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प्रतिपादक निश्वयनयको हो भूतार्थ तमा कवहारको हेग मानती है। यहाँ एमा निश्चय ही मोक्षमार्ग है, व्यवहार नहीं। इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्दने आध्यात्मिक और शास्त्रीय दृष्टियोंका विश्लेषण एवं विवेचनकर आत्मतत्त्वका निरूपण किया है। इन दोनों दष्टियोंके सम्बन्ध में सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने लिखा है-“शास्त्रीय दृष्टि वस्तुका विश्लेषण करके उसकी तह तक पहुँचनेकी चेष्टा करती है। उसकी दृष्टिमें निमित्तकारणके व्यापारका उत्तना ही मूल्य है, जितना उपादानकारणके व्यापारका और परसंयोग-जन्य अवस्था भो उतनी ही परमार्थ है, जितनी स्वाभाविक अवस्था । जैसे उपादानकारणके बिना कार्य नहीं होता, वैसे ही निमित्तकारणके बिना भी कार्य नहीं होता । अतः कार्यकी उत्पत्तिमें दोनोंका समव्यापार है.......'शास्त्रीय दृष्टिका किसी वस्तु-विशेषके साथ कोई पक्षपात नहीं है।"
"शास्त्रीय दृष्टिके सिवाय एक दृष्टि आध्यात्मिक भी है । इसके द्वारा आत्मतत्त्वको लक्ष्यमें रखकर वस्तुका विचार किया जाता है ।"
अतएव संक्षेपमें कुन्दकुन्दका अपूर्व पाण्डित्य, उनकी शास्त्रग्रथन-प्रतिभा एवं सिद्धान्त ग्रन्थोंके सार-भागको आध्यात्मिक और द्रव्यानुयोगके रूपमें प्रस्तुतोकरण आदि उनको विशेषताएँ हैं । आचार्य बट्टकेर और उनका साहित्य __ आचार्य वट्टकेर कुन्दकुन्दाचार्यसे भिन्न हैं या अभिन्न, इस सम्बन्धमें मतभेद है। श्री जुगलकिशोर मुख्तारने इन्हें कुन्दकुन्दसे अभिन्न माना है। डॉ. ज्योतिप्रसाद भी इसी मतके समर्थक हैं ।। ___ डॉ० हीरालाल जैनने वट्टकेरको कुन्दकुन्दसे भिन्न स्वीकार किया है । उन्होंने लिखा है-“वट्टकेरस्वामीकृत. मूलाचार दिगम्बर सम्प्रदायमें मुनिधर्मके लिए सर्वोपरि प्रमाण माना जाता है। कहीं-कहीं यह ग्रन्थ कुन्दकुन्दाचार्यकृत भी कहा गया है । यद्यपि यह बात सिद्ध नहीं होता, तथापि उससे इस अन्य के प्रति समाजका महान् आदरभाव प्रकट होता है।"
१. कुम्बकुन्दप्रामतसंग्रह प्रस्तावना, पृष्ठ-८२ । २. वही, पृष्ठ-८३ ३. भारतीय संस्कृति में जैनधर्मका योगदान, प्रकाशक, मध्यप्रदेश शासन-साहित्य परिषद्,
मोपाल, पृष्ठ १०५ ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ११७