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२. प्रथम तथ्यपर विचार करते हुए कुन्दकुन्दको श्रुतकेवली भद्रबाहुका परम्पराशिष्य माना है । डॉ० उपाध्येने बतलाया है कि दक्षिणमें जो मुनिसंध आया था, उनमें प्रधान भद्रबाहु श्रुतकेवली थे। अतः उनके संन्यासमरणके पश्चात् भी प्रधान गुरुके रूपमें उनकी मान्यता प्रचलित रही। दक्षिणमें जो साधुसंच था उसे धार्मिक ज्ञान उत्तराधिकारके रूपमें भद्रबाहुसे ही प्राप्त हुआ था । अतः सुदूर दक्षिण देशवासी कुन्दकुन्दने उन्हें अपना गुरु माना, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। यह यथार्थ है कि कुन्दकुन्द श्रुतकेवली भद्रबाहुके साक्षात् शिष्य नहीं है, यतः उनका नामोल्लेख अंगधारियोंमें नहीं मिलता है और न ऐसो कोई किवदन्ती हो प्राप्त होती है, जिसके आधारपर कुन्दकुन्दको श्रुतकेवली भद्रबाहुका समकालीन माना जा सके ।
३. श्रुतावतार में आया है कि कोण्डकुन्दपुरके पद्मनन्दिने 'कषायपाहूड' और 'षट्खण्डागम' इन दोनों ग्रन्थोंका ज्ञान प्राप्त किया और षट्खण्डागमके प्रथम तीन खण्डोंपर टीका लिखी, यह तथ्य असंदिग्ध नहीं है । कुन्दकुन्दको ऐसी कोई भी टीका आज नहीं मिलती और न कहीं उसके अवशेष ही मिलते हैं । अतः इन्द्रनन्दिके उक्त कथनका समर्थन अन्य किसी ग्रन्थसे नहीं होता है । विबुध श्रीधर ने अपने श्रुतावतार में लिखा है कि कुन्दको तिने कुन्दकुन्दाचार्य से दोनों सिद्धान्तग्रन्थों का ज्ञान प्राप्त करके 'षट्खण्डागम' के आदिके तीन खण्डोंपर बारह हजार श्लोक प्रमाण 'परिकर्म' नामक शास्त्र लिखा। डॉ० उपाध्येका एक अन्य तर्क यह है कि कुन्दकुन्दकी प्रतिभा मौलिक ग्रन्थोंके सृजनकी ओर हो अधिक है । टीका या टीकाकारिका लिखने की ओर नहीं । अतएव श्रुताबतारके आधारपर कुन्दकुन्दका समय वीर निर्वाण संवत् ६८३ के पश्चात् माना जाना चाहिए, यह कोई सबल प्रमाण नहीं है । सम्भव है कि कुन्दकुन्द इसके पहले हुए हों ।
४. डॉ० उपाध्ये प्रो० चक्रवर्तीके इस तथ्यको समुचित मानते हैं कि शिवकुमार महराज पल्लवराजवंशी हैं । किन्तु पल्लवराजवंशका समय अभीतक अनिर्णीत है । अतएव डा० उपाध्ये डा० पाठकके मतसे असहमत होते हुए प्रो० चक्रवर्ती द्वारा मान्य शिवकुमार महराज और शिवस्कन्दकी एकताको स्वीकार करते हैं ।
५. कुरलकाव्यकर्त्ता के रूप में कुन्दकुन्द की मान्यतापर विचार करते हुए डॉ० उपाध्येने बतलाया है कि कुरलकाव्यका जैन होना सम्भव है, उसमें ऐसे अनेक तथ्य आये हैं जो अन्य धर्मोमें प्राप्त नहीं होते। इस काव्यका समस्त वण्यं विषय जैन आचार और तत्त्वज्ञानसे सम्बद्ध है । अतएव कुरलका कर्त्ता कोई जैन कचि तो अवश्य है, पर माचार्य कुन्दकुन्द है, इसके समर्थन में कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है । कुन्दकुन्दका अन्य नाम एलाचार्य बताया गया है उसकी
११० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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