इसीका नाम सम्यकदर्शन है। इसके होते ही जो आत्मज्ञान होता है वह सम्यकज्ञान कहलाता है। जब तक आत्मामें परसे भिन्न अपनी यथार्थ प्रतीति नहीं होती तब तक यथार्थ शान नहीं होता। अतएव नवतत्त्वको संततिको छोड़कर केवल एक आत्माको ही परसे भिन्न शुखरूपमें अनुभूत करना ही यथार्थ पुरुषार्थ है। बताया है४१४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः
पूर्णज्ञानधनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक् । सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं
तन्मुक्त्वा नवतत्त्वसन्ततिमिमामात्माऽयमेकोऽस्तु नः ||६|| इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्रसूरिने समयसारके समान ही विषयोंका विवेचन करते हुए आत्माका कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदिका निरूपण किया है। अन्समें आत्माकी आश्चर्यकारक महिमाका वर्णन करते हए लिखा है-"जब विभावशक्तिकी अपेक्षासे विचार करते हैं तब आत्मामें कषायका उपद्रव दिखाई देता है और जब स्वभावदशाका विचार करते हैं तो शान्तिका प्रसार अनुभवमें भाता है। कर्मबन्धकी अपेक्षा संसारको जन्म-मरण रूप बाधा दिखाई देती है और शुद्ध स्वरूपका विचार करनेपर मुक्तिकास्पर्श अनुभव में आता है। स्वपरिज्ञायक भावकी अपेक्षा करनेपर आत्मा लोकत्रयका ज्ञाता है और ज्ञायकभावको अपेक्षा एक चैतन्यमात्र अनुभवमें आता है। इस प्रकार अनेक विरुद्ध धर्मों के समावेशगोरा आलाकमावी उपमु महिमा दिसलाई पड़ती हैकषायकलिरेकतः स्खलति शान्तिरस्त्येकतो
भवोपतिरेकतः स्पृशति मुक्तिरप्येकतः । जगत्रितयमेकतः स्फुरति चिच्चकास्त्येकतः
स्वभावमहिमात्मनो विजयतेऽद्भुतादद्भुतः ॥२७॥ समयसारको अपेक्षा समयसारकलश अतिगहन है। निश्चयतः आचार्य अमृतचन्द्रसूरिने अध्यात्मगंगा प्रवाहित की है। इस गंगामें अवगाहन करनेवाले सभी प्रकारसे शान्तिलाभ करते हैं । समयसार-टीका
अमृतचन्द्रकी समयसार-टीका आत्मख्यातिके नामसे प्रसिद्ध है । यह आचायकी प्रांजल शैलीका उत्कृष्ट नमूना है। उन्होंने गाथाके शब्दोंका व्याख्यान न कर उसके अभिप्रायको अपनी परिष्कृत गद्यशैलीमें व्यक्त किया है । जहाँ उन्हें गाथाके मूलभावमें कोई कमी दिखलाई पड़ी है वहीं उन्होंने ममयसारकलश नामसे पद्य भी लिख दिया है। यह समयसारकलश आत्मख्यातिटीकामें मिश्रित हो जानेपर भी उसका ग्रंथरूपमें पृथक् अस्तित्व भी है। टीकामें समस्यन्तपद भी विद्यमान हैं तथा अनेक शब्दोंके निर्वचन भी दिये गये हैं और भावको स्पष्ट करनेका पूर्ण प्रयास किया है । जहाँ कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंमें प्रमेय अस्पष्ट थे वहाँ कलश अथवा आत्मख्याति टीकाद्वारा ही स्पष्टता लाकर जैनतत्त्वज्ञानको समृद्ध किया है।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ४१५
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__आत को ही मार नियमों का वर्गीकरा लिया है तथा समयपाइडको समयसार नाम देनेका श्रेय भी इन्हींको प्राप्त है। टीकाको नाटकके समान अडोंमें विभाजित किया है। प्रथम अङ्कसे पूर्वके प्रारम्भिक भागको पूर्वरम कहा गया है । जिस प्रकार नाटकमें पात्रोंका निष्कमण और प्रवेश होता है उसी प्रकार ग्रहांपर भी प्रवेश और निष्क्रमण कराया गया है। प्रथम अङ्क जीवाजीवाधिकार है। इसमें जीवको अजीवसे भिन्न बतलाया है और अन्तमें लिखा है-"जोवाजीवो पृथग्भूत्वा निष्क्रान्ती" अर्थात् जीव और अजीव पृथक्-पृथक् होकर चले गये। दूसरे कर्तृकर्म अधिकारके आरम्भमें लिखा है-"जीव-अजीव ही कर्ता और कर्मका वेष धारणकर प्रवेश करते हैं तथा अन्तमें लिखा है-“जीव और अजीव कर्ता एवं कमंका वेष छोड़कर निकल गये।" तीसरे पुण्य-पार अधिकारके आदिमें लिखा है-"एक ही कर्म पुण्य और पापके रूपमें दो पात्रोंका वेष धारण करके प्रवेश करता है" बोर अन्तमें लिखा हैपुण्य और पापके रूपसे दो पात्रोंका वेषधारण करनेवाला कर्म एक पात्ररूप होकर निकल गया अर्थात् कर्ममें पुण्य-पापका भेद मिथ्या है, दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है । इसी प्रकार आस्रव, संवर, निर्जस. बन्ध और मोक्ष अधिकारोंमें उन-उन नत्वोंका प्रवेश और निर्गमन कराया गया है । वस्तुत: यह संसार एक रंगमंच है जिसपर जोव और अजीव नानारूप धारण करके अभिनय करते हैं। यहां अभिनयका आचरण करनेवाला या सूत्रधार पौद्गलिक कर्म है।
यह टोका पर्याप्त विस्तृत और गहन है। यहां उदाहरणार्थ कुछ पंकियों उद्धृत की जाती हैं---
"अज्ञानी हि शुद्धात्मज्ञानाभावात् स्वपरयोरेकत्वज्ञानेन, स्वपरयोरेकत्वदर्शनेन, स्वपरयोरेकत्वपरिणत्या च प्रकृतिस्वभावे स्थितत्वात् प्रकृसिस्वभावमप्यहत्तया अनुभवन् कर्मफलं वेदयते । मानी तु शुद्धात्मशानं सद्भावात्स्वपरयोर्वि भागज्ञानेन स्वपरयोविभागदर्शनेन स्वपरयोविभागपरिणत्या च प्रकृतिस्वाभावा दपसृतत्वात् शुद्धात्मस्वभावमेकमेवाहंतयानुभवन् कर्मफलमुदितं जेयमात्रत्वात् जानापेव न पुनस्तस्याहत्तयाग्नुभवितुमशक्यत्वाद्वेचते ॥१६॥ प्रवचनसार-दीका
प्रवचनसारकी टोकाका नाम तस्वदीपिका है। यह टीका भी प्रांजल शैलीमें समयसारफी टोकाके समान ही लिखी गयी है। इससे भी उनकी आध्यात्मिक रसिकता, आत्मानुभव, प्रखर विद्वत्ता, वस्तुस्वरूपको तकंपूर्वक सिद्ध करनेकी असाधारण शक्ति, तत्त्वतत्त्वार्थका गम्भीरज्ञान, निश्चय व्यवहारका क्रमबद्ध ४१६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्म-परम्परा
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निरूपण आदि अनेक विशेषताएं विद्यमान हैं। मलग्रन्थकारने जिन भावोंको छोड़ भी दिया है उनका भी प्रकटीकरण टीकाकारने किया है । टीका समस्यन्त गद्यमें लिखी गयी है, शेली पर्याप्त प्रोढ़ है और शब्दार्थके स्थानपर विषयको स्पष्ट करनेवाली है । यथा___ "यतो न खल्विन्द्रियाण्यालम्ब्यावग्रहहावायपूर्वकप्रक्रमेण केवली विजानाति, स्वयमेव समस्तावरणक्षयक्षण एवानाद्यनन्ताहेतुकासाधारणभूतज्ञानस्वभावमेव कारणलेनोपादाय तदुपरि प्रविकसत्केवलज्ञानोपयोगीभय विपरिणमते, ततोऽस्याक्रमसमाक्रान्तसमस्तद्रव्यक्षेत्रकालभावतया समक्षसंवेदनालम्बनभूताः सर्वद्रव्यपर्यायाः प्रत्यक्षा एव भवन्ति ।" पश्चास्तिकाय-टोका
पंचास्तिकायकी १७३ गाथाओंपर आचार्य अमृतचन्द्रने टीका लिखी है । टीकाकारने इस अन्यको मार मगाम विभाजित किया है
१. पोठिका २. प्रथम श्रुतस्कन्ध ३. द्वितीय श्रुमुस्कन्ध ४. धूलिका
पीठिकामें २६ गाथाएं हैं और उनकी व्याख्या उक्त दोनों ग्रन्थोंके समान हो की गयी है। प्रथम श्रुतस्कन्धमें ७८ गाथाओंकी व्याख्या है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध ४९ गाथाओंकी व्याख्या दी गयी है। चूलिकामें बीस गाथाओंकी टीका है। इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्रसूरिने पंचास्तिकायके विषयको भी अपनी टीकामें विस्तृत और स्पष्ट बनानेका पूर्ण प्रयास किया है। इस टीकाका नाम भी तत्त्वदीपिका है।
आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती विक्रमको नवम शताब्दीमें घवला और जयघवलाको रचनाके पश्चात् सिद्धान्तविषयक विद्वत्ताका मापदण्ड इन ग्रन्थों को मान लिया गया और इनके पठन-पाठनका सर्वत्र प्रचार हुआ । कालक्रमानुसार ये दोनों अगाध टीकाएं जब दुष्कर प्रतीत होने लगों, तो इनके सारभागको एकत्र करनेके लिए सिद्धान्तचक्रवर्तीने प्रयास किया। सिद्धान्तचक्रवर्ती इनकी उपाधि थी। इन्होंने अपने गोम्मटसार कर्मकाण्डमें बताया है
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ४१७
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जह पक्केण य चक्की छपखंड साहियं अविग्घेण ।
तह मइ-चक्केण मया छवखंडं साहियं सम्म । जिस प्रकार चक्रवर्ती अपने चक्ररत्नसे भारतवर्षके छह खण्डोंको बिना किसी विघ्न-बाधाके अधीन करता है, उसी तरह मैंने (नेमिचन्द्रने) अपनी बुद्धिरूपी चक्रसे षट्क्षण्डोंको अर्थात् षट्खण्डागभसिद्धान्तको सम्यकरीतिसे अधीन किया है।
सिद्धान्तग्रन्थोके अभ्यासीको सिद्धान्त चक्रवर्तीका पद प्राचीन समयसे ही दिया जाता रहा है। वीरसेनस्वामीने जयघवलाको प्रशस्ति में लिखा है कि भरतचक्रवर्तीकी आजाके समान जिनकी भारती षट्खण्डागममें स्खलित नहीं हुई, अनुमान है कि वोरसेनस्वामीके समयसे ही सिद्धान्तविषयज्ञको सिद्धान्तचक्रवर्ती कहा जाने लगा है। निश्चयत: आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तप्रन्थोंके अधिकारी विद्वान थे। यही कारण है कि उन्होंने धवलासिद्धान्तका मंथन कर गोम्मटसार; और जयषवलाटीकाका मंचन कर लब्धिसार ग्रन्थकी रचना की है। जीवन-परिचय
आचार्य नेमिचन्द्र देशीयगणके हैं । इन्होंने अभयनन्दि, वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिको अपना गुरु बतलाया है । कर्मकाण्डमें आया है
जस्स य पायपसायेणणंतसंसारजलहिमुत्तिण्णो । वीरिंदणदिवच्छो णमामि तं अभयणंदिगुरु ॥
णमिऊण अभयदि सुदसायरपारगिदणंदिगुरु ।
बरवीरगंदिणाहं पयडीणं पच्चयं वोच्छं ॥ अर्थात् जिनके चरणप्रसादसे वीरनन्दि और इन्दनन्दिका वत्स अनन्तसंसाररूपो समुद्रसे पार हो गया, उन अभयनन्दिगुरुको में नमस्कार करता हूँ ।
अभयनन्दिको, श्रुतसमुद्रके पारगामी इन्द्र नदिःरुको बोर वीरनन्दिको नमस्कार करके प्रकृतियों के प्रत्यय-कारणको कहूंगा ।
लब्धिसारमें लिखा है-“वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिके वत्स एवं अभयनन्दि
१. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ३९७ । २. वहीं, गापा ४३६ । ३. बही, गाया ७८५ ।
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के शिष्य अल्पशानी नेमिचन्द्रने दर्शनलब्धि और चारित्रलब्धिका कथन किया। है।" "त्रिलोकसार' में अपनी गुरुपरम्पराका कथन करते हुए लिखा है
"इदि णेमिचंदमुणिणा अप्पसुदेणभयणंदिवच्छेण ।
रइयो तिलोयसारो स्खमंतु तं बहुसुदाईरिया ॥२ अर्थात् अभयनन्दिके वत्स अल्पश्रुतज्ञानी नेमिचन्द्रमुनिने इस त्रिलोकसार अन्यको रचा।
उपर्युक्त ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंसे स्पष्ट है कि अभयनन्दि, बीरनन्दि और इन्द्रमन्दि इनके गुरु थे। इन तीनोंमेंसे वोरनन्दि तो चन्द्रप्रभवरितके का ज्ञात होते हैं, क्योंकि उन्होंने चन्द्रप्रभचरितको प्रशस्तिमें अपने को अभयनन्दिका शिष्य बतलाया है और ये अभयनन्दि नेमिचन्द्र के गुरु ही होना चाहिये, क्योंकि कालगणनासे उनका वही समय आता है। अतः स्पष्ट है कि उक्त तीनों गुरुओंमें अभयनन्दि ज्येष्ठ गुरु होने चाहिये । वीरनन्दि, इन्द्रनन्दि और नेमिचन्द्र जनके शिष्य रहे होंगे। यहाँ यह कल्पना करना उचित नहीं कि नेमिचन्द्र सबसे छोटे थे, अतः उन्होंने अभयनन्दिके शिष्य वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिसे भी शास्त्राध्ययन किया हो । वस्तुतः अभयनन्दिके वीरमन्दि, इन्द्रनन्दि और नेमिचन्द्र ये तीनों ही शिष्य थे 1 वय और ज्ञानमें लघु होनेके कारण नेमिचन्द्रने वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिसे भी लगाया होर
नेमिचन्द्रने बीरनन्दिको चन्द्रमाको उपमा देकर सिद्धान्तरूपी अमृतके समुद्रसे उनका उद्भव बतलाया है | अत: वीरनन्दि भी सिद्धान्तग्रन्थोंके पारगामी थे। इन्द्रनन्दिको तो, नेमिचन्द्रने स्पररूपसे श्रुतसमुद्रका पारगामी लिखा है । उन्हीं के समीप सिद्धान्तग्रन्थोंका अध्ययन करके कनकनन्दि आचार्यने सत्त्वस्थानका कथन किया है । उसी सत्त्वस्थानका संग्रह नेमिचन्द्रने कर्मकाण्ड गोम्मटसारमें किया है
वरइंदणंदिगुरुणो पासे सोऊण सयलसिद्धतं ।
सिरिकणयणंदिगुरुणा सत्तट्ठाणं समुदिटुं ।' इन्द्रनन्दिके सम्बन्धमें आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने लिखा है-'इस नामके कई आचार्य हो गये हैं, उनमें से 'ज्वालामालिनीकल्प' के कर्ता इन्द्रनन्दिने अपने इस ग्रन्थका रचनाकाल शक सं० ८६१ (वि० से ० ९९६) दिया है और १. लब्धिसार, माथा ६४८। २. त्रिलोकसार, गाथा १०१८ । ३. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ३९६ ।
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यह समय नेमिचन्द्रके गुरु इन्द्रनन्दिके साथ बिल्कुल संगत बैठता है, पर इन्होंने अपनेको वप्पनन्दिका शिष्य कहा है । बहुत सम्भव है कि इन इन्द्रनन्दिने यप्पनन्दिसे दीक्षा ली हो और अभयनन्दिसे सिद्धान्तग्रन्थोंका अध्ययन किया हो । .. आचार्य नेमिचन्द्रका शिष्यत्व चामुण्डरायने ग्रहण किया या । यह चामुण्डराय गंगवंशी राजा राचमल्लका प्रधानमन्त्री और सेनापति था। उसने अनेक युद्ध जीते थे और इसके उपलक्ष्य में अनेक उपाधि प्राप्त की थी। यह वीरमार्तण्ड कहलाता था। गोम्मटसारमें 'सम्मतरयणनिलय'–सम्यक्त्वरत्ननिलय, ''गुणरयणभूषणं-गुणरलभूषण', 'सत्ययुधिष्ठिर'३ 'देवराज आदि विशेषणोंका प्रयोग किया है । इन धामुण्डरायने श्रवणबेलगोला (मैसूर) में स्थित विन्ध्यगिरि पर्वसपर बाहलि स्वामीको ५७ फीट ऊँची अतिशय मनोश प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी । बाहुबलि भगवान् ऋषभदेवके पुत्र थे । उन्होंने बड़ी कठोर सपस्या की थी। उनकी स्मृति में उनके बड़े भाई चक्रवर्ती भरतने एक प्रतिमा स्थापित करायी थी। वह कुक्कुटसपोंसे व्याप्त हो जाने के कारण कुक्कुटजिनके नामसे प्रसिद्ध थी। उत्तर भारतकी इस मूर्तिसे भिन्नता बतलानेके लिए चामुण्डरायके द्वारा स्थापित मूति 'दक्षिणकुक्कुटजिन' कहलायो। गोम्मटसार कर्मकाण्डमें बताया है
जेण विणिम्मियपडिमावयणं सव्वट्ठसिद्धिदेवेहि । सध्वपरमोहिजोगिहि दिछु सो गोम्मटो जयउ ।।
गोम्मटसंगहसुत्तं गोम्मटसिहरुवरि गोम्मटजिणो य ।
गोम्मटरायविणिम्भियदक्षिणकुक्कडजिणो जयउ !' इन दोनों गाथाओंसे स्पष्ट है कि चामुण्डरायने गोम्मट स्वामोको जो प्रतिमा विन्ध्यगिरि पर्वतपर स्थापित को उसके मुखका दर्शन सर्वार्थसिद्धिके देवोंने किया। इससे यह ध्वनित होता है कि विन्ध्यगिरिपर्वतकी ऊँचाईके कारण गोम्मटस्वामीको मूर्ति अधिक ऊंची दिखलायी पड़ती थी, जिससे
१. कर्मकाण्ड, गाथा १ । २. जीवकाण्ड, गाथा ।। ५. कर्मकाण्ड, गाथा ४५ ।। ४. वहीं, गाथा २५८। ५. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ९६९ । ६. वही, गाथा ९६८ ।
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सर्वार्थसिद्धि देव भी उसका दर्शन कर सकते थे। इस चैत्यालयके उन्नत स्तम्भ, स्वर्णमयी कलश एवं उसके अन्य आकार-प्रकारका निर्देश भी गोम्मटसारमें प्राप्त होता है । लिखा है
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वज्जयां जिणभवणं ईसिकभारं सुवण्णकलसं तु । तिहुवणपाणि जेण कथं जग सो रागों ॥। जेभियथं भुवरिमजखतिरीटग्गकिरणजलधोया । सिद्धाण सुद्धपाया सो राओ गोम्मटो जय ॥'
विन्ध्यगिरि के सामने स्थित दूसरे चन्द्रगिरिपर चामुण्डरायबसति के नामसे एक सुन्दर जिनालय स्थित है। इस जिनालय में चामुण्डरायने इन्द्रनीलमणिकी एक हाथ ऊंची तीर्थंकर नेमिनाथको प्रतिमा स्थापित की थी, जो अब अनुपलब्ध है ।
चामुण्डरायका घरू नाम गोम्मट था । यह तथ्य डॉ० ए० एन० उपाध्येने अपने एक लेख में लिखा है । उनके इस नामके कारण ही उनके द्वारा स्थापित बाहुबलिकी मूर्ति गोमटेश्वर के नामसे प्रसिद्ध हुई। डॉ० उपाध्येके अनुसार गोम्मटेश्वरका अर्थ है, चामुण्डरायका देवता । इसी कारण विन्ध्यगिरि, जिसपर गोम्मटेश्वर की मूर्ति स्थित है, गोम्मट कहा गया। इसी गोम्मट उपनामधारी चामुण्डराय के लिए नेमिचन्द्राचार्यने अपने गोम्मटसार नामक ग्रन्थको रचनाकी हैं । इसीसे इस ग्रन्थको गोम्मटसारको संज्ञा दी गयी है। अतएव यह स्पष्ट है कि गंगनरेश राचमल्लदेवके प्रधान सचिव और सेनापति चामुण्डरायका आचार्य नेमिचन्द्र के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है ।
समय- विचार
चामुण्डरायने अपना चामुण्डपुराण शक सं० २०० ( वि० सं० १०३५) में बनाकर समाप्त किया । अतः उनके लिए निर्मित गोम्मटसारका सुनिश्चित समय विक्रम की ११ वीं शताब्दी है । श्री मुख्तार साहब और प्रेमोजी भी इसी समयको स्वीकार करते हैं ।
गोम्मटसार कर्मकाण्डमें चामुण्डरायके द्वारा निर्मित गोम्मटजिनकी मूर्तिका निर्देश है | अतः यह निश्चित है कि गोम्मटसारको समाप्ति गोम्मटमूर्ति की स्थापनाके पश्चात् ही हुई है। किन्तु मूर्तिके स्थापनाकालको लेकर इतिहासज्ञोंमें बड़ा मतभेद है । 'बाहुबलिचरित्र' में गोम्मटेश्वरकी प्रतिष्ठाका समय निम्नप्रकार बतलाया है
१. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ९७० ९७१ ।
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"कल्क्यब्दे षट्शंताख्ये विनुतविभवसंवत्सरे मासिवे पञ्चम्यां शुक्लपक्षे दिनमणिदिवसे कुम्भलग्ने सुयोगे । सोभाग्ये मस्तनाम्नि प्रकटितभगणे सुप्रशस्तां चकार श्रीमच्चामुण्डराजो वेल्मुलनगरे गोम्मटेश प्रतिष्ठाम् ।।" अर्थात् कल्कि सं० ६०० में विभव संवत्सरमें चैत्र शुक्ला पंचमी रचिवारको कुम्भ लग्न, सौभाग्य योग, मृगशिरा नक्षत्र में, चामुण्डरायने वेल्गुलनगरमें गोम्मटेशकी प्रतिष्ठा करायी ।
को
इस निर्दिष्ट तिथिके सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। घोषालने अपने वृहद्रव्यसंग्रह के अग्रेजी अनुवादकी प्रस्तावना में उक्त तिथिको २ अप्रेल ९८० माना है | श्रीगोविन्द पैने १३ मार्च ९८९ स्वीकार किया है ! प्रो० हीरालाल - जीने २३ मार्च सन् १०२८ में उक्त तिथियोगको ठोक घटित बताया है । किन्तु प्रधानशास्त्रीने तीन निथिके घटित होनेकी चर्चा की है। इस तरह बावनीचरित्रमें निर्दिष्ट सम्बन्ध में विवाद प्रस्तुत किया है । हमारे नम्र मतानुसार भारतीय ज्योतिषकी गणना के आधार पर विभव संवत्सर चैत्र शुक्ला पंचमी रविवारको मृगशिर नक्षत्रका योग १३ माचं सन् ९८१ में घटित होता है । अन्य ग्रहोंको स्थिति भी इसी दिन सम्यक् घटित होती है | अतः मूर्तिका प्रतिष्ठाकाल सन् १८१ होना चाहिये ।
चामुण्डरायने अपने चामुण्डपुराण में मूर्तिस्थापना की कोई चर्चा नहीं की है । इससे यही अनुमान होता है कि चामुण्डपुराणके पश्चात् ही मूर्ति की प्रतिष्ठा की गयी है । रन्नने अपना अजितनाथपुराण शक सं० ९१५ में समाप्त किया है। उसमें लिखा है कि अतिमन्वेने गोम्मटेश्वरकी मूर्ति के दर्शन किये । अतः यह निश्चित है कि शक सं० ९१५ (वि० सं० २०५०) से पहले ही मूर्तिकी प्रतिष्ठा हो चुकी थी । यदि चामुण्डपुराणमें मूर्तिकी स्थापनाको कोई चर्चा न होने को महत्त्व दिया जाय, तो वि० सं० १०३५ और वि० सं० १०५० के बीचमें मूर्तिको प्रतिष्ठा माननी पड़ेगी, जिससे हमारे पूर्वकथनकी सिद्धि होती है । गंग राचमल्लका समय वि० सं० २०३१ - १०४१ तक है । भुजवलिशतकके अनुसार उन्हींके राज्यकालमें मूर्तिको प्रतिष्ठा हुई है । अतः मूर्ति स्थापनाका समय ई० सन् १८१ उपयुक्त जान पड़ता है। अतएव आचार्य नेमिचन्द्रका समय ई० सन्की दशम शताब्दीका उत्तरार्द्ध या वि० सं० ११वीं शताब्दीका पूर्वार्द्ध है।
रचनाएं
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आचार्य नेमिचन्द्र आगमशास्त्रके विशेषज्ञ हैं । इनको निम्नलिखित रचनाएं प्रसिद्ध हैं
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१.गोम्मटसार २. त्रिलोकसार ३. लब्धिसार
४. क्षपणासार १. गोम्मटसार
यह ग्रन्थ दो भागों विभक्त है-जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड । जीवकाण्ड में ७३४ गाथाएं है और कर्मकाण्डमें ९६२ गाथाएं हैं। इस ग्रन्थपर दो संस्कृत-टीकाए' भी लिखी गयी हैं--१. नेमिचन्द्र द्वारा जीवप्रदीपिका आर २. अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा मन्दप्रबोधिनी । गोम्मटसारपर केशव वर्णी द्वारा एक कन्नड़वृत्ति भो लिखो मिलती है। टोडरमलजीने सम्यग्ज्ञान. चन्द्रिका नामकी वनिका लिखी है।
गोम्मटसार षट्खण्डागमको परम्पराका ग्रन्थ है। जोवकाण्डमें महाकर्म प्राभृतके सिद्धान्तसम्बन्धी जीवस्थान, क्षुद्रबन्ध, बन्धस्वामित्व, वेदनाखण्ड और वर्गणाखंड इन पाँच विषयोंका वर्णन है । गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, मौदह मार्गणा और उपयोग इन २० प्ररूपणाओंमें जीवको अनेक अवस्थाओंका प्रतिपादन किया गया है।
जीवकाण्डमें जोवोंका कथन किया गया है। बीस प्ररूपणाओंका कथन पंचसंग्रहके समान ही किया गया है । गोम्मटसार संग्रहग्रन्थ है, इसमें सन्देह नहीं । जीवकाण्डका संकलन मुख्यरूपसे पञ्चसंग्रहके जोवसमास अधिकार तथा षदखण्डागम प्रथम खण्ड जीवाणके सत्प्ररूपणानामक अधिकारोंसे किया गया है । धवला ग्रन्थमें पञ्चसंग्रहकी बहुत-सी गाथाएं शाब्दिक अन्तरके साथ मिलती हैं | अतः जीवकाण्डको अधिकांश गाथाएं घबलाटीकामें मिलती हैं। पञ्चसंग्रहकी गाथाओंसे विषयका सम्बन्ध नहीं है ।
पञ्चसंग्रहकी अपेक्षा जीवकाण्डको गाथाओंमें विशेषता भी प्राप्त होती है। पंचसंग्रहमें ३० गाथाओं में ही गुणस्थानोंके स्वरूपोंका निर्धारण किया गया है, जबकि जीवकाण्डमें ६८ गाथाओंमें गुणस्थानोंका स्वरूप वर्णित है । इस ग्रन्थमें २० प्ररूपणाओंका परस्परमें अन्तरभाव सम्बन्धो कथन और प्रमादोंके भंगोंका निरूपण भी पंचसंग्रहकी अपेक्षा विशिष्ट है। पंचसंग्रहमें जीवसमासका कथन केवल ग्यारह गाथाओंमें है, पर जीवकाण्डमें यह विषय ४८ गाथामोंमें निरूपित है । जीयकाण्डमें स्थान, योनि, शरीरको अवगाहना और कुलोंके द्वारा जोवसमासका कथन भी विस्तारपूर्वक आया है। इस प्रकारका विस्तार
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पञ्चसंग्रहमें नहीं मिलता है । पर्याप्तिका कथन पंचसंग्रहमें केवल दो गाथाओंमें आया है 1 किन्तु जीवकाण्डमें यह विषय ११ गाथाओंमें निबद्ध है। प्राणोंका कथन पंचसंग्रहमें छह गाथाओंमें है, पर जीवकाण्डमें यह विषय पांच ही गाथाओंमें आया है। इसी प्रकार संज्ञाओं, स्वामियों, मार्गणाबोंमें जीवों, इन्द्रिय मार्गणाकी अपेक्षा एकेन्द्रिय आदि जीवोंके कथन प्रभृतिमें विशेषताएँ विद्यमान हैं। गोम्मटसार कर्मकाण्ड
गोम्मटसार कर्मकाण्डके दो संस्करण प्राप्त होते हैं। पहला संस्करण रामचन्द्र शास्त्रमाला बम्बईका है और दूसरा देवकरण-शास्त्रमालाका है इस अन्य ९ अधिकार हैं
१. प्रकृतिसमुत्कीर्तन २. बन्धोदयसत्व ३. सत्वस्थानभंग ४. त्रिचूलिका ५. पानसमुत्लीन ६. प्रत्यय ७. भावचूलिका ८. त्रिकरणचूलिका ५. कर्मस्थितिबन्ध
१. प्रकृतिसमुत्कीर्तनका अर्थ है पाठों कर्मो' और उनकी उत्तरप्रकतियोंका कथन जिसमें हो। यतः कर्मकाण्डमें कों और उनको विविध अवस्थाओंका कथन आया है। इसमें जीव और कर्मो के अनादि सम्बन्धका वर्णन कर कर्मा के आठ भेदोंके नाम, उनके कार्य, उनका क्रम और उनकी उत्तर प्रकृतियोंमेंसे कुछ विशेष प्रकृत्तियोंका स्वरूप, बन्धप्रकृतियों, उदयप्रकृतियों और सत्वप्रकृतियोंको संख्या, देशघाती, सर्वघाती पुण्य और पाप प्रकृतियाँ, पुद्गलविपाकी, क्षेत्रविपाको, भविपाको और जीवविपाको प्रकृ. तियाँ, कर्ममें निक्षेप योजना आदिका कथन ८६ गाथाबोंमें किया गया है। २२वीं गाथामें कर्मोके उत्तरभेदोंकी संख्या अंकित की है, किन्तु आगे उन मेदोंको न बतलाकर उनमेंसे कुछ भेदोंके सम्बन्धमें विशेष बातें बतला दो गयी हैं। जैसे दर्शनावरणोयकर्मके ९ मेदोंमेंसे ५ निद्राओंका स्वरूप गाथा २३, २४, और २५ द्वारा बतलाया है । २६वी गाथामें मोहनीयकर्मके एक मेद मिथ्यास्वके तीन भाग कैसे होते हैं, यह बतलाया है । गाथा २७ में नामकर्मके भेदोंमें
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से शरीरनामकर्मके पाँच भेदोंके संयोगी भेद बतलाये हैं। गाथा २८ में अंगोपांगके भेद आये हैं। गाथा २९ ३० ३१ और ३२ में किस संहननवाला जीव मरकर किस नरक और किस स्वर्ग तक जन्म लेता है, यह कथन किया है । ३३वीं गाथा में उष्णनामकर्म और आतपनामकर्मके उदयकी चर्चा की गयी है । इस प्रकार कर्मो को विशेष विशेष प्रकृतियों के सम्बन्धमें कथन आया है। कर्मप्रकृतिको विभिन्न स्थितियोंको अवगत करने के लिए यह कर्मकाण्डग्रन्थ अत्यन्त उपादेय है ।
बन्वोदय सत्वाधिकारमें कर्मोदयके बन्ध, उदय और सत्वका कथन आया है । स्तवके लक्षणानुसार कर्मकाण्डके इस दूसरे अधिकार में कर्मोके बन्ध, उदय और सत्वका गुमस्थान एवं मार्गणाओं में अन्वयपूर्वक कथन किया है । बन्धके प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धका क्रमशः कथन किया हैं । प्रकृतिबन्धका कथन करते हुए यह बतलाया है कि किन-किन कर्मप्रकृतियोंका बन्ध किस-किस गुणस्थान तक होता है, आगे नहीं होता । यह कथन पञ्चसंग्रहमें भी है। गुणस्थानोंम आठों कर्मोंकी १२० प्रकृतियोंके बन्ध, अबन्ध और बन्धव्युच्छित्तिका कथन करनेके बाद १४ मार्गणाओं में भी वही कथन किया है । यह कथन पञ्चसंग्रह में नहीं मिलता। नेमिचन्द्राचार्यने षट्खण्डागम से लिया है।
प्रकृतिबन्धके पश्चात् स्थितिबन्धका कथन है। कर्मोंको मूल एवं उत्तरप्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और जघन्यस्थितिका निरूपण बन्धकोंके साथ किया यया है । इस विवेचनके लिये ग्रन्थकारने धवलाटोकाका आधार ग्रहण किया है।
तत्पश्चात् अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धका वर्णन आया है। यह वर्णन
संग्रहसे मिलता-जुलता है । प्रदेशबन्धका कथन करते हुए पंचसंग्रहमें तो समयप्रत्रद्धका विभाग केवल मूलकमों में ही बतलाया है, पर कर्मकाण्ड में उत्तर प्रकृतियों में भी विभागका कथन किया है। कर्मकाण्डमें प्रदेशबन्ध के कारणभूत योगके भेदों और अवयवोंका भो कथन है । पर यह कथन पंचसंग्रहमें नहीं है । केवल घवला और जयधवलामें ही प्राप्त है । उदयप्रकरण में कमके उदय और उदीरणाका कथन गुणस्थान और मार्गणाओंमें है । अर्थात् प्रत्येक गुणस्थान और मार्गणा में प्रकृतियोंके उदय, अनुदय और उदय व्युच्छित्तिका वर्णन है । सत्वप्रकरण में गुणस्थान और मार्गणाओंमें प्रकृतियों को सत्वासत्त्व और सत्वविच्छुत्तिका कथन है। मार्गणाओं में बन्ध, उदय और सत्त्वका कथन अन्यत्र नहीं मिलता ! यह आचार्य नेमिचन्द्रकी अपनी विशेषता है ।
सत्वस्थानभंगप्रकरण में कहे गये सत्वस्थानका भंगों के साथ कथन किया है । प्रत्येक गुणस्थान में प्रकृतियों के सस्वस्थानके कितने प्रकार सम्भव हैं और उनके
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साथ जीव किस आयुको भोगता है और परभवकी किस आयुको बांधता है, यह . सब विस्तारपूर्वक आया है। इसी प्रकरणके अन्तमें ग्रन्थकारने यह कहा है कि इन्द्रनन्दिगुरुके पासमें श्रवण करके कनकनन्दिने सत्वस्थानका निरूपण किया |
त्रिचूलिफा अधिकारमें तीन चूलिकाएँ हैं-१. नवप्रश्नचूलिका, २. पंचभागहारचूलिका और ३. दशकरणचूलिका । पहली नवप्रश्नचूलिकामें ९ प्रश्नोंका समाधान किया है
१. उदयव्युच्छित्तिके पहले बन्धन्युच्छित्तिको प्रकृतिसंख्या। २. उदयव्युच्छित्तिके पोछे बन्धयुच्छित्तिकी प्रकृतिसंख्या । ३. उदयव्युच्छिनि बन्धवस्तितिको प्रकृति माया । ४. जिनका अपना उदय होनेपर बन्ध हो, ऐसी प्रकृतियाँ । ५. जिनका अन्य प्रकृतिका उदयपर बन्ध हो, ऐसी प्रकृतियों । ६. जिनका अपना तथा अन्य प्रकृतियोंके उदय होनेपर बन्ध हो, ऐसो
प्रकृतिसंख्या। ७. निरन्तरबन्धप्रकृतियाँ। ८. सान्तरबन्धप्रकृतियाँ । ९. निरन्तर, सान्तरबन्धप्रकृतियाँ । उपयुक्त ९ प्रश्नोंका इस अधिकारमें उत्तर दिया गया है।
पंचभागहारचूलिकामें उद्वेलन, विध्यात, अधःप्रवृत्त, गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम इन पाँच भागहारोंका कथन आया है। दशकरणचूलिकामें बन्ध, उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, उदोरणा, सत्ता, उदय, उपशम, निप्ति और निकाचना इन दश करणोंका स्वरूप कहा गया है । और बतलाया है कि कौन करण किस गुणस्थान तक होता है । करणनाम क्रिया का है। कर्मों में ये दश क्रियायें होती हैं।
बन्धोदयसत्वयुक्तस्थानसमुत्कीर्तनमें एकजीवके एकसमयमें कितनी प्रकृतियोंका बन्ध, उदय अथवा सत्व सम्भव है, का कथन किया है । इस अधिकारमें आठों मूलकों को लेकर और पुनः प्रत्येक कर्मकी उत्तरप्रकृतियोंको लेकर बन्धस्थानों, उदयस्थानों और सत्वस्थानोंका निर्देश किया गया है। यह अधिकार गुणस्थानक्रमसे विचार करने के कारण पर्याप्त विस्तृत है 1
प्रत्यमाधिकारमें कर्मबन्धके कारणोंका कथन है। मूल कारण चार हैं--- १. मिथ्यात्व, २. अविरति, ३. कषाय और ४. योग । इनके भेद क्रमसे ५, १२, २५ और १५ होते हैं । गुणस्थानों में इन्हीं मूल और उत्तर प्रत्ययोंका कथन इस अधिकारमें किया गया है तथा प्रत्येक गुणस्थानके बन्धके प्रत्यय बतलाये गये हैं। ४२६ : सीकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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भावचूलिकाधिकारमें कहानिक, शाक्षिक, मि, मोरि पारिणामिक इन पाँच भावों तथा इनके भेदोंका निरूपण करते हुए उनके स्वसंयोगी
और परसंयोगी भंगोका गुणस्थानोंमें कथन किया है। इसके पश्चात् प्राचीन गाथा उद्धृत कर ३६३ मिथ्यावादियोंके मतोंका निर्देश किया है ।
त्रिकरणचूलिकाधिकारमें अधःकरण, अपूर्वकरण और अनवृत्तिकरण इन तोन करणोंका स्वरूप कहा गया है । ___ कर्मस्थितिरचनाधिकारमें प्रतिसमय बंधनेवाले कर्मपरमाणुओंका आठों कर्मोमें विभाजन होनेके पश्चात् प्रत्येक कर्मप्रकृतिको प्राप्त कर्मनिषकोंकी रचना उसकी स्थिति के अनुसार आबाधाकालको छोड़कर हो जाती है । अर्थात् बन्धको प्राप्त हुए वे कर्मपरमाणु उदयकाल आनेपर निर्जीर्ण होने लगते हैं और अन्तिम स्थितिपर्यन्त बिखरते रहते हैं । उनको रचनाको ही कर्मस्थिति-रचना कहते हैं । इस गोम्मटसार कर्मकाण्डके स्वाध्याय द्वारा कर्मसाहित्यका सम्यक् बोध प्राप्त किया जा सकता है । त्रिलोकसार
इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थमें १०१८ गाथाएं हैं। यह करणानुयोगका प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसका आधार "तिलोयपण्णत्ती' और 'सत्त्वार्थवातिक' हैं। ग्रन्थ निम्नलिखित अधिकारों में विभक्त है
१. लोकसामान्याधिकार २. भवनाधिकार ३. व्यन्तरलोकाधिकार ४. ज्योतिर्लोकाधिकार ५. वैमानिकलोकाधिकार ६. मनुष्य-तिर्यक्लोकाधिकार
सामान्यलोकाधिकार में २०७ गाथाएं हैं। प्रारम्भमें लोकका स्वरूप बतलाया गया है । यह लोक अकृत्रिम है, अनादिनिधन है, स्वभावनिवृत्त है, जीवाजीवोंसे सहित है और नित्य है। इस लोकमें धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य, जोवद्रव्य और पुद्गलद्रव्य जहाँ तक पाये जाते हैं, वहाँ तक लोक माना जाता है, उसके पश्चात् अलोकाकाश है और यह अनन्त है। लोकके कई आकार बतलाये गये हैं । अधोलोक अर्द्धमृदंगके समान है, कचलोक मृदंगके तुल्य है । यह लोक १४ राजुप्रमाण है । लोकके स्वरूपनिरूपणके पश्चात 'मान'का वर्णन
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किया है । 'मान' दो प्रकारका है-लोक और लोकोत्तर । लौकिक 'मान के छह भेद हैं-१. मान २. जन्मान ३. अवमान ४. गणिमान ५. प्रतिमान और ६. ततप्रतिमान । गणनाके मलतः तीन भेद हैं-१. संख्यात २. असंख्यात और ३. अनन्त । संख्यातका एक ही भेद है, और असंख्यातके तीन भेद हैं-१. परीतासंख्यात २. युक्तासंख्यात और ३. संख्यासासंख्यात । अनन्तके भी तीन भेद हैं-परीतानन्त, युक्तामन्त और अनन्तान्त । इस प्रकार उपमाप्रमाण' या गणनाके ३+३+ १ =७ भेद हैं और इन सातोंके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ये तीनतीन भेद होते हैं । इस प्रकार ७४३ =२१ भेद हए । असंख्यात ज्ञानके निमित्त अनवस्था, शलाका, प्रतिशलाका और महाशलाका इन चार, कुण्डोंको कल्पना की गयी है । इन कुण्डोंका व्यास एक लक्ष योजन प्रमाण और उत्सेध एक सहस्र योजन प्रमाण है। कुण्ड गोलाकार होते हैं। इन कुण्डोंमें दो आदिक सरसोंसे भरना अनवस्था कुण्ड है ।
इस सन्दर्भमें गणना और संख्याको पारभाषा भी बतायी गयी है। लिखा है
एयादीया गणणा बीयादीया हवंति संस्बेज्जा।
सोयादीणं णियमा कदित्ति सण्णा मुणेदव्वा' । अर्थात् एकादिकको गणना, दो आदिकको संख्या एवं सीन आदिकको कृति कहते हैं। एक और दोमें कृतित्व नहीं है। यतः जिस संस्याके वर्ग से वर्गमूलको घटानेपर जो शेष रहे उसका वर्ग करनेपर उस संख्यासे अधिक राशिकी उपलब्धि हो, वही कृति है। यह कृतिधर्म तीन आदिक संख्याओंमें हो पाया जाता है। एकके संख्यात्वका भी निषेध आचार्य नेमिचन्द्रने किया है, क्योंकि एककी गिनती गणनासंख्यामें नहीं होती। कारण स्पष्ट है । एक घटको देखकर, यहाँ घट है, इसकी प्रतीति तो होती है, पर उसकी तादादके विषयमें कुछ ज्ञान नहीं होता। अथवा दान, समर्पणादि कालमें एक वस्तुको प्रायः गिनती नहीं की जाती। इसका कारण असम व्यवहार, सम्भवव्यवहारका अभाव अथवा गिननेसे अल्पत्वका बोध होना है।
उपर्युक्त वक्तव्यका परीक्षण करनेपर ज्ञात होता है कि संख्या 'समूह'को जानकारी प्राप्त करनेके हेतु होती है। मनुष्यको उसके विकासको प्रारम्भिक अवस्थासे ही इस प्रकारका आन्तरिक ज्ञान प्राप्त होता है, जिसे हम सम्बोधनके १. त्रिलोकसार, प्रथमाषिकार, गाथा १६ ॥ ४२८ : तीकर महावीर और चमकी आचार्य-परम्परा
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अभाव में संख्याज्ञान कहते हैं। अतएव समूहगत प्रत्येक वस्तुकी पृथक-पृथक जानकारी के अभावमें समूहके मध्य में होनेवाले परिवर्तनका बोध नहीं हो सकता है। समहबोधकी क्षमता और गिनने की क्षमता इन दोनों में पर्याप्त अन्तर है। गिनना सीखनेसे पूर्व मनुष्यने संख्याज्ञान प्राप्त किया होगा ।
मनुष्यने समहके बीच रहकर संख्याका बोध प्राप्त किया होगा। जब उसे दो समहोंको जोड़ने की आवश्यकता प्रतीत हुई होगी, तो धनचिह्न और धनास्मक संख्याएं प्रादुर्भूत हुई होगी। संख्याज्ञानके अनन्तर मनुष्यने गिनना सीखा और गिनने के फलस्वरूप अंकगणितका आरम्भ हुआ। अंकका महत्व तभी व्यक्त होता है, जब हम कई समूहों में एक संख्याको पाते हैं। इस अवस्थामें उस अंककी भावना हमारे हृदय में वस्तुओंसे पृथक् अंकित हो जाती है और फलस्वरूप हम वस्तुओंका बार-बार नाम न लेकर उनकी सख्याको व्यक्त करते हैं । इस प्रकार त्रिलोकसारमें संख्या, गणना, कृति आदिका स्वरूप निर्धारित किया है।
संख्याओंके दो भेद हैं---१. वास्तविक और २. अवास्तविक । वास्तविक संख्याएं भी दो प्रकारको हैं-संगत और असंगत । प्रथम प्रकारको संख्याओंमें भिन्न राशियोंका समह पाया जाता है और द्वितीया पाकी संख्यामोंमें करणीगत राशियां निहित हैं। इन राशियोंके भी असंख्यात भेद हैं । आपायं नेमिचन्द्र के संख्या-भेदोंको निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है
(म) जघन्य-परीत-असंभ्यात - स + १ (आ) मध्यम-परीत-असंख्यात - स 'अघुउ (इ) उत्कृष्ट-परीत-असंख्यात = अ य ज--१ (ई) जघन्य-युक्त-असंख्यात = (स उ + १) (स उ+ १) (उ) मध्यम-युक्त-असंख्यात = (स उ+१) (स उ.-१)अयु उ (क) उत्कृष्ट-युक्त-असंख्यात - अ यु उ-क ऊज-१ (क) जघन्य-असंख्यातासंख्यात= (अयुज)२ (ख) मध्यम-असंख्यातासंख्यात - (अ युज) L अ स उ (ग) उत्कृष्ट-असंख्यातासंख्यात अपज १ घवलाटीकामें अनन्तके निम्नलिखित भेद वर्णित हैं
(च) नामानन्त-वस्तुके यथार्थतः अनन्त होने या न होनेका विचार किये बिना ही उसका बहुत्व प्रकट करनेके लिए अनन्तका प्रयोग करना नामानन्त है।
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(छ) स्थापनानन्त - यथार्थतः अनन्त नहीं, किन्तु किसी संख्या में आरोपित
अनन्त " !
1
(ज) द्रव्यानन्स – तत्काल उपयोग न आते हुए ज्ञानकी अपेक्षा अनन्त (झ) गणनानन्त संख्यात्मक अनन्त ।
(ञ) अप्रदेशिकान्त - परिमाणहीन अनन्त ।
(ट) एकानन्त - एक दिशात्मक अनन्त ।
(ठ) विस्तारानन्त - द्विविस्तारात्मक - प्रतरात्मक अनन्ताकाश । (ङ) उभयानन्त - द्विदिशात्मक अनन्त – एक सांधी रेखा, जो दोनों दिशाओं में अनन्त तक जाती है ।
(ढ) सर्वानन्त --- आकाशात्मक अनन्त ।
(ण) भावानन्त - ज्ञानको अपेक्षा अनन्त ।
अनन्तके सामान्यतया १. परीतानन्त, २ युक्तानन्त, ३. अनन्तानन्त ये तीन भेद माने जाते हैं। इन तीनोंके जधन्य, मध्यम और उत्कृष्टके भेदसे तीनतीन भेद होनेसे कुल नौ भेद हो जाते हैं । त्रिलोकसारमें उक्त ३+९+९ - २१ भेद वर्णित है ।
त्रिलोकसारमें धारासंख्याओंका भी कथन आया है । ये १४ प्रकारकी होती हैं
१. सबंधारा - १+२+३+४+ ५
'अनन्तानन्स
+ न
२. समधारा - २+४+६+८+१०+ ११ + १४ + १६ + १८ ३. विषमधारा - १ + २ = ३, ४ + - १= ५, ६ + १ = ७,८ + १ = १३,१४ + - १ =
1
-
- १ =
९,१०+१=११, १२ +
-
-
-
१ - १९
न+
१५, १६ + १ = १७, १८+ - १ - न तथा वि + १
ቐ
४. कृतिधारा - १३ - १, २-४, ३९, ४२ = १६, ५२= २५, ६ = ३६, ७१ = ४९, ८२=६४, ९२ = ८१, १०२ = १००, ११ = १२१, १२२ = १४४, १३२ = १६९ -- -नं
I
५. अकृतिधारा - २, ३, ५, ७, ८, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १७....
10
न - १ न
A
६. घनवारा—१ - १, २' = ८, ३१ = २७, ४ - ६४, ५० १२५, ६ - २१६.....न' - न
४३० : सीकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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७. अधनधारा- २, ३, ४, ५, ६, ७, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १६, १७, १८, १९, २०, २१, २२, २३, २४,
Nill २५, २६, २८, ६३.............न
न =नत्र
८. कृतिमातृका या वर्गमातृका-१, २, ३, ५ ............."न/ - न ९. अकृतिमातृका या अवर्ग मातृका-/मू + १. /मू +३
Vम + २, म+५
मन-न
II
१०. घनमातृका-१, २......................."न"........."न..........न ११. अधनमातृका-३ /मू +१ ३/+२
३/मू +३
१२. द्विरूपवर्गधारा-(२) = ६५५३६, (२)१२ = (६५५३६)२ या
४२९४९६७२९६, (२)६४ = (४२९४९६७२९६) -
१८४४६७४४०७३७०९५५१६१६
.....नि - न १३. विरूपधनधारा-(२), (४१, (९)3,.........."(म)। १४. विरूपघनाघनधारा--[(२)२]3.....'[(४)]....." [(न-]]"
इस प्रकार त्रिलोकसारमें १४ धाराओं के कथनके पश्चात् सामान्यलोकाधिकारमें ही वर्गशलाका, अर्द्धच्छेद, विच्छेद, चर्तुच्छेद आदिका भो कथन
आया है। अद्धच्छेद गणिसको वर्तमानमें लघुगणकसिद्धान्त कहा गया है। अच्छेदों द्वारा राशिज्ञान प्राप्त करनेके सिद्धान्तका विवेचन करते हुए त्रिलोकसारमें कई नियम आये हैं। इसी प्रकार कुण्डगणितके अनन्तर पल्प, सागर, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगल, जगच्छेणी, जगत्प्रतर और धनलोकका कथन आया है। पल्यके तीन भेद बतलाये हैं-१. व्यवहारपल्य २. उबारपल्य ३. और बद्धापल्य । इस प्रकार संख्याओंका विधान कर अधोलोकका क्षेत्र
धृतधर और सारस्वताचार्य : ४३१
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फल आठ आकृतियों द्वारा निकाला गया है । ये आकृतियां सामान्य, ऊर्ध्वायत, सिर्गायत यवमुरज, यदमध्य, मन्दर, दूष्य और गिरिकटक है। पिनष्टि क्षेत्रका क्षेत्रफल तो आश्चर्यजनक रीतिमें निकाला गया है । अघोलोकके पश्चात् उर्ध्वलोकका सामान्य वर्णन आया है और उसका भी क्षेत्रफल निकाला गया है । इसके पश्चात् सनालीका कथन आया है। यह त्रसनाली एक राजु लम्बी और चौग चौड़ी होती है साधिकार अन्तर्गत ही नरकोंके पटलोंका कथन किया किया है। प्रथम नरक में १३, द्वितीय में ११, तृतोममें ९ चतुर्थ में ७, पंचममें ५ षष्ट में ३ और सप्तम में १ इन्द्रक है । पश्चात् नारकीय जीवोंके रहन-सहन, उनके क्षेत्रगत दुःख आदिका वर्णन किया है ।
वस्तुतः इस ग्रन्यमें जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, मानुषक्षेत्र, भवनवासियोंके रहनेके स्थान, आवास, भवन, आयु, परिवार आदिका विस्तृत वर्णन किया है । ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्णक, तारा एवं सूर्य, चन्द्रके आयु, विमान, गति, परिवार आदिका भी सांगोपांग वर्णन पाया जाता है। स्वर्गकि सुख, विमान एवं वहाँके निवासियोंकी शक्ति आदिका भी कथन आया है। त्रिलोककी रचनाके सम्बन्धमें सभी प्रकारकी जानकारी इस ग्रन्यसे प्राप्त की जा सकती है। लब्धिसार
आचार्य नेमिचन्द्रकी तीसरी रचना लम्बिसार है । यह भी गाथाबद्ध है । इसके दो संस्करण प्रकाशित हैं - एक रायचन्द्र शास्त्रमाला बम्बईसे और दूसरा हरिभाई देवकरण ग्रन्थमालासे । इस ग्रन्थ में ६४९ गाथाएं हैं । सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्रकी लब्धि अर्थात् प्राप्तिका कथन होनेके कारण इसके नामकी सार्थकता बतलायी गयी है। सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति पाँच लब्धियोंके प्राप्त होनेपर ही होती है। वे लब्धियाँ हैं—क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण। इनमेंसे प्रारम्भकी वार लब्धियों तो सर्वसाधारणको होती रहती हैं, पर करणलब्धि सभीको नहीं होती। इसके प्राप्त होनेपर ही सम्यक्त्वका लाभ होता है। इन लब्धियोंका स्वरूप ग्रन्थके प्रारम्भमें दिया है । अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणको प्राप्तिको ही करन
for कहा गया है । अनिवृत्ति करके होने पर अन्तर्मुहूर्तके लिए प्रथमोपशम सम्यक्त्वका लाभ होता है। प्रथमोपशम सम्यषस्व के कालमें कम-से-कम एक समय और अधिक से अधिक छह आवली काल शेष रहनेपर यदि बनन्तानुबन्धी कषायका उदय आ जाता है, तो जीव सम्यक्त्वसे व्युत होकर सांसादनसम्यक्स्वी बन जाता है और उपशमसम्यक्त्वका काल पूरा होनेपर यदि मिथ्यात्वकर्मका उदय का जाये, तो जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है। इस
४३२ : तीयंकर महावीर और उनकी वाचार्य परम्परा
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प्रकार १०९ गाथापर्यन्त प्रथमोपशमसम्यक्त्वका कथन है। इस प्रकरणमें २९ वीं गाया कषायपाहुडकी है और १०६, १०८ और १०९ वी गाथा गोम्मटसार जीवकाण्डकी।
गाथा ११० से क्षायिकसम्यक्त्वका कथन आरम्भ होता है। दर्शनमोहनीयकर्मका क्षय होनेसे क्षायिकसम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है, पर दर्शनमोहनीयकर्मके क्षयका प्रारम्भ कर्मभूमिका मनुष्य तीर्थकरके पादमूलमें अथवा केवली, श्रुतकेवलोके पादमूलमें करता है और उसकी पूर्ति वहीं अथवा सौधर्मादि कल्पोंमें अथवा कल्पातीतदेवों में अथवा भोगभूमिमें अथवा नरकमें करता है, क्योंकि बद्धायष्क कृतकृत्यवेदक मरकर चारों गतियोंमें जन्म ले सकती है। __अनन्तानुबन्धीचतुष्क और दर्शनमोहनीयको तीन, इन सात प्रकृतियोंके क्षयसे उत्पन्न हुआ क्षायिकसम्यक्रव मेरुकी तरह निष्कम्प, अत्यन्त निर्मल और अक्षय होता है । क्षापिकसम्यग्दृष्टि उसी भवमें, तीसरे भवमें अथवा चौथे भवमें मुक्त हो जाता है ! भायिकसम्यक्त्वके कथनके साथ दर्शनन्धिका कथन भी समाप्त हो जाता है। चारित्रलब्धि एकदेश और सम्पूर्णके भेदसे दो प्रकारकी है। अनादिमिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वके साथ देशचारित्रको ग्रहण करता है और सादिमिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्व अयवा वेदकसम्यक्त्व के साथ देशचारित्रको धारण करता है।
सकलनारियल तीन भेद बनाये हैं--क्षायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिक । क्षायोपशमिक चारित्र छट्टे और सातवें गुणस्थानमें होता है। यह उपशम और वेदक दोनों ही प्रकारके सम्यवत्वोंके साथ उत्पन्न होता है। म्लेच्छ मनुष्य भी आयं मनुष्यों के समान सकलसंयम धारण कर सकता है। इस प्रकार लब्धिसारमें, पांचों लब्धियोंका विस्तारपूर्वक वर्णन आया है। क्षपणासार
क्षपणासारमें ६५३ गाथाएं हैं । यह भी गोम्मटसारका उत्तराध जैसा है। कर्मोको क्षय करनेकी बिधिका निरूपण इस ग्रन्थमें किया गया है। इसकी प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि माधवचन्द्र श्रेवेद्यने बाहुली मन्त्रीको प्रार्थना पर संस्कृत-टीका लिखकर पूर्ण की है।
आचार्य नरेन्द्रसेन अमृतचन्द्रक तत्त्वार्थसारकी शैलीपर आचार्य नरेन्द्रसेनने 'सिद्धान्तसार' संग्रह' नामक ग्रन्थ रचा है । शैलीमें समानता होनेपर भी दोनों नामोंके अनुरूप १. सिद्धान्तसारसंग्रहनामक ग्रन्थ जीवराज जैन ग्रन्थमाला शोलापुरसे वि० सं० २०१३
में प्रकाशित हुआ है।
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विषयमें अन्तर है । तत्त्वार्थसारमें तत्त्वार्थसूत्र और उसके टोकाग्रन्थोंका सार है तथा उसका विषयानुक्रम भी तत्त्वार्थसूत्रके अनुरूप है, पर सिद्धान्तसारसंग्रहमें सिद्धान्तसम्बन्धी ऐसे विषय चचित हैं जो तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाओंके अतिरिक्त अन्यत्र भी प्राप्त हैं। जोवन-परिचय और समय-विधार
अन्यके अन्तमें ग्रन्थकारने अपनी प्रशस्ति दी है, जिससे अवगत होता है कि लाडवागड़ संघमें धर्मसेननामके दिगम्बर मुनिराज हुए। उनके पश्चात् क्रमशः शान्तिषेण, गोपसेन, भावसेन, जयसेन, ब्रह्मसेन और वीरसेन हुए। वीरसेनके शिष्य गुणसेन हुए और गुणसेनके शिष्य नरेन्द्रसन हुए।
जयसेनमूरिने 'धर्मरत्नाकर' नामक ग्रन्थ रचा है । इसको अन्तिम प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि यह भी लाउवागड़ या झाडवागड़ संघके आचार्य थे। इन्होंने जो गुरुपरम्परा दो है उसमें धर्मसेन, शान्तिषेण, गोपसेन, भावसेन और जयसेनके नाम आये हैं। यह गुरु-परम्परा नरेन्द्रसेनद्वारा प्रदत्त परम्परासे मिलतीजुलती है।
अतः नरेन्द्रसेन धर्मरत्नाकरके कर्ता जयसेनके वंशज है । जयसेनने धर्मरत्नाकरको प्रशस्तिके अन्तसे उसका रचनाकाल १०५५ दिया है। जयसेन और नरेन्द्रसेनके मध्य में ब्रह्मसेन, वीरसेन और गणसेन नामके तीन आचार्य और हुए हैं। नरेन्द्रसेनने अपने ग्रन्थके मध्यमें भी दो स्थानोंपर वीरसेनका स्मरण किया है और अपनेको वीरसेनसे 'लब्धप्रसाद' कहा है । अतः नरेन्द्रसेन वीरसेनके समयमें वर्तमान थे और जयसेन तथा वीरसेनके मध्यमें केवल एक ब्रह्मसेन आते हैं। अत: जयसेनके धर्मरत्नाकरकी समाप्तिसे अधिक-से-अधिक पचास वर्ष पश्चात अर्थात् वि० सं० ११०५ वीरसेनका समय माना जा सकता है। और इस तरह नरेन्द्रसेनको विक्रमकी १२वीं शताब्दिके द्वितीय चरणका विद्वान् मानना उचित है।
अमृतचन्द्रक तत्त्वार्थसारसे नरेन्द्रसेनको सिद्धान्तसार रचनेकी प्रेरणा मिलो अवगत होती है, क्योंकि नरेन्द्रसेनके पूर्वज जयसेनने अपने धर्मरलाकरमें अमृत१. तेनागीयत झाडवागड इति त्वेको हि संघोऽनव... ..."धर्मसेनोगणींद.."तेभ्यः श्री
(तस्माच्छी) शांतिषणः समजनि........श्रीगोपसेनगुरुराविरभूत्स...''जगत्सुबलिना श्रीभावसेनस्ततः .........."जगति जयसेनास्य इह सः.........."इति श्री सूरि जयसेनविरचितं धर्मरत्नाकरनामशास्त्रं समाप्तम् । –नाम्य प्रशस्ति-संग्रह, प्रथम
भाग, वीरसेवामन्दिर, दरियागंज दिल्ली द्वारा प्रकाशित, पृ०-४। ४३४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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चन्द्रके पुरुषापंसिद्धयुपायके अनेक पद्य उद्धृत किये हैं । अतएव वि० सं० १०५० के पश्चात् नरेन्द्रसेनका होना स्वाभाविक है।
सिद्धान्तसारपर अमितगतिके श्रावकाचारका भी प्रभाव सम्भव है । सिद्धान्तसारके चतुर्थ अध्यायमें निदानके प्रशस्त और अप्रशस्त मेदोंका कथन किया है । यह सन्दर्भ अमितगतिका अनुकरण जान पड़ता है । अमितगति-श्रावकाचारके सप्तम अध्यायके २०,२१ और २२खें पद्यका सिद्धान्तसार चतुर्थ अध्यायके पद्य २४६-५० का मिलान करनेपर अमितगति-श्रावकाचारके उक्त पद्योंपर स्पष्टतः प्रभाव ज्ञात होता है। अमितगति माथुरसंघके बाचार्य थे, यह पहले कहा जा चुका है।
अतएव नरेन्द्रसेन भी अमितगतिके समान काष्ठासंघी ही प्रतीत होते हैं। काष्ठासंघमें नन्दितट, माथुर, बागड़ और लाटवागड़ या झाडवागड ये चार प्रसिद्ध गच्छ हुए हैं, ऐसा सुरेन्द्रकोतिविरचित पट्टावलीसे झात होता है
काष्ठासंघो भुवि ख्यातो जानन्ति नृसुरासुराः । तत्र गच्छाश्च चत्वारो राजन्ते विश्रुताः क्षिती ॥ श्रीनन्दितटसंज्ञश्च माथुरो वागड़ाभिषः ।
लाहनासह इलोने विख्याताः मितिमण्डले ।' श्री डॉ० कोठियाजीने अत्यन्त विस्तारपूर्वक इनके वंश और समयपर विचार किया है। . नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा विरचित गोम्मटसार तथा त्रिलोकसारका मी उपयोग नरेन्द्रसेनने अपनी रचनामें किया प्रतीत होता है। उनके जीवतत्त्वविषयक वर्णनमें उक्त ग्रन्थों के अनेक गाथासूत्र अनुवाद जैसे प्रतीत होते हैं। सिद्धान्तसारसंग्रहके चतुर्थ अध्यायमें केवलि-भुक्ति और स्त्रो-मुक्तिका खण्डन है, जो आचार्य प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्डका अनुसरण है। प्रभाचन्द्रका समय वि० सं० १०३७-११२२ निर्धारित किया है। इससे भी नरेन्द्रसेन वि० सं० १२वों शतीके विद्वान् सिद्ध होते हैं। रचना
इनकी एक ही रचना उपलब्ध है-सिद्धान्तसारसंग्रह। यह गन्ध १२अध्यायोंमें विभाजित है और संस्कृत-भाषामें अनुष्टुप छन्दोंमें लिखा गया है। प्रत्येक अध्यायके अन्तमें छन्दपरिवर्तन हुआ है और पुष्पिकामें सिद्धान्तसारसंग्रह-- यह नाम दिया गया है। १. जनसाहित्यका इतिहास पृ० २७७ पर उढ़त । २. प्रमाणप्रमेयकालिका, प्रस्तावना, पृ. ५०-५९ ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ४३५
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प्रथम अध्याय में सम्यग्दर्शनका निरूपण है । सम्यग्दर्शनका लक्षण समन्तभद्रके 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार के आधारपर रचा गया है। यथा
सदृष्टिज्ञानसद्वृत्तरत्नत्रितयनायकेः । कथितः परमो धर्मः धद्धानं शुद्धवृत्तीनां
कर्मकक्षक्षयानलः | १|३३| देवतागमलिङ्गिनाम् । मोठया दिदोषनिर्मुकं दृष्टि दृष्टिविदो विदुः || १९३४
'करें
तुलना
सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्मं धर्मेश्वरा विदुः ।
X
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श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूढापोढमष्टाङ्ग सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥
मिथ्यादृष्टियों का वर्णन करते हुए गोपूजा, पोपलवृक्षपूजा एवं गतानुगतिकसे आये हुए लोकविश्वासोंका इसमें निर्देश है । इस ग्रन्थमें भाव - संग्रहके अनुसार ही सम्यग्दर्शनके संवेग, निर्वेद आदि आठ गुणोंका कथन किया है तथा आठोके लक्षण भी दिये गये हैं । मुनियोंमें दोष देखनेवालोंकी भी निन्दा की गयी है । इन विशेष बातोंके अतिरिक्त सम्यग्दर्शन के २५ दोषों और ८ अंगों का भी कथन है ।
X
—
X
द्वितीय अध्याय में सम्यग्ज्ञानका वर्णन है । इसके आरम्भ में ही ज्ञानको प्रमाण न मानने और इन्द्रिय या सन्निकर्ष आदिको प्रमाण माननेवाले नैयायिकवैशेषिक आदि मतों की समीक्षा की है । मतिज्ञान के भेद-प्रभेदों का वर्णन करते हुए बुद्धि, ऋद्धिके भेदोंका भी स्वरूप बतलाया गया है। श्रुतज्ञानके प्रकरण में द्वादशाङ्गके भेद-प्रभेदों एवं अंगबाह्यश्रुतके भेदोंका स्वरूप वर्णित है । इस सन्दर्भ में धवला और जयघवला में बतलाये हुए स्वरूपसे भी कहीं कुछ अन्तर है | उदाहरणार्थं दशवेकालिक के स्वरूपको लिया जा सकता है। बताया हैद्रुम, पुष्पित आदि दश अधिकारोंके द्वारा जिसमें साधुओं के आचरणका वर्णन हो वह दशवेकालिक है । ये दश अधिकार श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य दश - वैकालिक के ही दश अध्याय है । गोम्मटसार जीवकाण्डके समान श्रुतज्ञानके पर्याय, पर्याय - समास, अक्षर, अक्षर-समास आदि २० भेदोंका भी कथन किया गया है । शेष ज्ञानोंका वर्णन तो सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवात्तिक जैसा है ।
तृतीय अध्यायमें चारित्रका वर्णन है । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचयं
१. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, पद्म ३२४ ।
४३६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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और अपरिग्रह व्रतों का वर्णन नरेन्द्रसेन अमितगतिके श्रावकाचार जैसा ही किया
है । यथा-
यो यस्य इरते वित्तं स तम्बोन्निरः बहिरंगं हि लोकानां जीवितं वित्तमुच्यते ' ।।
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यो यस्य हरति वित्तं स तस्य जीवस्य जीवितं हरति । आश्वासकरं बाह्यं जीवानां जीवितं वित्तम् ।।
स्तेय और परिग्रहका लक्षण बतलानेवाले सूत्रोंकी व्याख्या में सर्वार्थसिद्धिमें जो शङ्का समाधान किया गया है उसे भी ग्रन्थकारने ज्यों-का-त्यों अपना लिया है ।
चतुर्थ अध्यायमें अणुव्रत और महाव्रतोंका सामान्य निर्देशकर मिथ्यात्व नामक शल्यका कथन करते हुए अनेक दार्शनिक मतोंकी विस्तारपूर्वक चर्चा की है । आत्माको नित्यता, क्षणिकता, बौद्धोंका शून्यवाद, चार्वाकका जड़वाद, सांख्यका कूटस्थ नित्यवाद, मीमांसकोंका सर्वज्ञाभाववाद, वेदकी अपीरुषेयता और जगतत्कर्तृत्ववादको समीक्षा की है। श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य केवली - कचलाहार और स्त्रीमुक्तिकी भी आलोचना को गयी है ।
पंचम अध्याय में जीवादि तत्वोंका स्वरूप वर्णित है । जीवका लक्षण और गुण वर्णन करने के पश्चात् उसके कर्तृत्व, अमूर्तत्व, भोक्तृत्व, स्वदेहपरिमाणत्व, उपयोगमयत्व, संसारित्व और ऊर्ध्वगमन घर्मोका वर्णन आया है। इनका समर्थन करते हुए लिखा है कि भाट्ट और नास्तिक जीवको मूर्त मानते हैं, अतएव अमूर्त कहा है । योग शुद्धचैतन्यमय मानते हैं, इसलिए उपयोगमय कहा है । सांख्य जीवको अकर्त्ता मानता है, इसलिए कर्तापद दिया है। योग (नैयायिक) भट्ट (मीमांसक) और साँख्य जीवको व्यापी मानते हैं, इसलिए स्वदेहपरिमाण कहा है । इस अध्यायके अगले संदर्भों का विषय सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक के द्वितीय अध्यायके समान आया है । नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव निक्षेपोंका स्वरूप सर्वार्थसिद्धिके समान ही निबद्ध है 1 इस पंचम अध्यायका उत्तराधं तत्त्वार्थसूत्र और उसके टीकाग्रन्थोंके अनुसार लिखा गया है ।
छठे अध्यायमें नरकलोकका वर्णन करते हुए सातों भूमियोंका स्वरूप, नरकपटल एवं नरकों के बिलोंका भी कथन किया गया है। प्रकृति और
१. सिद्धान्तसार संग्रह, ५४ ।
२. अमितगति श्रावकाचार — ६।६१ ।
घर और सारस्वताचार्य : ४३७
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कर्मोदयसे प्राप्त होनेवाले दुःखोंका भी कयन आया है। इस अध्यायमें भूमियोंके वर्ण, प्रकाश एवं उनके क्षेत्र और विस्तारका भी निरूपण है ।
सप्तम अध्यायमें मध्यलोक और उसके अन्तर्गत जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, घातकीखण्ड, कालोदधिसमुद्र, पुष्करवरद्वीप, मानुषोत्तर षट्कुलाचल, भरत, ऐरावत आदि समक्षत्र, कर्मभूमि, भोगभूमि आदिका प्रतिपादन किया गया है ।
अष्टम अध्यायमें वैमानिक देकोंका वर्णन है। सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र आदि सोलह स्वर्ग नवर्ग गया, जद अधुनिक दिल्य गा पन्ना, अय, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि विमानोंका कथन है । तत्त्वार्थसूत्रके समान हो स्थिति, प्रभाव, सुख, द्युति, लेश्या और अवधिज्ञानकी उत्तरोत्तर अधिकता प्रतिपादित को है। गति, शरीर, परिग्रह और अभिमानको अपेक्षा उत्तरोत्तर हीनता बतलायी गयी है । लौकान्तिक देवोंके मेदोंका वर्णन कर देवोंको उत्कृष्ट और जघन्य आयुका वर्णन किया है।
नवम बध्यायमें अजीव, आस्रव और बन्धतत्त्वका वर्णन किया है । अजीवके पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, और काल मेदों, तथा जीव सहित षड्दव्यों, आस्रवका स्वरूप, आस्रवके प्रत्यय और उसके मेद, बन्धतत्त्वका स्वरूप, बन्धके कारण और बन्धके मेदोंका विस्तारपूर्वक कथन आया है।
दशम अध्यायमें निर्जरातत्त्वका वर्णन करते हुए तपके प्रसङ्गसे प्रायश्चित्तका वर्णन बहुत विस्तारपूर्वक किया है। ऐसा वर्णन अन्यत्र नहीं आया है। वस्तुत: प्रायश्चित्त ही इस अध्यायका मुख्य वयं विषय है। किस अपराधके होनेपर कौन-सा प्रायश्चित्त कब ग्रहण करना चाहिए, इसका विस्तारपूर्वक विवेचन आया है।
एकादश अध्यायमे विनयतपसे लेकर ध्यानतप तकका वर्णन है । ध्यानके आतं, रौद्र, घमं और शुक्ल इन चारों ध्यानोंका स्वरूप, इनके भेद तथा धर्मध्यानके पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत भेदोंका स्वरूपसहित विवेचन किया है। ____ द्वादश अध्यायमें भगवती-आराधनाके आधारपर मरणके भेद बतलाकर समाधिमरणका विस्तारपूर्वक कथन किया है। निश्चयतः इस ग्रन्थमें 'तत्त्वार्थसार'की अपेक्षा अधिक विषयोंका समावेश है। तत्त्वार्थसारमें चचित विषयोंका विस्तारपूर्वक कथन किया ही गया है। __ नरेन्द्रसनके नामसे एक प्रतिष्ठाग्रन्थ भी मिलता है । पर हमारा विचार है कि यह गन्य सिद्धान्तसारसंग्रहके रचयिता नरेन्द्रसेनका न होकर किसी अन्य नरेन्द्रसेनका है। ४३८ : तीर्थकर महावीर वीर उनकी आचार्य परम्परा
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नेमिचन्द्र मुनि अभी तक यह धारणा चली आ रही थी कि द्रव्यसंग्रह या बृहद्रव्यसंग्रहके रचयिता नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती हैं । पर अब नये प्रमाणोंके आलोकमें यह मान्यता परिवर्तित हो गयी है। अब समीक्षक विद्वानोंका अभिमत है कि द्रव्यसंग्रहके रचयिता नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीसे भिष अन्य कोई नेमिचन्द्र हैं, जिन्हें नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव या मिचन्द्रभुनि कहा गया है। बृहद्रयसंगहके टीकाकार ब्रह्मदेवने ग्रन्थका परिचय देते हुए लिखा है__"अथ मालवदेश धारानामनगराधिपति राजभोजदेवाभिधानकलिकालचक्रवर्तिसम्बन्धिनः श्रीपालमण्डलेश्वरस्य सम्बन्धिन्याश्रमनामनगरे श्रीमुनिसुव्रततीर्थकरचैत्यालये शुद्धात्मद्रव्यसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतरसास्वादविपरीतनारकादिदुःखभयभीतस्य परमात्मभावनोत्पन्नसुखसुधारसपिपासितस्य भेदाभेदरत्नत्यभावनाप्रियस्य भव्यवरपुण्डरीकस्य भाण्डागाराद्यनेकनियोगाधिकारिसोमाभिधानराजश्रेष्ठिनो निमित्तं श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवैः पूर्व षड्विशतिगाथाभिलघुद्रव्यसंग्रहं कृत्वा पश्चाद्विशेषतत्त्वपरिज्ञानार्थ विरचितस्य बृहद्रव्यसंग्रहस्थाधिकारशुद्धिपूर्वकत्वेन वृत्तिः प्रारभ्यते ।"' ___ मालवदेशमें धारानगरीका स्वामी कलिकालसर्वज्ञराजा भोजदेव था । उससे सम्बद्ध मण्डलेश्वर श्रीपालके आश्रमनामक नगरमें श्री मुनिसुव्रतनाथ तीर्थकरके चैत्यालयमें भाण्डागार आदि अनेक नियोगोंके अधिकारी सोमनामक राजश्रेष्ठिके लिए श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेवने पहले २६ गाथाओंके द्वारा लघुद्रव्यसंग्रह नामक ग्रन्थ रचा। पोछे विशेषतत्त्वोंके ज्ञानके लिये बृहद्व्यसंग्रह नामक ग्रन्थ रचा। उसकी वृत्तिको मैं प्रारम्भ करता हूँ।
इस उद्धरणसे स्पष्ट है बृहद्रव्यसंग्रह और लघुद्रव्यसंग्रहके रचयिता नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव हैं।
श्री डॉ० दरबारीलालजी कोठियाने द्रव्यसंग्रहकी प्रस्तावनामें नेमिचन्द्र नामके विद्वानोंका उल्लेख किया है। इनके मतानुसार प्रथम नेमिचन्द्र गोम्मटसार, त्रिलोकसार, लब्धिसार और क्षपणासार जैसे सिद्धान्त ग्रन्थोंके रचयिता हैं। इनकी उपाधि सिद्धान्तचक्रवर्ती थी और गंगवंशी राजा राचमल्लक
१. बृहद्व्य संग्रह, दिल्ली संस्करण, वि० सं० २०१०, पृ० १-२ । २. श्री दरबारीलाल कोठिया द्वारा सम्पादित द्रव्यसंग्रह, प्रस्तावना पृ० २८, श्री गणेश
प्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी।
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प्रधान सेनापति चामुण्डरायके गुरु भी थे। इनका अस्तित्वकाल वि० सं० १०३५ या ई० सन् ९७८ के पश्चात् है ।
द्वितीय नेमिचन्द्र वे हैं, जिनका उल्लेख वसुनन्दि सिद्धान्तिदेवने अपने उपासकाध्ययनमें किया है और जिन्हें जिनागमरूप समुद्रकी वेलातरंगोंसे घुले हृदयवाला तथा सम्पूर्ण जगत में विख्यात लिखा है
सिस्सो तस्य जिणागम-जलाण हि वेला तरंग धोयमणो । संजाओ सयल - जए विक्खाओ णेमिचंदु ति ॥ आइरिय-परंपरागयं सत्यं ।
तस्स
बच्छल्लयाए
भवियाण मुवासयज्झयणं ॥
पसाएण म
रइयं
और
मन्त्रि
द्धान्तिदेव शिष्य ।
तृतीय नेमिचन्द्र वे हैं जिन्होंने सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्रके गोम्मटसार पर जीवतत्त्वप्रदीपिका नामकी संस्कृत टीका लिखी थी। यह टीका अभयचन्द्रकी मन्दप्रबोधिका और केशववर्णीको संस्कृत मिश्रित कन्नड़ टीकाके आधारपर रवी गयी है।
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1
चतुर्थ नेमिचन्द्र सम्भवतः द्रव्य संग्रहके रचयिता हैं। अतएव प्रथम और तृतीय नेमिचन्द्रको तो एक नहीं कह सकते । ये दोनों दो व्यक्ति हैं । सिद्धान्तचक्रवर्ती मूलग्रन्थकार है और तृतीय नेमिचन्द्र टीकाकार हैं। प्रथम नेमिचन्द्रका समय कि० की ११बों ( ई० स० ११) शताब्दी है और तृतीयका ई० सन्कां १६वीं शताब्दी | अतः इन दोनों नेमिचन्दोंके पौर्वापर्यय में ५०० वर्षों का अन्तराल हैं । इसीप्रकार प्रथम और द्वितीय नेमिचन्द्र भी एक नहीं हैं । प्रथम नेमिचन्द्र वि० को ११वीं शताब्दीमं हुए हैं तो द्वितीय उनसे १०० वर्ष बाद वि० को १२वीं शताब्दीमं, क्योंकि द्वितीय नेमिचन्द्र वसुनन्दि सिद्धान्तिदेव के गुरु थे और वसुनन्दिका समय वि० सं० १९५० के लगभग है । इन दोनों नेमिचन्द्रोंकी उपाधियां भी भिन्न हैं | प्रथमकी उपाधि सिद्धान्तचक्रवर्ती है, तो द्वितयकी सिद्धान्तिदेव |
प्रथम और चतुर्थं नेमिचन्द्र भी भिन्न हैं । प्रथम अपनेक सिद्धान्तचक्रवर्ती कहते हैं, तां चतुर्थ अपनको 'तनुसुत्रधर' । बृहद्रव्यसंग्रहकं संस्कृत टीकाकार ब्रह्मदेवने द्रव्यसंग्रहकारको सिद्धान्तिदेव लिखा है, सिद्धान्तचक्रवर्ती नहीं । अतएव हमारी दृष्टिमें द्रव्यसंग्रहके रचयिता नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव है । पण्डित आशाधरजान वसुनन्दि सिद्धान्तिदेवका सागारधर्मामृत और अनगारधर्मा१. उपासकाध्ययन, गाथा, ५४३, ५४४ ।
४४० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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मृत दोनों ही टीकाओं में उल्लेख किया है और वसुनन्दिने इन सिद्धान्तिदेवका अपने गुरुके रूप में स्मरण किया है तथा इन्हें श्रीनन्दिका प्रशिष्य एवं नयनन्दिका शिष्य बतलाया है। ये नयनन्दि यदि 'मुदंसणचरिउ' के रचयिता हैं, जिसकी रचना उन्होंने भोजदेवके राज्यकालमें वि० सं० ११०० में की थी, तो नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव नयनन्दि से कुछ ही उतरवर्ती और वसुर्नान्दमे कुछ पूर्ववर्ती, अर्थात् वि० सं० ११२५ के लगभगके विद्वान सिद्ध होते हैं। पंडित आशाधरजी ने द्रव्यसंग्रहकार नेमिचन्द्रका उल्लेख किया है । अतएव वसुनन्दि सिद्धान्तदेव के गुरु ही होगे।
समय- विचार
नयनन्दिने अपना 'सुदंसणचरिउ वि० सं० ११०० में पूर्ण किया है। अतः नयनन्दिका अस्तित्व समय वि० सं० ११०० है । यदि इनके शिष्य नेमिचन्द्रको इनसे २५ वर्ष उत्तरवर्ती माना जाय तो इनका समय लगभग वि० सं० ११२५ सिद्ध होता है । इनके शिष्य वसुनन्दिका समय वि० सं० १९५० माना जाता है । अतएव नयनन्दि और वसुनन्दिके मध्य होनेके कारण नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेवका समय वि० सं० ११२५ के आस-पास होना चाहिये ।
ब्रह्मदेवके अनुसार यह ग्रन्थ भोजके राज्यकाल अर्थात् वि० सं० की १२वीं शताब्दी ( ई० सन् ११वीं शती) में लिखा गया है । अतएव द्रव्यसंग्रहके रचयिता नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेवका समय वि० सं० की १२वीं शताब्दीका पूर्वार्ध है 1 अर्थात् ई० सन्की ११वीं शतीका अन्तिम पाद है। डॉ० दरबारीलाल कोठियाने अपना फलितार्थ उपस्थित करते हुए लिखा है
"यदि नयनन्दिके शिष्य नेमिचन्द्रको उनसे अधिक से अधिक २५ वर्ष पोछे माना जाय तो वे लगभग वि० सं० ११२५ के ठहरते हैं।"
द्रव्य संग्रहकी रचना आश्रमनगरमें बतलाई गयी है। यह आश्रमनगर 'आशा रम्यपट्टण', 'आश्रमपत्तन', 'पट्टण' और 'पुटभेदन' के नामसे उल्लिखित
| दीपचन्द्रपाण्डया और डॉ० दशरथ शर्माक अनुसार इस नगरको स्थिति राजस्थान के अन्तर्गत कोटासे उत्तर-पूरबकी ओर लगभग नौ मीलकी दूरी पर बूंदोसे लगभग तीन मोलको दूरीपर चम्बल नदीपर अवस्थित वर्तमान 'केशवरायपाटन' अथवा पाटनकेशवराय ही है । प्राचीनकाल में यह राजा भोजदेव के परमार साम्राज्य के अन्तर्गत मालवा में रहा है। अपनी प्राकृतिक रम्यता के कारण यह स्थान आश्रमभूमि (तपोवन) के उपयुक्त होनेके कारण आश्रम कहलानेका अधिकारी हैं।
१. द्रव्यसंग्रह प्रस्तावना, पृ० ३६ ।
श्रुतवर और सारस्वताचार्य : ४४१
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रचनाएँ
नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेवकी दो ही रचनाएँ उपलब्ध हैं - १. लघुद्रव्यसंग्रह और २. बृहद्रव्यसंग्रह ।
लघुद्रव्यसंग्रह
इसकी प्रथम गाथा में ग्रन्थकारने जिनेन्द्रदेव के स्तवनके पश्चात् प्रन्थ में वर्णित विषयका निर्देश करते हुए बताया है कि जिसने छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सप्ततत्त्व और नवपदार्थों का तथा उत्पादव्ययधीव्यका कथन किया है, वे जिन जयवन्त हों । स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ में षद्रव्य, पाँच अस्तिकाय, साततत्त्व, नवपदार्थ और उत्पाद व्यय श्रीव्य और ध्यानका कथन किया गया है । पाँच अस्तिकाय तो छह द्रव्योंके अन्तर्गत ही हैं । यतः जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल से छह द्रव्य हैं और कालके अतिरिक्त शेष पाँच द्रव्य बहुप्रदेशी होनेसे अस्तिकाय कहे जाते हैं । इसी तरह जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप ये नौ पदार्थ हैं। इनमेंसे पुण्य-पापको पृथक् कर देनेपर शेख तत्त्व हैं। इस प्रकार इस ग्रन्थ में द्रव्य तत्त्व, पदार्थ और अस्तिकायोंका स्वरूप बतलाया गया है ।
लघुद्रव्यसंग्रह में कुल २५ गाथाएँ हैं । पहली गाथा में वक्तव्य विषय के निर्देशके साथ मंगलाचरण है। दूसरी गाथा में द्रव्यों और अस्तिकायोंका तथा तीसरी गाथामें तत्त्वों और पदार्थोकर नाम निर्देश किया है। ग्यारह गाथाओं में द्रव्योंका पाँच गाथाओं में तत्त्वों और पदार्थों का एवं दो गाथाओं में उत्पाद, व्यय और श्रीव्यका कथन किया है । उत्तरवर्ती दो गाथाओंमें ध्यानका निरूपण आया है । २४ ची गाथा में नमस्कार और २५ वीं गाथा में नामादि कथन है । संक्षेपमें जैन तत्त्वज्ञानकी जानकारी इस ग्रन्थसे प्राप्त की जा सकती है।
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द्रव्यों के स्वरूपको बतलानेवाली गाथाओं में गाथा - संख्या ८, ९, १० और ११ का पूर्वार्द्ध और १२ तथा १४ गाथाएं बृहद्रव्यसंग्रह में भी पायी जाती हैं। शेष गाथाएँ भिन्न हैं । ब्रह्मदेवके अनुसार इसमें एक गाथा कम है । सम्भव है कि लघुव्यसंग्रहको प्राप्त प्रतिमें एक गाथा छूट गयी हो ।
बृहदद्रव्यसंग्रह
बृहद्रव्यसंग्रह और पंचास्तिकायको तुलना करनेपर ज्ञात होता है कि पंचास्तिकायकी शैली और वस्तुको द्रव्यसंग्रहकारने अपनाया है, जिससे उसे लघुपंचास्तिकाय कहा जा सकता है। पंचास्तिकाय भी तीन अधिकारोंमें विभक्त है और द्रव्यसंग्रह भी सीन अधिकारोंमें। पंचास्तिकायके प्रथम अधिकारमें द्रव्यों का, द्वितीयमें नौ पदार्थों का और तृतीयमें व्यवहार एवं निश्चय
४४२ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा
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मोक्षमार्गका कथन आया है । द्रव्यसंग्रहके तीनों अधिकारोंमें भी क्रमशः उक्स विपर ही श्रादा है। पंचारिकममें सना, प्राण, पर्याय आदिको दार्शनिक चर्चाएँ हैं, पर द्रव्यसंग्रहमें उनका अभाव है। इसका कारण यह प्रतीत होता है कि जैनतत्त्वोंके प्राथमिक अभ्यासीके लिए उक्त दार्शनिक चर्चाएं दुरूह हैं। यही कारण है कि सोमवेष्ठिके बोधार्थ पंचास्तिकायके रहने पर भी इस इस ग्रन्थके रचनेको गन्थकारको आवश्यकता प्रतोत हुई। __उल्लेखनीय है कि द्रव्यसंगहकारने निश्चय एवं व्यवहार दोनों नयांसे निरूपण किया है। व्यवहारमयमें किसी अवान्तर भेदका निर्देश तो द्रव्यसंग्रहमें नहीं है किन्तु निश्चयके शुद्ध और अशुद्ध भेदोंका निर्देश अवश्य है । ___ ग्रन्थमें ५८ गाथाएँ हैं। प्रथम गाथामें जीव और अजीव द्रव्योंका कथन करनेवाले भगवान ऋषभदेवको नमस्कार कर गन्धकारने ग्रन्थमें वक्तव्य विषयका भी निर्देश कर दिया है । दूसरी गाथासे जीवद्रव्यका कथन आरम्भ होता है । इसमें जीवको जीव, उपयोगमय, अमूर्तिक, कर्ता, स्वदेहपरिमाण, भोक्ता, संसारो और स्वभावसे उध्वंगमन करनेवाला बतलाया है । यथा
जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो।
भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई' ।। इस गाथाके द्वारा नौ अवान्तर अधिकारोंको सूचना दी गयी है । गाथामें निर्दिष्ट क्रमसे प्रत्येक अधिकारका कथन निश्चय और व्यवहार नयको अपेक्षासे किया है। पंचस्तिकायमें भी इसी तरह कथन है ।
जोवो त्ति हवदि चेदा उवओगविसेसिदो पहू कत्ता। भोत्ता य देहमत्तो ण हि मुत्तो कम्मसंजुत्तो।। कम्ममलविष्पमुक्को उड्ढे लोगस्स अंतमधिगंता।
सो सम्वणाण-दरिसी लहदि सुहमणिदियमणंत ।। आत्मा जीव है, उपयोगमय है, प्रभु है, कर्ता है, भोक्ता है, शरीरपरिमाण है, अमूर्तिक है, कर्मसंयुक है और उध्वंगमनस्वभाव है।
पंचास्तिकायकी इस शैलीका ही उपयोग द्रव्यसंग्रहकारने किया है । १५वीं गाथासे अजीवद्रव्योंका कथन प्रारम्भ होता है। १६वीं गाथामें तत्त्वार्थसूत्रके समान शब्दादिको पुद्गलका पर्याय कहा है । २८ गाथासे आस्रव आदि तस्वोंका वर्णन प्रारम्भ होता है। भाव और द्रव्यकी अपेक्षा प्रत्येकके दो-दो १. बृहदद्रव्यसंग्रह, वाया २ । २. पञ्चास्तिकाय, नाथा २७, २८ ।
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भेद बतलाकर बहुत ही संक्षेप में किन्तु सरल और स्पष्ट विवेचन किया है । गाथा ३५ में व्रत, समिति, गुसि, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषह्जय और चारित्रको भावसंवरके भेद बतलाया है । तस्वार्थ सूत्रमें व्रतोंको तो पुष्यास्रव माना है और शेषको संवरका हेतु बतलाया है | व्रतोंमें निवृत्तिका अंश भी होता है । अतएव यहां व्रतोंको संवरका हेतु बतलाया गया है ।
तृतीय अधिकार में द्विविध मोक्षमार्गका कथन करते हुए सम्यग्दर्शन सम्यज्ञान और सम्यक्चारित्रका स्वरूप बतलाकर ध्यानाभ्यास करनेपर जोर दिया है, क्योंकि ध्यानके बिना मोक्षकी प्राप्ति सम्भव नहीं है। ध्यानके भेद और स्वरूपादिकका कथन तो इस ग्रन्थ में नहीं आया है, किन्तु पंचपरमेष्ठियों के वाचक मन्त्रोंको जपने तथा उनका ध्यान करनेकी प्रेरणा की है और इसलिये अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पंचपरमेष्ठियों का स्वरूप एकएक गाथाके द्वारा बतलाया गया है । अन्तमें तप, श्रुत और व्रतोंका धारी आत्मा ही ध्यान करनेमें समर्थ है, का कथन किया है। इस प्रकार ग्रन्थकारने इसमें बहुत संक्षेपमें जैनदर्शनके प्रमुख तत्त्वोंका कथन किया है ।
५८वीं गाथा में ग्रन्थकारने अपने नामका निर्देश करते हुए लघुता प्रकट की हैंदव्वसंग मिणं सुणिणाहा दोस-संचय चुदा सुद- पुण्णा । सोधयं तु तणु-सुत्तधरेण णेमिचंदमुनिणा भणिय' जं ॥
यह द्रव्यसंग्रह अल्पसूत्रधारी नेमिचन्द्र मुनिके द्वारा रचा गया है । गुणोंके भण्डार, श्रुतज्ञानी श्रमणनायक इसे निर्दोष बना लेवें ।
अन्य चर्चित सारस्वताचार्य
पूर्वोक्त वर्णित प्रमुख सारस्वताचार्योंके अतिरिक्त ऐसे भी कई अन्य सारस्वताचार्य मिलते हैं, जिनकी स्वतन्त्र रचनाएं उपलब्ध नहीं हैं अथवा जिनके व्यक्तित्व के सम्बन्ध में स्वतन्त्ररूपसे जानकारी प्राप्त नहीं होती है । किन्तु अपने समय में असाधारण व्यक्तित्व होनेके कारण इनके निर्देश हरिवंशपुराण, आदिपुराण अथवा अन्य ग्रन्थों में प्राप्त होते है । अतएव यहाँ ऐसे आचार्योंपर भी कुछ प्रकाश डाला जाता है ।
आचार्य सिंहनन्दि
गंग- राजवंशकी स्थापनामें सहायता देनेवाले आचार्यं सिंहनन्दि विशेष उल्लेखनीय हैं। गंगवंशका सम्बन्ध प्राचीन इक्ष्वाकुवंशसे माना जाता है। मूलतः
१. बृहद्वव्यसंग्रह, गाथा ५८ ।
४४४ : सीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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यह वंश उत्तर या पूर्वोत्तरका निवासी था । ई० सन्की दूसरी शताब्दी के लगभग इम वंशके दो राजकुमार दक्षिण में आये। उनके नाम दडिग और माधव थे । पेर नामक स्थानमें उनकी भेंट जैनाचार्यं सिह्नन्दिसे हुई । सिनन्दिने उनकी योग्यता और शासनक्षमता देखकर उन्हें शासनकार्यं की शिक्षा दी। एक पत्थरका स्तम्भ साम्राज्यदेवीको प्रवेश करनेसे रोक रहा था । सिंहनन्दिको आज्ञासे माधवने उसे काट डाला । सिंह्नन्दिने उन्हें एक राज्यका शासक बना दिया |
सिनन्दिका यह आख्यान मैसूर राज्यसे प्राप्त ११२२ ई० के एक अभिलेखमें अंकित है । इस अभिलेख में बताया है कि पद्मनाभ राजाके ऊपर उज्जैन के महीपालने आक्रमण किया तब उसने दडिंग और माधव नामके दो पुत्रोंको दक्षिण की ओर भेज दिया। प्रतिदिन यात्रा करते-करते वे पेरूर नामक स्थानमें पहने। उन्होंने वहीं अपना शिविर स्थापित किया । यहाँ एक सरोवर के निकट चैत्यालय के दर्शन कर उन्होंने उसकी तीन प्रदक्षिणाएं कीं और आचार्य सिंहनन्दिकी वन्दना कर उनके निकट बैठ गये । आचार्यने उन्हें आशीर्वाद दिया । उनकी भक्ति प्रसन्न होकर देवी पद्मावती प्रकट हुई और उसने उन्हें तलवार एवं राज्य प्रदान किया ।
समस्त राज्य
मारने पीने
करते हुए कहा "यदि 'तुम अपने वचनको पूरा न करोगे या जिनशासनको साहाय्य न दोगे, दूसरोंकी स्त्रियों का यदि अपहरण करोगे, मद्य- माँसका यदि सेवन करोगे, या नीचों की संगति में रहोगे, आवश्यक होनेपर भी यदि दूसरोंको अपना धन नहीं दागे और यदि युद्ध के मैदान में पीठ दिखाओगे तो तुम्हारा वंश नष्ट हो जायेगा" । सन् १९२९ ई० के एक दूसरे अभिलेख में लिखा है कि सिनन्दि मुनिने अपने शिष्योंको अर्हन्त भगवानकी ध्यानरूपी तीक्ष्ण तलवार भी कृपा करके प्रदान की थी, जो घातिकर्मरूपी शत्रुसैन्यकी पर्वतमालाको काट डालती है ।
सिंहनन्दिको मूलसंघ कुन्दकुन्दान्त्रय, काणूरगण और मेषपाषाणगच्छका आचार्य तथा दक्षिणवासी बताया है। सिह्नन्दिके प्रभावसे ही गंगराजाओंने जैनधर्मको संरक्षण प्रदान किया था । चतुर्थ शताब्दीसे द्वादश शताब्दी तक अभिलेखोंसे प्रमाणित होता है कि गंगवंशके शासकोंने जैनमन्दिरोंका निर्माण कराया, जैनमूर्तियाँ प्रतिष्ठित करायों, जैनसाधुओंके निवासके लिए गुफाएँ बनवायीं और जैनाचार्योंको दान दिया । एक विरुदावली में सिनन्दि आचा
१. Mediaeval Jainism P. 1 तथा जैन शिलालेख संग्रह भाग २, अभिलेख
P
संख्या २७७ ।
भूतवर और सारस्वताचार्य ४४५
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यंको अत्यन्त प्रभावक आचार्य बताया गया है। कहा गया है कि सम्पूर्ण संसाररूप कमलवनको विकसित करनेमें सूर्यके समान तपस्याको छविसे उत्पन्न प्रभा द्वारा सभी दिशाओंके अन्धकारको दूर करने वाले सिद्धान्त-समुद्रको वद्धि में चन्द्रमास्वरूप, मिथ्यात्वरूपी अन्धकारको दूर करनेके लिए सयंतुल्य, परवादियोंके सिद्धान्तरूपी गजके मस्तकको विदीर्ण करनेमें सिंहके समान श्रीलोसायद, प्रभाव, भिवान, मानुनन्दि और शिहनन्दि योगीन्द्र हुए। ___ इस सन्दर्भ में आये हुए सिंहनन्दि पूर्वोक्त गंगवंश-संस्थापक सिंहनन्दिसे अभिन्न हों, तो उनकी विद्वत्ता जगत्प्रसिद्ध प्रतीत होती है। इस विरुदावली में पूज्यपाद, गुणनन्दि, बच्चनन्दि और कुमारनन्दिके पश्चात सिंहनन्दिका उल्लेख आया है। अतः बहत सम्भव है कि यह सिंहनन्दि गंगवंश-संस्थापक सिंहनन्दि ही हैं । ये आगम, तर्क, राजनीति और व्याकरण शास्त्र आदि विषयोंके ज्ञाता थे 1 इनका समय ई० सनकी द्वितीय शताब्दी है।
उपर्युक्त उल्लेखोंसे विदित है कि गंगवंश-संस्थापक सिंहन्दि राजनीतिके साथ आगम-शास्त्रके भी शाता थे। अतः असम्भव नहीं कि इनकी रचनाएं भी रही हों, जो आज उपलब्ध नहीं।
आचार्य सुमति आचार्य सुमतिदेवका उल्लेख सन्मति-टीकाकारके रूपमें पाया जाता है। आचार्य वादिराजने अपने पार्श्वनाषचरितमें सुमतिदेवका निम्नप्रकार उल्लेख किया है
नमः सन्मतये तस्मै भव-कूप-निपातिनाम् ।
सन्मतिविवृता येन सुखधाम-प्रवेशिनी ।।१।२२।। आचार्य टुगलकिशोर मुख्तारने अनुमान किया है कि सुमतिदेवकी यह टोका ११वीं शताब्दीके श्वेताम्बराचार्य अभयदेवको टीकासे लगभग तीन शताब्दी पहलेको होनी चाहिये।
इन आचार्य और उनके सिद्धान्तका उल्लेख तत्त्वसंग्रहमें प्रत्यक्षलक्षणसमीक्षा सन्दर्भमें तत्वसंग्रहकार और उनके शिष्य कमलशीलने भी किया है"नन्वित्यादिना प्रथमे हेती सुमतेदिगम्बरस्य मतेनासिद्धतामाशते । स हि सामान्यविशेषात्मकत्वेनोभयरूपं सर्व वस्तु वर्गयति । सामान्यं च द्विरूपम्....." १. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाम ९, किरण २, पृ० ११०।। २. पुरातन जैनवाक्पसूनी, वीर सेवा मन्दिर, प्रथम संस्करण, प्रस्तावना, १२१ । ४४६ : तीर्थंकर महावीर और वनको आचार्य परम्परा
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० सं० पंजिका, का० १२६४ | "अत्र किल तेनैव सुमतिना स्वयमाशङ्कय सामान्येन हेतोरनैकान्तिकत्वं परिहृतम् तदेवादर्शयति- निविशेषमित्यादि । " (त० सं० का ० १२७५) ।
श्रवणबेलगोलाके अभिलेख - संख्या ५४में भी सुमतिदेवका उल्लेख आया है | यह अभिलेख शक संवत् १०५०का है । यथा
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सुमति-देवममुं स्तुतयेन वस्सुमति-सप्तकमाप्ततया कृतं 1 परिहृतापथतत्त्व- पथात्थिनां सुमति-कोटि- दिवसभवात्तिहृत् ॥ इस पद्यसे स्पष्ट है कि सुमतिदेव अच्छे प्रभावशाली वार्षिक हुए हैं, जिनका स्थितिकाल ८वीं शताब्दी के लगभग रहा है । तत्त्वसंग्रह और शिलालेख के उल्लेख बतलाते हैं कि आचार्य सुमतिदेव प्रमाण और नयके विशिष्ट विद्वान् हैं। तार्किकके रूपमें इनकी ख्याति ८वीं वीं शताब्दी में पूर्णतया व्याप्त रही है । आचार्य कुमारनन्दि
आज कुमारनन्दिकी कोई रचना उपलब्ध नहीं है । पर उनके तथा उनके ग्रन्थ के उल्लेख कई स्थानोंपर प्राप्त होते हैं | आचार्य विद्यानन्दने अपने ग्रन्थ प्रमाण-परीक्षा, पत्र परीक्षा और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें कुमारनन्दिका उल्लेख किया है । प्रमाण-परीक्षा में लिखा है
तथा चाभ्यधायि कुमारनन्दिभट्टारक:अन्यथानुपपत्येक लक्षणं लिङ्गमंग्यते । प्रयोगपरिपाटी तु प्रतिपाद्यानुरोधतः ॥ २
पत्रपरीक्षामें कुमारनन्दि और उनके 'वदन्याय' ग्रन्थ दोनोंका भी उल्लेख प्राप्त होता है । लिखा है
तथैव हि कुमारनन्दिभट्टारकेरपि स्ववादन्याये निगदितत्वात् ।
तदाह
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प्रतिपाद्यानुरोधेन प्रयोगेषु पुनर्यथा । प्रतिज्ञा प्रोच्यते तांस्तथोदाहरणादिकम् ॥ अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं लिंगमंग्यते । प्रयोगपरिपाटी तु प्रतिपाद्यानुरोषतः ॥
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१. जैन शिलालेखसंग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख संख्या ५४, पद्य १३ ।
२. प्रमाणपरीक्षा, पृ० ३ ।
३. पत्रपरीक्षा, पृ० ३ ।
घर और सारस्वताचार्य : ४४७
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तत्त्वार्थश्लोकवातिकमें भी उनके बदन्यायका निर्देश माया है
कुमारनन्दिनश्चाहुदिन्याविचक्षणाः' । आचार्य विद्यानन्दके उक्त उद्धरणोंसे प्रकट है कि कुमारनन्दि विद्यानन्दके पूर्ववर्ती आचार्य हैं। इन्होंने वादन्यायका प्रणयन किया था, जिसकी कतिपय कारिकाएं विद्यानन्दके अपने ग्रन्थोंमें उद्धृत की हैं।
नागमंगल ताम्रपत्र में भी कुमारनन्दिका उल्लेख आया है, जो श्रीपुरके जिनालयके लिए शक सं०६९८ (वि. सं. ८३३) में लिखा गया है। इसमें चंद्रनंदिके शिष्य कुमारनन्दि, कुमारनन्दिके शिष्य कोतिनन्दि और कोतिनन्दिके शिष्य विमलचन्द्रका उल्लेख है। अतएव नागमंगल ताम्रपत्रमें उल्लिखित कुमारनन्दि यदि प्रस्तुत कुमारनन्दि ही हैं, तो इनका समय वि० सं० की ८ वीं शताब्दी होना चाहिये । ताम्रपत्रकी पंक्तियां निम्नप्रकार है
"अष्टानवत्युत्तरे षट्छतेषु शकवर्षेष्वतोतेष्वारमानः प्रवर्द्धमान-विजयवीर्यसंवत्सरे पंचशसमे प्रवर्त्तमाने मान्यपुरमधिवसत्ति विजयस्कंदावारे श्रीमूलमूलशर्णाभिनंदितनन्दिसंघान्वय एरेगित्तुनाम्नि गणे मूलिकल्पच्छे स्वच्छतरगुणिकिरH)सति-प्रहानिरास लोकः वायरः चन्द्रनन्दिनामगुरुरासीत् । तस्य शिष्यस्समस्तविबुधलोकपरिरक्षण-क्षमात्मशक्तिः परमेश्वरलालनीयमहिमा कुमारवद्विति (ने)य: कुमारनन्दिनाममुनिपतिरभवत् । तस्यान्तेवासि-समधिगत सकलतत्त्वार्थ-समर्पित-बुघसार्ध-सम्पत्सम्पादितकोतिः कीर्तिनन्द्याचार्यों नाम महामुनिस्समजान | तस्य प्रियशिष्य: शिष्यजनकमलाकर-प्रबोधनक: मिथ्याशानसंततसनुतस्वसन्मानान्तक-सद्धर्म-व्योमावभासनभास्करः विमलचन्द्राचार्यस्समुदपादि । तस्य महर्षेर्धर्मोपदेशनया...............२।"
इस ताम्रपत्रमें कुमारनन्दिको समस्त विचल्लोकका परिरक्षक और मुनिपति कहा है। इससे सम्भावना है कि विद्यानन्द द्वारा उल्लिखित और वादन्यायके कर्ता ताकिक कुमारनन्दि का ही इसमें गणकीर्तन है। जो हो, इतना स्पष्ट है कि आचार्य कुमारनन्दि एक प्रभावशाली तार्किक एवं 'वादन्यायविचक्षण' ग्रन्थकार थे।
आचार्य श्रीदत्त तपस्वी और प्रवादियोंके विजेताके रूपमें इनका उल्लेख मिलता है। आदिपुराणमें बताया है१. तत्वार्थश्लोकवार्तिक पृ० २८० । २. पुरातन-जनवाक्य-सूची, प्रस्तावना, पृ० ६७ । ४८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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श्रीदत्ताय नमस्तस्मै कण्ठीरवायिर्स येन
मैं उन श्रीदत्तके लिये नमस्कार करता है, जिनका शरीर तपोलक्ष्मीसे अत्यन्त सुन्दर है और प्रवादरूपी हस्तियोंके भेदन में सिंहके समान थे ।
तपः श्रीदी समर्तये । प्रवादीभ प्रभदने' ||
श्रीवस बादी और दार्शनिक विद्वान थे । आचार्य विद्यानन्दने इनको ६३ वादियोंको पराजित करनेवाला लिखा है। विक्रमकी छठी शतके विद्वान देवनन्दिते जैनेन्द्रध्याकरणमें 'गुणे श्रीदत्तस्य स्त्रिया ( १२४)३४) सूत्रमें श्रीदत्तका उल्लेख किया है । वेवनन्दि द्वारा उल्लिखित, आदिपुराण तथा तस्वार्थश्लोकवातिकमें निर्दिष्ट श्रीदत्त एक ही हों, तो इनका समय देवनन्दसे पूर्व अर्थात् वि० सं०की चौथी पांचवीं शती होना चाहिए। जल्पनिर्णय नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थका इन्हें रचयिता भी कहा गया है। विद्यानन्दने तत्त्वार्थ लोकवास्तिक पृ० २८० पर लिखा है
द्विप्रकारं जग जल्पं तत्व प्रातिभगोचरम् | त्रिषष्ठेदिनां जेता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये ॥
कुमारसेनगुरु
चन्द्रोदय ग्रन्थके रचयिता प्रभाचन्द्रके आप गुरु थे । आपका निर्मल यश समुद्रान्त व्याप्त था ।
आकूपारं यशो लोके गुरोः कुमारसेनस्य
प्रभाचन्द्रोदयोज्जवलम् । विश्वरत्यजितात्मकम् ॥
अर्थात् कुमारसेन गुरुका यश इस संसार में समुद्रपर्यन्त सर्वत्र विचरण करता है, जो प्रभाचन्द्रनामक शिष्यके उदयसे उज्जवल है, तथा जो अविजित रूप है- किसीके द्वारा जीता नहीं जा सकता है |
चामुण्डरायपुराण के पन्द्रहवें पद्यमें भी इनका स्मरण किया गया है।
इससे ज्ञात होता है कि कुमारसेनगुरु बड़े हो यशस्वी सारस्वत थे । डॉ० ए० एन० उपाध्येने इनका परिचय देते हुए जैनसंदेशके शोधांक १२ में लिखा है— कि ये मूलगुण्डनामक स्थानपर आत्मत्यागको स्वीकार करके 'कोप्पणाद्रि' पर व्यानस्थ हो गये और समाधिमरणपूर्वक स्वर्गलाभ किया ।' इनके सम्बन्ध दर्शनसार में बताया है—
१. आदिपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ काशी संस्करण, ११४५ । २. हरिवंशपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ काशी संस्करण ११३८ ।
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गंदियढे करगामे कुमारसेणो य सत्यविण्णाणी
कट्ठो दंसणभट्टो जादो सल्लेहणाकाले ।' अर्थात् काष्ठासंघके संस्थापकके रूपमें कुमारसेनका नाम आता है। बताया है कि विक्रम राजाकी मृत्युके ७५३ वर्ष पश्चात् नन्दीतटग्राममें काष्ठासंघ हुआ। इस नन्दीतटग्राममें कुमारसेननामका शास्त्रज्ञ विद्वान् साल्लेखनाके समय दर्शनसे भ्रष्ट होकर, काष्ठासंघी हुआ। कुमारसेनका समय वि० की ८वीं शताब्दी अगवत होता है।
वकासूरि ये वज्रसूरि देवनन्दि-पूज्यपादके शिष्य द्राविड़ संघके संस्थापक बकानन्दि जान पड़ते हैं । हरिवंशपुराण में इनके सम्बन्धमें कहा है
बसूरेविचारिण्यः सहेखोर्बन्धमोक्षयोः ।
प्रमाण धर्मशास्त्राणां प्रवक्तृणामिवोक्तयः ।। अर्थात् जो हेतु सहित बन्ध और मोक्षका विचार करनेवाली हैं ऐसी श्री वज्रसूरिकी उक्तियाँ धर्मशास्त्रोंका व्याख्यान करनेवाले गणधरोंकी सक्तियों के समान प्रमाणरूप हैं।
इस उल्लेखसे स्पष्ट है कि वचसूरिके वचन गणघरोंके समान मान्य थे। दर्शनसारके उल्लेखानुसार इनका समय छठी शती प्रतीत होता है।
सिरिपुज्जपादसीसो दाविडसंघस्स कारगो दुट्ठो । णामेण वज्मणंदी पाहदवेदो महासत्तो। पंचसए छब्बीसे बिक्कमरायस्स मरणपत्तस्स ! दक्षिणमहराजादो दाविडसंघो महामोहो ||
यशोभद्र प्रखर ताकिकके रूपमें जिनसेनने इनका स्मरण किया है। आदि राणमें बताया है
विदुष्विणीषु संसत्सु यस्य नामापि कीर्तितम् ।
निखर्वयति सद्गर्व यशोभद्रः स पातु नः । १. दर्शनसार, गाथा ३९ ।। २. वही, गाथा २४ । ३. वहीं, गाथा २८ । ४, आदिपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ काशी संस्करण, १।४६ .
४५० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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अर्थात् विद्वानोंको सभामें जिनका नाम कह देने मात्रसे सभीका गवं दूर हो जाता है, वे यशोभद्र स्वामी हमारी रक्षा करें।
जैनेन्द्र व्याकरणमें "क्व वृषिमृजओ यशोभद्रस्य" (२२११९०) सूत्र आया है । अतः जिनसेनके द्वारा उल्लिखित यशोभद्र और देवनन्दिके जैनेन्द्र व्याकरणमें निर्दिष्ट यशोभद्र यदि एक ही हैं, सो इनका समय वि० सं० छठी शतीके पूर्व होना चाहिये।
आचार्य शान्त अथवा शान्तिषण आचार्य शान्त अथवा शान्तिषेषका साहित्यमें सविशेष उल्लेख है। इनकी उत्प्रेक्षालकारसे युक्त वक्रोक्तियोंकी प्रशंसा की गयी है। बताया है
शान्तस्यापि च वक्रोक्ती रम्योस्प्रेक्षा बलान्मनः ।
कस्य नोद्घाटितेऽन्यर्थे रमणीयेऽनुरजयेत् ॥ अर्थात् श्री शान्त कविकी वक्रोक्तिरूप रचना रमणीय उत्प्रेक्षाओंके बलसे मनोहर अर्थके प्रकट होनेपर किसके मनको अनुरक्त नहीं करती है।
जिनसेनने अपनी गुरुपरम्पराका वर्णन करते हुए जयसेनके पूर्व एक शान्तिषेण आचार्यका नामोल्लेख किया है । यदि ये शान्त ही शान्तिषण हों, तो जिनसेनकी गुरुपरम्परामें नाम आने के कारण इनका समय ७वीं शताब्दी होना चाहिये। हरिवंशपुराणके अन्तमें दी हुई प्रशस्तिमें विनयन्धर, गुप्तश्रुति, गुप्तऋषि, मुनीश्वर, शिवगुप्त, अर्हद्वलि, मन्दराय, मित्रविरवि, वलदेव, मित्रक, सिंहबल, वीरवित, पयसेन, व्याघहस्त, नागहस्ति, जितदण्ड, नन्दिषेण, दीपसेन, श्रीधरसेन, सुवर्मसेन, सिंहसेन, सुनन्दिषेण, ईश्वरसेन, सुनन्दिषेण, अभयसेन, सिद्धसेन, अभयसेन, भीमसेन, जिनसेन और शान्तिर्षण आचार्य हुए । अनन्तर जयसेन, अमितसेन, कीतिसेन और जिनसेन हुए हैं । स्पष्ट है कि शास्तिषेण अच्छे कवि और दार्शनिक थे।
विशेषवादि हरिवंशपुराणके उल्लेखोंसे अवगत होता है कि इनको कोई गद्य-पद्यमय रचना रही है। वादिराजने भी अपने पार्श्वनाथचरितमें विशेषवादिका उल्लेख किया है । जिनसेनने लिखा है१. हरिवंशपुराण, ज्ञानपीठ संस्करण. इलोक ११३६ । २. वहीं, ६६, २५-३३ ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ४५१
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योऽशेषोक्तिविशेषेषु विशेषः पचाद्ययोः । विशेषवादिता तस्य विशेषत्रयवादिनः ' ॥
अर्थात् जो गद्य-पद्य सम्बन्धी समस्त विशिष्ट उक्तियोंके विषय में विशेष अर्थात् तिलकरूप है, तथा जो विशेषत्रयका निरूपण करनेवाले हैं, ऐसे विशेषवादि कविका विशेषादिपता सर्वत्र प्रसिद्ध है । विशेषवादि कविका विशेषत्रय कोई ग्रन्थ रहा है, या गद्य, पद्य और गद्य-पद्य तीनों प्रकारकी रचनायें दक्ष होनेसे विशेषत्रयवादी कहा जान पड़ता है।
श्रीपाल
५
ये वीरसेन स्वाभीके शिष्य और जिनसेनके सधर्मा समकालीन विद्वान हैं। जिनसेनने जयधबलाको इनके द्वारा सम्पादित बताया है । इनका समय वि० सं०मी ९ वीं
!
काणभिक्षु
आचार्य जिनसेनने काणभिक्षुका कथाग्रन्थ रचयिता के रूपमें उल्लेख किया है। इससे ज्ञात होता है कि उनका कोई प्रथमानुयोगसम्बन्धी कोई ग्रन्थ रहा है। जिनसेनने लिखा है
धर्मसूत्रानुगा हुया यस्य वाङ्मणयोऽमलाः । कथालङ्कारतां भेजुः काणभिक्षुजंयत्यसो' ||
अर्थात् वे काणभिक्षु जयवन्त हों, जिनके धर्मरूप सूत्र में पिरोये हुए, मनोहर वचनरूप निर्मलमणि कथाशास्त्र के अलङ्कारपनेको प्राप्त हुए थे । अर्थात् जिनके द्वारा रचे गये कथाग्रन्थ श्रेष्ठ हैं ।
ये जिनसेन द्वारा उल्लिखित होनेसे उनके पूर्ववर्ती विद्वान् हैं।
कनकनन्दि
सिद्धान्त ग्रन्थोंके रचयिता के रूपमें कनकनन्दिका नाम भी नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीक समान समादरणीय है । इन्हें भी सिद्धान्त - चक्रवर्ती कहा गया हैं । यह तथ्य गोम्मटसार कर्मकाण्डको निम्न अन्तिम गाथासे स्पष्ट होता है-
1
१. हरिवंश० १३७ ।
२. आदिपुराण, ११५३ |
३. आदिपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, भाग १, पद्य ११५१ ।
४५२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा
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________________ वरइंदणंदिगुरुणो पासे सोळण सयलसिद्धतं / सिरिफणयणंदिगुरुणा सत्तट्ठाणं समुद्दिठं॥ अर्थात् श्री इन्द्रनन्दि गरुके पास समस्त सिद्धान्तको सुनकर श्री कनकनंदि गुरुने इस सत्त्वस्थानको सम्यक् रीति से कहा है / यहाँ कनकनन्दिके साथ गुरु शब्दका संकेत करता है कि नेमिचन्द्रने गोम्मटसारकी रचना कनकनन्दिसे अध्ययन करके की है / और वे उनके गुरु हे होंगे या 'गुरु' नामसे वे अधिक ख्यास होंगे। कनकनन्दि द्वारा रचित 'विस्तरसत्त्वत्रिभंगी' नामक ग्रन्थ जैन सिद्धान्त भवन आरामें वर्तमान है। इस ग्रंथको कागज पर लिखी गयी दो प्रतियां विद्यमान है। दोनोंकी गाथा-संख्यामें अन्तर है 1 एक प्रतिमें 48 गाथा है और दुसरीमें 51 / दूसरी प्रतिमें गाथाओंके साथ संदष्टियां भी उल्लिखित हैं / पहली प्रतिमें तीन पृष्ट है और दूसरीमें सात / / ___ गोम्मटसार कर्मकाण्डमें कनकनन्दि विरचित 'विस्तरसत्वत्रिभंगी'को आदिसे अन्तिम गाथा पर्यन्त सम्मिलित कर लिया गया है। केवल मध्यकी आठ या ग्यारह गाथाएं छोड़ दी गयीं हैं, क्योंकि कर्मकाण्डमें इस प्रकरणकी गाथाओंकी संख्या 358-397 अर्थात् 40 है। इस प्रकरणमें कोंके सस्वस्थानोंका कथन पारमानों में भोले शानिगा है। क्या कनकनन्दि आचार्यले 48 या 51 गाथाप्रमाण 'विस्तरसत्वत्रिभंगी' ग्रंथको पृथक रचना की और बादको उसे नेमिचन्द्रचार्यने अपने गोम्मटसारमें सम्मिलित कर लिया अथवा कर्मकाण्डके लिए ही उन्होंने उसकी रचना की? विचार करने पर ज्ञात होता है कि कनकनंदि सिद्धान्तचक्रवर्तीने इतना छोटासा ग्रंथ नहीं लिखा होगा। उन्होंने कर्मकाण्डके लिखने में सहयोग प्रदान किया होगा और उसीके लिए सत्त्वत्रिभंगीप्रकरण लिखा होगा। इसके पश्चात् उन्होंने कुछ गाथाए” अधिक जोड़कर उसे स्वतन्त्र ग्रंथका रूप प्रदान किया होगा। कर्मकाण्डमें कनकनंदिके मतान्तरको देखनेसे हमारा उक्त कथन पुष्ट होता है। स्पष्ट है कि कनकनंदि अपने समयके प्रसिद्ध आचार्य हैं / ___ इस प्रकार प्राप्त सामग्री के आधारसे श्रुतधराचार्यों और सारस्वताचार्यों का विवेचन किया गया। 1. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला. बम्बई संस्करण, गापा 396 / श्रुतघर और सारस्वताचार्य : 453