________________
उत्तराधिकारी मर्ववर्मन (शेषना) अनुज राजकुमार भारतवर्मनके रूपमें सम्भवसया ई० सन् १२०के लगभग हुमा था, सन् १३८ ई० (पट्टावलि प्रसत्त शक सं०६०)में उन्होंने मनिदीक्षा ली और १८५ ई०के लगभग वे स्वर्गस्थ हुए प्रतीत होते हैं। अतएव समन्तभद्रका समय अनेक प्रमाणोंके आधार पर ईस्वी मन्को द्वितीय शती अवगत होती है।'
इनके चित्रालंकार सम्बन्धी स्तुतिविद्याके आधार पर जो यह कहा जाता है कि समन्तभद्र अलंकृत काव्ययुगके कवि हैं और इनका समय भारविके आस-पास मानना चाहिये । यह तर्क भी अधिक सबल नहीं है। एकाक्षरी या यक्षरी या अन्य चित्रकाव्योंकी परम्परा वैदिक कालसे ही यत्किचित रूप में प्राप्त होने लगती है। दक्षिण भारतमें चित्रकाब्योंकी परम्परा बहुत प्राचीन समयसे चली आ रही है । समन्तभद्ने चित्रकाव्यका प्रयोग उसी परम्पराके आधारपर किया है। अतः उसके आधापर पर उनका समय अर्वाचीन बतलाना युरू नहीं है। अतएव संक्षेपमें समन्तभद्रका समय ई० सन् द्वितीय शताब्दी है और 'माक्षमार्गस्य नेतार'को आचार्य विद्यानन्दने सूत्रकार मृद्धपिच्छका ही मंगलाचरण माना है, सर्वार्थसिद्धिकार पूज्यपाद-देवनन्दिका नहीं । समन्तभरको रचनाएं
संस्कृत काव्यका प्रारम्भ ही स्तुति-काश्यसे हुआ है। जिसप्रकार वैदिक ऋषियोंने स्वानुभूति-जीवनकी जीवन्तधारा और सौन्दयंभावनाको स्तुतिकाव्यको पटभूमिपर ही अंकित किया है, उसीप्रकार स्वामी समन्तमदने भी दर्शन, सिद्धान्त एवं न्यायसम्बन्धी मान्यताओंको स्तुति-काव्यके माध्यमसे अभिव्यक्त किया है । अतएव स्तुतियोंको विभिन्न परम्परामें आद्य जैन स्तुतिकार समन्तभद्रने बौद्धिक चिन्तन और मानवजीवनको प्रोज्जवल कल्पनाको स्तुति-भाग्यके रूपमें हो मूतिमत्ता प्रदान की है। इनके द्वारा रचित स्तुतियोंमें तरल भावनाओंके साथ मस्तिष्कका चिन्तनभी समवेत है। समन्तभद्र द्वारा लिखित निम्नलिखित रचनाएँ मानी जाती हैं१. बृहद स्यम्भूस्तोत्र २. स्तुतिविद्या-जिनशतक । ३. देवागमस्तोत्र-आसमीमांसा ४. युक्त्यनुशासन ५. रत्नकरण्डकश्रावकाचार १. अनेकान्त, वर्ष १४, किरण ११-१२, १० ३३४ । १८४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी माघार्य-परम्परा