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सेनने उन्हें उपनिबन्धनकर्ता कहा है। अतएव इनकी धवला एवं जयघवला टोकाएं वस्तुत: उपनिबन्धन हैं। उपनिबन्धनमें परम्परानुमोदनके साथ जिस विषयका प्रस्तुतीकरण किया जाता है, उस विषय या वस्तुपर उसके स्वरूप, प्रकृति, गुण-दोष आदिको दृष्टिसे तर्कपूर्ण विवेचन या समालोचन भी अपेक्षित होता है। इस टीकामै विचार-प्रगल्भता, अनुभव-शीलता एवं विषयको प्रौढ़ता रहनेके कारण ही इसे उपनिबन्धकी संज्ञा दी गयी है। सांस्कृतिक उपकरणोंका अत्यधिक बाहुल्य है । निमित्त, ज्योतिष एवं न्यायशास्त्रकी अगणित सूक्ष्म और विशेष बातें पायी जाती हैं। इसमें दो मान्यताओंका उल्लेख उपलब्ध होता है-(१) दक्षिण प्रतिपत्ति और (२) उत्तर प्रतिपत्ति'।
दक्षिण प्रतिपत्तिको आचार्य प्रमाण मानते हैं और उत्तर प्रतिपत्तिको वाम, क्लिष्ट एवं आचार्याननुमोदित । टीकामें उक्त दोनों प्रतिपत्तियोंका विवेचन करते हुए लिखा है कि तिर्यञ्च, दो मास और मुहूत्तंपृथकत्वके ऊपर सम्यक्त्व और संयमासंयमको तथा मनुष्य गर्भसे लेकर आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्तके ऊपर सम्यक्त्व, संयम और संयमासंयमको प्राप्तकर सकते है | इस उपदेशको आचार्यपरम्परागत होनेसे उन्होंने दक्षिण प्रतिपत्ति या ऋजु प्रतिपत्ति बतलाया है। इसके विपरीत तिर्यञ्च तीन पक्ष, तीन दिन और तोन अन्तमुहर्तके ऊपर सम्यक्त्व, संयमासंयमको तथा मनुष्य बाठ वर्षके ऊपर सम्यक्त्व, संयमासंयमको प्राप्तकर सकते हैं । इस उपदेशको परम्परागत न होनेके कारण उत्तर प्रतिपत्ति या अनृजु कहा गया है। १. के वि पुवुत्तपमाणं पंचूर्ण कति । एदं पंचूर्ण वक्खाणं पकाइज्जमाणं दक्षिण
माइरियपरंपरागमिदं जं वुत्त होइ । पुन्चुतबक्साणमपयाइज्जमाणं वाउं आइरियपरंपरा-अणागदमिदि णाय......"एसा उत्तरपरिवत्ती । एत्व दस अवणिदे दक्षिण-पडिवत्ती हवदि ।
-धवलाटोका खण्ड १, भाग २, पु० ३, पृ० ९२-९४ । २. एत्थ वे उवदेसा–वं जहा-तिरिक्खेसु वेमास-मुहुत्त-युधस्सुचरि सम्मत्तं संजमा
संजमं च जीयो पहिवजदि । मणुस्सेसु गब्भादिअटु वस्सेसु अंतोमुत्तहिएसु सम्मतं संजमें संजमासंजमं च पहियदि त्ति । एसा दक्षिणपडिबत्ती । दक्षिण उज्जुबं आइरियपरंपरागदमिदि एयट्ठो ।
--धवला, पु. ५. पृ० ३२ । ३, (क) तिरिक्खेसु तिष्णिपक्ख-तिणिदिवस-अंतोमुहुत्तस्सुवरि सम्मत्तं संजमासंजमं च
पडिवज्जदि । मणुस्सेसु अट्ठवस्साणमुवरि सम्मत्तं संजमं संजमासंजम च पस्विजदि त्ति । एसा उत्तरपटिवत्तो उत्तरमगुज्जुवं । बाइरियपरंपराए णागदमिदि।
--धवला, पु. ५, पृ. ३२ ।
ऋतधर और सारस्वताचार्य : ३२५