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२० वर्षका और अहंद्वलि, माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतबलि तथा कुन्दकुन्दके गुरुका स्थूल समय दश-दश वर्षका ही मान लिया जाय, जिसका मान लेना कुछ अधिक नहीं है, तो यह सहजमें ही कहा जा सकता है कि कुन्दकुन्द उक्त समयसे ८० वर्ष अथवा वोर नि० ७६३ ( ६८३ + २० + ६० ) वर्ष बाद हुए हैं और यह समय उस समयके करीब पहुंच जाता है जो बिद्वज्जनबोधक' से उद्ध त किये हुए उक्त पदमें दिया है, और इसलिए इसके द्वारा उसका बहुत कुछ समर्थन होता है।" । ___ मुख्तारसाहब पट्टालिपर विश्वास नहीं करते। पट्टावलि में कुन्दकुन्दका समय वि० संवत् ४९ दिया गया है। इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारमें वर्णित दोनों सिद्धांतअन्थोंकी उत्पत्तिको कथा तथा गुरुपरिपाटीसे दोनों सिद्धांतग्रन्थोंका अध्ययन कर कुन्दकुन्दके द्वारा पटवण्डागमके प्रथम तीन स्वण्डोंपर १२००० श्लोक प्रमाण टीका लिखनेकी दातको साधार मानकर यही निष्कर्ष निकलता है कि कुन्दकुन्द वीर निर्वाण संवत् ६७० के लगभग हए हैं ।
मुख्तारसाहबने शिवकुमार महराजवाली चर्चाको उठाकर डॉ० पाठकके मतका निरसन किया है और प्रो. चक्रवर्तीके मतको भो मान्य नहीं ठहराया है। इस प्रकार मुख्तारसाहबने कुन्दकुन्दका समय वीर निर्वाण संवत् ६०८६९२ के मध्य माना है।
कुन्दकुन्दके समयपर विस्तारसे विचार करनेवाले डॉ. ए. एन० उपाध्ये हैं। उन्होंने अपनी प्रवचनसारको विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावनामें अपनेसे पूर्व प्रचलित सभी मतोंकी समीक्षा करते हुए स्वमतका निर्धारण किया है। डॉ० उपाध्येने अपने मतके निर्णयके हेतु निम्नलिखित तथ्योंपर विचार किया है
१. भद्रबाहुका शिष्यत्व २. श्रुतावतारानुसार षट्खण्डागमका टीकाकारित्व ३. संघभेदानन्तर प्राप्त सूचनाओंका आधारत्व
४. जयसेन एवं बालचन्द्रके उल्लेखानुसार शिवकुमार महराजका समकालीनत्व
५. कुरलकर्तृत्व
१. डॉ. उपाध्येका विचार है कि कुन्दकुन्द दिगम्बर-श्वेताम्बर संघभेद उत्पन्न होनेके पश्चात् ही हुए हैं । यदि वे पहले हुए होते तो अचेलकत्वका समर्थन और स्त्रीमुक्तिका निषेध नहीं करते, यतः संघभेदकी उत्पत्ति चन्द्रगुप्त मौर्यके समकालीन श्वतकेवली भद्रबाहुके समयमें हो चुकी थी। यही कारण है कि कुन्दकुन्दने अपने ग्रन्थोंमें श्वेताम्बर प्रवृत्तियोंका निषेध किया है । १. रलकरस्थावकाचारकी प्रस्तावना पृ० १६१ ।
श्रुतधर और सारस्वताचार्य : १०९