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नामके ग्रामका अस्तित्व पाया जाता है। अतः इस ग्रामके निवासी होनेके कारण मलागार कार्याको गहतोर स मेहरि कहा गया होगा। जिस प्रकार कोण्डकुन्दपुरके रहनेवाले होनेसे कुन्दकुन्द नाम प्रसिब हुआ, उसी प्रकार वेट्टकेरिके रहनेवाले होनेसे मूलाचारके कर्ता वट्टकेर कहलाये । अतः मूलाचार कुन्दकुन्दको रचना नहीं है और न वट्टकेर हो कुन्दकुन्दसे अभिन्न हैं।
श्रीजुगलकिशोर मुख्तारने अपना अभिमत प्रकट करते हुए लिखा है कि"वदकका अर्थ वर्तक-प्रवर्तक है, इर गिरा, वाणी, सरस्वतीको कहते है, जिसको वाणी प्रवत्तिका हो-जनतामें सन्मार्ग सथा सदाचारमें लगानेवाली हो-उसे बढ़कर समझना चाहिये । दूसरे, बट्टकों-प्रवर्तकोम जो 'इरि' गिरि, प्रधान, प्रतिष्ठित हो, अथवा ईरि-समर्थ-शक्तिशाली हो, उसे वट्टकरि जानना चाहिए । तीसरे चट्ट नाम वत्तंन-आचरणका है और 'ईरक' प्रेरक तथा प्रवर्तकको कहते हैं, सदाचारमें वो प्रवृत्ति करानेवाला हो उसका नाम वट्टकेर' है" । इस प्रकार मुख्तार साहबने थट्टकेरका अर्थ प्रवर्तक, प्रधानपदपर प्रतिष्ठित अथवा श्रेष्ठ आचारनिष्ठ किया है, और इसे कुन्दकुन्दाचार्यका विशेषण बतलाया है । अतएव इनके मतसे कुन्दकुन्द ही वट्टकेर हैं।
उपयुक्त मत-भिन्नताओंके आलोक में मूलाचारका अध्ययन करनेसे ज्ञात होता है कि वट्टकेर एक स्वतन्त्रबाचार्य हैं और ये कुन्दकुन्दाचार्यसे भिन्न हैं । ग्यारहवीं शताब्दोके विद्वान् वसुनन्दिने वट्टकेरका उल्लेख स्पष्ट रूपसे किया है। अतः इस ग्रन्थके रचयिता आचार्य वट्टकेर हैं और वं आचार्य कुन्दकुन्दसे भित्र सम्भव हैं । समय-निर्धारण और अन्धकी मौलिकता।
बट्टकरके सम्बन्धमें अभी तक पट्टालि, गुर्वावलि, अभिलेख एवं प्रशस्तियोंमें सामग्री उपलब्ध नहीं हो सकी है। अत: निश्चित रूपसे उनके समयके सम्बन्धमें कुछ भी नहीं कहा जा सकता है । मूलाचारको विषयवस्तुके अध्ययनसे इतना स्पष्ट है कि यह ग्रस्थ प्राचीन है। इससे मिलती-जुलती अनेक गाथाएँ श्वेताम्बर प्राचीन सुत्रग्रन्थ दशवेकालिकमें भी उपलब्ध हैं। प्रत्येक प्रकरणके आदिमें मंगलस्तवनके अंकित रहनेसे इसे संग्रह-ग्रन्थ होनेका अनुमान किया जाता है, पर हमारी नम्र सम्मतिमें यह संग्रह-ग्रन्थ न होकर स्वतंत्र ग्रन्थ है। प्रत्येक प्रकरणके आदि अथवा प्रन्यके आदि, मध्य और अन्समें मंगलस्तवन लिखनेकी प्रथा प्राचीन समयमें स्वतन्त्ररूपसे लिखिप्त ग्रन्थों में वर्तमान पी । तिलोयपण्णत्तीमें इस प्रथाको देखा जा सकता है । मोम्मटसारके आदि, मध्य और अन्तमें भी मंगलस्तवन निबद्ध है। १. बैन साहित्य इतिहासपर विशद प्रकाश, १० १०० । २. गोम्मटसार कर्मकाण्ड और तिलोयपपपत्तो ।
श्रुदघर और सारस्वताचार्य : ११९