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अशुचित्वानुप्रक्षामें शरोरको समस्त अपवित्र वस्तुओंका समूह मानकर विरत डानका संदेश दिया गया है। शरीर अत्यन्त अपवित्र है। इसके सम्पर्क में आनेवाले चन्दन, कपर, केसर आदि सुगन्धित पदार्थ भो दुर्गन्धित हो जात हैं । अतः इसकी अशुचिताका चिन्तन करना अशुचित्वान्प्रेक्षा है ।
आस्रवानप्रक्षामें आस्रवके स्वरूप, कारण, भेद एवं उसके महत्वके चिन्तन का वर्णन आया है। मन, वचन, कायका निमित्त प्राप्तकर जोचके प्रदेशोंका चंचल होना योग हैं, इसीको आस्लच कहते हैं। बन्धका कारण आस्रव है, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगके निमित्तसे बन्ध होता है। यह आसव पुण्य और पापरूप होता है । शुभास्रव पुण्यरूप है और अशुभास्रव पापरूप है। इसी सन्दर्भमें कषायोंके तीव्र और मन्द भेदोंका भी विवेचन आया है। आस्रवानुप्रेक्षामें आस्रवके स्वरूपका विचार करते हुये उससे अलिप्त रहने का उपदेश है। __संवरानुप्रक्षामें संबरके स्वरूप और कारणोंका विवेचन करते हुए सम्यक्त्य, व्रत, गुप्ति, समिति, अनुप्रक्षा, परिगहजय आदिका चिन्तन आवश्यक माना है। इसी सन्दर्भमें आर्त और रोद्र परिणतिके त्यागका भो कथन किया है, जो व्यक्ति इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त होता हुआ संवररूप परिणतिको प्राप्त करता है उसीके संवरभावना होती है।
निर्जराभावनाका विवेचन करते हुये बताया है कि जो अहंकार रहित होकर तप करता है, उसीके निर्जरानुपंक्षा होती है। ख्याति, लाभ, पूजा और इन्द्रियोंके विषयभोग बन्धके निमित्त हैं। निदानरहित सप ही निर्जराका कारण है । आचार्यने प्रारम्भमें हो वैराग्य-भावनाको उद्दीप्तिका वर्णन करते हुए कहा है---
वारसविहेण तवसा, णियाणरहियस्स णिज्जरा होदि ।
वेरग्मभावणादो, णिरहंकारस्स णाभिस्स' ।। निदानरहित, अहंकाररहित, ज्ञानीके बारह प्रकारके तपसे तथा वेगग्य भावनासे निर्जरा होती है। समभावसे निर्जराको वृद्धि होती है। निर्जरा दो प्रकारकी है- सविपाक और अविपाक | कर्म अपनी स्थितिको पूर्ण कर, उदयरस देकर स्विर जाते हैं उसे सबिपाक निर्जरा कहते हैं । यह निर्जरा सब जीवोंके होती है । और तपके कारण जो कर्म स्थिति पूर्ण हये बिना ही खिर जाते हैं, वह अविपाक निर्जरा कहलाती है । सविपाक निर्जरा कार्यकारी नहीं है । अविपाक निर्जरा हो कार्यकारी है । अतएव इन्द्रियों और कषायोंका निग्रह करके परम
१. स्वामिकुमार, द्वादशानुप्रेमा, गापा १०२ ।
१४२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा