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नरेशों में जयतुङ्ग उपाधि अनेक राजाओंकी है, पर इनमेंसे प्रथम जयतुङ्ग गोविन्द तृत्तीय थे, जिनके शिलालेख शक संवत् ७१६-७३५ के मिले हैं। अतएव यह अनुमान लगाना सहज है कि धवला टीकाकी समाप्ति इन्हीं गोविन्द तृतीय के समयमें हुई है । डॉ० हीरालालजी जैनने अनेक प्रमाणोंके आधारपर घवलाटीकाका समाप्ति काल शक संवत् ७३८ सिद्ध किया है । आपने लिखा है कि जब जयतुङ्गदेवका राज्य पूर्ण हो चूका था और बोद्दणराय (अमोघ वर्ष) राजगद्दीपर आसीन हो चुका था, उस समय धवलाटीका समाप्त हुई । '
अतः
आचार्य वीरसेनका समय ई० सन् को ९वीं शताब्दि ( ई० सन् ८१६ ) है ।
रचनाएँ
इनको दो ही रचनाएँ उपलब्ध है। इन दोमेंसे एक पूर्ण रचना है और दूसरी अपूर्ण । इन्होंने बहत्तर हजार श्लोकप्रमाण प्राकृत और संस्कृत-मिश्रित भाषा में मणि- प्रवालन्यायसे 'धवला' टीका लिखी है ।
दूसरी रचना 'जयघवला 'टीका है । इस टीकाको केवल बीस हजार श्लोकप्रमाण ही लिख सके थे कि असमयमें उनका स्वर्गवास हो गया । इस तरह वीरसेनस्वामीने बानबे हजार श्लोकप्रमाण रचनाएँ लिखी है । एक व्यक्ति अपने जीवनमें इतना अधिक लिख सका, यह आश्चर्यकी वस्तु है। इन टीकाओंसे वीरसेनकी विशेषज्ञता के साथ बहुज्ञता भी प्रकट होती है। सैद्धान्तिक विषयोंकी कितनी सूक्ष्म जानकारी थी, यह देखते ही बनता है ।
लाटोकाकी रचना करनेका हेतु
इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारसे ज्ञात होता है कि बप्पदेवकी टोकाको देखकर वीरसेनाचार्यको धचलाटीका लिखनेकी प्रेरणा प्राप्त हुई। इस टीकाके स्वाध्याय से वीरसेनने अनुभव किया कि सिद्धान्तके अनेक विषयोंका निर्वचन छूट गया है, तथा अनेक स्थलों पर विस्तृत सिद्धान्त-स्फोटन सम्बन्धी व्याख्याएँ भी मपेक्षत हैं । अतएव इन्होंने एक नयी विवृति लिखनेको परम आवश्यकता अनुभव की । फलतः बप्पदेवकी टीकासे प्रेरणा प्राप्त कर 'घवला' एवं 'जयघवला' नामक टीकाएँ लिखीं ।
टीकासम्बन्धी मौलिकताएँ
वीरसेनाचार्य मूलतः संद्धान्तिक, दार्शनिक और कवि हैं। आचार्य जिन१. वलाटीका समन्चित षट्खण्डागम, प्रथम पुस्तक प्रस्तावना, पृ० ४०–४१ ।
३२४ : वीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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