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६. जीवसिद्धि
७. तत्त्वानुशासन
८ प्राकृतव्याकरण ९. प्रमाणपदार्थ
१०. कर्मप्रामुतटीका ११. गन्धहस्तिमहाभाष्य
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१. बृहत् स्वम्भूस्तोत्र — इसका अपर नाम स्वम्भूस्तोत्र अथवा चतुर्विंशति स्तोत्र मी' है। इसमें ऋषभदेवसे लेकर महावोर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकरों की क्रमशः स्तुतियाँ है । इस स्तोत्रके भक्तिरसमें गम्भीर अनुभूति एवं तर्कणायुक्त चिन्तन निबद्ध है । अतः इसे सरस्वत्तोकी स्वच्छन्द विहारभूमि कहा जा सकता है। इस 'स्तोत्र' के संस्कृत टीकाकार प्रभाचन्द्र ने इसे 'नि:शेषजिनोगतधर्म' कहा है। इसमें कुल पद्योंकी संख्या निम्न प्रकार है
१. श्री ऋषभजिन स्तवन, पद्य ५ २ श्रीअजितजिन स्तवन, पद्य ५, ३. श्री सम्भवजिन स्तवन, पद्य ५, ४. श्रीअभिनन्दनजिन स्तवन पद्य ५, ५. श्रोसुमति जिन स्तवन पद्य ५, ६ श्रीपद्मप्रभजिन स्तवन पद्य ५, ७. श्री सुपार्श्वबन स्तवन पद्य ५, ८. श्रीचन्द्रप्रभजिन स्तवन पद्य ५, ९ श्रसुबिधजिन स्तवन पद्य ५, १०. श्रीशीतलजिन स्तवन पद्य ५, ११. श्री श्रंयोजिन स्तवन पद्य ५, १२. श्रीवासुपूज्यजिन स्तवन पद्य ५, १३. श्रीविमल जिनस्तवन पद्य ५, १४. श्रीमनन्तजिन स्तवन पद्य ५ १५ श्री मंजिन स्तवन पद्य ५, १६. श्रीशान्तिजिन स्तवन पद्य ५, १७. श्री कुन्थुजिन स्तवन पद्य ५, १८. श्रीअरजिन स्तवन पद्य २०, १९ श्री मल्लिजिन स्तवन पद्य ५, २० श्रीमुनिसुव्रतजिन स्तवन पहा ५,२१. श्रीनमिजिन स्तवन पद्य ५, २. श्रीअरिष्टनेमिजिन स्तवन पद्य १०, २३. श्री पाश्र्वजिन स्तवन पद्म ५, २४. श्रीवीरजिन स्तवन पद्य ८ = १४३ |
इस स्तोत्रमें कविने प्रबन्ध-पद्धति के बीजोंको निहित कर इतिवृत्त सम्बन्धी अनेक तथ्योंको प्रस्तुत किया है। प्रथम तीर्थंकरको प्रजापतिके रूपमें असि, मषि, कृषि, सेवा, शिल्प और वाणिज्यका उपदेश कहा है। इस स्तोत्रमें बाये हुए 'निर्दयभस्मसात्क्रियाम् पदसे सम्मतः आचार्यने अपनी भस्मक व्याधिका संकेत किया है तथा सम्भवनाथको स्तुतिमें सम्भवजिनको वैद्यका रूपक देकर अपनी जीवनघटनामोंको ओर संकेत किया है। इसी प्रकार “यस्याङ्ग- लक्ष्मी - परिवेश भिन्नं
१. अनुवादक और सम्पादक श्री पंडित जुगलकिशोर मुख्तार 'युमवीर', प्रकाशक वीर मन्दिर २१ दरियागंज दिल्ली ।
श्रुतभर और सारस्वताचार्य : १८५