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उन्होंने बताया है कि चालुक्य नरेश कीर्तिवर्मा शक सं० ५०० में राज्यसिंहासनपर आसीन थे । उन्होंने बादामीको जोता और कदम्ब राज्यवंशको नष्ट कर दिया। अतः यह निश्चित हुआ कि कदम्ब राजवंशका शिवमृगेश वर्मा लगभग ५० वर्ष पूर्व अर्थात् शक सं० ४५० के आस-पास विद्यमान था | बालचन्द्रने पचास्तिकायकी कनड़ो टोका और जयसेनने संस्कृतटोकामें बताया है कि कुन्दकुन्दने शिवकुमार महाराज के सम्बोधन के लिए यह ग्रन्थ लिखा । यह शिवकुमार महाराज कदम्बवंशी शिवमृगेश वर्मा ही प्रतीत होता है । अतः कुन्दकुन्दका समस्य शक स० ४५० ( ई० सन् ५२८) आता है ।
विचार करनेपर डॉ० पाठकका उक मत नितान्त असमोचोन है । आज इस मतको कोई भी प्रामाणिक नहीं मानता है ।
प्रो० ए० चक्रवर्तीने ' डॉ० हारनले द्वारा प्रकाशित सरस्वती- गच्छ को दिग म्बर पट्टावलिके आधारपर कुन्दकुन्दके आचार्यपदपर प्रतिष्ठित होने का काल ई० पूर्व ८ माना है और उनका जन्म ई० पूर्व ५२ बतलाया है । चक्रवर्तीने डॉ० पाठक के मतका विरोध किया है और पौराणिक प्रमाणोंके आधारपर कुन्दकुन्दका पट्टावलि - उल्लिखित समय बतलाया है ।
इन्होने पल्लव राजवंशके शिवस्कन्दको शिवकुमार मानने पर जोर दिया है । क्योंकि स्कन्द और कुमार पर्यायवाची शब्द है। अन्य परिस्थितियोंसे भी उन्होंने एकरूपता सिद्ध की है। पल्लवोंकी राजधानी 'कांजोपुरम्' में थी । ये 'योण्डमण्डलम्' पर शासन करते थे । यह प्रदेश विद्वानोंको भूमि माना जाता था । 'कांजीपुरम्' के शासक ज्ञानके भी संरक्षक थे। ईसाको प्रारम्भिक शताब्दियोसे लेकर आठवीं शताब्दी तक 'कांजीपुरम्' के चारों ओर जनधर्मका प्रचार होता रहा है । इसके अतिरिक्त 'मयोडबोलू' दानपत्रको भाषा प्राकृत है । इस दानपत्रको शिवस्कन्ददर्माने प्रचारित किया है। इसको विषयवस्तु और भाषा मथुराके अभिलेखोंसे मिलती-जुलती है। अतः प्रो० चक्रवर्तीने यह निष्कर्ष निकाला है कि कुन्दकुन्दने जिस शिवकुमार महराजके लिए प्राभृतत्रय लिखे थे, वह सम्भवतः पल्लववंशका शिवस्कन्द वर्मा है ।
आचार्य श्री जुगलकिशोर मुख्तारने* समन्तभद्र के समयविचार- प्रसंग में लिखा है - कुन्दकुन्दाचार्य बोर नि० सं० ६८३ से पहले नहीं हुए, किन्तु पीछे हुए हैं। परन्तु कितने पीछे, यह अस्पष्ट है। यदि अन्तिम आचारांगधारी लोहाचार्यके बाद होनेवाले विनयधारो आदि चार आरातीय मुनियोंका एकत्र समय
१. पंचास्तिकाय के अंग्रेजी अनुवादको प्रस्तावना |
२. रत्नकरण्ड श्रावकाचार की प्रस्तावना, पृ० १५८ - १८७ ।
१०८ : सायंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा