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२०. गिव्याणभत्ति--इस भक्तिपाठमें २७ गाथाएं हैं। इनमें निर्वाणका स्वरूप एवं निर्वाणप्राप्त तीर्थंकरोंकी स्तुति की गयी है।
२१. पंचगुरमति–इस भक्तिपाठमें सात पद्य हैं। प्रारम्भिक पांच पचोंमें क्रमशः अर्हत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साघु इन पाँच परमेष्ठियोंका स्रावन है। छठे पद्यमें स्तवनका फल अङ्कित है। सप्तम पद्यमें इन पांच परमेष्ठियोंका अभिषान पंच नमस्कारमें किया है।
२२. थोस्सामि थुदि (तिस्थयर-भात) योस्सामि पदसे आरम्भ होनेवाली अष्टगाथात्मक स्तुति है । इसे तीर्थकर-भक्ति भी कहा गया है। इस स्तुतिपाठमें वृषभादि वर्धमान पर्यन्त चतुर्विशति तीर्थंकरोंकी उनके नामोल्लेखपूर्वक वन्दना की गई है और तीपंकरोंके लिए जिन, जिनवर, जिनेन्द्र, केवली, अनन्तजिन, लोकहित, धर्मतीर्थकर, विधूतरजोमल, लोकोद्योतकर आदि विशेषणोंका प्रयोग किया गया है । अन्तमें समाधि, बोधि और सिद्धिकी प्रार्थना की गयी है। ____ इस भक्तिपाठके कतिपय पद्य श्वेताम्बर सम्प्रदायके पद्योंके समान हैं । और कुछ भिन्न हैं । यथा--
लोयस्सुज्जोययरे धम्म-तिस्थंकरे जिणे वंदे । अरहते कित्तिस्से चवीसं चेव केवलिणे !! --दिगम्बर पाठ लोगस्स उज्जोअगरे घम्मतित्थयरे जिणे ।।
अरहते कित्तइस्सं चउवीसं पि केवली ।। -श्वेताम्बर पाठ इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द अपूर्व प्रतिभाके धनी और शास्त्रपारंगत। विद्वान् हैं। इन्होंने पंचास्तिकाय और प्रवचनसारमें आध्यात्मिक दृष्टिके साथ ! शास्त्रीय दृष्टिको भी प्रश्रय दिया है। अतएव इन दोनों ग्रन्थोंमें द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नयोंका भी वर्णन प्राप्त होता है। सम्यक्दर्शनके विषयभूत जीवादि पदार्थो का विवेचन करनेके लिए शास्त्रीय दष्टिको अंगीकृत किये बिना कार्य नहीं चल सकता। अतएव द्रव्याथिक नयसे जहां जीवके नित्य--अपरिणामी स्वभावका वर्णन किया जाता है, महाँ पर्यायाथिक नयको अपेक्षासे जीवके अनित्य-परिणामी स्वभावकर भी वर्णन रहता है। यों तो द्रव्य-गुण और पर्यायोंका एक अखण्ड पिण्ड है, तो भी उनका अस्तित्व प्रकट करने के लिए भेदको स्वीकार किया जाता है ।
आचार्य कुन्दकुन्दने समयसार और नियमसारमें आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मस्वरूपका विवेचन किया है । इस दृष्टिमें गुणस्थान और मार्गणाओंके मेदोंका अस्तित्व स्वीकृत नहीं रहता । यह दृष्टि परनिरपेक्ष आत्मस्वभावको और उसके ११६ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा