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नन्दि- पूज्यपादका है और इसी मंगलाचरणके आधार पर स्वामी समन्तभद्रने 'आस मीमांसा' नामक ग्रन्थकी रचना की है। अतएव इनका समय देवनन्दिपूज्यपाद ( ई० ५वीं शती) के अनन्तर होना चाहिये । प्रेमीजीके इस मतका समर्थन कुछ भिन्न युक्तियों द्वारा आचार्य श्रीसुखलालजी संघवी एवं डॉ० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य भी किया है। पंडित सुखलालजोने समन्तभद्रपर प्रसिद्ध ala तार्किक धर्मको र्तिका प्रभाव अनुमित कर उनका समय धर्मकीर्तिके उपरान्त बतलाया है। पं० महेन्द्रकुमारजीने 'मोक्षमार्गस्य नेतारं ' मंगलाच - रणको देवनन्दि-पूज्यपादका सिद्ध कर उसपर आप्तमीमांसा लिखनेवाले समन्तभद्रका समय उनके बाद अर्थात् छठी शताब्दी माना है ।
किन्तु उल्लेखनीय है कि जैन सिद्धान्त भास्कर भाग ९, किरण १ में 'मोक्षमार्गस्थ नेतारम्' शाकसे जो उन्होंने निबन्ध लिखा था और जिसके आधार पर आचार्य समन्तभद्रका उक्त छठी शताब्दी समय निर्धारित किया था, जिसका उल्लेख न्यायकुमुदचन्द्र के द्वितीय भागको प्रस्तावना में किया था, उसपर डॉ० दरबारोलालजी काठियाने 'तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण' शीर्षक दो विस्तृत निबन्धों द्वारा 'अनेकान्स' वर्ष ५, किरण ६, ७ तथा १०, ११ में गहरा विचार करके 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' मंगलस्तोत्रका तत्वार्थ सूत्रकार आचार्य गृद्धपिच्छका सिद्ध किया है। फलतः डॉ० महेन्द्रकुमारजोने अपने पुराने विचारमें परिवर्तन कर समन्तभद्रका समय सिद्धिविनिश्चयटीका' की प्रस्तावना एवं 'जैन दर्शन' ग्रन्थों में ई० सन् द्वितीय शताब्दी स्वीकार कर लिया है, जो आचार्य मुख्तार आदि विद्वानोंकी दृढ़ मान्यता है ।
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आचार्य श्री जुगलकिशोर जो मुख्तार ने समन्तभद्र के साहित्यका गम्भीर आलोडन कर उनका समय विक्रमको द्वितीय शती माना है। इसके इस मतका समर्थन डॉ० ज्योति प्रसाद जैनने अनेक युक्तियोंसे किया है। उन्होंने लिखा है – स्वामां समन्तभद्रका समय १२० - १८५ ई० निर्मित होता है और यह सिद्ध होता है कि उनका जन्म पूर्वतटवर्ती नागराज्य सघके अन्तर्गत उरगपुर (वर्तमान त्रिचनापल्ला ) के नागवंशी चोल नरेश की लिकवमनुके कनिष्ठ पुत्र एवं
१, न्यायकुमुदचन्द्र भाग २ का प्राक्कथन |
२. न्यायकुमुदचन्द्र भाग २ की प्रस्तावना ।
३. सिद्धिविनिश्चमटीका प्रस्तावना, पृ० १७, भारतीयज्ञानपीठ, सभा जैनदर्शन, १० २२, श्रीगणेयाप्रसाद वर्गी जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी ।
४. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, माणि चन्द्रग्रन्थमाला, स्वामी समन्तभद्र शीर्षक प्रबन्ध, तथा अनेक वर्ष १४, किरण१, पृ० ३-८ ।
भुतघर और सारस्वताचार्य : १८३