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वह पुण्यहोन अथवा अल्पपुण्यवाले व्यक्तियोंसे केसे प्रेम करेगी ? कविने इसो को समझाते हुए लिखा है
कत्थ वि ण रमइ लच्छो, कुलीण-धोरे वि पंडिए सूरे।
पुज्जे धम्मि? वि य, सरूप-सुयणे महासत्ते' । अर्थात् यह लक्ष्मी कुलवान, धैर्यवान, पंडित, सुघट, पूज्य, धर्मात्मा, रूपवान, सुजन, महापराक्रमी इत्यादि किसी भी पुरुषसे प्रेम नहीं करती, यह जलको तरंगोंके समान चंचल है । इसका निवास एक स्थानपर अधिक समय तक नहीं रहता। इस प्रकार आचार्य स्वामिकुमारने संसार, शरीर, भोग और लक्ष्मीको अस्थिरताके चिन्तनको अघ्र वानप्रेक्षा कहा है।
अशरण भावनामें बताया है कि मरण करते समय कोई मो प्राणीकी शरण नहीं। जिसप्रकार वनमें सिंह मगके बच्चको जब पेरके नीचे दबा लेता है, तब कोई भो उसकी रक्षा नहीं कर सका देव, , त, जोस आदि सभी मृत्युसे रक्षा करने में असमर्थ हैं। रक्षा करने के लिए जितने उपाय किये जाते हैं, वे सब व्यर्य सिद्ध होते हैं। आयुके क्षय होनेपर कोई एक क्षणके लिए भी आयुदान नहीं सकता
आउषखयेण मरणं आउ' दाउं ण सक्कदे को वि ।
तम्हा देविदो वि य, मरणार ण रक्खदे को' वि आयुकर्मके क्षयसे मरण होता है और आयुकर्मको कोई देने में समर्थ नहीं, अतएव देवेन्द्र भी मृत्युसे किसोको रक्षा नहीं कर सकता है । इस प्रकार अशरणरूप चिन्तनका समावेश अशरण-भावनामें होता है।
संसार-अनुप्रेक्षामें बताया है कि संसार-परिभ्रमणका कारण मिथ्यात्व और कषाय है। इन दोनोंके निमित्तसे ही जीव चारों गतियोंमें परिभ्रमण करता है। हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रा और परिग्रहरूप भावनाके कारण विभिन्न गत्तियोंमें इस जीवको परिभ्रमण करना पड़ता है। आघायंने इस भावनामें चर्तुगतिके दुःखोंका वर्णन भी संक्षेपमें किया है। मनुष्यगतिके हुःखोंका प्रतिपादन करते हुए संसार स्वभावका विश्लेषण विश्लेषण किया है--
कस्स वि दुटुकलितं, कस्स वि दुब्बसणवसनिओ पुत्तो । कस्स वि अरिसमबंधू, कस्स वि दुहिता वि दुचरिया ।।
१. वहीं, गाथा ११ 1 २. स्वामिकुमार, द्वादशानुप्रेक्षा, गाथा २८। । १४० : तीयंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा