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मरदि सुपुत्तो कस्स वि, कस्स वि महिला विणस्सदे इट्ठा | कस्स वि अग्गीपलितं, गिहं कुटुंबं
चडज्झेई' |
संसारमें नहीं है। इस मनुष्यगति में नानाप्रकारके दुःख है । किसीकी स्त्री दुराचारिणी है, किसीका पुत्र व्यसनी है, किमीका भाई शत्रुके समान कलहकारी है । एवं किमीको पुत्रो दुश्चरित्रा है। इस प्रकार संसारकी विषम परिस्थिति मनुष्यको सुखका कण भी प्रदान नहीं करती है ।
किसोके पुत्रका मरा हो जाता है, किसीकी भार्याका मरण हो जाता है और किसीके घर एवं कुटुम्ब जलकर भस्म हो जाते हैं। इसप्रकार मनुष्यगतिमें अनेक प्रकारके दुःखों को सहन करता हुआ यह जीव धर्माचरणबुद्धिके अभाव के कारण कष्ट प्राप्त करता है । मनुष्यगति की तो बात ही क्या, देवगति में भी नानाप्रकारके दुःख इस प्राणीको सहन करने पड़ते हैं । इसप्रकार संसारानुप्रेक्षा में संसार के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप पंचपरावर्तनों का वर्णन आया है ।
एकत्वानुप्रेक्षामें बताया गया है कि जीव अकेला ही उत्पन्न होता है और अकेला ही नाना प्रकार के कष्टों को सहन करता है । नानाप्रकारकी पर्याए यह जोव धारणकर सांसारिक कष्टोंको भोगता है। रोग, शोक जन्य अनेक प्रकारके कष्टोंको अकेला ही भोगता है। पुण्यार्जनकर अकेला ही स्वर्ग जाता है और पापार्जन द्वारा अकेला हो नरक प्राप्त करता है | अपना दुःख अपने को ही भोगना पड़ता है, उसका कोई भी हिस्सेदार नहीं है । इसप्रकार एकत्व भावना में आचार्यने जोवको शरीरसे भिन्न बताया है
सव्वायरेण जाणह, एवकं जावं सरीरदो भिष्णं । जम्हि दु मुणिदे जोवे, होदि असेसं खणे हेय ।।
अर्थात् सब प्रकारके प्रयत्नकर शरीर से भिन्न अकेलं जीवको अवगत करना चाहिये। यह जीव समस्त परद्रव्यों से भिन्न है । अतः स्वयं ही कर्त्ता और भोक्ता है । इसप्रकार एकत्वानुत्र क्षामें अकेले जोवको ही कर्त्ता और भोका होनेके चिन्तनका वर्णन किया है ।
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अन्यत्वानुप्रेक्षामें शरीर से आत्माको भिन्न अनुभव करनेका वर्णन किया है | सभी बाह्य पदार्थ आत्मस्वरूपसे भिन्न हैं। आत्मा ज्ञानदर्शन सुखरूप है और यह संसारके समस्त पुद्गलादि पदार्थोंके स्वरूपसे भिन्न है। इसप्रकार अन्यस्वानुप्रक्षामें आत्मा के भिन्न स्वरूपके चिन्तनका कथन आया है ।
१. स्वामिकुमार, द्वादशानुप्रेक्षा, गाथा ५३-५४ ।
२. वही, माथा ७९ ।
तर और सारस्वताचार्य १४१