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जयघवलाप्रशस्तिसे अवगत होता है कि वीरसेनकी टोका हो यथार्थ टोका है। शेष तो पद्धति या पंजिका हैं । यथा
टोका श्रीवीरसेनीया शेषाः पद्धति-पत्रिका:'। स्पष्ट है कि वीरसेनस्वामोने अपनी इन विशाल टोकाओंमें सैद्धान्तिक चर्चाओंका पूर्णतया समावेश किया है । समस्त श्रुतज्ञानको ऐसी सुन्दर व्याख्या अन्यत्र मिलना सम्भव नहीं। महाकर्मप्रकृतिप्राभूत और कषायप्राभुतसंबधी बो ज्ञान वीरसेनको गुरुपम्परासे उपलब्ध हुआ, उसे इन दोनों टीकाओंमें यथावत् निबद्ध किया गया है । आगमकी परिभाषामें ये दोनों टीकाएं दृष्टिवादके अंगभूत दोनों प्राभूतोंका प्रतिनिधित्व करती हैं। अतएव इन्हें स्वतन्त्र ग्रन्थांकी संज्ञा दी जा सकती है। यही कारण है कि आज 'षट्खण्डायम' सिद्धांत धवलसिद्धान्तके नामसे और 'पेज्जदोसपाहुड' जयधवलसिद्धान्तके नामसे ख्यात है। ___टोकाकी प्रामाणिकताके लिए वोरसेनाचार्यने समस्त परम्पराके अनुसार ही विवक्षित विषयका प्रतिपादन किया है। यदि उन्हें कहीं किसी भाचार्यका अभिप्राय सूत्रविरुद्ध या परम्पराविरुद्ध प्रतीत हुआ है, तो उन्होंने उसे अग्राह्य घोषित किया है। उदाहरणार्थ द्रव्यप्रमाणसूत्र ७ को व्याख्यामें प्रमत्तसंयतोंका प्रमाण ५९, ३९, ८२,०, ६ बतलाया गया है । इसपर वहाँ शहा की गयी है कि सूत्रमें जब उनका प्रमाण कोटिपृथक्त्व ही निर्दिष्ट किया गया है तब उसे एक निश्चित संख्यामें कैसे गिनाया गया ? इस शंकाके उत्तरमें बताया गया है कि हमने इरो आचार्यपरम्परागत जिनोपदेशसे जाना है। ___यदि वीरसेनको कहीं किसा आचार्यका व्याख्यान सूत्रसे विरुद्ध मालूम हुआ है, तो उसे उन्होंने अप्रमाण बताया है । यथा-परिकर्ममें राजुके अर्धच्छेदोंकी संख्या और द्वीप-सागरसंख्या जम्बूद्वीपके अर्धच्छेदोंसे एक अधिक निर्दिष्ट की गयी है । इस व्याख्यानको सूविरुद्ध बतलाकर अग्राह्य कहा है। (ख) एसा उत्तरपहिवत्ती । एत्य दस अवपिदे दक्षिणपडिबत्ती हवदि ।
-धवला, पु० ३, पृ० ९४ । (ग) एसा दक्षिणपहिवत्ती"एतो उत्तरपडित्ति वत्तइस्सामो ।
वही, ३९८, ९९ । १. जयधवला प्रशस्ति, पद्य ३९ । २. एदत्तियं होदि त्ति कत्र णम्पदे ? आइरियपरंपरागदजिणोवदेसादो।
---अबला पु० ३, पृ०८९ । ३१६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा