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डॉ० जेनके उक्त उद्धरणसे दो निष्कर्ष उपस्थित होते हैं ।
१. श्रद्धा, भक्ति और मान्यताके अतिरेकके कारण मूलाचारके कर्त्ता कुन्दकुन्द मान लिये गये हैं । कुन्दकुन्द दिगम्वर परम्परा के युगसंस्थापक और I युगातरकारी आचार्य हैं, असएव चट्टकेर के नामपर उत्तरवर्ती साक्षियोंमें मूलाचारका नाम निर्देश कर दिया।
२. मूलाधार दिगम्बर परम्पराका आचारांग ग्रन्थ है। इसी कारण इस ग्रन्थका सम्बन्ध कुन्दकुन्दसे जोड़ा गया है । वट्टकेर आचार्यकी अन्य कृतियाँ उपलब्ध नहीं होतीं । अतएव इतने महान् ग्रन्थका रचयिता इनको स्वीकार करने में उत्तरवर्ती लिपिकारोंको आशंका हुई ।
आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारते माणिकचन्द दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला में प्रकाशित सटीक मूलाचार प्रतिकी पुष्पिकाके आधारपर इस ग्रन्थको कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत बतलाया है । पुष्पिका निम्न प्रकार है
"इति मूलाचारविवृतौ द्वादशो अध्यायः । कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीतमूलाचाराख्यविवृतिः । ऋतिरियं वसुनन्दिनः श्रीश्रमणस्य " ।
इस पुष्पिका के आधारसे श्रीजुगलकिशोर मुख्तार बट्टकेरको कुन्दकुन्दसे अभिन्न मानते हैं ।
डॉ० ए० एन० उपाध्येने अपनी प्रवचनसारकी महत्त्वपूर्ण प्रस्तावनामें मूलाचारको दक्षिण भारतकी पाण्डुलिपियोंके आधारपर कुन्दकुन्दकृत लिखा है । पर एक निवन्धमें" मूलाचारको संग्रह-ग्रन्थ सिद्ध किया है, और इसके संग्रहकर्त्ता सम्भवतः वट्टकेर थे, यह अनुमान लगाया है।
आचार्य वसुनन्दिने मूलाचार की संस्कृत टीका लिखी है और इस टीकाकी प्रशस्ति में इस ग्रन्थ के कर्ताको वट्टकेर, वट्टकेर्याचार्यं, तथा वट्टं रकाचार्य के रूपमें उल्लिखित किया है । इन नामोंमें पहला नाम टीका के प्रारम्भिक प्रस्तावना वाक्यमें, दूसरा नवम, दशम और एकादश अधिकारोंके सन्धिवाक्योंमें और तृतीय नाम सप्तम अधिकारके सन्धिवाक्य में पाया जाता है ।
यह सत्य है कि वट्टकेर नामका समर्थन न तो किसी गुर्वावलिसे होता है, न पट्टालिसे, न अभिलेखोंसे और न ग्रन्थ- प्रशस्तियोंसे ही । इसी कारण श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीने अपने एक निबन्धमें इस समस्याका समाधान प्रस्तुत करनेका प्रयास किया है। उन्होंने बताया है कि दक्षिण भारत में वेट्टगेरि या वेट्ट्केरी
१. प्राथ्य-विद्या-सम्मेलन, अलीगढ़ (च० प्र० ) में पठित
२. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १२, किरण १ ० ३८ ।
११८: तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा